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विभिन्न रामायण एवं गीता >> अवधूत गीता

अवधूत गीता

नन्दलाल दशोरा

प्रकाशक : रणधीर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9294
आईएसबीएन :8186955739

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दत्तात्रेय कृत
अवधूत गीता

अ+व+धू+त = अवधूत

अ = आशा रहित, आदि से निर्मल तथा जो आनन्द में मग्न रहता है।

व = वासना का त्याग, वक्तव्य दोष रहित तथा जो वर्तमान में ही रहता है।

धू = धूलिधूसिरत अंग (अर्थात विलासिता एवं श्रृंगार रहित)

धूत्तचित्त, (निर्मल जिसका चित्त है) तथा धारणा-ध्यान से जो मुक्त है।

त = तत्व चिन्ता में निमग्न, चिन्ता एवं चेष्टा से रहित, जिसने तम रूपी अहंकार का त्याग किया है।

गुण हीरे के सदृशा है जिसे विष्ठा में पड़े होने पर भी कोई व्यक्ति उसे नहीं छोड़ता, उसी प्रकार अपवित्र व्यक्तियों में जो गुण हैं उन्हें ग्रहण कर लेना चाहिए। (२/१)

घड़े के भीतर का आकाश और बाहर के आकाश में भिन्नता नहीं है किन्तु यह भिन्नता घड़े के कारण होती है कि दोनों भिन्न हैं। जब ब्रह्मवेत्ता योगी का यह शरीर नष्ट हो जाता है तो उसके भीतर का चेतन तत्व उस विश्वात्मा में लीन हो जाता है। (२/२५)

भूमिका

भारतीय अध्यात्म में वेदान्त का सर्वोपरि स्थान है, जिसका सार अद्वैत है। भारत के शीर्ष अध्यात्म ग्रन्थों-वेद, उषनिषद्, रोग वशिष्ठ, अष्टावक्र गीता, भगवद् गीता, ब्रह्मसूत्र आदि में इसी का विवेचन हुआ है। दुनिया के श्रेष्ठतम ज्ञानियों, लाओत्से, सूफी, थियोसोफी आदि ने भी इसी ज्ञान को प्रामाणिक माना है।

इस दर्शन के अनुसार यह सम्पूर्ण जड़-चेतन जगत एक ही मूल तत्व ब्रह्म की अभिव्यक्ति मात्र है। यह ब्रह्म वैज्ञानिकों की ऊर्जा की भाँति जड़ नहीं बल्कि चेतन है। उस चेतन से ही जड़ प्रकृति की अभिव्यक्ति हुई है तथा यह समस्त दृश्य जगत इस जड़ एवं चेतन शक्ति का विस्तार मात्र है इसलिए यह सम्पूर्ण जड़-चेतनात्मक जगत उस ब्रह्म से भिन्न नहीं है बल्कि उसी के भिन्न-भिन्न रूप मात्र हैं। ये सभी दृश्य पदार्थ स्थूल होने से प्रत्यक्ष हैं जिससे मनुष्य इन्हीं को अज्ञानवश सत्य समझ कर इन्हीं के भोग में व्यस्त रहता है जबकि वह चेतन तत्व सूक्ष्म होने से मन एवं इन्द्रियों का विषय नहीं है जिससे अज्ञानी उसको जानने से वंचित रहे हैं। इसी अज्ञानता के कारण मनुष्य ने अपनी-अपनी बुद्धि से सृष्टि को जानने का प्रयत्न किया जिससे वे इस परम सत्य को उपलब्ध न हो सके। इसी कारण संसार में विभिन्न धर्मों का जन्म हुआ। ये ही धर्म अपनी धार्मिक संकीर्णता के कारण विभिन्न सम्प्रदायों में विभक्त हुए तथा अनेक मत एवं पंथों का निर्माण किया जिससे यह संसार धर्म के नाम पर विभिन्न गुटों में बँट कर रह गया। इन अज्ञानियों के ही कारण यह सम्पूर्ण जगत खण्ड-खण्ड में विभाजित होकर रह गया। सृष्टि का समग्र रूप जैसा वेदान्त ने प्रतिपादित किया वह सामने न आ सका। हन्हीं अज्ञानी गुरुओं ने छः अन्धों की भाँति पूर्ण हाथी को न जानकर उसके एक-एक अंग की व्याख्या कर दी तथा उनके अज्ञानी शिष्य उन्हीं की वाणी को सत्य मानकर केवल उसी को सत्य कहने का दुराग्रह कर संसार को भ्रमित करते रहे जिससे यह संसार अज्ञान में ही भटकता रहा, सृष्टि का सत्य स्वरूप प्रकट नहीं हो सका जो संसार के लिए अभिशाप बन गया।

यह वैसा ही है जैसै ‘गिरा अनयन नयन बिनु बानी।’ जो देखा देखा गया है उसे कहा नहीं जा सकता तथा जो कहा गया है वह सत्य नहीं है। लाओत्से इस ज्ञान को उलब्ध हुए। उन्होंने भी कहा कि, ‘‘सत्य को कहा नहीं जा सकता तथा जो कहा जा सकता है वह सत्य नहीं है।’’ सत्य की अभिव्यक्ति असम्भव है। सत्य स्वरूप को न जानने के कारण ही आज दुनिया में धर्म के नाम पर अपनी विकृत मानसिकता का ही पोषण हो रहा है जो अमृत नहीं विष का कार्य ही कर रहा है। अन्धों की दुनिया में आँख वाले की बात कौन सुनता है। अज्ञान में भटकता हुआ व्यक्ति ज्ञान की गरिमा को कैसे स्वीकार कर सकता है।

इस सम्पूर्ण सृष्टि का एक ही सत्य है। दो सत्य कभी होते नहीं और वह सत्य है-यह सृष्टि अखण्ड है, एक ही है, समग्र है। इसमें सर्वत्र एकत्व है। इसे खण्ड में विभाजित नहीं किया जा सकता। सृष्टि में दिखाई देनेवाले विभिन्न रूप उस एक ही परम तत्व के विभिन्न रूप मात्र है। ये रूप बनते एवं बिगड़ते रहते हैं किन्तु इनका मूल तत्व सर्वदा एक रूप रहता है तथा वहीं सत्य है, अन्य सभी मिथ्या एवं भ्रम मात्र हैं। जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग शरीर से भिन्न नहीं हैं, उसी प्रकार यह सृष्टि उस परम चेतन से भिन्न नहीं है। सृष्टि में इन भिन्नताओं को देखना ही अज्ञान है तथा इसमें एकता देखना ही ज्ञान है। यही ज्ञान अद्वैत का अनुभव है जो न कोई सिद्धान्त है न किसी कवि की कल्पना है बल्कि यही इस सृष्टि का परम सत्य है जिसकी अभिव्यक्ति अनेक ज्ञानियों द्वारा हुई है।

संसार के सभी दृश्य पदार्थ जड़ प्रकृति द्वारा निर्मित हैं जिनका निर्माण उस चेतन तत्व से हुआ है तथा वही चेतन तत्व सबके भीतर उपस्थित रहकर उसका नियन्त्रण एवं नियमन कर रहा है। इसके अनुसार मनुष्य के भीतर का वह वेतन तत्व जिसे आत्मा नाम से सम्बोधित किया जाता है वह उसी परम चेतन ब्रह्म अथवा समष्टि चेतन का ही अंश है। इसी ज्ञान प्राप्ति के बाद उसे सृष्टि में एकत्व दिखाई देता है जो पूर्ण ज्ञान है।

दत्तात्रेय जी इसी ज्ञान को उपलब्ध हुए जिससे वे आत्मा को अपना स्वरूप मानकर अद्वैत में स्थित हुए। उनका समस्त द्वैतभाव नष्ट हुआ। इसी अद्वैत का जैसा वर्णन इस ग्रन्थ ‘अवधूत गीता’ में है वैसा अन्य किसी वेदान्त ग्रन्थ में नहीं मिलता। वेदान्त का सार रूप यह ग्रन्थ दत्तात्रेय जी की अमर कृति है जिसका पानकर व्यक्ति अमृत तत्त्व को उपलब्ध हो सकता है। यह एक अनुकरणीय ग्रन्थ है।

- नन्दलाल दशोरा

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