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कह देना

अंसार कम्बरी

प्रकाशक : माण्डवी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9386
आईएसबीएन :000

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय

जैसा कि आप सभी जानते हैं ग़ज़ल आज भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे ज़ियादा हरदिल -अज़ीज काव्य-विधा है। यद्यपि ग़ज़ल मूल रूप से अरबी भाषा की काव्य-विधा है जो अरबी से फारसी और इसके बाद उर्दू का सफ़र तय करके हिन्दी में आई तो भी यह रंग-रूप-आकार सौन्दर्य से रही ग़ज़ल ही इसलिए भले ही किसी भी भाषा में कहा जाये लेकिन ग़ज़ल सिर्फ़ ग़ज़ल है।

देश के जाने-माने मक़बूल शाइर मोहतरम अंसार क़म्बरी साहब की ग़ज़लों के विषय में कुछ भी कहना किसी भी आम-फ़हम इन्सान या बड़े असातजा के लिए निहायत दूभर कार्य है क्योंकि अंसार साहब की फ़िक्र का दायरा इतनी बड़ा है कि कहीं किसी एक रंग या सोच तक महदूद रखना मुश्किल है। अंसार साहब जब विशुद्ध हिन्दी के दोहे कहते हैं तो कोई नाम न बताये तो उन दोहों में और कबीर रहीम के दोहों में आप ख़ास फ़र्क़ नहीं महसूस कर पायेंगे और बात ग़ज़ल की हो तो कम से कम हिन्दोस्तान से ग़ज़लों की नुमाइन्दगी करने वाली फ़ेहरिस्त बिना अंसार क़म्बरी साहब का नाम ऊपरी सफ़ में दर्ज किये बिना सम्पूर्ण नहीं हो सकती।

( 1 )

हमसे मत पूछिये अब किधर जायेंगे
थक गये हैं बहुत अपने घर जायेंगे

कितने प्यासे हैं हम ये बता दें अगर
बहते धारे नदी के ठहर जायेंगे

शीश महलों में हमको न ले जाइये
आईने देख लेंगे तो डर जायेंगे

मौत के डर से नाहक परेशान हैं
आप ज़िंदा कहाँ हैं जो मर जायेंगे

‘क़म्बरी’ आप का इक ठिकाना तो है
जिनका घर ही न हो दो किधर जायेंगे

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