Footpath Par Kaamasutra - Hindi book by - Abhay Kumar Dubey - फुटपाथ पर कामसूत्र - अभय कुमार दुबे
लोगों की राय

नारी विमर्श >> फुटपाथ पर कामसूत्र

फुटपाथ पर कामसूत्र

अभय कुमार दुबे

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :324
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9387
आईएसबीएन :9789352293599

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

127 पाठक हैं

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नारीवाद स्त्री-पुरुष समानता की ही नहीं, भिन्नता की दावेदारी भी करता है। स्त्री…पुरुष की भिन्नता का बुनियादी आधार जैविक है जिससे सेक्शुअलिटी-विमर्श जन्म लेता है। नारीवाद इस विमर्श से गुँथा हुआ है। एक की दूसरे के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती। अगर भारतीय समाज में रिश्तों के धरातल पर होने वाले परिवर्तनों को समझना है तो हमें नारीवाद द्वारा भिन्नता के ज़रिये संसाधित होने वाली समानता और सेक्शुअलिटी के हाथों बनते जा रहे स्त्री और पुरुषों के मानस का संधान करना ही होगा। अगर यह काम उन्नीसवीं सदी द्वारा थमायी गयी राष्ट्रवाद, उदारता, सेकुलरवाद और मार्क्सवाद जैसी विचारधाराओं के औज़ारों से सम्भव होता तो फिर नारीवाद की ज़रूरत ही न पड़ती।

नारीवाद स्त्री-पुरुष समानता की ही नहीं, भिन्नता की दावेदारी भी करता है। जब समानता के आग्रह भिन्नता के माध्यम से संसाधित होते हैं तो एक जटिल विमर्श पैदा होता है जिसकी अभिव्यक्ति हिंदी की कुछ नारीवादी विदुषियों में तो दिखाई पड़ती है, पर सांस्कृतिक राजनीति के प्रचलित दायरे से अभी यह अनुपस्थित ही है। स्त्री-पुरुष की भिन्नता का बुनियादी आधार जैविक है जिससे सेक्शुअलिटी-विमर्श जन्म लेता है। हिंदी-जगत के शुद्धतावादियों ने तिरस्कार के साथ इस पर देह-विमर्श की संज्ञा थोपने का प्रयास किया है, मानो स्त्री इसके माध्यम से उन्मुक्त यौन-विचरण की आज़ादी माँग रही हो। वे यह देखने के लिए तैयार नहीं है कि सेक्शुअलिटी का मतलब केवल यौनिक आनंद नहीं है। यौनिक कामनाएँ तो उसका केवल एक महत्त्वपूर्ण घटक हैं। उसका सम्पूर्ण विमर्श अंतरंग जीवन की आचरणगत विविधता, आधुनिकता और बाज़ार के हाथों बनने वाली कामना और पारम्परिक नैतिक-मूल्यों के बीच मन में होने वाले द्वंद्व और उस आधार पर बनने वाले आत्म या इयत्ता से मिल कर विकसित होता है। सामाजिक संरचनावादी रवैया अपनाये बिना सेक्शुअलिटी की इन जटिल निर्मितियों को नहीं समझा जा सकता, और न ही इसकी उपेक्षा करके नारीवादी विमर्श के विकास से सूचित हुआ जा सकता है।

नारीवाद और सेक्शुअलिटी एक-दूसरे से गुँथे हुए हैं। एक की दूसरे के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती। अगर भारतीय समाज में रिश्तों के धरातल पर होने वाले परिवर्तनों को समझना है तो हमें नारीवाद द्वारा भिन्नता के ज़रिये संसाधित होने वाली समानता और सेक्शुअलिटी के हाथों बनते जा रहे स्त्री और पुरुषों के मानस का संधान करना ही होगा। इस पुस्तक में कुछ एथ्नोग्राफ़िक नोट्स, कुछ विश्लेषण और कुछ विवरण सम्मिलित हैं जिनके ज़रिये भारतीय समाज में निजी और अंतरंग धरातल पर बनने वाले मानवीय रिश्तों की आधुनिक गतिशीलता रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। इसमें साहित्य और पत्रकारिता को एक प्रमुख स्रोत के रूप में अपनाया गया है। पिछले पच्चीस साल के दौरान हिंदी में लिखे गए उपन्यासों और आत्मकथाओं में ऐसी कई कृतियाँ शामिल हैं जो नारीवाद और सेक्शुअलिटी के परिष्कृत निरूपण के लिहाज़ से अनूठी हैं। हिंदी और अंग्रेज़ी की पत्र-पत्रिकाओं से बाज़ार, रोज़गार और निजी जीवन में होने वाले परिवर्तनों की झलक मिलती है। देखने वाली आँख निरंतर विशाल और विविध होते हुए मीडिया के भीतर झाँक कर कई अनचीन्ही बातें खोज सकती है। यह सामग्री किसी नये सिद्धांत की तरफ़ ले जाने का दावा तो नहीं करती, लेकिन यदि पाठकों ने इसका सहानुभूतिपूर्वक अनुशीलन किया तो शायद उन्हें इसके भीतर एक नयी दृष्टि की सम्भावना ज़रूर दिख सकती है।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book