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गीता प्रेस, गोरखपुर >> हम कैसे रहें

हम कैसे रहें

लालबिहारी जी मिश्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 943
आईएसबीएन :81-293-0197-0

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प्रस्तुत है हम कैसे रहें...

Hum Kaise Rahen a hindi book by Lal Bihari ji Mishra - हम कैसे रहें - लालबिहारी जी मिश्र

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्रीहरि:।।

निवेदन

संसार में रहने की भी एक कला है। इस कला को जो समझने का प्रयास करता है और इसके अनुसार रहता है, वह कल्याण का भागी होता है। मनुष्य-जीवन का एक ही लक्ष्य है और वह अपना कल्याण करना अर्थात् भगवत्प्राप्ति करना अथवा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना। अत: जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त हमें किस प्रकार रहना चाहिये, जिससे हम अपने लक्ष्य की पूर्ति कर सकें, इस पर अपने शास्त्रों तथा ऋषि-महर्षियों ने अत्यन्त गम्भीर विचार किया है और संसार के जीवों को रहने की कला का मार्गदर्शन भी दिया है।

संसार में विषमता पूर्ण रूप से दिखायी पड़ती है। कोई धनी है, कोई गरीब है, कोई सुरूप है, कोई कुरूप है; कोई सम्पन्न है, कोई विपन्न है; कोई सात्त्विक भावापन्न है और कोई तामसी भावापन्न।
इसी प्रकार परिवार में भी वैभिन्नय दिखता है। एक स्त्री किसी की पुत्री है, किसी की बहन है, किसी की पत्नी है, किसी की सास है, किसी की बहू है, किसी की माता है, किसी की पितामही (दादी) है और किसी की मातामही (नानी)। इसी प्रकार पुरुष के भी कई रूप हैं। व्यवहार-जगत् में इन रूपों के अनुसार ही उनके भिन्न-भिन्न कर्तव्य भी हैं।

इसी तरह पड़ोस में, समाज में भिन्न-भिन्न स्वभाव के लोग होते हैं। कोई दयालु, कोई क्रूर; कोई क्रोधी, कोई क्षमावान्; कोई लोभी, कोई निर्लोभी, कोई दानी, कोई कंजूस, कोई विव्दान्, कोई मूर्ख तथा कोई त्यागी और कोई भोगी। इस प्रकार विषम भाव समाज में, पड़ोस में होना स्वाभाविक है।

इस विषम भाव से समभाव का दर्शन ही कल्याणकारी साधन है, जिसे हमारे पुराण और इतिहास प्राचीन कथाओं के माध्यम से समझाते हैं। समाज और परिवार के वैविध्य में व्यवहार की कुशलता ही योगसाधन है। इसीलिये भगवान् ने स्वयं श्रीमद्भागवद्गीता में कहा- ‘योगः कर्मसु कौशलम्।।’ (2/50)। चूँकि समता ही योग है ‘समत्वं योग उच्यते।।’ (2/48) और योग ही कर्मों (व्यवहार-जगत्)- में कौशल है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण जगत् को भगगवद्रूप- ‘वासुदेव: सर्वम्’ मानकर तथा ईर्ष्या और द्वेष से रहित होकर सबमें प्रेम कैसे हो ?- यह एक आध्यात्मिक कला है और यही समदर्शन भी है। अर्थात् सुख-दुख, अनुकूल-प्रतिकूल सभी परिस्थितियों में समभाव होना तथा राग-द्वेष से रहित होकर सबको भगवद्रूप मानकर सबसे प्रेम करना। इसी का नाम समता है।

इसी दृष्टि से प्रस्तुत पुस्तक में लेखक महोदय ने आर्ष ग्रन्थों की कुछ कथाओं का संकलन प्रस्तुत किया है, जिससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि हम परिवार में, पड़ोस में, समाज में और संसार में कैसे रहें, ताकि जीवन सार्थक बन सके।
आशा है पाठकगण इससे लाभान्वित होंगे।

-राधेश्याम खेमका

विश्व में कैसे रहें- समदर्शन करें


(1)    सरस और सुगम साधन-समदर्शन


मनुष्य-जीवन का लक्ष्य है- भगवान् को पाना; क्योंकि भगवान् को पा लेने के बाद मनुष्य की सम्पूर्ण इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं। प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि वह निरन्तर सुख-ही-सुख पाता रहे, सब कुछ जान जाय और वह कभी मरे नहीं। भगवान् को पा लेने के बाद मनुष्य निरन्तर आनन्द-ही-आनन्द पाता रहता है, सब कुछ जान जाता है और मौत से बच जाता है। क्योंकि भगवान् को पा लेने के बाद मनुष्य स्वयं आनन्दमय, ज्ञानमय और सन्मय बन जाता है-

‘विष्णुसायुज्यतां व्रजेत्।।’

(पद्मपु.सृ.खं. 52/95)

इस लक्ष्य को प्राप्त करने के अनेक साधन हैं। उनमें समदर्शन सबसे सुगम और सरल साधन है।

समदर्शन का अर्थ-

‘सम’ का अर्थ है माया के सभी विकारों से अस्पृष्ट अविक्रिय ब्रह्म- भगवान्*। क्योंकि भगवान् का आनन्दमय, ज्ञानमय और सन्मय स्वरूप सदा सम रहता है। इनमें कभी विषमता नहीं होती। विषमता तो होती है इनकी बहिरंगा शक्ति प्रकृति में और उसके बनाये जगत् में। ये जो विषम संसार के पदार्थ हैं, उनमें भगवान् (सम)- को देखना- यही समदर्शन का अर्थ है।

समदर्शन की विधि-

शास्त्रों ने बताया है कि कंकड़-पत्थर आदि जड़; मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि चेतन और चेतन में भी
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*सत्त्वादिगुणै: तज्जै: च संस्कारै: तथा राजसै: तथा तामसै: च संस्कारै: अत्यन्तम् एव अस्पष्टं समम् एकम् अविक्रियं ब्रह्म। (गीता 5/18 शांकरभाष्य)

शत्रु, मित्र तथा उदासीन- जो भी दीख जाय, उसमें भगवान् को देखना। यही समदर्शन की विधि है, किन्तु साधक अब कोई पाप न करे-

विशेषे समभावस्य पुरुषस्यानघस्य च।
अरौ मित्रेऽप्युदासीने मनो यस्य समं व्रजेत्।


(पद्मपु. सृ. खं. 52/95)

इस तरह साधन –अवस्था में कोई पाप नहीं हो रहा है, रह गये पहले के किये हुए पाप। शास्त्र बताते है कि साधक के पूर्व अर्जित पापों को यह समदर्शन-साधन ही समाप्त कर देता, तब-

सर्वपापक्षयस्तस्य विष्णुसायुज्यतां व्रजेत्।।

साधन सुगमतम और फल महत्तम- लक्ष्य की प्राप्ति के लिये योग, तपस्या आदि साधन हैं; परन्तु उनमें काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मात्सर्य आदि शत्रुओं को जीतने के लिये अभ्यास आदि कठिन उपाय करने पड़ते हैं और इन्द्रिय संयम, मनोनिग्रह, मृदुभाषिता, ऋजुता आदि गुणों के समावेश के लिये कठोर उपाय बरतने पड़ते हैं, किन्तु इस समदर्शन-साधन में सभी दोष स्वयं दूर हटते जाते हैं- भगवान् से कैसी ईर्ष्या, कैसा लोभ, कैसा अभिमान आदि। जो सामने दीख रहा है, वह भगवान् ही तो हैं। भगवान्-ही-भगवान् दीख रहे हैं तो मन भागकर जायगा कहाँ ? इस तरह मनो निग्रह आदि गुण स्वयं साधक में आने लगते हैं। यह है इस साधन की सुगमता। बस, अपने प्रिय मनोरम भगवान् को देखते जाओ- देखते ही जाओ।
पद्मपुराण में समदर्शी तुलाधार की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि तुलाधार में ये सभी सद्घुण हैं-

सत्यं दम: शमश्चैव धैर्यं स्थैर्यमलोभता।
अनाश्चर्यमनालस्यं तस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम्।।
तेन वै देवलोकस्य नरलोकस्य सर्वश:।
वृत्तं जानाति धर्मज्ञस्तस्य देहे स्थितो हरि:।।
लोके तस्य समो नास्ति सम: सत्यार्जवेषु च।
स च धर्ममय: साक्षात् तेनैव धारितं जगत्।।

(पद्मपु. सृ.खं. 52/97-99)

अर्थात् सत्य, इन्द्रियसंयम, मनोनिग्रह, धीरता, स्थिरता, निर्लोभता, आलस्यहीनता आदि सभी गुण समदर्शी तुलाधार में प्रतिष्ठित हैं। इसी से तुलाधार का नाम धर्म-तुलाधार हो गया था। उसकी देह में भगवान् रहते थे। इस तरह धर्म-तुलाधार स्वयं ही लक्ष्य को पा गये थे।

यह तो हुआ समदर्शी का निजी लाभ। समदर्शी केवल अपने को ही लाभ नहीं पहुँचाता, अपितु अपनी करोड़ों पीढ़ियों को भी तार देता है- ‘एवं यो वर्तते नित्यं कुलकोटिं समुद्धरेत्।’ समदर्शी केवल अपने को और अपने कुल को ही लाभ नहीं पहुँचाता, अपितु सम्पूर्ण विश्व को लाभ पहुँचाता है। भगवान् ने बताया है कि कि धर्म-तुलाधार ने सम्पूर्ण जगत् को सँभाल रखा था-


‘तेनैव धारितं जगत्।।’


इस तरह समदर्शन सुगम-से-सुगम साधन है और इसका फल महान्-से-महान् है। इसीलिये शास्त्रों ने इस साधन की भूरि-भूरि प्रशंसा की है-

‘समो धर्म: सम: स्वर्ग: समं हि परमं तप:।’

(पद्मपु. सृ. खं. 52/96)

यही कारण है कि सत् और असत् का विवेचन करने वाले पण्डित समदर्शी हुआ करते हैं।

 

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