लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> परमानन्द की खेती

परमानन्द की खेती

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 947
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

53 पाठक हैं

प्रस्तुत है परमानन्द की खेती....

Pamanand Ki Kheti a hindi book by Jaidayal Goyandaka - परमानन्द की खेती - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


श्रीपरमात्मने नमः
शास्त्रों का अवलोकन और महापुरुषों के वचनों का श्रवण करके मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि संसार में श्रीमद्भागवद्गीता के सामान कल्याण के लिये कोई भी उपयोगी ग्रन्थ नहीं है। गीता में ज्ञानयोग, ध्यानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग आदि जितने भी साधन बताये गये हैं उनमें से कोई भी साधन अपनी श्रद्धा, रुचि और योग्यता के अनुसार करने से मनुष्य का शीघ्र कल्याण हो सकता है।

अतएव उपयुक्त साधनों का तथा परमात्मा का तत्त्व रहस्य जानने के लिये महापुरुषों का और उनके अभाव में उच्च कोटि के साधकों का श्रद्धा प्रेमपूर्वक संग करने की विशेष चेष्टा रखते हुए गीता का अर्थ और भाव सहित मनन करने तथा उसके अनुसार अपना जीवन बनाने के लिये प्राण पर्यन्त प्रयत्न करना चाहिये।

निवेदक
जयदयाल गोयन्दका



नोट - सं० 2048 से तत्त्व-चिन्तामणि भाग-6- दो खण्डों में प्रकाशित की गयी प्रथम खण्ड का नाम ‘तत्त्वचिन्तामणि’ तथा द्वितीय खण्डका नाम ‘परमानन्दकी खेती’ है।


परमानन्द की खेती



‘भैया, इतनी दूर कैसे आये ?’ स्वागत करने के बाद पंजाब में रहनेवाले मित्र ने पूछा। राजपूतानासे पंजाब आने का कोई कारण विशेष अवश्य होगा, उसने समझ लिया था।
मेरे यहाँ अकाल पड़ा हुआ है। लोग दाने-दाने के लिये तरस रहे हैं और कितने ही क्षुधासे तड़प-तड़पकर प्राण छोड़ रहे हैं। व्याकुल होकर मैं परिवार-सहित आपके पास आ गया।’ राजपूतानाके वैश्यने अपने मित्र से सच्ची बात बता दी। अपने मित्र के पास अन्न का ढेर देखकर वह- मन-ही-मन प्रसन्न भी हो रहा था।

‘‘आप यहाँ आ गये, बड़ा अच्छा किया। आपहीका घर है, आनन्दपूर्वक रहिये।’ वैश्य के मित्रने बड़े प्रेम से उत्तरमें कहा।

‘आपके यहाँ तो अन्नराशि के ढेर-के-ढेर लगे हैं, पर हमारे देशमें तो अन्न किसी भाग्यशाली को ही मिलता है; वहाँ तो एक-एक दाने के लिये चील्ह-कौओं की तरह छीना–झपटी हो रही है। आपके यहाँ सहस्त्रों मन एकत्र गल्ले को देखकर मेरे जी-में-जी आ गया।’ वैश्यने स्थिति स्पष्ट की।

‘यहाँ तो भगवत्कृपासे अन्न का अभाव नहीं है। इसमें  आश्चर्य की कोई बात भी नहीं है, यहाँ तो कोई भी आवे, उसके लिये अन्न की कमी नहीं है। आप तो हमारे मित्र हैं यहाँ तो सबकुछ आप का ही है। यहाँ पर आकर आपने बड़ा अच्छा किया।’ मित्र बोला। वह चतुर और अनुभवी किसान था।
‘आपकी सभी वस्तुएँ हमारी हैं, इसमें तो सन्देह नहीं है, पर मैं जानना चाहता हूँ कि इतनी अन्न राशि आपके पास आयी कहाँ से ?’ वैश्यने चकित होकर पूछा।

‘हमारे यहाँ बराबर खेती होती रहती है। उसी का यह प्रताप है।’ किसान मित्रने वैश्य-बन्धुका समाधान करना चाहा। आप भी खेती करने लगें तो आपके पास भी अन्न के ढेर लग जायँगे।’
‘बड़ी सुन्दर बात है, कृषि कार्य के कार्य में भी जुट जाऊँगा, पर इसका अनुभव मुझे नहीं है। मेरे पास एक सहस्र रुपये हैं। इतने से खेती आरम्भ हो सकती है क्या ?’ वैश्य  ने पूछा।

‘एक हजार की पूँजी कम नहीं है। इतने रुपये से खेती का काम आप बड़ी सुन्दरता से आरम्भ कर सकते हैं। मेरा पूरा सहयोग रहेगा ही।’ किसान ने सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में अपने वैश्य मित्र से कहा।
‘मुझे तो इसका कोई ज्ञान नहीं है। आप जैसा उचित समझें, करें।’ अपनी समस्त पूँजी किसानके हाथमें समर्पित हुए वैश्य ने जवाब दिया।

‘देखिये, ये सब गेहूँ तो मिट्टी में मिल गये। गेहूं का एक-एक दाना फूटकर नष्ट हो गया’-अत्यन्त निराश होकर वैश्य ने कहा। उसने अपने पंजाबी किसान मित्र के किसी काम में बाधा नहीं दी थी। किसान ने मित्र की पूँजी से बीजादिका प्रबन्ध करवाकर हल चलवा दिया था। बीज बो दिये गये थे पर, अनुभवहीन वैश्य यह सब देखकर चिन्तित हो रहा था। दो-तीन दिन भी नहीं बीतने पाये कि वह खेतमें जाकर खोदकर गेहूँ के दाने देखने लगा। उसे बहुत से बीज अंकुरित  दीखे, इसपर उसने समझा कि मेरे सारे रुपये मिट्टी में मिल गये। अत्यन्त दुःखी होकर उसने अपने मित्र उपर्युक्त बात कही।

‘आपके खेत में अंकुर निकलने शुरू हो गये हो आप कोई चिन्ता न करे। बीज के लक्षण अच्छे हैं। आपको पता नहीं है। किसान मित्र ने वैश्य को आश्वासन दिया।

‘मुझे तो धन और श्रमका व्यय करने पर भी कोई लाभ होता नहीं दीखता। मैं तो बहुत चिन्तित हो गया हूँ।’ वैश्य ने मनकी व्यथा-कथा स्पष्टतः व्यक्त कर दी।
‘प्रारम्भ में ऐसा ही होता है। आप निश्चित रहें। आपकी खेती बड़ी सुन्दर हो रही है।’ किसान मित्र ने  बड़े प्रेम से उत्तर दिया।
वैश्य चुप था। इसके अतिरिक्त उसका वश ही क्या था ?

‘मेरे खेत में जो सर्वसॅ घास-ही-घास दीख रही है। मुझे तो बड़ी हानि हुई। मेरा सारा रुपया व्यर्थ गया।’ वैश्य ने थोड़े ही दिनों में फिर किसान से कहा। एक-एक बित्तेके गेहूँ के पौधों को उसने घास समझ लिया था।
घबराया हुआ किसान स्वयं खेतपर गया, पर वहाँ खेती देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई।
‘अरे ! आपका खेत तो आस-पास के सभी खेतों से बढ़कर है’ किसान ने हतोत्साह मित्र का भ्रम निवारण किया, ‘आप समझ लें कि अब गेहूँ का विशाल ढेर आपके पास एकत्र होनेवाला है। पर इस बात का ध्यान अवश्य रखें कि ये पौधें सूखने न पावें। इन सुकुमार पौधोंका जीवन पानी है। इसकी व्यवस्था आप शीघ्र कर लें। इसकी सिंचाई के लिये आप शीघ्र ही एक कुआ खुदा लें। साथ ही खेत को चारों ओर काँटों की बाड़ लगाकर रूँध दें नहीं तो पशु आकर इसे चर जाएँगे। खेत की रखवाली आपको सावधानी से करनी होगी।’

‘आपकी प्रत्येक आज्ञाका मैं शब्दशः पालन करूँगा।’ वैश्यने कहा।’ और वैसा ही किया। कुआँ खुदवाकर खूब सिंचाई की। भगवत्कृपासे बीच-बीचमें बादल-दल ने भी जल-वर्षण किया। पौधे बढ़ने लगे।

‘पौधों के बीच–बीच में जो घासें उग आयी हैं, उन एक-एक घासोंका निरान कर डालिये। ये गेहूँ की वृद्धि के बाधक हैं, एक दिन खेतपर आकर किसान ने वैश्य  को प्रेमभरे शब्दों में आदेश दिया।
‘एक घास भी खेत में नहीं रह पायेगा।’ वैश्यने तुरंत उत्साहपूर्ण शब्दों में उत्तर दिया।

‘गेहूँके दाने तो हो गये, पर ये तो सब-के-सब कच्चे ही हुए हैं’ माथेका पसीना पोंछते हुए वैश्य ने किसान बन्धु से कहा। वह खेत से दौड़ता आया था और  जोरों से हाँफ रहा था। उसने अपने मित्र के आदेशानुसार अपने खेत में घासका कोई चिन्ह भी अवशिष्ट नहीं रहने दिया था। उसका परिश्रम अतुलनीय था। गेहूँ में फल भी लगे थे, पर इतने दिनों बाद उसने देखा तो सब-के-सब फल कच्चे ही थे। खेती के ज्ञान से शून्य होने के कारण वह गरीब घबरा गया था। उसने समझा रुपये के साथ-साथ मेरी एँड़ी-चोटी का पसीना भी व्यर्थ सिद्ध हो रहा है। उसने दो-तीन फलियाँ भी किसान के सामने रख दीं, जिन्हें वह साथ ही लेता आया था।  

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book