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कर्म योग का तत्त्व - भाग 1

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 985
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है कर्मयोग का तत्त्व....

karmyog ka Tattva bhag-1 a hindi book by Jaidayal Goyandaka - कर्म योग का तत्त्व भाग-1 - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।। श्रीहरि: ।।

निवेदन

बहुत-से प्रेमी मित्रों का बहुत समय से यह आग्रह था कि जिस प्रकार ‘ज्ञानयोग का तत्त्व’ नाम से ज्ञानयोग विषयक लेखों का संग्रह एवं ‘प्रेमयोग का तत्त्व’ नाम से प्रेमयोग विषयक लेखों का संग्रह प्रकाशित किया गया है, वैसे ही कर्मयोग-संबंधी लेखों का भी एक संग्रह प्रकाशित किया जाय। इसी से प्रस्तुत पुस्तक में कर्मयोग संबंधी मेरे लेखों का संग्रह किया गया है, जो समय-समय पर ‘कल्याण’ में प्रकाशित हुए हैं।

यह पुस्तक गृहस्थियों के लिये विशेष उपादेय है, क्योंकि इसमें गृहस्थाश्रम में रहकर बहुलता से काम करते हुए भी शीघ्रातिशीघ्र परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो सकती है-यह विशेष रूप से बतलाया गया है।

गीता में भगवान् ने कल्याण लिये दो ही निष्ठाएँ बतलायी हैं। उनमें कर्मयोग के ही अन्तर्गत भक्तियोग है। इसलिए इन लेखो में भक्ति का भी विषय यत्र-तत्र आया है। ये लेख समय-समय पर विभिन्न दृष्टियों से लिखे हुये हैं। अतः विषय की पूर्णता के खयाल से कई प्रसंग इन लेखों में बार-बार भी आये हैं। किन्तु साधकों को इस पुनरुक्ति दोष को दोष नहीं समझना चाहिये; क्योंकि साधन को भलीभाँति समझने और परिपक्व बनाने के लिये उसके सिद्धान्तों को बार-बार सुनने, पढ़ने, समझने और मनन करने की आवश्यकता होती है। अन्यथा बहुत-सी ऐसी जटिल बातें होती हैं जो साधारण साधकों के एक बार सुनने-पढ़ने मात्र से समझ में ही नहीं आतीं। फिर कर्मयोग का विषय तो बहुत ही गम्भीर है। स्वयं भगवान् के वचन हैं- ‘गहना कर्मणो गति:।अतएव कर्मयोग के साधकों के लिये यह परम आवश्यक है कि वे कर्मयोग के तत्त्व-रहस्य को भलीभाँति समझें और तदनुसार साधन करने का प्रयत्न करें। इसमें साधकों को यह संग्रह सहायक हो सकता है, इसी से इसे प्रकाशित किया जा रहा है।


जयदयाल गोयन्दका


नोट-सातवें संस्करण से प्रस्तुत पुस्तक पाठकों के सुविधार्थ दो भागों में विभक्त करके उसी पूर्वनाम से दो खण्डों में प्रकाशित किया गया है।

प्रकाशक

।। श्रीहरि: ।।


कर्मयोग का तत्त्व
भाग-1


काम करते हुए भगवत्-प्राप्ति की साधना


काम करते हुए हम ईश्वर को सदा-सर्वदा याद रखते हुए अपना कल्याण किस प्रकार कर सकते हैं-इस संबंध में कुछ निवेदन किया जाता है। निश्चय ही सभी लोग काम को छोड़कर भजन-ध्यान में नहीं लग सकते। वास्तव में गीतों के अनुसार काम को छोड़ देने की आवश्यकता भी नहीं है। लोग भूल से ही यह धारणा कर लेते हैं कि गीता तो संन्यास ले लेने का ही उपदेश देती है। किन्तु यह बात ठीक नहीं; क्योंकि अर्जुन तो सब कुछ छोड़कर भीख के द्वारा अपना जीवन-निर्वाह करने को तैयार ही हो गये थे। उन्होंने भगवान् से स्पष्ट कह दिया था कि-

गुरुनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव
भुंजीय भोगानरुधिरप्रदिग्धान्।।

(गीता 2/5)

‘इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याण कारक समझता हूँ; क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा।’
किन्तु भगवान् ने उसे अपना स्मरण करते हुए ही स्वधर्मरूप युद्ध करने की आज्ञा दी।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।

(गीता 8/7)

‘इसलिए हे अर्जुन ! तू सब समय में निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धि से युक्त होकर तू निस्संदेह मुझको की प्राप्त होगा।’
भगवान् के इस उपदेश के अनुसार जब भगवत्स्मृति के रहते हुए युद्ध-जैसी क्रिया भी हो सकती है तो फिर हम लोगों के साधारण कार्यों के होने में तो कठिनाई ही क्या है ? गीता अध्याय 18 श्लोक 56 में तो सदा कर्म करते हुए भी भगवत्प्राप्ति होने की बात कही गयी है।

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रय:।
मत्प्रसादादवान्प्रोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।

‘मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है।’
अत: भगवान् की शरण होकर कर्म करने चाहिये। कई भाइयों का कहना है कि काम करते हुए भजन करने से काम अच्छी तरह नहीं होता और काम को अच्छी तरह करने से भजन निरन्तर नहीं होता। उनका यह कहना ठीक है। आरम्भ में ऐसी कठिनाई हो सकती है, किन्तु आगे चलकर अभ्यास के बढ़ जाने पर भगवत्कृपा से यह कठिनाई नहीं रहती। इसलिये काम करते समय भी हमें भजन का अभ्यास डालना चाहिये। इस संबंध में नटनी का उदाहरण सामने रखा जा सकता है। नटनी बाँस पर चढ़ते समय ढोल भी बजाती रहती है और गायन भी करती रहती है; किन्तु इन सब क्रियाओं को करते हुए भी उसका ध्यान निरन्तर अपने पैरों पर ही रहता है। इसी प्रकार गाने-बजाने की भाँति हमें सब काम करने चाहिये और उसके पैरों के ध्यान की तरह हमें परमात्मा में अपना मन रखना चाहिये।

जब हम लोग कोई भी काम करें, उस समय हमें श्वास या वाणी के द्वारा भगवान् के नाम का जप तथा गुण-प्रभाव के सहित उनके स्वरूप का ध्यान करते हुए ही काम करने का अभ्यास डालना चाहिये। काम करते समय यह भाव रहना चाहिये कि यह काम भगवान् का है और उन्हीं के आज्ञानुसार मैं इसे उन्हीं की प्रसन्नता के लिये कर रहा हूँ। प्रभु मेरे पास खड़े हुए मेरे काम को देख रहे हैं-ऐसा समझकर सदा प्रसन्न रहना चाहिये।

इस प्रकार मन से परमात्मा का चिन्तन और श्वास या वाणी से उनके नाम का जप करते हुए ही काम करने का अभ्यास करने से परमात्मा की प्राप्ति सहज ही हो सकती है। ऐसा अभ्यास करने से आरम्भ में यदि काम में कमी भी आवे तो कोई हर्ज नहीं। वास्तव में जप-ध्यान में कमी नहीं आनी चाहिये।

हम लोगों को प्रात:-सायं दोनों समय नियमित रूप से अपने-अपने अधिकार के अनुसार ईश्वर की उपासना अवश्य ही करनी चाहिये; क्योंकि प्रात: काल की उपासना करने पर परमात्मा की कृपा से दिन भर उसकी स्मृति रह सकती है। स्मृति को तैल धारा की तरह अखण्ड बनाये रखने के लिये हमें चलते-फिरते उठते-बैठते, खाते-पीते तथा प्रत्येक कार्य करते हुए भगवान् को अपने साथ समझना चाहिये। मन में सदा-सर्वदा यह निश्चय रखना चाहिये कि हम जो कुछ करते हैं उसे भगवान् ही करावते हैं। गुरु जिस प्रकार बच्चे का हाथ पकड़कर उससे अक्षर लिखवाते हैं, उसी प्रकार परमात्मा हमें प्रेरित करके समस्त कार्यों का आचरण हमसे करवाते हैं। कठपुतली जिस प्रकार सूत्रधार के इशारे पर नाचती है, उसी प्रकार हमें भगवान् के हाथ में अपनी बागडोर सम्हलाकर उनके इशारे पर काम करना चाहिये। इस प्रकार के अभ्यास से हमें प्रत्यक्ष में शान्ति का अनुभव होने लगेगा और हमारे इस साधन से परमात्मा विशेष प्रसन्न होंगे।

इसी प्रकार सायंकाल की भी उपासना प्रेम पूर्वक करने पर भगवत्कृपा से रात्रि में और सोने के समय भी भगवान् की स्मृति रह सकती है। उससे दु:स्वप्नों का नाश होकर वृत्तियाँ सात्त्विक हो जाती हैं और निरन्तर प्रसन्नता तथा शान्ति रहती है। इसलिये हमें अपने मस्तक पर प्रभु का हाथ समझकर सदा आनन्दित रहना चाहिये और और भोग, आराम, पाप, आलस्य तथा प्रमाद आदि को मृत्यु के समान समझकर अपने जीवन के क्षणों का उपयोग उत्तम-से-उत्तम कार्यों में ही करनी चाहिये। भगवान् के नाम का जप और गुण तथा प्रभाव के सहित उनके स्वरूप का ध्यान करते हुए ही उनकी आज्ञा के अनुसार तत्परता के साथ काम करना चाहिये।

परन्तु इस साधना में निम्नलिखित बातें अत्यन्त बाधक हैं-क्रोध, वैमनस्य, ईर्ष्या, भय, शोक, मोह, अभिमान, मनोमालिन्य, राग-द्वेष और घृणा-आदि। इन विघ्नों को मृत्यु के समान समझते हुए इनका सर्वथा परित्याग कर देना ही उचित है। इनसे छुटकारा पाने का मुख्य उपाय है-ईश्वर की शरण। इस शरणागति का यदि पूर्णतया पालन कर लिया जाय तो उपर्युक्त विघ्नों से सहज ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है-इसमें तो सन्देह ही क्या है; किन्तु परेच्छा और अनिच्छा से जो कुछ भी प्राप्त हो उसे ईश्वर का भेजा हुआ पुरस्कार मानकर प्रसन्न होने से भी इन विघ्नों से छुटकारा हो सकता है।

 

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