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गीता प्रेस, गोरखपुर >> सत्संग मुक्ताहार

सत्संग मुक्ताहार

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 997
आईएसबीएन :81-293-0597-6

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प्रस्तुत है सत्संग मुक्ताहार.....

Satasang Muktahar A Hindi Book by Swami Ramsukhdas - सत्संग मुक्ताहार - स्वामी रामसुखदास

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश


नम्र निवेदन


सत्संग-प्रेमी सज्जनों की सेवामें यह ‘सत्संग-मुक्ताहार’ पुस्तक प्रस्तुत की जा रही है। इस पुस्तक में श्रद्धेय श्रीस्वामी जी महाराज के नौ लेखों का संग्रह है। पाठकों से प्रार्थना है कि वे इस मुक्ताहार- (मोतियोंकी माला) को हृदय में धारण करें, हृदयंगम करें और वास्तविक तत्त्वका अनुभव करके अपने मानव-जीवनको सफल बनायें।

प्रकाशक

1 वास्तविक तत्त्वका अनुभव


 
है सो सुन्दर है सदा, नहिं सो सुन्दर नाहिं।
नहिं सो परगट देखिये, है सो दीख नाहिं।।


कितनी विचित्र बात है कि परमात्मा हैं, पर वे दीखते नहीं और संसार नहीं है, पर दीखता है ! इसका कारण यह है कि हमारे पास देखने की जो शक्ति है, वह संसार की है। जिस धातुका संसार है, उसी धातुकी हमारी इन्द्रियाँ और अन्तःकरण (मन-बुद्धि) हैं। इसलिये उनमें संसार ही दीखेगा, परमात्मा कैसे दीखेंगे ? इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि प्रकृति के अंश है। प्रकृति के अंशद्वारा प्रकृति से अतीत तत्त्वको कैसे देखा जा सकता है ? प्रकृति से अतीत परमात्मतत्त्व को तो अपने-आपसे अर्थात् स्वयं से ही देखा जा सकता है क्यों कि स्वयं परमात्मा का ही अंश है। तात्पर्य है कि शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि तथा संसार तत्त्व से एक (नाशवान्, जड़) हैं और स्वयं तथा परमात्मा तत्त्व से एक (अविनाशी, चेतन) हैं।

 विचार करें कि क्या शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि और परमात्मा की तात्त्विक एकता है ? कदापि नहीं। फिर उनके द्वारा परमात्मा को कैसे देखा अथवा प्राप्त किया जा सकता है ? असम्भव बात है। अतः हम स्वयं से देखेंगे तो परमात्मा दीखेंगे और शरीर से देखेंगे तो संसार  दीखेगा। रहनेवाले से रहनेवाला ही दीखेगा और बदलनेवाले से बदलनेवाला ही दीखेगा।
स्वयं से परमात्मा कैसे दीखते हैं- इसपर विचार करें। प्रत्येक मनुष्यको ‘मैं हूँ’ –इस रूप में अपनी सत्ता- (होनेपन) का अनुभव होता है। ‘मैं हूँ’- इसमें ‘मैं’ प्रकृतिका अंश है और ‘हूँ’ परमात्मा का अंश है। अतः ‘मैं’ की ‘नहीं’ के साथ और ‘हूँ’ की ‘है’ के साथ एकता है। ‘हूँ’ और है का भेद ‘मैं’- पनके  कारण ही है। अगर ‘मैं’-पन न रहे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रयुक्त ‘है’ ही रहेगा। तात्पर्य यह हुआ कि स्वयं में जो सत्ता अर्थात अपना होनापन है, वह वास्तव में परमात्मा का ही है। वह होनापन सब जगह समान रीतिसे स्वतः- स्वाभाविक परिपूर्ण है।

हमसे यह भूल होती है कि हम परमात्मा में संसार देखते हैं, जबकि देखना चाहिये संसार में परमात्मा को। ‘नहीं’ में ‘है’ को देखना तो सही है, पर ‘है’ में नहीं’ को देखना गलती है; क्योंकि परमात्मा हैं और संसार नहीं है। इसलिये गीता में आया है–

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।

(13 । 27)

‘जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियों में परमात्मा को नाशरहित और समरूप से स्थित देखता है, वही वास्तव में सही देखता है।’
ऐसा कोई क्षण नहीं है, जिसमें संसार न बदलता हो। बदलना-ही-बदलना इसका स्वरूप है। परन्तु परमात्मा नहीं बदलने वाले हैं संसार रहे अथवा नष्ट हो जाय, वे नित्य –निरन्तर ज्यों-के-त्यों ही रहते हैं, उनमें कोई फर्क नहीं पड़ता कभी एक क्षण भी टिकता नहीं और परमात्मतत्त्व कभी एक क्षण भी मिटता नहीं। इसलिये जो बदलनेवाले नाशवान् संसार को न देखकर निरन्तर रहनेवाले अविनाशी परमात्मा को देखता है, वहीं सही देखता है- ‘विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति’। परन्तु जो परमात्मा को न देखकर संसार को देखता है, वह सही नहीं देखता-

योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते।
किं तेन न कृतं पापं चौरेणात्मापहारिणा।।

(महा० उद्योग० 42 ।  37)

‘जो अन्य प्रकार का (अविनाशी) होते हुए भी आत्मा को अन्य प्रकार का (विनाशी शरीर) मानता है, उस आत्मघाती चोर ने कौन- सा पाप नहीं किया अर्थात् सभी पाप कर लिये।’
जैसे, शरीर के बदलने पर हम अपना बदलना नहीं देखते। बालकपन से लेकर आजतक शरीर कितना बदल गया, पर हम कहते हैं कि मैं वही हूं जो बालकपन में था। शरीर बदल गया, स्थान बदल गया,  समय बदल गया, वस्तुएं बदल गयीं, साथी बदल गये, परिस्थिति बदल गयी, अवस्था बदल गयी, क्रियाएँ बदल गयीं पर सब कुछ बदलने पर भी स्वयं नहीं बदला। देश, काल आदि में फर्क पड़ा, पर अपने में फर्क नहीं पड़ा। ऐसे ही संसार कितना ही बदल जाय, परमात्मा वैसे-के-वैसे ही रहते हैं। वस्तुभेद, व्यक्तिभेद और क्रिया भेद होने पर भी तत्त्वभेद नहीं होता। हमारी दृष्टि उस परमात्मतत्त्वकी तरफ ही रहनी चाहिये। जैसे, कोई व्यापारी कोयला खरीदता और बेचता है, पर उसकी दृष्टि पैसों पर ही रहती है कि इतने पैसे आ गये ! व्यापार की चीजें तो बदल जाती हैं, पर पैसा वहीं रहता है। ऐसे ही सब व्यवहार करते हुए भी हमारी दृष्टि परमात्मा पर ही रहनी चाहिये।

यह सिद्धान्त है कि जो आदि-अन्त में नहीं होता, वह वर्तमान में भी नहीं होता और जो आदि-अन्त में भी होता है, वह वर्तमान में भी होता है। संसार पहले भी नहीं होता था और पीछे भी नहीं रहेगा, इसलिये संसार नहीं है। परमात्मा पहले भी थे और पीछे भी रहेंगे, इसलिये परमात्मा ही हैं। संसार को सत्यरूप से देखने वाले कहते हैं कि संसार है ही नहीं ! संसार में जो ‘है’- पना दीखता है, वह उस परमात्मा की ही झलक है।

और जैसे रस्सी साँप दीखता है तो वास्तव में ‘है’- पना रस्सी में हैं, साँप में नहीं, पर रस्सी का ‘है’- पना साँपमें दीखता है। ऐसे ही ‘है’ पना परमात्मामें है, संसार में नहीं है, पर परमात्मा का ‘हैं’-पना संसार में संसाररूप से दीखता है। जैसे चनेका आटा फीका होता  है, पर जब उसमें चीनी पड़ जाती है, तब उसमें बनी बूँदी मीठी लगती है। वह मिठास वास्तव में चीनी की ही है, बेसन की नहीं। ऐसे ही संसार में जो ‘है’ पना दीखता है, वह संसार का न होकर परमात्मा का ही है।

अगर भक्तियोग की दृष्टिसे देखें तो सब संसार परमात्मस्वरूप ही है ! भगवान् कहते हैं-

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