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अकिंचन  : वि० [सं० मयू० स०] १. जिसके पास कुछ भी न हो दरिद्र। २. जो अपने कर्मों का भोग पूरा कर चुका हो। ३. दे० अपरिग्रही। पुं० १. वह जिसके पास अपने निर्वाह के लिए कुछ भी धन न हो। परम दरिद्र। (पाँपर) २. वह जैन साधु जो परिग्रह धन पत्नी बच्चे और ममता से रहित हो चुका हो।
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अकिंचनता  : स्त्री० [सं० अकिंचन+तल्-टाप्) १. अकिंचन होने की अवस्था या भाव। २. परम दरिद्रता या निर्धनता। ३. परिग्रह और ममता का त्याग। (जैन)
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अकिंचित्कर  : वि० [सं० किंचित√ कृ (करना) +ट, न० त०] १. जो कुछ न कर सके। अयोग्य असमर्थ। २. तुच्छ। नगण्य। ३. जिसका कुछ भी फल न हो। व्यर्थ का। निरर्थक।
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अकि  : अव्य (हिं० कि०) कि/या/अथवा। उदाहरण—आगि जरौं अकि पानि परों कैसि करौं हिय का बिधि धीरौं—घनानन्द।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकित्तौ  : स्त्री०=अकीर्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकिल  : स्त्री०=अक्ल
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अकिलदाढ़  : स्त्री० (हिं० अकिल=बुद्धि+दाढ़) वह दाढ़ अथवा दाँत जो मनुष्यों की युवावस्था में निकलता है और उनमें समझदारी आने का सूचक होता है।
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