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अनन  : पुं० [सं० √अन्(जीना) +ल्युट्-अन] साँस लेना। जीना।
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अनना  : स० [सं० आनयन]=आनना (लाना)। उदाहरण—इहै ख्याल उर आनि हैं।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अननुज्ञप्त  : वि० [सं० न-अनुज्ञात, न० त०]=अननुज्ञात।
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अननुज्ञात  : वि० [सं० न-अनुज्ञात, न० त०] १. जो अनुज्ञात न हो। २. (व्यक्ति) जिसे अनुज्ञा न मिली हो। ३. (कार्य) जिसके लिए अनुज्ञा न मिली हो।
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अननुज्ञापित  : वि० [सं० न-अनुज्ञापित, न० त०]=अननुज्ञात।
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अननुभाषण  : पुं० [सं० न-अनुभाषण, न० त०] न्याय में, वह स्थिति जब वादी के तीन बार कोई बात कहने पर भी प्रतिवादी उसका कोई उत्तर नहीं देता और इसी लिए उसकी हार मान ली जाती है।
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अननुभूत  : वि० [सं० न-अनुभूत, न० त०] १. जो अनुभूत न हो। २. जिसका पहले कभी अनुभव न हुआ हो।
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अननुमत  : वि० [सं० न-अनुमत, न० त०] १.जिसे अनुमति न मिली हो। २. जिसकी अनुमति न मिली हो। 3. जो रुचिकर न हो। 4. अयोग्य।
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अननुरूप  : वि० [सं० न-अनुरूप, न० त०] १. जो किसी के अनुरूप न हो। अनुरूप का उल्टा। २. जो किसी की मर्यादा के अनुरूप या उपयुक्त न हो।
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अनन्नास  : पुं० [पुर्त० अनानास] १. एक छोटा पौधा जिसके फल कटहल की तरह ऊपर से दानेदार और खाने में खट-मीठे होते हैं। (पाइनएपुल्) २. उक्त का फल।
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अनन्य  : वि० [सं० न-अन्य, न० ब०] १. जिसका संबंध किसी और से न हो। २. एकनिष्ठ। ३. अद्वितीय। ४. एकाग्र। पुं० विष्णु का एक नाम।
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अनन्य गति  : वि० [सं० न-अन्य-गति, न० ब०] जिसके लिए और कोई साधन या सहारा न हो। स्त्री० [न० त०] एक मात्र सहारा।
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अनन्य-गतिक  : वि० [न० ब० कप्] =अनन्य-गति।
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अनन्य-गुरु  : वि० [सं० न-अन्य-गुरु, न० ब०] १. जिससे कोई बड़ा न हो। २. जिसके लिए एक को छोड़ कोई और गुरु न हो।
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अनन्य-चित्त  : वि० [सं० न-अन्य-चित्त, न० ब०] जिसका चित्त किसी एक में लगा हो। इधर-उधर न हो। एकाग्र चित्त। लीन।
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अनन्य-चेता (तस्)  : वि० [सं० न-अन्य-चेतस्, न० ब०] दे० ‘अनन्य-चित्त’।
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अनन्यज  : वि० [सं० अनन्य√जन् (उत्पन्न होना)+ड] वह जो अन्य या दूसरे से उत्पन्न न हुआ हो। पुं० कामदेव।
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अनन्य-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० न-अन्य-जन्मन्, न० ब०]=अनन्यज।
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अनन्यता  : स्त्री० [सं० अनन्य+तल्-टाप्] १. अनन्य होने (अर्थात् किसी और या दूसरे से संबंध या लगाव न होने) की अवस्था या भाव। २. एक ही में लीन रहने की अवस्था या भाव। एक-निष्ठता। लीनता।
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अनन्य-दृष्टि  : वि० [सं० न-अन्य-दृष्टि, न० ब०] जिसकी दृष्टि किसी और या दूसरे पर टिकी या लगी हो। स्त्री० [न० त०] निष्ठापूर्वक या एकाग्र चित्त होकर देखने की स्थिति या भाव।
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अनन्य-देव  : वि० [सं० न-अन्य-देव, न० ब०] जिसका कोई और दूसरा देवता न हो। पुं० परमेश्वर।
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अनन्य-परता  : स्त्री० [सं० न-अनन्यपर, न० ब० अनन्यपर+तल्-टाप्] अनन्य-परायण। (दे०)
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अनन्य-परायण  : वि० [सं० अन्य-परायण, स० त० न-अन्य-परायण, न० त०] जिसका किसी और या दूसरे से नाता, प्रेम, लगाव या संबध न हो। अर्थात् एक ही रात में रहनेवाला।
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अनन्य-पूर्वा  : स्त्री० [सं० न-अन्य-पूर्व, न० ब०] १. वह स्त्री० जिसका पहले किसी से संबंध न रहा हो। निर्मल चरित्रवाली स्त्री। २. अविवाहित। कुमारी।
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अनन्य-भाव  : पुं० [सं० अन्य-भाव, स० त० न-अनन्यभाव, न० त०] एक निष्ठ भक्ति या साधना। वि० जिसका भाव या भक्ति एक ही के प्रति हो, किसी दूसरे के प्रति न हो। एकनिष्ठ भक्त।
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अनन्य-मनस्क  : वि० [सं० न-अन्य-मनस्, न० ब० कप्] दे० अनन्य-चित्त।
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अनन्यमना (नस्)  : वि० [सं० न-अन्य-मनस्, न० ब०] =अनन्य-चित्त।
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अनन्य-योग  : वि० [सं० न-अन्य-योग, न० ब०] १. जिसका संबंध एक को छोड़कर और किसी से न हो। २. जो एक को छोड़ किसी दूसरे के काम न आ सके।
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अनन्य-वृत्ति  : वि० [सं० न-अन्य-वृत्ति, न० ब०] १. जिसकी मनोवृत्ति एकनिष्ठ हो। २. जिसकी कोई दूसरी वृत्ति या जीविका न हो।
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अनन्य-साधारण  : वि० [सं० अन्य-साधारण, स० त०, न-अन्य-साधारण, न० त०] १. एक को छोड़कर दूसरे में न मिलने वाला। २. असाधारण।
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अनन्याधिकार  : पुं० [सं० अन्य-अधिकार, ष० त० न-अन्याधिकार, न० त०]=एकाधिकार।
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अनन्याश्रित  : वि० [सं० अन्य-अधिकार, ष० त० न-अन्याश्रित, न० त०] १. जो किसी अन्य या दूसरे के आश्रय में न रहता हो। २. स्वाधीन। पुं० ऐसी संपत्ति जिसपर ऋण आदि न लिया गया हो।
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अनन्वय  : पुं० [सं० न-अन्वय, न० त०] १. अन्वय का अभाव। २. साहित्य में एक अलंकार जिसमें उपमेय को ही उपमान मान लिया जाता है। इसे अतिशयोपमा भी कहते है। उदाहरण—भरत-भरत सम जान।—तुलसी।
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अनन्वित  : वि० [सं० न-अन्वित, न० त०] जिसका अन्वय न हुआ हो।
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