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एशिक  : वि० [सं० ईश+ठक्-इक] १. ईश-संबंधी। २. शिव-संबंधी।
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एश्वर्य  : पुं० [सं० ईश्वर+ष्यञ्] १. ईश्वर होने की अवस्था या भाव। ईश्वरता। २. आधिपत्य। प्रभुत्व। ३. धन-संपत्ति। वैभव। ४. अणिमा, महिमा आदि आठों सिद्धियों द्वारा प्राप्त होनेवाली अलौकिक या ईश्वरीय शक्ति।
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ए  : देवनागरी वर्णमाला का सातवाँ स्वर वर्ण जो भाषा-विज्ञान और व्याकरण की दृष्टि से अर्द्ध-संवृत, दीर्घ, कंठय-तालव्य स्वर है। इसका दीर्घ रूप ‘ऐ’ है। गद्य में यह ‘हे’ या ‘ऐ’ की तरह संबोधन के रूप में और कविता में ‘यह’ या ‘ये’ के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। सर्व०=यह। पुं० [इ (गति)+विच्] विष्णु।
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एँगुर  : पुं०=ईंगुर।
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एँचना  : स०=खींचना।
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एँचपेंच  : पुं० [फा० पेंच] १. घुमाव-फिराव। हेर-फेर। २. उलझन। ३. टेढ़ी-तिरछी चाल या युक्ति। ४. दे० ‘दांव-पेंच’।
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एँड़ा-बेड़ा  : वि०=ऐंड़ा-बैंड़ा।
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एँड़ी  : स्त्री० [सं० एरंड] १. अंडी या रेंड़ के पत्ते खानेवाला एक प्रकार का रेशम का कीड़ा। २. इस कीड़े का रेशम। स्त्री० एड़ी (पैर की)।
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एँड़ुआ  : पुं० [हिं० ऐंड़ना] [स्त्री० अल्पा० एँडुई] गेडुंरी। (दे०)
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एइ  : सर्व०=यह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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एई  : सर्व०=यही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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एकंग  : वि० [सं० एकांग] जिसके साथ और कोई न हो। अकेला। वि० पुं०=एकांग।
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एकंगा  : वि० [हिं० एकंग] [स्त्री० एकंगी] १. जिसका संबंध केवल एक अंग या पक्ष से हो। २. (बात या विचार जिसमें केवल एक अंग या पक्ष का ध्यान रखा गया हो। सब अंगों या पक्षों का ध्यान न किया गया हो।
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एकंगी  : स्त्री० [सं० एक+अंगी] पटा-बनेठी खेलनेवालों की एक प्रकार की छड़ी जिसके सिरे पर लट्टू लगा रहता है।
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एकँड़िया  : वि० [सं० एक+अंड] १. (जीव) जो एक बार में एक ही अंडा देता हो। २. (पशु) जिसका एक ही अंडकोश हो। ३. (पदार्थ) जिसमें एक ही अँटी या गाँठ हो। जैसे—एकँड़िया लहसुन।
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एकंत  : वि०=एकांत।
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एक  : पुं० [सं० इ (गति)+कन्, पा० एक्कु, फा० यक्, उड़ि० गु०, बँ० तथा मरा० एक, सिं० एकु, हिकु, हकु, पं० इक्क, हिक्क, का० अक, सिंह० एक्] सबसे पहले और सबसे छोटा (परंतु पूरा और भिन्न रहित) संख्यासूचक अंक। जैसे—एक में एक और मिलने पर दो होते हैं। वि० १. जो क्रम या गिनती के विचार से पहले स्थान पर पड़ता हो। विशेष—उक्त अर्थ में यह संख्यावाचक समूहों अथवा किसी संख्या के भिन्न के आरंभ में प्रयुक्त होता है। जैसे—एक कोड़ी, एक दर्जन अथवा एक तिहाई। एक चौथाई आदि। मुहावरा—एक आँकदृढ़ता या निश्चयपूर्वक, इसी एक रूप में। उदाहरण—एक हि आँक मोर हित एहू।—तुलसी। एक आँख न भाना तनिक भी अच्छा न लगना। जैसे—वह तो हमें एक आँख भी नहीं भाता। एक आँख से देखना एक दृष्टि या भाव से देखना। सबके साथ एक-सा व्यवहार करना। जैसे—भाई साहब हम सबको एक आँख से देखते हैं। एक और एक ग्यारह होना=संघठित या सम्मलित होने पर शक्ति या सामर्ध्य बढ़ना। एक के दो करना (क) काटकर एक के दो टुकड़े करना। (ख) एक दो बढ़ाकर दो करना। (ग) दूने दाम पर बेचना या दूना लाभ उठाना। एक टाँग फिरना=कोई काम करने के लिए बराबर चलते फिरते रहना। (किसी की) एक न चलना (क)कोई उपाय, बात या तर्क सफल न होना। (ख) कोई बात मानी न जाना। एक स्वर में-सब लोगों का मिलकर एक साथ (कुछ कहना या बोलना)। (किसी के साथ) एक होना (क) किसी से सहमत होना। (ख) घनिष्ठ संबंध स्थापित होना। (ग) तद्रूप होना। पद—एक-एक प्रत्येक। हर एक। एक-एक करके-क्रम-क्रम से हर एक। जैसे—एक-एक करके सब लड़के अंदर आ जाओ। एक-टक-बिना पलक झपकाये। बराबर टक लगाकर या दृष्टि जमाकर। जैसे—इस शीशे की तरफ एक-टक देखो। एक तोपहली बात यह है कि। एक दूसरे का, को, पर, में, से-परस्पर। एक पेट के एक ही माता से उत्पन्न। सहोदर। जैसे—ये तीनों भाई एक पेट के हैं। एक बात (क) बिलकुल ठीक और सच्ची बात। (ख) दृढ़तापर्वक कही हुई बात। एक सा (क) एक ही रूप में या एक ही प्रकार से। जैसे—नदी का पानी रात-दिन एक सा बहता रहता है। (ख) एक ही तरह या प्रकार का। जैसे—आपका और उनका विचार एक सा है। एक से तुल्य। बराबर। समान। जैसे—दोनों भाई देखने में एक से हैं। २. अनुपम। बे-जोड़। जैसे—वह अपने काम में एक है। ३. अनिश्चयवाचक विशेषण, जैसे—(क) पुस्तकें एक ओर रख दो। (ख) एक दिन सबको मरना है। विशेष—ऐसे अवसरों पर प्रायः एक न एक के स्थान पर अथवा उसके संक्षिप्त रूप में प्रयुक्त होता है। ४. कोई उद्दिष्ट परंतु अनिश्चित (वस्तु या व्यक्ति)। जैसे—अभी एक आदमी आवेगा,उसे यह पुस्तक दे देना। ५. एक-से का संक्षिप्त रूप। एक-समान। जैसे—इस विषय में हम सब लोग एक (अर्थात् एक मत या विचार के) हैं।
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एक-आध  : वि० [हिं० एक+आधा] गिनती में बहुत कम या थोड़े। कोई कोई। जैसे—(क) हिंदी में एकआध लेखक ही ऐसा लिखते हैं। (ख) कभी-कभी मुँह से एक-आध ऐसी बातें भी निकल जाती है जो ठीक न हो।
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एकक  : वि० [सं० एक+कन्] १. अकेला। २. एक से संबंध रखनेवाला। ३. जो एक से ही बना हो, अथवा एक ही हो। (सोल) पुं० दे० ‘इकाई’।
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एकक-निगम  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह निगम जिसका संबंद केवल एक ही व्यक्ति से हो। (सोल कॉरपोरेशन) जैसे—राजा एकक निगम है।
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एक-कलम  : क्रि० वि० [फा० यक कलम] १. पूरी तरह से। २. एक दम से। एक बारगी।
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एकक-शारीरिक  : पुं०=एकक निगम।
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एककालिक  : वि० [सं० एककाल, कर्म० स०+ठञ्-इक] १. एक काल या समय में अथवा एक ही बार घटित होने वाला। जैसे—एक-कालिक दान। २. (संबंध के विचार से) किसी और घटना या घटनाओं के साथ एक ही काल या समय में घटित होनेवाला। समकालीन।
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एककालीन  : वि० [सं० एक-काल, कर्म० स०+खञ्-ईन] दे० ‘एक-कालिक’।
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एक-कुंडल  : पुं० [ब० स०] १. कुबेर। २. शेषनाग। ३. बलराम।
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एक-कृष्ट  : वि० [कर्म० स०] (खेत) जो एक ही बार जोता गया हो।
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एककोशी (शिन्)  : वि० [सं० एक-कोश, कर्म० स०+इनि] १. एक ही कोश से बना हुआ। २. (जीव या प्राणी) जिसमें केवल एक ही कोश हो।
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एक-गाछी  : स्त्री० [हिं० एक+गाछ-पेड़] वह नाव जो केवल एक ही पेड़ के तने को खोखला करके बनाई गई हो।
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एक-चक्र  : पुं० [ब० स०] १. सूर्य का रथ जिसमें एक ही पहिया माना गया है। २. सूर्य। वि० १. चक्रवर्ती (राजा) २. एक पहियेवाला।
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एकचक्रा  : स्त्री० [सं० एकचक्र+टाप्] वर्तमान आरे के पास की एक प्राचीन नगरी, जहाँ बकासुर रहता था।
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एकचक्री  : स्त्री० [सं० एकचक्र+ङीष्] ऐसी गाड़ी जिसमें केवल एक चक्र या पहिया हो।
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एकचर  : वि० [सं० एकचर् (गति)+अच्] १. अकेले घूमने-फिरने या विचरनेवाला। २. (ऐसा पशु, पक्षी या प्राणी) जो अपने वर्ग के अथवा अन्य पशु-पक्षियों आदि के साथ झुंड बनाकर न रहता हो, बल्कि एकेले ही विचरता हो। जैसे—गेंडा, साँप आदि।
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एक-चश्म  : पुं० [हिं० एक+फा० चश्म] १. चित्रकला में मनुष्य की आकृति दिखाने का वह प्रकार जिसमें उसके चेहरे का एक ही पार्श्व और एक ही आँख अंकित होती है। २. उक्त चित्र। (प्रोफाइल, उक्त दोनों अर्थो में)
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एकचारिणी  : स्त्री० [सं० एकचारिन्+ङीष्] ऐसी स्त्री जिसका संबंध एक ही पुरुष से हो, अर्थात् पतिव्रता।
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एकचारी (रिन्)  : वि० [सं० एकचर्+णिनि] एक-चर।
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एकचित्त  : वि० एक-दिल।
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एकचोबा  : पुं० [हिं० एक+फा० चोब] एक प्रकार का छोटा खेमा जो एक ही खंभे पर खड़ा होता है।
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एकच्छत्र  : वि० [ब० स०] (राज्य) जो एक ही राजा के अधीन हो। जिसमें किसी और का कोई या किसी प्रकार का अधिकार न हो। पुं० राज्य-तंत्र में, वह शासन प्रणाली जिसमें किसी देश का पूर्ण शासन एक ही राजा या अधिनायक को प्राप्त होता है।
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एकज  : पुं० [सं० एकजन् (उत्पन्न होना)+ड] [स्त्री० एकजा] १. सगा भाई। २. शूद्र या द्विज नहीं होता। ३. राजा। वि० एक मात्र। एक ही।
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एकजद्दी  : वि० [फा०] एक ही पूर्वज से जन्मे हुए (वंशज) सपिंड वा संगोत्र।
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एक-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [ब० स०] १. शूद्र। २. राजा।
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एक-जाई  : वि० [फा० यकजाई] १. (परिवार के सब लोग) जो सब मिलकर एक ही स्थान में या साथ-साथ रहते हों। २. (संपत्ति) जिसका अभी बँटवारा न हुआ हो और जिसपर उसके सब मालिकों का समान अधिकार हो।
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एक-जात  : वि० [पं० त०] एक माता-पिता से उत्पन्न। सहोदर।
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एक-जाति  : वि० [ब० स०] एक ही जाति या वंश का। पुं० शूद्र।
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एक-जान  : वि० [हिं० एक+फा० जान] जो किसी दूसरे के साथ मिलकर पूरी तरह से एक हो गया हो। जैसे—कई दवाएँ एक में मिलाकर उन्हें एक-जान करना।
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एक-जीव  : वि० [ब० स०] (ऐसे दो या कई) जिनमें रूप, अस्तित्व आदि का कोई भेद न हो। अभिन्न। एकरूप।
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एकटँगा  : वि० [हिं० एक+टाँग] १. जिसकी एक ही टाँग हो। २. लँगड़ा।
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एकटकी  : स्त्री० [हिं० एकटक] टक लगाकर देखने की क्रिया या भाव। टकटकी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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एकट्टा  : वि० इकट्ठा।
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एकठा  : पुं० [हिं० एक+काठएककठा] ऐसी नाव जो काठ या लकड़ी के एक ही टुकड़े से बनी हो।
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एकड़  : पुं० [अ०] जमीन की एक पाश्चात्य नाप जो ४८४0 वर्ग गज (हमारे यहाँ के हिसाब से १-३/५ बीघे के बराबर) की होती है।
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एकडाल  : वि० [हिं० एक+डाल] १. एक मेल के। एक ही तरह के। २. एक ही टुकड़े का बना हुआ। पुं० ऐसी कटार या छुरा जिसका फल और बेंट दोनों लोहे के एक टुकड़े को गढ़कर बनाये गये हों।
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एकण  : वि०=एक। (राज०)
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एक-तंत्र  : वि० [ब० स०] (राज्य) जिसका शासन अधिकारी किसी एक व्यक्ति के हाथ में हो। पुं० ऐसी शासन प्रणाली जिसमें किसी देश का शासन एक ही व्यक्ति (अधिनायक या राजा) के हाथ में हो, और लोगों को उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार न हो।
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एकतः  : अव्य० [सं० एक+तसिल्] १. एक ओर से। २. एक ही प्रकार से। ३. एक जगह। एक स्थान पर।
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एकत  : अव्य०=एकत्र।
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एकतरफा  : वि० [फा०] १. किसी एक तरफ या पक्ष का। एक ही पक्ष से संबंध रखनेवाला। २. जिसमें किसी एक ही ओर या पक्ष का ध्यान रखा या विचार किया गया हो। दूसरे पक्ष का विचार हुआ हो। जैसे—एक तरफा डिगरी, एकतरफा फैसला। पद—एकतरफा डिगरी ऐसी डिगरी जो प्रतिवादी के न्यायालय में उपस्थित न होने की दशा में वादी को प्राप्त हुई हो। ३. जिसमें पक्षपात हुआ हो। ४. एक-रूखा। (देखें)।
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एकतरा  : पुं० [सं० एकोत्तर] एक दिन के अन्तर पर आनेवाला ज्वर। अँतरा ज्वर। पारी का बुखार।
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एकता  : स्त्री० [सं० एक+तल्-टाप्] १. एक होने की अवस्था या भाव। २. उद्देश्य, विचार आदि में सब लोगों का मिलकर एक होना। (यूनिटी) ३. बराबरी। समानता। वि० [फा० यकता] अद्वितीय। बेजोड़।
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एकताई  : स्त्री०=एकता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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एक-ताक  : वि० [हिं० एक+ताक] एक ही तरह के। एक जैसे। उदाहरण—प्रेम सहित मैया दै पठयो, सबै बनाए हैं एक-ताक।—सूर।
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एकतान  : वि० [सं० एकतन् (फैलना)+अण्] १. तनमय। एकाग्र-चित्त। २. जो सब मिलकर एक या एक ही तरह के हो गये हों।
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एक-तार  : वि० [हिं० एक+तारक्रम] एक ही रूप-रंग के। एक-से। क्रि० वि० निरंतर। लगातार। उदाहरण—आकिंचन इंद्रियदमन रमन राम एक-तार।—तुलसी।
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एकतारा  : पुं० [हिं० एक+तारा] सितार की तरह का एक बाजा। जिसमें एक ही तार लगा होता है।
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एक-ताल  : वि० [ब० स०] जिसमें ताल-सुर का पूरा मेल हो।
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एक-ताला  : पुं० [सं० एकताल] संगीत में बारह मात्राओं का एक ताल जिसमें केवल तीन आघात होते हैं।
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एकतालीस  : वि०=इकतालीस
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एकतीर्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० एक-तीर्थ, कर्म० स०+इनि] १. एक ही तीर्थ में स्नान करनेवाला। २. सदा एक ही आश्रम या पथ में रहनेवाला। पुं० वह जो एक ही आश्रम में रहा हो और जिसने एक ही गुरु से शिक्षा पाई हो।
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एकतीस  : वि०=इकतीस।
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एकत्थ  : वि० [सं० एकस्थ] =एकत्र (इकट्ठा)।
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एकत्र  : क्रि० वि० [सं० एक+त्रल्] एक स्थान पर या एक जगह (इकट्ठा किया हुआ) जैसे—पुस्तकें एकत्र करना।
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एकत्रा  : पुं० [सं० एकत्र] कुल जोड़। मीजान। जैसे—इन रकमों का एकत्रा लगा डालों।
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एकत्रित  : भू० कृ० [सं० एकत्र+इतच्] एक स्थान पर इकट्ठा या जमा किया हुआ।
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एकत्तौ  : वि०=एकत्र (इकट्ठा)।
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एकत्व  : पुं० [सं० एक+त्व] एक होने की अवस्था या भाव। एकता।
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एकदंडी (डिन्)  : पुं० [सं० एक-दंड, कर्म० स०+इनि] संन्यासियों का एक भेद जिनकी उपाधि हंस है।
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एक-दंत  : पुं० [ब० स०] गणेश। वि० एक दाँतवाला।
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एक-दंता  : वि० [सं० एकदंत] [स्त्री० एकदंती] एक दाँतवाला। जिसके एक दाँत हो। जैसे—एक-दंता हाथी।
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एक-दंष्ट्र  : पुं० [ब० स०] गणेश।
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एकदम  : अव्य० [हिं०] १. तत्काल। तुरंत। जैसे—एकदम वहाँ से लौट आना। २. एक-बारगी। जैसे—एकदम नाव उलट गई। ३. बिलकुल। जैसे—संस्था का सारा रुपया वे एकदम हजम कर गये हैं।
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एकदरा  : वि० [हिं० एक+फा० दर] (कमरा या दालान) जो एक ही दर का हो।
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एकदस्ती  : स्त्री० [फा०] कुश्ती का एक पेंच।
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एकदा  : अव्य० [सं० एक+दा] १. किसी समय। कभी। २. किसी बीते हुए अनिश्चित समय में।
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एकदिल  : वि० [हिं०] १. (व्यक्ति) जिनके विचार या स्वभाव एक दूसरे से बिलकुल मिलते हों। २. (पदार्थ) जो एक दूसरे में मिलकर बिलकुल एक हो गये हों।
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एकदिली  : स्त्री० [हिं० एकदिल] एक दिल होने की अवस्था या भाव।
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एक-दृक् (श्)  : वि० [सं० ब० स०] १. काना। २. सम-दर्शी। पुं० १. शिव। २. ब्रह्मज्ञानी। ३. कौआ।
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एक-दृष्टि  : वि० पुं० [ब० स०] =एक दृक्।
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एकदेशी (शिन्)  : वि० [सं० एक-देश, कर्म० स०+इनि] १. जिसका संबंध किसी एक देश से हो। एक देश में होनेवाला। २. (नियम या सिद्धान्त) जो किसी एक क्षत्र या पक्ष के लिए ही ठीक हो, सब देशों के लिए नहीं।
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एकदेशीय  : वि० [सं० एक-देश+छ-ईय] एकदेशी। पुं० षष्ठी पुरुष तत्पुरुष समास का एक भेद।
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एक-देह  : पुं० [ब० स०] १. बुध-ग्रह। २. गोत्र। ३. कुल। वंश। ४. पति और पत्नी। दंपति। वि० एक शरीरवाला।
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एक-धर्मी (र्मन्)  : वि० [ब० स०] समान गुण, धर्म या स्वभाव वाला। धर्म या गुण के विचार के किसी के समान होनेवाला।
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एक-धर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० एक-धर्म, कर्म० स०+इनि] एक धर्म।
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एक-नयन  : वि० [ब० स०] १. एक आँखवाला। एकाक्ष। २. काना। पुं० १. शिव। २. कुबेर। ३. शुक्र ग्रह। ४. कौआ।
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एक-निष्ठ  : वि० [ब० स०] [स्त्री० एक-निष्ठा] १. एक ही के प्रति निष्ठा, श्रद्धा या अनुराग रखनेवाला। अनन्योपासक। २. एकाग्रचित्त होकर कोई काम करनेवाला। जैसे—हिंदी की एक-निष्ठ सेवा।
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एक-नेत्र  : पुं० [ब० स०] शिव।
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एकन्नी  : स्त्री० इकन्नी (एक आने मूल्य का सिक्का)।
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एक-पक्षीय  : वि० [सं० एक-पक्ष, कर्म० स०+छ-ईय] १. किसी एक पक्ष, दल या अंग से संबंध रखनेवाला (युनिलेटरल) २. एक तरफा। (दे०)
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एकपटा  : वि० [हिं० एक+पाटचौड़ाई] [स्त्री० एक-पटी] (कपड़ा) जो एक ही पाट का बना हो अर्थात् जिसमें जोड़ न हो।
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एक-पत्नी  : स्त्री० [एक-पति, ब० स० ङीष्, नुक्] पतिव्रता स्त्री।
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एक-पत्नी-व्रत  : पुं० [ब० स०] वह पुरुष जिसने अपनी पत्नी के अतिरिक्त और किसी स्त्री से प्रेम-संबंध स्थापित न किया हो।
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एक-पद  : वि० [ब० स०] १. एक पैरवाला। २. लँगड़ा। पुं० १. कैलाश। २. वैकुण्ठ। ३. एक प्राचीन देश (बृहत्सं०)। ४. काम-शास्त्र में रति या संभोग का एक आसन या रति-बंध।
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एकपदी (दिन्)  : वि० [एक-पद, कर्म० स०+इनि] एक पद या चरणवाला। (पद्य या छंद)। स्त्री० [ब० स० ङीष्, पादपदादेश] पगडंडी।
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एक-पर्णा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] दुर्गा।
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एक-पर्णी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] दुर्गा।
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एक-पालिया  : वि० [हिं० एक+पल्ला] जिसमें एकही पल्ला हो, दूसरा पल्ला न हो या न होता हो।
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एक-पात्  : पुं० [सं० एक-पाद, ब० स०] १. विष्णु। २. सूर्य। ३. शिव।
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एक-पात  : वि० [ब० स०] अकस्मात् या अचानक होनेवाला। पुं० मंत्र का पहला शब्द या प्रतीक।
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एक-पाद  : वि० [ब० स०] लँगड़ा। एक टँगा। पुं० १. शिव। २. विष्णु।
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एकपास  : अव्य० [हिं० एक+पास] पास-पास। समीप या साथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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एक-पिंग  : पुं० [ब० स०] कुबेर।
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एकपेचा  : वि० [फा०] जिसमें एक ही पेंच या ऐंठन पड़ी हो। पुं० एक प्रकार की पगड़ी (पश्चिम)
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एक-प्राण  : वि० [ब० स०] जो आपस में मिलकर बिलकुल एक हो गये हों।
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एकफसला  : वि० [फा० एकफर्दा, हिं० एक+फसल] (खेत या भूमि) जिसमें वर्ष भर में एक ही फसल उपजती हो।
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एक-ब-एक  : अव्य० [फा० यक-ब-यक] अकस्मात्। अचानक। सहसा।
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एकबद्दी  : स्त्री० [हिं० एक+बाँधना]नाव का ऐसा लँगर जिसमें केवल दो अँकुड़े हों। वि० जिसमें एक ही बाध या रस्सी हो।
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एक बारक*  : अव्य० दे ‘एकबारगी’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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एकबारगी  : अव्य० [फा०] १. एक ही समय में। एक ही साथ। २. अकस्मात्। अचानक। ३. निरा। बिलकुल।
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एकबाल  : पुं० =इकबाल।
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एक-भाव  : वि० [ब० स०] १. एकनिष्ठ। २. जिनमें परस्पर समान भाव (गुण, धर्म आदि) हों।
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एक-भुक्त  : वि० [ब० स०] जो दिन में एक ही बार भोजन करता हो। पुं० एक बार भोजन करने का व्रत।
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एक-भूम  : वि० [ब० स०] एक ही खंड या मंजिलवाला (घर या मकान)।
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एक-मंजिला  : वि० [हिं०] (मकान) जिसमें एक ही मकान या खंड हो, ऊपर दूसरा खंड न हो। एक-तल्ला।
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एक-मत  : वि० [ब० स०] (लोग) जो किसी विषय में एक या एक-सा मत रखते हों। एक ही तरह की राय रखनेवाले।
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एक-मात्रिक  : वि० [सं० एक-मात्रा+ठक्-इक] जिसमें एक ही मात्रा हो। एक मात्रावाला।
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एक-मुँहा  : वि० [हिं० एक+मुँह] जिसका एक ही मुँह हो। एक ही मुँहवाला।
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एक-मुख  : वि० [ब० स०] १. एक ही लक्ष्य की ओर प्रवृत्त। २. एक ही दरवाजे वाला। (मकान)।
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एकमुखी (खिन्)  : वि० [एक-मुख, कर्म० स०+इनि] एक मुँहवाला। पद—एकमुखी रुद्राक्ष=ऐसा रुद्राक्ष जिसमें फाँकवाली एक ही लकीर हो।
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एकमुश्त  : अव्य० [फा] (धन) जो एक ही साथ या एक ही बार किसी को दिया जाय। जैसे—सारा देन एक-मुश्त चुकाया।
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एक-मेक  : वि० [हिं० एक] जो किसी में मिलकर उसके साथ बिलकुल एक हो गया हो।
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एक-रंग  : वि० [हिं० एक+रंग] १. जिसमें सब जगह एक ही वर्ण या रंग हो। एक ही रंग का। जैसे—यह कबूतर एक-रंग सफेद है। २. प्रकार, रूप आदि के विचार से, जिसमें आदि से अंत तक या ऊपर से नीचे तक कहीं कोई अंतर या भेद न हो। एक-सा। जैसे—हमारे साथ तो उनका व्यवहार सदा एक-रंग रहा है।
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एक-रंगा  : वि० [हिं०] जो एक ही रंग का हो। एक रंगवाला। पुं० लालरंग का एक प्रकार का कपड़ा। तूल।
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एक-रदन  : पुं० [ब० स०] गणेश।
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एक-रस  : वि० [ब० स०] १. जो आदि से अंत तक एक-सा हो। बिलकुल एक ही तरह का। २. जो किसी के साथ घुल-मिलकर एक हो गया हो।
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एकरसता  : वि० [सं० एकरस+तल्-टाप्] एक-रस होने की अवस्था या भाव।
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एक-रात्र  : पुं० [ब० स०] एक ही रात में पूरा होनेवाला यज्ञ।
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एकरार  : पुं०=इकरार।
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एक-रूखा  : वि० [हिं० एक+फा० रुख] १. जिसका मुँह एक ही ओर हो। एक रुखवाला। एकतरफा। २. (कपड़ा, कागज आदि) जिस पर एक ही ओर बेल-बूटे आदि बने हों और जो दूसरी ओर बिलकुल सादा हो।
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एक-रूप  : वि० [ब० स०] १. जिसका रूप या प्रकार सब अवस्थाओं में एक-सा रहे। समान रूपवाला। २. सदा एक सा बना रहनेवाला। ३. विकारों आदि से रहित।
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एकरूपता  : स्त्री० [सं० एकरूप+तल्-टाप्] १. एक-रूप होने की अवस्था या भाव। २. सायुज्य मुक्ति। (दे०)।
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एकरूपी (पिन्)  : वि० [सं० एक-रूप, कर्म० स०+इनि] [स्त्री० एक-रूपिणी, भाव० एकरूपता]=एकरूप।
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एकलंगा  : पुं० [हिं० एक+अलंग-पार्श्व डंड] कुश्ती का एक पेंच।
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एकलंगा डंड  : पुं० [हिं० एक+अलंगपार्श्व+डंड] डंड नामक कसरत का वह प्रकार जिसमें एक ही हाथ पर शरीर का सारा भाग देकर झुकते और उठते हैं।
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एकल  : वि० [सं० एकला (आदान)+क] १. जो एक ही से बना हो। २. अकेला। अद्वितीय। अनुपम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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एकलया  : वि० [हिं० एकल]=अकेला। क्रि० वि० एकदम से। अचानक सहसा। उदाहरण—अरथं ढंकिन सरसा, उघ्घारै न नथ्थि एकलया।—चंदवरदाई।
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एकलव्य  : पुं० [सं० ] एक निषाद जिसने द्रोणाचार्य की मूर्ति को प्रतिष्ठित कर उसे ही गुरु मानकर उसके सामने शस्त्राभ्यास किया था।
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एकला  : वि० [सं० एकल] [स्त्री० एकली] अकेला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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एक-लिंग  : वि० [ब० स०] १. (शब्द) जो सदा एक ही लिंग में प्रयुक्त होता हो। २. एकलिंगी। पुं० १. एक प्रसिद्ध शिव-लिंग जो मेवाड़ के महाराणाओं और गहलौत राजपूतानों के कुल-देवता हैं। २. कुबेर।
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एकलिंगी  : वि० [सं० ] १. (जीव या प्राणी) जो नर या मादा में से किसी एक लिंग से युक्त हो। २. (फूल या वनस्पति) जिसमें एक ही लिंग प्रमुख रूप से काम करता हो, और दूसरा लिंग न हो अथवा अक्रिय और दबा हुआ हो। (यूनीसेक्सुअल)
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एकलेखा  : पुं० [?] एक प्रकार का पौधा और उसका फूल।
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एकलौता  : वि०=इकलौता।
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एकवचन  : वि० [सं० एकवच् (कहना)+ल्युट-अन] व्याकरण में (ऐसा शब्द या पद) जो किसी एक व्यक्ति या वस्तु का वाचक हो। (सिंगुलर)
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एकवचनांत  : वि० [एकवचन-अंत, ब० स०] (शब्द) जिसमें एक वचन की विभक्ति लगी हो।
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एक-वर्ण  : वि० [ब० स०]=एक-रंग।
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एकवर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं० एक-वर्ष, कर्म० स०+इनि] (पौधा) जो एक ही वर्ष तक रहता हो, और इस बीच में एक ही बार फलता-फूलता हो।
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एक-वस्त्रा  : वि० स्त्री० [ब० स० टाप्] (स्त्री) जो एक ही कपड़ा पहने हो, अर्थात् रजस्वला (जिसके लिए रजःकाल में एक ही कपड़ा पहनने का विधान है।)
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एकवाँज  : स्त्री० [सं० एक-वंध्या] वह स्त्री जिसे एक ही बच्चा होने के बाद और कोई बच्चा न हुआ हो काक-वंध्या।
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एक-वाक्य  : वि० [ब० स०] (लोग) जिनका एक ही मत हो। एक-मत।
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एकवाक्यता  : [सं० एकवाक्य+तल्-टाप्] किसी विषय में संबद्ध लोगों का एक मत रहना या होना। ऐकमत्य।
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एकविंश  : वि० [सं० एकविंशति+डट्] गिनती में इक्कीस के स्थान पर पड़नेवाला। इक्कीसवाँ।
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एक-विंशति  : वि०, स्त्री० [मध्य० स०] =इक्कीस।
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एक-विध  : वि० [ब० स०] एक ही विधि या प्रकार से रहने या होनेवाला।
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एक-विलोचन  : पुं० [ब० स०] १. कुबेर। २. कौआ। ३. पश्चिमोत्तर दिशा का एक देश। (बृहत्संहिता)।
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एक-विवाह  : पुं० [ब० स०] वह सामाजिक प्रथा या व्यवस्था जिसमें पुरुष या स्त्री को एक समय में एक ही स्त्री या पुरुष के साथ विवाह करने का अधिकार हो। (मॉनोगेमी)
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एक-वृंद  : पुं० [कर्म० स०] रक्त के विचार से गले में होनेवाला कफ सबंधी एक रोग।
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एक-वेणी  : स्त्री० [कर्म० स०] १. सीधे-सादे ढंग से बँधा जूड़ा या चोटी। २. उक्त प्रकार का जूड़ा बाँधनेवाली स्त्री (अर्थात् विधवा या वियोगिनी)।
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एक-शफ  : वि० [ब० स०] (पशु) जिसका प्रत्येक खुर पूरा हो। बीच से फटा न हो। जैसे—गधा या घोड़ा।
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एक-शासन  : पुं० [ष० त०] ऐसा शासन जिसकी सत्ता एक ही व्यक्ति के हाथ में हो।
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एक-शेष  : पुं० [ब० स०] द्वन्द समास का एक भेद, जिसमें दो पदों में से एक ही पद शेष या बाकी रह जाता है।
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एक-श्रुत  : वि० [स० त०] एक बार का सुना हुआ।
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एकश्रुत-घर  : वि० [ष० त०] जो एक ही बार सुनकर कोई बात (पद्य या वाक्य) पूरी तरह से याद कर ले।
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एक-श्रुति  : स्त्री० [ब० स०] वेद-पाठ का वह प्रकार जिसमें उदात्त-अनुदात्त आदि का विचार नहीं किया जाता।
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एक-षष्ठि  : वि० [मध्य० स०]=इकसठ।
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एकसठ  : वि०=इकसठ।
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एक-सत्ताक  : वि० [ब० स० कप्] (राज्य या शासन) जिसमें सारी सत्ता एक ही अधिकारी के हाथ में हो। एक-तंत्री।
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एक सत्तावाद  : पुं० [सं० एका-सत्ता, कर्म० स० एकसत्ता-वाद, ष० त०] वह दार्शनिक सिद्धांत जिसमें सत्ता ही प्रधान वस्तु मानी गई है।
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एक सदनी  : वि० [सं० एक-सदन+हिं० ईप्रत्यय] (ऐसी शासन प्रणाली) जिसमें केवल एक विधायक सभा हो। (यूनिकेमरल)।
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एक-समान  : वि० [सं० सुप्सुपा० स०] [भाव० एक समानता] एक ही तरह का या एक ही प्रकार का। एक-सा। (यूनिफार्म)।
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एकसर  : वि० [हिं० एक+सर(प्रत्यय)] १. जिसके साथ और कोई न हो। अकेला। २. जिसमें एक ही परत या पल्ला हो। क्रि० वि० १. एक सिरे से दूसरे सिरे तक। २. निरा। बिलकुल। ३. निरंतर। लगातार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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एकसाँ  : वि० [फा] १. किसी के तुल्य, समान या बराबर। २. सम-तल।
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एक-साक्षिक  : वि० [ब० स० कप्] जिसका एक ही साक्षी (गवाह) हो, अधिक न हों।
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एकसाला  : वि० [फा] जिसकी अवधि या व्याप्ति एक ही साल या वर्ष तक हो। एक वर्षी। जैसे—एक-साला पट्टा, एक-साला पेड़।
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एक-सिद्धि  : स्त्री० [मध्य० स] ऐसी सिद्धि जो किसी एक ही उपाय या साधन से होती या हो सकती हो।
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एकसुरा  : वि० [हिं० एक+सुर=स्वर] जो बराबर एक-सा स्वर उत्पन्न करता हो, और इसीलिए जिससे मन ऊब जाय। (मॉनोटोनस)।
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एकसुरापन  : पुं० [हिं० एक सुरा+पन] एक सुरे होने की अवस्था या भाव। (मॉनोटोनी)।
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एक-सूत्र  : वि० [ब० स०] [भाव० एक-सूत्रता] १. जिसमें एक ही सूत्र हो। २. एक-रूप। ३. एक-साथ बँधा या लगा हुआ। पुं० डमरू।
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एकस्थ  : वि० [सं० एक√स्था (ठहरना)+क] एक पर स्थित या केन्द्रित।
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एक-स्व  : पुं० [ष० त०] निबंधन का एक प्रकार, जिसमें किसी की निकाली या बनाई हुई नई युक्ति या वस्तु की रचना, प्रकार आदि पर उसके निर्माता को एकान्त अधिकार प्राप्त हो जाता है। (पेटेन्ट)।
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एकस्व-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह राजकीय अधिकार-पत्र जिसके द्वारा किसी को किसी प्रकार का एकस्व या एकाधिकार प्राप्त होता है। (लेटर्स पेटेण्ट)
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एकहत्तर  : वि०=इकहत्तर।
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एकहत्था  : वि० [हिं० एक+हाथ] १. जिसका एक ही हाथ हो, दूसरा हाथ न हो। एक हाथवाला। २. एक ही व्यक्ति या संस्था के हाथ में रहनेवाला। जिसपर किसी का एकाधिकार हो। जैसे—एक-हत्था रोजगार या व्यापार।
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एकहत्थी  : स्त्री० [हिं० एक+हाथ] मालखंभ की एक कसरत।
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एकहरा  : वि० [सं० ] [स्त्री० एकहरी]=इकहरा।
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एकहाज्ञ  : पुं० [सं० ] नृत्य का एक प्रकार।
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एकांक  : वि० [सं० एक-अंक, ब० स०]=एकांकी।
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एकांकी  : वि० [सं० एकांक] (दृश्यकाव्य या नाटक) जो एक ही अंक में पूरा हो। जिसमें एक ही अंक हो। पुं० १. दस प्रकार के रूपको में से एक। २. आजकल वह छोटा नाटक जिसमें कई दृश्यों का एक ही अंक हो। (वन-एक्ट-प्ले)
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एकांग  : वि० [एक-अंग, ब० स०] १. एक अंगवाला। २. जिसका कोई एक अंग नष्ट हो गया हो तथा दूसरा एक ही अंग बच रहा हो। विकलांग। पुं० १. विष्णु। २. बुध ग्रह। ३. चंदन। ४. सिर।
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एकांग-घात  : पुं० [ब० स०] अंगघात रोग का एक प्रकार जिसमें दाहिने या बाँए हाथ या पैर में से कोई एक अंग सुन्न और अक्रिय हो जाता है। (मॉनो-प्लेगिया)।
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एकांग-वध  : पुं० [ष० त०] प्राचीन भारत में अपराधी को दिया जानेवाला वह दंड जिसमें उसका कोई एक अंग काट लिया जाता है।
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एकांग-वात  : पुं० [ब० स०] पक्षाघात। लकवा।
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एकांगी  : वि० [सं० एकांग] १. जिसका एक ही अंग हो। एक अंगवाला। २. जिसका संबंध एक ही अंग या पक्ष से हो। एक-तरफा। एक-पक्षीय। ३. एक ही बात पर अड़ा रहनेवाला। जिद्दी। हठी। स्त्री० एक ओषधि जो वात या रुधिर-संबंधी विकारों को दूर करनेवाली कही गई है।
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एकांत  : वि० [एक-अन्त, ब० स०] १. (स्थान) जो निर्जन या सूना हो। २. पूरी तरह से किसी एक ही पक्ष में रहनेवाला या किसी नियम, निष्ठा आदि का पालन करनेवाला। एक को छोड़ और किसी ओर ध्यान न देनेवाला। जैसे—दुर्गा या शिव का एकांत भक्त। पुं० ऐसा स्थान जहाँ कोई न हो। निर्जन स्थान। पद—एकांत-कैवल्य—=१. एकांत-वास। २. जीवन्मुक्ति।
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एकांतता  : स्त्री० [सं० एकांत+तल्-टाप्] एकांत होने की अवस्था या भाव।
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एकांतर  : वि० [सं० एक-अंतर, ब० स०] क्रमात् हर बार बीच में अगले एक को छोड़कर उसके बाद वाले स्थान पर आने या पड़नेवाला। जैसे—१, ३, ५, ७, ९, आदि या २, ४, ६, ८, १0 आदि एकांतर संख्यायें हैं।
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एकांतरिक  : वि० [सं० एकांतर, एक-अंतर, कर्म० स०+ठक्-इक] एकांतर।
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एकांत-वास  : पुं० [स० त०] [वि० एकांतवासी] एकांत अर्थात् निर्जन स्थान में रहने की क्रिया या भाव। ऐसे स्थान में रहना जहाँ और कोई मनुष्य न बसता या न रहता हो। विशेष—यह अपनी इच्छा से भी होता है, और दंड-स्वरूप या राजाज्ञा आदि के कारण भी।
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एकांतवासी (सिन्)  : वि० [सं० एकांतवस् (बसना)+णिनि] [स्त्री० एकांतवासिनी] १. एकांत में रहनेवाला। २. एकांतवास करनेवाला।
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एकांत-स्वरूप  : वि० [सं० ब० स०] १. जो किसी के साथ कुछ भी मिलता न हो। २. असंग। निर्लिप्त।
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एकांतिक  : वि०=ऐकांतिक।
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एकांती (तिन्)  : पुं० [सं० एकांत+इनि] ऐसा भक्त, जो सबसे अलग होकर तथा निर्जन स्थान में बैठकर एकाग्र चित्त से अपने देवी या देवता का भजन करता हो।
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एका  : स्त्री० [सं० एक+टाप्] दुर्गा। पुं० [हिं० एक] सब लोगों का मिलकर (किसी विषय में) एकमत होना। एकता। (यूनिटी)
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एकाई  : स्त्री०=इकाई।
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एकाएक  : क्रि० वि० [फा० यकायक] अकस्मात्। अचानक। सहसा।
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एकाएकी*  : क्रि० वि०=एकाएक। वि०=एकाकी (अकेला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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एकाकार  : पुं० [सं० एक-आकार, ब० स०] किसी में मिलकर इस प्रकार एक हो जाना कि आकार या स्वरूप के विचार से दोनों में कोई भेद न रह जाय। वि० १. एक से आकार-प्रकार का। २. जो किसी में मिलकर उसी के आकार या रूप का हो गया हो। ३. कइयों के योग से जिसने एक-रूप धारण कर लिया हो।
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एकाकी (किन्)  : वि० [सं० एक+आकिन्] [स्त्री० एकाकिनी] जिसके साथ और कोई न हो। अकेला।
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एकाक्ष  : वि० [सं० एक-अक्षि, ब० स० षच्] [स्त्री० एकाक्षी] १. जिसकी एक ही आँख हो। एक आँखवाला। २. जिसकी एक ही आँख बच रही हो, दूसरी न रह गई हो। काना। ३. एक ही अक्ष पर रहने या घूमनेवाला। (यूनी-एक्सिअल) पुं० १. शुक्राचार्य। २. कौआ।
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एकाक्ष-पिंगल  : पुं० [ब० स०] कुबेर।
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एकाक्षर  : वि० [सं० एक-अक्षर, ब० स०] जिसमें एक ही अक्षर हो। एक अक्षरवाला। पुं० एक अक्षर का मंत्र ‘ॐ’।
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एकाक्षरी (रिन्)  : वि० [सं० एकाक्षर, एक-अक्षर, कर्म० स०+इनि] १. जिसमें एक ही अक्षर हो। एक अक्षरवाला। जैसे—एकाक्षरी मंत्र। २. जिसमें एक-एक अक्षर अलग-अलग हो। प्रत्येक अक्षर के विचार से अलग-अलग रहने या होनेवाला। जैसे—एकाक्षरी कोश।
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एकाक्षरी कोश  : पुं० [सं० व्यस्त पद] वह कोश जिसमें प्रत्येक अक्षर के अलग-अलग अर्थ दिये हों।
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एकाक्ष-रूद्राक्ष  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा रुद्राक्ष जिसमें एक ही आँख या बिंदी हो। एकमुखी रुद्राक्ष। (यह बहुत कम मिलता है और शुभ माना जाता है)।
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एकाक्षी  : वि० एकाक्ष।
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एकाग्र  : वि० [सं० एक-अग्र, ब० स०] १. किसी एक ही वस्तु या विषय पर दत्तचित्त होकर पूरा ध्यान लगानेवाला। जैसे—एकाग्र दृष्टि। २. किसी में मिला या समाया हुआ। पुं० [सं० ] चित्त की पाँच अवस्थाओं या वृत्तियों में से एक,जिसमें चित्त निरंतर किसी एक ही बात या विषय में लगा रहता है। (योग)।
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एकाग्र-चित्त  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जिसका चित्त या ध्यान किसी एक बात में लगा हो। जो पूरी लगन से किसी एक ही काम या बात में लीन हो।
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एकाग्रता  : स्त्री० [सं० एकाग्र+तल्-टाप्] एकाग्र होने की अवस्था या भाव।
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एकाग्र-दृष्टि  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी दृष्टि किसी एक ही चीज या बात पर लगी हो। जो टक लगाये हुए देख रहा हो।
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एकाग्र-भूमि  : स्त्री० [कर्म० स०] चित्त की वह अवस्था, जिसमें वह किसी एक बात पर जम या लगकर तद्रूप हो जाता है। (योग)।
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एकात्म (न्)  : वि० [सं० एक-आत्मन्, ब० स०] जो आत्मा की दृष्टि या विचार से किसी के साथ मिलकर एक हो गया हो। एक-प्राण। अभिन्न।
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एकात्मता  : स्त्री० [सं० एकात्मन्+तल्-टाप्] १. एकात्म होने की अवस्था या भाव। एकता। २. दो वस्तुओं का आपस में इस प्रकार मिलना कि एक वस्तु दूसरी को आत्मसात् कर ले। ३. गुण रूप आदि के विचार से किसी के इतना समान होना कि दोनों एक दूसरे सी जान पड़े। (आइडेण्टिटी)
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एकात्म-वाद  : पुं० [ष० त०] यह वाद या सिद्धांत कि आत्मा या जीव और ब्रह्म वस्तुतः एक ही है। अद्धैतवाद।
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एकादश  : वि० पुं० [सं० एक-दशन्, मध्य० स०] ग्यारह। गिनती में दस से एक ऊपर।
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एकादशाह  : पुं० [सं० एकादश-अहन्, द्विगुस०] किसी के मरने के ग्यारहवें दिन किया जानेवाला कर्मकांड का कृत्य।
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एकादशी  : स्त्री० [सं० एकादश+ङीष्] प्रत्येक चौंद्रमास के शुक्ल और कृष्ण पक्ष की ग्यारहवी तिथि, जिस दिन उपवास या व्रत का विधान है।
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एकाध  : वि० [हिं० एक+आध] जो गिनती में बहुत ही कम हो, अर्थात् एक या दो से अधिक न हो।
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एकाधिकार  : पुं० [सं० एक-अधिकार, ष० त०] किसी क्षेत्र या बात में अथवा किसी वस्तु के व्यवसाय या व्यापार पर होनेवाला किसी व्यक्ति या संस्था का ऐसा पूरा-पूरा अधिकार या नियंत्रण जिसमें और कोई साझीदार न हो। (मानोपोली)
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एकाधिप  : पुं० [सं० एक-अधिप, कर्म० स०] १. सारे देश पर एकच्छत्र राज्य करनेवाला। राजा। २. अकेला या एकमात्र स्वामी।
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एकाधिपत्य  : पुं० [सं० एक-आधिपत्य, ष० त०] १. किसी कार्य या देश आदि पर होनेवाला किसी एक व्यक्ति का पूर्ण अधिकार या आधिपत्य। २. दे० ‘एकाधिकार’।
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एकायन  : वि० [सं० एक-अयन्, ब० स०] एकाग्र। पुं० १. ऐसा एक ही मार्ग जिसे छोड़कर और कोई मार्ग न हो। २. नीति-शास्त्र।
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एकार  : पुं० [सं० ए+कार] ए अक्षर और उसकी ध्वनि। क्रि० वि० [सं० एक+हिं०वार] एक साथ। एकदम से। उदाहरण—आर्णेद उमै हुआ एकार।—प्रिथीराज।
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एकार्गल  : पुं० [सं० एक-अर्गल, कर्म० स०, ब० स० वा] ज्योतिष में, खर्जूरवेध नामक योग।
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एकार्थ  : वि० [सं० एक-अर्थ, ब० स०] १. एक ही अर्थवाला। २. (दो या कई शब्द) जिनके अर्थ एक-से हों।
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एकार्थक  : वि० [सं० एक-अर्थ, ब० स० कप्] (शब्द या पद) जिनके अर्थ एक से ही या समान हो। समानार्थक। (इक्विवेलेन्ट) जैसे—आदित्य और सूर्य एकार्थक हैं।
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एकावली  : स्त्री० [सं० एका-आवली, कर्म० स०] १. एक ही लड़ की मोतियों की लंबी माला या हार। २. साहित्य में एक अलंकार जिसमें उत्तरोत्तर एक के बाद एक बात की स्थापन या निषेध करते हुए बातों की लड़ी बाँध दी जाती है। जैसे—कूर्म पर वराह, वराह पर शेषनाग, शेषनाग पर पृथ्वी, पृथ्वी पर हिमालय, हिमालय पर शिव और शिव की जटा पर गंगा विराजती है। ३. पंकजवाटिका नामक छंद का एक नाम।
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एकाह  : वि० [सं० एक-अहन्, कर्म० स० टच्] एक ही दिन में पूरा होनेवाला (कार्य)। जैसे—रामायण का एकाह पाठ, एकाह यज्ञ आदि।
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एकाहार  : पुं० [सं० एक-आहार, कर्म० स०] १. कोई एक ही चीज खाकर रहने की प्रतिज्ञा या व्रत। २. दिन-रात में एक ही बार भोजन करने का नियम या व्रत।
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एकाहारी (रिन्)  : पुं० [सं० एकाहार+इनि] १. वह जो एकाहार के व्रत का पालन करता हो। २. वह जो दिन-रात में एक बार भोजन करता हो।
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एकाहिक  : वि० [सं० एकाह+ठन्-इक]=एकाह।
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एकीकरण  : पुं० [सं० एक+च्वि√कृ (करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० एकीकृत] १. दो या दो से अधिक वस्तुओं संख्याओं आदि को मिलाकर एक करने की क्रिया या भाव। (एमल्गमेशन) २. दो या दो से अधिक व्यक्तियों, दलों आदि में एकता या मतैक्य स्थापित करना। (युनिफिकेशन)
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एकीकृत  : भू० कृ० [सं० एक+च्वि√कृ+क्त] किसी और या औरों के साथ मिलाकर एक किया हुआ।
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एकीभाव  : पुं० [सं० एक+च्वि√भू (होना)+अच्] [वि० एकीभूत] १. दो या कई वस्तुओं, विचारों आदि का मिलकर एक होना। २. दो या कई बातों अथवा वस्तुओं का एक ही प्रकार या रूप का होना।
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एकीभूत  : भू० कृ० [सं० एक+च्वि√भू+क्त] १. जो किसी के साथ मिलकर एक हो गया हो। २. इकट्ठा या एकत्र किया हुआ।
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एकीय-राष्ट्र  : पुं० [सं० एक+छ-ईय, एकीय-राष्ट्र, कर्म० स०] वह राष्ट्र जिसके सब प्रदेश या राज्य एक ही केन्द्र से शासित होते हों। एक ही शासन के अधीन होनेवाला राष्ट्र। (यूनिटेरय स्टट)
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एकेंद्रिय  : पुं० [सं० एक-इंद्रिय, मध्य० स०] उचित और अनुचित सभी प्रकार की बातों या विषयों से इंद्रियों को हटाकर उन्हें अपने मन की ओर प्रवृत्त करना। [ब० स०] (सां० शा०)। २. ऐसा जीव या प्राणी जिसकी एक ही इंद्रिय (अर्थात् त्वचा) होती है। जैसे—केंचुआ, जोंक आदि।
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एकेश्वरवाद  : पुं० [सं० एक-ईश्वर, कर्म० स० एकेशवर-वाद, ष० त०] यह सिद्धांत कि इस जगत का कर्ता-धर्ता और सबका उपास्य एक ही ईश्वर है। (इसमें देवी-देवताओं का अस्तित्व नहीं माना जाता)।
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एकेश्वरवादी (दिन्)  : वि० [सं० एकेश्वरवाद+इनि] एकेश्वरवाद संबंधी। पुं० वह जो एकेश्वरवाद के सिद्धांत मानता हो और उनका अनुयायी हो।
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एकोतरसो  : वि० [सं० एकोत्तरशत] एक सौ एक।
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एकोतरा  : पुं० [सं० एकोत्तर] एक रुपया सैकड़े का ब्याज या सूद। वि०=एक-तरा। (ज्वर)।
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एकोद्दिष्ट (श्राद्ध)  : पुं० [सं० एक-उद्दिष्ट, ब० स०] प्रतिवर्ष किया जानेवाला एक प्रकार का श्राद्ध।
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एकौंझा  : वि०=अकेला।
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एक्का  : वि० [हिं० एक] १. गणना आदि के विचार से जो एक हो या एक से संबंद्ध हो। २. जिसके साथ और कोई न हो। अकेला। पद—एक्का-दुक्का-जो या तो अकेला हो या जिसके साथ कोई एक और हो। अकेला-दुकेला। पुं० १. दो पहियों वाली एक प्रकार की छोटी सवारी गाड़ी जिसमें एक घोड़ा जोता जाता है। २. ताश का वह पत्ता जिसमें एक ही बूटी होती है। ३. ऐसा पशु जो अकेले ही विचरता या रहता हो, झुंड में न रहता हो। ४. वह वीर या सैनिक जो अकेला ही कई विरोधियों के साथ लड़ता हो। ५. बाँह पर पहनने का एक गहना जिसमें एक ही नग जड़ा होता है। ६. ऐसा दीपाधार जिसमें एक ही बत्ती जलती हो। ७. ब्रह्म जो अकेला ही सारी सृष्टि का कर्ता माना गया है।
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एक्कावान  : पुं० [हिं० एक्का+वान् (प्रत्यय)] [भाव० एक्कावानी] वह जो एक्का चलाता या हाँकता हो।
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एक्कावानी  : स्त्री० [हिं० एक्कावान] एक्का हाँकने का काम या पारिश्रमिक।
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एक्की  : स्त्री० [हिं०एक] एक बैल से चलनेवाली छोटी गाड़ी। २. इक्का (ताश का पत्ता)।
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एक्यानबे  : वि०=इक्यानबे।
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एक्यावन  : वि०=इक्यावन।
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एखनी  : स्त्री०=यखनी।
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एजेंट  : पुं० [अं०] वह आदमी जो किसी की ओर से उसका प्रतिनिधि बनकर काम करता हो। अभिकर्ता (देखें)
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एजेंसी  : स्त्री० [अं०] अभिकर्ता या पद, भाव या स्थान। अभिकरण (देखें)।
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एड़  : स्त्री० [सं० एडूक=हड्डी या हड्डी की तरह कड़ा] १. पैर के नीचे का पिछला उभरा हुआ भाग। एड़ी। २. घोड़े पर सवारी करने के समय पैर के उक्त भाग से उसके पेट पर किया जानेवाला आघात। मुहावरा—एड़ करना (क) एड़ लगाना। (दे०)। (ख) कहीं से शीघ्रतापूर्वक चल देना। एड़ देना या लगाना (क) घोड़े को आगे बढ़ाने या तेज चलाने के लिए उसके पेट पर एड़ से आघात करना। (ख) किसी को आगे बढ़ने के लिए उत्कट रूप से प्रवृत्त या प्रेरित करना।
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एड़ी  : स्त्री० [सं० एडूक=हड्डी] पैर में, सबसे नीचे और पीछेवाला कुछ उभरा या फूला हुआ भाग। मुहावरा—एड़ियाँ घिसना या रगड़ना (क) बहुत अधिक दौड़-धूप करना। (ख) बहुत दिनों तक बीमार पडे रहना। पद—एड़ी से चोटी तक (क) आदि से अंत तक। (ख) सिर से पैर तक।
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एढ़ा  : वि० [सं० आढ्य] बलवान। बली। (डिं०)
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एण  : पुं० [सं० इ(गति)+ण] [स्त्री०एणी] वह हिरन जिसकी नाभि से कस्तूरी निकलती है। कस्तूरी मृग।
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एण-तिलक  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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एणभृत्  : पुं० [सं० एणभू (भरण करना)+क्विप्, तुक्, आगम] चंद्रमा।
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एण-लांछन  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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एत  : पुं० [सं० आदित्य] सूर्य। उदाहरण—एत बंस बर बरन जुग सेतु जगत सब जान।—तुलसी। सर्व०=एता (इतना)। अव्य [सं० अतः] इस प्रकार। इस तरह।
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एतक्राद  : पुं० [अ०] विश्वास। भरोसा।
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एतत्  : सर्व० [सं० एतद्] यह।
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एतद्  : सर्व० [सं० इ (गति)+अदि, तुक्, आगम] यह।
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एतदर्थ  : अव्य० [सं० एतद्-अर्थ, ष० त०] १. इसके लिए। इसके हेतु। २. इस कारण। इसलिए। वि०=तदर्थ।
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एतदवधि  : अव्य० [सं० एतद्-अवधि, ब० स०] इस अवधि या सीमा तक। यहाँ तक।
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एतद्देशीय  : वि० [सं० एतद्-देश, कर्म० स०+छ-ईय] इस देश से संबंध रखनेवाला। इस देश में होनेवाला।
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एतद्द्वारा  : पद [सं० एतद्-द्वारा, ष० त०] १. इसके द्वारा। २. इस (पत्र, लेख्य आदि) के द्वारा। (हियर बाई)।
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एतना  : सर्व०, वि०=इतना।
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एतबार  : पुं० [अ] विश्वास। प्रतीति। मुहावरा—(किसी का) एतबार उठना या जाना (क) पहले से बना आया भरोसा या विश्वास न रह जाना। (ख) जमी हुई साख नष्ट होना।
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एतराज  : पुं० [अ०] आपत्ति।
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एतवार  : पुं० [सं० आदित्यवार] शनिवार के बाद और सोमवार के पहले का दिन। रविवार।
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एतवारी  : वि० [हिं० एतवार] १. एतवार संबंधी। २. एतवार को होने या किया जानेवाला। स्त्री० वह पैसे जो पुराने समय में गुरु, मौलवी, शिक्षक आदि को रविवार के दिन भेंट स्वरूप दिये जाते थे।
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एता  : वि०=इतना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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एतादृश  : वि० [सं० एतद्+√दृश्(देखना)+कञ्] [स्त्री० एतादृशी] इसके समान। इस जैसा। ऐसा। क्रि० वि० इस प्रकार। ऐसे।
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एतावत्  : वि० [सं० एतद्+वतुप्] इतना।
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एतिक  : वि०=इतना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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एन  : पुं० १. =एण (मृग)। २. =अयन (घर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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एनस्  : पुं० [सं० इ (गति)+असुन्, नुट्० आगम] १. पाप। २. अपराध।
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एनी  : पुं० [देश] दक्षिण भारत का एक प्रकार का बड़ा वृक्ष।
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एम  : वि० [सं० एवं] इस प्रकार का। ऐसा। (डिं०) उदाहरण—फागल दीघो एमकहि।—प्रिथीराज।
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एमन  : पुं० [सं० यवन० फा० यमन] संपूर्ण जाति का एक राग जो कल्याण और केदारा के योग से बना है। वि०=ऐसा।
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एम्हर  : क्रि० वि०=इधर। उदाहरण—शिव एम्हर सुनि जाऊ।—मै० लो० गीत।
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एरंग  : पुं० [सं० आ√ईर् (गति)+अंगच्] एक प्रकार की मछली का नाम।
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एरंड  : पुं० [सं० आ√ईर्+अंडच्] रेंड़। रेड़ी।
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एरंड खरबूजा  : पुं०=पपीता।
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एरंड-बीज  : पुं० [ष० त०] रेंड़ी के दाने या बीज।
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एरंडा  : स्त्री० [सं० एरंड+टाप्] पिप्पली।
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एंरडी  : स्त्री० [सं० एरंड+ङीष्] एक प्रकार की झाड़ी जिसकी छाल, पत्ती, लकड़ी आदि चमड़ा सिझाने के काम आती है।
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एरफेर  : पुं०=हेर-फेर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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एरा  : प्रत्यय [पुं० हिं० केर-का] एक प्रत्यय जो कुछ विशेषणों और संज्ञाओं में लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है—(क) मात्रा या मान की अधिकता। जैसे—घन से घनेरा, बहुत से बहुतेरा। (ख) किसी प्रकार के कार्य, व्यवहार आदि का कर्त्ता। जैसे—लाख से लखेरा, साँप से सपेरा।
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एराक  : पुं०=इराक।
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एराकी  : वि० [फा०]=इराकी।
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एराफ  : पुं० [अ० एराफ=स्वर्ग और नरक के बीच का लोक] जहाज का पेंदा। (लश०।)
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एरे  : अव्य० [अनु०] अरे ! हे ! (संबोधन)।
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एलंग  : पुं० [सं० ] एक प्रकार की मछली।
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एल  : पुं० [अ०] गज की तरह की एक पाश्चात्य नाप जो ४ ५ इंच की होती है। इससे मखमल, कपड़े साटन आदि बढ़िया विलायती रेशमी नापे जाते थे।
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एलक  : पुं० [सं० इल् (फेंकना)+ण्वुल्-अक, एलकभेंड़, भेंड़ के चमड़े का बना हुआ] आटा चालने की एक प्रकार की चलनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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एलकेशी  : स्त्री० [एला+केश] एक प्रकार का बैगन जो बंगाल में होता है।
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एलची  : पुं० [तु०] १. प्राचीन काल में, वह दूत जो एक राजा का संदेश दूसरे राजा तक पहुँचाता था। दूत। २. राजदूत।
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एलचीगरी  : पुं० [फा०] एलची का काम या पद। दूतकर्म।
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एलवालु  : पुं० [सं० एलवल् (छिपाना)+उण्] कपित्थ की सुगंधित छाल।
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एला  : स्त्री० [सं० इल् (फेंकना)+अच्-टाप्, मला० एलाम्] १. इलायची। २. बन-रीठा। ३. शुद्ध राग का एक भेद। पुं० [देश] एक प्रकार की कँटीली लता, जिसकी पत्तियों की चटनी बनती है। प्रत्यय एक प्रत्यय जो कुछ संज्ञाओं में लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है-(क) छोटा बच्चा। जैसे—कौआ से कवेला। (ख) कोई छोटा रूप। जैसे—आधा से अधेला।
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एलान  : पुं० [सं० एला√नी (ढोना)+ड] नारंगी। पुं०=ऐलान। (घोषणा)।
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एली  : स्त्री० [सं० एलीका] इलायची। उदाहरण—इत लवंग नवरंग एलि इत झेलि रही रस। —नंददास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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एलीका  : स्त्री० [सं० आ√इल्+ईकन्-टाप्] छोटी इलायची।
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एलुआ  : पुं० [सं० एलुक] एक प्रकार का पौधा जिसके कई अंग दवा के काम आते हैं। मुसब्बर।
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एलुक  : पुं० [सं०√इल्+उक] १. एक प्रकार का सुगंधित द्रव्य। २. एलुआ।
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एलुवा  : पुं०=एलुआ।
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एल्क  : पुं० [अ०] यूरप और एशिया में पाया जानेवाला एक प्रकार का बहुत बड़ा बारहसिंघा।
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एल्यूमिनम  : पुं० [अं०] एक प्रसिद्ध मटमैली धातु जिससे बरतन और यंत्रों के पुरजे आदि बनते हैं।
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एवं  : क्रि० वि० [सं० एवम्] ऐसा ही। इसी प्रकार। अव्य० ऐसे ही। और भी। पद—एवमस्तु (देखें)।
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एवंभूत  : वि० [सं० एवम्√भू ( होना)+क्त] इस प्रकार का। ऐसा।
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एवंविष  : वि० [सं० एवम्-विधा, ब० स०] इस प्रकार का। ऐसा। क्रि० वि० इस प्रकार। ऐसे।
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एव  : अव्य० [सं०√इ (गति)+वन्] १. ही। २. भी।
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एवज  : पुं० [अ०] १. प्रतिफल। २. प्रतिकार। ३. परिवर्त्तन। ४. दूसरे की जगह अस्थायी रूप से काम करनेवाला। स्थानापन्न।
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एवजी  : पुं० [फा० एवज] किसी के स्थान पर अस्थायी रूप से काम करनेवाला व्यक्ति। स्थानापन्न। कार्यकर्त्ता।
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एवम्  : अव्य० [सं०√इ (जाना)+वमु] इस प्रकार। ऐसे।
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एवमस्तु  : अव्य० [सं० एवम् अस्तु, व्यस्त पद] १. इस प्रकार। २. इसी प्रकार। ३. ऐसा ही हो। (आर्शीवाद और शुभ कामना-सूचक)।
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एशिया  : पुं० [इब्रा० अशु=पूर्व दिशा] पूर्वी गोलार्द्ध का एक प्रसिद्ध महाद्वीप जिसके अंतर्गत भारत, चीन, जापान आदि देश आते हैं।
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एशियाई  : वि० [यू० एशिया] एशिया का। एशिया-संबंधी। पुं० एशिया का निवासी।
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एषणा  : स्त्री० [सं० इष् (इच्छा करना)+युच्-अन, टाप्] १. अभिलाषा। इच्छा। चाह। २. याचना।
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एषणी (णिन्)  : वि० [सं० एषणा+इनि, दीर्घ, नलोप] इच्छा करने या चाहनेवाला।
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एषणीय  : वि० [सं०√इष् (इच्छा करना)+अनीयर] जिसके संबंध में या जिसकी एषणा की जा सके या की जाय।
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एषा  : स्त्री० [सं० इष् (इच्छा करना)+अ-टाप्] इच्छा। चाह।
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एषी (षिन्)  : वि० [सं०√इष् (इच्छा करना)+णिनि] चाहनेवाला।
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एष्य  : वि० [सं०√इष् (इच्छा करना)+ण्यत्] जिसकी इच्छा की जा सके या की जाय।
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एह*  : सर्व० [सं० एषः] यह। उदाहरण—सुनु अजहुँ सिखावन एह।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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एहड़ा  : वि० [हिं० ऐसा] ऐसा (पश्चिम) उदाहरण—माई एहड़ा पूत जम, जेहड़ा राणा प्रताप।—प्रिथीराज।
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एहतमाम  : पुं० [अ०] प्रबंध। व्यवस्था।
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एहतियात  : स्त्री० [अ०] १. चौकसी। सावधानी। २. परहेज। बचाव।
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एहतियाती  : वि० [अ०] एहतियात संबंधी। एहतियात के रूप में या सावधानी के विचार से किया जानेवाला। जैसे—एहतियाती कारवाई।
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एहवा  : वि० [हिं०=एहयह] [स्त्री० एहवी] एक प्रकार का। ऐसा। उदाहरण—एक उजाथर कलहि एहवा।—प्रिथीराज। क्रि० वि० —इस प्रकार। ऐसे। (डिं०)
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एहसान  : पुं० [अ०] १. उपकार। २. कृतज्ञता।
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एहसान फरामोश  : वि० [अ०+फा०] किसी का किया हुआ एहसान या उपकार भूल जाने अथवा न माननेवाला। कृतघ्न।
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एहसानमंद  : वि० [अ०] एहसान या उपकार माननेवाला। कृतज्ञ।
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एहिं  : सर्व० [हिं० एह=यह] इसने। उदाहरण—पालव बैठि पेड़ एहिं काटा।—तुलसी।
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एहि  : सर्व० [हिं० एह=यह] पूर्वी हिंदी में ‘एह’ (यह) का वह रूप जो उसे विभक्ति लगने से पहले प्राप्त होता है। उदाहरण—सदा राम एहि प्रान समाना।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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एहीं  : सर्व० [हिं० एह=यह] इसी। उदाहरण—लोचन लाहु लेहु छिन एहीं।—तुलसी।
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एही  : सर्व० [हिं० एह=यह] इस ही। इसी। उदाहरण—रीझि बूझी सबकी,प्रतीति प्रीति एही द्वार…।—तुलसी।
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एहू  : सर्व० [हिं० एह=यह] १. यही। २. यह भी।
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एहो  : अव्य० [हिं० हे+हो] हे। ऐ। (संबोधन)
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एकबारगी  : अव्य०=एक-बारगी।
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