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कथं  : क्रि०वि० [सं० किम्+थमु] किस प्रकार। कैसे।
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कथंचित्  : क्रि० वि० [सं० कथम्+चित्] शायद।
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कथंभूत  : वि [सं० सुप्सुपा स०] किस प्रकार का। कैसा।
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कथ  : पुं० [हिं० कत्था] =कत्था। स्त्री०=कथा (बात) उदाहरण—कही स्रवणि सँभली कथ।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कथक  : पुं० [सं०√कथ (कहना)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. वह जो कथा अर्थात् किस्से या कहानियाँ सुनाने का काम करता हो (कथावाचक या पौराणिक से भिन्न) २. प्राचीन रंग मंच में वह नट या पात्र जो आरम्भ में नाटक की पूरी कथा सुनाया करता था। ३. एक आधुनिक जाति जो प्रायः वैश्याओं आदि को गाना, नाचना आदि सिखाने का काम करती है। कत्थक। ४. एक विशेष प्रकार का नृत्य, जिसकी कला का विकास मुख्यतः उक्त जाति का किया हुआ है।
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कथ-कीकर  : पुं० [हिं० कत्था (खैर)+कीकर] एक प्रकार का कीकर या वकल जिसकी छाल से कत्था या खैर निकाला जाता है।
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कथक्कड़  : पुं० [सं० कथा+कड़ (प्रत्यय)] प्रायः बहुत अधिक या लम्बी-चौड़ी कथाएँ कहने या सुननेवाला व्यक्ति।
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कथन  : पुं० [सं० कथ+ल्युट-अन] [वि० कथित] १. कोई बात मुँह से उच्चारित करने या कहने की क्रिया या भाव। कहना। बोलना। २. वह जो कुछ कहा गया हो। कही हुई बात। उक्ति। ३. किसी के सम्बन्ध में कही हुई ऐसी बात जो अभी प्रमाणित न हुई हो। (एलीगेशन) ४. किसी विषय में किसी का दिया हुआ वक्तव्य। बयान। (स्टेटमेंट) ५. उपन्यास का एक भेद या प्रकार जिसमें उसका नायक या कोई पात्र आदि से अन्त तक कोई कथा कहता चलता है।
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कथना  : स० [सं० कथन] १. कोई बात कहना। कथन। करना। २. किसी की खुलकर विस्तार-पूर्वक निन्दात्मक बातें कहना। बुराई। करना। जैसे—किसी के दोष कथना।
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कथनी  : स्त्री० [सं० कथन+हिं० ई (प्रत्यय)] १. मुँह से कही हुई बात। कथन। जैसे—उनकी कथनी और करनी में बहुत अन्तर है। २. कोई बात बार-बार कहने की प्रक्रिया या भाव।
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कथनीय  : वि० [सं०√कथ्+अनीयर] १. कहे जाने के योग्य। जो कथन के रूप में आ सके या लाया जा सके। २. निंदनीय। बुरा। (क्व०)।
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कथमपि  : क्रि० वि० [सं० कथम्-अपि, द्व० स०] १. किसी प्रकार। जैसे—तैसे। २. बहुत कठिनता से। ३. हिंदी में कभी-कभी भूल से कदापि के अर्थ में भी प्रयुक्त।
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कथरी  : पुं० [सं० कथा+हिं० री (प्रत्यय)] फटे-पुराने तथा छोटे-छोटे चिथड़ों को जोड़ तथा सीकर बनाया हुआ ऐसा वस्त्र, जिसे गरीब या भिखमंगे ओढ़ते और बिछाते हों। गुदड़ी।
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कथांतर  : पुं० [सं० कथा-अंतर, मयू० स०] १. ऐसी स्थिति जिसमें उद्दिष्ट या प्रस्तुत कथा को छोड़कर कोई दूसरी कथा कही जाय। २. अप्रासंगिक या गौण कथा।
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कथा  : स्त्री० [सं० कथ+अङ-टाप्] १. वह जो कहा जाय। कही जानेवाली या कही हुई बात। २. वह पौराणिक आख्यान जिसका कुछ अंश वास्तविक या सत्य हो और कुछ अंश कल्पित, तथा जो धर्मोंपदेश के रूप में लोगों को विस्तृत व्याख्या करके सुनाया जाय। मुहावरा—कथा बैठाना=ऐसी व्यवस्था करना कि कोई कथावाचक या पौराणिक नियत रूप से कुछ समय तक बैठकर लोगों को पौराणिक कथाएँ सुनाया करे। ३. प्राचीन साहित्य में, उपन्यास का वह प्रकार या भेद, जिसमें उसका कर्ता आदि के अन्त तक कोई घटना सुनाता चलता है। ४. किसी घटना की चर्चा। जिक्र। ५. समाचार। हाल। ६. कहा-सुनी वाद-विवाद। मुहावरा—(किसी की) कथा चुकाना=किसी का वध या हत्या करके उसके कारण होनेवाले उपद्रवों का अंत करना।
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कथानक  : पुं० [सं०√कथ+आनक] १. छोटी कथा या कहानी। २. किसी रचना। (जैसे—उपन्यास, कथा नाटक आदि) की आदि से अंत तक की सब बातों का सामूहिक रूप। वि० दे० ‘कथावस्तु’।
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कथानिका  : स्त्री० [सं० कथानक+टाप्-इत्व] संस्कृत में, उपन्यासों का एक भेद।
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कथा-पीठ  : पुं० [उपमि० स०] १. कथा की प्रस्तावना। २. वह आसन या स्थान जहाँ बैठकर कथावाचक या व्यास कथा सुनाते हों।
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कथा-प्रबंध  : पुं० [ष० त०] १. किसी कथा की वे मूल्य बातें, जिनसे कथा का स्वरूप प्रस्तुत होता है। २. कथा की सब बातें अच्छे ढंग और ठीक क्रम से रखने का भाव या स्थिति।
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कथामुख  : पुं० [कथा-आमुख, ष० त०] कथा या किसी साहित्यिक रचना की प्रस्तावना।
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कथा-वस्तु  : स्त्री० [ष० त०] १. उपन्यास, कहानी, नाटक आदि की वे सभी मुख्य बाते, जिनसे उनका स्वरूप प्रस्तुत होता है। (प्लॉट) २. विस्तृत अर्थ में, वे सभी मुख्य बातें, जो किसी साहित्यिक रचना में आयी हों या उसका विषय बनी हों।
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कथा-वार्त्ता  : स्त्री० [द्व० स०] १. पौराणिक और धार्मिक कथाए और उनकी चर्चा। २. बातचीत।
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कथिक  : पुं०=कथक।
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कथित  : वि० [सं० कछ+क्त] १. जिसका कथन या वर्णन हुआ हो। जो कहा गया हो। कहा हुआ। २. (बात या व्यक्ति) जिसके संबंध में कोई ऐसी बात कही गई हो या कहीं जाती हो, जिसकी प्रामाणिकता या सत्यता अभी विवादास्पद या संदिग्ध हो। जो कहा तो गया हो, पर ठीक न सिद्ध हो। (एलेजड) पुं० मृदंग के बाहर प्रबंधों में से एक।
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कथी  : स्त्री०=कथनी।
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कथीर  : पुं० [सं० कस्तीर, पा० कत्थीर] राँगा नामक धातु।
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कथीला  : पुं०=कथीर।
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कथोद्धात  : पुं० [कथा-उद्धात, ष० त०] १. कथा का आरंभ। प्रस्तावना। २. नाटक आरंभ करने का वह प्रकार, जिसमें सूत्रधार के मुंह से निकली हुई कोई बात सुनते ही, उसी के आधार पर कोई पात्र रंग-मंच पर आकर अभिनय आरंभ कर देता है।
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कथोपकथन  : पुं० [कथा-उपकथन सं० त०] १. दो या दो से अधिक व्यक्तियों में होनेवाली बाच-चीत। वार्तालापय़। २. किसी उपन्यास, कथा, कहानी आदि को पात्रों में आपस में होनेवाली बात-चीत।
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कथ्य  : वि० [सं०√कथ+यत्] १. जो कहा जा सके। कहे जाने के योग्य। २. जो कहना उचित हो।
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