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कहाँ  : अव्य० [वैदिक० सं० कुह, म० सं० कुत्र; पा० कुत्थ० पं० कित्थे, बँ० कोथाय, मरा० कुठें, सिं० कित्थी] १. एक प्रश्न-वाचक अव्यय जिसका प्रयोग मुख्यतः स्थान के संबंध में जिज्ञासा या प्रश्न के प्रसंग में होता है। किस स्थान पर? किस जगह जैसे—अब यहाँ से आप कहाँ जायेंगे? २. किसी अवधि,सीमा या स्थिति के संबध में प्रश्नावाचक अव्यय। जैसे—(क) अब कहाँ तक उनकी प्रतीक्षा की जाय। (ख) लिखिएगा वह काम कहाँ तक पहुँचा है। ३. उपेक्षा,तिरस्कार आदि के प्रसंगों में किसी अज्ञात या अनिश्चित स्थान का वाचक अव्यय। जैसे—(क) अजी बैठे रहो,तुम वहाँ कहाँ जाओगे। (ख) यह बला तुमने कहाँ से अपने पीछे लगा ली। पद—कहाँ…कहाँ…=पारस्परिक बहुत अधिक अन्तर या भेद का सूचक पद। जैसे—कहाँ बिहारी सतसई कहाँ यह तुक-बंदी। कहाँ का=(क)किसी उपेक्ष्य या नगण्य स्थान का। जैसे—तुमने यह झगड़ा अपने पीछे लगा लिया (ख) काकु से,कहीं का नहीं। जैसे—वह कहाँ का पंडित है जो तुम्हें व्याकरण पढ़ावेगा। (ग) कुछ भी नहीं। बिलकुल नहीं। जैसे—जब लड़के को ताश का शौक लग गया तब कहाँ का पढ़ना और कहाँ का लिखना। कहाँ का कहाँ=प्रस्तुत प्रसंग या स्थान से बहुत दूर। जैसे—आप भी कहाँ की बात कहाँ ले गये। कहाँ का…कहाँ का=ऐसे अज्ञात या अनिश्चित स्थान, जिन में परस्पर बहुत अधिक अन्तर या भेद हो। जैसे—यह तो संयोग से भेंट हो गयी,नहीं तो कहाँ के आप और कहाँ के हम। कहाँ की बात=यह बिलकुल अनहोनी या निराधार बात है। कहाँ तक=किस अवधि, परिमाण या सीमा तक, अर्थात् इससे आगे बढ़ना ठीक या संभव नहीं। जैसे—अब कहाँ तक कहा जाय, यही समझ लीजिए कि वह हद से ज्यादा झूठा है। पुं० [अनु] बहुत छोटे बच्चों के रोने का शब्द।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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