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क्या  : सर्व० [सं० किम्, प्रा० कीअस, बँ० की, मरा० काय] एक प्रश्नवाचक सर्वनाम जो प्रसंग के अनुसार कई प्रकार से और प्रायः नीचे लिखे अर्थों में प्रयुक्त होता है-१. यह जानने पूछने या समझने के लिए कि कोई अभिप्रेत उद्दिष्ट या ज्ञेय बात या वस्तु किस प्रकार,रूप या वर्ग की है, उसकी मात्रा, मान, मूल्य या स्वरूप कितना या कैसा है, आदि। जैसे—(क) रुमाल में क्या लपेट रखा है। (ख) इस पुस्तक का क्या दाम है। (ग) तुम्हारें वहाँ पहुँचने पर क्या हुआ। २. तथ्य स्थिति आदि जानने के लिए प्रायः वाक्य के आरंभ में जैसे—(क) क्या तुम भी वहाँ जाओगे। (ख) क्या सवेरा हो गया ३. अभिप्रेत अथवा उद्दिष्ट परन्तु अव्यक्त तत्त्व बात या वस्तु की ओर संकेत करने के लिए। जैसे—मै अच्छी तरह समझता हूँ कि तुम्हारे मन में क्या है। ४. आश्चर्य-जनक या विलक्षण प्रसंगों में किसी प्रकार का अतिरेक, आधिक्य, श्रेष्ठता आदि सूचति करने के लिए क्रि० वि० या अव्यय रूप में। जैसे—(क) वाह आज तुमने क्या बात कही है कि तबीयत खुश हो गई। (ख) तुम कलकत्ते क्या हो आये, मानों स्वर्ग हो आये। (ग) क्या वह भी चला गया। ५. उपेक्षा-सूचक प्रसंगों में बहुत ही तुच्छ या हीन। कुछ भी नहीं। जैसे—(क) क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरवा। (ख) वह हमारे सामने क्या चीज है। (ग) भला अब हम वहां क्या जाएँ। ६. कुछ भी नहीं। बिलकुल नहीं। जैसे—अब वह क्या बचेगा। विशेष—(क) यद्यपि यह शब्द सर्वनाम है फिर भी इसके आगे विभक्ति नहीं लगती। (ख) संज्ञाओं के पहले लगकर यह प्रायः विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त होता है। मुहावरा—क्या से क्या होना या हो जाना=जैसा पहले था, उससे बिलकुल भिन्न या विपरीत होना या हो जाना। जैसे—साल-भर में ही लड़का क्या से क्या हो गया। पद—ऐसा क्या=भला यह भी कोई बात है। ऐसा नहीं होना चाहिए। जैसे—ऐसा क्या। कुछ देर तो बैठें। सब कुछ-दे०नीचे क्या-क्या। क्या नहीं कहा और क्या-क्या नहीं किया। (अर्थात् प्रायः सभी कुछ कहा और किया) (ख) कैसे-कैसे परन्तु विलक्षण। जैसे—तुम भी क्या क्या बातें निकालते हो। क्या...क्या=दोनों एक-से या बराबर है। जैसे—जब काम करना ही है तब क्या दिन क्या रात। क्या जानें=हम नहीं जानते। हमें पता नहीं। जैसे—क्या जानें वह कहाँ चला गया। क्या नाम=बात-चीत के संग में, कुछ याद करने, सोचने आदि के अवसरों पर प्रायः निरर्थक रूप से प्रयुक्त होनेवाला पद। जैसे—हाँ, तो फिर क्या नाम, सब लोग साथ ही चले चलें।
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क्यार  : पुं० [सं० केदार] पेड़ का थाला। थाँवला। वि० संबंधकारक विभक्ति केर का बैसवाडी रूप। का। उदाहरण—मनुआँ देउ महोबै क्यार।
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क्यारी  : स्त्री० [सं० केदार] १. खेतों बगीचों आदि में थोड़ी-थोड़ी दूर पर मेड़ों से बनाये हुए वे विभाग जिनमें बीज बोये या पौधे लगाये जाते हैं। २. उक्त प्रकार का वह विभाग जिसमें नमक बनाने के लिए समुद्र का पानी भरते हैं। (बेड)
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क्याली  : स्त्री०=क्यारी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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