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टंग  : पुं० [सं० टंक√पृषो० सिद्धि] १. टाँग। २. कुल्हाड़ी। ३. कुदाल। फरसा। ४. सुहागा। ५. चार मासे की एक तौल। टंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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टँगड़ी  : स्त्री०=टाँग। (टंगड़ी के मुहावरा के लिए दे० टाँग के मुहावरा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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टंगण  : पुं० [सं० टंकण, पृषो० सिद्धि] सोहागा।
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टंगना  : अ० [सं० टंकण] १. टाँगा जाना। २. किसी चीज का ऊपरी भाग किसी ऊंचे आधार के साथ या स्थान पर इस प्रकार अटकाया, जड़ा, बाँधा या लगाया जाना कि वह चीज उसी के सहारे टिकी या ठहरी रहे। ३. फाँसी पर चढ़ाया जाना। पुं० १. दो खूटियों आदि में बेड़े बल में बँधा हुआ ताल, बाँस, रस्सी आदि जिस पर वस्त्र आदि टाँगे जाते हैं २. उक्त काम के लिए लकड़ी का बनाया हुआ एक प्रकार का ऊँचा चौखटा।
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टँगरी  : स्त्री०=टँगड़ी (टाँग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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टँगवाना  : स० [हिं० टाँगना का प्रे० रूप] किसी को कुछ टाँगने में प्रवृत्त करना।
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टँगा  : पुं० [देश] मूँज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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टँगाना  : स=टँगवाना। अ०=टँगना।
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टँगारी  : स्त्री० [सं० टंग] कुल्हाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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टंगिनी  : स्त्री० [सं०√टंक् (गलाना आदि)+णिनि, पृषो० सिद्धि] पाठा।
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