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तृष्णा  : स्त्री० [सं०√तृष्+न-टाप्] १. प्यास। तृषा। २. लाभणिक अर्थ में मन में होनेवाली वह प्रबल वासना जो बहुत अधिक कुछ विकल रखती हो और जिसकी हज में तृप्ति न होती हो। ३. प्रायः अधिक समय तक बनी रहनेवाली कामना।
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तृष्णारि  : पुं० [तृष्णा-अरि, ष० त] पित्त-पापड़ा जिसके सेवन से रोगी को प्रायः लगनेवाली प्यास बहुत कुछ कम हो जाती है।
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तृष्णालु  : वि० [सं० तृष्णा+आलु] १. तृषित। प्यासा। २. लालची। लोभी।
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