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पड़ना  : अ० [सं० पतन, प्रा० पड़न] १. किसी चीज का किसी आधान या पात्र में छोड़ा, डाला या पहुँचाया जाना। अन्दर प्रविष्ट किया जाना या होना। जैसे—(क) कान में दवा पड़ना; (ख) तरकारी (या दाल में) नमक पड़ना, (ग) पेट में भोजन पड़ना, (घ) पेटी में मत-पत्र पड़ना। २. किसी चीज का ऊपर से गिरकर या बाहर से आकर किसी दूसरी चीज पर (या मैं) विद्यमान या स्थित होना। जैसे—आँख में कंकड़ी या दूध में मक्खी पड़ना। ३. इधर-उधर या ऊपर से आकर किसी प्रकार का आघात या प्रहार या वार होना। जैसे—(क) किसी पर घूँसा, थप्पड़ या लात पड़ना। (ख) गरदन पर तलवार या सिर पर लाठी पड़ना। ४. एक चीज का किसी दूसरी चीज पर ठीक ढंग या तरह से डाला, फैलाया, बिछाया या रखा जाना। जैसे—(क) आँगन में (या छत पर) पलंग पड़ना। (ख) खंभों (या दीवारों) पर छत पड़ना। (ग) जूएखाने में जूए का फ़ड़ पड़ना। ५. किसी आपातिक रूप में उपस्थित, प्राप्त या प्रत्यक्ष होना। जैसे—(क) इस साल बहुत गरमी (या सरदी) पड़ी है। (ख) आज चार दिन से बराबर पानी (या ओला) पड़ (बरस) रहा है। (ग) अंत में यही बदनामी हमारे पल्ले पड़ी है। ६. कोई अनिष्ट, अवांछित या कष्टदायक घटना घटित होना अथवा ऐसी ही कोई विकट परिस्थिति या बात सामने आना। जैसे—(क) सिर पर आफत या बला पड़ना। (ख) किसी के घर डाका पड़ना। विशेष—विपत्ति, संकट आदि के प्रसंगों में इस क्रिया का प्रयोग बिना किसी संज्ञा के भी होता है। जैसे—जब तुम पर पड़ेगी, तब तु्महें मालूम होगा। ७. आकस्मिक रूप अथवा संयोग से उपस्थित होना या सामने आना अथवा पहुँचना। जैसे—(क) एक दिन घूमता-फिरता मैं भी वहाँ जा पड़ा। (ख) बात (या मौका) पड़ने पर तुम भी सारा हाल साफ-साफ कह देना। (ग) अब की विजया दशमी (या होली) रविवार को पड़ेगी। ८. आलस्य, थकावट, रोग आदि के कारण अथवा विश्राम करने के लिए चुपचाप लेट रहने की स्थित में होना। जैसे—(क) नींद खुल जाने पर भी वे घंटों बिस्तर पर पड़े रहते हैं। (ख) इधर महीनों से वे बिस्तर पर पड़े हैं। (अर्थात् बीमार हैं)। (ग) थोड़ी देर यों ही पड़े रहो; तबियत ठीक हो जायेगी। ९. बिना किसी उद्देश्य, कार्य या प्रयोजन के कहीं रहकर दिन काटना। यों ही या व्यर्थ रहकर दिन काटना। यों ही या व्यर्थ रहकर समय गुजारना या बिताना। जैसे—(क) दिन भर सब लोग धर्मशाले में पड़े रहे। (ख) महीनों से बहू अपने मैके में पड़ी है। १॰. कुछ काम-धंधा न करते हुए हीन अवस्था में कहीं रहकर दिन बिताना। जैसे—आजकल तो वह कलकत्ते में अपने भाई के यहाँ पड़े हैं। मुहा०—पड़ रहना=जैसे—तैसे हीन अवस्था में लेटकर सोना। ‘शयन’ के लिए उपेक्षासूचक पद। उदा०—मसजिद में पड़े रहेंगे जो मैखाना बंद है।—कोई शायर। पड़े रहना=(क) लेटे रहना। (ख) हीन अवस्था में कहीं रहकर दिन बिताना। जैसे—अभी दो-चार दिन तुम यहीं पड़े रहो। (ग) रोगी होने की दशा में लेटे रहना। जैसे—आज दिन भर चुपचार पड़े रहो। संध्या तक तबियत ठीक हो जायगी। ११. किसी के किसी काम या बात के बीच में इस प्रकार सम्मिलित होना कि उससे कोई विशिष्ट संबंध सूचित हो अथवा किसी प्रकार अथवा किसी प्रकार का हस्तक्षेप होता हुआ जान पड़े। जैसे—मैं इस मामले में पड़ना नहीं चाहता हूँ। १२. किसी काम, चीज या बात का ऐसी स्थिति में रहना या होना का आवश्यक या उचित उपयोग अथवा कार्य न हो रहा हो। जैसे—(क) सारा मकान खाली पड़ा है। (ख) आधे से ज्यादा काम बाकी पड़ा है। (ग) मुकदमा वर्षों से हाईकोर्ट में पड़ा है। (घ) ये पुस्तकें यहाँ यों ही पड़ी हैं। १३. किसी विशिष्ट प्रकार की परिस्थिति या स्थिति में अवस्थित या वर्तमान रहना या होना। जैसे—(क) आजकल वह धन कमाने के फेर में पड़े हैं। (ख) उनका मकान अभी तक बंधक पड़ा है। (ग) चार दिन में इसका रंग काला पड़ा जायगा। (घ) दो कौड़ियाँ चित और तीन कौड़ियाँ पट पड़ी हैं। १४. टिकने ठहरने आदि के लिए कुछ समय तक कहीं अवस्थान होना। कुछ समय तक रहने के लिए डेरा या पड़ाव डाला जाना। जैसे—चार दिन से तो वे हमारे यहाँ पड़े हैं। १५. डेरे, पड़ाव आदि के संबंध में, नियत या स्थित किया जाना। बनाया जाना। जैसे—आज संध्या को रामनगर में डेरा (या पड़ाव) पड़ेगा। १६. यात्रा आदि के मार्ग में प्रत्यक्ष या विद्यमान होना। ऐसी स्थिति में होना कि रास्ते में दिखाई दे या सामने आवे। जैसे—उनके मकान के रास्ते में एक पुल (या मंदिर) भी पड़ता है। १७. किसी प्रकार अथवा रूप में उत्पन्न होकर या यों ही उपस्थित, प्रस्तुत या विद्यमान होना। जैसे—(क) फल में कीड़े पड़ना। (ख) घाव में मवाद पड़ना। (ग) मन में कल (या चैन) पड़ना। १८. किसी प्रकार की विशेष आवश्यकता या प्रयोजन होना। गरज या जरूरत होना। जैसे—जब उसे गरज (या जरूरत) पड़ेगी, तब वह आप ही आवेगा। विशेष—कभी-कभी इस अर्थ में बिना संज्ञा के भी इसका प्रयोग होता है। जैसे—हमें क्या पड़ी है, जो हम उनके बीच में बोलने खड़े हों। १९. बहुत अधिक या उत्कट अभिलाषा, चिंता अथवा प्रवृत्ति होना। किसी काम या बात के लिए छटपटी, बेचैनी या विकलता होना। (प्रायः बिना संज्ञा के ही प्रयुक्त) जैसे—तुम्हें तो बस तमाशे (या बरात) में जाने की पड़ी है। २॰. तारतम्य, तुलना आदि के विचार से अपेक्षया कुछ घटी या बढ़ी हुई अथवा किसी विशिष्ट स्थिति में आना, रहना या सिद्ध होना। जैसे—(क) यह कपड़ा कुछ उससे अच्छा पड़ता है। (ख) अब तो वह पहले से कुछ नरम पड़ रहा है। (ग) यह लड़का दरजे (या पढ़ने) में कमजोर पड़ता है। (घ) पाव भर आटा उसके खाने के लिए कम पड़ता है। २१. तौल, दूरी, नाप आदि के प्रसंग में, किसी विशिष्ट परिमाण या मान का ठहरना या सिद्ध होना। जैसे—(क) उनका मकान यहाँ से कोस भर पड़ता है। (ख) यह धोती नापने पर नौ हाथ ही पड़ती है। २२. आर्थिक प्रसंगों में, किसी काम, चीज या बात का हानि-लाभ की दृष्टि या विचार से किसी विशिष्ट स्थिति में आना, रहना या होना। जैसे—(क) इकट्ठा लिया हुआ सौदा सस्ता पड़ता है। (ख) शहरों में रहने पर खर्च अधिक पड़ता है। (ग) आजकल यहाँ के मिस्तरियों को चार-पाँच रुपए रोज पड़ जाता है। (घ) इस काम में इतना खरच (या घाटा) पड़ता है। २३. व्यापारिक क्षेत्रों में, किसी चीज की दर, भाव, मूल्य, लागत आदि के विचार से किसी स्थिति में आना, रहना या होना। जैसे—यह थान घर आकर २॰ का पड़ता है। २४. किसी काम, चीज या बात का अनुकूल, उपयुक्त या बराबरी का ठहरना या सिद्ध होना। जैसे—तुम्हें तो दस रुपया रोज भी पूरा नहीं पड़ेगा। २५. बही-खाते, लेन-देन, हिसाब-किताब आदि में किसी खाते या विभाग में अथवा किसी व्यक्ति के नाम लिखा जाना। जैसे—(क) यह खरच प्रकाशन खाते में पड़ेगा। (ख) महीनों से १॰॰) तुम्हारे नाम पड़े हैं। २६. आकार-प्रकार, रूप-रंग आदि में शिशु या संतान का किसी के अनुरूप या अनुसार होना। जैसे—लड़का तो अपने बाप पर पड़ा है और लड़की माँ पर। २७. अनुभूत या ज्ञात होना। लगना। जैसे—जान पड़ना, दिखाई पड़ना। २८. कुछ विशिष्ट पशुओं के संबंध में, नर या मादा के साथ मैथुन या संभोग करना। जैसे—जब यह घोड़ा (या साँड़) किसी घोड़ी (या गाय) पर पड़ता है, तब-तब कुछ न कुछ बीमार हो जाता है। विशेष—इस क्रिया में मुख्य तीन भाव वही हैं, जो ऊपर आरंभ (संख्या १, २ और ३) में बतलाये गये हैं। अधिकतर शेष अर्थ इन्हीं तीनों भावों में से किसी-न-किसी भाव के परिवर्त्तित, विकसित या विकृत रूप हैं। सैद्धांतिक दृष्टि से यह हिंदी की स० क्रिया ‘डालना’ का अकर्मक रूप है। अनेक अकर्मक क्रियाओं के साथ इसका प्रयोग संयो० क्रि० के रूप में भी होता है। कहीं तो वह किसी क्रिया का आकस्मिक आरंभ सूचित करती है; जैसे—चल पड़ना, चौंक पड़ना, जाग पड़ना, हँस पड़ना आदि और कहीं इससे किसी क्रिया या व्यापार का घटित, पूर्ण या समाप्त होना सूचित होता है। जैसे—कूद पड़ना, गिर पड़ना, घुस पड़ना, घूम पड़ना आदि। क्रियार्थक संज्ञाओं के साधारण रूप के साथ लगकर यह कहीं-कहीं किसी प्रकार की बाध्यता या विवशता भी सूचित करती है। जैसे—(क) मुझे रोज उनके यहाँ जाकर घंटों बैठना पड़ता था। (ख) तुम्हें भी उनके साथ जाना पड़ेगा। अवधारण बोधक क्रियाओं के साथ लगकर यह बहुत कुछ ‘जाना’ या ‘होना’ की तरह का अर्थ देती और उन सकर्मक क्रियाओं को अकर्मक का-सा रूप देती है। जैसे—जान पड़ना, दिखाई (या देख) पड़ना। कुछ संज्ञाओं के साथ लगकर यह बहुत कुछ ‘आना’ या ‘होना’ की तरह का भी अर्थ देती हैं। जैसे—खयाल पड़ना, याद पड़ना, समझ पड़ना। कभी-कभी इसके योग से कुछ पदों में मुहावरे का तत्त्व भी आ लगता है। जैसे—(क) ऐसी समझ पर पत्थर पड़े। (ख) आजकल रुपया तो मानो उनके घर फटा पड़ता है। (ग) बहुत बोलने (या सरदी लगने) से गला पड़ (अर्थात् बैठ) जाना। (घ) यह अकेला ही दो आदमियों पर भारी पड़ता है। (ङ) इस तरह हाथ धोकर किसी के पीछे पड़ना ठीक नहीं है। कुछ अवस्थाओं में यह शक्यता, संभावना, सामर्थ्य आदि की भी सूचक होती है। जैसे—बन पड़ा तो मैं भी किसी दिन आऊँगा। कभी-कभी यह तुल्यता या समकक्षता की भी सूचक होती है। जैसे—(क) तुम तो आदमी के ऊपर गिर पड़ते हो। (ख) उसकी आँखों में आँसू उमड़ पड़ते थे।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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