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पर-जाना  :
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परंज  : पुं० [सं० पर√जि (जीतना)+ड, मुम्] १. तेल पेरने का कोल्हू। २. छुरी आदि का फल। ३. फेन।
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परंजन  : पुं० [सं० पर√जन्+अच्, मुम्] (पश्चिमी दिशा के स्वामी) वरुण।
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परंजय  : वि० [सं० पर√जि (जीतना)+अच्, मुम्] शत्रु को जीतनेवाला। पुं० वरुण देवता।
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परंजा  : स्त्री० [सं० परंज+टाप्] उत्सव आदि में होनेवाली अस्त्रों, उपकरणों आदि की ध्वनि।
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परंतप  : वि० [सं० पर√तप् (तपना)+णिच्+खच्, मुम्] १. तपस्या द्वारा इंद्रियों को वश में करनेवाला। २. अपने ताप या तेज से शत्रुओं को कष्ट देनेवाला। पं० १. चिंतामणि। २. तामस मनु के एक पुत्र का नाम।
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परंतु  : अव्य० [सं० द्व० स०] १. इतना होने पर भी। जैसे—जी तो नहीं चाहता है परंतु जाना पड़ा। २. इसके विरुद्ध। जैसे—वह गरीब है परंतु अभिमानी है।
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परंदा  : पुं० [फा० परंद=चिड़िया] १. एक प्रकार की हवादार नाव जो काश्मीर की झीलों में चलती है। २. चिड़िया। पक्षी।
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परंपद  : पुं० [सं० परमपद] १. बैकुंठ। २. मोक्ष। ३. उच्च पद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परंपर  : पुं० [सं० परम्परा+अच्] १. एक के पीछे दूसरा चलनेवाला क्रम। चला आता हुआ सिलसिला। अनुक्रम। २. पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि के रूप में चलनेवाला क्रम या परंपरा। ३. वंशज। ४. कस्तूरी।।
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परंपरया  : अव्य० [सं० परम्परा शब्द के तृ० का रूप] परंपरा के अनुसार। परंपरा से।
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परंपरा  : स्त्री० [सं० परम्√पृ (पूर्ण करना)+अच्+टाप्] १. वह व्यवहार जिसमें पुत्र पिता की, वंशज पूर्वजों की और नई पीढ़ीवाले पुरानी पीढ़ीवालों की देखा-देखी उनके रीति-रिवाजों का अनुकरण करते हैं। २. वह रीति-रिवाजी जो बड़ों, पूर्वजों या पुरानी पीढ़ीवालों की देखादेखी किया जाय। ३. नियम या विधान से भिन्न अथवा अनुल्लखित वह कार्य जो बहुत दिनों से एक ही रूप में होता चला आ रहा हो और इसी लिए जो सर्व-मान्य हो। (ट्रैडिशन) ४. संतति। ५. हिंसा।
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परंपराक  : पुं० [सं० परम्परा√अक् (कुटिल गति)+ घञ्] यज्ञ के लिए पशुओं का वध, जो पहले परंपरा से होता आ रहा था।
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परंपरागत  : वि० [सं० परम्परा-आगत, तृ० त०] (कार्य रीति या रिवाज) जो बड़ों, पूर्वजों या पुरानी पीढ़ीवालों की देखादेखी किया जाय। परंपरा से प्राप्त होनेवाला। (ट्रैडिशनल)
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परंपरावाद  : पुं० [सं०] वह मत आ सिद्धान्त कि जो चीजें या बातें परंपरा से चली आ रही हैं, वही ठीक या सत्य हैं; और नई बातें ठीक या सत्य नहीं हैं। (ट्रैडिशनिलिज़्म)
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परंपरावादी  : वि० [सं०] परंपरावाद-संबंधी। परंपरावाद का। पुं० वह जो परंपरावाद का अनुयायी और समर्थक हो।
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परंपरित  : भू० कृ० [सं० परम्परा+इतच्] जो परंपरा के रूप में हो अथवा जो किसी प्रकार की परम्परा से युक्त हो। जैसे—परंपरित रूपक।
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परंपरित-रूपक  : पुं० [कर्म० स०] साहित्य में रूपक अलंकार का एक भेद जिसमें एक आरोप किसी दूसरे का कारण बनकर आरोपों की परंपरा बनाता है। यह परंपरा शब्दों के साधारण अर्थ के द्वारा भी स्थापित हो सकती है; और श्लिष्ट शब्दों के द्वारा भी। साधारण अर्थ के आधार पर स्थित परंपरित रूपक का उदाहरण है—बाड़व ज्वाला सोती इस प्रणय-सिंध के तल में। प्यासी मछली सी आँखें थीं विकल रूप के जल में—प्रसाद।
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परंपरीण  : वि० [सं० परम्परा+ख—ईन] १. वंशक्रम से प्राप्ति। २. परंपरा-गत।
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परःपुंसा  : स्त्री० [सं० सह सुपा स०, सुट् का आगम] अपने पति से असंतुष्ट होने पर, पर-पुरुष से प्रेम करनेवाली स्त्री।
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परःपुरुष  : वि० [सं० सहसुपा स०, सुट् का आगम] जो साधारण मनुष्यों से बढ़कर या श्रेष्ठ हो।
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परःशत  : वि० [सं० सहसुपा स०, सुट् का आगम] सौ से अधिक। शताधिक।
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परःश्व (स्)  : अव्य० [सं० पं० त०] परसों।
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परई  : स्त्री० [सं० पार=कटोरा, प्याला] सिकोरे की तरह का मिट्टी का कुछ बड़ा पात्र।
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परक  : प्रत्य० [सं० समास में] एक प्रत्यय जो शब्दों के अंत में लगाकर निम्नलिखित अर्थ देता है; (क) पीछे या अंत में लगा हुआ। जैसे—विष्णुपरक नामावली=अर्थात् ऐसी नामावली जिसके अंत में विष्णु या उसका वाचक और कोई शब्द हो। (ख) संबंध रखनेवाला। जैसे—अध्यात्म-परक, प्रशंसा-परक।
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पर  : वि० [सं०] १. अपने से भिन्न। अन्य। दूसरा। जैसे—पर-देश। २. दूसरे का। पराया। जैसे—पर-पुरुष, पर-स्त्री। ३. किसी के पीछे या बाद में आने या होनेवाला। जैसे—परवर्ती। ४. इस ओर या सिरे के विपरीत। उस ओर का। जैसे—पर-लोक, पर-पार। ५. वर्तमान से ठीक पहले या ठीक बाद का। जैसे—पर-सर्ग, पर-साल। ६. विरुद्ध पड़नेवाला। ६. आगे बढ़ा हुआ। ८. बाकी बचा हुआ। ९. अवशिष्ट। अव्य० [सं० परम] १. उपरान्त। बाद। जैसे—इतः पर। २. परन्तु। लेकिन। जैसे—मैं जाता तो सही पर तुमने मुझे रोक दिया। ३. निरंतर। लगातार। जैसे—तीर पर तीर चलाओ, तुम्हें डर किसका है। प्रत्य० [सं०] एक प्रत्यय जो कुछ शब्दों के अन्त में लगाकर उद्यत, रत, नली लगा हुआ आदि अर्थ सूचित करता है। जैसे—तत्पर, स्वार्थपर, आहारपर। उप० [हिं०] एक उपसर्ग जो ऊपर या नीचे की कुछ पीढ़ियों का सम्बन्ध बतलानेवाले शब्दों के पहले लगता है। जैसे—पर-दादा, पर-नाना, पर-पोता। विभ० १. सप्तमी या अधिकरण का चिह्न। जैसे—इस पर। विशेष—‘ऊपर’ और ‘पर’ का अंतर जानने के लिए देखें ‘ऊपर’ का विशेष। २. के बदले में। जैसे—१॰॰ रु० महीने पर नया नौकर रख लो। पुं० [फा०] १. कीड़े-मकोड़ों, पक्षियों आदि के दोनों ओर के वे अंग जिनकी सहायता से हवा में उड़ते हैं। डैना। पंख। जैसे—कबूतर के पर, मक्खी के पर। मुहा०—पर जमना=किसी में कोई नई अनिष्टकारक वृत्ति उत्पन्न होना। जैसे—तुम्हें भी पर जमने लगे हैं, तुम आवारा लड़कों के साथ घूमने लगे हो। पर न मार सकना=किसी जगह या किसी के पास न आ सकना। जैसे—वहाँ फरिश्ते भी पर नहीं मार सकते थे। बेपर की उड़ाना=बिलकुल बेसिर-पैर की और मन-गढ़ंत बात कहना। २. वे विशिष्ट उपांग जो ऐसे लम्बे सींके के रूप में होते हैं जिसके दोनों ओर आपस में जुड़े हुए बहुत से बाल होते हैं। जैसे—मोर या सुरखाब का पर।
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पर-कटा  : वि० [फा० पर+हिं० कटना] [स्त्री० पर-कटी ] १. (पक्षी) जिसके पर काट दिये गये हों। जैसे—पर-कटा सुग्गा। २. लाक्षणिक अर्थ में, (ऐसा व्यक्ति) जिससे अधिकार छीन लिये गये हों या जिसकी शक्ति नष्ट कर दी गई हो।
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परकना  : अ० [?] न रह जाना या दूर हो जाना। उदा०—ढोंग जात्यो ढरकि परकि उर सोग जात्यो जोग सरकि सकंप कखियान तैं।—रत्नाकर। अ०= परचना।
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परकलत्र  : पुं० [सं० ष० त०] दूसरे व्यक्ति की विवाहिता स्त्री०। पर-स्त्री।
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परकसना  : अ० [हिं० परकासना] १. प्रकाशित होना। जगमगाना। २. प्रकट या जाहिर होना।
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पर-काजी  : वि० [हिं० पर+काज] १. जो दूसरों का काम करता रहता हो। २. परोपकारी।
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परकान  : पुं० [हिं० पर+कान] तोप का वह भाग जहाँ बत्ती दी जाती है। (लश०)
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परकाना  : स० [हिं० परकाना] किसी को परकने में प्रवृत्त करना। परचाना।
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परकाय-प्रवेश  : पुं० [सं० परकाय, ष० त०, परकाय प्रवेश, स० त०] अपनी आत्मा को दूसरे के शरीर में प्रविष्ट करने की क्रिया जो योग की एक सिद्धि मानी जाती है।
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परकार  : पुं० [फा०] वृत्त या गोलाई बनाने का एक प्रसिद्ध औजार जो पिछले सिरों पर परस्पर जुड़ी हुई दो शलाकाओं के रूप में होता है। इसकी एक शलाका केन्द्र में रखकर दूसरी शलाका चारों ओर घुमाने से पूर्ण वृत्त बन जाता है। पुं०=प्रकार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परकारना  : स० [फा० परकार+हिं० ना (प्रत्य०)] परकार से वृत्त बनाना। स०=परकाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परकाल  : पुं०=परकार।
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परकाला  : पुं० [सं० प्राकार या प्रकोष्ठ] १. सीढ़ी। जीना। २. चौखट। ३. दहलीज। पुं० [फा० परगाल] १. शीशे का टुकड़ा। २. चिनगारी। पद—आफत का परकाला=वह जो बड़े-बड़े विकट काम कर सकता हो।
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परकास  : पुं०=प्रकाश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परकासना  : स० [सं० प्रकाशन] १. प्रकाशित करना। २. प्रकाशमान करना। चमकाना। ३. प्रकट करना। सामने लाना। अ० १. प्रकाशित होना। २. चमकना। ३. प्रकट होना। सामने आना।
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परकिति  : स्त्री०=प्रकृति।
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परकीकरण  : पुं० [सं० परकीयकरण] किसी चीज को परकीय बनाने की क्रिया। (असिद्ध रूप)
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परकीय  : वि० [सं० पर+छ—ईय, कुक्—आगम] [स्त्री० परकीया] १. जिसका संबंध दूसरे से हो। २. दूसरे का। पराया।
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परकीया  : स्त्री० [सं० परकीय+टाप्] साहित्य में, वह नायिका जो पर-पुरुष से प्रेम करती और अपने पति की अवहेलना करती हो।
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परकीरति  : स्त्री०=प्रकृति।
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पर-कृति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. दूसरे की कृति। दूसरे का किया हुआ काम। २. दूसरे के काम या वृत्ति का वर्णन। ३. कर्मकांड में दो परस्पर विरुद्ध वाक्यों की स्थिति। स्त्री०=प्रकृति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परकोटा  : पुं० [सं० परकोटि] १. किसी गढ़ या स्थान की रक्षा के लिए चारों ओर उठाई हुई ऊँची और बड़ी दीवार। कोट। २. किसी प्रकार की बहुत ऊँची और बड़ी चहारदीवारी। ३. पानी की बाढ़ रोकने के लिए बनाया हुआ बाँध।
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परकोसला  : पुं०=ढकोसला (अन-मिल कविता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. पराया खेत। २. पराया शरीर। ३. पराई स्त्री०।
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परख  : स्त्री० [हिं० परखना] १. परखने की क्रिया या भाव। २. गुण-दोष, भलाई-बुराई, आदि परखने की क्रिया या भाव। ३. वह दृष्टि या मानसिक शक्ति जिससे आदमी गुण-दोष, भलाई-बुराई आदि पहचानने और समझने में समर्थ होता है। ठीक-ठक पता लगाने या वस्तु-स्थिति जानने की योग्यता या सामर्थ्य।
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परखचा  : पुं० [?] टुकड़ा। खंड। मुहा०—परखचे उड़ना=टुकड़ा-टुकड़ा कर देना। छिन्न-भिन्न करना।
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परखना  : स० [सं० परीक्षण, प्रा० परीक्खण] १. ठोक-बजाकर तथा अन्य परीक्षणों द्वारा किसी चीज का गुण, दोष, महत्त्व, मान आदि जानना। २. अच्छे बुरे की पहचान करना। ३. कार्य-व्यवहार आदि देखकर समझना कि यह क्या अथवा कैसा है। संयो० क्रि०—लेना। अ० [हिं० परेखना] प्रतीक्षा करना। उदा०—जेवत परखि लियौ नहिं हम कौ तुम अति करी चँडाई।—सूर।
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परखनी  : स्त्री०=परखी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परखवाना  : स०=परखाना।
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परखवैया  : पुं० [हिं० परख+वैया (प्रत्य०)] १. परखनेवाला व्यक्ति। २. दे० ‘परखैया’।
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परखाई  : स्त्री० [हिं० परख] १. परखने की क्रिया या भाव। परखाव। २. परखने की मजदूरी या पारिश्रमिक।
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परखाना  : सं० [हिं० ‘परखना’ का प्रे०] १. परखने का काम दूसरे से कराना। जाँच या परीक्षा करवाना। २. कोई चीज देने के समय अच्छी तरह ध्यान दिलाते हुए उसकी पहचान कराना। सहेजना।
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परखी  : स्त्री० [हिं० परखना] लोहे का एक तरह का नुकीला लंबोतरा उपकरण जिसकी सहायता से अन्न के बंद बोरों में से नमूने के तौर पर उसके कण या बीज निकाले जाते हैं। पुं० दे० ‘पारखी’।
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परखुरी  : स्त्री०=पखड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परखैया  : पुं० [सं०] परखने या जाँचनेवाला व्यक्ति।
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परग  : पुं० [सं० पदक] पग। डग। कदम।
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परगट  : वि०=प्रकट।
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परगटना  : अ० [हिं० प्रकट] प्रकट या जाहिर होना। स० प्रकट या जाहिर करना।
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पर-गत  : वि० [सं० द्वि० त०] १. दूसरे या पराये में गया या मिला हुआ अथवा उससे संबंध रखनेवाला। २. दे० ‘वस्तुनिष्ठ’। स्त्री० [सं० प्रकृति] मनुष्य की प्रकृति और स्वभाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०—पर-गत मिलना=प्रकृति या स्वभाव अनुकूल होने के कारण मेल-जोल होना। जैसे—उससे उनकी खूब पर-गत मिली।
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परगन  : पुं०=परगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परगना  : पुं० [फा० मि० सं० परिगण=घर] किसी जिले का वह भू-भाग जिसके अंतर्गत बहुत से ग्राम हों।
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परगनी  : स्त्री०=परगहनी।
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परगसना  : अ० [सं० प्रकाशन] प्रकाशित होना। प्रकट होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परगह  : पुं०=पगहा (पघा)।
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परगहनी  : स्त्री० [सं० प्रग्रहण] सुनारों का नली के आकार का एक औजार जिसमें करछी की-सी डाँडी लगी होती है। परगनी।
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परगहा  : पुं० [सं० प्रग्रहण] वास्तु-कला में एक प्रकार का अलंकरण या साज जो खंभों पर बनाया जाता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परगाछा  : पुं० [हिं० पर+गाछा=पेड़] १. एक प्रकार की परजीवी वनस्पति जो प्रायः गरम देशों में दूसरे पेड़ों पर उग आती है और उन्हीं पेड़ों के रस से अपना पोषण करती है। बंदाक। बाँदा। २. परजीवी पौधों का वर्ग।
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परगाछी  : स्त्री० [हिं० परगाछा] अमरबेल। आकाशबौंर।
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परगाढ़  : वि०=प्रगाढ़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परगासा  : पुं०=प्रकाश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परगासना  : अ० [हिं० परगसना] प्रकाशित होना। स० प्रकाशित करना।
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पर-गुण  : वि० [सं० ब० स०] जो दूसरों के लिए हितकर हो।
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पर-ग्रंथि  : स्त्री० [सं० ब० स०] (ऊँगली की) पोर।
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परघट  : वि०=प्रकट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परघनी  : स्त्री०=परगहनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परचंड  : वि०=प्रचंड।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परचई  : स्त्री० [सं० परिचय] १. परिचय। २. ऐसी पुस्तक जो किसी विषय का सामान्य ज्ञान कराती हो। ३. परिचय-पत्र।
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पर-चक  : स्त्री० [?] हलकी मारपीट या धौल-धप्पड़। जैसे—आज उन्होंने नौकर की अच्छी परचक ली। क्रि० प्र०—लेना।
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पर-चक्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. शत्रुओं का दल या वर्ग। २. शत्रुदल का क्षेत्र। ३. शत्रु सेना और उसके द्वारा होनेवाला आक्रमण या उपद्रव।
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परचत  : स्त्री०=परिचय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परचना  : अ० [सं० परिचयन] १. किसी से इतना अधिक परिचित होना या हिल-मिल जाना कि उससे व्यवहार करने में कोई संकोच या खटका न रहे। जैसे—यह कुत्ता अभी घर के लोगों से परचा नहीं है। मुहा०—मन परचना=मन का इस प्रकार किसी ओर प्रवृत्त होना कि उसे दुःख, शोक आदि का ध्यान न आये। २. जो बात एक या अनेक बार अपने अनुकूल हो चुकी हो; जिसमें कोई बाधा या रोक-टोक न हुई हो, उसकी ओर फिर किसी आशा से उन्मुख या प्रवृत्त होना। जैसे—दो-तीन बार इस भिखमंगे को यहाँ से रोटी मिल चुकी है; अतः यह यहाँ आने के लिए परच गया है। संयो० क्रि०—जाना। अ० १.=सुलगना (आग का)। २.=जलाना (दीपक आदि का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परचर  : पुं० [देश०] बैलों की एक जाति जो अवध के खीरी जिले के आस-पास पाई जाती है।
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परचा  : पुं० [फा० पर्चः] १. कागज का टुकड़ा। चिट। २. कागज के टुकड़े पर लिखी हुई छोटी चिट्ठी या सूचना। मुहा०—(किसी बड़े की सेवा में) परचा गुजरना=निवेदन-पत्र या सूचना-पत्र उपस्थित किया जाना। ३. विद्यार्थियों की परीक्षा में आनेवाला प्रश्न-पत्र। जैसे—हिंदी का परचा बिगड़ गया है। ४. अखबार। समाचार-पत्र। ५. कोई ऐसा सूचना-पत्र जो छाप या लिखकर लोगों में बाँटा जाता हो। (हैंड-बिल) पुं० [सं० परिचय] १. जानकारी। परिचय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०—परचा देना=ऐसा लक्षण या चिह्न बताना जिससे लोग जान जायँ। नाम-ग्राम बताना। परचा माँगना=किसी देवीत-देवता से अपना प्रभाव या शक्ति दिखाने के लिए आग्रहपूर्ण प्रार्थना करना। २. प्रमाण। सबूत। ३. जाँच। परख। ४. रहस्य संप्रदाय में, किसी बात का निश्चित प्रत्यय या पहचान। प्रत्यभिमान। उदा०—साईं के परचे बिना अंतर रह गई रेख।—कबीर। पुं० [फा० पर्चः] जगन्नाथजी के मंदिर का वह प्रधान पुजारी जो मंदिर की आमदनी और खर्च का प्रबंध करता और पूजा-सेवा आदि की देख-रेख करता है।
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परचाना  : स० [हिं० परचना का स०] १. किसी को परचने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम करना जिससे कोई परच जाय। २. किसी से हेल-मेल बढ़ाकर या लोभ दिखाकर उससे घनिष्ठता स्थापित करना। उसके मन का खटका या भय दूर करना। जैसे—किसी को दो-चार बार कुछ खिला या देकर परचाना। संयो० क्रि०—लेना। स० १.=चलाना। २.=सुलगाना।
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परचार  : पुं०=प्रचार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परचारना  : पुं०=प्रचारना।
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परची  : स्त्री० [हिं० परचा] १. कागज का छोटा टुकड़ा। छोटा परचा। २. कागज का ऐसा छोटा टुकड़ा जिसमें कोई सूचना या ज्ञातव्य बात लिखी गई हो।
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परचून  : पुं० [सं० पर=अन्य,+चूर्ण=आटा] आटा, चावल, दाल, नमक, मसाला आदि भोजन का फुटकर सामान। जैसे—परचून की दूकान। वि०, पुं० दे० ‘खुदरा’।
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परचूनिया  : वि० [हिं० परचून] परचून-संबंधी। पुं०= परचूनी।
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परचूनी  : पुं० [हिं० परचून] आटा, दाल, नमक आदि बेचनेवाला बनिया। मोदी। स्त्री० परचून बेचने का काम या रोजगार।
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परचै  : पुं०=परिचय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परच्छंद  : वि० [ब० स०] जो दूसरे के छंद अर्थात् शासन में हो। परतंत्र।
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परछत्ती  : स्त्री० [सं० परि=अधिक, ऊपर+हिं० छत= पटाव] १. कमरे में सामान आदि रखने के लिए, छत के नीचे छाई हुई छोटी पाटन या टाँड़। मियानी। २. वह हलका छप्पर जो दीवारों पर यों ही अटका, बाँध या रख दिया जाता है। फूस आदि की छाजन।
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परछन  : स्त्री० [सं० परि+अर्चन] द्वार पर वर के पहुँचने पर होनेवाली एक रीति जिसमे स्त्रियाँ दही और अक्षत का टीका लगातीं, उसकी आरती करतीं तथा उसके ऊपर से मूसल, बट्टा आदि घुमाती हैं।
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परछना  : स० [हिं० परछन] द्वार पर बरात लगने पर कन्या-पक्ष की स्त्रियों का वर की आरती आदि करना। परछन करना।
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परछाँवाँ  : पुं० [सं० प्रतिच्छाय] १. छाया। परछाईं। २. किसी व्यक्ति की पड़नेवाली ऐसी छाया या परछाईं जो कुछ स्त्रियों की दृष्टि में अनिष्टकर या अशुभ होती है। मुहा०—(किसी का) परछाँवाँ पड़ना=उक्त प्रकार की छाया के कारण कोई बुरा प्रभाव पड़ना। ३. किसी व्यक्ति की ऐसी छाया या परछाईं जो स्त्रियों के विश्वास के अनुसार गर्भवती स्त्री पर पड़ने से गर्भ के शिशु को उस पुरुष के अनुरूप आकार-प्रकार, स्वभाव आदि बनानेवाली मानी जाती है।
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परछाँही  : स्त्री०=परछाईं।
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परछा  : पुं० [सं० प्रणिच्छद] १. वह कपड़ा जिससे तेली कोल्हू के बैल की आँखों में अँधोटी बाँधते हैं। २. जुलाहों की वह नली या फिरकी जिस पर बाने का सूत लपेटा रहता है। घिरनी। पुं० [सं० परिच्छेद] १. बहुत सी घनी वस्तुओं के घने समूह में से कुछ के निकल जाने से पड़ा हुआ अवकाश। विरलता। २. मनुष्यों की वह विरलता जो किसी स्थान की भीड़ छँट जाने पर होती है। ३. अंत। समाप्ति। ४. निपटारा। ५. निर्माण। पुं० [?] [स्त्री० अल्पा० परछी] १. बड़ी बटलोई। देगची। २. कड़ाही। ३. मँझोले आकार का मिट्टी का एक बरतन।
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परछाईं  : स्त्री० [सं० प्रतिच्छाया] १. प्रकाश के सामने आने से पीछे की ओर अथवा पीछे को ओर से प्रकाश होने पर आगे की ओर बननेवाली किसी वस्तु की छायामय आकृति। मुहा०—(किसी की) परछाईं से डरना या भागना=किसी से इतना अधिक डरना कि उसके सामने जाने की हिम्मत न पड़े। २. दे० ‘परछावाँ’। क्रि० प्र०—पड़ना। ३. दे० ‘ प्रतिबिंब’।
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परछ्या  : स्त्री०=परीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परजंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परज  : वि० [सं० पर√जन् (उत्पत्ति)+ड] दूसरे या पराये से उत्पन्न। परजात। पुं० कोकिल। कोयल। पुं० [सं० पराजिका] ओड़व-संपूर्ण या षाड़व-संपूर्ण जाति का एक राग जो रात के अंतिम पहर में गाया जाता है।
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परजन  : पुं०=परिजन।
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परजन्म (न्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] [वि० पारजन्मिक] इस जीवन के बाद होनेवाला दूसरा जन्म।
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परजन्य  : पुं०=पर्जन्य।
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परजरना  : अ० [सं० प्रज्वलन] १. प्रज्वलित होना। जलना। दहकना। सुलगना। २. बहुत क्रुद्ध होना। बिगड़ना। ३. मन ही मन कुढ़ना या जलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० १. प्रज्वलित करना। दहकाना। सुलगाना। ३. क्रुद्ध करना। ३. संतप्त करना। जलाना।
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परजलना  : अ० [सं० प्रज्वलन] जलना।
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परजवट  : पुं०=परजौट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परजा  : स्त्री० [सं० प्रजा] १. प्रजा। रैयत। २. देहातों में गृहस्थों के अनेक प्रकार के काम तथा सेवाएँ करनेवाले लोग। जैसे—कुम्हार, चमार, धोबी, नाई आदि। ३. ब्रिटिश शासन के समय, वे खेतिहर जो जमींदार की जमीन लगान पर लेकर खेती-बारी करते थे। असामी। काश्तकार।
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परजात  : वि० [पं० त०] दूसरे से उत्पन्न। पुं० कोयल। पुं० [सं० पर+जाति] दूसरी या भिन्न जाति का व्यक्ति। दूसरी बिरादरी का आदमी। वि० दूसरी जाति से संबंध रखनेवाला।
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परजाता  : पुं० [सं० परिजात] १. मझोले आकार का एक पेड़ जिसमें शरद् ऋतु में छोटे-छोटे सुगंधित फूल लगते हैं। हर-सिंगार। २. उक्त पेड़ का फूल।
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पर-जाति  : स्त्री० [कर्म० स०] दूसरी जाति।
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परजाय  : पुं०=पर्याय।
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परजित  : वि० [तृ० त०] १. दूसरे के द्वारा पाला-पोसा हुआ। २. जिसे किसी ने जीत लिया हो। विजित। पुं० कोयल।
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परजीवी (विन्)  : वि० [सं० पर√जीव् (जीना)+णिनि] जिसका जीवित रहना दूसरों पर अवलंबित हो। दूसरों पर आश्रित रहनेवाला। पुं० वे वनस्पतियाँ या कीड़े-मकोड़े जो दूसरे वृक्षों या जीव-जंतुओं के शरीर पर रहकर और उनका रस या खून चूसकर जीते तथा पलते हैं। (पैराज़ाइट)
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परजौट  : पुं० [हिं० परजा (प्रजा)+औट (प्रत्य०)] घर आदि बनाने के निमित्त किसी से वार्षिक कर या देन पर जमीन लेने की प्रथा या रीति।
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परजौटी  : वि० [हिं० परजौट] १. परजौट-संबंधी। २. जो परजौट पर दिया या लिया गया हो। जैसे—परजौटी जमीन।
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परज्वलना  : अ० [सं० प्रज्वलन] प्रज्वलित होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परट्ठना  : स०=पठाना (भोजन)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परठना  : स० [सं० प्र+स्था] १. स्थापित करना। उदा०—परठि द्रविड़ सोखण सर पंच।—प्रिथीराज। २. दे० ‘पाना’।
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परठित  : भू० कृ० [सं० प्र+स्थित] १. प्रतिष्ठित। २. सुशोभित।
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परणना  : स० [सं० परिणयन] ब्याह करना। विवाह करना। उदा०—पर दल पिण जीवि पदमणी परणे।—प्रिथीराज। अ० विवाहित होना। ब्याहा जाना।
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परणाना  : स०=परणना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परणी  : स्त्री० [सं० परिणीता] वह स्त्री० जिसका परिणय या विवाह हो चुका हो।
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परतंगण  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश। (महाभारत)
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परतंगा  : स्त्री० [सं० प्रतिज्ञा] १. प्रसिद्धि। २. प्रतिष्ठा। मान। ३. पातिव्रत्य। सतीत्व।
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परतंचा  : स्त्री०=प्रत्यंचा (धुनष की डोरी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परतंत्र  : वि० [ब० स०] १. जो दूसरे के तंत्र या शासन में हो। २. पराधीन। परवश। पुं० १. उत्तम शास्त्र। २. उत्तम वस्त्र।
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परतः (तस)  : अव्य० [सं० पर+तस्] १. दूसरे से। अन्य से। २. पीछे। बाद में। ३. आगे। परे। ४. पहले या मुख्य के बाद। दूसरे स्थान पर। (सेकन्डरिली)
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परतः प्रमाण  : पुं० [ब० स०] जो स्वतः प्रमाण न हो, बल्कि दूसरे प्रमाणों के आधार पर ही प्रमाण के रूप में दिखाया या माना जा सके।
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परत  : स्त्री० [सं० परिवर्त्त=दोहराया जाना] १. किसी प्रकार के तल या स्तर का ऐसा विस्तार जो किसी दूसरी चीज के तल या स्तर पर कुछ मोटे रूप में चढ़ा, पड़ा या फैला हुआ हो। तह। जैसे—सफाई न होने के कारण पुस्तकों पर धूल की एक परत चढ़ चुकी थी। क्रि० प्र०—चढ़ना।—पड़ना। २. किसी लचीली वस्तु को दोहरा, चौहरा आदि करने पर, उसके बननेवाले खंडों या विभागों में से हर-एक। क्रि० प्र०—लगाना। ३. ऐसा कोई तल या विस्तार जो उसी तरह के कोई और तलों या विस्तारों के ऊपर या नीचे फैला हुआ हो। जैसे—(क) हर युग में बालू, मिट्टी आदि की एक नई परत चढ़ते-चढ़ते कुछ दिनों में ऊँची चट्टाने बन जाती हैं। (ख) खानों में से कोयले की एक परत निकाल लेने पर उसके नीचे दूसरी परत निकल आती है। स्त्री० [हिं० परतना] परतने की क्रिया या भाव।
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परतख  : वि०=प्रत्यक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परतच्छ  : वि०=प्रत्यक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परतछ्छ  : वि०=प्रत्यक्ष।
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परतना  : अ० [सं० परावर्तन] १. कहीं जाकर वहाँ से वापस आना। लौटना। २. पीछे की ओर घूमना। जैसे—परतकर देखना। मुहा०—परतकर कोई काम न करना=भूल कर भी कोई काम न करना। उदा०—मोती मानिक परत न पहरूँ।—मीराँ। ३. किसी ओर घूमना। मुड़ना। जैसे—दाहिनी ओर परत जाना। ४. उलटना। सं० [हिं० परत] परत के रूप में करना, रखना या लगाना।
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परतर  : वि० [सं० पर-तरप्] [भाव० परतरता] क्रम के विचार से जो ठीक किसी के बाद हुआ हो।
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परतरा  : वि०=परतर।
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परतल  : पुं० [सं० पट=वस्त्र+तल=नीचे] घोड़े की पीठ पर रखा जानेवाला वह बोरा जिसमें सामान भरा या लादा जाता है। गून।
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परतला  : पुं० [सं० परितन=चारों ओर खींचा हुआ] कपड़े या चमड़े की वह चौड़ी पट्टी जो कंधे से कमर तक छाती और पीठ पर से तिरछी होती हुई आती है तथा जिसमें तलवार लटकाई जाती है।
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परतषि  : वि०=प्रत्यक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परता  : पुं०=पड़ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परताजना  : पुं० [देश०] सुनारों का एक औजार जिससे वे गहनों पर मछली के सेहरे की तरह की नक्काशी करते हैं।
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परताना  : स० [हिं० परतना] १. वापस भेजना। लौटाना। २. घुमाना। मोड़ना।
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परताप  : पुं०=प्रताप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परतारना  : स० [सं० प्रतारण] ठगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०= प्रतारणा।
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परताल  : स्त्री०=पड़ताल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परतिंचा  : स्त्री०=प्रत्यंचा (धनुष की डोरी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परतिज्ञा  : स्त्री०=प्रतिज्ञा।
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परती  : स्त्री० [?] वह चादर जिससे हवा करके अनाज के दानों का भूसा उड़ाते हैं। मुहा०—परती लेना=चादर से हवा करके भूसा उड़ाना। बरसाना। ओसाना। स्त्री०=पड़ती (भूमि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परतीछा  : स्त्री०=प्रतीक्षा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परतीति  : स्त्री०=प्रतीति।
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परतेजना  : सं० [सं० परित्यजन] परित्याग करना। छोड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परतेला  : वि० [हिं० पड़ना] उबाले हुए रंग का घोल। (रंगरेज)
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परतो  : पुं० [फा०] १. प्रकाश। रोशनी। २. किरण। रश्मि। ३. किसी पदार्थ या व्यक्ति की पड़नेवाली छाया। परछाईं। ४. प्रतिच्छाया। प्रतिबिम्ब।
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परतोली  : स्त्री० [सं० प्रतोली] गली।
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परत्त  : अव्य [सं० पर+त्रल्] १. अन्य या भिन्न स्थान पर दूसरी जगह। २. परकाल में। दूसरे समय। ३. परलोक में। मरने पर।
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परत्र-भीरु  : वि० [सं० स० त०] जिसे परलोक का भय हो।
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परत्व  : पुं० [सं० पर+त्व] १. पर अर्थात् अन्य या गैर होने का भाव। २. पहले या पूर्व में होने का भाव।
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परथन  : स्त्री० दे०=‘पलेथन’।
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परथाव  : पुं०=प्रस्ताव। (पूरब) उदा०—की दहु हो इति एहि परथाव।—विद्यापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परद  : पुं०=परद (पारा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परदच्छिना  : स्त्री०=प्रदक्षिणा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परदा  : पुं० [फा० पर्दः] १. कोई ऐसा कपड़ा या इसी तरह की और चीज जो आड़ या बचाव करने के लिए बीच में फैलाकर टाँगी या लटकायी जाय। पट। (कर्टेन) जैसे—खिड़की या दरवाजे का परदा। क्रि० प्र०—उठाना।—खोलना।—डालना।—हटाना। पद—ढका परदा=ऐसी स्थिति जिसमें अन्दर की त्रुटियाँ, दोष आदि बाहरवालों की जानकारी या दृष्टि से बचे रहें। ढके परदे=बिना औरों पर भेद प्रकट हुए। मुहा०—(किसी का) परदा खोलना=किसी की छिपी बात, भेद या रहस्य प्रकट करना। परदा डालना=ऐसी स्थिति उत्पन्न करना कि दोष या भेद औरों पर प्रकट न होने पावे। (किसी चीज पर) परदा पड़ना=ऐसी स्थिति उत्पन्न होना कि औरों की दृष्टि न पड़ सके। (किसी का) परदा रहना=(क) प्रतिष्ठा या मान-मर्यादा बनी रहना। (ख) भेद या रहस्य छिपा रहना। २. अभिनय, खेल-तमाशे आदि में, वह लंबा-चौड़ा कपड़ा जो दर्शकों के सामने लटका रहता और जिस पर या तो कुछ दृश्य अंकित होते हैं या प्रतिबिंबित होते हैं। यवनिका। पट। (कर्टन) जैसे—रंगमंच का परदा, चल-चित्र या सिनेमा का परदा। ३. बीच में पड़कर आड़ खड़ा करनेवाली कोई चीज या बात। ओट। व्यवधान। ४. कोई ऐसी चीज या बात जो गति, दृष्टि आदि के मार्ग में बाधक हो। जैसे—उस समय हमारी बुद्धि पर न जाने कैसा परदा पड़ गया था कि मैंने तुम्हारी बात नहीं मानी। ५. मुसलमानों और उनकी देखा-देखी हिंदुओं में भी प्रचलित वह प्रथा जिसके अनुसार भले घर की स्त्रियाँ आड़ में रहती हैं और पर-पुरुषों के सामने नहीं होतीं। पद—परदा-नशीन। (दे०) क्रि० प्र०—करना।—रखना।—होना। मुहा०—परदा लगाना= स्त्रियों का ऐसी स्थिति में आना या होना कि पर-पुरुषों की दृष्टि उन पर न पड़ सके। जैसे—जब से वह ब्याही गई है, तब से हमसे भी परदा करने लगी है। परदे में बैठना=किसी स्त्री का पर-पुरुषों की दृष्टि से ओझल होकर घर के अन्दर रहना। जैसे—पहले तो वह वेश्या थी पर बाद में एक नवाब के यहाँ परदे में बैठ गई। परदे में रहना=घर के अन्दर सब लोगों की दृष्टि से बचकर रहना। ६. मकान आदि की कोई दीवार। जैसे—इस मकान का पूरबवाला परदा बहुत कमजोर है या गिरने को है। ६. किसी प्रकार का तल। या परत। तह। जैसे—(क) आसमान के सात परदे कहे गये हैं। (ख) मैंने दुनिया के परदे पर ऐसी बात नहीं देखी। ८. शरीर के किसी अंग की कोई ऐसी झिल्ली या परत जो किसी तरह की आड़ या व्यवधान करती हो। जैसे—आँख का परदा, कान का परदा। ९. अँगरखे कोट, शेरवानी आदि की वह परत जो आगे की ओर और छाती पर रहती है। १॰. बीन, सितार, हारमोनियम आदि बाजों में स्वरों के विभाजक स्थानों की सूचक किसी प्रकार की रचना। ११. फारसी संगीत में बारह प्रकार के रागों में हर राग। १२. नाव की पतवार।
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परदाख्त  : स्त्री० [फा० पर्दाख्त] १. देख-भाल। २. संरक्षण। ३. पालन-पोषण।
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परदाज  : पुं० [फा० पर्दाज़] १. शौर्य। वीरता। २. ढंग। तरीका। ३. सजावट। ४. कामों में लगे रहने का भाव। ५. चित्र में अंकित की जानेवाली महीन रेखाएँ।
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पर-दादा  : पुं० [हिं० पर+दादा] [स्त्री० परदादी] संबंधी के विचार से पिता का दादा।
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परदा-दार  : वि०=परदेदार।
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परदा-नशीन  : वि० स्त्री० [फा० पर्दःनशीं] १. (स्त्री) जो बड़ों तथा पर-पुरुषों से परदा करती हो। २. लाक्षणिक अर्थ में, जो घर में ही रहे, बाहर न निकले।
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परदापोश  : वि० [फा० पर्दःपोश] [भाव० परदापोशी] दूसरों के अवगुणों, दोषों आदि को छिपानेवाला।
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परदा-प्रथा  : स्त्री० [हिं०+सं०] कुछ एशियाई देशों और समाजों में प्रचलित वह प्रथा जिसके अनुसार स्त्रियों के घर के अन्दर, परदे में रखा जाता है और पर-पुरुषों के सामने नहीं होने दिया जाता।
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परदुम्न  : पुं०=प्रद्युम्न।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परदेदार  : वि० [हिं० परदा+फा० दार] १. जिसके आगे, जिसमें या जिसपर किसी प्रकार का परदा लगा हो। जैसे—परदेदार एक्कां या बहली। २. जो घर के अन्दर परदे में रहती हो, और पर-पुरुषों के सामने न होती हो।
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परदेदारी  : स्त्री० [फा० पर्दःदारी] १. परदेदार होने का अवस्था या भाव। २. स्त्रियों के घर के अन्दर रहने और पर-पुरुषों के सामने न आने की अवस्था या भाव। ३. वह स्थिति जिसमें किसी से कोई बात छिपाई जाती हो। उदा०—कुछ तो है जिसकी परदेदारी है।—कोई शायर।
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परदेश  : पुं० [ष० त०] १. अपने देश से भिन्न दूसरा देश। २. वह देश जहाँ कोई शक्ति अपना देश छोड़कर आया हो। विदेश।
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परदेशी (शिन्)  : वि० [सं० परदेश+इनि] परदेश-संबंधी। पुं० वह व्यक्ति जो अपना देश छोड़कर किसी दूसरे देश में आया या रहता हो।
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परदेस  : पुं०=परदेश।
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परदेसिया  : पुं० [हिं० परदेसी] पूरब में गाये जानेवाले एक प्रकार के गीत जिनमें परदेश गये हुए पति के संबंध में उसकी प्रियतमा के उद्गारों का उल्लेख होता है और जिनके प्रत्येक चरण के अंत में ‘परदेसिया’ शब्द होता है। (बिदेसिया के अनुकरण पर) जैसे—घरी राति गइसी पहर राति गइसी, ते दुअरा करेला ठाढ़ भोर परदेसिया।
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परदेसी  : वि० पुं०=परदेशी।
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परदोस  : पुं०=प्रदोष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परद्दा  : पुं०=परदा।
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परधान  : वि०=प्रधान। पुं०=परिधान।
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पर-धाम  : पुं० [कर्म० स०] १. परलोक। बैकुंठ-धाम। २. ईश्वर।
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परन  : पुं० [सं० पर्ण ?] मृदंग आदि बाजों को बजाते समय मुख्य बोलों के बीच-बीच में बजाये जानेवाले बोलों के खंड। पुं०=प्रण (प्रतिज्ञा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पर्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=परनि (आदत)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परना  : पुं० [सं० उपरना] अँगोछा। गमछा। अ०= पड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-नाद  : पुं० [कर्म० स०] वेदांत में, नाद का दूसरा नाम।
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पर-नाना  : पुं० [हिं० पर+नाना] [स्त्री० पर-नानी] नाना का पिता।
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पर-नाती  : पुं० [हिं० पर+नाती] [स्त्री० पर-नातिनी] नाती का लड़का।
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परनाम  : पुं०=प्रणाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परनाल  : पुं० [स्त्री० अल्पा० परनाली]=पनाला (बड़ा घड़ा)।
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परनाली  : स्त्री० [?] अच्छे घोड़ों की पीठ के मध्य भाग का (पुट्ठों और कंधों की अपेक्षा) नीचापन जो उनके तेज और बढ़िया होने का सूचक होता है। क्रि० प्र०—पड़ना। स्त्री०=प्रणाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० हिं० ‘परनाला’ (पनाला) का स्त्री० अल्पा०।
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परनि, परनी  : स्त्री० [हिं० पड़ना] पड़ी हुई आदत। अभ्यास। टेव। बान। उदा०—राखौं हरकि उतै को धावै उनकी वैसिय परनि परी री।—सूर। स्त्री० [हिं० आ पड़ना] आक्रमण। धावा। उदा०—अहे परनि मरि प्रेम की पहरथ पारि न प्रान।—बिहारी।
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परनापरनी  : स्त्री०=पन्नी (पतला वरक)।
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परनै  : पुं०=परिणय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परनौत  : स्त्री०=प्रणाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परपंच  : पुं०=प्रपंच।
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परपंचक  : वि०=परपंची।
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परपंची  : वि० [सं० प्रपंची] १. बखेड़िया। फसादी। २. चालाक। धूर्त। ३. मायावी।
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पर-पक्ष  : पुं० [कर्म० स०] १. विपरीत या विरुद्ध पक्ष। २. अन्य या दूसरा पक्ष। ३. अन्य अथवा विपरीत पक्ष का कथन या मत।
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परपट  : पुं० [हिं० पर+सं० पट=चादर] चौरस या समतल भूमि। वि०=चौपट।
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परपटी  : स्त्री०=पर्पटी।
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परपरा  : वि० [अनु० पर-पर] ‘पर-पर’ आवाज के साथ टूटनेवाला। कुरकुरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० [हिं० पर-पराना] जिससे मुँह या कोई और अंग परपराये।
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परपराना  : अ० [अनु०] [भाव० परपराहट] अंग में मिर्च अथवा किसी अन्य कड़वी या तीखी वस्तु का संयोग होने पर उसमें जलन होना। जैसे—मिर्ज लगने से आँख या मुँह परपराना।
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परपाक  : पुं० [सं० मध्य० स०] दूसरे के उद्देश्य से अथवा पंच यज्ञ के लिए भोजन बनाना।
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पर-पाजा  : पुं० [हिं० पर+आजा] [स्त्री० परपाजी] आजा या दादा का बाप। पर-दादा।
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पर-पार  : पुं० [कर्म० स०] उस ओर का तट। दूसरी तरफ का किनारा।
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परपिंडाद  : वि० [सं० परपिण्ड, ष० त०, परपिण्ड√अद् (खाना)+अण्] दूसरों का अन्न खाकर जीवन बितानेवाला। पुं० दास। भृत्य।
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पर-पीड़क  : वि० [सं० त० स०] १. दूसरों को सतानेवाला। २. दूसरों की पीड़ा या कष्ट का सहानुभूतिपूर्वक अनुभव करनेवाला। पराई पीड़ा समझनेवाला। (क्व०)
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पर-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] १. विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके पति से भिन्न कोई और पुरुष। २. साहित्य में वह नायक जो परकीया से प्रेम करता हो। ३. परम पुरुष (परमात्मा)।
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पर-पुष्ट  : वि० [तृ० त०] [स्त्री० पर-पुष्टा] जिसका पोषण दूसरे ने किया हो। पुं० कोयल।
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परपुष्टा  : स्त्री० [सं० परपुष्ट+टाप्] १. वेश्या। रंडी। २. परगाछा। बाँदा।
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परपूठा  : वि० [सं० परिपुष्ट, प्रा० परिपुष्ट] [स्त्री० परपूठी] पक्का। प्रौढ। स्त्री०=परपुष्टा।
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पर-पूर्वा  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] वह स्त्री जिसने अपने पहले पति के मर जाने अथवा उसे छोड़कर दूसरा पति कर लिया हो।
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परपोता  : पुं० [हिं परपौत्र] [स्त्री० परपोती] पोते का लड़का।
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परपौत्र  : पुं० [सं० प्रपौत्र] [स्त्री० परपौत्री] परपोता।
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पर-प्रत्यय  : पुं० [सं० कर्म० स०] व्याकरण में वह प्रत्यय जो शब्द के अन्त में कोई विशेषता लाता हो। (टरमिनेशन, सफिक्स) जैसे—सरलता में ‘ता’ पर-प्रत्यय है।
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परफुल्ल  : वि०=प्रफुल्ल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परफुल्लित  : भू० कृ०=प्रफुल्लित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परबंचकता  : स्त्री०=प्रवंचकता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परबंद  : पुं० [सं० पटबंध] नाच की एक गति जिसमें नाचने वाला एड़ियों के बल पैर खड़े करके खड़ा रहता है और उसकी दोनों कोहनियाँ कमर से सटी रहती हैं।
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परबंध  : पुं०=प्रबंध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परब  : स्त्री० [हिं० पोर] १. पोर। २. जवाहिर या रत्न का छोटा टुकड़ा। पुं०=पर्व।
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परबत  : पुं० [सं० पर्वत] १. पर्वत। पहाड़। २. पहाड़ पर बना हुआ किला या दुर्ग। ३. किला। दुर्ग। उदा०—परबत कहँ जो चला परबता।—जायसी। ४. दे० ‘परबत्ता’। ५. दे० ‘पर्वत’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परबता  : पुं०=परबत्ता। उदा०—कहुँ परबते जो गुन तोहिं पाहाँ।—जायसी।
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परबतिया  : वि० [हिं० परबत+इया (प्रत्य०)] पर्वत संबंधी। पर्वत पर होनेवाला। पहाड़ी। स्त्री० पूर्वी नेपाल की बोलियों का वर्ग।
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परबत्ता  : पुं० [सं० पर्वत] पहाड़ी तोता जो साधारण देशी तोते से बड़ा होता है। करमेल।
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परबल  : पुं०=प्रबल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=परवल।
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परबस  : वि० [भाव० परबसताई]=परवश।
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परबाल  : पुं० [हिं० पर=दूसरा+बाल=रोयाँ] आँख की पलक पर निकलनेवाला बाल या बिरनी जिसके कारण बहुत पीड़ा होती है। पुं०=प्रवाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परबी  : स्त्री० [सं० पर्व] १. पर्व का दिन। २. पर्व का समय। पुण्यकाल।
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परबीन  : वि० [भाव० परबीनता]=प्रवीण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परबेस  : पुं०=प्रवेश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परबोध  : पुं०=प्रबोध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परबोधना  : स० [सं० प्रबोधन] १. प्रबोधन करना। २. जगाना। अच्छी तरह समझना-बूझना। ४. ज्ञान प्राप्त कराना। ५. तसल्ली या दिलासा देना। धैर्य या सान्त्वना देना।
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पर-ब्रह्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. निर्गुण या निरुपाधि ब्रह्म। २. दादू दयाल द्वारा स्थापित एक सम्प्रदाय।
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परभंजन  : पुं०=प्रभंजन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परभव  : पुं० [कर्म० स०] दूसरा जन्म। जन्मांतर।
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परभा  : स्त्री०=प्रभा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परभाइ, परभाउ  : पुं०=प्रभाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-भाग  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. दूसरी ओर का भाग या हिस्सा। २. [ष० त०] कपड़ों की कढ़ाई, छपाई में वह नीचेवाली पहली तह जिसके ऊपर रंग के सूतों से अथवा रंग से आकृतियाँ बनाकर सौंदर्य लाया जाता है। ३. चित्र-कला में, चित्र की भूमिका या पृष्ठ भाग का दृश्य। (बैकग्राउंड) पुं० [कर्म० स०] १. पश्चिमी भाग। २. अवशिष्ट या बचा हुआ भाग। ३. उत्तम संपदा। ४. उत्तम या श्रेष्ठ गुण अथवा उसका उत्कर्ष।
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परभाग्योजीवी (विन्)  : वि० [सं० पर-भाग्य, ष० त०, परभाग्य+उप√जीव् (जीना)+णिनि] दूसरे की कमाई खाकर रहनेवाला।
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परभात  : पुं०=प्रभात।
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परभाती  : स्त्री०=प्रभाती।
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परभारा  : वि० [?] [स्त्री० परभारी] १. ऊपरी या बाहरी। २. तटस्थ या पराया (व्यक्ति)।
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परभारे  : अव्य० [?] १. ठीक मार्ग या साधन छोड़कर। २ अलग, दूसरे या बाहरी रास्ते से। (बुंदेल०) जैसे—तुम बिना हमसे पूछे परभारे उनसे रुपए माँग लाये, यह तुमने ठीक नहीं किया।
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परभाव  : पुं०=प्रभाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-भुक्त  : वि० [स० तृ० त०] [स्त्री० पर-भुक्ता] जिसका भोग कोई और कर चुका हो। दूसरे का भोगा हुआ।
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परभुक्ता  : स्त्री० [सं० परभुक्त+टाप्] ऐसी स्त्री जिसके साथ पहले कोई और समागम कर चुका हो।
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पर-भृत  : वि० [तृ० त०] जिसका पालन किसी दूसरे ने किया हो। स्त्री० कोयल। पुं० कार्तिकेय।
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परम  : वि० [सं० पर√मा (मान)+क] १. जो किसी क्षेत्र या वर्ग में सबसे अधिक उन्नत, महत्त्वपूर्ण या योग्य हो। २. किसी दिशा या सीमा में सबसे आगे बढ़ा हुआ। अत्यंत। ३. जिसके हाथ में कुल या सब अधिकार या शक्तियाँ निहित हो। (एब्सोल्यूट) ४. मुख्य। प्रधान। ५. आरंभिक या आदिम। पुं० १. शिव। २. विष्णु।
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परम-आज्ञा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] ऐसी आज्ञा जो अंतिम हो और जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न हो सकता हो। (एब्सोल्यूट आर्डर)
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परमक  : वि० [सं० परम+कन्] १. सर्वोच्च। सर्वोत्तम। सर्वश्रेष्ठ। २. चरम सीमा का। परले सिरे का।
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परम-गति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह उत्तम गति जो मरने पर सत्पुरुषों को प्राप्त होती है। मोक्ष।
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परमजा  : स्त्री० [सं० परम√जन् (उत्पन्न होना)+ ड+टाप्] प्रकृति।
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परमट  : पुं० [देश०] संगीत में एक प्रकार का ताल। पुं०=परमिट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमटा  : पुं० [?] एक प्रकार का चिकना रंगीन कपड़ा जो प्रायः कोट के अस्तर के काम आता है। पनैला।
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परमत  : स्त्री० [सं० परमता ?] १. साख। २. ख्याति। प्रसिद्धि।
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परम-तत्त्व  : पुं० [कर्म० स०] १. दर्शन-शास्त्र और विज्ञान के अनुसार, वह मूलतत्त्व जो सृष्टि की समस्त वस्तुओं का सृष्टिकर्त्ता माना गया है। पदार्थ। २. ब्रह्म।
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पर-मतिया  : वि० [हिं० पर+मत] जो अपनी समझ से नहीं बल्कि दूसरों के सिखाने पर सब काम करता हो। दूसरों की मत से चलनेवाला।
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पर-मद  : पुं० [सं० ब० स०] बहुत अधिक मद्य पीने से होनेवाला एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर भारी हो जाता है और बहुत अधिक प्यास लगती है।
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परम-धाम  : पुं० [कर्म० स०] बैकुंठ। स्वर्ग।
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परमन  : पुं०=परिमाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमन्न  : पुं० [सं० परम+अन्न] खाने-पीने की बहुत बढ़िया बढ़िया चीज़ें।
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परमन्यु  : पुं० [ब० स०] यदुवंशी कक्षेयु के एक पुत्र का नाम।
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परम-पद  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. सबसे श्रेष्ठ पद वा स्थान। २. सांसारिक बंधनों से मिलनेवाला मोक्ष।
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परम-पिता  : पुं० [सं० कर्म० स०] ईश्वर। परमेश्वर।
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परम-पुरुष  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. परमात्मा। २. विष्णु।
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परम-फल  : पुं० [कर्म० स०] १. सबसे उत्तम फल या परिणाम। २. मुक्ति। मोक्ष।
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परम-ब्रह्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०]=परब्रह्म।
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परम-ब्रह्मचारिणी  : स्त्री० [कर्म० स०] दुर्गा।
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परम-भट्टारक  : पुं० [कर्म० स०] [स्त्री० परम भट्टारिका] प्राचीन भारत में एक-छत्र राजाओं की एक उपाधि।
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परम-भट्टारिका  : स्त्री० [सं० कर्म०स०] प्राचीन भारत में परम भट्टारक की रानी की उपाधि।
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परम-रस  : पुं० [कर्म० स०] पानी मिला हुआ मट्ठा।
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परमर्द्धिदेव  : पुं० [सं० परम-ऋषि, ब० स०, परमर्द्धि-देव, कर्म० स०] महोबे के एक चंदेलवंशी राजा जो परमाल के नाम से भी प्रसिद्ध हैं।
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परमर्षि  : पुं० [सं० परम-ऋषि, कर्म० स०] वह जो ऋषियों में परम हो। सर्वश्रेष्ठ श्रृषि।
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परमल  : पुं० [सं० परिमल=कूटा या मला हुआ] ज्वार या गेहूँ का हरा या भिगोकर भुनाया हुआ चबेना। पुं०=परिमल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमवीर-चक्र  : पुं० [सं० परमवीर, कर्म० स०, परमवीरचक्र, ष० त०] विशिष्ट सैनिक अधिकारियों को असाधारण वीरता प्रदर्शित करने पर भारत सरकार द्वारा प्रदान किया जानेवाला एक अलंकरण।
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परम-सत्ता  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह सत्ता जो सबसे बढ़कर हो और जिसके ऊपर कोई और सत्ता न हो। (एब्सोल्यूट पावर)
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परमसत्ताधारी (रिन्)  : पुं० [सं० परमसत्ता√धृ (धारण) +णिनि] वह जिसे परम सत्ता प्राप्त हो।
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परम-हंस  : पुं० [कर्म० स०] १. परमात्मा। परमेश्वर। २. ज्ञान मार्ग में बहुत आगे बढ़ा हुआ संन्यासी। ३. संन्यासियों का एक भेद जिन्हें दंड, शिखा, सूत्र आदि धारण करना आवश्यक नहीं होता।
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परमांगना  : स्त्री० [सं० परमा-अंगना, कर्म० स०] अच्छी और सुंदरी स्त्री।
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परमा  : स्त्री० [सं० परम+टाप्] बहुत बढ़ी-चढ़ी हुई छवि या शोभा। स्त्री०=प्रमा (यथार्थ ज्ञान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रमेह (रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमाक्षर  : पुं० [सं० परम-अक्षर, कर्म० स०] ओंकार।
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परमाटा  : पुं० [देश०] १. संगीत में एक प्रकार का ताल। २. पनैला या परमटा नाम का कपड़ा।
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परमाणवीय  : वि० दे० ‘पारमाणविक’।
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परमाणविक  : वि०=पारमाणविक।
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परमाणु  : पुं० [सं० परम-अणु, कर्म० स०] [वि० पारमाणविक, परमाणवीय] १. अत्यंत सूक्ष्म कण। २. विज्ञान में किसी तत्व का वह सबसे छोटा टुकड़ा या खण्ड जिसके टुकड़े हो ही न सकते हों। (एटम) विशेष—अनेक परमाणुओं के योग से ही अणु बनते हैं।
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परमाणु-परीक्षण  : पुं० [सं०] नये बने हुए पारमाणिक शस्त्रों की शक्ति आदि का परीक्षण। (एटामिक टेस्ट)
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परमाणु-बम  : पुं० [सं० परमाणु+अं० बाम्ब] एक प्रकार का बम (गोला) जिसमें रासायनिक क्रियाओं द्वारा अणु का विस्फोट होता है तथा जिसके फल-स्वरूप भीषण तथा व्यापक संहार होता है। (एटम बाम्ब)
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परमाणुवाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. यह मत या सिद्धान्त कि परमाणुओं से ही जगत् की सृष्टि हुई है। (न्याय या वैशेषिक) (एटमिज़्म) २. परमाणुओं को उपयोग में लाने का काम।
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परमाणुवादी (दिन्)  : वि० [सं० परमाणुवाद+इनि] परमाणुवाद संबंधी। पुं० वह जो परमाणुवाद का सिद्धांत मानता हो। (एटॉमिस्ट)
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परमाण्विकी  : स्त्री० [सं०] भौतिक विज्ञान की वह शाखा जिसमें परमाणुओं की रचना, शक्ति, आदि का विवेचन होता है। (एटमिस्टिक)
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परमात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० परम-आत्मन्, कर्म० स०] ब्रह्म। परब्रह्म। ईश्वर।
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परमादेश  : पुं० [सं० परम-आदेश, कर्म० स०] उच्च न्यायालय की ऐसी आज्ञा या आदेश जिसके द्वारा कोई काम करने अथवा न करने के लिए कहा गया हो। (रिट, रिट ऑफ़ मेंडामेस)
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परमाद्वैत  : पुं० [सं० परम-अद्वैत, कर्म० स०] १. परमात्मा, जो सब प्रकार के भेदों आदि से रहित है। २. विष्णु।
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परमाधिकार  : पुं० [सं० परम-अधिकार, कर्म० स०] वह सबसे बड़ा अधिकार जो किसी को उसके पद, लिंग, विशिष्ट गुण आदि के कारण प्राप्त होता है। (प्रेरोगेटिव) जैसे—(क) राजा या राज्यपाल को शासन का, (ख) मनुष्यों को सोच-समझकर काम करने का, (ग) स्त्रियों को संतान उत्पन्न करने का परमाधिकार होता है।
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परमानंद  : पुं० [सं० परम-आनंद, कर्म० स०] १. वह उच्चतम आनंद जो आत्मा को परमात्मा में लीन करने पर प्राप्त होता है। २. आनंद स्वरूप ब्रह्म।
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परमान  : पुं० [सं० प्रमाण] १. प्रमाण। सबूत। २. यथार्थ या सत्य बात। पुं० [सं० परिमाण] १. नियति, अवधि मान या सीमा। जैसे—थाह, यह सदा १॰ हाथ लंबा ही होता है। २. सीमा। हद।
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परमानना  : स० [सं० प्रमाण] १. प्रमाण के द्वारा ठीक सिद्ध करना। २. प्रामाणिक या बिलकुल ठीक मानना या समझना। ३. मान लेना। स्वीकृत करना।
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परमान्न  : पुं० [सं० परम-अन्न, कर्म० स०] खीर। पायस।
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परमामुद्रा  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] त्रिपुरदेवी की पूजा में एक प्रकार की मुद्रा।
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परमायु (युस्)  : स्त्री० [सं० परम-आयुस्, कर्म० स०] जीवनकाल की चरम सीमा। विशेष—हमारे यहाँ उक्त सीमा १॰॰ वर्ष मानी गई है।
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परमायुष  : पुं० [सं० ब० स०, अच्] विजयसाल का पेड़। असन।
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परमार  : पुं० [सं० पर=शत्रु+हिं० मारना] अग्निकुल के अन्तर्गत राजपूतों का एक वंश। पँवार।
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परमारथ  : पुं०=परमार्थ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमाराध्य  : वि०=परम आराध्य।
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परमार्थ  : पुं० [सं० परम-अर्थ, कर्म० स०] [वि० परमार्थी, परमार्थिक] १. ऐसा पदार्थ या वस्तु जो सबसे बढ़कर हो। जैसे—ब्रह्म पद या मोक्ष। २. वह परम तत्त्व जो नाम, रूप आदि से परे और सबसे बढ़कर वास्तविक माना गया है। विशेष—न्याय में ऐसा सुख परमार्थ माना गया है जिसमें दुःख का सर्वथा अभाव हो। ३. बौद्ध दर्शन में, वस्तु का वास्तविक रूप और ज्ञान। ४. मोक्ष। ५. दूसरों का उपकार या भलाई। परोपकार।
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परमार्थता  : स्त्री० [सं० परमार्थ+तल्+टाप्] वास्तविक और सच्चे रूप में होनेवाला आध्यात्मिक यथार्थता।
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परमार्थवाद  : पुं० [सं० ष० त०] यह मत या सिद्धांत के परमार्थ या परमतत्त्व का चिंतन और प्राप्ति ही मनुष्य का सबसे बड़ा कर्त्तव्य है।
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परमार्थवादी (दिन्)  : वि० [सं० परमार्थ√वद्+णिनि] परमार्थवाद संबंधी। पुं० १. परमार्थवाद का अनुयायी या पोषक। २. बहुत बड़ा ज्ञानी और तत्तवाज्ञ।
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परमार्थी (र्थिन)  : वि० [सं० परमार्थ+इनि] १. परमार्थ संबंधी ज्ञान का उपासक और चिन्तक। यथार्थ या वास्तविक तत्त्व को ढूँढ़नेवाला। २. मोक्ष चाहनेवाला। मुमुक्ष। ३. दूसरों की भलाई करनेवाला। परोपकारी।
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परमावधि  : स्त्री० [सं० परमा-अवधि, कर्म० स०] किसी काम या बात की अंतिम अवधि या चरम सीमा।
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परमाह  : पुं० [सं० परम-अहन्, कर्म० स०,+टच्] १. सबसे बड़ा दिन। २. शुभ दिन।
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परमिट  : पुं० [अं०] १. वह अधिकारिक लिखित अनुमति, जिसमें कोई काम करने अथवा कोई चीज खरीदने की अनुमति दी गई हो। २. कागज का वह टुकड़ा जिस पर उक्त अनुमति लिखी होती है।
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परमिति  : स्त्री० [कर्म० स०] १. परिमित। २. परम सीमा। ३. मर्यादा।
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परमिन  : पुं० [?] एक प्रकार का साँप। कहते हैं कि इसकी फुफकार या हवा लगने से फोड़े निकल आते हैं।
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परमीकरण मुद्रा  : स्त्री० [सं० परमीकरण, परम+च्चि√कृ (करना)+ल्युट्—अन परमीकरण-मुद्रा, ष० त०] दे० ‘महामुद्रा’।
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परमीन  : वि०=पराया। (पूरब) उदा०—कर कुटुम्ब सब मेलइ परमीन।—मैथिली लोकगीत।
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पर-मुख  : वि० [ब० स०] १. जिसका मुँह दूसरी ओर या फिर हुआ हो। विमुख। २. जो उपेक्षा कर रहा हो और ध्यान न दे रहा हो। वि०=प्रमुख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-मृत्यु  : पुं० [ब० स०] कौआ, जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि आप से आप नहीं मरता।
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परमेव  : प्रमेह (रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमेश  : पुं० [सं० परम-ईश, कर्म० स०] परमेश्वर।
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परमेश्वर  : पुं० [सं० परम-ईश्वर, कर्म० स०] १. सगुण ब्रह्म जो सारी सृष्टि का रचयिता और संचालक है। २. विष्णु। ३. शिव।
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परमेश्वरी  : वि० [सं० परमा-ईश्वरी, कर्म० स० ङीष्] परमेश्वर-संबंधी। स्त्री० दुर्गा।
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परमेष्ट  : वि० [सं० परम-इष्ट, कर्म० स०] [भाव० परमेष्टि] परम इष्ट।
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परमेष्टि  : स्त्री० [सं० परम-इष्टि, कर्म० स०] १. अंतिम अभिलाषा। २. मुक्ति। मोक्ष।
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परमेष्ठ  : पुं० [सं० परमे√स्था (ठहरना)+क, अलुक्, स०] चतुर्मुख ब्रह्म। प्रजापति। (यजु०)
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परमेष्ठिनी  : स्त्री० [सं० परमेष्ठिन्+ङीप्] १. परमेष्ठी की शक्ति। देवी। २. श्री। ३. वाग्देवी। सरस्वती। ४. ब्राह्मी नाम की वनस्पति।
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परमेष्ठी (ष्ठिन्)  : पुं० [सं० परमे√स्था+इनिस, अलुक् स०] १. ब्रह्मा, अग्नि आदि देवता। २. तत्त्व। भूत। ३. प्राचीन काल का एक प्रकार का यज्ञ। ४. शालिग्राम की एक विशिष्ट प्रकार की मूर्ति। ५. विराट् पुरुष जो परम-ब्रह्म का एक रूप है। ६. चाक्षुष मनु का एक नाम। ६. गरुड़। ८. जैनों के एक जिन देव। परमेसर।
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परमेसुर  : पुं०=परमेश्वर।
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परमेसरी  : वि०, स्त्री०=परमेश्वरी।
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परमोक  : पुं० [सं० परिमोक्ष]=मोक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परमोद  : पुं०=प्रमोद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमोदना  : स०=परमोधना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमोधना  : स० [सं० प्रबोधन] १. प्रबोधन करना। परबोधना। २. मीठी-मीठी बातें करके किसी को अपनी ओर मिलाना।
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परयंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परयस्तापह् नुति  : स्त्री० दे० ‘पर्यस्तापह् नुति’।
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परयाग  : पुं०=प्रयाग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-राष्ट्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक राष्ट्र की दृष्टि में दूसरा राष्ट्र। अपने राष्ट्र से भिन्न दूसरा राष्ट्र। अन्य राष्ट्र।
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परराष्ट्र-नीति  : स्त्री० [ष० त०] अन्य राष्ट्रों के प्रति किये जानेवाले व्यवहार के समय बरती जानेवाली नीति। (फारेन पालिसी)
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परराष्ट्र-मंत्रालय  : पुं० [ष० त०] पर-राष्ट्र मंत्री का मंत्रालय।
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परराष्ट्र-मंत्री (त्रिन्)  : पुं० [सं० ष० त०] किसी राष्ट्र के मंत्री-मंडल का वह सदस्य जिस पर विभिन्न राष्ट्रों से होनेवाले व्यवहारों, संबंधों आदि के निर्वाह का भार रहता है। (फारेन मिनिस्टर)
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परराष्ट्रीय  : वि० [सं० परराष्ट्र+छ—ईय] जिसका संबंध परराष्ट्र से हो।
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पररु  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ण करना)+अरु] नीली भँगरैया।
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परलउ  : पुं० [?] पत्थर।
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परलय  : स्त्री० =प्रलय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परला  : वि० [सं० पर—उधर का, दूसरा+हिं० ला (प्रत्य०)] [स्त्री० परली] १. उधर का या उस ओरवाला। २. बहुत ही बढ़ा-चढ़ा। जैसे—परले सिरे का। पद—परले सिरे का=अंतिम सीमा तक पहुँचा हुआ। मुहा०—परले पार होना=(क) बहुत दूर तक जाना। (ख) समाप्त होना।
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परलै  : स्त्री=प्रलय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-लोक  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. इस लोक से भिन्न दूसरा लोक। २. वह सर्वश्रेष्ठ लोक, जहाँ मृत्यु के उपरान्त पवित्र आत्माएँ निवास करती हैं। (हिंदू) पद—परलोक-वास=मृत्यु। मुहा०—परलोक सिधारना= परलोक जाना। स्वर्ग में जाना। ३. मृत्यु के उपरान्त आत्मा की दूसरी स्थिति की प्राप्ति।
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परलोक-गमन  : पुं० [सं० त०] १. परलोक जाना। २. स्वर्ग सिधारना। मरना।
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परलोक-प्राप्ति  : स्त्री० [ष० त०] परलोक की प्राप्ति अर्थात् मृत्यु।
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पर-वंचक  : वि० [सं० ष० त०] [भाव० परवंचकता] दूसरों को ठगने या धोखा देनेवाला।
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परवर  : पुं०=परवल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=परबाल (आँख का रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रवर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [फा० पर्वर] परवरिश या पालन-पोषण करनेवाला। जैसे—गरीब परवर।
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परवर-दिगार  : वि० [फा० पर्वरदिगार] सबका पालन करनेवाला। पुं० परमेश्वर।
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परवरना  : अ० [सं० प्रवर्तन] चलना-फिरना।
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परवरिश  : स्त्री० [फा० पर्वरिश] पालन-पोषण।
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परवर्त्त  : वि०=प्रवर्तित। उदा०—विष्णु की भक्ति परवर्त्त जग में करी।—सूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परवर्ती (तिन्)  : वि० [सं० पर√वृत् (रहना)+णिनि] १. काल-क्रम या घटना-क्रम की दृष्टि से बाद में या पीछे होनेवाला। (लेटर) २. बाद के समय का। (सबसीक्वेन्ट) ३. जो पहले एक बार या एक रूप में हो चुकने पर बाद में कुछ और रूप में हो। (सेकेन्डरी) जैसे—पौधों की परवर्त्ती वृद्धि।
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परवल  : पुं० [सं० पटोल] १. एक प्रसिद्ध लता। २. उक्त लता का फल जिसकी तरकारी बनाई जाती है। ३. चिचड़ा जिसके फलों की तरकारी होती है।
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पर-वश  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० परवशता] १. जो दूसरे के वश में हो और इसीलिए जो स्वतंत्रतापूर्वक आचरण न कर सकता हो। २. जो दूसरे पर निर्भर करता हो।
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पर-वश्य  : वि० [ष० त०] [भाव० परवश्यता]=परवश।
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परवस्ती  : स्त्री० दे० ‘परवरिश’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परवा  : पुं०=पुरवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=प्रतिपदा (तिथि)। स्त्री०=परवाह।
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परवाई  : स्त्री०=परवाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-वाच्य  : वि० [तृ० त०] दूसरों द्वारा निंदित।
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परवाज  : वि० [फा० पर्वाज़] [भाव० परवाजी] समस्त पदों के अंत में; उड़नेवाला। जैसे—बलंदपरवाज=ऊँचा उड़नेवाला। स्त्री० उड़ने की क्रिया या भाव। उड़ान।
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परवाणि  : पुं० [सं० पर√वण् (शब्द करना)+ णिच्+ इन्] १. धर्माध्यक्ष। २. कार्तिकेय का वाहन, मोर। ३. वत्सर। वर्ष।
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परवान् (वत्)  : [सं० पर+मतुप्, वत्व] १. पराश्रयी। २. पराधीन। ३. असहाय।
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परवान  : पुं० [सं० प्रमाण] १. प्रमाण। सबूत। २. ठीक, वास्तविक या सत्य बात। ३. सीमा। हद। वि० १. उचित। ठीक। वाजिब। २. प्रामाणिक और विश्वसनीय। पुं० [फा० परवाल] १. उड़ान। मुहा०—परवान चढ़ना=(क) बहुत अधिक उन्नति करते हुए परम सुखी और सौभाग्यशाली होना। (स्त्रियाँ) (ख) पूर्णता तक पहुँचना। (ग) सफल होना। २. जहाजों के ठहरने की जगह। बन्दरगाह। पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परवानगी  : स्त्री० [फा० पर्वानगी] आज्ञा। अनुमति।
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परवानना  : सं० [सं० प्रमाण] किसी बात को ठीक और प्रामाणिक मानना या समझना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परवाना  : पुं० [फा० पर्वान] १. प्राचीन काल में वह लिखित आज्ञा जो राजा की ओर से किसी को भेजी जाती थी। २. किसी प्रकार के अधिकार या अनुमति का सूचक पत्र। जैसे—तलाशी का परवाना, राहदारी का परवाना। ३. पतिंगा, विशेषतः वह पतिंगा जो दीपक की लौ के चारों ओर मंडराता हो और अंत में उसी से जल मरता हो। शलभ। ४. लाक्षणिक अर्थ में, वह व्यक्ति जो किसी पर अत्यन्त मुग्ध हो और उसके प्रेम में अपने आप को बलिदान कर दे अथवा आत्म-बलिदान के लिए प्रस्तुत रहे। जैसे—देश का परवाना। ५. प्रेमिका के रूप-सौंदर्य पर अत्यधिक मुग्ध व्यक्ति। ६. लोमड़ी के आकार का एक वन्य पशु जो शेर के आगे-आगे चलता है।
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परवाना राहदारी  : पुं० दूसरे क्षेत्र या दूसरे देश में जाने अथवा कोई चीज ले आने के लिए अधिकारी की ओर से मिलनेवाला स्वीकृति-पत्र
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परवाया  : पुं० [हिं० पैर+पाया] ईंट, पत्थर या लकड़ी का वह टुकड़ा जो चारपाई के पाये के नीचे रखा जाय।
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परवाल  : पुं० १.=परबाल। २.=प्रवाल।
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परवास  : पुं० [सं० प्रवास] १. प्रवास। २. आच्छादन।
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पर-वासिका, पर-वासिनी  : स्त्री० [स० त०] बाँदा। बंदाक। परगाछा।
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परवाह  : स्त्री० [फा० पर्वा] १. कोई काम (विशेषतः अनुपयुक्त या अनुचित काम) करते समय मन को होनेवाला यह औचित्यपूर्ण विचार कि इस काम से बड़ों के मान को ठेस तो लगेगी। विशेष—यह शब्द इस अर्थ में प्रायः नहिक रूप में ही प्रयुक्त होता है। जैसे—हमें इस बात की परवाह नहीं है। २. आसरा। भरोसा। उदा०—जग में गति जाहि जगत्पति की परवाह सो ताहि कहा नर की।—तुलसी। ३. चिंता। फिक्र। पुं०=प्रवाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परवाहना  : सं० [सं० प्रवाह+हिं० ना (प्रत्य०)] प्रवाहित करना।
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पर-विंदु  : पुं० [कर्म० स०] वेदांत में विंदु का दूसरा नाम।
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परवी  : स्त्री० [सं० पर्व] पर्व-काल।
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परवीन  : वि०=प्रवीण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परवेख  : पुं०=परिवेश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परवेज  : पुं० [फा० पर्वेज] १. विजयी। २. नौशेरवाँ का पोता जो शीरीं का आशिक था।
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परवेश  : पुं०=प्रवेश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-वेश्म (श्मन)  : पुं० [ब० स० ?] स्वर्ग।
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पर-व्रत  : पुं० [ब० स०] धृतराष्ट्र का एक नाम।
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परश  : पुं० [सं० स्पर्श, पृषों० सिद्धि] स्पर्शमणि। पारस पत्थर। पुं०=स्पर्श।
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परशु  : पुं० [सं० पर√शृ (हिंसा)+कु, डित्त्व] कुल्हाड़ी की तरह का पर उससे बड़ा एक अस्त्र जिससे प्राचीन काल में योद्धा लोग एक दूसरे पर प्रहार करते थे।
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परशु-धर  : वि० [ष० त०] परशु नामक अस्त्र धारण करनेवाला। पुं० परशुराम।
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परशु-मुद्रा  : पुं० [मध्य० स०] तंत्र में एक प्रकार की मुद्रा।
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परशु-राम  : पुं० [ब० स०] रेणुका के गर्भ से उत्पन्न जमदग्नि ऋषि के पुत्र जिन्होंने २१ बार क्षत्रिय वंश का नाश किया था। विशेष—ये विष्णु के छठवें अवतार कहे गये हैं। इनका यह नाम ‘परशु’ धारण करने के कारण पड़ा था।
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परशु-वन  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक नरक का नाम।
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परश्वध  : पुं० [सं० पर√श्वि (वृद्धि)+ड=परश्व, ष० त० √धे (पान)+क] परशु नामक अस्त्र।
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परसंग  : पुं०=प्रसंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसंसा  : स्त्री०=प्रशंसा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परस  : पुं० [सं० स्पर्श] परसने की क्रिया या भाव। स्पर्श। पुं० [सं० परश] पारस पत्थर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसन  : पुं० [सं० स्पर्शन] परसने की क्रिया या भाव। छूना। स्पर्श। जैसे—दरसन-परसन।
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परसना  : स० [सं० स्पर्शन] १. स्पर्श करना। छूना। २. अनुभूत करना। उदा०—कछु भेदियाँ पीर हिये परसो।—घनानन्द। ३. भोजन करनेवालों की थालियों, पत्तलों आदि में खाद्य पदार्थ रखना। ५. भोजन कराना। परोसना। अ० खाद्य पदार्थों का पत्तलों आदि में रखा या लगाया जाना।
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परसन्न  : वि० [भाव० परसन्नता]=प्रसन्न।
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परसमनि  : पुं०=स्पर्शमणि (पारस पत्थर)।
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परसर्ग  : पुं० [सं० ब० स०] आधुनिक भाषा-विज्ञान में, ने, को, के, से, में आदि संज्ञा-विभक्तियाँ जिनके संबंध में यह कहा जाता है कि ये प्रकृति के साथ सटाकर नहीं बल्कि प्रकृति से हटाकर लिखी जानी चाहिए।
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पर-सवर्ण  : पुं० [सं० समान-वर्ण, कर्म० स०, स—आदेश, पर-सवर्ण, तृ० त०] पर या उत्तरवर्ती वर्ण के समान वर्ण।
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परसा  : पुं०=परशु। २.=फरसा। पुं०=परोसा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसाद  : पुं०=प्रसाद। अव्य० [सं० प्रसादात्] १. प्रसाद या कृपा से। २. वजह से। कारण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसादी  : स्त्री०=परसाद (प्रसाद)।
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परसाना  : स० [हिं० परसना] १. स्पर्श कराना। छुआना। २. भोजन परसने या परोसने का काम किसी से कारना।
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पर-साल  : अव्य० [सं० पर+फा० साल] १. गत वर्ष। पिछले साल। २. आगामी वर्ष। अगले साल। स्त्री० पास सारी नामक घास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसिद्ध  : वि०=प्रसिद्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसिया  : पुं० [देश०] एक तरह का पेड़ जिसकी लकड़ी मेज, कुरसियाँ आदि बनाने के काम आती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० परशु, हिं० परसा] १. छोटा परशु। २. हँसिया।
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परसी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की छोटी मछली।
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परसु  : पुं०=परशु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-सूक्ष्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] आठ परमाणुओं के बराबर की एक तौल।
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परसूत  : वि०=प्रसूत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसेद  : पुं०=प्रस्वेद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसों  : अव्य० [सं० परश्व] १. बीते हुए दिन से ठीक पहलेवाला दिन। २. आगामी कल के बादवाला दूसरा दिन।
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परसोतम  : पुं०=पुरुषोत्तम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसोर  : पुं० [देश०] एक तरह का अगहनी धान।
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परसौहाँ  : वि० [हिं० परसना+औहाँ (प्रत्य०)] स्पर्श करने या छूनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-स्त्री  : स्त्री० [ष० त०] दूसरे की स्त्री। विशेषतः अपनी पत्नी से भिन्न दूसरे की पत्नी।
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परस्त्री-गमन  : पुं० [सं० परस्त्रीगमन, स० त०] पराई स्त्री के साथ संभोग करना जो विधिक दृष्टि से अपराध और धार्मिक दृष्टि से पाप है।
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परस्पर  : अव्य० [सं० पर, द्वित्व, सकार का आगम] १. एक दूसरे के साथ। जैसे—दोनों रेखाओं को परस्पर मिलाओ। २. दो या दो से अधिक पक्षों में। जैसे—ब्च्चे परस्पर मिठाई बाँट लेंगे। ३. एक दूसरे के प्रति। जैसे—इन लोगों में परस्पर बैर है।
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परस्पर-व्यापी  : वि० [सं०] (चीजें, बातें या स्थितियाँ) जो आपस में आंशिक रूप में एक दूसरे के क्षेत्र का अतिक्रमण करके उनमें व्याप्त हों। अतिच्छादित। (ओवरलैपिंग)
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परस्परोपमा  : स्त्री० [सं० परस्पर-उपमा, ष० त०] उपमेयोपमा। (दे०)
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परस्मैपद  : पुं० [सं० अलुक स०] संस्कृत धातुओं का एक वर्ग जिनसे बननेवाली क्रियाएँ कर्ता की अनुसारी होती हैं। ‘आत्मनेपद’ से भिन्न।
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परस्व  : पुं० [सं०] १. दूसरे की संपत्ति। २. पराधीनता।
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पर-हथ  : अव्य० [हिं० पर+हाथ] दूसरे के हाथ में। दूसरे की अधीनता में।
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परहरना  : स० [सं० परिहास] छोड़ना। तजना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परहार  : पुं०=प्रहार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=परिहार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परहारी  : पुं० [सं० प्रहरी] जगन्नाथ जी के मंदिर के वे पुजारी जो मंदिर में ही रहते हैं।
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परहेज  : पुं० [फा० पर्हेज़] १. ऐसी वस्तुओं का सेवन न करना अथवा ऐसे कार्य न करना जिनसे स्वास्थ्य बिगड़ता हो अथवा सुधरती हुई शारीरिक स्थिति में बाधा पहुँचती हो। २. संयमपूर्वक रहना। ३. बुरी बातों से दूर रहना या बचना।
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परहेजगार  : पुं० [फा० पर्हेज़गार] [भाव० परहेजगारी] १. परहेज करनेवाला। २. इंद्रियों को वश में रखनेवाला। संयमी। ३. धार्मिक दृष्टि से दोषों, पापों आदि से बचकर रहनेवाला। धर्म-निष्ठ।
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परहेजगारी  : स्त्री० [फा०] परहेजगार होने की अवस्था या भाव।
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परहेलना  : स० [सं० अवहेलना] अवहेलना या उपेक्षा करना। उदा०—तेहि रिस हों परहेलिउँ।—जायसी।
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परांग  : पुं० [सं० पर-अंग, ष० त०] १. दूसरे का अंग। [कर्म० स०] २. श्रेष्ठ अंग।
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परांगद  : पुं० [सं० परांग√दा (देना)+क] शिव।
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परांगभक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० परांग√भक्ष् (खाना)+ णिनि] १. वह जो दूसरों के अंग खाता हो। २. परजीवी।
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परांगव  : पुं० [सं० परांग√वा (गति)+क] समुद्र।
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पराँचा  : पुं० [फा० प्रांचः] १. तख्ता। २. तख्तों की पाटन। ३. नावों का बेड़ा।
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परांज  : पुं० [सं० पर√अञ्ज् (चिकना करना)+अच्] १. तेल निकालने का यंत्र। कोल्हू। २. फेन। ३. छुरी, तलवार आदि का फल।
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परांजन  : पुं०=परांज।
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पराँठा  : पुं० [हिं० पलटना] [स्त्री० अल्पा० पराँठी] तवे पर घी लगाकर सेंकी हुई रोटी।
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परांत  : पुं० [सं० पर-अंत, कर्म० स०] मृत्यु।
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पराँतक  : पुं० [सं० पर-अंतक, कर्म० स०] शिव।
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परांत-काल  : पुं० [ष० त०] १. मृत्यु का समय। २. वह समय जब कोई आवागमन के चक्र से छूटने के लिए शरीर छोड़ रहा हो।
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पराँदा  : पुं० [फा० परंद] [स्त्री० अल्पा० पराँदी] स्त्रियों के बाल गूँथने की चोटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परा  : उप० एक संस्कृत उपसर्ग जो निम्नलिखित अर्थों में प्रयुक्त होता है—(क) दूरी पर। परे। जैसे—पराकरण। (ख) आगे की ओर। जैसे—पराक्रमण। (ग) विपरीतता। जैसे—पराजय, पराभव। वि० [सं० पर का स्त्री०] १. जो सब से परे हो। २. उत्तम। श्रेष्ठ। स्त्री० [सं०√पृ (पूर्ति)+अच्+टाप्] १. चार प्रकार की वाणियों में पहली जो नाद स्वरूपा और मूलाधार से निकली हुई मानी गई है। वह विद्या जो ऐसी वस्तु का ज्ञान कराती है जो सब गोचर पदार्थों से परे हो। ब्रह्मविद्या। ३. एक प्रकार का साम-गान। ४. एक प्राचीन नदी। ५. गंगा। ६. बाँझ-ककोड़ा। पुं० [हिं० पारना] रेशम फेरनेवाला का लकड़ी का एक औजार। पुं० [?] कतार। पंक्ति। जैसे—फौजें परा बाँधकर खड़ी थीं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० प्र०—बाँधना।
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पराई  : वि० हिं० ‘पराया’ का स्त्री०।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पराक  : पुं० [सं० पर-आक, ब० स०] १. दे० ‘कृच्छापराक’। २. खड्ग। ३. एक प्रकार का रोग। ४. एक प्रकार का छोटा कीड़ा या जंतु।
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परा-करण  : पुं० [सं० परा√कृ (करना)+ल्युट्—अन] १. दूर करना या परे हटाना। २. अस्वीकृत कराना। ३. तिरस्कृत करना।
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पराकाश  : पुं० [सं० परा√काश् (चमकना)+घञ्] १. शतपथ ब्राह्मण के अनुसार दूर-दर्शिता। दूर की सूझ। दूरवर्ती आशा। ३. दूर का दृश्य।
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पराकाष्ठा  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] १. चरम सीमा। सीमांत। हद। अन्त। २. लाक्षणिक अर्थ में किसी कार्य या बात की ऐसी स्थिति जहाँ से और आगे ले जाने की कल्पना असंभव हो। जैसे—झूठ की पराकाष्ठा। ३. ब्रह्मा की आधी आयु की संख्या। ४. गायत्री का एक भेद।
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पराकोटि  : स्त्री०=पराकाष्ठा।
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पराक्पुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स०,+ङीष्] आपामार्ग। चिचड़ी।
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पराक्रम  : पुं० [सं० परा√क्रम् (गति)+घञ्] [वि० पराक्रमी] १. आगे की ओर अथवा किसी के विरुद्ध गमन करना या चलना। २. आगे बढ़कर किसी पर आक्रमण करना। ३. वह गुण या शक्ति जिसके द्वारा मनुष्य कठिनाइयों को पार करता हुआ आगे बढ़ता है और उत्साह, वीरता आदि के अच्छे और बड़े काम करता है। ४. उद्योग। पुरुषार्थ। मुहा०—पराक्रम चलना=शारीरिक सामर्थ्य के आधार पर पुरुषार्थ या उद्योग हो सकना। जैसे—जब तक हमारा पराक्रम चलता है, तब तक हम कुछ न कुछ काम करते ही रहेंगे।
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पराक्रमण  : पुं० [सं० परा√क्रम्+ल्युट्—अन] आगे की ओर अथवा किसी के विरुद्ध बढ़ना।
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पराक्रमी (मिन्)  : वि० [सं० पराक्रम+इनि] १. जिसमें यथेष्ट पराक्रम हो। २. पराक्रम करने या दिखानेवाला अर्थात् बलवान या वीर। ३. पुरुषार्थी।
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पराक्रांत  : वि० [सं० परा√क्रम्+क्त] १. पीछे की ओर मोड़ा हुआ। २. जिसमें उत्साह और वीरता हो। ३. आक्रांत।
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पराग  : पुं० [सं० परा√गम् (जाना)+ड] १. वह रज या धूल जो फूलों के बीच लम्बे केसरों पर जमी रहती है। पुष्पराज। (पोलेन) २. धूलि। रज। ६. चन्दन। ४. कपूर के छोटे कण। ५. एक प्राचीन पर्वत। ६. उपराग। स्वछन्द रूप में होनेवाली गति। ८. प्राचीन भारत में नहाने से पहले शरीर पर लगाने का एक सुगंधित चूर्ण।
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पराग-केसर  : सं० [मध्य० स०] फूलों के बीच का वह केसर (गर्भ केसर से भिन्न) या सींगा जो उसका पुंर्लिंग अंग माना जाता है। (स्टैमेन)
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परागजज्वर  : पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जो कुछ घासों और वृक्षों का पराग शरीर में पहुँचने से उत्पन्न होता है। इसमें आँखें और ऊपरी स्वास संस्थान में सूजन होती है जिससे छींकें आने लगती हैं और कभी-कभी ज्वर तथा दमा भी हो जाता है।
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परागण  : पुं० [सं० परागकरण] पेड़-पौधों का पराग या पुष्परज से युक्त होना या किया जाना। (पोलिनेशन)
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परागत  : भू० कृ० [सं० परा√गम् (जाना)+क्त] १. दूर गया हुआ। २. मरा हुआ। मृत। ३. घिरा हुआ। ४. फैला हुआ। विस्तृत।
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परागति  : स्त्री० [सं० परा√गम्+क्तिन्] गायत्री।
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परागना  : अ० [सं० उपराग=विषयाशक्ति] आसक्त होना। अ० [सं० पराग+हिं ना (प्रत्य०)] पराग से युक्त होना। स० पराग से युक्त करना।
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पराङमुख  : वि० [सं० ब० स०] १. जो पीछे की ओर मुँह फेरे हुए हो। विमुख। २. जो किसी की ओर ध्यान न देकर उसकी ओर से मुँह फेर ले। ४. उदासीन। ४. विपरीत। विरुद्ध।
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पराच्  : वि० [सं० परा√अञ्च् (गति)+क्विप्] १. प्रतिलोमगामी। उलटा चलने या जानेवाला। ऊर्ध्वगामी। ३. परोक्ष में जानेवाला। ३. जिसका मुँह बाहर की ओर हो।
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पराचीन  : वि० [सं० पराच्+ख—ईन] १. पराङमुख। २. दूसरी ओर स्थित। वि०=प्राचीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पराछित  : पुं०=प्रायश्चित। उदा०—मारयाँ परछित लागसी म्हाँने दीजो पीहर मेल।—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पराजय  : स्त्री० [सं० परा√जि (जीतना)+अच्] प्रतियोगिता, युद्ध आदि में होनेवाली हार। शिकस्त। ‘जय’ का विपर्याय।
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पराजिका  : स्त्री० [सं० उपराजिका या हिं० परज] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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पराजित  : भू० कृ० [सं० परा√जि+क्त] हराया या हारा हुआ।
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पराणसा  : स्त्री० [सं० परा√अन् (जीना)+अस+टाप्] चिकित्सा। औषधोपचार। इलाज।
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परात  : स्त्री० [सं० पात, मि० पुर्त्त० प्राट] थाली के आकार का ऊँचे किनारोंवाला एक बड़ा बरतन।
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परात्पर  : वि० [सं० अलुक्, स०] जिसके परे या जिससे बढ़कर कोई दूसरा न हो। सर्वश्रेष्ठ। पुं० १. परमात्मा। २. विष्णु।
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परात्प्रिय  : पुं० [सं० अलुक् स०] कुश की तरह की एक प्रकार की घास जिसमें जौ या गेहूँ के से दाने पड़ते हैं। उलपतृण।
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परात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० पर-आत्मन्, कर्म० स०] परमात्मा। परब्रह्म।
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परादन  : पुं० [सं० पर-अदन, ब० स०] अरब या फारस देश का एक प्रकार का घोड़ा।
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पराधि  : स्त्री० [सं० पर-आधि, कर्म० स०] तीव्र मानसिक व्यथा।
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पराधीन  : वि० [सं० पर-अधीन, ष० त०] [भाव० पराधीनता] जो दूसरे या दूसरों के अधीन हो। जिसपर किसी दूसरे का अंकुश या शासन हो।
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पराधीनता  : स्त्री० [सं० पराधीन+तल्+टाप्] पराधीन होने की अवस्था या भाव।
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परान  : पुं०=प्राण।
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पराना  : अ० [सं० पलायन] १. भागना। २. दूर होना। स० १. भगाना। २. दूर करना। वि० [स्त्री० परानी]=पुराना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स०=पिराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परानी  : पुं०=प्राणी।
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परान्न  : पुं० [सं० पर-अन्न, ष० त०] दूसरे का दिया हुआ अन्न या भोजन। पराया धान्य।
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परान्नभोजी (जिन्)  : वि० [सं० परान्न√भुज् (खाना)+णिनि] जो दूसरों का दिया हुआ अन्न खाकर पलता हो।
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परापति  : स्त्री०=प्राप्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परापर  : वि० [सं० पर+अपर] १. पर और अपर। २. जिसमें परत्व और अपरत्व दोनों गुण हों। (वैशेषिक) ३. अच्छा और बुरा। पुं० फालसा।
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परापरज्ञ  : वि० [सं०] १. पर और अपर का ध्यान रखनेवाला। २. ऊँच-नीच या भला-बुरा समझनेवाला।
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पराभक्ति  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] मनुष्य के मन में ईश्वर के प्रति होनेवाली वह विशुद्ध भक्ति जिसमें अपने स्वार्थ या हित की कुछ भी कामना नहीं होती। साध्या भक्ति।
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पराभव  : पुं० [सं० परा√भू (होना)+अप्] १. व्यक्ति, जाति देश आदि का होनेवाला पतनोन्मुखी तथा ह्रासमय अंत। २. नाश। विनाश। ३. पराजय। हार। ४. अपमान। बेइज्जती।
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पराभिक्ष  : पुं० [सं० पर-आ√भिक्ष् (माँगना)+अण्] एक प्रकार का वानप्रस्थ जो थोड़ी सी भिक्षा से निर्वाह करता हो।
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पराभूत  : भू० कृ० [सं० परा√भू+क्त] १. जिसका पराभव किया गया हो, या हुआ हो। हराया या हारा हुआ। पराजित। परास्त। २. ध्वस्त। विनष्ट।
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पराभूति  : स्त्री० [सं० परा√भू+क्तिन्] दे० ‘पराभव’।
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परा-मनोविज्ञान  : पुं० [सं०] आधुनिक खोजों और प्रयोगों के आखार पर स्थिति एक नया विज्ञान जिसमें यह सिद्ध होता है कि मनुष्य में अथवा उसकी आत्मा या मन में कुछ ऐसी आध्यात्मिक और मानसिक शक्तियाँ हैं जो काल, देश तथा शरीर की सीमाओं में बद्ध नहीं है और जो ऐसे अद्भुत कार्य करती हैं जिनका साधारण बुद्धि या विज्ञान से किसी प्रकार समाधान नहीं होता। (पैरा-साइकोलाजी)
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परा-मनोवैज्ञानिक  : वि० [सं०] परा-मनोविज्ञान-संबंधी। पुं० परा-मनोविज्ञान का ज्ञाता या पंडित।
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परामर्श  : पुं० [सं० परा√मृश् (छूना)+घञ्] १. पकड़ना। खींचना। जैसे—केश-परामर्श। २. विवेचन। विचार। ३. विवेचन या विचार के लिए आपस में होनेवाली सलाह। ४. किसी विषय में दूसरे से ली जानेवाली सलाह। ५. निर्णय। क्रि० प्र०—करना। देना।—माँगना।—लेना। ६. अनुमान। अन्दाज। अटकल। ६. याद। स्मृति। ८. तरकीब। युक्ति।
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परामर्श-दाता (तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] [स्त्री० परामर्शदात्री] दूसरों को परामर्श या सलाह देनेवाला।
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परामर्शदात्री-परिषद्  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद]=परामर्श-समिति।
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परामर्शन  : पुं० [सं० परा√मृश्+ल्युट्—अन] १. खींचना। २. परामर्श अथवा सलाह करने की क्रिया या भाव। ३. चिन्तन, ध्यान या स्मरण।
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परामर्श-समिति  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] वह समिति जो किसी विषय के संबंध में अपनी राय देने के लिए नियुक्त की जाती है।
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परामृत  : वि० [सं० पर-अमृत, कर्म० स०] जिसने मृत्यु को जीत लिया हो।
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परमृष्ट  : भू० कृ० [सं० परा√मृश्+क्त] १. पकड़कर खींचा हुआ। २. पीड़ित। ३. जिसके संबंध में परामर्श हो चुका हो। ४. जिसके विषय में विचार के उपरांत निर्णय या निश्चय हो चुका हो।
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परापचा  : पुं० [फा० पार्चः] १. कपड़ों के कटे टुकड़ों की टोपियाँ आदि बनाकर बेचनेवाला। २. सिले-सिलाये कपड़े बेचनेवाला रोजगारी।
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परायण  : वि० [सं० पर-अयन, ब० स०] [स्त्री० परायणा] १. गया या बीता हुआ। गत। २. किसी काम या बात में अच्छी तरह लगा हुआ। निरत। जैसे—कर्त्तव्यपरायण। ३. किसी के प्रति पूर्ण निष्ठा या भक्ति रखनेवाला। जैसे—धर्मपरायण स्त्री। पुं० १. वह स्थान जहाँ शरण मिली हो। शरण का स्थान। २. विष्णु।
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परायत्त  : वि० [सं० पर-आयत्त, ष० त०] पराधीन।
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पराया  : वि० पुं० [सं० पर+हिं० आया (प्रत्य०) [स्त्री० पराई] १. जिसका संबंध दूसरे से हो। अपने से भिन्न। ‘अपना’ का विपर्याय। २. आत्मीय या स्वजन से भिन्न। पद—पराया समझकर=आत्मीयता के भाव से रहित या विमुख होकर।
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परायु (युस्)  : पुं० [सं० पर-आयुस्, ब० स०] ब्रह्मा, जिनकी आयु सबसे अधिक कही गई है।
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परार  : वि०=पराया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परारध  : पुं०=परार्द्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परारबध  : पुं०=प्रारब्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परारि  : अव्य० [सं० पूर्वतर+अरि, नि० पर—आदेश] पूर्वतर वर्ष में। परियार साल।
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परारु  : पुं० [सं० परा√ऋ (गति)+उण्] करेला।
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परारुक  : पुं० [सं० परा√ऋ+उक] १. चट्टान। २. पत्थर।
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परार्थ  : वि० [सं० पर-अर्थ, नित्य स०] [भाव० परार्थता] जो दूसरे के निमित्त हो। पुं० १. दूसरों का ऐसा काम जो उपकार की दृष्टि से किया जाता हो। २. दे० ‘परमार्थ।’
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परार्थवाद  : पुं० [सं० ष० त०] यह सिद्धांत कि जहाँ तक हो सके, दूसरों का उपकार करते रहना चाहिए। (एल्ट्रू इज़्म)
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परार्थवादी (दिन्)  : वि० [सं० परार्थ√वद् (बोलना)+ णिनि] परार्थवाद-संबंधी। पुं० १. परार्थवाद का अनुयायी। २. वह जो सदा दूसरों का उपकार करता हो।
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परार्द्ध  : पुं० [सं० अर्ध,√ऋधे (वृद्धि)+अच् पर-अर्ध, कर्म० स०] १. बादवाला आधा अंश। उत्तरार्द्ध। २. वह संख्या जिसे लिखने में अठारह अंक होते हैं। एक शंख। १॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰। ३. ब्रह्मा की आयु का परवर्ती आधा अंश।
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परार्द्धि  : पुं० [सं० परा-ऋद्धि, ब० स०] विष्णु।
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परार्ध्य  : वि० [सं० परार्ध+यत्] १. श्रेष्ठ। २. उत्तम। पुं० १. असीम संख्या। २. सबसे बड़ी वस्तु।
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परालब्ध  : पुं०=प्रारब्ध।
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पराव  : पुं०=पराया। पुं० [हिं० पराना] भागने की क्रिया या भाव।
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परावत  : पुं० [सं० परा√अव् (रक्षण आदि)+अतच्] फालसा।
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परावन  : पुं० [सं० पलायन, हिं० पराना] १. एक साथ बहुत से लोगों का भागना। भगदड़। पलायन। वि० भागनेवाला। भग्गू। पुं० [हिं० पड़ना, पड़ाव] गाँववालों का गाँव के बाहर डेरा डालकर उत्सव मनाना।
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परावर  : वि० [सं० पर-अवर, कर्म० स०] [स्त्री० परावर] १. पहले और पीछे का। २. निकट और दूर का। ३. सर्वश्रेष्ठ। पुं० १. कारण और कार्य। २. विश्व। ३. अखिलता।
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परावर्त  : पुं० [सं० परा√वृत् (बरतना)+घञ्] १. लौटकर पीछे आना। प्रत्यावर्तन। २. अदला-बदली। विनिमय। ३. दे० ‘प्रतिवर्तन’।
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परावर्तक  : वि० [सं० परा√वृत्+ण्वुल्—अक] १. लौटकर पीछे आने या जानेवाला। २. अदल-बदल जानेवाला।
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परावर्तन  : पुं० [सं० परा√वृत्+ल्युट्—अन] १. लौटकर पीछे आना। प्रत्यावर्तन। २. उलटने पर फिर ज्यों का त्यों हो जाना। ३. उलटाया जाना। ४. दे० ‘अंतरण’। ५. धार्मिक ग्रंथों का पुनर्पठन। (जैन)
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परावर्त-व्यवहार  : पुं० [सं० ष० त०] किसी निर्णय पर होनेवाला पुनर्विचार।
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परावर्तित  : भू० कृ० [सं० परा√वृत्+णिच्+क्त] पलटाया हुआ। पीछे फेरा हुआ। पीछे की ओर लौटाया हुआ।
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परावर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० परा√वृत्+णिनि] १. लौटकर पुनः अपने स्थान पर आने या पहुँचनेवाला। २. फिर से पहलेवाली स्थिति में आनेवाला।
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परा-वसु  : पुं० [सं० प्रा० ब० स०] १. असुरों का पुरोहित। २. रैभ्य मनु के एक पुत्र का नाम। ३. विश्वामित्र के एक पौत्र का नाम।
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परावह  : पुं० [सं० परा√वह् (ढोना)+अच्] वायु के सात भेदों में से एक। विशेष—अन्य छः भेद आवह, उदह, परिवह, प्रवह, विवह और संवह हैं।
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परावा  : वि०=पराया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पराविद्ध  : पुं० [सं० परा√व्यध् (ताड़न करना)+क्त] कुबेर।
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परावृत्त  : वि० [सं० परा√वृत्+क्त] [भाव० परावृत्ति] १. पलटा या पलटाया हुआ। फेरा हुआ। परावर्तित। २. बदला हुआ।
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परावृत्ति  : स्त्री० [सं० परा√वृत्त+क्तिन्] १. पलटने या पलटाने का भाव। पलटाव। परावर्तन। २. व्यवहार या मुदकमे पर फिर से होनेवाला विचार।
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परावेदी (दिन)  : स्त्री० [सं० परा-आ√विद्+णिनि] भटकटैया।
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पराव्याध  : पुं० [सं० परा√व्याध+घञ्] परास।
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पराशय  : वि० [सं० परा√शी (सोना)+अच्] बहुत अधिक।
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पराशर  : पुं० [सं० पर-आ√शृ (हिंसा)+अच्] १. वशिष्ठ के पौत्र और कृष्ण द्वैपायन व्यास के पिता जो पराशर स्मृति के रचयिता माने जाते हैं। २. एक ज्योतिष ग्रंथ (पराशरी संहिता) के रचयिता। ३. आयुर्वेद के एक प्रधान आचार्य।
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पराशरी (रिन्)  : पुं० [सं० पराशर्य+णिनि, यलोप, पृषो० ह्रस्व] १. भिक्षुक। २. संन्यासी।
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पराश्रय  : पुं० [सं० पर-आश्रय, ष० त०] १. दूसरे का अवलंब या आश्रय। २. परवशता। पराधीनता।
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पराश्रया  : स्त्री० [सं० पर-आश्रय, ब० स०+टाप्] बाँदा। परगाछा।
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पराश्रयी (यिन्)  : वि० [सं० पराश्रय+इनि] १. दूसरे के आश्रय और सहारे पर रहनेवाला। २. दे० ‘पर-जीवी’। पुं० ऐसे कीटाणुओं, वनस्पतियों आदि का वर्ग जो दूसरे जंतुओं, वनस्पतियों आदि के अंगों पर रहकर जीवन-निर्वाह करते हों। (पैरे-साइट)
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पराश्रित  : वि० [सं० पर-आश्रित, ष० त०] १. जो किसी दूसरे के आश्रय में रहता हो। २. जो दूसरे के आसरे पर या भरोसे चलता या रहता हो।
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परास  : पुं० [सं० परा√अस् (फेंकना)+अञ्] १. उतना अवकाश या दूरी जितनी कोई चलाई या फेंकी जानेवाली चीज उड़ते-उड़ते पार करती हो। जैसे—बंदूक की गोली या तीर का परास। २. उतना क्षेत्र जहाँ तक किसी क्रिया का प्रभाव या फल होता हो। ३. उतना प्रदेश जितने में कोई चीज पाई जाती हो। (रेंज)
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परासन  : पुं० [सं० परा√अस्+ल्युट्—अन] १. जान से मारना। २. वध करना।
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परासी  : स्त्री० [सं० परास+ङीष्] पलाश्री नाम की रागिनी।
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परासु  : वि० [सं० परा-असु, ब० स०] [भाव० परासुता] मरा हुआ। मत।
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परास्कंदी (दिन्)  : पुं० [सं० पर-आ√स्कन्द् (गति, शोषण)+णिनि] चोर।
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परास्त  : वि० [सं० परा√अस्+क्त] १. द्वंद्व, प्रतियोगिता आदि में हारा या हराया हुआ। पराजित। २. किसी के सामने झुका या दबा हुआ। ३. ध्वस्त। विनष्ट।
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पराह  : पुं० [सं० पर-अहन्, कर्म० स०, टच्] अन्य या दूसरा दिन।
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पराहत  : वि० [सं० परा-आ√हन् (हिंसा)+क्त] १. जो आघात के द्वारा गिराया या पीछे हटाया गया हो। २. आक्रांत। ३. नष्ट किया या मिटाया हुआ। ध्वस्त। ४. जिसका खंडन हुआ हो। खंडित। ५. जोता हुआ।
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पराहति  : स्त्री० [सं० परा-आ√हन्+क्तिन्] १. खंडन। २. विरोध।
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पराह्न  : पुं० [सं० पराह्ल] दोपहर के बाद का समय। अपराह्न।
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पराहृत  : भू० कृ० [सं० परा-आ√हृ (हरण करना)+क्त] हटाया हुआ।
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परिंदगी  : स्त्री० [फा०] १. पक्षियों का जीवन। २. परिन्दों की उड़ान।
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परिंदा  : पुं० [फा० परिंदः] चिड़िया। पक्षी।
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परि  : उप० [सं०√पृ (पूर्ति)+इन्] एक संस्कृत उपसर्ग जो प्रायः क्रियाओं से बनी हुई संज्ञाओं के पहले लगकर नीचे लिखे अर्थ देता है। १. आस-पास या चारों तरफ ओर। जैसे—परिक्रमण, परिभ्रमण आदि। २. अच्छी या पूरी तरह अथवा हर तरह। जैसे—परिकल्पन, परिवर्द्धन, परिरक्षण आदि। ३. अतिरिक्त रूप से, बहुत अधिक या बहुत जोरों से। जैसे—परिकंप, परिताप, परित्याग, परिश्रम आदि। ४. दोष दिखलाते या निंदनीय ठहराते हुए। जैसे—परिवाद, परिहास आदि। ५. किसी विशिष्ट क्रम या नियम से। जैसे—परिच्छेद। विशेष—(क) कुछ अवस्थाओं में यह विशेषणों और अन्य प्रकार की संज्ञाओं तथा प्रत्ययों के पहले भी लगता और बहुत-कुछ उक्त प्रकार के अर्थ देता है। जैसे—परिपूर्ण=अच्छी तरह से भरा हुआ; परिलघु=बहुत ही छोटा; परितः=चारों ओर; परिधि= चारों ओर का घेरा; पंर्यग्नि=चारों ओर जानेवाली अग्नि से घिरा हुआ; पर्यश्रु=उमड़ते हुए आँसुओंवाला। (ख) जुए के दाँव, पासे, संख्या आदि के प्रसंग में यह कुछ शब्दों के अन्त में लगकर ‘हारा हुआ’ का भी अर्थ देता है। जैसे—अक्षपरि=पासे के खेल में हारा हुआ। (ग) कहीं-कहीं इसके रूप ‘पर’ भी हो जाता है; परन्तु अर्थ ज्यों का त्यों रहता है। जैसे—परिवाह और परीवाह; परिहास और परीहास आदि। अव्य० [?] १. तरह या प्रकार से। उदा०—पिड़ि पहिर तै नवी परि।—प्रिथीराज। २. के तुल्य। के बराबर। समान। उदा०—पेखि कली पदमिणी परी।—प्रिथीराज। विशेष—उक्त अर्थों में यह शब्द राजस्थानी के अतिरिक्त गुजराती और मराठी में भी इसी रूप में प्रचलित है।
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परि-कंप  : पुं० [सं० परि√कम्प् (काँपना)+घऽञ्] बहुत जोरों का कंपन।
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परिक  : स्त्री० [देश०] बहुत अधिक खोटी या मिलावटवाली चाँदी।
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परि-कथा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बौद्धों के अनुसार, कोई धार्मिक कथा का विवरण। २. कहानी।
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परि-कर  : पुं० [सं० पर√कृ (विक्षेप)+अप्] १. पर्यंक। पलंग। २. घर या परिवार के लोग। ३. किसी के आस-पास या संग-साथ रहनेवाले लोग। जैसे—राजाओं का परिकर। ४. वृन्द। समूह। ५. तैयारी। समारंभ। ६. कमरबन्द। पटका। ६. विवेक। ८. एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें किसी विशेष्य से पहले किसी विशिष्ट अभिप्राय से विशेषण लगाये जाते हैं। जैसे—हिमकर वदनी (ताप हरण करनेवाली नायिका)।
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परिकरमा  : स्त्री०=परिक्रमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिकरांकुर  : पुं० [सं० परिकर-अंकुर, ष० त०] वह अर्थालंकार जिसमें विशेष्य का कथन किसी विशिष्ट अभिप्राय से किया जाता है।
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परिकर्तन  : पुं० [सं० परि√कृत् (काटना)+ल्युट्—अन] १. चारों ओर से काटना। २. गोलाकार काटना। ३. शूल।
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परिकर्तिका  : स्त्री० [सं० परि√कृत्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] शूल।
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परिकर्म (कर्मन्)  : पुं० [सं० परि√कृ (करना)+मनिन्] १. देह को सजाने का काम। २. शरीर का श्रृंगार या सजावट।
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परिकर्मा (कर्मन्)  : पुं० [सं० प्रा० ब० स०] नौकर। सेवक।
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परिकर्षण  : पुं० [सं०] खेती-बारी के काम के लिए जमीन जोतना, बोना आदि।
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परिकलक  : पुं० [सं० परि√कल् (गिनना)+णिच्+ ण्वुल्—अक] १. परिकलन करने अर्थात् हिसाब लगाने या लेखा करनेवाला व्यक्ति। २. एक तरह का आधुनिक यंत्र जो कई प्रकार का काम जल्दी और सहज में करता है। ३. वह पुस्तक जिसमें अनेक प्रकार के लगे हुए हिसाबों के बहुत से कोष्ठक होते हैं। (कैलकुलेटर, उक्त दोनों अर्थों में)
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परिकलन  : पुं० [सं० परि√कल्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिकलित] १. गणित में वह गणना जो कुछ जटिल होती है तथा जिसमें कुछ विशिष्ट तथा निश्चित क्रियाओं की सहायता लेनी पड़ती है। (कैलकुलेशन)
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परिकलित  : भू०-कृ० [सं० परि√कल्+णिच्+क्त] जिसका परिकलन हो चुका हो।
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परिकल्पन  : पुं० [सं० परि√कृप् (सामर्थ्य)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिकल्पित] १. परिकल्पना करने की क्रिया या भाव। २. किसी विषय पर होनेवाला चिंतन या मनन। ३. बनावट। रचना। ४. विभाजन। ५. दे० ‘परिकल्पना’।
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परिकल्पना  : स्त्री० [सं० परि√कृप्+णिच्+युच्—अन+टाप्] १. जिस बात की बहुत-कुछ संभावना हो उसे पहले ही मान लेना या उसके नाम, रूप आदि की कल्पना कर लेना। २. केवल तर्क के लिए कोई बात मान लेना। ३. कुछ विशिष्ट आधारों पर कोई बात ठीक या सही मान लेना। ४. गणित में कोई विशिष्ट मान या राशि निकलने से पहले उसके लिए कोई निश्चित मान राशि या चिह्न अवधारित करना। (प्रिज़म्पशन)
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परिकल्पित  : भू० कृ० [सं० परि√कृप्+क्त] १. (बात या विषय) जिसकी परिकल्पना की गई हो। २. (पदार्थ या रूप) जो परिकल्पना के फल-स्वरूप बना या प्रस्तुत हुआ हो। ३. जो केवल तर्क के लिए मान लिया गया हो। ४. जो कुछ विशिष्ट आधारों पर ठीक या सही मान लिया गया हो। ५. कल्पित। मन-गढ़न्त। ६. ठहराया या ठीक किया हुआ। निश्चित। ६. बनाया हुआ। रचित।
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परिकांक्षित  : पुं० [सं० परि√काङ्क्ष (चाहना)+क्त] १. भक्त। २. तपस्वी।
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परिकीर्ण  : भू० कृ० [सं० परि√कृ+क्त, इत्व, नत्व] १. फैला य फैलाया हुआ विस्तृत। २. छितरा या छिटकाया हुआ। ३. समर्पित।
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परिकीर्तन  : पुं० [सं० परि√कृत् (जोर से शब्द करना) +ल्युट्—अन] १. खूब ऊँचे स्वर से कीर्तन करना। २. किसी के गुणों के बहुत अधिक और विस्तारपूर्वक किया जानेवाला वर्णन।
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परिकीर्तित  : भू० कृ० [सं० परि√कृत्+क्त] जिसका परिकीर्तन हुआ हो या किया गया हो।
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परि-कूट  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. नगर या दुर्ग के फाटक को घेरनेवाली खाईं। २. एक नागराज का नाम।
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परिकूल  : पुं० [सं० प्रा० स०] कूल अर्थात् किनारे के पास का स्थान।
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परिकेंद्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] ज्यामिति में परिवृत्त (देखें) का केन्द्र।
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परिकोप  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या प्रचंड क्रोध।
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परिक्रम  : पुं० [सं० परि√क्रम् (गति)+घञ्] १. चारों ओर घूमना। २. घूमना। ३. सैर करने के लिए घूमना। टहलना। ४. किसी काम की जाँच या निरीक्षण के लिए जगह-जगह जाना या घूमना। (टूर) ५. प्रवेश। ६. दे० ‘क्रम’। ६. दे० ‘परिक्रमा’।
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परिक्रमण  : पुं० [सं० परि√क्रम्+ल्युट्—अन्] १. चारों ओर चलने अथवा घूमने, टहलने या सैर करने की क्रिया या भाव। २. किसी काम की देख-रेख के लिए जगह-जगह जाना। दौरा करना। ३. परिक्रमा करना।
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परिक्रम-सह  : पुं० [सं० परिक्रम√सह् (सहना)+अच्] बकरा।
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परिक्रमा  : स्त्री० [सं० परि√क्रम्+अ+टाप्] १. चारों ओर चक्कर लगाना या घूमना। २. किसी तीर्थ, देवता या मंदिर के चारों ओर भक्ति और श्रद्धा से तथा पुण्य की भावना से चक्कर लगाने की क्रिया। प्रदक्षिणा। ४. उक्त प्रकार का चक्कर लगाने के लिए नियत किया या बना हुआ मार्ग।
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परिक्रय  : पुं० [सं० परि√क्री (खरीदना)+अच्] १. खरीदने दी क्रिया या भाव। खरीद। २. भाड़ा। ३. मजदूरी। ४. पारिश्रमिक या मजदूरी तै करके किसी को किसी कार्य पर लगाना। ५. व्यापारिक कार्यों के लिए माल आदि का होनवाला विनिमय। ६. इस प्रकार दिया या लिया हुआ माल।
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परिक्रांत  : वि० [सं० परि√क्रम्+क्त] जिसके चारों ओर चला या चक्कर लगाया जा सके।
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परिक्रामी  : वि० [सं०] १. परिक्रमा करने अर्थात् चारों ओर घूमनेवाला। २. बराबर एक स्थान से दूसरे पर जाता या घूमता रहनेवाला।
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परिक्रिया  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज को चारों ओर से दीवार, खाईं आदि से घेरने की क्रिया या भाव। २. स्वर्ग की कामना से किया जानेवाला एक प्रकार का यज्ञ। ३. आनन्द, मोह आदि के लिए की जानेवाली कोई क्रिया या आयोजन।
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परिक्लांत  : वि० [सं० परि√क्लम् (थकना)+क्त] जो थककर चूर हो गया हो।
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परिक्लिष्ट  : वि० [सं० परि√क्लिश् (कष्ट सहना)+क्त] १. बहुत अधिक क्लिष्ट। २. तोड़ा-फोड़ा और नष्ट-भ्रष्ट किया हुआ।
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परिक्लेद  : पुं० [सं० परि√क्लिद् (गीला होना)+घञ्] आर्द्रता। नमी।
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परिक्वणन  : वि० [सं० परि√क्वण् (शब्द करना)+ ल्युट्+अन] बहुत ऊँचा (स्वर)। बादल जो बहुत ऊँचा स्वर करता है।
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परिक्षत  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिक्षति] १. जिसे बहुत अधिक क्षति पहुँची हो। २. जिसे बहुत अधिक चोट लगी हो। आहत। ३. नष्ट-भ्रष्ट।
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परिक्षय  : पुं० [सं० प्रा० स०] पूरा और सामूहिक विनाश।
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परिक्षव  : पुं० [सं० परि+क्षु (शब्द करना)+अप्] अशुभ सगुनवाली छींक।
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परिक्षा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] कीचड़। स्त्री०=परीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिक्षाम  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक क्षीण या दुर्बल।
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परिक्षालन  : पुं० [सं०√क्षल् (धोना)+णिच्+ल्युट्—अन] १. वस्त्र आदि धोने की क्रिया या भाव। २. धोने का काम।
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परिक्षित्  : पुं० [सं० परि√क्षि (नाश)+क्विप्, तुक्-आगम] १. एक प्रसिद्ध प्रतापी राजा जो अभिमन्यु के पुत्र और जनमेजय के पिता थे। २. अग्नि।
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परिक्षिप्त  : भू० कृ० [सं० परि√क्षिप् (प्रेरणा)+क्त] १. जो चारों ओर से घिरा या घेरा गया हो। २. फेंका और त्यागा हुआ।
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परिक्षीण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक दुर्बल। २. निर्धन। ३. दे० ‘शोषाक्षय’।
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परिक्षेत्रिक  : वि० [सं०] दे० ‘परिनागर’।
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परिक्षेप  : पुं० [सं० परि√क्षिप्+घञ्] १. गदा को चारों ओर घुमाते हुए प्रहार करना। २. अच्छी तरह से चलना-फिरना या घूमना-टहलना। ३. वह पट्टी या सीमा जिससे कोई चीज घिरी हुई हो। ४. फेंकना। ५. परित्याग करना।
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परिखन  : वि० [हिं० परखना] १. परखनेवाला। २. प्रतीक्षा करनेवाला। स्त्री०=परख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिखना  : अ० १.=परखना। २.=परेखना (प्रतीक्षा करना)।
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परिखा  : स्त्री० [सं० परि√खन् (खोदना)+ड+टाप्] १. दुर्ग, नगरी आदि के चारों ओर बनी हुई गहरी खाईं। २. गहराई।
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परिखात  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज के चारों ओर बना हुआ गड्ढा। २. खाईं। परिखा।
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परिखान  : स्त्री० [सं० परिखात] कच्ची सड़क या जमीन पर बना हुआ गाड़ी के पहिए का चिह्न।
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परिखिन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक खिन्न या दुःखी।
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परिखेद  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक थकावट।
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परिख्यात  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिख्याति] जिसकी यथेष्ट ख्याति हो।
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परिख्याति  : स्त्री० [प्रा० स०] चारों ओर फैली हुई यथेष्ट ख्याति।
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परिगंतव्य  : वि० [सं० परि√गम् (जाना)+तव्यत्] १. जिसे प्राप्त किया जा सके। २. जिसे जाना जा सके। जिस तक पहुँचा जा सके।
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परिगणक  : पुं० [सं० परि√गण्+ण्वुल—अक] परिगणन करनेवाला अधिकारी या कर्मचारी। (इन्युमेरेटर)
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परिगणन  : पुं० [सं० परि√गण् (गिनना)+ल्युट—अन] १. अच्छी तरह गिनना। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य से किसी स्थान पर होनेवाली वस्तुओं आदि को एक-एक करके गिनना। (इन्युमेरेशन) जैसे—जनसंख्या का परिगणन, पुस्तकालय की पुस्तकों का परिगणन।
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परिगणना  : स्त्री० [सं० प्रा० स०]=परिगणन।
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परिगणनीय  : वि० [सं० परि√गण्+अनीयर्] परिगणन किये जाने के योग्य। २. जिसका परिगणन होने को हो या हो सके।
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परिगणित  : वि० [सं० परि√गण्+क्त] १. जिसका परिगणन हो चुका हो। २. जिसका उल्लेख या गणन किसी अनुसूची में हुआ हो। अनुसूचित। जैसे—परिगणित जन-जातियाँ। (शेड्यूल्ड)
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परिगण्य  : वि० [सं० परि√गण्+यत्] परिगणनीय।
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परिगत  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. चारों ओर से घिरा हुआ। (सर्कम-स्क्राइब्ड) २. गुजरा या बीता हुआ। गत। ३. मरा हुआ। मृत। ४. भूला हुआ। विस्तृत। ५. जाना हुआ। ज्ञात। मिला हुआ। प्राप्त।
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परिगमन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी के चारों ओर जाना। २. जानना। ३. प्राप्त करना।
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परिगर्भिक  : पुं० [सं० परिगर्भ, प्रा० स०,+ठन्—इक] गर्भवती माता का दूध पीने से बच्चों को होनेवाला एक प्रकार का रोग।
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परिगर्वित  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक गर्व या घमंड करनेवाला। बहुत बड़ा अभिमानी।
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परिगर्हण  : पुं० [सं० प्रा० स०] अतिनिंदा।
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परिगलित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. गिरा हुआ। च्युत। २. अच्छी तरह गला हुआ। ३. पिघला हुआ। तरल। ४. गायब। लुप्त। ५. डूबा हुआ।
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परिगह  : पुं० [सं० परिग्रह] घर या परिवार के अथवा आपसदारी के लोग। आत्मीय और कुटुंबी।
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परिगहन  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक गहन।
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परिगहना  : स० [परिग्रहण] ग्रहण करना। अंगीकार या स्वीकार करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिगीत  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका बहुत अधिक गुण-कीर्तन हुआ या किया गया हो।
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परिगीत  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] एक प्रकार का वर्ण-वृत्त।
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परिगुंठन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिगुणी] शिक्षा, प्रशिक्षा आदि के द्वारा प्राप्त किया हुआ वह गुण या योग्यता जिससे मनुष्य ज्ञान आदि के किसी नियत और मान्य मानक तक पहुँच जाता है। और प्रायः उसका प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लेता है। (क्वालिफिकेशन)
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परिगुणन  : पुं [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिगुणित] किसी चीज को बढ़ाकर या संख्या को गुणा करके गई गुना अधिक बढ़ाना। (मल्टीप्लिकेशन)
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परिगुणित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका परिगुणन हुआ हो।
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परिगुणी (णिन्)  : वि० [सं० परिगुण+इनि] जिसने कोई परिगुण अर्जित किया हो। (क्वालिफायड)
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परिगूढ़  : वि० [सं० प्रा० स०] परिगहन। (दे०)
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परिगृद्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत बड़ा लालची। अतिलोभी।
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परिगृहीत  : भू० कृ० [सं० परि√ग्रह् (स्वीकार)+क्त] १. अंगीकार ग्रहण या स्वीकार किया हुआ। गृहीत। स्वीकृत। २. प्राप्त। ३. किसी के साथ मिला या मिलाया हुआ। सम्मिलित।
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परिगृह्या  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वह जिसे ग्रहण किया गया हो अर्थात् पत्नी।
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परिग्रह  : पुं० [सं० परि√ग्रह्+अप्] १. दान लेना। प्रतिग्रह। २. प्राप्ति। ३. धन आदि का संग्रह। ४. मंजूरी। स्वीकृति। ५. अनुग्रह। दया। मेहरबानी। ६. किसी स्त्री को पत्नी के रूप में ग्रहण करना। पाणिग्रहण। ६. पत्नी। भार्या। ८. परिवार के लोग। परिजन। ९. उपहार, भेंट आदि के रूप में ग्रहण की जानेवाली वस्तु। १॰. सेना का पिछला भाग। ११. सूर्य या चंद्र का ग्रहण। १२. कंद। मूल। १३. शाप। १४. कुसुम। शपथ। १५. विष्णु का एक नाम। १६. कुछ विशिष्ट वस्तुएँ संग्रह करने का व्रत। १६. जैन शास्त्रों के अनुसार तीन प्रकार के प्रगति निबंधन कर्म—द्रव्य परिग्रह, भाव परिग्रह और द्रव्यभाव परिग्रह।
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परिग्रहण  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूरी तरह से ग्रहण करना। २. कपड़े पहनना।
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परिग्रहीता (तृ)  : पुं० [सं० परी√ग्रह्+तच्] १. वह जिसने किसी को अंगीकार या ग्रहण किया हो। २. पति। ३. किसी को दत्तक बनाने या गोद लेनेवाला व्यक्ति।
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परिग्राम  : पुं० [सं० अव्य० स०] गाँव के चारों ओर या सामने का भाग।
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परिग्राह  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. एक विशेष प्रकार की यज्ञ वेदी। २. बलि चढ़ाने के स्थान पर बना हुआ चारों ओर का घेरा।
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परिग्राह्य  : वि० [सं० प्रा० स०] जो आदरपूर्वक ग्रहण किये जाने के योग्य हो।
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परिघ  : पुं० [सं० परि√हन् (हिंसा)+अप्, घ—आदेश] १. लकड़ी, लोहे आदि का ब्योंड़ा। अर्गल। २. आड़ या रुकावट के लिए खड़ी की हुई कोई चीज। ३. कोई ऐसा तत्त्व या बात जो किसी काम को यथा-साथ्य पूरी तरह से रोकने में समर्थ हो। (बेरियर) ४. वह दंडा जिसके सिरे पर लोहा जड़ा हुआ हो। लोहाँगी। ५. बरछा। भाला। ६. मुद्गर। ७. कलश। घड़ा। ८. गोपुर। फाटक। ९. घर। मकान। १॰. तीर। वाण। ११. पर्वत। पहाड़। १२. वज्र। १३. जल का घड़ा। १४. चंद्रमा। १५. सूर्य। १६. नदी। १७. स्थल। १८. एक प्रकार का मूढ़ गर्भ। १९. कार्तिकेय का एक अनुचर। २॰. ज्योतिष के २६ योगों में से १९वाँ योग। २१. शेषनाग। २२. अविद्या जो मनुष्य को आनंद और सुख से दूर रखती है। २३. वे बादल जो सूर्य के उदय या अस्त होने के समय उसके सामने आ जायँ।
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परिघट्टन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिघट्टित] तरल पदार्थ को चलाना।
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परिघ-मूढ़-गर्भ  : पुं० [सं० मूढ़-गर्भ कर्म० स०, परिघ-मूढ़ा—गर्भ, उपमि० स०] वह बालक जो प्रसव के समय अर्गल या परिध की तरह अटक जाय।
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परिधर्म  : पुं० [सं० परि√घृ (बहना)+मन्] एक तरह का यज्ञ-पात्र जिसमें मदिरा आदि बनाई जाती थी।
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परिधर्म्य  : पुं० [सं० परिघर्म+यत्] यज्ञ में काम आनेवाला एक प्रकार का पात्र।
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परिघात  : पुं० [सं० परि+हन् (मारना)+घञ्, वृद्धि—न, त] १. मारडालना। हत्या। हनन। २. ऐसा अस्त्र जिससे किसी की हत्या हो सकती हो।
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परिघातन  : पुं० [सं० परि√हन्+णिच्+ल्युट्—अन] मार डालने की क्रिया या भाव। वध। हत्या।
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परिघाती (तिन्)  : वि० [सं० परि√हन्+णिच्+णिनि] हत्यारा।
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परिघृष्ट  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या चारों ओर से घिरा हुआ।
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परिघृष्टिक  : पुं० [सं० परिघृष्ट+तन्—इक] एक प्रकार का वानप्रस्थ।
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परिघोष  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. जोर का शब्द। घोर आवाज। २. [प्रा० ब० स०] बादल की गरज। मेघ-गर्जन।
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परिचक्रा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] एक प्राचीन नगरी।
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परिचना  : अ०=परचना।
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परिचपल  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक चंचल या चपल।
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परिचय  : पुं० [सं० परि√चि (इकट्ठा करना)+अच्] १. ऐसी स्थिति जिसमें दो व्यक्ति एक दूसरे को प्रायः प्रत्यक्ष भेंट के आधार पर जानते और पहचानते हों। जैसे—पंडित जी से मेरा परिचय रेल में हुआ था। २. किसी व्यक्ति के नाम-धाम या गुण-कर्म आदि से संबंध रखनेवाली सब या कुछ बातें जो किसी को बतलाई जायँ। जैसे—गोष्ठी में आये हुए कवि अपना परिचय स्वयं देंगे। ३. किसी विषय, रचना, साहित्य आदि का थोड़ा-बहुत अध्ययन करने पर उसके संबंध में होनेवाला ज्ञान। जैसे—बंगला साहित्य से उनका कुछ परिचय है। ४. गुण, धर्म शक्ति आदि जतलाने या प्रदर्शित करने की क्रिया या भाव। जैसे—उसने अपनी योग्यता या हठवादिता का खूब परिचय दिया। ५. हठ योग में, नाद की चार अवस्थाओं में से तीसरी अवस्था।
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परिचय-पत्र  : पुं० [ष० त०] १. ऐसा पत्र जिसमें किसी का नाम, पता, ठिकाना, पद आदि लिखा होता है और जो किसी को किसी का परिचय देने के लिए दिया जाता है। २. किसी वस्तु अथवा संस्था विषयक वह पत्रक या पुस्तिका जिसमें उस वस्तु की सब बातों अथवा संस्था के उद्देश्यों, कार्य-क्षेत्रों और कार्य-प्रणालियों आदि का परिचय या विवरण दिया हो। (मेमोरैन्डम)
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परिचर  : पुं० [सं० परि√चर् (गति)+अच्] [स्त्री० परिचरी] १. सेवा-शुश्रूषा करनेवाला सेवक। टहलुआ। २. रोगी की सेवा शुश्रूषा करनेवाला व्यक्ति। ३. वह सैनिक जो रथ और रथी की रक्षा करने के लिए रथ पर रहता था। ४. सेनापति। ५. दंडनायक।
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परिचरजा  : स्त्री०=परिचर्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिचरण  : पुं० [सं० परि√चर्+ल्युट्—अन] [वि० परिचरणीय, परिचारितव्य] परिचर्या करना।
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परिचरत  : स्त्री० [?] प्रलय। कयामत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिचरिता (तृ)  : पुं० [सं० परि√चर्+तृच्] सेवा-शुश्रूषा करनेवाला व्यक्ति।
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परिचरी  : स्त्री० [सं० परिचर+ङीष्] दासी। लौंडी।
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परिचर्चा  : स्त्री० [सं०] किसी तथ्य, विषय, पुस्तक आदि की विशेष तथा विस्तृत रूप से की जानेवाली चर्चा।
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परिचर्जा  : स्त्री०=परिचर्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिचर्मण्य  : पुं० [सं० परिचर्मन्+यत्] चमड़े का फीता।
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परिचर्या  : स्त्री० [सं० परि√चर्+श, यक्, नि०] १. किसी की की जानेवाली अनेक प्रकार की सेवाएँ। खिदमत। २. रोगी की सेवा-शुश्रूषा। ३. किसी संघटित गोष्ठी या सभा-समिति में होनेवाली ऐसी बात-चीत जिसमें किसी विशिष्ट विषय का विचार या विवेचन होता है। (सिम्पोज़ियम)
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परिचायक  : वि० [सं० परि√चि+ण्वुल्—अक] १. जिसके द्वारा किसी का परिचय प्राप्त होता हो। जैसे—यह चिह्न धर्म-ध्वजता का परिचायक है। २. अच्छी तरह से जतलाने, बतलाने या सूचित करनेवाला। परिचय करानेवाला।
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परिचाय्य  : पुं० [सं० परि√चि+ण्य्त्] १. यज्ञ की अग्नि। २. यज्ञकुंड।
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परिचार  : पुं० [सं० परि√चर्+घञ्] १. सेवा। टहल। खिदमत। २. ऐसा स्थान जहाँ लोग टहलने के लिए जाते हों। ३. ऐसी देखरेख या सेवा-शुश्रूषा जिससे कम अवस्थावाले बच्चों, पौधों, आदि का भरण-पोषण, लालन-पालन तथा अभिवर्द्धन ठीक क्रम तथा ढंग से हो सके। (नर्सिंग) ४. अशक्त, रुग्ण तथा पंगु व्यक्तियों की की जानेवाली टहल। सेवा।
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परिचारक  : वि० [सं० परि√चर्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० परिचारिका] जो परिचार करता हो। परिचार करनेवाला। पुं० १. नौकर। सेवक। २. परिचर्या करनेवाला व्यक्ति। ३. देव-मंदिर का प्रबंध करनेवाला व्यक्ति।
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परिचार-गाड़ी  : स्त्री० [सं०+हिं] वह गाड़ी जिस पर घायल, रुग्ण लोगों को उठाकर चिकित्सा-स्थल आदि पर ले जाया जाता है। (एम्ब्युलेंस कार)
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परिचारण  : पुं० [सं० परि√चर्+णिच्+ल्युट्—अन] १. सेवा या टहल करना। २. संग या साथ रहना।
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परिचारना  : सं० [सं० परिचरण] परिचार या सेवा करना।
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परिचारिका  : स्त्री० [सं० परिचारक+टाप्, इत्व] १. दासी। सेविका। परिचार करनेवाली स्त्री।
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परिचारित  : वि० [सं० परि√चर्+णिच्+क्त] जिसका परिचारण किया गया हो या हुआ हो। पुं० १. क्रीड़ा। खेल। २. मनोविनोद।
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परिचारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√चर्+इन्] टहलनेवाला। भ्रमण करने वाला। पुं० टहल या सेवा करनेवाला। सेवक। टहलुआ।
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परिचार्य  : वि० [सं० परि√चर्+ण्यत्] जिसका परिचार या सेवा करना उचित हो। सेव्य।
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परिचालक  : वि० [सं० परि-चल् (चलाना)+णिच्+ण्वुल्—अक] [भाव० परिचालकता] १. परिचालन करनेवाला। २. बहुत बड़ा चालाक।
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परिचालकता  : स्त्री० [सं० परिचालक+तल्—टाप्] परिचालक होने की अवस्था, गुण या भाव।
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परिचालन  : पुं० [सं० परि√चल्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिचालित] १. ठीक तरह से गति में लाना। चलाना। जैसे—नौका या रथ का परिचालन। २. उचित रूप में किसी कार्य का निर्वाह करना। संचालन। जैसे—किसी संस्था या सभा अथवा उसके कार्यों का परिचालन करना। ३. हिलाना।
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परिचालित  : भू० कृ० [सं० परि√चल्+णिच्+क्त] जिसका परिचालन किया गया हो। जो चलाया गया हो।
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परिचिंतन  : पुं० [सं० परि√चिन्त् (स्मरण करना)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह से चिंतन करना।
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परिचित  : वि० [सं० पर√चि० (चयन करना)+क्त] [भाव० परिचिति] १. जिसका या जिसके साथ परिचय हो चुका हो। जिसे जान लिया गया हो या जिसकी जानकारी हो चुकी हो। जाना-बूझा या समझा हुआ। ज्ञात। जैसे—वे मेरे परिचित हैं। २. जिसे परिचय मिल चुका हो या जानकारी हो चुकी हो। जैसे—मैं उनसे भली-भाँति परिचित हूँ। ३. जिससे जान-पहचान और मेल-जोल हो। जैसे—वहाँ हमारे कई परिचित हैं। ४. इकट्ठा किया हुआ। संचित। पुं० जैन दर्शन के अनुसार वह स्वर्गीय आत्मा जो दोबारा किसी चक्र में आ चुकी हो।
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परिचिति  : स्त्री० [सं० परि√चि+क्तिन्] १. परिचित होने की अवस्था या भाव। वि०=परिचित। (पूरब)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिचित्र  : पुं० [सं० परि+चित्र] दे० ‘चार्ट’।
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परिचित्रित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसे अच्छी तरह से चिह्नित किया गया हो। २. जिस पर हस्ताक्षर किये जा चुके हों। (स्मृति)
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परिचेय  : वि० [सं० परि√चि+यत्] १. जिसका परिचय प्राप्त किया जा सके, या किया जाने को हो। २. जिसका परिचय प्राप्त करना उचित या कर्त्तव्य हो। ३. जिसका चयन (संग्रह या संचय) किया जा सके या किया जाने को हो। संग्राह्य।
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परिचो  : पुं० [सं० परिचय]=परिचय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिच्छद  : पुं० [सं० परि√छद् (ढाँकना)+णिच्+घ, ह्रस्व] १. किसी चीज को चारों ओर से ढकनेवाला कपड़ा। जैसे—तकिये की खोली या गिलाफ। २. शरीर पर पहने जानेवाले कपड़े। पहनावा। पोशाक (ड्रेस) ३. वह विशिष्ट पहनावा जो किसी दल, वर्ग या सेवा विशेष के लोगों के लिए नियत या निर्धारित होता है। (यूनिफार्म) ४. राजचिह्न। ५. राजा-महाराजाओं के साथ रहनेवाले लोग। परिचर। ६. कुटुंब या परिवार के लोग। ६. असबाब। सामान।
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परिच्छन्न  : भू० कृ० [सं० परि√छद्+क्त] १. जो चारों ओर से अथवा अच्छी तरह से ढका हुआ हो। २. छिपा या छिपाया हुआ। ३. जो परिच्छद तथा वस्त्र पहने हुए हो। ४. साफ या स्वच्छ किया हुआ।
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परिच्छा  : स्त्री०=परीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिच्छित्ति  : स्त्री० [सं० परि√छिद् (काटना)+क्तिन्] १. सीमा। हद। २. विभाग करने के लिए सीमा का निर्धारण। ३. किसी प्रकार का पृथक्करण या विभाजन।
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परिच्छिन्न  : भू० कृ० [सं० परि√छिद्+क्त] १. जिसका परिछेद (अलगाव या विभाजन) किया गया हो। २. जो ठीक प्रकार से मर्यादित या सीमित किया गया हो। ३. घिरा हुआ। ४. छिपा या ढका हुआ।
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परिच्छेद  : पुं० [सं० परि√छिद्+घञ्] १. कोई चीज या बात इस प्रकार अलग-अलग या विभक्त करना कि उसका अच्छापन एक तरफ आ जाय और बुराई दूसरी तरफ। २. बँटवारा। ३. खंड। भाग। ४. ग्रन्थों आदि का ऐसा विभाग जिसमें किसी विषय या उसके किसी अंग का स्वतंत्र रूप से प्रतिपादन, वर्णन या विवेचन किया गया हो। ५. अध्याय। प्रकरण। ६. सीमा। हद। ७. निर्णय।
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परिच्छेदक  : वि० [सं० परि√छिद्+ण्वुल्—अक] १. सीमा निर्धारित करनेवाला। हद बतलाने या मुकर्रर करनेवाला। पुं० १. सीमा। हद। २. नाप, परिमाण आदि।
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परिच्छेनकर  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार की समाधि।
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परिच्छेदन  : पुं० [सं० परि√छिद्+ल्युट्—अन] १. परिच्छेद अर्थात् खंड या विभाग करना। २. अच्छाई और बुराई अलग अलग कर दिखलाना। ३. अध्याय। प्रकरण। ४. निर्णय।
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परिच्छेद्य  : वि० [सं० परि√छिद्+ण्यत्] १. जिसे गिन, तौल या नाप सके। परिमेय। २. जिसे काटकर या और किसी प्रकार अलग कर सकें। ३. जिसका बँटवारा या विभाजन हो सके। विभाज्य। ४. जिसकी परिभाषा ठीक प्रकार से की जा सके।
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परिच्युत  : वि० [सं० परि√च्यु (गति)+क्त] [भाव० परिच्युति] १. सब प्रकार से गिरा हुआ। २. पतित और भ्रष्ट। ३. जाति या बिरादरी से निकाला हुआ। जातिबहिष्कार।
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परिच्युति  : स्त्री० [सं० परि√च्यु+क्तिन्] परिच्युत होने की अवस्था या भाव।
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परिछत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक तरह की बहुत बड़ी छतरी जिसकी सहायता से हवाबाज उड़ते हुए जहाजों से कूदकर नीचे उतरते हैं। (पैराशूट)
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परिछत्रक  : वि० [सं० परिछत्र] परिछत्र की सहायता से उतरनेवाला। जैसे—परिछत्रक सेना।
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परिछन  : पुं०=परछन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिछाहीं  : स्त्री०=परछाईं।
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परिछिन्न  : वि०=परिच्छिन्न।
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परिजटन  : पुं०=पर्यटन।
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परिजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिजनता] १. चारों ओर के लोग विशेषतः परिवार के सदस्य। २. अनुगामी और अनुचर वर्ग।
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परजनता  : स्त्री० [सं० परिजन+तल्+टाप्] १. परिजन होने की अवस्था या भाव। २. अधीनता।
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परिजन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० परि√जन् (उत्पत्ति)+ मन , नि०] १. चंद्रमा। २. अग्नि।
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परिजप्त  : वि० [सं० परि√जप् (जपना)+क्त] मंद स्वर में कहा हुआ।
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परिजय्य  : वि० [सं० परि√जि (जीतना)+यत् नि० या आदेश] जो चारों ओर जय करने में समर्थ हो। सब ओर जीत सकनेवाला। स्त्री० चारों दिशाओं में होनेवाली विजय।
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परिजल्पित  : पुं० [सं० परि√जल्प् (बोलना)+क्त] १. दूसरों के अवगुण, दोष, धूर्तता आदि दिखलाते हुए अप्रत्यक्ष रूप से अपनी उच्चता, श्रेष्ठता, सच्चाई आदि दिखलाना। २. अवमानित या उपेक्षित नायिका। ३. अवमानित या उपेक्षित नायिका का व्यंग्यपूर्ण शब्दों द्वारा नायक की निर्दयता का वर्णन करना।
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परिजा  : स्त्री० [सं० परि√जन्+ड+टाप्] १. उद्भव। २. जन्म आदि का मूल स्थान।
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परिजात  : वि० [सं० प्रा० स०] जन्मा हुआ। उत्पन्न।
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परिजीवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अपने चारों ओर रहनेवालों विशेषतः अपनी जाति, वर्ग आदि के सदस्यों के न रह जाने पर भी प्राप्त होनेवाला दीर्घ जीवन। २. नियत काल से अधिक चलनेवाला जीवन। (सर्वाइवल, उक्त दोनों अर्थों में)
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परिजीवित  : वि० [सं० प्रा० स०] जो अपने चारों ओर रहनेवालों। आदि के न रहने पर भी बचा हुआ और जीवित हो।
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परिजीवी (विन्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह जो दूसरों की अपेक्षा अधिक समय तक जीता या बचा रहे। (सर्वाइवर)
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परिज्ञप्ति  : स्त्री० [सं० परि√ज्ञप् (जतलाना)+क्तिन्] १. बात-चीत। कथोपकथन। वर्त्तालाप। २. परिचय। ३. पहचान।
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परिज्ञा  : स्त्री० [सं० परि√ज्ञा (जानना)+अङ्—टाप्] १. ज्ञान। २. निश्चयात्मक, विशुद्ध और संशय-रहित ज्ञान।
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परिज्ञात  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] अच्छी तरह या विशेष रूप से जाना हुआ।
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परिज्ञाता (तृ)  : पुं० [सं० परि√ज्ञा+तृच्] वह जिसे परिज्ञान हो।
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परिज्ञान  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज या बात का ठीक और पूरा ज्ञान। पूर्ण या सम्यक् ज्ञान। २. ऐसा ज्ञान जिसका भरोसा किया जा सके। निश्चयात्मक और सच्चा ज्ञान। ३. अंतर, भेद आदि के संबंध में होनेवाला सूक्ष्म ज्ञान।
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परिज्वा (ज्वन्)  : पुं० [सं० परि√जु (गति)+कनिन्] १. चंद्रमा। २. अग्नि। ३. नौकर। ४. इन्द्र। ५. वह जो यज्ञ करता हो। याजक।
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परिठना  : अ० [?] देखना। उदा०—नारकेलि फल परिठ दुज, चौक पूरी मनि मुत्ति।—चंदबरदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिडीन  : पुं० [सं० परि√डी (उड़ना)+क्त] पक्षी की वृत्ताकार उड़ान। पक्षी का चक्कर काटते हुए उड़ना।
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परिणत  : भू० कृ० [सं० परि√नम् (झुकना)+क्त] [भाव० परिणित] १. बहुत अधिक झुका या झुकाया झुकाया हुआ। बहुत अधिक नत। २. बहुत अधिक नम्र या विनीत। ३. जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन, रूपान्तर या विकार हुआ हो। जैसे—दूध जमाने पर दही के रूप में परिणत हो जाता है। ४. जो ठीक प्रकार से पका, बना या विकसित हुआ हो। ४. पचाया हुआ। ६. समाप्त।
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परिणति  : स्त्री० [सं० परि√नम्+क्तिन्] १. परिणत होने की अवस्था या भाव। २. झुकाव। नति। ३. किसी प्रकार के परिवर्तन या विकार के कारण बननेवाला नया रूप। ४. अच्छी तरह पकने या पचने की क्रिया दशा या भाव। परिपाक। ५. पुष्टता। प्रौढ़ता। ६. वृद्धावस्था। ६. अंत। समाप्ति।
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परिणद्ध  : वि० [सं० परि√नह् (बाँधना)+क्त] १. दूर तक फैला हुआ। लंबा-चौड़ा। विस्तृत। २. बहुत बड़ा, भारी या विशाल।
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परिणमन  : पुं० [सं० परि√नम्+ल्युट्—अन] १. परिवर्तन या रूपांतर होना। ३. किसी रूप में परिणत होना।
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परिणय  : पुं० [सं० परि√नी (ले जाना)+अच्] विवाह। शादी।
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परिणयन  : पुं० [सं० परि√नी+ल्युट्—अन] पाणी-ग्रहण। विवाह।
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परिणहन  : पुं० [सं० परि√नह् (बाँधना)+ल्युट्—अन]=परिणाह।
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परिणाम  : पुं० [सं० परि√नम्+घञ्] १. किसी पदार्थ की पहली या प्रकृत अवस्था, गुण, रूप आदि में होनेवाला ऐसा परिवर्तन या विकार जिससे वह पदार्थ कुछ और ही हो जाय अथवा किसी अन्य अवस्था, गुण या रूप से युक्त प्रतीत होने लगे। एक रूप के स्थान पर होनेवाले दूसरे रूप की प्राप्ति। तबदीली। रूपांतरण। जैसे—घड़ा गीली मिट्टी का, दही जमे हुए दूध का या राख जलती हुई लकड़ी का परिणाम है। विशेष—सांख्य दर्शन के अनुसार परिणाम वस्तुतः प्रकृति का मुख्य गुण या स्वभाव है। सभी चीजें अपनी एक अवस्था या रूप छोड़कर दूसरी अवस्था या रूप धारण करती रहती हैं। यही अवस्थांतरण या रूपांतरण उनका ‘परिणाम’ कहलाती है। जब सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों की साम्यावस्था नष्ट या भग्न हो जाती है, तब उसके परिणाम-स्वरूप सृष्टि के सब पदार्थों की रचना होती है; और जब यही क्रम उलटा चलने लगता है, तब उसके परिणाम के रूप में सृष्टि का नाश या प्रलय होता है। इसी रूपांतरण के आधार पर पतंजलि ने योग-दर्शन में चित्त के ये तीन परिणाम माने हैं—निरोध, समाधि और एकाग्रता। अन्य पदार्थों में भी धर्म, लक्षण और अवस्था के विचार से तीन प्रकार के परिणाम होते हैं। जैसे—मिट्टी के घड़े का बनना धर्म-परिणाम है। देखी-सुनी हुई चीजों या बातों में भूत और वर्तमान का जो अन्तर होता है, वह लक्षण-परिणाम है, और उनमें स्पष्टता तथा अस्पष्टता का जो अन्तर होता है, वह अवस्था-परिणाम है। २. किसी काम या बात का तर्क-संगत रूप में अंत होने पर उससे प्राप्त होनेवाला फल। नतीजा। (रिजल्ट) जैसे—(क) इस वाद-विवाद का परिणाम यह हुआ कि काम जल्दी और अच्छे ढंग से होने लगा। (ख) धर्म, न्याय और सत्य का परिणाम सदा सुख ही होता है। किसी कार्य के उपरांत क्रियात्मक रूप से पड़नेवाला उसका प्रभाव। (कांसीक्वेन्स) जैसे—आपस के लड़ाई-झगड़े का परिणाम यह हुआ कि दोनों घर चौपट हो गये। ४. बहुत-सी बातें सुन-समझकर उनसे निकाला हुआ निष्कर्ष। नतीजा। (कन्क्लुज़न) जैसे—उनकी बातें सुनकर हम इसी परिणाम पर पहुँचे हुए हैं कि वे पूरे नास्तिक हैं। ५. अन्न आदि का पेट में पहुँचकर पचना। परिपाक। ६. किसी पदार्थ का अच्छी तरह पुष्ट, प्रौढ़ या विकसित होकर पूर्णता तक पहुँचना। ६. अंत। अवसान। समाप्ति। ८. वृद्धावस्था। बुढ़ापा। ९. साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें किसी कार्य के होने पर उसके साथ उस कार्य के परिणाम का भी उल्लेख होता है। (कम्यूटेशन) जैसे—मुख चंद्र के दर्शनों से मन का सारा संताप शांत हो जाता है। विशेष—यह अलंकार अभेद और सादृश्य पर आश्रित होता है, फिर भी इसमें आरोपण का तत्त्व प्रधान है। परवर्ती साहित्यकारों ने इस अलंकार का लक्षण या स्वरूप बहुत-कुछ बदल दिया है। ‘चंद्रलोक’ के मत से जहाँ उपमेय के कार्य का उपमान द्वारा दिया जाना वर्णित होता है अथवा उपमान का उपमेय के साथ एक रूप होकर कोई काम करने का उल्लेख होता है, वहाँ परिणाम अलंकार होता है। जैसे—यदि कहा जाय—राष्ट्रपति जी ने अपने कर-कमलों से प्रदर्शनी का उद्घाटन किया।’ तो यहाँ इसलिए परिणाम अलंकार हो जायगा कि उन्होंने अपने करों से नहीं, बल्कि कर रूपी कमलों से उद्घाटन किया। रूपक अलंकार से इसमें यह अंतर है कि रूपक में तो उपमेय पर उपमान का आरोप मात्र कर दिया जाता है; परंतु परिणाम अलंकार में यह विशेषता होती है कि उपमेय का काम उपमान से कराकर अर्थ में चमत्कार लाया जाता है। १॰. नाट्य-शास्त्र में कथावस्तु, की वह अंतिम स्थिति जिसमें संघर्ष की समाप्ति होने पर उसका फल दिखलाया जाता है। जैसे—हरिश्चंद्र नाटक के अंत में रोहिताश्व का जी उठना और राजा हरिश्चंद्र का अपनी पत्नी को पाकर फिर से परम सुखी और वैभवशाली होना ‘परिणाम’ कहा जायगा। इसी ‘परिणाम’ के आधार पर नाटकों के दुःखांत और सुखांत नामक दो भेद हुए हैं।
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परिणामक  : वि० [सं० परि√नम्+णिच्+ण्वुल्—अक] जिसके कारण कोई परिणाम हो।
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परिणामदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० परिणाम√दृश् (देखना)+णिनि] १. जिसे होनेवाले परिणाम का पहले से भान हो। २. जो परिणाम या फल का ध्यान रखकर काम करता हो।
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परिणाम-दृष्टि  : स्त्री० [सं० स० त०] वह दृष्टि या शक्ति जिससे मनुष्य किसी काम या बात का परिणाम अथवा फल पहले से जान या समझ लेता है।
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परिणामन  : पुं० [सं० परि√नम्+णिच्+ल्युट्—अन] १. अच्छी तरह पुष्ट करना और बढ़ाना। २. जातीय या संघीय वस्तुओं का किया जानेवाला व्यक्तिगत उपभोग। (बौद्ध)
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परिणामवाद  : पुं० [सं० ष० त०] सांख्य का यह मत या सिद्धान्त कि जगत् की उत्पत्ति औऱ विनाश दोनों सदा नित्य परिणाम के रूप में होते रहते हैं।
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परिणामवादी (दिन्)  : वि० [सं० परिणामवाद—इनि] परिणामवाद-संबंधी। पुं० वह जिसका परिणामवाद में विश्वास हो।
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परिणाम-शूल  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें भोजन करने के उपरांत पेट में पीड़ा होने लगती है।
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परिणामिक  : वि० [सं० पारिणामिक] १. परिणाम के रूप में होनेवाला। जैसे—दुष्कर्मों का परिणामिक भोग। २. (भोजन) जो शीघ्र या सहज में पच जाय।
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परिणामित्र  : पुं० [सं०] आधुनिक यंत्र-विज्ञान में एक प्रकार का यंत्र जो एक प्रकार की विद्युत-धारा को दूसरे प्रकार की विद्युत-धारा (अर्थात् निम्न को उच्च अथवा उच्च को निम्न) के रूप में परिवर्तित करता है। (ट्रान्सफार्मर)
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परिणामित्व  : पुं० [सं० परिणामिन्+त्व] परिणामी अर्थात् परिवर्तनशील होने की अवस्था या भाव।
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परिणामि-नित्य  : वि० [सं० कर्म० स०] जो नित्य होने पर भी बदलता रहे। जिसकी सत्ता तो स्थिर रहे, पर रूप बराबर बदलता रहे। जो एक रस न होकर भी अवनाशी हो।
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परिणामी (मिन्)  : वि० [सं० परिणाम+इनि] [स्त्री० परिणामिनी] १. परिणाम के रूप में होनेवाला। २. परिणाम-संबंधी। ३. जो बराबर बदलता रहे। रुपांतरित होता रहनेवाला। परिवर्तनशील। ४. जो परिवर्तन मान या सह ले। ५. परिणाम-दर्शी।
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परिणाय  : पुं० [सं० परि√नी (ले जाना)+घञ्] १. किसी वस्तु को जिस दिशा में चाहे उस दिशा में चलाना। सब ओर चलाना। २. चौसर, शतरंज आदि की गोटियाँ एक घर से दूसरे घर में ले जाना या ले चलना। ३. ब्याह। विवाह।
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परिणायक  : पुं० [सं० परि√नी+ण्वुल्—अक] १. परिणय या विवाह करनेवाला, अर्थात् पति। २. पथप्रदर्शक। अगुआ। नेता। ३. सेनापति।
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परिणायक-रत्न  : पुं० [सं० कर्म० स०] बौद्ध चक्रवर्ती राजाओं के सप्तधन अथवा सात कोषों में से एक।
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परिणाह  : पुं० [सं० परि√नह् (बाँधना)+घञ्] १. विस्तार। फैलाव। २. घेरा। परिधि। ३. दीर्घ निश्वास।
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परिणाहवान (वत्)  : वि० [सं० परिणाह+मतुप्, वत्व] फैला हुआ। प्रशस्त। विस्तृत।
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परिणाही (हिन्)  : वि० [सं० परिणाह+इनि] फैला हुआ। प्रशस्त। विस्तृत।
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परिणिंसक  : वि० [सं० परि√निंस् (चूमना)+ण्वुल्—अक] १. खाने या भक्षण करनेवाला। २. चुंबन करनेवाला।
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परिणिंसा  : स्त्री० [सं० परि√निंस्+अ+टाप्] १. भक्षण। खाना। २. चुंबन।
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परिणीत  : भू० कृ० [सं० परि√नी+क्त] [स्त्री० परिणीता] १. जिसका परिणय हो चुका हो। ब्याहा हुआ। विवाहित। २. उक्त के आधार पर, जिसका किसी के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित हो चुका हो। उदा०—तुम परिणीत नहीं इन थोथे विश्वासों से।—पंत। ३. (कार्य) जो पूरा या संपन्न हो चुका हो। संपादित।
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परिणीत-रत्न  : पुं० [सं० कर्म० स०]=परिणायकरत्न। (दे०)
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परिणीता  : वि० [सं० परिणीत+टाप्] (स्त्री) जिसका किसी के साथ विधिवत् परिणय या विवाह हो चुका हो। विवाहिता। स्त्री० विवाहिता स्त्री या पत्नी।
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परिणेता (तृ)  : पुं० [सं० परि√नी+तृच्] परिणय या विवाह करनेवाला व्यक्ति। पति।
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परिणेया  : वि० [सं० परि√नी+अच्+टाप्] (स्त्री) जो पत्नी या भार्या बनाने के लिए उपयुक्त हो। २. जिसका परिणय या विवाह होने को हो या हो सकता हो।
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परितः  : अव्य० [सं० परि+तस्] १. सब ओर। चारों ओर। २. पूरी तरह से। सब प्रकार से।
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परितच्छ  : वि०=प्रत्यक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परितप्त  : भू० कृ० [सं० परि√तप् (तपना)+क्त] १. अच्छी तरह तपा या तपाया हुआ। बहुत गरम। २. जिसे बहुत अधिक परिताप या दुःख हुआ हो। बहुत अधिक दुःखी और संतप्त।
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परितप्ति  : स्त्री० [सं० परि√तप्+क्तिन्] १. परितप्त होने की अवस्था या भाव। परितात। २. जलन। डाह। ३. बहुत विकट। मानसिक व्यथा। मनस्ताप।
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परितर्कण  : पुं० [सं० परि√तर्क (दीप्ति, विचार)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह तर्क या विचार करना।
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परितर्पण  : पुं० [सं० परि√तृप् (संतुष्ट करना)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह प्रसन्न या संतुष्ट करना।
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परिताप  : पुं० [सं० परि√तप्+घञ्] १. बहुत अधिक ताप जिससे चीजें जलने या झुलसने लगे। २. घोर व्यथा। संताप। ३. पछतावा। पश्चात्ताप। ४. डर। भय। ५. कँप-कँपी। कंप। ६. एक नरक का नाम।
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परितापी (पिन्)  : वि० [सं० परि√तप्+णिनि] १. परिताप-संबंधी। २. परिताप उत्पन्न करनेवाला। ३. दे० ‘परितप्त’।
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परितिक्त  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक तीता। पुं० निंब। नीम।
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परितुलन  : पुं० [सं० परि√तुल् (तुलना करना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परितुलित] साहित्य में किसी ग्रंथ की लिखित और मुद्रित प्रतियों और उनके भिन्न संस्करणों आदि का यह जानने के लिए मिलान करना कि उनका ठीक और मूल रूप क्या है अथवा क्या होना चाहिए। (कोल्लेशन) जैसे—सूर सागर का सम्पादन करते समय रत्नाकर जी ने उसकी पचीसों हस्त-लिखित प्रतियों का परितुलन किया था।
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परितुष्ट  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परितुष्टि] १. जिसका परितोष हो चुका हो या किया जा चुका हो। अच्छी तरह से तथा सब प्रकार से तुष्ट। २. जो बहुत खुश या प्रसन्न हो।
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परितुष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूरी तरह से की जानेवाली तुष्टि। परितोष। २. खुशी। प्रसन्नता।
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परितृप्ति  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परितृप्ति] जो अच्छी तरह तृप्त हो चुका हो। पूर्ण रूप से तृप्त।
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परितृप्त  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परितृप्त करने या होने की अवस्था या भाव।
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परितृप्ति  : पुं०=परितोष।
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परितोलन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० परितौलित] दे० ‘परितुलन’।
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परितोख  : पुं० [सं० परि√तुष् (प्रीति)+घञ्] १. निश्चिन्तता युक्त सुख जो कामना या साध पूरी होने पर होता है। अच्छी तरह होनेवाला तोष। पूर्ण तृप्ति। २. खुशी। प्रसन्नता।
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परितोषक  : वि० [सं० परि√तुष्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. परितोष करनेवाला। संतुष्ट करनेवाला। २. प्रसन्न या खुश करनेवाला।
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परितोषण  : पुं० [सं० परि√तुष्+णिच्+ल्युट्—अन] १. परितुष्ट करने की क्रिया या भाव। ऐसा काम करना जिससे किसी का परितोष हो। २. वह धन जो किसी को परितुष्ट करने के लिए दिया गया हो।
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परितोषवान् (वत्)  : वि० [सं० परितोष+मतुप्, वत्व] जो सहज में परितोष प्राप्त कर लेता है।
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परितोषी (विन्)  : वि० [सं० परितोष+इनि] १. जिसे परितोष हो। २. जल्दी या सहज में परितुष्ट होनेवाला।
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परितोस  : पुं०=परितोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परित्यक्त  : भू० कृ० [सं० परि√त्यज् (छोड़ना)+क्त] जिसे पूर्ण रूप से अथवा उपेक्षापूर्वक छोड़ दिया गया हो। (एबन्डन्ड)
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परित्यक्ता  : पुं० [सं० परित्यक्त+टाप्] त्यागने या छोड़नेवाला। वि० सं० ‘परित्यक्त’ का स्त्री०। स्त्री० वह स्त्री० जिसे उसके पति ने त्याग या छोड़ दिया हो।
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परित्यजन  : पुं० [सं० परि√त्यज्+ल्युट्—अन] परित्याग करने की क्रिया या भाव। त्यागना। छोड़ना।
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परित्यज्य  : वि० [सं० परित्याज्य]=परित्याज्य।
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परित्याग  : पुं० [सं० परि√त्यज्+घञ्] अधिकार स्वामित्व, संबंध, आधिकृत वस्तु, निजी संपत्ति, संबंधी आदि का पूर्ण रूप से तथा सदा के लिए किया जानेवाला त्याग। पूरी तरह से छोड़ देना। (एबन्डनिंग)
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परित्यागना  : स० [सं० परित्याग] पूरी तरह से ये सदा के लिए परित्याग करना।
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परित्यागी (गिन्)  : वि० [सं० परि√त्यज्+घिनुण्] परित्याग करने अर्थात् पूरी तरह से या सदा के लिए छोड़नेवाला।
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परित्याजन  : पुं० [सं० परि√त्यज्+णिच्+ल्युट्—अन] परित्याग।
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परित्याज्य  : वि० [सं० परि√त्याज्+ण्यत्] जिसका परित्याग करना उचित हो या किया जाने को हो। जो पूरी तरह से या सदा के लिए छोड़े जाने के योग्य हो।
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परित्रस्त  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक त्रस्त या डरा हुआ।
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परित्राण  : पुं० [सं० परि√त्रै (बचाना)+ल्युट्—अन] १. कष्ट, विपत्ति आदि से की जानेवाली पूर्ण रक्षा। २. शरीर पर के बाल या रोएँ। रोम।
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परित्रात  : भू० कृ० [सं० परि√त्रै+क्त] जिसका परित्राण या रक्षा की गई हो। रक्षा-प्राप्त।
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परित्राता (तृ)  : वि० [सं० परि√त्रै+तृच्] जो दूसरों का परित्राण करता हो। पूरी रक्षा करनेवाला।
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परित्रायक  : वि० [सं० परि√त्रै+ण्वुल—अक]=परित्राता।
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परित्रास  : पुं० [सं० परि√त्रस् (डरना)+घञ्] अत्यधिक त्रास।
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परिदंशित  : भू० कृ० [सं० परिदंश, प्रा० स०,+इतच्] जो पूर्ण रूप से अस्त्रों से सुसज्जित हो या किया गया हो।
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परिदत्त  : भू० कृ० [सं० परि√दा (देना)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसे परिदान मिला हो। २. (धन) जो परिदान के रूप में दिया गया हो।
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परिदर  : पुं० [सं० परि√दृ (फाड़ना)+अप्] मसूड़ों में से खून और मवाद निकलने या बहने का एक रोग। (पायरिया)
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परिदर्शन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अच्छी तरह से किया जानेवाला या होनेवाला दर्शन। पूर्ण दर्शन। २. निरीक्षण। ३. न्यायालय में किसी मुकद्दमे की होनेवाली सुनवाई। (ट्रायल)
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परिदष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√दंश+क्त] १. काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया हो। २. जिसे डंक या दाँत लगा हो। डंका या दाँत से काटा हुआ। दंशित।
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परिदहन  : पुं० [सं० परि√दह् (जलाना)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह या पूर्ण रूप से जलाना।
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परिदान  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिदत्त] १. लौटा देना। वापस कर देना। फेर देना। २. अदला-बदली। ३. अमानत लौटाना। ४. आज-कल वह आर्थिक सहायता जो राज्य सरकार व्यक्तियों, संस्थाओं आदि को उद्योगीकरण में प्रोत्साहित करने के लिए देती है। (सब्साइडी)
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परिदाय  : पुं० [सं० पर√दा (देना)+घञ्] सुगंधि। खुशबू।
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परिदायी (यिन्)  : वि० [सं० परि√दा+णिनि] जो ऐसे वर से अपनी कन्या का विवाह करता हो जिसका बड़ा भाई अभी तक कुआँरा हो।
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परिदाह  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यंत जलन या दाह। २. मानसिक कष्ट। दुःख या संताप।
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परिदिग्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] जिस पर कोई वस्तु बहुत अधिक मात्रा में लगी या पुती हो।
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परिदीन  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक दीन या दुःखी।
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परिदृढ़  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत दृढ़।
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परिदृष्टि  : स्त्री० [सं०] किसी वस्तु का ऐसा दृश्य या रूप जिसमें दूर से देखने पर उसके सब अंग अपने ठीक अनुपात में और एक दूसरे से उचित दूरी पर दिखाई दें। संदर्श। (परस्पेक्टिव)
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परिदेव  : पुं० [सं० परि√दिव् (गति)+घञ्] रोना-धोना। विलाप।
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परिदेवन  : पुं० [सं० परि√दिव्+ल्युट्—अन] १. कष्ट पहुँचने या हानि होने पर की जानेवाली चीख-पुकार। २. उक्त स्थिति में की जानेवाली फरियाद या शिकायत। परिवाद। (कम्प्लेन्ट)
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परिदेवना  : स्त्री०=परिदेवन।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
परिद्रष्टा (ष्ट्ट)  : वि० [सं० परि√दृश् (देखना)+तृच्] परिदर्शन करनेवाला।
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परिद्वीप  : पुं० [सं० ब० स०] गरुड़ का एक पुत्र।
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परिध  : स्त्री०=परिधि।
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परिधन  : पुं० [सं० परिधान] कमर और उससे निचला भाग ढकने के लिए पहना जानेवाला कपड़ा। अधोवस्त्र।
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परिधर्षण  : पुं० [सं० परि√धृष् (झिड़कना)+ल्युट्—अन] १. आक्रमण। २. अपमान। तिरस्कार। ३. दूषित या बुरा व्यवहार।
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परिधान  : पुं० [सं० परि√धा (धारण करना)+ल्युट्—अन] १. शरीर पर वस्त्र आदि धारण करना। कपड़े ओढ़ना या पहनना। २. वे कपड़े जो शरीर पर धारण किये या पहने जायँ। पोशाक। ३. कमर के नीचे पहनने या बाँधने का कपड़ा। जैसे—धोती, लुंगी आदि। ४. प्रार्थना स्तुति आदि का अंत या समाप्ति।
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परिधानीय  : वि० [सं० परि√धा+अनीयर्] [स्त्री० परिधानीया] जो परिधान के रूप में धारण किया जा सके पहने जाने के योग्य (वस्त्र)
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परिधाय  : पुं० [सं० परि√धा+घञ्] १. कपड़ा। वस्त्र। २. पहनने के कपड़े। परिधान। पोशाक। ३. वह स्थान जहाँ जल हो।
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परिधायक  : वि० [सं० परि√धा+ण्वुल्—अक] १. ढकने, लपेटने या चारों ओर से घेरनेवाला। पुं० १. घेरा। २. चहारदीवारी। प्राचीर।
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परिधायन  : पुं० [सं० परि√धा+णिच्+ल्युट्—अन] १. पहनना। २. पोशाक।
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परिधारण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिधार्य, परिधृत] १. अच्छी तरह किया जानेवाला धारण। २. अपने ऊपर उठाना, लेना या सहना। ३. बचाकर या रक्षित रूप में रखना।
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परिधावन  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या बहुत तेज दौड़ना।
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परिधि  : स्त्री० [सं० परि√धा+कि] १. वृत्त की रेखा। २. किसी गोलाकार वस्तु के चारों ओर खिंची हुई वृत्ताकार रेखा। (सरकम्फरेन्स) ३. वह गोलाकार मार्ग जिस पर कोई चीज चलती, घूमती या चक्कर लगाती हो। ४. प्रायः गोलाकार माना जानेवाला कोई ऐसा वास्तविक या कल्पित घेरा, जो दूसरे बाहरी क्षेत्रों से अलग हो। कुछ विशेष लोगों या कार्यों का स्वतंत्र क्षेत्र। वृत्त। (सर्किल) ५. सूर्य या चन्द्रमा के आस-पास दिखाई पड़नेवाला घेरा। परिवेश। मंडल। ६. किसी वस्तु की रक्षा के लिए बनाया हुआ घेरा। बड़ा चहारदीवारी। नियत या नियमित मार्ग। ८. वे तीन खूँटे जो यज्ञ-मंडप के आस-पास गाड़े जाते थे। ९. क्षितिज। १॰. परिधान। ११. दे० ‘परिवेश’।
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परिधिक  : वि० [सं०] १. परिधि-संबंधी। २. जिसका कार्य-क्षेत्र किसी विशेष परिधि में हो। जैसे—परिधिक निरीक्षक। (सर्किल इंस्पेक्टर)
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परिधिस्थ  : वि० [सं० परिधि√स्था (ठहरना)+क] जो किसी परिधि में स्थित हो। पुं० १. नौकर। सेवक। २. वह सेना जो रथ और रथी की रक्षा के लिए नियुक्त रहती थी।
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परिधीर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक धीरजवाला। परम धीर।
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परिधूपित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] धूप से अच्छी तरह बसाया या सुगंधित किया हुआ।
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परिधूमन  : पुं० [सं० परिधूम, प्रा० स०,+क्विप्+ल्युट्—अन] १. डकार। २. सुश्रुत के अनुसार तृष्णा रोग का एक उपद्रव जिसमें एक विशेष प्रकार की कै होती है।
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परिधूसर  : वि० [सं० प्रा० स०] १. धूल से भरा हुआ। जिसमें खूब धूल लगी हो। २. धूल के रंग का। मटमैला।
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परिधेय  : वि० [सं० परि√धा (धारण)+यत्] जो परिधान के रूप में काम आ सके। जो पहना जा सके या पहने जाने योग्य हो। पुं० १. पहनने के कपड़े। परिधान। पोशाक। २. अंदर या नीचे पहनने का कपड़ा। जैसे—गंजी, लहँगा या साया।
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परिध्वंस  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूरी तरह से होनेवाला ध्वसं या नाश। सर्व-नाश। २. ध्वंस। नाश
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परिध्वस्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका पूरी तरह से ध्वंस या नाश हो चुका हो या किया जा चुका हो।
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परिनगर  : पुं० [सं० प्रा० स०] नगर से कुछ हटकर बनी हुई बस्ती जो शासकीय दृष्टि से उसकी सीमा के अंतर्गत मानी जाती हो। (सबर्व)
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परिनय  : पुं०=परिणय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनागर  : वि० [सं० पारिनगर] परिनगर-संबंधी। (सबर्बन)
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परिनाम  : पुं०=परिणाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनामी  : वि०=परिणामी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनिर्णय  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी विवाद के संबंध में दिया हुआ पंचों का निर्णय। २. वह पत्र जिसमें पंचों का निर्णय लिखा हुआ हो। पंचाट। (अवार्ड)
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परिनिर्वाण  : पुं० [सं० प्रा० स०] पूर्ण निर्वाण। पूर्ण मोक्ष।
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परिनिर्वाति  : स्त्री० [सं० परि-निर्√वा (गति)+क्तिन्]=परिनिर्वाण।
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परिनिर्वृत्त  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिनिर्वृत्ति] १. जो मुक्त हो चुका हो। छूटा हुआ। २. जिसे मोक्ष मिल चुका हो।
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परिनिर्वृत्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. मोक्ष। २. छुटकारा। मुक्ति।
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परिनिष्ठा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. चरमसीमा या अवस्था। अंतिम सीमा। पराकाष्ठा। २. पूर्णता। ३. अभ्यास या ज्ञान की पूर्णता।
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परिनिष्ठित  : वि० [सं० परि-नि√स्था+क्त] १. (कार्य) जो पूरा या सम्पन्न किया जा चुका हो। निपटाया हुआ। २. जो किसी काम में पूरी तरह से कुशल या दक्ष हो।
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परिनिष्पन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] १. (काम) जो अच्छी तरह पूरा हो चुका हो। २. जो भाव-अभाव और सुख-दुःख की कल्पना से बिलकुल दूर या परे हो। (बौद्ध)
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परिनैष्ठिक  : वि० [सं० प्रा० स०] सर्वश्रेष्ठ। सर्वोत्कृष्ट।
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परिन्यास  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी पद, वाक्य आदि के भाव में पूर्णता लाना जो साहित्य में एक विशिष्ट गुण माना गया है। २. साहित्यिक रचना में उक्त प्रकार का स्थल। ३. नाटक में आख्यान बीज अर्थात् मुख्य कथा की मूलभूत घटना का संकेत करना।
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परिपंच  : पुं०=प्रपंच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपंथ  : वि० [सं० परि√पंथ् (गति)+अच्] जो रास्ता रोके हुए हो।
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परिपंथक  : वि० [सं० परि√पंथ्+ण्वुल्—अक] मार्ग या रास्ता रोकने वाला। पुं० १. वह जो प्रतिकूल या विरुद्ध आचरण या व्यवहार करता हो। २. दुश्मन। शत्रु। उदा०—पार भई परिपंथि गंजिमय।—गोरखनाथ। ३. लुटेरा। डाकू।
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परिपंथिक  : वि०, पुं०=परिपंथक।
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परिपंथी (न्थिन्)  : वि०, पुं० [सं० परि√पंथ्+ णिनि ]=परिपंथक।
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परिपक्व  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिपक्वता] १. जो अभिवृद्धि, विकास आदि की दृष्टि से पूर्णता तक पहुँच चुका हो। जैसे—परिपक्व अन्न, फल आदि २. अच्छी तरह पचा हुआ (भोजन)। ३. जिसका उपयुक्त या नियत समय आ गया हो। (मैच्योर) ४. अच्छा अनुभवी, ज्ञाता और बहुदर्शी। ५. कुशल। दक्ष। निपुण।
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परिपक्वता  : स्त्री० [सं० परिपक्व+तल्+टाप्] परिपक्व होने की अवस्था या भाव।
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परिपण  : पुं० [परि√पण् (व्यवहार करना)+घ] मूलधन। पूँजी।
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परिपणन  : पुं० [सं० परि√पण्+ल्युट्—अन] १. बाजी या शर्त लगाना। २. प्रतिज्ञा या वादा करना।
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परिपणित  : भू० कृ० [सं० परि√पण्+क्त] १. (कार्य या बात) जिस पर शर्त लगी या लगाई गई हो। २. (धन) जो बाजी या शर्त में लगाया गया हो। ३. (बात) जिसके संबंध में वादा किया गया हो।
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परिपणित-काल-संधि  : स्त्री० [सं० काल-संधि, ष० त० परिपणित-काल संधि, कर्म० स०] प्राचीन भारत में मित्र देशों में होनेवाली एक तरह की संधि, जिसमें यह नियत किया जाता था कि कितने-कितने समय तक कौन-कौन सदस्य लड़ेगा।
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परिपणित-देश-संधि  : स्त्री० [सं० देश-संधि, ष० त०, परिपणित-देशसंधि, कर्म० स०] प्राचीन भारत में मित्र देशों में होनेवाली वह संधि, जिसमें यह नियत होता था कि कौन किस देश पर आक्रमण करेगा।
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परिपणित-संधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह संधि जिसमें कुछ शर्तें स्वीकार की गई हों।
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परिपणितार्थ-संधि  : स्त्री० [सं० अर्थ-संधि, ष० त० परिपणितअर्थसंधि, कर्म० स०] ऐसी संधि जिसके अनुसार किसी को पूर्व निश्चय के अनुसार कुछ काम करना पड़ता हो।
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परिपतन  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी के चारों ओर उड़ना, चक्कर लगाना या मँडराना।
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परिपति  : वि० [सं० परि√पत् (गिरना)+इन्] जो सब का स्वामी हो। पुं० परमात्मा।
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परिपत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वह आधिकारिक पत्र जो विशिष्ट या संबद्ध पदाधिकारियों, सदस्यों आदि को सूचनार्थ भेजा जाता है। गश्ती चिट्ठी। (सरक्यूलर) २. वह पत्र जिसमें किसी को कुछ स्मरण करने के लिए कुछ लिखा गया हो। स्मृतिपत्र। (मैमोरैण्डम)
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परिपथ  : पुं० [सं०] १. किसी वृत्ताकार वस्तु के किनारे-किनारे बना हुआ पथ। २. अनेक नगरों, देशों, स्थलों आदि में पारी-पारी से होते हुए जाने के लिए पहले से नियत किया हुआ मार्ग। (सरकिट)
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परिपर  : पुं० [सं० परि√पृ (पूर्ति)+अप्]=परिपथ।
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परिपवन  : पुं० [सं० परि√पू (पवित्र करना)+ल्युट्—अन] १. अनाज ओसाना या बरसाना। २. अन्न ओसाने का सूप।
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परिपांडिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पांडिमान, पांडु+ इमनिच्, परिपांडिमन्, प्रा० स०] बहुत अधिक सफेदी या पीलापन।
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परिपांडु  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत हलका पीला। सफेदी लिए हुए पीला। २. दुबला-पतला। कृश और क्षीण।
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परिपाक  : पुं० [सं० परि√पच् (पकाना)+घञ्] १. अच्छी तरह या ठीक पकना या पकाया जाना। २. पेट में भोजन अच्छी तरह पचना। ३. किसी विषय या बात की ऐसी पूर्ण अवस्था तक पहुँचना जिसमें कुछ भी त्रुटि न रह जाय। ४. परिणाम। फल। ५. निपुणता। दक्षता।
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परिपाकिनी  : स्त्री० [सं० परिपाक+इनि+ङीष्] निसोथ।
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परिपाचन  : पुं० [सं० परि√पच्+णिच्+ल्युट्—अन] अच्छी तरह पचाना। भली भाँति पचाना।
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परिपाचित  : भू० कृ० [सं० परि√पच्+णिच्+क्त] अच्छी तरह पकाया हुआ।
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परिपाटल  : वि० [सं० प्रा० स०] पीलापन लिए लाल रंगवाला। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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परिपाटलित  : भू० कृ० [सं० परिपाटल+क्विप्+क्त] परिपाटल रंग में रँगा हुआ।
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परिपाटि  : स्त्री० [सं० परि√पट् (गति)+णिच्+ इन्]= परिपाटी।
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परिपाटी  : स्त्री० [सं० परिपाटि+ङीष्] १. किसी जाति, समाज आदि में कोई काम करने का कोई विशिष्ट बँधा हुआ ढंग अथवा शैली। २. विशिष्ट अवसर पर कोई विशिष्ट काम करने की प्रथा। ३. उक्त प्रकार के काम करने का ढंग या प्रथा। विशेष—परिपाटी, पद्धति और प्रथा का अन्तर जानने के लिए देखें ‘प्रथा’ का विशेष।
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परिपाठ  : पुं० [सं० परि√पठ् (पढ़ना)+घञ्] १. वेदों का पुनर्पठन। २. विस्तार के साथ उल्लेख या पाठ करना।
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परिपार (रि)  : स्त्री० [सं० पाली=मर्यादा]। उदा०—किहिं नर किहिं सर राखियै खैंर बठै परिपारि।—बिहारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपार्श्व  : वि० [सं० प्रा० स०] पार्श्व या बगल का। बहुत पास का। पुं० १. पार्श्व। २. समीप्य।
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परिपालक  : वि० [सं० परि√पाल् (रक्षा करना)+णिच्+ ण्वुल—अक] परिपालन करनेवाला।
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परिपालन  : पुं० [सं० परि+पाल+णिच्+ल्युट्—अन] १. रक्षा। बचाव। २. बहुत ही सावधानी से किया जानेवाला पालन-पोषण या लालन-पालन।
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परिपालना  : स्त्री० [सं० परि√पाल्+णिच्+युच्—अन] रक्षण। बचाव। स० [सं० परिपालन] परिपालन करना।
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परिपालनीय  : वि० [सं० परि√पाल्+णिच्+अनीयर्] जिसका परिपालन करना या होना चाहिए।
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परिपालयिता (तृ)  : वि० [सं० परि√पाल्+णिच्+ अनीयर्] जिसका परिपालन करनेवाला व्यक्ति। परिपालक।
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परिपाल्य  : वि० [सं० परि√पाल्+ण्यत्] जिसका परिपालन करना उचित हो या किया जाने को हो।
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परिपिंजर  : वि० [सं० प्रा० स०] हलके लाल रंग का।
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परिपिच्छ  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक प्रकार का आभूषण, जो मोर की पूँछ के परो का बना होता था।
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परिपिष्टक  : पुं० [सं० परि√पिष् (चूर्ण करना)+क्त+ कन्] सीसा।
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परिपीड़न  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यंत पीड़ा पहुँचाना। बहुत कष्ट देना। २. अच्छी तरह दबाना या पीसना। ३. अनिष्ट, अपकार या हानि करना।
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परिपीड़ित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो बहुत अधिक पीड़ित किया गया हो या हुआ हो।
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परिपोवर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधि मोटा या स्थूल।
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परिपुष्करा  : स्त्री० [सं० प्रा० ब० स०] गोडुंब ककड़ी। गोंडुबा।
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परिपुष्ट  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसका पोषण भली भाँति हुआ हो। पूर्ण रूप से पुष्ट।
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परिपुष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परिपुष्ट होने की अवस्था या भाव।
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परिपूजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] सम्यक् प्रकार से किया जानेवाला पूजन या उपासना।
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परिपूत  : वि० [सं० प्रा० स०] अति पवित्र। पुं० ऐसा अन्न जिसमें से कूड़ा-करकट, भूसी आदि निकाल दी गई हो। साफ किया हुआ अन्न।
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परिपूरक  : वि० [सं० प्रा० स०] १. परिपूर्ण करनेवाला। भर देनेवाला। २. धन-धान्य आदि से युक्त या संपन्न करनेवाला। ३. पूरा। संपूर्ण। सारा।
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परिपूरणीय  : वि० [सं० प्रा० स०] परिपूर्ण किये जाने के योग्य।
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परिपूरन  : वि०=परिपूर्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपूरित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह या पूरा-पूरा भरा हुआ। लबालब। २. पूरा या समाप्त किया हुआ।
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परिपूर्ण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो सब प्रकार से पूर्ण हो। २. अच्छी तरह तृप्त किया हुआ। ३. जो पूरा या समाप्त हो चुका हो या किया जा चुका हो।
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परिपूर्णेन्दु  : पुं० [सं० परिपूर्ण-इंदु, कर्म० स०] सोलहों कलाओं से युक्त चंद्रमा। पूर्णिमा का पूरा चाँद।
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परिपूर्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परिपूर्ण होने की अवस्था, क्रिया या भाव। परिपूर्णता।
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परिपृच्छक  : वि० [सं० परिप्रच्छक] जिज्ञासा या प्रश्न करनेवाला। पूछनेवाला।
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परिपृच्छनिका  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वह बात जिसके संबंध में वाद-विवाद किया जाय। वाद का विषय।
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परिपृच्छा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूछने की क्रिया या भाव। पूछताछ। २. जिज्ञासा।
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परिपेल  : पुं० [सं० परि√पेल् (कंपन)+अच्] केवटी मोथा। कैवर्त मुस्तक।
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परिपेलव  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर तथा सुकुमार। पुं० केवटी मोथा।
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परिपोट (क)  : पुं० [सं० परि√पुट् (फोड़ना)+घञ्] [परिपोट+कन्] कान का एक रोग जिसमें उसकी त्वचा गल या छिल जाती है।
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परिपोटन  : पुं० [सं० परि√पुट्+ल्युट्—अन] किसी चीज का छिलका अथवा ऊपरी आवरण हटाना।
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परिपोषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिपोषित] अच्छी तरह किया जानेवाला पोषण। भली भाँति पुष्ट करना।
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परिप्रश्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] कोई बात जानने के लिए किया जानेवाला प्रश्न। (एन्क्वायरी)
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परि-प्रश्नक  : पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ विशेष रूप से किसी विशिष्ट विभाग या विषय से संबंध रखनेवाली बातों की पूछ-ताछ की जाती है। (एन्क्वायरी आफिस)
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परिप्रेक्ष्य  : पुं० [सं०] चित्रकला में, दृश्यों, पदार्थों, व्यक्तियों का ऐसा अंकन या चित्रण जिसमें उनका पारस्परिक अन्तर ठीक उसी रूप में दिखाई देता हो, जिस रूप में वह साधारणतः आँखों से देखने पर दिखाई देता है। (पर्स्पेक्टिव)
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परिप्रेषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिप्रेषित] १. चारों ओर भेजना। २. किसी को दूत या हरकारा बनाकर कहीं भेजना। २. देश-निकाला। निर्वासन। ३. परित्याग।
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परिप्रेषित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. भेजा हुआ। प्रेषित। २. निकाला हुआ। निष्काषित। ३. छोड़ा या त्यागा हुआ। परित्यक्त।
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परिप्रेष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं० प्रा० स०] जो भेजा जाने को हो या भेजे जाने के योग्य हो। पुं० नौकर। सेवक।
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परिप्लव  : वि० [सं० परि√प्लु (गति)+अच्] १. तैरता या बहता हुआ। २. जो गति में हो। ३. हिलता-काँपता हुआ। पुं० १. तैरना। २. पानी की बाढ़। ३. अत्याचार। ४. नाव। नौका।
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परिप्लावित  : भू० कृ० [सं०] (स्थान) जो बाढ़ के कारण जलमग्न हो चुका हो।
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परिप्लुत  : वि० [सं० परि√प्लु+क्त] १. जिसके चारों ओर जल ही जल हो। २. भीगा हुआ। आर्द्र। गीला। तर। ३. काँपता या हिलता हुआ। पुं० कहीं पहुँचने के लिए उछलकर आगे बढ़ने की क्रिया। छलाँग।
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परिप्लुता  : स्त्री० [सं० परिप्लुत+टाप्] १. मदिरा। शराब। २. ऐसी योनि जिसमें मैथुन या मासिक रजःस्राव के समय पीड़ा होती हो। (वैद्यक)
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परिप्लुष्ट  : वि० [सं० परि√प्लुष् (दाह)+क्त] १. जला या जलाया हुआ। २. झुलसा हुआ।
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परिप्लोष  : पुं० [सं० परि√प्लुष्+घञ्] १. तपना। ताप। २. जलन। दाह। ३. शरीर के अन्दर का ताप।
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परिफुल्ल  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह खिला हुआ। खूब खिला हुआ। २. अच्छी तरह खुला हुआ। ३. बहुत अधिक प्रसन्न। ४. जिसके रोएँ खड़े हो गये हों। जिसे रोमांच हुआ हो।
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परिबंधन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिबद्ध] ऐसा बंधन जिसमें चारों ओर से किसी को जकड़ा जाय।
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परिबर्ह  : पुं० [सं० परि√बर्ह् (दान)+घञ्] १. राजाओं के हाथी-घोड़ों पर डाली जानेवाली झूल। २. राजा के छत्र, चँवर आदि राजचिह्न। राजा का साज-सामान। ३. घर-गृहस्थी में नित्य काम आनेवाली चीजें। घर का सामान। ४. धन-सम्पत्ति। दौलत।
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परिबर्हण  : पुं० [सं० परि√बर्ह्+ल्युट्—अन] १. पूजा। उपासना। २. सब प्रकार से होनेवाली वृद्धि। ३. सम्पन्नता। समृद्धि।
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परिबल  : पुं० [सं० प्रा० स०] यंत्रों आदि का वह बल या शक्ति जिसकी प्रेरणा से उसका कोई अंग या पहिया किसी अक्ष या बिन्दु पर घूमता या चक्कर लगाता है। (मोमेन्टम)
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परिबाधा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बहुत बड़ी या विकट बाधा। २. कष्ट। पीड़ा। ३. परिश्रम। ४. थकावट। श्रांति।
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परिबृंहण  : पुं० [सं० परि√बृंह् (वृद्धि)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवृंहित] १. चारों ओर या हर तरफ से बढ़ना। वर्धन। २. पूरक ग्रंथ जो किसी मुख्य ग्रंथ में प्रतिपादित विचारों की पुष्टि और समर्थन करता हो।
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परिबेख  : पुं०=परिवेष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिबेठना  : स० [सं० प्रतिवेष्ठन] आच्छादित करना। लपेटना। ढकना। उदा०—ग्रीष्म द्वैपहरी मिस जोन्ह महा विष ज्वालन सों परिबेठी।—देव।
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परिबोध  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. ज्ञान। २. तर्क। ३. वे प्रतिबंध या विघ्न जो दुर्बल चित्तवाले साधकों को समाधिस्थ नहीं होने देते।
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परिबोधन  : पुं० [सं० परि√बुद्ध+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिबोधनीय] १. ठीक प्रकार से बोध करना। २. दंड की धमकी देकर कोई विशेष कार्य करने से रोकना। चेतावनी देना। ३. चेतावनी।
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परिबोधना  : स्त्री० [सं० परि√बुध्+णिच्+युच्—अन, टाप्] चेतावनी।
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परिभंग  : पुं० [सं० प्रा० स०] टुकड़े-टुकड़े करना।
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परिभक्ष  : वि० [सं० परि√भक्ष् (खाना)+अच्] परिभक्षण करनेवाला।
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परिभक्षण  : पुं० [सं० परि√भक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभक्षित] १. पूरी तरह से खाना। २. खूब खाना।
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परिभक्षा  : स्त्री० [सं० परि√भक्ष्+अ+टाप्] आपस्तंब सूत्र के अनुसार एक प्रकार का विधान।
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परिभर्त्सन  : पुं० [सं० प्रा० स०] चारों ओर से होनेवाली भर्त्सना।
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परिभव  : पुं० [सं० परि√भू (होना)+अप्] अनादर। अपमान। तिरस्कार। उदा०—चिर परिभव से श्रेष्ठ है मरण।—पंत।
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परिभवनीय  : वि० [सं० परि√भू+अनीयर्] १. जो अनादर या अपमान का पात्र हो। २. जिसकी पराजय निश्चित-प्राय हो।
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परिभवी (विन्)  : वि० [सं० पर√भू+इनि] दूसरों का अनादर या अपमान करनेवाला।
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परिभाव  : पुं० [सं० परि√भू+घञ्] १. अनादर। अपमान। परिभव। २. मात करना। हराना। पराभव।
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परिभावन  : पुं० [सं० परि√भू+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभावित] १. मिलाप। संयोग। मिलन। २. चिंता। फिक्र।
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परिभावना  : स्त्री० [सं० परि√भू+णिच्+युच्—अन+टाप्] १. चिन्तन। विचार। २. चिंता। फिक्र। ३. साहित्य में ऐसा वाक्य या पद जिससे अतिशय उत्सुकता उत्पन्न हो।
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परिभावित  : भू० कृ० [सं० परि√भू+णिच्+क्त] १. मिला या मिलाया हुआ। मिश्रित। २. व्याप्त। ३. जिस पर विचार किया जा चुका हो। विचारित।
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परिभावी (विन्)  : वि० [सं० परि√भू+णिच्+णिनि] अनादर, अपमान या तिरस्कार करनेवाला।
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परिभावुक  : वि०=परिभावी।
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परिभाषक  : वि० [सं० परि√भाष् (बोलना)+ण्वुल—अक] १. निंदा के द्वारा किसी का अपमान करनेवाला। २. निंदक।
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परिभाषण  : पुं० [सं० परि√भाष्+ल्युट्—अन] १. बात-चीत। वार्तालाप। २. दोषारोपण तथा निंदा करना। ३. नियम।
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परिभाषा  : स्त्री० [सं० परि√भाष्+अ+टाप्] १. बात-चीत। २. निंदा। ३. व्याकरण में वह व्याख्यापक सूत्र जो पाणिनी के सूत्रों के साथ रहता और उनके प्रयोग की रीति बतलाता है। ४. किसी वाक्य में आये हुए पद या शब्द का अर्थ अथवा आशय निश्चित रूप से स्पष्ट करने की क्रिया या प्रकार। ५. ऐसा कथन या वाक्य जो किसी पद या शब्द का अर्थ या आशय स्पष्ट रूप से बतलाता या व्यक्त करता हो। व्याख्या से युक्त अर्थापन। (डेफिनेशन) ६. ऐसा शब्द जो किसी विज्ञान या शास्त्र में किसी विशिष्ट अर्थ में चलता या प्रयुक्त होता हो। परिभाषिक शब्द। (टेक्निकल टर्म)
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परिभाषित  : भू० कृ० [सं० परि√भाष्+क्त] (शब्द या पद) जिसकी परिभाषा की गई या हो चुकी हो। (डिफाइन्ड)
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परिभाषी (षिन्)  : वि० [सं० परि√भाष्+णिनि] बोलने या भाषण करनेवाला।
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परिभाष्य  : वि० [सं० परि√भाष्+ण्यत्] १. जो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता हो या कहा जाने को हो। २. जिसकी परिभाषा की जा रही हो या की जाने को हो।
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परिभिन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] १. टूटा-फूटा या फटा हुआ। २. विकृत।
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परिभुक्त  : भू० कृ० [सं० परि√भुज (भोगना)+क्त] जिसका परिभोग किया गया हो या हो चुका हो।
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परिभुग्न  : भू० कृ० [सं० परि√भुज (चूर्ण करना)+क्त] टेढ़ा।
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परिभू  : वि० [सं० परि√भू+क्विप्] १. जो चारों ओर से घेरे या आच्छादित किये हुए हो। २. नियम, बंधन आदि में रहनेवाला। ३. नियामक। परिचालक।
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परिभूत  : भू० कृ० [सं० परि√भू+क्त] [भाव० परिभूति] १. जिसका परिभव हुआ हो। २. अनादृत। तिरस्कृत। ३. हारा हुआ। परास्त।
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परिभूति  : स्त्री० [सं० परि+भू+क्तिन्] अपमानित होने या हारने की अवस्था या भाव।
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परिभूषण  : पुं० [सं० परि√भूष् (सजाना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभूषित] १. अच्छी तरह से भूषित करना। अलंकृत करना। २. प्राचीन भारत में, वह संधि जो आक्रमक को अपने देश का राजस्व देकर की जाती थी।
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परिभूषित  : भू० कृ० [सं० परि√भूष्+क्त] जिसका परिभूषण किया गया हो या हुआ हो।
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परिभेद  : पुं० [सं० परि√भिद् (फाड़ना)+घञ्] १. अच्छी तरह से भेदन करना। २. शास्त्रों आदि से किया जानेवाला आघात। ३. उक्त प्रकार के आघात से होनेवाला क्षत। घाव। जखम।
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परिभेदक  : वि० [सं० परि√भिद्+ण्वुल्—अक] १. अच्छी तरह भेदन करने अर्थात् काटने या फाड़नेवाला। २. गहरा घाव करनेवाला। पुं० यथेष्ट क्षत या घात करनेवाला शस्त्र।
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परिभोक्ता (क्तृ)  : वि० परि√भुज्+तृच्] १. परिभोग करनेवाला। २. दूसरे के धन का उपभोग करनेवाला। पुं० गुरु के धन का उपभोग करनेवाला व्यक्ति।
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परिभोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिभोग्य] १. बहुत अधिक किया जानेवाला भोग। २. स्त्री० के साथ किया जानेवाला मैथुन। संभोग।
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परिभ्रंश  : पुं० [सं० परि√भ्रंश् (अधःपतन)+घञ्] १. गिरना या गिराना। पतन। स्खलन। २. पलायन। भगदड़।
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परिभ्रम  : पुं० [सं० परि√भ्रम (घूमना)+घञ्] १. चारों ओर घूमना। पर्यटन। २. भ्रम। ३. सीधी तरह से कोई बात न कहकर उसे घुमाफिराकर चक्करदार ढंग या सांकेतिक रूप से कहना। जैसे—‘नाक पर मक्खी न बैठने देना।’ के बदले में कहना—सूँघने की इन्द्रिय पर घर उड़ते फिरने वाले कीड़े या पतंगे को आसन न लगाने देना।
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परिभ्रमण  : पुं० [सं० परि√भ्रम्+ल्युट्—अन] १. चारों ओर घूमना। २. विज्ञान में, किसी एक वस्तु का किसी दूसरी वस्तु को केन्द्र मानकर उसके चारों ओर घूमना या चक्कर लगाना। (रोटेशन) जैसे—चंद्रमा पृथ्वी का और पृथ्वी सूर्य का परिभ्रमण करता है। ३. घेरा। परिधि।
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परिभ्रष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√भ्रंश+क्त] १. गिरा हुआ। च्युत। पतित। २. स्खलित। भागा हुआ।
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परिभ्रामी (मिन्)  : वि० [सं० परि√भ्रम्+णिनि] परिभ्रमण करनेवाला।
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परिमंडल  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिमंडलता] १. गोल। वर्तुलाकार। २. जो तौल में एक परमाणु के बराबर हो। पुं० १. चक्कर। २. घेरा। विशेषतः वृत्ताकार घेरा। परिधि। ३. एक तरह का जहरीला कीड़ा। ३. चंद्रमा अथवा सूर्य के चारों ओर की प्रकाशमान वृत्ताकार रेखा। ४. चंद्रमा या सूर्य का प्रभामंडल। (कारोना)
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परिमंडल कुष्ठ  : पुं० [सं० कर्म० स०] कुष्ठ का एक भेद।
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परिमंडलता  : स्त्री० [सं० परिमंडल+तल्+टाप्] गोलाई।
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परिमंडलित  : भू० कृ० [सं० परिमंडल+इतच्] चारों ओर से गोल किया हुआ। गोलाकृति बनाया हुआ।
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परिमंथर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक मंथर।
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परिमंद  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अत्यधिक मंद बुद्धि। २. बहुत ही शिथिल या सुस्त।
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परिमन्यु  : वि० [सं० अत्या० स०] जिसे बहुत अधिक क्रोध आता हो। क्रोधी स्वभाव का। गुस्सेवर।
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परिमर  : पुं० [सं० परि√मृ (मरना)+अप्] १. पूर्ण नाश। २. किसी के पूर्ण नाश के लिए किया जानेवाला एक तांत्रिक प्रयोग। ३. वायु।
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परिमर्द्द  : पुं० [सं० परि√मृद् (मर्दन)+घञ्] बहुत अधिक या अच्छी तरह से किया जानेवाला मर्दन।
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परिमर्श  : पुं० [सं० परि√मृद् (छूना, विचारना)+घञ्] १. छू जाना। लग जाना। २. लगाव होना। ३. अच्छी तरह किया जानेवाला विचार। परामर्श।
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परिमर्ष  : पुं० [सं० परि√मृष् (सहना)+घञ्] १. ईर्ष्या। २. कुढ़न। ३. क्रोध।
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परिमल  : पुं० [सं० परि√मल् (धारण)+अच्] १. अच्छी तरह मलना। २. शरीर में सुगंधित द्रव्य मलना या लगाना। ३. उक्त प्रकार से शरीर में मले या लगाये हुए पदार्थों से निकलनेवाली सुगंध। ४. खुशबू। सुगंध। सुवास। ५. पुष्पों आदि से निकलनेवाली वह सुगंध जो चारों ओर दूर तक फैलती हो। ६. मैथुन। संभोग। ६. पंडितों या विद्वानों की मंडली या समुदाय।
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परिमलज  : वि० [सं० परिमल√जन् (उत्पन्न होना)+ ड] परिमल अर्थात् मैथुन से प्राप्त होनेवाला (सुख)।
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परिमलित  : भू० कृ० [सं० परिमल+इतच्] फूलों आदि की सुगंध से सुगंधित किया हुआ।
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परिमा  : स्त्री० [सं० परि√मा (मापना)+अङ्+टाप्] १. सीमा। हद। २. ज्यामिति में, किसी क्षेत्र की सीमा सूचित करनेवाली रेखा। (बाउंड)
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परिमाण  : पुं० [सं० परि√मा+ल्युट्—अन] १. गिनने, तौलने, मापने आदि पर प्राप्त होनेवाला फल। २. नाप, जोख तौल आदि की दृष्टि से किसी वस्तु की लंबाई, चौड़ाई, भार, घनत्व विस्तार आदि। मान। (क्वान्टिटी) ३. चारों ओर का विस्तार। घेरा।
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परिमाणक  : पुं० [सं० परिमाण+कन्] १. परिमाण। २. तौल। भार।
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परिमाण-मंडल  : पुं० [सं०] भूगर्भ-शास्त्र में पृथ्वी के तीन मुख्य पटलों या विभागों में बीच का पटल या विभाग जो अनेक प्रकार की धातु-मिश्रित चट्टानों का बना हुआ गरम और ठोस है और जिसके ऊपरी पटल पर मनुष्य बसते और वनस्पतियाँ उगती हैं। (बैरिस्फीयर)
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परिमाणी (णिन्)  : वि० [सं० परिमाण+इनि] परिमाण युक्त। परिमाण विशिष्ट।
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परिमाता (तृ)  : वि० [सं० परि√मा+तृच्] परिमाण का पता लगानेवाला। परिमाण स्थिर करनेवाला।
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परिमाथी (थिन्)  : वि० [सं० परि√मथ् (मथना)+ णिनि] कष्ट देनेवाला।
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परिमान  : पुं०=परिमाण।
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परिमाप  : पुं० [सं० परि√मा+णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] १. मापने या नापने की क्रिया या भाव। २. लंबाई, चौड़ाई की नाप या लेखा। (डाइमेंशन) ३. वह उपकरण जिससे कोई चीज मापी या नापी जाय। (स्केल) ४. ज्यामिति में किसी आकृति, क्षेत्र या तल को चारों ओर से घेरनेवाली बाहरी रेखा अथवा ऐसी रेखा की लंबाई या विस्तार। (परिमीटर)
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परिमार्ग  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी चीज के चारों ओर बना हुआ पथ या मार्ग। परिपथ।
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परिमार्गन  : पुं० [सं० परि√मार्ग (खोजना)+ल्युट्—अन ] १. टोह या पता लगाने के लिए चारों ओर जाना। २. अन्वेषण। ३. मन-बहलाव या सैर-सपाटे के लिए घूमना। (एक्सकर्शन)
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परिमार्गी (गिन्)  : वि० [सं० परि√मार्ग+णिनि] टोह या पता लगाने वाला।
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परिमार्जक  : वि० [सं० परि√मृज् (शुद्धि करना)+ ण्वुल्—अक] परिमार्जन करनेवाला।
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परिमार्जन  : पुं० [सं० परि√मृज्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिमार्जित] १. साफ करने के लिए अच्छी तरह धोना। २. अच्छी तरह साफ करना। ३. साहित्य में, उनकी त्रुटियों, कमियों आदि को दूर करना और इस प्रकार उन्हें उज्जवल बनाना। ४. भूलें आदि सुधारना। ५. प्राचीन भारत में एक प्रकार की मिठाई जो शहद में पागकर बनाई जाती थी।
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परिमार्जित  : भू० कृ० [सं० परि√मृज्+णिच्+क्त] जिसका परिमार्जन किया गया हो या हुआ हो। स्वच्छ किया या सुधारा हुआ।
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परिमित  : वि० [सं० परि√मा+क्त] [भाव० परिमिति] १. जो मापा जा चुका हो। २. परिमाण या मात्रा में जो किसी विशिष्ट विंदु, संख्या आदि से कम हो, कम किया गया हो अथवा उससे अधिक न बढ़ सकता हो। (लिमिटेड)
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परिमितकथी (थिन्)  : वि० [सं० परिमित√कथ् (कहना)+णिनि] कम बोलनेवाला। नपे-तुले शब्द या बातें कहनेवाला। अल्प-भाषी।
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परिमितायु (स्)  : वि० [सं० परिमित-आयुस्, ब० स० ] जिसकी आयु परिमिति अर्थात् थोड़ी हो।
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परिमिताहार  : पुं० [सं० परिमिति-आहार, ब० स०] अल्प भोजन। कम खाना। वि० कम भोजन करनेवाला। अल्पाहारी।
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परिमिति  : स्त्री० [सं० परि√मा+क्तिन्] १. परिमिति होने की अवस्था या भाव। २. परिमाण। ३. सीमा। हद। ४. क्षितिज। ५. प्रतिष्ठा। मर्यादा।
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परिमिलन  : पुं० [सं० परि√मिल् (मिलना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिमिलित] १. मिलन। २. संपर्क। ३. स्पर्श। ४. संयोग।
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परिमीठ  : भू० कृ० [सं० परि√मिह् (सींचना)+क्त] मूत्र से सिक्त।
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परिमुक्त  : वि० [सं० परि√मुच् (छोड़ना)+क्त] [भाव० परिमुक्ति] बिलकुल स्वतन्त्र।
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परिमृज्य  : वि० [सं० परि√मृज्+क्विप्] १. परिमार्जित किये जाने के योग्य। २. जिसका परिमार्जन होने को हो।
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परिमृष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√मृज् (शुद्ध करना)+क्त] १. धोया हुआ। २. साफ किया हुआ। ३. अधिकार में किया या लिया हुआ। अधिकृत। ४. (व्यक्ति) जिससे परामर्श किया गया हो। ५. (विषय) जिसके संबंध में परामर्श हो चुका हो। ६. आलिंगित।
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परिमृष्टि  : स्त्री० [सं० परिमृज्+क्तिन्] परिमृष्ट होने की अवस्था या भाव।
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परिमेय  : वि० [सं० परि√मा+यत्] १. जिसका परिमाण जाना जा सके अथवा जाना जाने को हो। २. घनत्व, मान, विस्तार, संख्या आदि में कम।
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परिमोक्ष  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूर्ण मोक्ष। निर्वाण। २. परित्याग। छोड़ना। ३. सब को मोक्ष देनेवाले, विष्णु। ४. मल-त्याग करना। हगना।
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परिमोक्षण  : पुं० [सं० परि√मोक्ष (छोड़ना)+ल्युट्—अन ] १. मुक्त करना या होना। २. मुक्ति या मोक्ष देना। ३. परित्याग करना। छोड़ना। ४. मल-त्याग करना। हगना। ५. हठयोग की भाँति धौति क्रिया से आँतें साफ करना।
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परिमोष  : पुं० [सं० परि√मुष् (चोरी करना)+घञ्] १. चोरी। २. डाका।
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परिमोषक  : पुं० [सं० परि√मुष्+ण्वुल्—अक] १. चोर। डाकू।
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परिमोषण  : पुं० [सं० परि√मुष्+ल्युट्—अन] चुराने या डाका डालने का काम। किसी को मूसना; अर्थात् उसका सब-कुछ ले लेना।
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परिमोषी (षिन्)  : पुं० [सं० परि√मुष्+णिनि] १. चोर। २. डाकू।
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परिमोहन  : पुं० [सं० प्रा० स०] सम्मोहन। (दे०)
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परिम्लान  : वि० [सं० प्रा० स०] १. कुम्हलाया या मुरझाया हुआ। २. निस्तेज। हतप्रभ।
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परियंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परियंत  : अव्य०=पर्यंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परियज्ञ  : पुं० [सं० ब० स०] किसी बड़े यज्ञ के पहले या पीछे किया जानेवाला छोटा यज्ञ
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परियत्त  : भू० कृ० [सं० परि√यत् (प्रयत्न)+क्त] चारों ओर से घिरा हुआ।
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परियष्टा (ष्टृ)  : पुं० [सं० परि√यज् (देवपूजन)+तृच्] अपने बड़े भाई से पहले सोम-याग करनेवाला व्यक्ति।
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परिया  : पुं० [तामिल परेंयान] दक्षिण भारत की एक प्राचीन अछूत या अस्पृश्य जाति। वि० १. अछूत। अस्पृश्य। २. क्षुद्र। तुच्छ। स्त्री० [देश०] वे लकड़ियाँ जिससे ताना ताना जाता है।
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परियाण  : पुं० [सं० परि√या (जाना)+ल्युट्—अन] १ चारों ओर घूमना। २. पर्यटन।
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परियाणिक  : पुं० [सं० परियाण+ठन्—इक्] १. वह जो परियाण या पर्यटन कर रहा हो। २. वह गाड़ी जिस पर बैठकर घूमा-फिरा जाता हो।
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परियात  : वि० [सं० परि√या+क्त] १. जो घूम-फिरकर लौट आया हो।
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परियाना  : अ० [सं० प्र-याति] जाना। उदा०—केन कार्य परियासि कुत्र।—प्रिथीराज। स० [?] अलग अलग करना। छाँटना।
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परियार  : पुं० [देश०] बिहारी शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की एक उपजाति। २. मदरास में बसनेवाली एक छोटी जाति।
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परियुक्ति  : स्त्री० [सं० परि√युज् (लगाना)+क्तिन्] १. काम, बात, समय आदि निश्चित या नियत करने अथवा इनके लिए किसी व्यक्ति को नियत या नियुक्त करने की क्रिया या भाव। २. वह स्थिति जिसमें किसी काम या बात के लिए कोई किसी से वचन-बद्ध हो। ठहराव। (एंगेजमेंट)
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परियुद्धक  : पुं० [सं०] युद्ध-काल में वह देस जो अपने हितों के रक्षार्थ दूसरे देश या देशों से लड़ रहा हो। (बेलीगरेन्ट)
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परियोजना  : स्त्री० [सं०] कार्य-रूप में लायी जानेवाली योजना के संबंध में नियमित और व्यवस्तिति रूप से स्थिर किया हुआ विचार और स्वरूप। (स्कीम)
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परिरंभ, परिरंभण  : पुं० [सं० परि√रभ् (मलना)+घञ्, मुम्] [सं० परि√रभ्+ल्युट्—अन] [वि० परिरंभित, परिरंभी] अच्छी तरह से गले लगाना। कसकर गले मिलना। गाढ़ अलिंगन।
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परिरंभना  : स० [सं० परिरंभ+ना (प्रत्य०)] किसी को गले से लगाना। आलिंगन करना।
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परिरक्षक  : वि० [सं० परि√रक्ष् (बचाना)+ण्वुल्—अक] जो सब ओर से रक्षा करता हो। हर तरफ से बचानेवाला।
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परिरक्षण  : पुं० [सं० परि√रक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिरक्षित] हर तरह से रक्षा करना।
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परिरथ्या  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] चौड़ा रास्ता जिस पर रथ चलते थे।
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परिरब्ध  : वि० [सं० परि√रभू+क्त] १. घिरा हुआ। गले लगाया हुआ।
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परिरमित  : वि० [सं० परिरत] (काम, क्रीड़ा आदि में) लीन।
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परिराटी (टिन्)  : वि० [सं० परि√रट् (रटना)+घिनुण्] १. चीखने-चिल्लानेवाला। २. कर्कश ध्वनि करनेवाला।
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परिरूप  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. कला, शिल्प आदि के क्षेत्र में, वह कलापूर्ण रेखा-चित्र जिसे आधार मानकर तथा जिसके अनुकरण पर कोई काम किया या रचना खड़ी की जाय। भाँत। २. उक्त के अनुकरण पर बनी हुई चीज। (डिज़ाइन, उक्त दोनों अर्थों में) जैसे—शहरों में कपड़ों और मकानों के नये-नये परिरूप देखने में आते हैं।
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परिरूपक  : पुं० [सं० परि√रूप् (रूपान्वित करना)+ णिच्+ण्वुल्—अक] वह शिल्पी जो विभिन्न वस्तुओं के नये-नये परिरूप बनाता हो। (डिज़ाइनर)
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परिरेखा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी तिकोने, चौकोर अथवा बहुभुजी क्षेत्र के सब ओर पड़नेवाली रेखा। (पेरिफेरी) जैसे—किसी टापू या पहाड़ की परिरेखा।
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परिरोध  : पुं० [सं० परि√रुध् (रोकना)+घञ्] चारों ओर से छेंकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिलंघन  : पुं० [सं० परि√लङ्घ (लाँघना)+ल्युट्—अन] लाँघना।
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परिलघु  : वि० [सं० अत्या० स०] १. बहुत छोटा। २. बहुत जल्दी पचनेवाला। लघुपाक।
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परिलिखन  : पुं० [सं० परि√लिख् (लिखना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिलिखित] घिस या रगड़ कर किसी चीज को चिकना बनाना।
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परिलिखित  : भू० कृ० [सं० परि√लिख्+क्त] घिस या रगड़कर चिकना किया हुआ।
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परिलीढ़  : भू० कृ० [सं० परि√लिह् (चाटना)+क्त] अच्छी तरह चाटा हुआ
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परिलुप्त  : भू० कृ० [स० परि√लुप् (काटना)+क्त] १. जो लुप्त हो चुका हो। खोया हुआ। २. क्षतिग्रस्त।
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परिलुप्त-संज्ञ  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी संज्ञा न रह गई हो। बेहोश।
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परिंलूत  : भू० कृ० [सं० परि√लू+क्त] कटा अथवा काटकर अलग किया हुआ।
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परिलेख  : पुं० [सं० परि√लिख्+घञ्] १. चित्र का ढाँचा। रेखा-चित्र। खाका। २. चित्र। तसवीर। ३. चित्र अंकित करने की कूँची या कलम। ४. उल्लेख। वर्णन। ५. बड़े अधिकारियों के पास भेजा जानेवाला विवरण। (रिटर्न)
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परिलेखन  : पुं० [सं० परि√लिख्+ल्युट्—अन] १. किसी वस्तु के चारों ओर रेखाएँ बनाना। २. लिखना। ३. चित्र अंकित करना।
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परिलेखना  : स० [सं० परिलेख] कुछ महत्त्व का मानना या समझना। किसी लेखे में गिनना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिलेही (हिन्)  : पुं० [सं० परि√लिह्+णिनि] एक रोग जिसमें कान की लोलक पर फुंसियाँ निकल आती हैं।
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परिलोप  : पुं० [सं० परि√लुप् (छेदन)+घञ्] १. लुप्त हो जाना। २. क्षति। हानि। ३. विनाश। विलोप।
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परिवंचन  : पुं० [सं० परि√वञ्च् (ठगना)+ल्युट्—अन] धोखा देना ठगना।
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परिवक्रा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वृत्ताकार गड्ढा।
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परिवत्सर  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. आदि से अंत तक का पूरा वर्ष या साल। २. ज्योतिष के पाँच विशेष संवत्सरों में से एक जिसका अधिपति सूर्य होता है।
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परिवत्सरीय  : वि० [सं० परिवत्सर+छ—ईय] परिवत्सर-संबंधी।
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परिवदन  : पुं० [सं० परि√वद् (बोलना)+ल्युट्—अन] दूसरे की की जानेवाली निंदा या बुराई।
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परिवपन  : पुं० [सं० परि√वप् (काटना)+ल्युट्—अन] १. कतरना। २. मूँड़ना।
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परिवर्जन  : पुं० [सं० परि√वृज् (निषेध)+ल्युट्—अन] [वि० परिवर्जनीय, भू० कृ० परिवर्जित] परित्याग करना। त्यागना। छोड़ना। तजना। २. मार डालना। वध या हत्या करना।
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परिवर्जनीय  : वि० [सं० परिवृज+अनीयर्] परित्याज्य।
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परिवर्जित  : भू० कृ० [सं० परि√वृज्+णिच्+क्त] जिसका परिवर्जन हुआ हो। त्यागा हुआ।
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परिवर्णी  : वि० [सं० परिवर्ण+हिं० ई (प्रत्य०)] (शब्द) जो कई शब्दों के आरंभिक वर्णों या अक्षरों के योग से अथवा कुछ शब्दों के आरंभिक तथा कुछ शब्दों के अंतिम वर्णों या अक्षरों के योग से बना हो। (ऐक्रास्टिक) जैसे—भारतीय+युरोपीय के योग से ‘भारोपीय’ अथवा चानव और जेहलम (झेलम) नदियों के बीचवाले प्रदेश का नाम ‘चज’ परिवर्णीशब्द है। इसी प्रकार चांद्रमास के पक्षों के ‘बदी’ (देखें) और ‘सुदी’ (देखें) भी परिवर्णी शब्द हैं।
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परिवर्त  : पुं० [सं० परि√वृत् (बरतना)+घञ्] १. घुमाव। चक्कर। फेरा। २. अदला-बदली। विनिमय। ३. वह चीज जो किसी दूसरी चीज के बदले में दी या ली जाय। ४. किसी काल या युग का अंत होना या बीतना। ५. ग्रंथ का अध्याय या परिच्छेद। ६. संगीत में स्वर-साधन की एक प्रणाली।
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परिवर्तक  : वि० [सं० परि√वृत्+णिच्+ण्वुल्—अक] घूमनेवाला। चक्कर खानेवाला। वि० [सं० परि√वृत्+णिच्+ण्वुल्] १. घुमानेवाला। फिरानेवाला। चक्कर देनेवाला। २. अदला-बदली या विनिमय करनेवाला। ३. किसी प्रकार का परिवर्तन करनेवाला। ४. युग का अंत करनेवाला। पुं० मृत्यु के पुत्र दुस्साह का एक पुत्र।
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परिवर्तन  : पुं० [सं० परि√वृत्+ल्युट्—अन] [वि० परिवर्तनीय, परिवर्तित, परिवर्ती] १. इधर-उधर घूमना-फिरना। २. चक्कर या फेरा लगाना। घुमाव। चक्कर फेरा। ४. किसी काल या युग का अंत या समाप्ति। ५. एक चीज के बदले में दूसरी चीज देना। विशेषतः किसी की पसंद या सुभीते की चीज उसे देकर उसके बदले में अपनी पसंद या सुभीते की चीज लेना। (कम्यूटेशन) जैसे—नोटों का रुपये में और रुपये का रेजगी में परिवर्तन। ६. वह चीज जो इस प्रकार बदले में दी या ली जाय। ६. किसी की आकृति, गुण, रूप, स्थिति आदि में होनेवाला फेर-फार, सुधार, ह्रास आदि। जैसे—रंग, स्वास्थ्य या हृदय का परिवर्तन। ८. वह क्रिया जो किसी चीज या बात का रूप बदलने अथवा उसे नया रूप देने के लिए की जाय। (चेंज) ९. एक के स्थान पर दूसरे के आने का भाव। जैसे—ऋतु का परिवर्तन, पहनावे का परिवर्तन। १॰. भारतीय युद्ध-कला में शत्रु पर प्रहार करने के लिए उसके चारों ओर घूमना।
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परिवर्तनीय  : वि० [सं० परि√वृत्+अनीयर्] जिसमें परिवर्तन किया जाने को हो।
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परिवर्तिका  : स्त्री० [सं० परि√वृत्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसमें अधिक खुजलाने, दबाने या चोट लगने के कारण लिंगचर्म उलट कर सूज जाता है।
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परिवर्तित  : भू० कृ० [सं० परि√वृत्+णिच्+क्त] १. जिसमें परिवर्तन किया गया हो या हुआ हो। जिसका आकार या रूप बदला गया हो। बदला हुआ। रूपांतरित। २. जो किसी के परिवर्तन या बदले में मिला हो।
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परिवर्तिनी  : स्त्री० [सं० परिवर्तिन्+ङीप्] भादों के शुक्ल पक्ष की एकादशी।
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परिवर्ती (र्तिन्)  : [सं० परि√वृत्+णिनि] १. बराबर घूमता रहनेवाला। २. जिसमें परिवर्तन या फेर-बदल होता रहता हो। बराबर बदलता रहनेवाला। परिवर्तनशील। ३. परिवर्तन या विनिमय करनेवाला।
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परिवर्तुल  : वि० [सं० प्रा० स०] ठीक और पूरा गोल या वर्त्तुल।
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परिवर्त्यता  : स्त्री० [सं०] परिवर्त्य होने की अवस्था, गुण या भाव।
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परिवर्द्धन  : पुं० [सं० परि√वृध् (बढ़ना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवर्द्धित] १. आकार-प्रकार, विषय-वस्तु आदि में की जानेवाली वृद्धि। (एनलार्जमेंट) जैसे—पुस्तक का परिवर्द्धन। २. इस प्रकार बढ़ाया हुआ अंश। ३. जोड़।
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परिवर्द्धित  : भू० कृ० [सं० परि√वर्ध्+णिच्+क्त] जिसका परिवर्द्धन किया गया हो या हुआ हो। बढ़ा या बढ़ाया हुआ। (एनालार्जड)
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परिवर्म (वर्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] वर्म से ढका हुआ। बख्तर से ढका हुआ। जिरहपोश।
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परिवर्ष  : पुं० [सं०] उतना समय जितना किसी एक ग्रह को रवि-बीच से चलकर फिर दोबारा वहाँ तक पहुँचने में लगता है। (अनोमेलस्टिक ईयर)
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परिवर्ह  : पुं० [सं० परि√वर्ह (उत्कर्ष)+घञ्] १. चँवर, छत्र आदि राजत्व की सूचक वस्तुएँ। २. राजाओं के दास आदि। ३. घर, कमरे आदि को सजाने के लिए उसमें रखी जानेवाली वस्तुएँ। सजावट की चीजें। ४. गृहस्थी में काम आनेवाली वस्तुएँ। ५. सम्पत्ति।
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परिवर्हण  : पुं० [सं० परि √वर्ह+ल्युट्—अन] १. अनुचर वर्ग। २. वेश-भूषा। पोशाक। ३. वृद्धि। ४. पूजा।
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परिवसथ  : पुं० [सं० परि√वस् (बसना)+अथच्] गाँव। ग्राम।
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परिवह  : पुं० [सं० परि√वह् (बहना)+अच्] १. सात पवनों में से छठा पवन; जो आकाश गंगा, सप्तऋषियों आदि को वहन करता है। २. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक जिह्वा की संज्ञा।
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परिवहन  : पुं० [सं० परि√वह्+ल्युट्—अन] माल, यात्रियों आदि को एक स्थान से ढोकर दूसरे स्थान पर ले जाने का कार्य, जो आज-कल रेलों, मोटरों, जहाजों, नावों आदि अनेक साधनों द्वारा किया जाता है। (ट्रान्सपोर्ट)
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परिवहन तंत्र  : पुं० [सं०] दे० ‘रक्तवह-तंत्र।
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परिवाँण  : पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवा  : स्त्री०=प्रतिपदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवाद  : पुं० [सं० परि√वद् (बोलना)+घञ्] १. निंदा। बुराई। शिकायत। २. बदनामी। ३. झूठी निन्दा या शिकायत। मिथ्या दोषारोपण। ४. कोई असुविधा या कष्ट होने पर अधिकारियों के सामने की जानेवाली किसी काम, बात, व्यक्ति आदि की शिकायत। (कम्पलेन्ट) ५. लोहे के तारों का वह छल्ला जिसे उँगली पर पहनकर वीणा, सितार आदि बजाई जाती है। मिजराब।
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परिवादक  : वि० [सं० परि√वद्+ण्वुल्—अक] १. परिवाद या निंदा करनेवाला। निंदक। २. शिकायत करनेवाला। पुं० वह जो वीणा, सितार या इसी तरह का और कोई बाजा बजाता हो।
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परिवादिनी  : स्त्री० [सं० परिवादिन्+ङीष्] एक तरह की वीणा जिसमें सात तार होते हैं।
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परिवादी (दिन्)  : वि० [सं० परि√वद्+णिनि]= परिवादक।
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परिवान  : पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवानना  : स० [सं० प्रमाण] प्रमाण के रूप में या ठीक मानना।
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परिवाप  : पुं० [सं० परि√वप् (काटना)+घञ्] १. बाल आदि मूँड़ना। २. बोना। ३. जलाशय। ४. घर का उपयोगी सामान। ५. अनुचरवर्ग। ६. भूना हुआ चावल। लावा। फरुही। ६. छेना।
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परिवापित  : भू० कृ० [सं० परि√वप्+णिच्+क्त] मूँड़ा हुआ। मुंडित।
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परिवार  : पुं० [सं० परि√वृ (ढकना)+घञ्] १. एक ही पूर्व पुरुष के वंशज। २. एक घर में और विशेषतः एक कर्ता के अधीन या संरक्षण में रहनेवाले लोग। ३. किसी विशिष्ट गुण, संबंध आदि के विचार से चीजों का बननेवाला वर्ग। जैसे—आर्य-भाषाओं का परिवार। (फेमिली) ४. किसी राजा, रईस आदि के आगे-पीछे चलने या साथ रहनेवाले लोग।
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परिवारण  : पुं० [सं० परि√वृ+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिवारित] १. ढकने या छिपाने की क्रिया। २. आवरण। आच्छादन। ३. तलवार की म्यान। कोष।
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परिवार नियोजन  : पुं० [सं०] आज-कल देश अथवा संसार की दिन पर दिन बढ़ती हुई जन-संख्या को नियंत्रित करने या सीमित रखने के उद्देश्य से गार्हस्थ जीवन के संबंध में की जानेवाली वह योजना जिससे लोग आवश्यकता अथवा औचित्य से अधिक संतान उत्पन्न न करें। (फैमिली प्लानिंग)
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परिवारित  : भू० कृ० [सं० परि√वृ+णिच्+क्त] घिरा या घेरा हुआ। आवेष्टित।
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परिवारी  : पुं० [सं० परिवार] १. परिवार के लोग। २. नाते-रिश्ते के लोग। वि० पारिवारिक।
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परिवार्षिक  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो पूरे वर्ष भर चलता या होता रहे। जैसे—परिवार्षिक नाला—ऐसा नाला जो बराबर बहता रहे, गरमियों में सूख न जाय; परिवार्षिक वृक्ष=ऐसा वृक्ष जो बराबर हरा रहता हो, और जिसके पत्ते किसी ऋतु में झड़ते न हों। २. बराबर या बहुत दिन तक स्थायी रूप से बना रहनेवाला। (पेरीनियल)
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परिवास  : पुं० [सं० परि√वस्+घञ्] १. टिकना। ठहरना। २. घर। मकान। ३. खुशबू। सुगन्ध। ४. संघ से किसी भिक्षु का होनेवाला बहिष्करण। (बौद्ध)
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परिवासन  : पुं० [सं० परि√वस्+णिच्+ल्युट्—अन] खंड। टुकड़ा।
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परिवाह  : पुं० [सं० परि√वह् (बहना)+घञ्] १. ऐसा बहाव जिसके कारण पानी ताल, तालाब आदि की समाई से अधिक हो जाता हो। पानी का खूब भर जाने के कारण बाँध, मेंड़ आदि के ऊपर से होकर बहना। २. वह नाली जिसके द्वारा आवश्यकता से अधिक पानी बाहर निकलता या निकाला जाता हो। जल की निकासी का मार्ग। ३. किसी प्रदेश की ऐसी नदियों की व्यवस्था जिनमें नावों आदि से माल भेजे जाते हों।
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परिवाही (हिन्)  : वि० [सं० परि√वह+णिनि] [स्त्री० परिवाहिनी] (तरल पदार्थ) जो आधान या पात्र में या किनारों पर से इधर-उधर भर जाने पर ऊपर से बहता हो।
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परिविंदक  : पुं० [सं० परि√विद् (प्राप्त करना)+ण्वुल—अक, नुम्] वह व्यक्ति जो बड़े भाई का विवाह होने से पहले अपना विवाह कर ले। परवेत्ता।
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परिविंदत्  : पुं० [परि√विन्द्+शतृ, नुम्] परिविंदक। (दे०)
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परिविण्ण (न्न)  : पुं० [सं० परि√विन्द् (लाभ)+क्त]= परिवित्त।
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परिवितर्क  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. विचार। २. परीक्षा। (बौद्ध)
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परिवित्त  : पुं० [सं० परि√विद्+क्तिन्] परिविंदक। (दे०)
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परिवित्ति  : पुं० [सं० परि√विद्+क्तिन्] परिवित्त। परिविंदक।
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परिविद्ध  : वि० [सं० परि√व्यध् (बेधना)+क्त] भली भाँति या चारों ओर से बिधा हुआ। पुं० कुबेर।
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परिविविदान  : पुं० [सं० परि√विद्+लिट्+कानच्] परिविंदक। (दे०)
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परिविष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√विष् (व्याप्ति)+क्त] [भाव० परिविष्टि] १. घिरा अथवा घेरा हुआ। २. परोसा हुआ (भोजन)।
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परिविष्टि  : स्त्री० [सं० परि√विष्+क्तिन्] घेरा। वेष्टन। २. सेवा। टहल। ३. भोजन परोसना।
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परिविहार  : पुं० [सं० प्रा० स०] जी भरकर या भली-भाँति किया जानेवाला विहार।
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परिवीक्षण  : पुं० [सं० परि-वि√ईक्ष् (देखना)—ल्युट्—अन] १. भली भाँति देखना। २. चारों ओर ध्यानपूर्वक देखना।
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परिवीजित  : वि० [सं० परि√वीज् (पंखा झलना)+क्त] जिस पर पंखे से हवा की गई हो।
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परिवीत  : भू० कृ० [सं० परि√व्य (बुनना)+क्त] १. घिरा हुआ। लपेटा हुआ। २. छिपाया हुआ। ३. ढका हुआ। आच्छादित।
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परिवृत्त  : वि० [सं० परि√वृ+क्त] १. घेरा, छिपाया या ढका हुआ। २. उलटा-पुलटा हुआ। पुं० कार्य, घटना आदि के संबंध में, दूसरों की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया जानेवाला संक्षिप्त विवरण। (स्टेटमेंट)
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परिवृत्ति  : स्त्री० [सं० परि√वृ+क्तिन्] १. ढकने, घेरने या छिपाने वाली वस्तु। घेरा। वेष्टन। २. घुमाव। चक्कर। ३. विनिमय। ४. अंत। समाप्ति। ५. दोबारा कोई काम करने की क्रिया या भाव। ६. किसी के किये हुए काम को देखकर वैसा ही और कोई काम करना। ६. व्याकरण में, एक शब्द या पद को दूसरे ऐसे शब्द या पद से बदलना जिससे अर्थ वही बना रहे। जैसे—‘कमललोचन’ के ‘कमल’ के स्थान पर पद्म’ अथवा ‘लोचन के स्थान पर ‘नयन’ रखना। ८. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी को अनुपात में कम या सस्ती वस्तु देकर अधिक या महंगी वस्तु लेने का वर्णन होता है।
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परिवृद्ध  : वि० [सं० परि√वृध् (बढ़ना)+क्त] [भाव परिवद्धि] १. जिसका परिवर्द्धन हुआ हो। २. चारों ओर से बढ़ा हुआ।
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परिवृद्धि  : स्त्री० [सं० परि√वृध्+क्तिन्] परिवृद्ध होने की अवस्था या भाव।
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परिवेता (तृ)  : पुं० [सं० परि√विद्+तृच्] परिविंदक। (दे०)
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परिवेद  : पुं० [सं० परि√विद्+घञ्] १. पूर्ण ज्ञान। २. अनेक विषयों की होनेवाली जानकारी। ३. परिवेदन।
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परिवेदन  : पुं० [सं० परि√विद्+ल्युट्—अन] १. पूर्ण ज्ञान। परिवेद। २. बड़े भाई के विवाह से पहले छोटे भाई का होनेवाला विवाह। ३. विवाह। शादी। ४. उपस्थिति। विद्यमानता। ५. प्राप्ति। लाभ। ६. वाद-विवाद। बहस। ६. कष्ट। विपत्ति।
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परिवेदना  : स्त्री० [सं० परि√विद् (ज्ञान)+णिच्+युच्—अन, टाप्] १. पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की विवेक-शक्ति। २. चतुराई।
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परिवेदनीया  : स्त्री० [सं० परि√विद्+अनीयर्+टाप्] परिविंदक की पत्नी। आविवाहित व्यक्ति की अनुज वधू।
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परिवेदिनी  : स्त्री० [सं० परिवेद+इनि—ङीष्]=परिवेदनीया।
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परिवेध  : पुं० [सं० परि√विध्+घञ्] १. प्रायः दो चीजों को जोड़ने के लिए उनमें किया जानेवाला ऐसा छेद जिसमें कील, पेच आदि लगाये अथवा चूल कसी जाती है। ३. इस प्रकार का बनाया जानेवाला छेद। (बोर)
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परिवेधन  : पुं० [परि√विध्+ल्युट्] परिवेध करने की क्रिया या भाव। (बोरिंग)
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परिवेश  : पुं० [सं० परि√विश् (प्रवेश)+घिञ्] १. वेष्टन। परिधि। घेरा। २. बदली के समय सूर्य या चंद्रमा के चारों ओर दिखाई देनेवाला घेरा। ३. प्रकाशमान पिंडों के चारों ओर कुछ दूरी तक दिखाई देनेवाला प्रकाश जो मंडलाकार होता है। ४. तेजस्वी पुरुषों, देवताओं आदि के चित्रों में उनके मुखमंडल के चारों ओर दिखलाया जानेवाला प्रकाशमान घेरा। प्रभा-मंडल। भा-मंडल। (हेलो)
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परिवेष  : पुं० [सं० परि√विष् (व्यक्ति)+घञ्] १. भोजन परसना या परोसना। २. चारों ओर से घेरकर रक्षा करनेवाली रचना या वस्तु। ३. परकोटा। प्राचीर। ४. दे० ‘परिवेश’। ५. दे० ‘प्रभावमंडल’।
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परिवेषक  : पुं० [सं० परि√विष्+ण्वुल्—अक] वह व्यक्ति जो भोजन आदि परसता या परोसता हो।
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परिवेषण  : पुं० [सं० परि√विष्+ल्युट्—अन] १. भोजन आदि परसने या या परोसने का काम। २. घेरा। परिधि। ३. दे० ‘परिवेष’।
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परिवेष्टन  : पुं० [सं० परि√वेष्ट् (घेरना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवेष्टित] १. किसी चीज को घेरना अथवा उसके चारों ओर घेरा बनाना। २. घेरा। परिधि। ३. छिपाने या ढकनेवाली चीज। आच्छादन। आवरण।
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परिवेष्टा (ष्दृ)  : पुं० [सं० परि√विष्+तृच] परिवेषक। (दे०)
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परिवेष्टित  : भू० कृ० [सं० परि√वेष्ट्+क्त] १. जो चारों ओर से घिरा हुआ हो। २. ढका हुआ। आच्छादित।
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परिव्यक्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो अच्छी तरह से व्यक्त हो चुका हो।
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परिव्यय  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज के निर्माण में होनेवाला व्यय। २. वह मूल्य जिस पर बिक्री के लिए उत्पादित की हुई अथवा मँगाई हुई वस्तु का घर पर परता बैठता हो। (कॉस्ट) ३. मूल्य। ४. किसी चीज की मरम्मत आदि करने पर बदले में दिया जानेवाला धन। पारिश्रमिक। ५. शुल्क।
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परिव्ययनीय  : वि० [सं परि√व्यय् (खर्च करना)+ अनीयर्] जो परिव्यय के रूप में किसी से लिया या किसी को दिया जा सके। जिस पर परिव्यय जोड़ा या लगाया जा सके। (चार्जेबुल)
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परिव्याध  : वि० [सं० परि√व्यध् (ताड़ना)+ण] चारों ओर से बेधने या छेदनेवाला। पुं० १. जलबेंत। २. कनेर। ३. एक प्राचीन-ऋषि।
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परिव्याप्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] अच्छी तरह और सब अंगों या स्थानों में फैला या समाया हुआ।
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परिव्रज्या  : स्त्री० [सं० परि√व्रज् (जाना)+क्यप्, टाप्] १. इधर-उधर घूमना-फिरना। भ्रमण। २. तपस्या। ३. सदा घूमते-फिरते रहकर और भिक्षा माँग कर जीवन बिताने का नियम, वृत्ति या व्रत।
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परिव्राज (क)  : पुं० [सं० परि√व्रज्+घञ् (संज्ञा में), परि√व्रज्+ण्वुल्—अक] १. वह संन्यासी जो परिव्रज्या का व्रत ग्रहण करके सदा इधर-उधर भ्रमण करता रहे। २. संन्यासी। ३. बहुत बड़ा यती और परम हंस।
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परिव्राजी  : स्त्री० [सं० परि√व्रज्+णिच्+इन्, ङीष्] गोरखमुंडी। मुंड़ी।
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परिव्राट (ज्)  : पुं० [सं० परि√व्रज्+क्विप्] परिव्राजक। (दे०)
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परिशंकी (किन्)  : वि० [सं० पर√शंक (आशंका करना)+णिनि] अत्यधिक आशंका करने या सशंकित रहनेवाला।
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परिशयन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक सोना। २. कुछ पशुओं और जीव-जंतुओं की वह निद्रा या तंद्रा वाली निष्क्रिय अवस्था जिसमें वे जाड़े के दिनों में शीत के प्रभाव से बचने के लिए बिना कुछ खाये-पीये चुप-चाप एक जगह दबे-दबाये रहते हैं। (हाइबरनेशन)
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परिशिष्ट  : वि० [सं० परि√शिष् (बचना)+क्त] छूटा या बाकी बचा हुआ। अवशिष्ट। पुं० १. पुस्तकों आदि के अंत में दी जानेवाली वे बातें जो मूल में आने से रह गई हों, अथवा जो मूल में आई हुई बातों के स्पष्टीकरण के लिए हों। (एपेंडेक्स) २. अनुसूची। (दे०)
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परिशीलन  : पुं० [सं० परि√शील् (अभ्यास)+ल्युट्—अन] १. मननपूर्वक किया जानेवाला गंभीर अध्ययन। २. स्पर्श।
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परिशीलित  : भू० कृ० [सं० परि√शील्+क्त] (ग्रंथ या विषय) जिसका परिशीलन किया गया हो।
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परिशुद्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिशुद्धता, परिशुद्धि] १. बिलकुल शुद्ध। विशेषतः जिसमें किसी दूसरी चीज का कुछ भी मेल न हो। खरा। २. जिसमें कुछ भी कमी-बेशी या भूल-चूक न हो। बिलकुल ठीक। (एक्योरेट) ३. चुकता किया हुआ। ४. छोड़ा या बरी किया हुआ।
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परिशुद्धता  : स्त्री० [सं० परिशुद्ध+तल्+टाप्]=परिशुद्ध।
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परिशुद्धि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूर्ण शुद्धि। सम्यक् शुद्धि। २. किसी बात या विषय की वह स्थिति जिसमें किसी प्रकार की कमी-बेशी या कोई भूल-चूक न हो। (एक्योरेसी)। ३. छुटकारा। मुक्ति।
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परिशुष्क  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बिलकुल सूखा हुआ। २. अत्यंत रसहीन। ३. रसिकता आदि से बिलकुल रहित। पुं० तला हुआ मांस।
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परिशून्य  : वि० [सं० प्रा० स०] जो बिलकुल शून्य हो। पुं० विज्ञान में, वह स्थान जिसमें वायु आदि कुछ भी न हो या जिसमें वायु निकाल ली गई हो। (वायड)
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परिशेष  : वि० [सं० परि√शिष्+घञ्] [भाव० परिशेषण ] जो अब भी शेष हो। जो पूर्णतः अब भी नष्ट या समाप्त न हुआ हो। पुं० १. वह अंश या तत्त्व जो बाकी बच रहा हो। २. अंत। समाप्ति। ३. दे० ‘परिशिष्ट’।
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परिशोध  : पुं० [सं० परि√शुध् (शुद्ध करना)+घञ्] १. अच्छी तरह शुद्ध करना या बनाना। २. ऋण, देन आदि का चुकाया जाना। (रिपेमेंट) ३. किसी से चुकाया जानेवाला बदला। उपकार के बदले में किया जानेवाला अपकार। प्रतिशोध।
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परिशोधन  : पुं० [सं० परि√शुध्+ल्युट्—अन] [वि० परिशोधनीय, भू० कृ० परिशोधित] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज अच्छी तरह शुद्ध हो कर श्रेष्ठ अवस्था में आजा वे। (रेक्टिफिकशेन) २. ऋण देन आदि चुकता करने की क्रिया या भाव। ३. प्रतिशोधन।
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परिशोष  : पुं० [सं० परि√शुष् (सूखना)+घञ्] १. किसी चीज को अच्छी तरह से सुखाना। २. पूरी तरह से सूखे हुए होने की अवस्था या भाव।
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परिश्रम  : पुं० [सं० परि√श्रम् (आयास करना)+घञ्] कोई कठिन, बड़ा या दुस्साध्य काम करने के लिए विशेष रूप से तथा मन लगाकर किया जानेवाला मानसिक या शारीरिक श्रम। मेहनत।
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परिश्रमी (मिन्)  : वि० [सं० परिश्रम+इनि] १. जो परिश्रमपूर्वक कोई काम करता हो। २. हर काम अपनी पूरी शक्ति लगाकर करनेवाला। मेहनती।
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परिश्रय  : पुं० [सं० परि√श्रि (सेवन)+अच्] १. परिषद्। सभा। २. आश्रय या शरण-स्थल।
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परिश्रांत  : वि० [सं० परि√श्रम्+क्त] [भाव० परिश्रांति] बहुत अधिक थका हुआ। थका-माँदा।
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परिश्रांति  : स्त्री० [सं० परि√श्रम्+क्तिन्] परिश्रांत होने की अवस्था या भाव। बहुत अधिक थकावट।
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परिश्रित्  : वि० [सं० परि√श्रि+क्विप्] आश्रय देनेवाला। पुं० यज्ञ में काम आनेवाला पत्थर का एक विशिष्ट टुकड़ा।
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परिश्रुत  : वि० [सं० प्रा० स०] १. (बात आदि) जो ठीक प्रकार से या भली-भाँति सुनी गई हो। २. ख्यात। प्रसिद्ध।
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परिश्लेष  : पुं० [सं० परि√श्लिष् (आलिंगन करना)+घञ्] आलिंगन। गले लगाना।
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परिषक्त  : स्त्री०=परिषद्।
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परिषत्त्व  : पुं० [सं० परिषद्+त्व] परिषद् का भाव या धर्म।
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परिषद्  : स्त्री० [सं० परि√सद् (गति)+क्विप्] १. चारों ओर से घेर कर या घेरा बनाकर बैठाना। २. वैदिक युग में विद्वानों की वह सभा जो राजा किसी विषय पर व्यवस्था देने के लिए बुलाता था। ३. बौद्ध-काल में वह निर्वाचित राजकीय संस्था या सभा जो राज्य या शासन से संबंध रखनेवाली सब बातों पर विचार तथा निर्णय करती थी। विशेष—प्राचीन काल में परिषदें तीन प्रकार की होती थीं—(क) शिक्षा-संबंधी। (ख) सामाजिक गोष्ठी-सम्बन्धी। और (ग) राज-शासन-सम्बन्धी। ४. आधुनिक राजनीति विज्ञान में, निर्वाचित या मनोनीत विधायकों की वह सभा जो स्थायी या बहुत-कुछ स्थायी होती है। (काउंसिल) ५. सभा। जैसे—संगीत परिषद्।
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परिषद  : पुं० [सं० परि√सद्+अच्] १. सवारी या जुलूस में चलनेवाले वे अनुचर जो स्वामी को घेर कर चलते हैं। परिषद। २. दरबारी। मुसाहब। ३. सदस्य। सभासद। स्त्री०=परिषद्।
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परिषद्य  : पुं० [सं० परिषद्+यत्] १. परिषद् या सदस्य। २. सभासद। सदस्य। ३. दर्शक। प्रेक्षक।
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परिषद्वल  : पुं० [सं० परिषद्+वलच्] सभासद। सदस्य।
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परिषिक्त  : भू० कृ० [सं० परि√सिंच् (सींचना)+क्त] १. जो अच्छी तरह से सींचा गया हो। २. जिस पर छिड़काव हुआ हो।
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परिषीवण  : पुं० [सं० परि√सिव् (सीना)+ल्युट्—अन] १. चारों ओर से सीना। २. गाँठ लगाना। बाँधना।
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परिषेक  : पुं० [सं० परि√सिच्+घञ्] १. पानी से तर करने की क्रिया। सिंचाई। २. छिड़काव। ३. स्नान।
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परिषेचक  : वि० [सं० परि√सिच्+ण्वुल्—अक] १. सींचनेवाला। २. छिड़कनेवाला।
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परिषेचन  : पुं० [सं० परि√सिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिषिक्त] सींचना। छिड़कना।
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परिष्कंद  : पुं० [सं० परि√स्कन्द (गति)+घञ्] वह जिसका पालन-पोषण माता-पिता द्वारा नहीं बल्कि किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा हुआ हो।
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परिष्कर  : पुं० [सं० परि√कृ (करना)+अप्, सुट्] सजावट। सज्जा।
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परिष्करण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० परिष्कृत] परिष्कार करने अर्थात् साफ और सुंदर बनाने की क्रिया या भाव। (एम्बेलिशमेन्ट)
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परिष्करण शाला  : स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ खनिज, तैल, धातुएँ आदि परिष्कृत या साफ की जाती हैं। (रिफाइनरी)
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परिष्करणी  : स्त्री० [सं० परि√कृ+ल्युट्—अन, सुट्] वह कारखाना या स्थान जहाँ यंत्रों आदि की सहायता से तेलों, धातुओं आदि में की मैल निकालकर उन्हें परिष्कृत या साफ किया जाता हो। (रिफाइनरी)
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परिष्कार  : पुं० [सं० परि√कृ+घञ्, सुट्] [भू० कृ० परिष्कृत] १. अच्छी तरह ठीक और साफ करने की क्रिया या भाव। गंदगी, मिलावट, मैल आदि निकालकर किसी चीज को स्वच्छ बनाना। (रिफाइनिंग) २. त्रुटियाँ, दोष आदि दूर करके सुंदर, सुरुचिपूर्ण और स्वच्छ बनाना। (एम्बेलिशमेंट) ३. निर्मलता। स्वच्छता। ४. अलंकार। गहना। ५. शोभा। श्री। ६. बनाव-सिंगार। सजावट। ६. सजाने की सामग्री। उपस्कर। (फरनीचर) ८. संयम। (बौद्ध दर्शन)
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परिष्कृति  : स्त्री० [सं० परि√कृ+क्तिन्, सुट्] १. परिष्कृत होने की अवस्था, गुण या भाव। २. परिष्कार। ३. आचार-व्यवहार की वह उन्नत स्थिति जिसमें अशिष्ट, उद्धत, ग्राम्य, पुरुष, रुक्ष आदि बातों का अभाव और कोमल, नागर, विनम्र, शिष्ट तथा स्निग्ध तत्त्वों की अधिकता और प्रबलता होती है। (रिफाइनमेंट)
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परिष्क्रिया  : स्त्री० [सं० परि√कृ+सुट्,+टाप्] परिष्कार। (दे०)
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परिष्कृत  : भू० कृ० [सं० परि√कृ+क्त, सुट्] [भाव० परिष्कृति] १. जिसका परिष्कार किया गया हो। अच्छी तरह ठीक और साफ किया हुआ। २. सवाँरा या सजाया हुआ। अलंकृत। ४. सुधारा हुआ।
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परिष्कृति  : स्त्री० [सं० परि√कृ+क्तिन्, सुट्] परिष्कृत होने की अवस्था या भाव। परिष्कार।
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परिष्टवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] प्रशंसा। स्तुति।
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परिष्टोम  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. एक प्रकार का सामगान जिसमें ईश्वर की स्तुति होती है। २. घोडे, हाथी आदि की झूल।
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परिष्ठल  : पुं० [सं० परि-स्थल, प्रा० स०] आस-पास की भूमि।
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परिष्यंद  : पुं० [सं० परि√ष्यंद् (बहना)+घञ्, षत्व]= परिस्यंद।
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परिष्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० परिष्यंद+इनि] बहानेवाला।
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परिष्वंग  : पुं० [सं० परि√स्वञ्ज् (आलिंगन)+घञ्] गले लगाना। आलिंगन।
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परिष्वंजन  : पुं० [सं० परि√स्वञ्ज् (चिपकना)+ल्युट्—अन] [वि० परिष्वक्त] गले लगाना। आलिंगन।
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परिष्वक्त  : भू० कृ० [सं० परि√स्वञ्ज्+क्त] जिसे गले लगाया गया हो। आलिंगित।
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परिसंख्या  : स्त्री० [सं० परि-सम्√ख्या (प्रसिद्ध करना) +अङ्+टाप्] १. गणना। गिनती। २. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी स्थान में होनेवाली बात या वस्तु का प्रश्न या व्यंग्यपूर्वक निषेध करके अन्य स्थान पर प्रतिष्ठापन करने का वर्णन होता है। ३. कुछ स्थानों पर होनेवाली वस्तुओं के संबंध में यह कहना कि अब वे वहाँ नहीं रह गईं केवल अमुक जगह में रह गई हैं। जैसे—रामराज्य की प्रशंसा करते हुए यह कहना कि उसमें स्त्रियों के नेत्रों को छोड़कर कुटिलता और कहीं नहीं दिखाई देती थी।
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परिसंख्यान  : पुं० [सं० परि√सम्√ख्या+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिसंख्यात] अनुसूची। (दे०)
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परिसंघ  : पुं० [सं० प्रा० स०] पारस्परिक तथा सामूहिक हितों के रक्षार्थ बननेवाला वह अंतरराष्ट्रीय संघटन जिसके सदस्य स्वतंत्र राष्ट्र होते हैं। (कनफेडरेशन)
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परिसंचर  : पुं० [सं० परि-सम्√चर् (गति)+अच्] प्रलय-काल।
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परिसंचित  : भू० कृ० [सं० परि—सम्√चि (इकट्ठा करना)+क्त] इकट्ठा या संचित किया हुआ।
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परिसंतान  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. तार। २. तंत्री।
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परिसंपद्  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] व्यक्ति, संघटन, संस्था आदि का वह निजी या अधिकृत धन तथा संपत्ति जिसमें से उसका ऋण, देय आदि चुकाया जाता हो या चुकाया जा सके। (असेट्स)
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परिसंवाद  : पुं० [सं० परि-सम्√वद् (बोलना)+घञ्] १. दो या अधिक व्यक्तियों में किसी बात, विषय आदि के संबंध में होनेवाला तर्क संगत या विचारपूर्ण वादविवाद। (डिस्कशन) २. दे० परिचर्चा।
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परिसंहत  : [सं०] १. अच्छी तरह उठा हुआ। २. (कथन या लेख) जिसमें फालतू या व्यर्थ की बातें अथवा शब्द न हों। (टर्म)
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परिसंहित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] बहुत अच्छी तरह गठा या गाँठा हुआ। २. (साहित्य में ऐसी गठी हुई तथा संक्षिप्त रचना) जिसमें ओज, प्रसाद आदि गुण भी यथेष्ट मात्रा में हों।
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परिसम्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] सभासद। सदस्य।
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परिसमंत  : पुं० [सं० प्रा० स०] वृत्त के चारों ओर की रेखा या सीमा।
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परिसमापक  : पुं० [परि-सम्√आप् (व्याप्ति)+ण्वुट्—अक] परिसमापन करनेवाला अधिकारी। (लिक्वीडेटर)
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परिसमापन  : पुं० [परि-सम्√आप्+ल्युट्—अन] १. समाप्त करना। २. किसी चलते हुए काम का समाप्त होना। (टरमीनेशन) ३. किसी ऋणग्रस्त संस्था का कार-बार बंद करते समय किसी सरकारी अधिकारी या आदाता द्वारा उसकी परिसंपद लहनेदारों में किसी विशिष्ट अनुपात में बाँटा जाना। (लिक्वीडेशन) ३. दे० ‘अपाकरण’।
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परिसमाप्त  : भू० कृ० [सं० परि-सम्√आप+क्त] १. जो पूरी तरह से समाप्त हो चुका हो। २. (संस्था) जिसका परिसमापन हो चुका हो।
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परिसमाप्ति  : स्त्री० [सं० परि-सम्√आप्+क्तिन्] परिसमापन।
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परिसमूहन  : पुं० [सं० परि-सम्√ऊह् (वितर्क)+ल्युट्—अन] १. एकत्र करना। २. यज्ञ की अग्नि में समिधा डालना। ३. तृण आदि आग में डालना। ४. यज्ञाग्नि के चारों ओर जल छिड़कने की क्रिया।
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परिसर  : वि० [सं० परि√सृ (गति)+अप्] [स्त्री० परिसरा] १. किसी के चारों ओर वहने (अथवा चलने) वाला। २. किसी के साथ जुड़ा, मिला, लगा या सटा हुआ। ३. फैला हुआ। विस्तृत। उदा०—खुली रूप कलियों में परभर स्तर स्तर सु-परिसरा।—निराला। पुं० १. किसी स्थान के आस-पास की भूमि या खुला मैदान। २. प्रांत भूमि। ३. मृत्यु। ४. ढंग। तरीका। विधि। ५. शरीर की नाड़ी या शिरा।
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परिसरण  : पुं० [सं० परि√सृ+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिसृत] १. किसी के चारों ओर बहना (या चलना)। २. पर्यटन। ३. पराजय। हार। ४. मृत्यु। मौत। ५. दे० रसाकर्षण।
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परिसर्प  : पुं० [सं० परि√सृप् (गति)+घञ्] १. किसी के चारों ओर घूमना। परिक्रिया। परिक्रमण। २. घूमना-फिरना या टहलना। ३. ढूँढ़ने या तलाश करने के लिए निकलना। ४. चारों ओर से घेरना। ५. साहित्य दर्पण के अनुसार नाटक में किसी का किसी की खोज और केवल मार्गचिह्नों आदि के सहारे उसका पता लगाने का प्रयत्न करना। जैसे—सीता-हरण के उपरान्त, राम का सीता को बन में ढूँढ़ते फिरना। ६. सुश्रुत के अनुसार ११ प्रकार के क्षुद्र कुष्ठों में से एक जिसमें छोटी-छोटी फुंसियाँ निकलती हैं और उन फुँसियों से पंछा या मवाद निकलता है। ६. एक प्रकार का साँप।
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परिसर्पण  : पुं० [सं० परि√सृप्+ल्युट्—अन] १. घूमना-फिरना। टहलना। २. साँप की तरह टेढ़े-तिरछे चलना या रेंगना।
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परिसर्पा  : स्त्री० [सं० परि√सृ (गति)+क्यप्+टाप्] १. मृत्यु। २. हार।
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परिसांत्वन  : पुं० [सं० परि√सान्त्व् (ढाढस देना)+ ल्युट्—अन] १. बहुत अधिक सांत्वना देना। २. उक्त प्रकार से दी हुई सान्त्वना।
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परिसाम (मन्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक विशेष साम।
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परिसार  : पुं० [सं० परि√सृ+घञ्]=परिसरण।
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परिसारक  : वि० [सं० परि√सृ+ण्वुल्—अक] जो परिसरण करे। चारों ओर चलने, जाने या बहनेवाला।
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परिसारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√सृ+णिनि] १. परिसरण-संबंधी। २. परिसारक। (दे०)
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परिसिद्धिका  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वैद्यक में, चावले की एक प्रकार की लपसी।
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परिसीमन  : पुं० [सं० परिसीमा से] [भू० कृ० परिसीमित] किसी क्षेत्र, विषय आदि की सीमाएँ निर्धारित करना। (डिलिमिटेशन)
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परिसीमा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अंतिम या चरम सीमा। २. वह मर्यादा या रेखा जहाँ आगे किसी विषय का विस्तार न हो।
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परिसीमित  : भू० कृ० [सं० परिसीमा+इतच्] जिसका परिसीमन हुआ या किया जा चुका हो। २. (संस्था) जिसकी पूँजी, हिस्सेदारी आदि कुछ विशिष्ट नियमों या सीमाओं के अन्दर रखी गई हो। (लिमिटेड)
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परिसून  : पुं० [सं० अत्या० स०] बिना अधिकार के और बूचड़खाने से बाहर मारा हुआ पशु।
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परिसेवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक सेवा करना।
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परिसेवित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसकी बहुत अच्छी तरह सेवा की गई हो। २. जिसका बहुत अच्छी तरह सेवन किया गया हो।
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परिस्कंद  : पुं०=परिष्कंद।
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परिस्तरण  : पुं० [सं० परि√स्तृ (आच्छादन)+ल्युट्—अन] १. इधर-उधर फेंकना या डालना। छितराना। २. फैलाना। ३. ढकना या लपेटना।
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परिस्तान  : पुं० [फा०] १. परियों अर्थात् अप्सराओं का जगत् या देश। २. ऐसा स्थान जहाँ बहुत-सी सुंदर स्त्रियों का जमघट या निवास हो।
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परिस्तोम  : पुं० [सं० प्रा० ब० स०] चित्रित या अनेक रंगोंवाली (हाथी की पीठ पर डाली जानेवाली) झूल।
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परिस्थान  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वासस्थान। २. दृढ़ता।
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परिस्थिति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] [वि० परिस्थितिक] किसी व्यक्ति के चारों ओर होनेवाली वे सब बातें या उनमें से कोई एक जिससे बाध्य या प्रेरित होकर वह कोई कार्य करता हो। (सर्कम्स्टैंसेज)
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परिस्थिति विज्ञान  : पुं० [सं०] आधुनिक जीव विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि देश, काल आदि की परिस्थितियों का जीव-जंतुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है। (इकालोजी)
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परिस्पंद  : पुं० [सं० परि√स्पंद् (हिलना)+घञ्] १. कापने की क्रिया या भाव। कंप। कँपकँपी। २. दबाना या मलना। ३. ठाट-बाट। तड़क-भड़क। ४. फूलों आदि से सिर के बाल सजाना। ५. निर्वाह का साधन। ६. परिवार। ६. धारा। प्रवाह। ८. नदी। ९. द्वीप। टापू।
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परिस्पंदन  : पुं० [सं० परि√स्पंद्+ल्युट्—अन] १. बहुत अधिक हिलना। खूब काँपना। २. काँपना।
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परिस्पर्द्धा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०]=प्रतिस्पर्धा।
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परिस्पर्द्धी (र्द्धिन्)  : पुं० [सं० परि√स्पर्ध् (जीतने की इच्छा)+णिनि]=प्रतिस्पर्धी।
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परिस्फुट  : वि० [सं० प्रा० स०] १. भली-भाँति व्यक्त। सब प्रकार से प्रकट या खुला हुआ। २. अच्छी तरह खिला हुआ। पूर्ण विकसित।
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परिस्फुरण  : पुं० [सं० परि√स्फुर् (गति)+ल्युट्—अन] १. कंपन। २. कलियों, कल्लों आदि का निकलना या फूटना।
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परिस्मापन  : पुं० [सं० परि√स्मि (विस्मय करना)+ णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] बहुत अधिक चकित या विस्मित करना।
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परिस्यंद  : पुं० [सं० परिष्यंद] चूना। रसना।
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परिस्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० परिष्यंदी] जिसमें प्रवाह हो। बहता हुआ।
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परिस्रव  : पुं० [सं० परि√स्रु (बहना)+अप्] बहुत अधिक या चारों ओर से चूना या रसना।
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परिस्राव  : पुं० [सं० परि√स्रु+घञ्] १. चू या रसकर अधिक परिमाण में निकलनेवाला तरल पदार्थ। २. एक रोग जिसमें रोगी को ऐसे बहुत अधिक दस्त होते हैं जिनमें कफ और पित्त मिला होता है।
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परिस्रावण  : पुं० [सं० परि√स्रु+णिच्+ल्युट्—अन] वह पात्र जिसमें कोई चीज चुआ या रसाकर इकट्ठी की जाय।
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परिस्रावी (विन्)  : वि० [सं० परि√स्रु+णिनि] चूने, रसने या बहनेवाला। पुं० ऐसा भगंदर रोद जिसमें फोड़े में से बराबर गाढ़ा मवाद निकलता रहता है।
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परिस्रुत  : वि० [सं० परि√स्रु+क्त] १. जिससे कुछ टपक या चू रहा हो। स्रावयुक्त। २. चुआया या टपकाया हुआ। पुं० फूलों का सुगंधित सार। (वैदिक) स्त्री० मदिरा। शराब।
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परिस्रुत-दधि  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा दही जिसे निचोड़कर उसमें का जल निकाल दिया गया हो।
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परिस्रुता  : स्त्री० [सं० परिस्रुत+टाप्] १. चुआई या टपकाई हुई तरल वस्तु। २. मद्य। शराब। ३. अंगूरी शराब।
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परिहँस  : पुं० [सं० परिहास] १. हँसी-दिल्लगी। परिहास। २. लोक में होनेवाली हँसी। उपहास। उदा०—परहँसि मरसि कि कौनेहु लाजा—जायसी। ३. खेद। दुःख। रंज। (मुख्यतः लोक-निंदा, उपहास आदि के भय से होनेवाला) उदा०—कंठ बचन न बोलि आवै हृदय परिहँस करि, नैन जल भरि रोई दीन्हों, ग्रसति आपद दीन।—सूर।
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परिहत  : भू० कृ० [सं० परि√हन् (हिंसा)+क्त] १. जो मार डाला गया हो। २. मरा हुआ। मृत। ३. पूरी तरह से नष्ट किया हुआ। ४. ढीला किया हुआ। स्त्री० हल की वह लकड़ी जो चौभी में ठुकी रहती है, तथा जिसके ऊपरी भाग में लगी हुई मुठिया को पकड़कर हलवाला हल चलाता है।
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परिहरण  : पुं० [सं० परि√हृ (हरण करना)+ल्युट्—अन] [वि० परिहरणीय] १. किसी की चीज पर बिना उसके पूछे और बलपूर्वक किया जानेवाला अधिकार। २. परित्याग। ३. दोष आदि दूर करने का उपचार या प्रयत्न। निवारण।
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परिहरणीय  : वि० [सं० परि√हृ+अनीयर्] १. जो छीना जा सके या छीने जाने के योग्य हो। २. त्याज्य। ३. जिसका उपचार या निवारण हो सके। निवार्य।
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परिहरना  : स० [सं० परिहरण] १. छीनना। २. त्यागना। छोड़ना।
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परिहस  : पुं०=परिहँस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिहस्त  : पुं० [सं० अव्य० स०] हाथ में बाँधा जानेवाला एक तरह का तावीज या यंत्र।
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परिहाण  : पुं० [सं० परि√हा (त्याग)+क्त] नुकसान या हानि उठाना।
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परिहाणि, परिहानि  : स्त्री० [सं० परि√हा+क्तिन्] नुकसान। हानि।
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परिहार  : पुं० [सं० परि√हृ+घञ्] १. बलपूर्वक छीनने की क्रिया या भाव। २. युद्ध में जीतकर प्राप्त किया हुआ धन या पदार्थ। ३. छोड़ने, त्यागने या दूर करने की क्रिया या भाव। ४. त्रुटियों, दोषों, विकारों आदि का किया जानेवाला अंत या निराकरण। ५. पशुओं के चरने के लिए खाली छोड़ी हुई जमीन। चारागाह। ६. प्राचीन भारत में, कष्ट या संकट के समय राज्य की ओर से प्रजा के साथ की जानेवाली आर्थिक रिआयत। ६. कर या लगान की छूट। माफी। ८. खंडन। ९. अवज्ञा। तिरस्कार। १॰. उपेक्षा। ११. मनु के अनुसार एक प्राचीन देश। १२. नाटक में किसी अनुचित या अविधेय कर्म का प्रायश्चित्त करना। (साहित्य दर्पण) पुं० [?] अवध, बुंदेलखंड आदि में बसे हुए राजपूतों की एक जाति जिनके पूर्वज तीसरी शताब्दी में कालिंजर के शासक थे।
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परिहारक  : वि० [सं० परि√हृ+ण्वुल्—अक] परिहार करनेवाला।
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परिहारना  : स० [सं० परिहार] १. परिहरण करना। २. परिहार करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिहारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√हृ+णिनि] परिहरण करनेवाला।
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परिहार्य  : वि० [सं० परि√हृ+ण्यत्] जिसका परिहरण होने को हो या हो सकता हो।
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परिहास  : वि० [सं० परि√हस् (हँसना)+घञ्] १. बहुत जोरों की हँसी। २. हँसी-मजाक।
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परिहासापह्नुति  : स्त्री० [सं० परिहास-अपह्नुति, मध्य० स०] साहित्य में, अपह्नुति अलंकार का एक भेद जिसमें पूर्वपद तो किसी अश्लील भाव का द्योतक होता है परंतु उत्तर-पद से उस अश्लीलत्व का परिहार हो जाता है और श्रोता हँस पड़ता है। उदा०—तुमको लाजिम है पकड़ो अब मेरा। हाथ में हाथ बामुहब्बतो प्यार।—कोई शायर।
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परिहास्य  : वि० [सं० परि√हस्+ण्यत्] १. जिसके संबंध में परिहास किया जा सके या हो सके। २. हास्यास्पद।
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परिहित  : भू० कृ० [सं० परि√धा (धारण करना)+क्त, हि—आदेश] १. चारों ओर से छिपाया या ढका हुआ। आवृत्त। आच्छादित। २. ओढ़ा या पहना हुआ। (कपड़ा)
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परिहीण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. सब प्रकार से दीन-हीन। अत्यंत हीन। २. छोड़ा, निकाला या फेंका हुआ।
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परिहृति  : स्त्री० [सं० परि+हृ+क्तिन्] ध्वंस। नाश।
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परिहेलना  : स० [सं० प्रा० स०] अनादर या तिरस्कारपूर्वक दूर हटाना। उदा०—कै ममता करु राम-पद कै ममता परिहेलु।—तुलसी।
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परी  : स्त्री० [फा०] १. वह कल्पित रूपवती स्त्री जो अपने परों की सहायता से आकाश में उड़ती है। अप्सरा। विशेष—फारसी साहित्य में इसका वास-स्थान काफ या काकेशस पर्वत माना गया है।
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परीक्षक  : पुं० [सं० परि√ईक्ष् (देखना)+ण्वुल्—अक] [स्त्री० परीक्षिका] १. वह जो किसी की परीक्षा करता या लेता हो। २. किसी के गुण, योग्यता आदि का परीक्षण करनेवाला अधिकारी, विशेषतः परीक्षार्थियों के लिए प्रश्न-पत्र बनाने तथा उनकी उत्तर-पुस्तिकाएँ जाँचनेवाला अधिकारी। (इग्जामिनर) ३. जाँच-पड़ताल करनेवाला व्यक्ति। निरीक्षक।
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परीक्षण  : पुं० [सं० परि√ईक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परीक्षित, वि० परीक्ष्य] १. परीक्षा करने या लेने की क्रिया या भाव। २. वैज्ञानिक क्षेत्रों में; किसी विशिष्ट पद्धति, प्रक्रिया या रीति से किसी चीज के वास्तविक गुण, योग्यता, शक्ति, स्थिति आदि जानने का काम। ३. न्यायालय में इस प्रकार किसी से प्रश्न करना जिससे वस्तु-स्थिति पर प्रकाश पड़ता हो। (इग्जामिनेशन) १. उपयोग, व्यवहार आदि में लाकर किसी चीज के गुण-दोष जानना या परखना। ५. व्यक्ति को किसी काम या पद पर स्थायी रूप से नियुक्त करने से पहले, कुछ समय तक उससे वह काम करवा कर देखना कि उसमें यथेष्ट योग्यता या सामर्थ्य है या नहीं। (प्रोबेशन)
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परीक्षण-काल  : पुं० [ष० त०] उतना समय जितने में यह देखा जाता है, कि जो व्यक्ति किसी काम पर लगाया जाने को है, उसमें वह काम करने की पूरी योग्यता या समर्थता भी है या नहीं। (प्रोबेशन पीरियड)
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परीक्षण-नलिका  : स्त्री० [ष० त०] वैज्ञानिक क्षेत्रों में शीशे की वह नली जिसमें कोई द्रव पदार्थ किसी प्रकार के परीक्षण के लिए भरा जाता है। परख-नली। (टेस्ट-ट्यूब)
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परीक्षण-शलाका  : स्त्री० [ष० त०] किसी धातु का वह छड़ जो इस बात के परीक्षण के काम में आता है कि इस धातु में भार आदि सहने की कितनी शक्ति है। (टेस्ट पीस)
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परीक्षणिक  : वि० [सं० पारीक्षणिक] १. परीक्षण-संबंधी। २. नियुक्त किये जाने से पहले जिसकी असमर्थता की परीक्षा ली जा रही हो। अस्थायी रूप से और केवल परीक्षण के लिए रखा हुआ कर्मचारी। (प्रोबेशनरी)
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परीक्षना  : स० [सं० परीक्षण] किसी की परीक्षा करना या लेना। परखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परीक्षा  : स्त्री० [सं० परि√ईक्ष्+अ+टाप्] १. किसी के गुण, धैर्य, योग्यता, सामर्थ्य आदि की ठीक-ठीक स्थिति जानने या पता लगाने की क्रिया या भाव। (एग्जामिनेशन) २. वह समुचित उपाय, विधि या साधन जिससे किसी के गुणों आदि का पता लगाया जाता है। ३. वस्तुओं के संबंध में, उनकी उपयोगिता, टिकाऊपन आदि जानने के लिए उनका उपयोग या व्यवहार किया जाना। जैसे—हमारे यहाँ अमुक वस्तुएँ मिलती हैं, परीक्षा प्रार्थित है। ४. वह प्रक्रिया जिससे प्राचीन न्यायालय किसी अभियुक्त अथवा साक्षी के सच्चे या झूठे होने का पता लगाते थे। विशेष दे० ‘दिव्य’। ५. जाँच—पड़ताल। ६. देख-भाल।
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परीक्षार्थ  : अव्य० [सं० परीक्षा-अर्थ, नित्य स०] परीक्षा के उद्देश्य से।
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परीक्षार्थी (र्थिन्)  : पुं० [सं० परीक्षा√अर्थ (चाहना)+ णिनि] १. वह जो किसी प्रकार की परीक्षा देना चाहता हो। २. वह जिसकी परीक्षा ली जा रही हो अथवा जो परीक्षा दे रहा हो। (एग्ज़ामिनी)
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परीक्षित्  : पुं० [सं० परि√क्षि (क्षय)+क्विप्, तुक्] १. हस्तिनापुर के एक प्राचीन राजा जो अभिमन्यु के पुत्र और जनमेजय के पिता थे। कहा जाता है कि इन्हीं के राज्य-काल में द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ था। तक्षक नामक साँप के काटने पर इनकी मृत्यु हुई थी। २. कंस का एक पुत्र।
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परीक्षित  : भू० कृ० [परि√ईक्ष्+क्त] १. (व्यक्ति) जिसकी परीक्षण किया जा चुका हो। जो परीक्षा में सफल उतरा हो। ३. (वस्तु) जिसे उपयोग, व्यवहार आदि में लाकर उसके गुण-दोष आदि देखे जा चुके हों। (इग्जै़मिन्ड) पुं०=परीक्षित्।
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परीक्षितव्य  : वि० [सं० परि√ईक्ष्+तव्यत्] १. जिसकी परीक्षा, आजमाइश या जाँच की जा सके या की जाने को हो। २. जिसे जाँच या परख सकें। ३. जिसकी परीक्षा (जाँच या परख) करना आवश्यक या उचित हो।
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परीक्षिती  : पुं० [सं०]=परीक्षार्थी।
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परीक्ष्य  : वि० [सं० परि√ईक्ष्+ण्यत्] परीक्षितव्य। (दे०)
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परीक्ष्यमाण  : वि० [सं० परि√ईक्ष्+यक्, शानच्, मुक्] परीक्षणिक। (दे०)
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परीख  : स्त्री०=परख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीखना  : स०=परखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीछत  : भू० कृ०=परीक्षित। पुं०=परिक्षित।
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परीछम  : पुं० [हिं० परी+छमछम (अनु०)] पैर में पहनने का एक तरह का चाँदी का गहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीछा  : स्त्री०=परीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीछित  : भू० कृ०=परीक्षित। पुं०=परीक्षित्।
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परीजाद  : वि० [फा० परीज़ादः] १. जो परी की संतान हो। २. लाक्षणिक रूप में, परम सुन्दर व्यक्ति।
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परीणाह  : पुं० [सं० परि√नह् (बंधन)+घञ्, दीर्घ] १. दे० ‘परिणाह’। २. शिव। ३. गाँव के आस-पास तथा चारों ओर की वह भूमि जो सार्वजनिक संपत्ति के अन्तर्गत हो, अथवा जिसका उपयोग सब लोग कर सकते हों।
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परीत  : स्त्री०=प्रीति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रेत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीताप  : पुं०=परिताप।
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परीति (ती)  : स्त्री०=प्रीति।
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परीतोष  : पुं०=परितोष।
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परीदाह  : पुं०=परिदाह।
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परीधान  : पुं०=परिधान।
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परीप्सा  : स्त्री० [सं० परि√आप् (व्याप्ति)+सन्+ अ+ टाप्] १. किसी चीज को प्राप्त करने अथवा उसे अधिकार में किये रखने की इच्छा या लालसा। २. जल्दी। शीघ्रता।
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परीबंद  : पुं० [फा०] कलाई पर पहनने का एक आभूषण। बाजूबंद। २. बच्चों के पैरों का एक घुँघरूदार गहना। ३. कुश्ती का एक पेंच।
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परीभव  : पुं०=परिभव।
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परीभाव  : पुं०=परिभाव।
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परीमाण  : पुं०=परिमाण।
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परीरंभ  : पुं०=परिरंभ।
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परीर  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ति करना)+ईरन्] वृक्ष का फल।
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परीरू  : वि० [फा०] परी की तरह सुन्दर आकृतिवाला। परम रूपवान या अति सुन्दर।
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परीवर्तन  : पुं०=परिवर्तन।
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परीवाद  : पुं०=परिवाद।
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परीवार  : पुं०=परिवार।
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परीवाह  : पुं०=परिवाह।
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परीशान  : वि० [फा० परीशाँ] [भाव० परीशानी]= परेशान। (देखें)
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परीशेष  : पुं०=परिशेष।
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परीषह  : पुं० [सं० परि√सह् (सहना)+अच्, दीर्घ] जैन शास्त्रों के अनुसार त्याग या सहन।
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परीष्ट  : वि० [सं० परि√ईष् (चाहना)+क्त] [भाव० परीष्टि] चाहने योग्य।
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परीष्टि  : स्त्री० [सं०] १. इच्छा। २. खोज। छान-बीन। ३. सेवा।
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परीसयर्पा  : स्त्री०=परिसयर्पा।
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परीसार  : पुं०=परिसार।
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परीहन  : पुं०=परिधान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीहार  : पुं०=परिहार।
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परीहास  : पुं०=परिहास।
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परु  : पुं० [सं०√पृ+उन्] १. गाँठ। जोड़। २. अवयव। ३. समुद्र। ४. स्वर्ग। ५. पर्वत। पहाड़। अव्य० [हिं० पर] १. बीता हुआ वर्ष। पर साल। २. आनेवाला वर्ष।
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परुआ)  : पुं०=पड़वा (भैंस का बच्चा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० १. (बैल) जो काम करने के समय बैठ जाय या पड़ा रहे। २. काम-चोर। स्त्री० [?] एक तरह की जमीन।
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परुई  : स्त्री० [देश०] वह नाँद जिसमें भड़भूँजे अनाज के दाने भूँजते हैं।
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परुख  : वि० [भाव० परुखता] परुष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परुत्  : अव्य० [सं० परस्मिन्, नि० सिद्धि] बीता हुआ वर्ष। गत वर्ष।
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परुष  : वि० [सं०√पृ+उषन्] [भाव० परुषता] १. (वचन, वस्तु या व्यक्ति) जो गुण, प्रकृति, स्वभाव आदि की दृष्टि से कड़ा, रुक्ष तथा मृदुता-हीन हो। कठोर और कर्कश। २. उग्रतापूर्ण। तीव्र। ३. हृदयहीन। कठोर हृदयवाला। ४. रसहीन। नीरस। ५. खुरदरा। पुं० १. नीली कटसरैया। २. फालसा। ३. तीर। वाण। सरकंडा। सरपत। ५. खर-दूषण का एक सेनापति। ६. अप्रिय और कठोर बात या वचन।
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परुषता  : स्त्री० [सं० परुष+तल्+टाप्] १. परुष होने की अवस्था या भाव। २. कठोरता। कड़ापन। सख्ती। ३. (वचन या स्वर की) कर्कशता। ४. निर्दयता। निष्ठुरता।
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परुषत्व  : पुं० [सं० परुष+त्वन्]=परुषता।
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परुषा  : स्त्री० [सं० परुष+टाप्] साहित्य में शब्द-योजना की एक विशिष्ट प्रणाली जिसमें टवर्गीय, द्वित्व, संयुक्त, रेप, श, ष आदि वर्णों तथा लंबे समासों की अधिकता होती है। २. रावी नदी। ३. फालसा।
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परुसना  : स०=परोसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परूँगा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बलूत (वृक्ष)।
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परूष, परूषक  : पुं० [सं०√पृ+ऊषन्] [परुष+कन्] फालसा।
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परेंद्रिय ज्ञान  : पुं० [सं०] कुछ विशिष्ट मनुष्यों में माना जानेवाला वह अतींद्रिय ज्ञान जिसकी सहायता से वे बहुत दूर के लोगों के साथ भी मानसिक संबंध स्थापित करके विचार-विनिमय आदि कर सकते हैं। (टेलिपैथी)
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परे  : अव्य० [सं० पर] १. वक्ता अथवा किसी विशिष्ट व्यक्ति से कुछ दूर हटकर या दूर रहकर। जैसे—परे हटकर खड़े होना। मुहा०—परे परे करना=उपेक्षा, घृणा आदि के कारण यह कहना कि दूर रहो या दूर हट जाओ। २. किसी क्षेत्र की सीमा से बाहर या दूर। जैसे—गाँव से परे पहाड़ है। ३. पहुँच, पैठ आदि से दूर या बाहर। जैसे—ईश्वर बुद्धि से परे है। ४. अलग, असंबद्ध या वियुक्त स्थिति में। जैसे वह तो जाति से परे है। ५. तुलना आदि के विचार से ऊँची स्थिति में या बढ़कर। आगे, ऊपर या बढ़कर। जैसे—इससे परे और क्या बात हो सकती है। मुहा०—परे बैठाना=अपनी तुलना में तुच्छ ठहराना। अयोग्य या हीन सिद्ध करना। जैसे—यह घोड़ा तो तुम्हारे घोड़े को परे बैठा देगा। ६. पीछे। बाद। (क्व०)
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परेई  : स्त्री० [हिं० परेवा] १. पंडुकी। फाखता। २. मादा कबूतर। कबूतरी।
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परेखना  : स० [सं० परीक्षण] १. परीक्षा करना। २. दे० ‘परखना’। अ० [सं० प्रतीक्षा] प्रतीक्षा करना। राह देखना। अ० [?] पश्चाताप करना। पछताना।
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परेखा  : पुं० [सं० परीक्षा] १. परीक्षा। जाँच। २. परखने की योग्यता या शक्ति। परख। ३. प्रतीति। पुं० [?] १. मन में होनेवाला खेद या विषाद। २. चिंता। फिक्र। ३. पश्चात्ताप। पुं०=प्रतीक्षा।
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परेग  : स्त्री० [अं० पेग] लोहे की छोटी कील।
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परेड  : स्त्री० [अं०] १. वह मैदान जहाँ सैनिकों को सैनिक शिक्षा दी जाती है। २. सिपाहियों या सैनिकों को दी जानेवाली सैनिक शिक्षा और उनसे संबंध रखनेवाले कार्यों का कराया जानेवाला अभ्यास। सैनिकों की कवायद।
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परेत  : पुं० [सं० प्रेत] १. दे० ‘प्रेत’। २. मृत शरीर। लाश। शव।
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परेता  : पुं० [सं० परित=चारों ओर] १. बाँस की पतली चिपटी तीलियों का बना हुआ बेलन के आकार का एक उपकरण जिसके दोनों ओर पकड़ने के लिए दो लंबी डंडियाँ होती हैं और जिस पर जुलाहे लोग सूत या रेशम लपेट कर रखते हैं। २. उक्त की तरह का वह उपकरण जिस पर पतंग उड़ाने की डोर लपेटी जाती है।
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परेर  : पुं० [सं० पर=दूर, ऊँचा+हिं० एर] आकाश। आसमान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परेला  : वि० [हिं० पड़ना] १. बैल जो चलते चलते पड़ या लेट जाता हो। २. निकम्मा और सुस्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परेली  : स्त्री० [?] तांडव नृत्य का एक भेद जिसमें अंग-संचालन अधिक और अभिनय या भाव-प्रदर्शन कम होता है। इसे ‘देसी’ भी कहते हैं।
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परेव  : पुं०=परेवा।
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परेवा  : पुं० [सं० पारावत] [स्त्री० परेई] १. पंडुकी पक्षी। पेंडुकी। फाखता। २. कबूतर। ३. कोई तेज उड़नेवाला पक्षी। पुं० दे० ‘पत्रवाहक’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परेश  : पुं० [सं० पर-ईश, कर्म० स०] १. वह जो सब का और सबसे बढ़कर मालिक या स्वामी हो। २. परमेश्वर। ३. विष्णु।
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परेशान  : वि० [फा०] [भाव० परेशानी] १. बिखरा हुआ। विश्रृंखल। २. कार्याधिक्य, अथवा चिंता, दुःख आदि के भार से जो बहुत अधिक व्यस्त अथवा विकल और बदहवास हो। ३. दूसरों द्वारा तंग किया अथवा सताया हुआ। जैसे—बच्चों से वह परेशान रहता था।
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परेशानी  : स्त्री० [फा०] १. परेशान होने की अवस्था या भाव। उद्वेगपूर्ण विकलता। हैरानी। २. वह बात या विषय जिससे कोई परेशान हो। काम में होनेवाला कष्ट या झंझट। क्रि० प्र०—उठाना।
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परेषणी  : पुं० [सं० प्रेषणी] वह व्यक्ति जिसके नाम रेल-पार्सल अथवा उसकी बिल्टी भेजी जाय। (कनसाइनी)
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परेषित  : भू० कृ० [सं० प्रेषित] (माल या सामग्री) जो रेल पार्सल द्वारा किसी के नाम भेजी जा चुकी हो। (कनसाइन्ड)
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परेष्टुका  : स्त्री० [सं० पर√इष्+तु+क+टाप्] ऐसी गाय जो प्रायः बच्चे देती हो।
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परेस  : पुं०=परेश (परमेश्वर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परेह  : पुं० [?] बेसन आदि का पकाया हुआ वह घोल जिसमें पकौड़ियाँ डालने पर कढ़ी बनती है।
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परेहा  : पुं० [देश०] जोती और सींची हुई भूमि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परैधित  : वि० [सं० पर-एधित, तृ० त०] अन्य द्वारा पालित। पुं० कोकिल।
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परैना  : पुं० [हिं० पैना] बैल आदि हाँकने की छड़ी या डंडा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परों  : अव्य०=परसों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोक्त-दोष  : पुं० [सं० पर-उक्त, तृ० त०, परोक्त-दोष, कर्म० स०?] न्यायालय में ऊट-पटाँग या गलत बयान देने का अपराध।
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परोक्ष  : वि० [सं० अक्षि-पर अव्य० स०, टच्] [भाव० परोक्षत्व] १. जो दृष्टिके क्षेत्र या पथ के बाहर हो और इसीलिए दिखाई न देता हो। आँखों से ओझल। २. जो सामने उपस्थिति या मौजूद न हो। अनुपस्थित। गैर-हाजिर। ३. छिपा हुआ। गुप्त। ‘प्रत्यक्ष’ का विपर्याय। ४. किसी काम या बात से अनभिज्ञ। अनजान। अपरिचित ५. जिसका किसी से प्रत्यक्ष या सीधा संबंध न हो, बल्कि किसी दूसरे के द्वारा हो। ६. जो उचित और सीधी या स्पष्ट रीति से न होकर किसी प्रकार के घुमाव-फिराव या हेर-फेर से हो। जो सरल या स्पष्ट रास्ते से न होकर किसी और या दूर रास्ते से हो। (इनडाइरेक्ट) जैसे—परोक्ष रूप से आग्रह या संकेत करना। पुं० १. आँखों के सामने न होने की अवस्था या भाव। अनुपस्थिति। २. बीता हुआ समय या भूतकाल जो इस समय सामने न हो। ‘प्रत्यक्ष’ का विपर्याय। ३. व्याकरण में पूर्ण भूतकाल। ४. वह जो तीनों कालों की बातें जानता हो; अर्थात् त्रिकालज्ञ या परम ज्ञानी। ५. ऐसी दशा, स्थान या स्थिति जो आँखों के सामने न हो, बल्कि दृष्टि-पथ के बाहर या इधर-उधर छिपी हुई हो। जैसे—परोक्ष से किसी के रोने का शब्द सुनाई पड़ा। अव्य० किसी की अनुपस्थिति या गैर हाजिरी में। पीठ-पीछे। जैसे—परोक्ष में किसी की निंदा करना।
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परोक्ष-कर  : पुं० [कर्म० स०] अर्थशास्त्र में, दो प्रकार के करों में से एक (प्रत्यक्ष कर से भिन्न) जो लिया तो किसी और व्यक्ति (उत्पादक, आयातक आदि) से जाता है परंतु जिसका भार दूसरों (अर्थात् उपभोक्ताओं) पर पड़ता है। (इनडाइरेक्ट टैक्स) जैसे—उत्पादनकर, आयात-निर्यात कर।
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परोक्षत्व  : पुं० [सं० परोक्ष+त्वन्] परोक्ष या अदृश्य होने की दशा या भाव।
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परोक्ष-दर्शन  : पुं० [ष० त०] विशिष्ट प्रकार की आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसी घटनाओं, वस्तुओं, व्यक्तियों आदि के दृश्य या रूप दिखाई देना जो बहुत दूरी पर हों और साधारण मनुष्यों के दृश्य के बाहर हों। अतीन्द्रिय दृष्टि। (कलेरवायंस)
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परोक्ष-निर्वाचन  : पुं० [सं० त०] निर्वाचन की वह पद्धति जिसमें उच्चपदों के लिए अधिकारी या प्रतिनिधि सीधे जनता द्वारा नहीं चुने जाते हैं, बल्कि जनता के प्रतिनिधियों, निर्वाचन मंडलों आदि के द्वारा चुने जाते हैं। (इनडाइरेक्ट इलेक्शन)
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परोक्ष-श्रवण  : पुं० [ष० त०] विशिष्ट प्रकार की आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसे शब्द सुनाई देना या ऐसे कथनों का परिज्ञान होना जो बहुत दूर पर हो रहे हों और साधारण मनुष्यों के श्रवण-क्षेत्र के बाहर हों। अतींद्रिय-श्रवण। (क्लेअर ऑडिएन्स)
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परोजन  : पुं० [सं० प्रयोजन] १. प्रयोजन। २. कोई ऐसा पारिवारिक उत्सव या कृत्य जिसमें इष्ट-मित्रों, संबंधियों आदि की उपस्थिति आवश्यक हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोढा  : स्त्री० [सं० पर-ऊढा, तृ० त०]=ऊढ़ा (नायिका)।
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परोता  : पुं० [देश०] [स्त्री० परोती] गेहूँ के पयाल से बनाया जानेवाला एक तरह का टोकरा। (पंजाब) पुं० [?] आटा, गुड़, हल्दी, पान आदि जो किसी शुभ कार्य में हज्जाम, भाँट आदि को दिये जाते हैं। पुं०=पर-पोता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोद्वह  : वि० [सं० पर-उद्वह, ब० स०] अन्य द्वारा पालित। पुं० कोयल।
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परोना  : पिरोना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोपकार  : पुं० [सं० पर-उपकार, ष० त०] [भाव० परोपकारिता] ऐसा काम जिससे दूसरों का उपकार या भलाई होती हो। दूसरों के हित का काम।
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परोपकारक  : पुं० [सं० पर-उपकारक, ष० त०] परोपकारी।
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परोपकारिता  : पुं० [सं० परोपकारिन्+तल्+टाप्] १. परोपकार करने की क्रिया या भाव। २. परोपकार।
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परोपकारी (रिन्)  : पुं० [सं० परोपकार+इनि] [स्त्री० परोपकारिणी] वह जो दूसरों का उपकार या हित करता हो। दूसरों की भलाई या हित का काम करने अथवा ऐसी बातें बतलानेवाला जिनसे दूसरों का हित हो सकता हो।
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परोपकृत  : भू० कृ० [सं० पर-उपकृत, तृ० त०] जिसका दूसरों ने उपकार किया हो। जिसके साथ परोपकार हुआ हो।
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परोपजीवी (विन्)  : वि० [सं०] दूसरों के भरोसे जीवन निर्वाह करनेवाला। पुं० ऐसे कीड़े-मकोड़े या वनस्पतियाँ जो दूसरे जीव-जंतुओं या वृक्षों के अंगों पर रहकर जीवन निर्वाह करते हों। (पैरीसाइट)
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परोपदेश  : पुं० [सं० पर-उपदेश, ष० त०] दूसरों को दिया जानेवाला उपदेश।
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परोपसर्पण  : पुं० [सं० पर-उपसर्पण, ष० त०] भीख माँगना।
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परोरजा (जस्)  : वि० [सं० रजस्-पर पं० त०, सुट् नि०] जो राग, द्वेष आदि भावों से परे हो। विरक्त। विमुक्त।
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परोरना  : स० [?] मंत्र पढ़कर फूँकना। अभिमंत्रित करना। जैसे—रोगी को परोरकर पानी पिलाना।
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परोल  : पुं० दे० ‘पैरोल’।
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परोष्णी  : स्त्री० [सं० पर-उष्ण, ब० स०, ङीष्] १. तेल चाटनेवाला एक कीड़ा। तेल-चटा। २. पुराणानुसार कश्मीर की एक नदी।
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परोस  : स्त्री० [हिं० परोसना] परोसने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पड़ोस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोसना  : स० [सं० परिवेषण] खानेवाले की थाली या पत्तल में खाद्य पदार्थ रखना। जैसे—दाल, पूरी और मिठाई परोसना।
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परोसा  : पुं० [हिं० परोसना] प्रायः एक आदमी के खाने भर का वह भोजन जो उसे अपने साथ ले जाने के लिए दिया अथवा उसके यहाँ भेजा जाता है।
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परोसी  : पुं० [स्त्री० परोसिनी]=पड़ोसी।
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परोसैया  : पुं० [हिं० परोसना+ऐया (प्रत्य०)] वह व्यक्ति जो पंगत आदि में बैठे हुए लोगों के लिए भोजन परोसता हो।
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परोहन  : पुं० [सं० प्ररोहण] वह पशु जिस पर चढ़कर सवारी की जाय या जिस पर बोक्ष लादा जाय।
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परोहा  : पुं० [सं० प्ररोहण] १. खेतों की सिंचाई का वह प्रकार जिसमें कम गहरे जलाशय में बाँस आदि से झूलती हुई दौरी की सहायता से पानी उठाकर खेतों में डाला जाता है। २. उक्त दौरी जिसमें पानी निकाला जाता है। ३. कुएँ से पानी निकालने का चरसा। मोट।
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परौं  : अव्य०=परसों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परौका  : स्त्री० [देश०] बाँझ भेड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परौठा  : पुं०=पराँठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परौता  : स्त्री० [देश०] वह चादर जिससे हवा करके अनाज ओसाया जाता है। परती।
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परौती  : स्त्री०=पड़ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्कट  : पुं० [देश०] बगला।
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पर्कटी  : स्त्री० [सं०√पृच् (जोड़ना)+अटि, कुत्व, ङीष्] १. पाकर वृक्ष। २. नई सुपारी। स्त्री० हिं० पर्कट (बगला) का स्त्री०।
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पर्कार  : पुं० [फा०] परकार। (दे०)
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पर्गना  : पुं०=परगना।
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पर्गार  : पुं० [फा०] परकारा। (दे०)
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पर्चा  : पुं०=परचा।
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पर्चाना  : स०=परचाना।
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पर्चून  : पुं०=परचून।
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पर्छा  : पुं०=परछा।
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पर्जंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्ज  : स्त्री०=परज।
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पर्जनी  : स्त्री० [सं०√पृज् (स्पर्श करना)+अन्, ङीष्] दारू हल्दी।
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पर्जन्य  : पुं० [सं०√पृष् (सींचना)+अन्य, ष—ज] १. गरजता तथा बरसता हुआ बादल। मेघ। २. इंद्र। ३. विष्णु। ४. कश्यप ऋषि के एक पुत्र जिसकी गिनती गंधर्वों में होती है।
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पर्जन्या  : स्त्री० [सं० पर्जन्य+टाप्] दारू हल्दी।
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पर्ण  : पुं० [सं०√पृ+न] १. पेड़ का पत्ता। पत्र। जैसे—पर्ण-कुटी=पत्तों से छाकर बनाई हुई कुटी। २. पान का पत्ता। ताम्बूल। ३. पलाश। ढाक। ४. पुस्तक, पंजी आदि का पृष्ठ। (लीफ) ५. कागज का वह टुकड़ा या परत जिसमें से वैसा ही दूसरा टुकड़ा या परत प्रतिलिपि के रूप में काटकर अलग करते हैं। (फायल)
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पर्णक  : पुं० [सं० पर्ण+कन्] पार्णकि गोत्र के प्रवर्तक एक ऋषि।
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पर्णकार  : पुं० [सं० पर्ण√कृ (करना)+अण्] १. पान बेचनेवाला व्यक्ति। तमोली। २. पान बेचनेवालों की एक पुरानी जाति।
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पर्ण-कुटी  : स्त्री० [मध्य० स०] वह झोपड़ी जिसकी छाजन पत्तों की बनी हो।
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पर्ण-कूर्च  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का व्रत जिसमें तीन दिन तक ढाक, गूलर, कमल और बेल के पत्तों का काढ़ा पीया जाता है।
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पर्ण-कृच्छ  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का पाँच दिनों का व्रत जिसमें पहले दिन ढाक के पत्तों का, दूसरे दिन गूलर के पत्तों का, तीसरे दिन कमल के पत्तों का, चौथे दिन बेल के पत्तों का पीकर पाँचवें दिन कुश का काढ़ा पीया जाता था।
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पर्ण-खंड  : पुं० [ब० स०] वह वृक्ष जिसमें फूल, पत्ते आदि न लगते हों।
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पर्ण-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] वनस्पति विज्ञान में, पेड़-पौधों के तने या स्तंभ का वह स्थान जहाँ से पत्ते निकलते हैं। (नोड)
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पर्ण-चोरक  : पुं० [ष० त०] चोरक नाम का गंध द्रव्य।
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पर्ण-नर  : पुं० [मध्य० स०] किसी अज्ञात स्थान में मरनेवाले व्यक्ति का घास-फूस आदि का बनाया हुआ वह पुतला जो उसका शव न मिलने की दशा में उसका शव मानकर जलाया जाता है।
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पर्णभेदिनी  : स्त्री० [सं० पर्ण√भिद् (फाड़ना)+णिनि+ ङीप्] प्रियगु लता।
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पर्ण-भोजन  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसका पत्ता ही भोजन हो। वह जो केवल पत्ते खाकर जीता हो। २. बकरी।
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पर्णभोजनी  : स्त्री० [सं० पर्णभोजन+ङीप्] बकरी।
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पर्ण-मणि  : स्त्री० [मध्य स०] १. पन्ना या मरकत नामक रत्न। २. एक प्रकार का अस्त्र।
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पर्णमाचल  : पुं० [सं० पर्ण-आ√चल्+णिच्+अण्, मुम्] कमरख का पेड़।
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पर्णमुक (च्)  : पुं० [सं० पर्ण√मुच् (छोड़ना)+क्विप्] पतझड़।
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पर्ण-मृग  : पुं० [मध्य० स०] पेड़ों पर रहनेवाले जंगली जीव-जंतु। जैसे—गिलहरी, बंदर आदि।
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पर्णय  : पुं० [सं०] एक असुर जिसे इंद्र ने मारा था।
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पर्णरुह  : पुं० [सं० पर्ण√रुह् (जनमना)+क] वसंत (ऋतु)।
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पर्णल  : वि० [सं० पर्ण+लच्] १. (वृक्ष) जिसमें बहुत अधिक पत्ते लगे हों। २. पत्तों से बनाया हुआ। पत्तों से युक्त
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पर्ण-लता  : स्त्री० [मध्य० स०] पान की बेल या लता।
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पर्णवल्क  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पर्ण-वल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] पालाशी नामक लता।
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पर्ण-वाद्य  : पुं० [मध्य० स०] १. पत्ते का बना हुआ बाजा। २. उक्त बाजे को बजाने से होनेवाला शब्द।
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पर्ण-वीटिका  : स्त्री० [ष० त०] पान का बीड़ा।
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पर्ण-शब्द  : स्त्री० [ष० त०] पत्तों के खड़खड़ाने का शब्द।
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पर्ण-शय्या  : स्त्री० [मध्य० स०] पत्तों का बिछावन या बिस्तर।
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पर्ण-शवर  : पुं० [ब० स०] १. पुराणानुसार एक देश का नाम। २. उक्त देश में रहनेवाली आदिम अनार्य जाति जो संभवतः अब नष्ट हो गई है।
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पर्ण-शाला  : स्त्री० [मध्य० स०] पर्णकुटी।
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पर्णशालाग्र  : पुं० [पर्णशाला-अग्र, ब० स०] पुराणानुसार भद्राश्व वर्ष का एक पर्वत।
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पर्ण-संपुट  : पुं० [ष० त०] पत्ते या पत्तों का बना हुआ दोना।
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पर्ण-संस्तर  : वि० [ब० स०] पर्णशय्या पर सोनेवाला।
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पर्णसि  : पुं० [सं०√पृ+असि, नुक्] १. कमल। २. साग। ३. पानी में बनाया हुआ घर या मकान।
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पर्णांग  : पुं० [पर्ण-अंग, ब० स०] एक विशिष्ट प्रकार के पौधों का वर्ग जिसमें केवल बड़े-बड़े सुंदर पत्ते होते हैं, फूल नहीं लगते। (फर्न)
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पर्णाटक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पर्णाद  : पुं० [सं० पर्ण√अद् (खाना)+अण्] १. वह जो पत्तों का भक्षण करता हो। २. एक प्राचीन ऋषि।
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पर्णाशन  : पुं० [सं० पर्ण+अश् (खाना)+ल्यु—अन] १. वह जो केवल पत्ते खाकर रहता हो। २. बादल। मेघ।
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पर्णास  : पुं० [सं० पर्ण√अस् (फेंकना)+अच्] तुलसी।
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पर्णाहार  : पुं०=पर्णाशन। (दे०)
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पर्णिक  : पुं० [सं० पर्ण+ठन—इक] पत्तों का व्यवसाय करनेवाला। पत्ते बेचनेवाला।
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पर्णिका  : स्त्री० [सं० पर्णिक+टाप्] १. मानकंद। शालपंजी। सरिवन। २. पिठवन्। पृष्णिपर्णी। ३. अग्निमंथ। अरणी। ४. कागज का वह छोटा कटा या काटा हुआ टुकड़ा जो कहीं दिखलाने पर कुछ निश्चित धन या पदार्थ मिलता है, कोई काम होता है अथवा कोई सहायता या सेवा प्राप्त होती है। (कूपन)
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पर्णिनी  : स्त्री० [सं० पर्ण+इनि—ङीप्] १. माषपर्णी। २. एक अप्सरा।
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पर्णिल  : वि० [सं० पर्ण+इलच] पत्तों से युक्त।
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पर्णी (णिनि)  : पुं० [सं० पर्ण+इनि] १. वृक्ष। पेड़। २. शालपर्णी। सरिवन। ३. पिठवन। ४. तेजपत्ता। ५. एक प्रकार की अप्सराएँ, कदाचित् परियाँ।
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पर्णीर  : पुं० [सं० पर्ण+ईरच्] सुगंधवाला।
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पर्णोटज  : पुं० [सं० पर्ण-उटज, मध्य० स०] पर्ण-कुटी।
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पर्त  : स्त्री०=परत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्द  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ति करना)+द] १. सिर के बालों का समूह। २. गुदामार्ग से निकलनेवाली वायु। पाद।
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पर्दन  : पुं० [सं०√पर्द्+ल्युट्—अन] पादने की क्रिया। पादना।
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पर्दनी  : स्त्री० [सं० परिधानी] धोती।
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पर्दा  : पुं०=परदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्धा  : वि० [हिं० आधा का अनु०] आगे से कुछ कम या अधिक। आधे के लगभग। उदा०—वह पूरा कभी वसूल नहीं हो पाता था—कभी आधा कभी पर्धा।—वृन्दावन लाल वर्मा।
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पर्ना  : पुं० [फा०] एक तरह का बूटीदार रेशमी कपड़ा। पुं०=परना।
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पर्प  : पुं० [सं० पृ०+प] १. हरी घास। २. वह पहियेदार छोटी गाड़ी जिस पर पगुओं को बैठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। ३. घर। मकान।
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पर्पट  : पुं० [सं०√पर्प् (गति)+अटन्] १. पित-पापड़ा। २. दाल आदि का बना हुआ पापड़।
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पर्पट-द्रुम  : पुं० [सं० उपमि० स०] कुंभी वृक्ष।
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पर्पटी  : स्त्री० [सं० पर्पट+ङीष्] १. सौराष्ट्र आदि प्रदेशों में होनेवाली एक तरह की मिट्टी जो सुगंधित होती है। २. उक्त मिट्टी में से निकलनेवाली गंध। ३. गंध। महक। ४. पानड़ी। ५. पापड़ी। ६. वैद्यक की स्वर्ण-पर्पटी नाम की रसौषधि। स्त्री०=कनपटी। उदा०—माथे पर और पर्पटी पर मल दिया।—अज्ञेय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्परी  : स्त्री० [सं० पर्प√रा (देना)+क+ङीष्] स्त्रियों की कवरी। जूड़ा। स्त्री० [सं० पर्पट] १. पापड़ के छोटे छोटे टुकड़े। २. कचरी।
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पर्परीक  : पुं० [सं०√पृ+ईकन्, द्वित्व, रुक्] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. जलाशय।
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पर्परीण  : पुं० [सं०√पृ+यङ्, लुक्,+इनन्] पत्ते की नस।
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पर्पिक  : पुं० [सं० पर्प+ठन्—इक] पर्प में बैठनेवाला पंगु व्यक्ति।
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पर्फरीक  : पुं० [सं० √स्फुट् (संचलन)+ईकन्, नि० सिद्धि] नया और कोमल पत्ता।
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पर्ब  : पुं० [सं० पर्व] १.=पर्व। २. वह शुभ दिन जिस दिन सिक्ख लोग उत्सव मनाते हैं। जैसे—गुरुपर्व=नानक के जन्म लेने का दिन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्बत  : पुं०=पर्वत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्बती  : वि० [हिं० पर्वत] पर्वत-संबंधी। पहाड़ी।
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पर्यंक  : पुं० [सं० परि-अंक, प्रा० स०] १. पलंग। २. योग में एक प्रकार का आसन। ३. वीरों के बैठने का एक प्रकार का आसन या ढंग। ४. नर्मदा नदी के उत्तर ओर में स्थित पर्वत जो विन्ध्य पर्वत का पुत्र माना गया है।
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पर्यंक-पदिका  : स्त्री० [सं० पर्यंक-पाद, ब० स०, ठन्—इक, टाप्] एक तरह का सेम जिसकी फलियाँ काले रंग की होती हैं।
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पर्यंत  : भू० कृ० [सं० परि-अंत, प्रा० स०] घिरा हुआ। स्त्री० किसी क्षेत्र के विस्तार की समाप्ति सूचित करनेवाली रेखा। चौहद्दी। सीमा। (बाउण्डरी) अव्य० तक। लौं।
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पर्यंतिका  : स्त्री० [सं० परि-अंतिका, प्रा० स०] नैतिकता तथा सद्गुनों का होनेवाला नाश।
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पर्यग्नि  : पुं० [सं० परि-अग्नि, प्रा० स०] १. हाथ में अग्नि लेकर यज्ञ के लिए छोड़े हुए पशु की परिक्रमा करना। २. वह अग्नि जो उक्त अवसर पर हाथ में ली जाती थी।
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पर्यटक  : पुं० [सं० परि√अट् (गति)+ण्वुल्—अक] पर्यटन करनेवाला। दूसरे देशों में घूमने-फिरनेवाला।
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पर्यटन  : पुं० [सं० परि√अट्+ल्युट्—अन] अनेक महत्त्वपूर्ण स्थल देखने तथा मन-बहलाव के लिए अधिक विस्तृत भूभाग में किया जानेवाला भ्रमण।
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पर्यनुयोग  : पुं० [सं० परि-अनुयोग, प्रा० स०] १. कोई बात मिथ्या सिद्ध करने अथवा किसी तथ्य का खण्डन करने के उद्देश्य से की जानेवाली पूछ-ताछ। २. निंदा।
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पर्यन्य  : पुं०=पर्जन्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्यय  : पुं० [सं० परि√इ (जाना)+अच्] १. चारों ओर चक्कर लगाना। २. समय का बीतना। ३. समय का अपव्यय। ४. किसी लौकिक या शास्त्रीय बन्धन, मर्यादा आदि का उल्लंघन।
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पर्ययण  : पुं० [सं० परि√इ+ल्युट्—अन] १. किसी के चारों ओर चक्कर लगाना। २. घोड़े की जीन। काठी।
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पर्यवदात  : वि० [सं० परि-अवदात, प्रा० स०] १. पूर्ण रूप से निर्मल और शुद्ध। २. निपुण। ३. ज्ञात और परिचित।
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पर्यवरोध  : पुं० [सं० परि-अवरोध, प्रा० स०] चारों ओर से होनेवाली बाधा।
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पर्यवलोकन  : पुं० [सं० परि-अवलोकन, प्रा० स०] १. चारों ओर देखना। २. चारों ओर इस तरह निरीक्षणात्मक दृष्टि से देखना कि समूचे क्षेत्र या उसमें होनेवाली चीजों का चित्र मस्तिष्क में उतर आये। (सर्वे)
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पर्यवसान  : पुं० [सं० परि-अव√सो (समाप्ति)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० पर्यवसित] १. अंत। समाप्ति। २. अंतर्भाव। ३. क्रोध। गुस्सा। ४. अर्थ, आशय आदि के संबंध में होनेवाला ठीक ज्ञान या निश्चय।
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पर्यवस्था  : स्त्री० [सं० परि-अव√स्था (ठहरना)+अङ्—टाप्] १. विरोध। २. खंडन।
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पर्यवस्थान  : पुं० [सं० परि-अव√स्था+ल्युट्—अन] १. विरोध करना। २. खंडन करना।
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पर्यवेक्षक  : वि० [परि-अव√ईक्ष्+ण्वुल्—अक] पर्यवेक्षण करनेवाला। वह अधिकारी जो किसी काम के ठीक तरह से होते रहने की देख-रेख करने पर नियुक्त हो। (सुपरवाइजर)
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पर्यवेक्षण  : पुं० [परि—अव√ईक्ष्+ल्युट्—अन] बराबर यह देखते रहना कि कोई काम ठीक तरह से चल रहा है या नहीं। (सुपरवाइजिंग)
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पर्यश्रु  : वि० [सं० परि—अश्रु, ब० स०] १. आशुओं से नहाया या भींगा हुआ। २. जिसकी आँखों में आँसू भरे हो।
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पर्यसन  : पुं० [सं० परि√अस् (फेंकना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० पर्यस्त] १. दूर करना। बाहर करना। निकालना। २. भेजना। ३. नष्ट करना। ४. रद्द करना।
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पर्यस्त  : भू० कृ० [सं० परि√अस्+क्त] जिसका पर्यसन हुआ हो।
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पर्यस्तापह्नुति  : स्त्री० [सं० पर्यस्ता-अपह्नुति, कर्म० स०] अपह्नुति अलंकार का एक भेद जिसमें किसी उपमान के धर्म का निषेध करके उस धर्म की स्थापना उपमेय में की जाती है।
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पर्यस्ति  : स्त्री० [सं० परि√अस्+क्तिन्] १. दूर करना। २. वीरासन लगाकर बैठना।
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पर्यस्तिका  : स्त्री० [सं० पर्यस्ति+कन्+टाप्] १. वीरासन। २. पलंग।
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पर्याकुल  : वि० [सं० परि-आकुल, प्रा० स०] गंदला, क्षुब्ध (पानी)। २. डरा और घबराया हुआ। ३. अस्त-व्यस्त। ४. उत्तेजित। ५. मरा हुआ।
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पर्यागत  : वि० [सं० परि-आ√गम् (जाना)+क्त] १ जो पूरा चक्कर लगा चुका हो। २. जो अपने सांसारिक जीवन का अंत कर चुका हो।
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पर्याचांत  : पुं० [सं० परि-आ√चंम् (खाना)+क्त] आचमन करने के बाद छोड़ा जानेवाला परोसा हुआ भोजन। (धार्मिक दृष्टि से ऐसा भोजन जूठा माना जाता है)।
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पर्याण  : पुं० [सं० परि√या (गति)+ल्युट्, पृषो० सिद्धि] घोड़े की जीन। काठी।
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पर्याप्त  : वि० [सं० परि√आप् (व्याप्ति)+क्त] [भाव० पर्याप्ति] १. जितना आवश्यक हो उतना सब। पूरा। यथेष्ट। काफी। (सफिशिएन्ट)। २. मिला हुआ। प्राप्त। विशेष—यथेष्ट की तरह इसका प्रयोग भी केवल ऐसी चीजों या बातों के संबंध में होना चाहिए जो आवश्यक हों या जिनसे हमें तृप्ति या संतोष प्राप्त होता हो। जैसे—पर्याप्त धन, पर्याप्त सुख। यह कहना ठीक न होगा—मुझे वहाँ पर्याप्त कष्ट मिला था। ३. जोड़, तुल्यता आदि की दृष्टि से उपयुक्त, अधिक बलवान या सशक्त। ४. परिमित। सीमित। पुं० १. पर्याप्त या यथेष्ट होने की अवस्था या भाव। २. तृप्ति। ३. शक्ति। ४. सामर्थ्य। ५. योग्यता।
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पर्याप्ति  : स्त्री० [सं० परि√आप्+क्तिन्] १. पर्याप्त होने की अवस्था या भाव। यथेष्टता। २. प्राप्ति। मिलना। ३. अन्त। समाप्ति। ४. योग्यता या सामर्थ्य। ५. तृप्ति। संतुष्टि। ६. निवारण। ६. रक्षा करना। रक्षण।
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पर्याप्लाव  : पुं० [सं० परि-आ√प्लु (गति)+घञ्] १. चक्कर। फेरा। २. घेरा।
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पर्याप्लुत  : भू० कृ० [सं० परि-आ√प्लु+क्त] घिरा या घेरा हुआ।
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पर्याय  : पुं० [सं० परि√ई (गति)+घञ्] १. पारस्परिक संबंध की दृष्टि से वे शब्द जो सामान्यतः किसी एक ही चीज, बात या भाव का बोध कराते हों। साधारणतः पर्यायों के अभिधेयार्थ समान होते हैं, लक्ष्यार्थों में भिन्नता हो सकती है। (सिनामिन) २. क्रम। सिलसिला। ३. एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें अनेक आश्रय ग्रहण करने का वर्णन होता है। ४. प्रकार। भेद। ५. अवसर। मौका। ६. बनाने या रचने की क्रिया। निर्माण। ७. द्रव्य का गुण या धर्म। ८. समय का व्यतीत होना। ९. दो व्यक्तियों में होनेवाला ऐसा नाता या संबंध जो एक ही कुल में जन्म लेने के कारण माना जाता या होता है।
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पर्यायकी  : स्त्री० [सं०] भाषा विज्ञान का एक अंग, जिसमें पर्याय शब्दों के पारस्परिक सूक्ष्म अंतरों और भेद-प्रभेदों का अध्ययन किया जाता है। (सिनॉमिनी)
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पर्याय-कोश  : पुं० [ष० त०] वह शब्दकोश जिसमें शब्दों के पर्याय बतलाये गये हों तथा उनमें होनेवाली परस्पर आर्थी अंतरों का विवेचन किया गया हो।
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पर्याय-क्रम  : पुं० [ष० त०] १. पद, मान आदि के विचार से स्थिर किया जानेवाला क्रम। बड़ाई-छोटाई आदि के विचार से लगाया हुआ क्रम। २. उत्तरोत्तर होती रहनेवाली वृद्धि।
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पर्यायज्ञ  : पुं० [सं० पर्याय√ज्ञा (जानना)+क] पर्यायों के सूक्ष्म अंतर जानने वाला विद्वान् व्यक्ति। (सिनानिमिस्ट)
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पर्यायवाचक  : वि० [सं०] १. पर्याय के रूप में होनेवाला। २. जो संबंध के विचार से पर्याय हो।
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पर्यायवाची (चिन्)  : वि० [सं०]=पर्यायवाचक।
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पर्याय-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऐसा स्वभाव जिसके कारण एक छोड़कर दूसरे को, फिर उसे छोड़कर किसी और को अपनाते चलने का क्रम चलता रहता है।
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पर्याय-शयन  : पुं० [तृ० त०] एक के बाद दूसरे का या पारी पारी से सोना।
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पर्यायिक  : वि० [सं० पर्याय+ठन्—इक] १. पर्याय-संबंधी। पर्याय का। २. पर्याय के रूप में होनेवाला। पुं० नृत्य और संगीत का एक अंग।
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पर्यायी  : वि० [सं०] पर्यावाचक।
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पर्यायोक्ति  : स्त्री० [सं० पर्याय—उक्ति, तृ० त०] एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें (क) कोई बात सीधी तरह से न कहकर चमत्कारिक और विलक्षण ढंग से कही जाती है। जैसे—नायक के बिछुड़ने के समय रोती हुई नायिका का अपने आँसुओं से यह कहना कि जरा ठहरो, और मेरे प्राण भी अपने साथ लेते जाओ। (ख) किसी बहाने या युक्ति से कोई काम करने का उल्लेख होता है। जैसे—पक्षियों और हिरनों को देखने के बहाने सीता जी बार-बार श्रीराम की ओर देखती थीं।
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पर्यालोचन  : पुं० [सं० परि-आ√लोच् (देखना)+ल्युट्—अन] १. अच्छी तरह की जानेवाली देख-भाल। २. दुबारा या फिर से की जानेवाली देख-भाल। ३. दे० ‘पुनरीक्षण’।
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पर्यालोचना  : स्त्री० [सं० परि-आ√लोच्+णिच्+युच्—अन,+टाप्]=पर्यालोचन।
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पर्यावरण  : पुं० [सं० परि+आवरण] किसी व्यक्ति या विषय की परिस्थिति। वातावरण। उदा०—कवि पर किसी एक समाज के पर्यावरण का विशेष प्रभाव पड़ता है।—डा० सम्पूर्णानन्द।
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पर्यावर्त्त  : पुं० [सं० परि-आ√वृत् (बरतना)+घञ्] १. वापस आना। लौटना। २. मृत आत्मा का फिर से इस संसार में आकर जन्म लेना या शरीर धारण करना।
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पर्यावर्तन  : पुं० [सं० परि-आ√वृत्+ल्युट्—अन] १. वापस आना। लौटना। २. अदला-बदली। विनिमय।
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पर्याविल  : वि० [सं० परि-आविल, प्रा० स०] गँदला (जल)।
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पर्यास  : पुं० [सं० परि√अस् (फेंकना)+घञ्] १. पतन। गिरना। २. वध। हत्या। ३. नाश। पुं०=प्रयास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्यासन  : पुं० [सं० परि√अस् (बैठना)+ल्युट्—अन] १. किसी को घेर कर बैठना। किसी के चारों ओर बैठना। २. परिक्रमा करना।
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पर्याहार  : पुं० [सं० परि-आ√हृ (हरण करना)+घञ्] १. जूआ। २. ढोने की क्रिया। ३. बोझ। ४. घड़ा। ५. अन्न जमा करना।
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पर्युक्षण  : पुं० [सं० परि√उक्ष् (सींचना)+ल्युट्—अन] श्राद्ध, होम, पूजा आदि के बिना मंत्र पढ़े छिड़का जानेवाला जल।
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पर्युक्षणी  : स्त्री० [सं० पर्युक्षण+ङीप्] पर्युक्षण के लिए जल से भरा पात्र।
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पर्युत्थान  : पुं० [सं० परि-उद्√स्था (ठहरना)+ल्युट्—अन] उठ खड़ा होना।
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पर्युसुक्  : वि० [सं० परि-उत्सुक, प्रा० स०] १. बहुत अधिक उत्सुक। २. उदास। खिन्न। ३. विकल। खिन्न।
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पर्युदय  : पुं० [सं० अत्या० स०] सूर्योदय से कुछ पहले का समय। तड़का।
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पर्युदस्त  : वि० [सं० परि-उद्√अस्+क्त] १. निषिद्ध। २. जिसके संबंध में या जिस पर आपत्ति की गई हो।
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पर्युदास  : पुं० [सं० परि-उद्√अस्+घञ्] नियम आदि के विरुद्ध अपवाद के रूप में कही जानेवाली बात।
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पर्युपस्थान  : पुं० [सं० परि-उप्√स्था+ल्युट्—अन] सेवा।
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पर्युपासक  : पुं० [सं० परि-उपासक, प्रा० स०] १. उपासक। २. सेवक।
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पर्युपासन  : पुं० [सं० परि-उपासन, प्रा० स०] १. उपासना। २. सेवा।
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पर्युपासिता (तृ), पर्युपासी (सिन्)  : पुं० [सं० परि-उप√आस+तृच्, सं० परि-उप√अस्+णिनि] पर्युपासक। (दे०)
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पर्युप्त  : भू० कृ० [सं० परि√वप् (बोना)+क्त] [भाव० पर्युप्ति] जो बोया गया हो।
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पर्युप्ति  : स्त्री० [सं० परि√वप्+क्तिन्] बीज बोने की क्रिया या भाव। बोआई।
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पर्युषण  : पुं० [सं० परि√उष्+ल्युट्—अन] १. जैनियों के अनुसार तीर्थंकरों की पूजा या सेवा। २. जैनों का एक विशिष्ट पर्व जिसमें कई प्रकार के व्रतों का पालन किया जाता है।
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पर्युषित  : वि० [सं० परि√वस्+क्त] १. जो ताजा न हो। एक दिन पहले का। बासी। (फूल या भोजन के लिए प्रयुक्त) २. मूर्ख।
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पर्यूहण  : पुं० [सं० परि√ऊह्+ल्युट्—अन] अग्नि के चारों ओर जल छिड़कना।
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पर्येषणा  : स्त्री० [सं० परि-एषणा, प्रा० स०] १. तर्कपूर्वक की जानेवाली पूछ-ताछ। २. चान-बीन। जाँच-पड़ताल। ३. पूजा।
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पर्योष्टि  : स्त्री० [सं० परि-आ√इष्+क्तिन्]। पर्येषणा। (दे०)
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पर्व (र्वन्)  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ण करना)+वनिप्] १. दो चीजों के जुड़ने का संधि-स्थान। जोड़। गाँठ। जैसे—उँगली या गन्ने का पर्व (पोर)। २. शरीर का ऐसा अंग जो किसी जोड़ के आगे हो और घुमाया फिराया या मोड़ा जा सकता हो। ३. अंश। खंड। भाग। ४. ग्रंथ या कोई विशिष्ट अंश, खंड या विभाग। जैसे—महाभारत में अठारह पर्व हैं। ५. सीढ़ी का डंडा। ६. कोई निश्चित या सीमित काल। अवधि, विशेषतः अमावस्या, पूर्णिमा और दोनों पक्षों की अष्टमियाँ। ७. वे यज्ञ जो उक्त तिथियों में किये जाते थे। ८. आनन्द और उत्सव का दिन या समय। ९. वह दिन जब विशिष्ट रूप से कोई धार्मिक या पुण्य-कार्य किया जाता हो। १॰. कोई विशिष्ट अच्छा अवसर या समय। आनन्द या त्योहार मनाने का दिन। ११. उत्सव। १२. चंद्रमा या सूर्य का ग्रहण। १३. सूर्य का किसी राशि में संक्रमण काल। संक्रांति। १४. चातुर्मास्य।
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पर्वक  : पुं० [सं० पर्वन्√कै (प्रकाशित होना)+क] घुटना।
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पर्वकार  : पुं० [सं० पर्वन्√कृ (करना)+अण्] वह ब्राह्मण जो घन के लोभ से पर्व के दिन काम छोड़ दे, और फिर सुभीते से किसी दूसरे दिन करे।
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पर्व-काल  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह समय जब कोई पर्व हो। पुण्यकाल। २. चंद्रमा के क्षय के दिन, अर्थात् पूर्णमासी से अमावस्या तक का समय।
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पर्वगामी (मिन्)  : पुं० [सं० पर्वन्√गम् (जाना)+णिनि] शास्त्रों द्वारा वर्जित तिथि या पर्व पर स्त्री-गमन करनेवाला व्यक्ति।
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पर्वण  : पुं० [सं०√पर्व् (पूर्ति)+ल्युट्—अन] १. कोई काम पूरा करने की क्रिया या भाव। २. एक राक्षस का नाम।
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पर्वणिका  : स्त्री० [सं० पर्वणी+कन्+टाप्, ह्रस्व] पर्वणी नाम का आँख का रोग।
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पर्वणी  : स्त्री० [सं० पर्वण्+ङीष्] १. सुश्रुत के अनुसार आँख की संधि में होनेवाला एक प्रकार का रोग जिसमें जलन और सूजन होती है। २. पूर्णिमा। ३. दे० ‘पर्विणी’।
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पर्वत  : पुं० [सं०√पर्व+अतच्] १. पत्थरों आदि का बना हुआ, मालाओं या श्रेणियों के रूप में फैला हुआ तथा ऊँची चोटियोंवाला वह भूखंड जो आस-पास की भूमि से सैकड़ों-हजारों फुट ऊँचा होता है तथा जो भूगर्भ की प्राकृतिक शक्तियों से निकलनेवाले मल से बनता है। पहाड़। विशेष—पर्वत प्रायः ढालुएँ होते हैं और उनके ऊपरी भाग निचले भागों की अपेक्षा बहुत कम विस्तृत होते हैं और उनके ऊपरी भाग चौड़े तथा चिपटे होते हैं। २. बहुत-सी चीजों का बना हुआ ऊँचा ढेर। ३. लाक्षणिक अर्थ में, अत्यधिक मात्रा में होने की अवस्था या भाव। जैसे—बातों का पहाड़। ४. पुराणानुसार एक देवर्षि जो नारद मुनि के बहुत बड़े मित्र थे। ५. एक प्रकार की मछली। ६. पेड़। वृक्ष। ७. एक प्रकार का साग। ८. दशनामी संप्रदाय के संन्यासियों का एक भेद या वर्ग; और उनके नाम के साथ लगनेवाली एक उपाधि। ९. मरीचि का एक पुत्र। १॰. एक गंधर्व का नाम। ११. रहस्य-संप्रदाय में (क) पाप, (ख) प्रेम, (ग) मन या ध्यान की ऊँची अवस्था, (घ) परमात्मा।
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पर्वतक  : पुं० [सं० पर्वत+कन्] छोटा पहाड़।
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पर्वत-काक  : पुं० [मध्य० स०] डोम कौआ।
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पर्वत-कीला  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] पृथ्वी।
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पर्वतखंड  : पुं० [सं०] १. पर्वत का टुकड़ा। २. पर्वतीय प्रदेश। ३. तटवर्ती प्रदेश में ऊँची तथा अति तीव्र ढालवाली चट्टान की दीवार।
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पर्वतज  : वि० [सं० पर्वत्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] जो पर्वत से उत्पन्न हुआ हो। पहाड़ से पैदा होने या निकलनेवाला।
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पर्वतजा  : स्त्री० [सं० पर्वतज+टाप्] १. नदी। २. पार्वती।
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पर्वत-जाल  : पुं० [ष० त०] पर्वत-माला।
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पर्वत-तृण  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक तरह की घास जिसे पशु खाते हैं।
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पर्वत-दुर्ग  : पुं० [मध्य० स०] पहाड़ पर बना हुआ किला।
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पर्वत-नंदिनी  : स्त्री० [ष० त०] पार्वती।
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पर्वत-पति  : पुं० [ष० त०] पर्वतों का राजा, हिमालय।
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पर्वत-प्रदेश  : पुं० [सं०] ऐसा प्रदेश जिसमें प्रायः पर्वत ही पर्वत हों।
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पर्वत-माला  : स्त्री० [ष० त०] भूगोल शास्त्र में, पहाड़ों की श्रृंखला जो दूर तक समानांतर चली गई हो। (चेन)
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पर्वत-मोचा  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह के पहाड़ी केले का पौधा और उसका फल।
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पर्वत-राज  : पुं० [ष० त०] १. बहुत बड़ा पहाड़। २. हिमालय पर्वत।
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पर्वतवासिनी  : स्त्री० [सं० पर्वत√वस् (वासना)+णिनि+ ङीष्] १. काली देवी। २. गायत्री। ३. छोटी जटामासी।
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पर्वतवासी (सिन्)  : पुं० [सं० पर्वत√वस्+णिनि] [स्त्री० पर्वतवासिनी] पहाड़ पर वास करनेवाला प्राणी।
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पर्वतस्थ  : वि० [सं० पर्वत√स्था (ठहरना)+क] पर्वत पर स्थित।
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पर्वतात्मज  : पुं० [सं० पर्वत-आत्मज, ष० त०] मैनाक (पर्वत)।
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पर्वतात्मजा  : स्त्री० [पर्वत-आत्मजा, ष० त०] पार्वती।
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पर्वताधारा  : स्त्री० [पर्वत-आधार, ब० स०, टाप्] पृथ्वी।
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पर्वतारि  : पुं० [पर्वत्-अरि, ष० त०] इंद्र।
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पर्वताशय  : पुं० [सं० पर्वत-आ√शी (सोना)+अच] मेघ। बादल।
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पर्वताश्रय  : पुं० [सं० पर्वत-आश्रय, ब० स०] १. शरभ। २. पर्वतवासी।
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पर्वताश्रयी (यिन्)  : पुं० [सं० पर्वत-आ√श्रि (सेवा)+ णिनि] पर्वतवासी।
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पर्वतासन  : पुं० [सं० पर्वत-आसन, मध्य० स०] हठ योग में एक प्रकार का आसन।
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पर्वतास्त्र  : पुं० [सं० पर्वत-अस्त्र, मध्य० स०] प्राचीन काल का एक प्रकार का कल्पित अस्त्र जिसके संबंध में कहा जाता है कि इनके फेंकते ही शत्रु की सेना पर बड़े बड़े पत्थर बरसने लगते थे अथवा अपनी सेना के चारों ओर पहाड़ खड़े हो जाते थे, जिससे शत्रु के प्रभंजनास्त्र विफल हो जाते थे।
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पर्वतिया  : पुं० [सं० पर्वत+इया (प्रत्य०)] १. नैपालियों की एक जाति। २. एक प्रकार का कद्दू। ३. एक प्रकार का तिल। वि०=पर्वतीय (पहाड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्वती  : वि०=पर्वतीय।
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पर्वतीय  : वि० [सं० पर्वत√छ—ईय] १. पर्वत-संबंधी। पहाड़ का’ पहाड़ी। २. पहाड़ पर रहने या होनेवाला। पहाड़ी जैसे—पर्वतीय पावस।
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पर्वतेश्वर  : पुं० [पर्वत-ईश्वर, ष० त०] हिमालय।
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पर्वतोद्भव  : पुं० [पर्वत-उद्भव, ब० स०] १. पारा। २. शिंगरफ।
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पर्वतोद्भूत  : पुं० [सं० पर्वन्-उद्भूत, पं० त०] अबरक।
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पर्वतोर्मि  : पुं० [पर्वत-उर्मि, ब० स०] एक तरह की मछली।
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पर्वधि  : पुं० [सं० पर्वन√धा (धारण करना)+कि] चंद्रमा।
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पर्वपुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] १. नागदंती नामक क्षुप। २. रामदूती नाम की तुलसी।
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पर्व-भाग  : पुं० [ष० त०] हाथ की कलाई।
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पर्व-भेद  : पुं० [सं० ब० स०] संधिभंग नामक रोग का एक भेद।
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पर्व-मूल  : पुं० [ष० त०] किसी पक्ष की चतुर्दशी और अमावश्या (अथवा पूर्णिमा) के संधिकाल का समय।
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पर्व-मूला  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] सफेद दूब।
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पर्व-योनि  : पुं० [ब० स०] ऐसी वनस्पति जिसमें जगह जगह पर्व अर्थात् गाँठें या पोर हों। जैसे—ऊख, बांस आदि।
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पर्वर  : प्रत्य० [फा०] पालन करनेवाला। परवर। पुं०=परवल (पौधा और उसका फल)।
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पर्वाना  : पुं० [फा० पर्वानः] परवाना। (दे०)
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पर्वानगी  : स्त्री० [फा०] आज्ञा। अनुमति।
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पर्वरुट (ह्र)  : पुं० [सं० पर्वन्√रुह् (उत्पत्ति)+क्विप्] अनार।
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पर्वरिश  : स्त्री०=परवरिश।
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पर्वरीण  : पुं० [सं०=पर्परीण, पृषो० सिद्धि०] १. पर्व। २. मृत शरीर। लाश। ३. अभिमान। घमंड।
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पर्व-वल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह की दूब। माला दूर्वा।
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पर्व-संधि  : पुं० [ष० त०] १. पूर्णिमा (या अमावस्या) और प्रतिपदा का संधिकाल। २. चंद्रमा अथवा सूर्य के ग्रहण का समय। ३. घुटनों का जोड़। ४. दो अवस्थाओं के बीच में पड़नेवाला समय या स्थान।
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पर्वा  : स्त्री०=परवाह। स्त्री०=प्रतिपदा।
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पर्वानगी  : स्त्री०=परवानगी।
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पर्वाना  : पुं०=परवाना।
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पर्वावधि  : स्त्री० [सं० पर्वन्-अवधि, ष० त०] गाँठ। जोड़।
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पर्वास्फोट  : पुं० [सं० पर्वन्-आस्पोट, ष० त०] १. उँगलियाँ चटकाने की क्रिया या भाव। २. उँगलिया चटकाने पर होनेवाला शब्द।
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पर्वाह  : पुं० [पर्वन्-अहन्, ष० त०, टच्] वह दिन जिसमें उत्सव मनाया जाय। पर्व का दिन। स्त्री० [फा० पर्वा] परवाह। (दे०)
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पर्विणी  : स्त्री० [सं०] १. छोटा और कम महत्त्वपूर्ण पर्व। २. पर्व का समय।
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पर्वित  : पुं० [सं०√पर्वू (पूर्ति)+क्त] एक प्रकार की मछली।
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पर्वेश  : पुं० [सं० पर्वन्—ईश, ष० त०] फलित-ज्योतिष में ब्रह्मा, इंद्र, चंद्र कुबेर, वरुण अग्नि और यम देवता जो ग्रहण के अधिपति माने जाते हैं। इन सभी का भोगकाल छः छः महीने का होता है।
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पर्श  : पुं० [स०] एक प्राचीन योद्धा जाति जिसके वंशज अफगानिस्तान में एक प्रदेश में रहते थे। पुं०=स्पर्श।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्शनीय  : वि० [सं० स्पर्शनीय] स्पर्श किये जाने के योग्य। स्पृश्य।
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पर्शु  : पुं० [सं०√स्पृश् (छूना)+शुन्—पृ, आदेश] १. आयुध। अस्त्र। २. परशु। फरसा। ३. पसली।
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पर्शुका  : स्त्री० [सं० पर्शु√कै (चमकना)+क+टाप्] पसली।
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पर्शु-पाणी  : पुं० [ब० स०] १. गणेश। २. परशुराम।
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पर्शुराम  : पुं० [मध्य० स०] परशुराम।
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पर्शु-स्थान  : पुं० [ष० त०] अफगानिस्तान का एक प्रदेश जिसमें पर्शु जाति के लोग रहते थे।
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पर्श्वध  : पुं० [सं०=परश्वध, पृषो० सिद्धि] कुठार।
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पर्षद्  : स्त्री०=परिषद्।
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पर्षद्वल  : पुं० [सं० पर्षद्+वलच्] परिषद् का सदस्य।
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पर्हेज  : पुं०=परहेज।
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पर्हेजगार  : वि०=परहेजगार।
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परमेश्वर  : वि० [सं० परमेश्वर+अण्] परमेश्वर संबंधी।
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परिपात्र  : पुं० [सं०] सात मुख्य पर्वत-मालाओं में से एक। पारियात्र।
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पर्याप्तिक  : वि० [सं० पर्याप्त+ठक्—इक] १. पर्याप्त। यथेष्ट। २. संपूर्ण।
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परुष-ग्रह  : पुं० [सं० ष० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार, मंगल, सूर्य और बृहस्पति, ये तीन ग्रह।
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परितोख  : पुं० [सं० परि√तुष् (प्रीति)+घञ्] १. निश्चिन्तता युक्त सुख जो कामना या साध पूरी होने पर होता है। अच्छी तरह होनेवाला तोष। पूर्ण तृप्ति। २. खुशी। प्रसन्नता।
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परितोषक  : वि० [सं० परि√तुष्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. परितोष करनेवाला। संतुष्ट करनेवाला। २. प्रसन्न या खुश करनेवाला।
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परितोषण  : पुं० [सं० परि√तुष्+णिच्+ल्युट्—अन] १. परितुष्ट करने की क्रिया या भाव। ऐसा काम करना जिससे किसी का परितोष हो। २. वह धन जो किसी को परितुष्ट करने के लिए दिया गया हो।
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परितोषवान् (वत्)  : वि० [सं० परितोष+मतुप्, वत्व] जो सहज में परितोष प्राप्त कर लेता है।
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परितोषी (विन्)  : वि० [सं० परितोष+इनि] १. जिसे परितोष हो। २. जल्दी या सहज में परितुष्ट होनेवाला।
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परितोस  : पुं०=परितोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परित्यक्त  : भू० कृ० [सं० परि√त्यज् (छोड़ना)+क्त] जिसे पूर्ण रूप से अथवा उपेक्षापूर्वक छोड़ दिया गया हो। (एबन्डन्ड)
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परित्यक्ता  : पुं० [सं० परित्यक्त+टाप्] त्यागने या छोड़नेवाला। वि० सं० ‘परित्यक्त’ का स्त्री०। स्त्री० वह स्त्री० जिसे उसके पति ने त्याग या छोड़ दिया हो।
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परित्यजन  : पुं० [सं० परि√त्यज्+ल्युट्—अन] परित्याग करने की क्रिया या भाव। त्यागना। छोड़ना।
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परित्यज्य  : वि० [सं० परित्याज्य]=परित्याज्य।
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परित्याग  : पुं० [सं० परि√त्यज्+घञ्] अधिकार स्वामित्व, संबंध, आधिकृत वस्तु, निजी संपत्ति, संबंधी आदि का पूर्ण रूप से तथा सदा के लिए किया जानेवाला त्याग। पूरी तरह से छोड़ देना। (एबन्डनिंग)
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परित्यागना  : स० [सं० परित्याग] पूरी तरह से ये सदा के लिए परित्याग करना।
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परित्यागी (गिन्)  : वि० [सं० परि√त्यज्+घिनुण्] परित्याग करने अर्थात् पूरी तरह से या सदा के लिए छोड़नेवाला।
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परित्याजन  : पुं० [सं० परि√त्यज्+णिच्+ल्युट्—अन] परित्याग।
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परित्याज्य  : वि० [सं० परि√त्याज्+ण्यत्] जिसका परित्याग करना उचित हो या किया जाने को हो। जो पूरी तरह से या सदा के लिए छोड़े जाने के योग्य हो।
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परित्रस्त  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक त्रस्त या डरा हुआ।
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परित्राण  : पुं० [सं० परि√त्रै (बचाना)+ल्युट्—अन] १. कष्ट, विपत्ति आदि से की जानेवाली पूर्ण रक्षा। २. शरीर पर के बाल या रोएँ। रोम।
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परित्रात  : भू० कृ० [सं० परि√त्रै+क्त] जिसका परित्राण या रक्षा की गई हो। रक्षा-प्राप्त।
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परित्राता (तृ)  : वि० [सं० परि√त्रै+तृच्] जो दूसरों का परित्राण करता हो। पूरी रक्षा करनेवाला।
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परित्रायक  : वि० [सं० परि√त्रै+ण्वुल—अक]=परित्राता।
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परित्रास  : पुं० [सं० परि√त्रस् (डरना)+घञ्] अत्यधिक त्रास।
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परिदंशित  : भू० कृ० [सं० परिदंश, प्रा० स०,+इतच्] जो पूर्ण रूप से अस्त्रों से सुसज्जित हो या किया गया हो।
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परिदत्त  : भू० कृ० [सं० परि√दा (देना)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसे परिदान मिला हो। २. (धन) जो परिदान के रूप में दिया गया हो।
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परिदर  : पुं० [सं० परि√दृ (फाड़ना)+अप्] मसूड़ों में से खून और मवाद निकलने या बहने का एक रोग। (पायरिया)
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परिदर्शन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अच्छी तरह से किया जानेवाला या होनेवाला दर्शन। पूर्ण दर्शन। २. निरीक्षण। ३. न्यायालय में किसी मुकद्दमे की होनेवाली सुनवाई। (ट्रायल)
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परिदष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√दंश+क्त] १. काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया हो। २. जिसे डंक या दाँत लगा हो। डंका या दाँत से काटा हुआ। दंशित।
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परिदहन  : पुं० [सं० परि√दह् (जलाना)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह या पूर्ण रूप से जलाना।
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परिदान  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिदत्त] १. लौटा देना। वापस कर देना। फेर देना। २. अदला-बदली। ३. अमानत लौटाना। ४. आज-कल वह आर्थिक सहायता जो राज्य सरकार व्यक्तियों, संस्थाओं आदि को उद्योगीकरण में प्रोत्साहित करने के लिए देती है। (सब्साइडी)
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परिदाय  : पुं० [सं० पर√दा (देना)+घञ्] सुगंधि। खुशबू।
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परिदायी (यिन्)  : वि० [सं० परि√दा+णिनि] जो ऐसे वर से अपनी कन्या का विवाह करता हो जिसका बड़ा भाई अभी तक कुआँरा हो।
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परिदाह  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यंत जलन या दाह। २. मानसिक कष्ट। दुःख या संताप।
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परिदिग्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] जिस पर कोई वस्तु बहुत अधिक मात्रा में लगी या पुती हो।
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परिदीन  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक दीन या दुःखी।
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परिदृढ़  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत दृढ़।
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परिदृष्टि  : स्त्री० [सं०] किसी वस्तु का ऐसा दृश्य या रूप जिसमें दूर से देखने पर उसके सब अंग अपने ठीक अनुपात में और एक दूसरे से उचित दूरी पर दिखाई दें। संदर्श। (परस्पेक्टिव)
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परिदेव  : पुं० [सं० परि√दिव् (गति)+घञ्] रोना-धोना। विलाप।
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परिदेवन  : पुं० [सं० परि√दिव्+ल्युट्—अन] १. कष्ट पहुँचने या हानि होने पर की जानेवाली चीख-पुकार। २. उक्त स्थिति में की जानेवाली फरियाद या शिकायत। परिवाद। (कम्प्लेन्ट)
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परिदेवना  : स्त्री०=परिदेवन।
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परिद्रष्टा (ष्ट्ट)  : वि० [सं० परि√दृश् (देखना)+तृच्] परिदर्शन करनेवाला।
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परिद्वीप  : पुं० [सं० ब० स०] गरुड़ का एक पुत्र।
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परिध  : स्त्री०=परिधि।
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परिधन  : पुं० [सं० परिधान] कमर और उससे निचला भाग ढकने के लिए पहना जानेवाला कपड़ा। अधोवस्त्र।
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परिधर्षण  : पुं० [सं० परि√धृष् (झिड़कना)+ल्युट्—अन] १. आक्रमण। २. अपमान। तिरस्कार। ३. दूषित या बुरा व्यवहार।
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परिधान  : पुं० [सं० परि√धा (धारण करना)+ल्युट्—अन] १. शरीर पर वस्त्र आदि धारण करना। कपड़े ओढ़ना या पहनना। २. वे कपड़े जो शरीर पर धारण किये या पहने जायँ। पोशाक। ३. कमर के नीचे पहनने या बाँधने का कपड़ा। जैसे—धोती, लुंगी आदि। ४. प्रार्थना स्तुति आदि का अंत या समाप्ति।
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परिधानीय  : वि० [सं० परि√धा+अनीयर्] [स्त्री० परिधानीया] जो परिधान के रूप में धारण किया जा सके पहने जाने के योग्य (वस्त्र)
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परिधाय  : पुं० [सं० परि√धा+घञ्] १. कपड़ा। वस्त्र। २. पहनने के कपड़े। परिधान। पोशाक। ३. वह स्थान जहाँ जल हो।
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परिधायक  : वि० [सं० परि√धा+ण्वुल्—अक] १. ढकने, लपेटने या चारों ओर से घेरनेवाला। पुं० १. घेरा। २. चहारदीवारी। प्राचीर।
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परिधायन  : पुं० [सं० परि√धा+णिच्+ल्युट्—अन] १. पहनना। २. पोशाक।
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परिधारण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिधार्य, परिधृत] १. अच्छी तरह किया जानेवाला धारण। २. अपने ऊपर उठाना, लेना या सहना। ३. बचाकर या रक्षित रूप में रखना।
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परिधावन  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या बहुत तेज दौड़ना।
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परिधि  : स्त्री० [सं० परि√धा+कि] १. वृत्त की रेखा। २. किसी गोलाकार वस्तु के चारों ओर खिंची हुई वृत्ताकार रेखा। (सरकम्फरेन्स) ३. वह गोलाकार मार्ग जिस पर कोई चीज चलती, घूमती या चक्कर लगाती हो। ४. प्रायः गोलाकार माना जानेवाला कोई ऐसा वास्तविक या कल्पित घेरा, जो दूसरे बाहरी क्षेत्रों से अलग हो। कुछ विशेष लोगों या कार्यों का स्वतंत्र क्षेत्र। वृत्त। (सर्किल) ५. सूर्य या चन्द्रमा के आस-पास दिखाई पड़नेवाला घेरा। परिवेश। मंडल। ६. किसी वस्तु की रक्षा के लिए बनाया हुआ घेरा। बड़ा चहारदीवारी। नियत या नियमित मार्ग। ८. वे तीन खूँटे जो यज्ञ-मंडप के आस-पास गाड़े जाते थे। ९. क्षितिज। १॰. परिधान। ११. दे० ‘परिवेश’।
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परिधिक  : वि० [सं०] १. परिधि-संबंधी। २. जिसका कार्य-क्षेत्र किसी विशेष परिधि में हो। जैसे—परिधिक निरीक्षक। (सर्किल इंस्पेक्टर)
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परिधिस्थ  : वि० [सं० परिधि√स्था (ठहरना)+क] जो किसी परिधि में स्थित हो। पुं० १. नौकर। सेवक। २. वह सेना जो रथ और रथी की रक्षा के लिए नियुक्त रहती थी।
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परिधीर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक धीरजवाला। परम धीर।
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परिधूपित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] धूप से अच्छी तरह बसाया या सुगंधित किया हुआ।
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परिधूमन  : पुं० [सं० परिधूम, प्रा० स०,+क्विप्+ल्युट्—अन] १. डकार। २. सुश्रुत के अनुसार तृष्णा रोग का एक उपद्रव जिसमें एक विशेष प्रकार की कै होती है।
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परिधूसर  : वि० [सं० प्रा० स०] १. धूल से भरा हुआ। जिसमें खूब धूल लगी हो। २. धूल के रंग का। मटमैला।
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परिधेय  : वि० [सं० परि√धा (धारण)+यत्] जो परिधान के रूप में काम आ सके। जो पहना जा सके या पहने जाने योग्य हो। पुं० १. पहनने के कपड़े। परिधान। पोशाक। २. अंदर या नीचे पहनने का कपड़ा। जैसे—गंजी, लहँगा या साया।
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परिध्वंस  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूरी तरह से होनेवाला ध्वसं या नाश। सर्व-नाश। २. ध्वंस। नाश
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परिध्वस्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका पूरी तरह से ध्वंस या नाश हो चुका हो या किया जा चुका हो।
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परिनगर  : पुं० [सं० प्रा० स०] नगर से कुछ हटकर बनी हुई बस्ती जो शासकीय दृष्टि से उसकी सीमा के अंतर्गत मानी जाती हो। (सबर्व)
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परिनय  : पुं०=परिणय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनागर  : वि० [सं० पारिनगर] परिनगर-संबंधी। (सबर्बन)
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परिनाम  : पुं०=परिणाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनामी  : वि०=परिणामी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनिर्णय  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी विवाद के संबंध में दिया हुआ पंचों का निर्णय। २. वह पत्र जिसमें पंचों का निर्णय लिखा हुआ हो। पंचाट। (अवार्ड)
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परिनिर्वाण  : पुं० [सं० प्रा० स०] पूर्ण निर्वाण। पूर्ण मोक्ष।
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परिनिर्वाति  : स्त्री० [सं० परि-निर्√वा (गति)+क्तिन्]=परिनिर्वाण।
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परिनिर्वृत्त  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिनिर्वृत्ति] १. जो मुक्त हो चुका हो। छूटा हुआ। २. जिसे मोक्ष मिल चुका हो।
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परिनिर्वृत्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. मोक्ष। २. छुटकारा। मुक्ति।
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परिनिष्ठा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. चरमसीमा या अवस्था। अंतिम सीमा। पराकाष्ठा। २. पूर्णता। ३. अभ्यास या ज्ञान की पूर्णता।
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परिनिष्ठित  : वि० [सं० परि-नि√स्था+क्त] १. (कार्य) जो पूरा या सम्पन्न किया जा चुका हो। निपटाया हुआ। २. जो किसी काम में पूरी तरह से कुशल या दक्ष हो।
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परिनिष्पन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] १. (काम) जो अच्छी तरह पूरा हो चुका हो। २. जो भाव-अभाव और सुख-दुःख की कल्पना से बिलकुल दूर या परे हो। (बौद्ध)
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परिनैष्ठिक  : वि० [सं० प्रा० स०] सर्वश्रेष्ठ। सर्वोत्कृष्ट।
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परिन्यास  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी पद, वाक्य आदि के भाव में पूर्णता लाना जो साहित्य में एक विशिष्ट गुण माना गया है। २. साहित्यिक रचना में उक्त प्रकार का स्थल। ३. नाटक में आख्यान बीज अर्थात् मुख्य कथा की मूलभूत घटना का संकेत करना।
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परिपंच  : पुं०=प्रपंच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपंथ  : वि० [सं० परि√पंथ् (गति)+अच्] जो रास्ता रोके हुए हो।
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परिपंथक  : वि० [सं० परि√पंथ्+ण्वुल्—अक] मार्ग या रास्ता रोकने वाला। पुं० १. वह जो प्रतिकूल या विरुद्ध आचरण या व्यवहार करता हो। २. दुश्मन। शत्रु। उदा०—पार भई परिपंथि गंजिमय।—गोरखनाथ। ३. लुटेरा। डाकू।
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परिपंथिक  : वि०, पुं०=परिपंथक।
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परिपंथी (न्थिन्)  : वि०, पुं० [सं० परि√पंथ्+ णिनि ]=परिपंथक।
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परिपक्व  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिपक्वता] १. जो अभिवृद्धि, विकास आदि की दृष्टि से पूर्णता तक पहुँच चुका हो। जैसे—परिपक्व अन्न, फल आदि २. अच्छी तरह पचा हुआ (भोजन)। ३. जिसका उपयुक्त या नियत समय आ गया हो। (मैच्योर) ४. अच्छा अनुभवी, ज्ञाता और बहुदर्शी। ५. कुशल। दक्ष। निपुण।
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परिपक्वता  : स्त्री० [सं० परिपक्व+तल्+टाप्] परिपक्व होने की अवस्था या भाव।
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परिपण  : पुं० [परि√पण् (व्यवहार करना)+घ] मूलधन। पूँजी।
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परिपणन  : पुं० [सं० परि√पण्+ल्युट्—अन] १. बाजी या शर्त लगाना। २. प्रतिज्ञा या वादा करना।
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परिपणित  : भू० कृ० [सं० परि√पण्+क्त] १. (कार्य या बात) जिस पर शर्त लगी या लगाई गई हो। २. (धन) जो बाजी या शर्त में लगाया गया हो। ३. (बात) जिसके संबंध में वादा किया गया हो।
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परिपणित-काल-संधि  : स्त्री० [सं० काल-संधि, ष० त० परिपणित-काल संधि, कर्म० स०] प्राचीन भारत में मित्र देशों में होनेवाली एक तरह की संधि, जिसमें यह नियत किया जाता था कि कितने-कितने समय तक कौन-कौन सदस्य लड़ेगा।
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परिपणित-देश-संधि  : स्त्री० [सं० देश-संधि, ष० त०, परिपणित-देशसंधि, कर्म० स०] प्राचीन भारत में मित्र देशों में होनेवाली वह संधि, जिसमें यह नियत होता था कि कौन किस देश पर आक्रमण करेगा।
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परिपणित-संधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह संधि जिसमें कुछ शर्तें स्वीकार की गई हों।
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परिपणितार्थ-संधि  : स्त्री० [सं० अर्थ-संधि, ष० त० परिपणितअर्थसंधि, कर्म० स०] ऐसी संधि जिसके अनुसार किसी को पूर्व निश्चय के अनुसार कुछ काम करना पड़ता हो।
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परिपतन  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी के चारों ओर उड़ना, चक्कर लगाना या मँडराना।
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परिपति  : वि० [सं० परि√पत् (गिरना)+इन्] जो सब का स्वामी हो। पुं० परमात्मा।
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परिपत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वह आधिकारिक पत्र जो विशिष्ट या संबद्ध पदाधिकारियों, सदस्यों आदि को सूचनार्थ भेजा जाता है। गश्ती चिट्ठी। (सरक्यूलर) २. वह पत्र जिसमें किसी को कुछ स्मरण करने के लिए कुछ लिखा गया हो। स्मृतिपत्र। (मैमोरैण्डम)
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परिपथ  : पुं० [सं०] १. किसी वृत्ताकार वस्तु के किनारे-किनारे बना हुआ पथ। २. अनेक नगरों, देशों, स्थलों आदि में पारी-पारी से होते हुए जाने के लिए पहले से नियत किया हुआ मार्ग। (सरकिट)
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परिपर  : पुं० [सं० परि√पृ (पूर्ति)+अप्]=परिपथ।
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परिपवन  : पुं० [सं० परि√पू (पवित्र करना)+ल्युट्—अन] १. अनाज ओसाना या बरसाना। २. अन्न ओसाने का सूप।
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परिपांडिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पांडिमान, पांडु+ इमनिच्, परिपांडिमन्, प्रा० स०] बहुत अधिक सफेदी या पीलापन।
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परिपांडु  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत हलका पीला। सफेदी लिए हुए पीला। २. दुबला-पतला। कृश और क्षीण।
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परिपाक  : पुं० [सं० परि√पच् (पकाना)+घञ्] १. अच्छी तरह या ठीक पकना या पकाया जाना। २. पेट में भोजन अच्छी तरह पचना। ३. किसी विषय या बात की ऐसी पूर्ण अवस्था तक पहुँचना जिसमें कुछ भी त्रुटि न रह जाय। ४. परिणाम। फल। ५. निपुणता। दक्षता।
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परिपाकिनी  : स्त्री० [सं० परिपाक+इनि+ङीष्] निसोथ।
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परिपाचन  : पुं० [सं० परि√पच्+णिच्+ल्युट्—अन] अच्छी तरह पचाना। भली भाँति पचाना।
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परिपाचित  : भू० कृ० [सं० परि√पच्+णिच्+क्त] अच्छी तरह पकाया हुआ।
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परिपाटल  : वि० [सं० प्रा० स०] पीलापन लिए लाल रंगवाला। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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परिपाटलित  : भू० कृ० [सं० परिपाटल+क्विप्+क्त] परिपाटल रंग में रँगा हुआ।
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परिपाटि  : स्त्री० [सं० परि√पट् (गति)+णिच्+ इन्]= परिपाटी।
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परिपाटी  : स्त्री० [सं० परिपाटि+ङीष्] १. किसी जाति, समाज आदि में कोई काम करने का कोई विशिष्ट बँधा हुआ ढंग अथवा शैली। २. विशिष्ट अवसर पर कोई विशिष्ट काम करने की प्रथा। ३. उक्त प्रकार के काम करने का ढंग या प्रथा। विशेष—परिपाटी, पद्धति और प्रथा का अन्तर जानने के लिए देखें ‘प्रथा’ का विशेष।
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परिपाठ  : पुं० [सं० परि√पठ् (पढ़ना)+घञ्] १. वेदों का पुनर्पठन। २. विस्तार के साथ उल्लेख या पाठ करना।
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परिपार (रि)  : स्त्री० [सं० पाली=मर्यादा]। उदा०—किहिं नर किहिं सर राखियै खैंर बठै परिपारि।—बिहारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपार्श्व  : वि० [सं० प्रा० स०] पार्श्व या बगल का। बहुत पास का। पुं० १. पार्श्व। २. समीप्य।
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परिपालक  : वि० [सं० परि√पाल् (रक्षा करना)+णिच्+ ण्वुल—अक] परिपालन करनेवाला।
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परिपालन  : पुं० [सं० परि+पाल+णिच्+ल्युट्—अन] १. रक्षा। बचाव। २. बहुत ही सावधानी से किया जानेवाला पालन-पोषण या लालन-पालन।
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परिपालना  : स्त्री० [सं० परि√पाल्+णिच्+युच्—अन] रक्षण। बचाव। स० [सं० परिपालन] परिपालन करना।
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परिपालनीय  : वि० [सं० परि√पाल्+णिच्+अनीयर्] जिसका परिपालन करना या होना चाहिए।
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परिपालयिता (तृ)  : वि० [सं० परि√पाल्+णिच्+ अनीयर्] जिसका परिपालन करनेवाला व्यक्ति। परिपालक।
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परिपाल्य  : वि० [सं० परि√पाल्+ण्यत्] जिसका परिपालन करना उचित हो या किया जाने को हो।
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परिपिंजर  : वि० [सं० प्रा० स०] हलके लाल रंग का।
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परिपिच्छ  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक प्रकार का आभूषण, जो मोर की पूँछ के परो का बना होता था।
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परिपिष्टक  : पुं० [सं० परि√पिष् (चूर्ण करना)+क्त+ कन्] सीसा।
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परिपीड़न  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यंत पीड़ा पहुँचाना। बहुत कष्ट देना। २. अच्छी तरह दबाना या पीसना। ३. अनिष्ट, अपकार या हानि करना।
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परिपीड़ित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो बहुत अधिक पीड़ित किया गया हो या हुआ हो।
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परिपोवर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधि मोटा या स्थूल।
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परिपुष्करा  : स्त्री० [सं० प्रा० ब० स०] गोडुंब ककड़ी। गोंडुबा।
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परिपुष्ट  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसका पोषण भली भाँति हुआ हो। पूर्ण रूप से पुष्ट।
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परिपुष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परिपुष्ट होने की अवस्था या भाव।
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परिपूजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] सम्यक् प्रकार से किया जानेवाला पूजन या उपासना।
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परिपूत  : वि० [सं० प्रा० स०] अति पवित्र। पुं० ऐसा अन्न जिसमें से कूड़ा-करकट, भूसी आदि निकाल दी गई हो। साफ किया हुआ अन्न।
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परिपूरक  : वि० [सं० प्रा० स०] १. परिपूर्ण करनेवाला। भर देनेवाला। २. धन-धान्य आदि से युक्त या संपन्न करनेवाला। ३. पूरा। संपूर्ण। सारा।
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परिपूरणीय  : वि० [सं० प्रा० स०] परिपूर्ण किये जाने के योग्य।
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परिपूरन  : वि०=परिपूर्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपूरित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह या पूरा-पूरा भरा हुआ। लबालब। २. पूरा या समाप्त किया हुआ।
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परिपूर्ण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो सब प्रकार से पूर्ण हो। २. अच्छी तरह तृप्त किया हुआ। ३. जो पूरा या समाप्त हो चुका हो या किया जा चुका हो।
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परिपूर्णेन्दु  : पुं० [सं० परिपूर्ण-इंदु, कर्म० स०] सोलहों कलाओं से युक्त चंद्रमा। पूर्णिमा का पूरा चाँद।
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परिपूर्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परिपूर्ण होने की अवस्था, क्रिया या भाव। परिपूर्णता।
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परिपृच्छक  : वि० [सं० परिप्रच्छक] जिज्ञासा या प्रश्न करनेवाला। पूछनेवाला।
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परिपृच्छनिका  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वह बात जिसके संबंध में वाद-विवाद किया जाय। वाद का विषय।
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परिपृच्छा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूछने की क्रिया या भाव। पूछताछ। २. जिज्ञासा।
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परिपेल  : पुं० [सं० परि√पेल् (कंपन)+अच्] केवटी मोथा। कैवर्त मुस्तक।
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परिपेलव  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर तथा सुकुमार। पुं० केवटी मोथा।
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परिपोट (क)  : पुं० [सं० परि√पुट् (फोड़ना)+घञ्] [परिपोट+कन्] कान का एक रोग जिसमें उसकी त्वचा गल या छिल जाती है।
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परिपोटन  : पुं० [सं० परि√पुट्+ल्युट्—अन] किसी चीज का छिलका अथवा ऊपरी आवरण हटाना।
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परिपोषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिपोषित] अच्छी तरह किया जानेवाला पोषण। भली भाँति पुष्ट करना।
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परिप्रश्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] कोई बात जानने के लिए किया जानेवाला प्रश्न। (एन्क्वायरी)
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परि-प्रश्नक  : पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ विशेष रूप से किसी विशिष्ट विभाग या विषय से संबंध रखनेवाली बातों की पूछ-ताछ की जाती है। (एन्क्वायरी आफिस)
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परिप्रेक्ष्य  : पुं० [सं०] चित्रकला में, दृश्यों, पदार्थों, व्यक्तियों का ऐसा अंकन या चित्रण जिसमें उनका पारस्परिक अन्तर ठीक उसी रूप में दिखाई देता हो, जिस रूप में वह साधारणतः आँखों से देखने पर दिखाई देता है। (पर्स्पेक्टिव)
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परिप्रेषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिप्रेषित] १. चारों ओर भेजना। २. किसी को दूत या हरकारा बनाकर कहीं भेजना। २. देश-निकाला। निर्वासन। ३. परित्याग।
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परिप्रेषित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. भेजा हुआ। प्रेषित। २. निकाला हुआ। निष्काषित। ३. छोड़ा या त्यागा हुआ। परित्यक्त।
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परिप्रेष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं० प्रा० स०] जो भेजा जाने को हो या भेजे जाने के योग्य हो। पुं० नौकर। सेवक।
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परिप्लव  : वि० [सं० परि√प्लु (गति)+अच्] १. तैरता या बहता हुआ। २. जो गति में हो। ३. हिलता-काँपता हुआ। पुं० १. तैरना। २. पानी की बाढ़। ३. अत्याचार। ४. नाव। नौका।
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परिप्लावित  : भू० कृ० [सं०] (स्थान) जो बाढ़ के कारण जलमग्न हो चुका हो।
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परिप्लुत  : वि० [सं० परि√प्लु+क्त] १. जिसके चारों ओर जल ही जल हो। २. भीगा हुआ। आर्द्र। गीला। तर। ३. काँपता या हिलता हुआ। पुं० कहीं पहुँचने के लिए उछलकर आगे बढ़ने की क्रिया। छलाँग।
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परिप्लुता  : स्त्री० [सं० परिप्लुत+टाप्] १. मदिरा। शराब। २. ऐसी योनि जिसमें मैथुन या मासिक रजःस्राव के समय पीड़ा होती हो। (वैद्यक)
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परिप्लुष्ट  : वि० [सं० परि√प्लुष् (दाह)+क्त] १. जला या जलाया हुआ। २. झुलसा हुआ।
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परिप्लोष  : पुं० [सं० परि√प्लुष्+घञ्] १. तपना। ताप। २. जलन। दाह। ३. शरीर के अन्दर का ताप।
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परिफुल्ल  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह खिला हुआ। खूब खिला हुआ। २. अच्छी तरह खुला हुआ। ३. बहुत अधिक प्रसन्न। ४. जिसके रोएँ खड़े हो गये हों। जिसे रोमांच हुआ हो।
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परिबंधन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिबद्ध] ऐसा बंधन जिसमें चारों ओर से किसी को जकड़ा जाय।
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परिबर्ह  : पुं० [सं० परि√बर्ह् (दान)+घञ्] १. राजाओं के हाथी-घोड़ों पर डाली जानेवाली झूल। २. राजा के छत्र, चँवर आदि राजचिह्न। राजा का साज-सामान। ३. घर-गृहस्थी में नित्य काम आनेवाली चीजें। घर का सामान। ४. धन-सम्पत्ति। दौलत।
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परिबर्हण  : पुं० [सं० परि√बर्ह्+ल्युट्—अन] १. पूजा। उपासना। २. सब प्रकार से होनेवाली वृद्धि। ३. सम्पन्नता। समृद्धि।
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परिबल  : पुं० [सं० प्रा० स०] यंत्रों आदि का वह बल या शक्ति जिसकी प्रेरणा से उसका कोई अंग या पहिया किसी अक्ष या बिन्दु पर घूमता या चक्कर लगाता है। (मोमेन्टम)
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परिबाधा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बहुत बड़ी या विकट बाधा। २. कष्ट। पीड़ा। ३. परिश्रम। ४. थकावट। श्रांति।
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परिबृंहण  : पुं० [सं० परि√बृंह् (वृद्धि)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवृंहित] १. चारों ओर या हर तरफ से बढ़ना। वर्धन। २. पूरक ग्रंथ जो किसी मुख्य ग्रंथ में प्रतिपादित विचारों की पुष्टि और समर्थन करता हो।
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परिबेख  : पुं०=परिवेष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिबेठना  : स० [सं० प्रतिवेष्ठन] आच्छादित करना। लपेटना। ढकना। उदा०—ग्रीष्म द्वैपहरी मिस जोन्ह महा विष ज्वालन सों परिबेठी।—देव।
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परिबोध  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. ज्ञान। २. तर्क। ३. वे प्रतिबंध या विघ्न जो दुर्बल चित्तवाले साधकों को समाधिस्थ नहीं होने देते।
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परिबोधन  : पुं० [सं० परि√बुद्ध+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिबोधनीय] १. ठीक प्रकार से बोध करना। २. दंड की धमकी देकर कोई विशेष कार्य करने से रोकना। चेतावनी देना। ३. चेतावनी।
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परिबोधना  : स्त्री० [सं० परि√बुध्+णिच्+युच्—अन, टाप्] चेतावनी।
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परिभंग  : पुं० [सं० प्रा० स०] टुकड़े-टुकड़े करना।
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परिभक्ष  : वि० [सं० परि√भक्ष् (खाना)+अच्] परिभक्षण करनेवाला।
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परिभक्षण  : पुं० [सं० परि√भक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभक्षित] १. पूरी तरह से खाना। २. खूब खाना।
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परिभक्षा  : स्त्री० [सं० परि√भक्ष्+अ+टाप्] आपस्तंब सूत्र के अनुसार एक प्रकार का विधान।
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परिभर्त्सन  : पुं० [सं० प्रा० स०] चारों ओर से होनेवाली भर्त्सना।
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परिभव  : पुं० [सं० परि√भू (होना)+अप्] अनादर। अपमान। तिरस्कार। उदा०—चिर परिभव से श्रेष्ठ है मरण।—पंत।
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परिभवनीय  : वि० [सं० परि√भू+अनीयर्] १. जो अनादर या अपमान का पात्र हो। २. जिसकी पराजय निश्चित-प्राय हो।
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परिभवी (विन्)  : वि० [सं० पर√भू+इनि] दूसरों का अनादर या अपमान करनेवाला।
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परिभाव  : पुं० [सं० परि√भू+घञ्] १. अनादर। अपमान। परिभव। २. मात करना। हराना। पराभव।
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परिभावन  : पुं० [सं० परि√भू+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभावित] १. मिलाप। संयोग। मिलन। २. चिंता। फिक्र।
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परिभावना  : स्त्री० [सं० परि√भू+णिच्+युच्—अन+टाप्] १. चिन्तन। विचार। २. चिंता। फिक्र। ३. साहित्य में ऐसा वाक्य या पद जिससे अतिशय उत्सुकता उत्पन्न हो।
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परिभावित  : भू० कृ० [सं० परि√भू+णिच्+क्त] १. मिला या मिलाया हुआ। मिश्रित। २. व्याप्त। ३. जिस पर विचार किया जा चुका हो। विचारित।
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परिभावी (विन्)  : वि० [सं० परि√भू+णिच्+णिनि] अनादर, अपमान या तिरस्कार करनेवाला।
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परिभावुक  : वि०=परिभावी।
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परिभाषक  : वि० [सं० परि√भाष् (बोलना)+ण्वुल—अक] १. निंदा के द्वारा किसी का अपमान करनेवाला। २. निंदक।
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परिभाषण  : पुं० [सं० परि√भाष्+ल्युट्—अन] १. बात-चीत। वार्तालाप। २. दोषारोपण तथा निंदा करना। ३. नियम।
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परिभाषा  : स्त्री० [सं० परि√भाष्+अ+टाप्] १. बात-चीत। २. निंदा। ३. व्याकरण में वह व्याख्यापक सूत्र जो पाणिनी के सूत्रों के साथ रहता और उनके प्रयोग की रीति बतलाता है। ४. किसी वाक्य में आये हुए पद या शब्द का अर्थ अथवा आशय निश्चित रूप से स्पष्ट करने की क्रिया या प्रकार। ५. ऐसा कथन या वाक्य जो किसी पद या शब्द का अर्थ या आशय स्पष्ट रूप से बतलाता या व्यक्त करता हो। व्याख्या से युक्त अर्थापन। (डेफिनेशन) ६. ऐसा शब्द जो किसी विज्ञान या शास्त्र में किसी विशिष्ट अर्थ में चलता या प्रयुक्त होता हो। परिभाषिक शब्द। (टेक्निकल टर्म)
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परिभाषित  : भू० कृ० [सं० परि√भाष्+क्त] (शब्द या पद) जिसकी परिभाषा की गई या हो चुकी हो। (डिफाइन्ड)
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परिभाषी (षिन्)  : वि० [सं० परि√भाष्+णिनि] बोलने या भाषण करनेवाला।
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परिभाष्य  : वि० [सं० परि√भाष्+ण्यत्] १. जो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता हो या कहा जाने को हो। २. जिसकी परिभाषा की जा रही हो या की जाने को हो।
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परिभिन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] १. टूटा-फूटा या फटा हुआ। २. विकृत।
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परिभुक्त  : भू० कृ० [सं० परि√भुज (भोगना)+क्त] जिसका परिभोग किया गया हो या हो चुका हो।
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परिभुग्न  : भू० कृ० [सं० परि√भुज (चूर्ण करना)+क्त] टेढ़ा।
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परिभू  : वि० [सं० परि√भू+क्विप्] १. जो चारों ओर से घेरे या आच्छादित किये हुए हो। २. नियम, बंधन आदि में रहनेवाला। ३. नियामक। परिचालक।
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परिभूत  : भू० कृ० [सं० परि√भू+क्त] [भाव० परिभूति] १. जिसका परिभव हुआ हो। २. अनादृत। तिरस्कृत। ३. हारा हुआ। परास्त।
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परिभूति  : स्त्री० [सं० परि+भू+क्तिन्] अपमानित होने या हारने की अवस्था या भाव।
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परिभूषण  : पुं० [सं० परि√भूष् (सजाना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभूषित] १. अच्छी तरह से भूषित करना। अलंकृत करना। २. प्राचीन भारत में, वह संधि जो आक्रमक को अपने देश का राजस्व देकर की जाती थी।
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परिभूषित  : भू० कृ० [सं० परि√भूष्+क्त] जिसका परिभूषण किया गया हो या हुआ हो।
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परिभेद  : पुं० [सं० परि√भिद् (फाड़ना)+घञ्] १. अच्छी तरह से भेदन करना। २. शास्त्रों आदि से किया जानेवाला आघात। ३. उक्त प्रकार के आघात से होनेवाला क्षत। घाव। जखम।
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परिभेदक  : वि० [सं० परि√भिद्+ण्वुल्—अक] १. अच्छी तरह भेदन करने अर्थात् काटने या फाड़नेवाला। २. गहरा घाव करनेवाला। पुं० यथेष्ट क्षत या घात करनेवाला शस्त्र।
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परिभोक्ता (क्तृ)  : वि० परि√भुज्+तृच्] १. परिभोग करनेवाला। २. दूसरे के धन का उपभोग करनेवाला। पुं० गुरु के धन का उपभोग करनेवाला व्यक्ति।
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परिभोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिभोग्य] १. बहुत अधिक किया जानेवाला भोग। २. स्त्री० के साथ किया जानेवाला मैथुन। संभोग।
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परिभ्रंश  : पुं० [सं० परि√भ्रंश् (अधःपतन)+घञ्] १. गिरना या गिराना। पतन। स्खलन। २. पलायन। भगदड़।
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परिभ्रम  : पुं० [सं० परि√भ्रम (घूमना)+घञ्] १. चारों ओर घूमना। पर्यटन। २. भ्रम। ३. सीधी तरह से कोई बात न कहकर उसे घुमाफिराकर चक्करदार ढंग या सांकेतिक रूप से कहना। जैसे—‘नाक पर मक्खी न बैठने देना।’ के बदले में कहना—सूँघने की इन्द्रिय पर घर उड़ते फिरने वाले कीड़े या पतंगे को आसन न लगाने देना।
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परिभ्रमण  : पुं० [सं० परि√भ्रम्+ल्युट्—अन] १. चारों ओर घूमना। २. विज्ञान में, किसी एक वस्तु का किसी दूसरी वस्तु को केन्द्र मानकर उसके चारों ओर घूमना या चक्कर लगाना। (रोटेशन) जैसे—चंद्रमा पृथ्वी का और पृथ्वी सूर्य का परिभ्रमण करता है। ३. घेरा। परिधि।
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परिभ्रष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√भ्रंश+क्त] १. गिरा हुआ। च्युत। पतित। २. स्खलित। भागा हुआ।
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परिभ्रामी (मिन्)  : वि० [सं० परि√भ्रम्+णिनि] परिभ्रमण करनेवाला।
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परिमंडल  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिमंडलता] १. गोल। वर्तुलाकार। २. जो तौल में एक परमाणु के बराबर हो। पुं० १. चक्कर। २. घेरा। विशेषतः वृत्ताकार घेरा। परिधि। ३. एक तरह का जहरीला कीड़ा। ३. चंद्रमा अथवा सूर्य के चारों ओर की प्रकाशमान वृत्ताकार रेखा। ४. चंद्रमा या सूर्य का प्रभामंडल। (कारोना)
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परिमंडल कुष्ठ  : पुं० [सं० कर्म० स०] कुष्ठ का एक भेद।
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परिमंडलता  : स्त्री० [सं० परिमंडल+तल्+टाप्] गोलाई।
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परिमंडलित  : भू० कृ० [सं० परिमंडल+इतच्] चारों ओर से गोल किया हुआ। गोलाकृति बनाया हुआ।
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परिमंथर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक मंथर।
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परिमंद  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अत्यधिक मंद बुद्धि। २. बहुत ही शिथिल या सुस्त।
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परिमन्यु  : वि० [सं० अत्या० स०] जिसे बहुत अधिक क्रोध आता हो। क्रोधी स्वभाव का। गुस्सेवर।
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परिमर  : पुं० [सं० परि√मृ (मरना)+अप्] १. पूर्ण नाश। २. किसी के पूर्ण नाश के लिए किया जानेवाला एक तांत्रिक प्रयोग। ३. वायु।
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परिमर्द्द  : पुं० [सं० परि√मृद् (मर्दन)+घञ्] बहुत अधिक या अच्छी तरह से किया जानेवाला मर्दन।
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परिमर्श  : पुं० [सं० परि√मृद् (छूना, विचारना)+घञ्] १. छू जाना। लग जाना। २. लगाव होना। ३. अच्छी तरह किया जानेवाला विचार। परामर्श।
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परिमर्ष  : पुं० [सं० परि√मृष् (सहना)+घञ्] १. ईर्ष्या। २. कुढ़न। ३. क्रोध।
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परिमल  : पुं० [सं० परि√मल् (धारण)+अच्] १. अच्छी तरह मलना। २. शरीर में सुगंधित द्रव्य मलना या लगाना। ३. उक्त प्रकार से शरीर में मले या लगाये हुए पदार्थों से निकलनेवाली सुगंध। ४. खुशबू। सुगंध। सुवास। ५. पुष्पों आदि से निकलनेवाली वह सुगंध जो चारों ओर दूर तक फैलती हो। ६. मैथुन। संभोग। ६. पंडितों या विद्वानों की मंडली या समुदाय।
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परिमलज  : वि० [सं० परिमल√जन् (उत्पन्न होना)+ ड] परिमल अर्थात् मैथुन से प्राप्त होनेवाला (सुख)।
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परिमलित  : भू० कृ० [सं० परिमल+इतच्] फूलों आदि की सुगंध से सुगंधित किया हुआ।
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परिमा  : स्त्री० [सं० परि√मा (मापना)+अङ्+टाप्] १. सीमा। हद। २. ज्यामिति में, किसी क्षेत्र की सीमा सूचित करनेवाली रेखा। (बाउंड)
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परिमाण  : पुं० [सं० परि√मा+ल्युट्—अन] १. गिनने, तौलने, मापने आदि पर प्राप्त होनेवाला फल। २. नाप, जोख तौल आदि की दृष्टि से किसी वस्तु की लंबाई, चौड़ाई, भार, घनत्व विस्तार आदि। मान। (क्वान्टिटी) ३. चारों ओर का विस्तार। घेरा।
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परिमाणक  : पुं० [सं० परिमाण+कन्] १. परिमाण। २. तौल। भार।
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परिमाण-मंडल  : पुं० [सं०] भूगर्भ-शास्त्र में पृथ्वी के तीन मुख्य पटलों या विभागों में बीच का पटल या विभाग जो अनेक प्रकार की धातु-मिश्रित चट्टानों का बना हुआ गरम और ठोस है और जिसके ऊपरी पटल पर मनुष्य बसते और वनस्पतियाँ उगती हैं। (बैरिस्फीयर)
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परिमाणी (णिन्)  : वि० [सं० परिमाण+इनि] परिमाण युक्त। परिमाण विशिष्ट।
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परिमाता (तृ)  : वि० [सं० परि√मा+तृच्] परिमाण का पता लगानेवाला। परिमाण स्थिर करनेवाला।
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परिमाथी (थिन्)  : वि० [सं० परि√मथ् (मथना)+ णिनि] कष्ट देनेवाला।
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परिमान  : पुं०=परिमाण।
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परिमाप  : पुं० [सं० परि√मा+णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] १. मापने या नापने की क्रिया या भाव। २. लंबाई, चौड़ाई की नाप या लेखा। (डाइमेंशन) ३. वह उपकरण जिससे कोई चीज मापी या नापी जाय। (स्केल) ४. ज्यामिति में किसी आकृति, क्षेत्र या तल को चारों ओर से घेरनेवाली बाहरी रेखा अथवा ऐसी रेखा की लंबाई या विस्तार। (परिमीटर)
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परिमार्ग  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी चीज के चारों ओर बना हुआ पथ या मार्ग। परिपथ।
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परिमार्गन  : पुं० [सं० परि√मार्ग (खोजना)+ल्युट्—अन ] १. टोह या पता लगाने के लिए चारों ओर जाना। २. अन्वेषण। ३. मन-बहलाव या सैर-सपाटे के लिए घूमना। (एक्सकर्शन)
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परिमार्गी (गिन्)  : वि० [सं० परि√मार्ग+णिनि] टोह या पता लगाने वाला।
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परिमार्जक  : वि० [सं० परि√मृज् (शुद्धि करना)+ ण्वुल्—अक] परिमार्जन करनेवाला।
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परिमार्जन  : पुं० [सं० परि√मृज्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिमार्जित] १. साफ करने के लिए अच्छी तरह धोना। २. अच्छी तरह साफ करना। ३. साहित्य में, उनकी त्रुटियों, कमियों आदि को दूर करना और इस प्रकार उन्हें उज्जवल बनाना। ४. भूलें आदि सुधारना। ५. प्राचीन भारत में एक प्रकार की मिठाई जो शहद में पागकर बनाई जाती थी।
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परिमार्जित  : भू० कृ० [सं० परि√मृज्+णिच्+क्त] जिसका परिमार्जन किया गया हो या हुआ हो। स्वच्छ किया या सुधारा हुआ।
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परिमित  : वि० [सं० परि√मा+क्त] [भाव० परिमिति] १. जो मापा जा चुका हो। २. परिमाण या मात्रा में जो किसी विशिष्ट विंदु, संख्या आदि से कम हो, कम किया गया हो अथवा उससे अधिक न बढ़ सकता हो। (लिमिटेड)
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परिमितकथी (थिन्)  : वि० [सं० परिमित√कथ् (कहना)+णिनि] कम बोलनेवाला। नपे-तुले शब्द या बातें कहनेवाला। अल्प-भाषी।
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परिमितायु (स्)  : वि० [सं० परिमित-आयुस्, ब० स० ] जिसकी आयु परिमिति अर्थात् थोड़ी हो।
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परिमिताहार  : पुं० [सं० परिमिति-आहार, ब० स०] अल्प भोजन। कम खाना। वि० कम भोजन करनेवाला। अल्पाहारी।
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परिमिति  : स्त्री० [सं० परि√मा+क्तिन्] १. परिमिति होने की अवस्था या भाव। २. परिमाण। ३. सीमा। हद। ४. क्षितिज। ५. प्रतिष्ठा। मर्यादा।
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परिमिलन  : पुं० [सं० परि√मिल् (मिलना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिमिलित] १. मिलन। २. संपर्क। ३. स्पर्श। ४. संयोग।
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परिमीठ  : भू० कृ० [सं० परि√मिह् (सींचना)+क्त] मूत्र से सिक्त।
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परिमुक्त  : वि० [सं० परि√मुच् (छोड़ना)+क्त] [भाव० परिमुक्ति] बिलकुल स्वतन्त्र।
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परिमृज्य  : वि० [सं० परि√मृज्+क्विप्] १. परिमार्जित किये जाने के योग्य। २. जिसका परिमार्जन होने को हो।
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परिमृष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√मृज् (शुद्ध करना)+क्त] १. धोया हुआ। २. साफ किया हुआ। ३. अधिकार में किया या लिया हुआ। अधिकृत। ४. (व्यक्ति) जिससे परामर्श किया गया हो। ५. (विषय) जिसके संबंध में परामर्श हो चुका हो। ६. आलिंगित।
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परिमृष्टि  : स्त्री० [सं० परिमृज्+क्तिन्] परिमृष्ट होने की अवस्था या भाव।
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परिमेय  : वि० [सं० परि√मा+यत्] १. जिसका परिमाण जाना जा सके अथवा जाना जाने को हो। २. घनत्व, मान, विस्तार, संख्या आदि में कम।
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परिमोक्ष  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूर्ण मोक्ष। निर्वाण। २. परित्याग। छोड़ना। ३. सब को मोक्ष देनेवाले, विष्णु। ४. मल-त्याग करना। हगना।
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परिमोक्षण  : पुं० [सं० परि√मोक्ष (छोड़ना)+ल्युट्—अन ] १. मुक्त करना या होना। २. मुक्ति या मोक्ष देना। ३. परित्याग करना। छोड़ना। ४. मल-त्याग करना। हगना। ५. हठयोग की भाँति धौति क्रिया से आँतें साफ करना।
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परिमोष  : पुं० [सं० परि√मुष् (चोरी करना)+घञ्] १. चोरी। २. डाका।
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परिमोषक  : पुं० [सं० परि√मुष्+ण्वुल्—अक] १. चोर। डाकू।
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परिमोषण  : पुं० [सं० परि√मुष्+ल्युट्—अन] चुराने या डाका डालने का काम। किसी को मूसना; अर्थात् उसका सब-कुछ ले लेना।
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परिमोषी (षिन्)  : पुं० [सं० परि√मुष्+णिनि] १. चोर। २. डाकू।
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परिमोहन  : पुं० [सं० प्रा० स०] सम्मोहन। (दे०)
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परिम्लान  : वि० [सं० प्रा० स०] १. कुम्हलाया या मुरझाया हुआ। २. निस्तेज। हतप्रभ।
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परियंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परियंत  : अव्य०=पर्यंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परियज्ञ  : पुं० [सं० ब० स०] किसी बड़े यज्ञ के पहले या पीछे किया जानेवाला छोटा यज्ञ
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परियत्त  : भू० कृ० [सं० परि√यत् (प्रयत्न)+क्त] चारों ओर से घिरा हुआ।
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परियष्टा (ष्टृ)  : पुं० [सं० परि√यज् (देवपूजन)+तृच्] अपने बड़े भाई से पहले सोम-याग करनेवाला व्यक्ति।
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परिया  : पुं० [तामिल परेंयान] दक्षिण भारत की एक प्राचीन अछूत या अस्पृश्य जाति। वि० १. अछूत। अस्पृश्य। २. क्षुद्र। तुच्छ। स्त्री० [देश०] वे लकड़ियाँ जिससे ताना ताना जाता है।
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परियाण  : पुं० [सं० परि√या (जाना)+ल्युट्—अन] १ चारों ओर घूमना। २. पर्यटन।
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परियाणिक  : पुं० [सं० परियाण+ठन्—इक्] १. वह जो परियाण या पर्यटन कर रहा हो। २. वह गाड़ी जिस पर बैठकर घूमा-फिरा जाता हो।
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परियात  : वि० [सं० परि√या+क्त] १. जो घूम-फिरकर लौट आया हो।
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परियाना  : अ० [सं० प्र-याति] जाना। उदा०—केन कार्य परियासि कुत्र।—प्रिथीराज। स० [?] अलग अलग करना। छाँटना।
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परियार  : पुं० [देश०] बिहारी शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की एक उपजाति। २. मदरास में बसनेवाली एक छोटी जाति।
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परियुक्ति  : स्त्री० [सं० परि√युज् (लगाना)+क्तिन्] १. काम, बात, समय आदि निश्चित या नियत करने अथवा इनके लिए किसी व्यक्ति को नियत या नियुक्त करने की क्रिया या भाव। २. वह स्थिति जिसमें किसी काम या बात के लिए कोई किसी से वचन-बद्ध हो। ठहराव। (एंगेजमेंट)
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परियुद्धक  : पुं० [सं०] युद्ध-काल में वह देस जो अपने हितों के रक्षार्थ दूसरे देश या देशों से लड़ रहा हो। (बेलीगरेन्ट)
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परियोजना  : स्त्री० [सं०] कार्य-रूप में लायी जानेवाली योजना के संबंध में नियमित और व्यवस्तिति रूप से स्थिर किया हुआ विचार और स्वरूप। (स्कीम)
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परिरंभ, परिरंभण  : पुं० [सं० परि√रभ् (मलना)+घञ्, मुम्] [सं० परि√रभ्+ल्युट्—अन] [वि० परिरंभित, परिरंभी] अच्छी तरह से गले लगाना। कसकर गले मिलना। गाढ़ अलिंगन।
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परिरंभना  : स० [सं० परिरंभ+ना (प्रत्य०)] किसी को गले से लगाना। आलिंगन करना।
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परिरक्षक  : वि० [सं० परि√रक्ष् (बचाना)+ण्वुल्—अक] जो सब ओर से रक्षा करता हो। हर तरफ से बचानेवाला।
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परिरक्षण  : पुं० [सं० परि√रक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिरक्षित] हर तरह से रक्षा करना।
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परिरथ्या  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] चौड़ा रास्ता जिस पर रथ चलते थे।
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परिरब्ध  : वि० [सं० परि√रभू+क्त] १. घिरा हुआ। गले लगाया हुआ।
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परिरमित  : वि० [सं० परिरत] (काम, क्रीड़ा आदि में) लीन।
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परिराटी (टिन्)  : वि० [सं० परि√रट् (रटना)+घिनुण्] १. चीखने-चिल्लानेवाला। २. कर्कश ध्वनि करनेवाला।
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परिरूप  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. कला, शिल्प आदि के क्षेत्र में, वह कलापूर्ण रेखा-चित्र जिसे आधार मानकर तथा जिसके अनुकरण पर कोई काम किया या रचना खड़ी की जाय। भाँत। २. उक्त के अनुकरण पर बनी हुई चीज। (डिज़ाइन, उक्त दोनों अर्थों में) जैसे—शहरों में कपड़ों और मकानों के नये-नये परिरूप देखने में आते हैं।
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परिरूपक  : पुं० [सं० परि√रूप् (रूपान्वित करना)+ णिच्+ण्वुल्—अक] वह शिल्पी जो विभिन्न वस्तुओं के नये-नये परिरूप बनाता हो। (डिज़ाइनर)
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परिरेखा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी तिकोने, चौकोर अथवा बहुभुजी क्षेत्र के सब ओर पड़नेवाली रेखा। (पेरिफेरी) जैसे—किसी टापू या पहाड़ की परिरेखा।
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परिरोध  : पुं० [सं० परि√रुध् (रोकना)+घञ्] चारों ओर से छेंकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिलंघन  : पुं० [सं० परि√लङ्घ (लाँघना)+ल्युट्—अन] लाँघना।
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परिलघु  : वि० [सं० अत्या० स०] १. बहुत छोटा। २. बहुत जल्दी पचनेवाला। लघुपाक।
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परिलिखन  : पुं० [सं० परि√लिख् (लिखना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिलिखित] घिस या रगड़ कर किसी चीज को चिकना बनाना।
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परिलिखित  : भू० कृ० [सं० परि√लिख्+क्त] घिस या रगड़कर चिकना किया हुआ।
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परिलीढ़  : भू० कृ० [सं० परि√लिह् (चाटना)+क्त] अच्छी तरह चाटा हुआ
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परिलुप्त  : भू० कृ० [स० परि√लुप् (काटना)+क्त] १. जो लुप्त हो चुका हो। खोया हुआ। २. क्षतिग्रस्त।
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परिलुप्त-संज्ञ  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी संज्ञा न रह गई हो। बेहोश।
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परिंलूत  : भू० कृ० [सं० परि√लू+क्त] कटा अथवा काटकर अलग किया हुआ।
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परिलेख  : पुं० [सं० परि√लिख्+घञ्] १. चित्र का ढाँचा। रेखा-चित्र। खाका। २. चित्र। तसवीर। ३. चित्र अंकित करने की कूँची या कलम। ४. उल्लेख। वर्णन। ५. बड़े अधिकारियों के पास भेजा जानेवाला विवरण। (रिटर्न)
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परिलेखन  : पुं० [सं० परि√लिख्+ल्युट्—अन] १. किसी वस्तु के चारों ओर रेखाएँ बनाना। २. लिखना। ३. चित्र अंकित करना।
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परिलेखना  : स० [सं० परिलेख] कुछ महत्त्व का मानना या समझना। किसी लेखे में गिनना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिलेही (हिन्)  : पुं० [सं० परि√लिह्+णिनि] एक रोग जिसमें कान की लोलक पर फुंसियाँ निकल आती हैं।
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परिलोप  : पुं० [सं० परि√लुप् (छेदन)+घञ्] १. लुप्त हो जाना। २. क्षति। हानि। ३. विनाश। विलोप।
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परिवंचन  : पुं० [सं० परि√वञ्च् (ठगना)+ल्युट्—अन] धोखा देना ठगना।
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परिवक्रा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वृत्ताकार गड्ढा।
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परिवत्सर  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. आदि से अंत तक का पूरा वर्ष या साल। २. ज्योतिष के पाँच विशेष संवत्सरों में से एक जिसका अधिपति सूर्य होता है।
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परिवत्सरीय  : वि० [सं० परिवत्सर+छ—ईय] परिवत्सर-संबंधी।
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परिवदन  : पुं० [सं० परि√वद् (बोलना)+ल्युट्—अन] दूसरे की की जानेवाली निंदा या बुराई।
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परिवपन  : पुं० [सं० परि√वप् (काटना)+ल्युट्—अन] १. कतरना। २. मूँड़ना।
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परिवर्जन  : पुं० [सं० परि√वृज् (निषेध)+ल्युट्—अन] [वि० परिवर्जनीय, भू० कृ० परिवर्जित] परित्याग करना। त्यागना। छोड़ना। तजना। २. मार डालना। वध या हत्या करना।
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परिवर्जनीय  : वि० [सं० परिवृज+अनीयर्] परित्याज्य।
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परिवर्जित  : भू० कृ० [सं० परि√वृज्+णिच्+क्त] जिसका परिवर्जन हुआ हो। त्यागा हुआ।
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परिवर्णी  : वि० [सं० परिवर्ण+हिं० ई (प्रत्य०)] (शब्द) जो कई शब्दों के आरंभिक वर्णों या अक्षरों के योग से अथवा कुछ शब्दों के आरंभिक तथा कुछ शब्दों के अंतिम वर्णों या अक्षरों के योग से बना हो। (ऐक्रास्टिक) जैसे—भारतीय+युरोपीय के योग से ‘भारोपीय’ अथवा चानव और जेहलम (झेलम) नदियों के बीचवाले प्रदेश का नाम ‘चज’ परिवर्णीशब्द है। इसी प्रकार चांद्रमास के पक्षों के ‘बदी’ (देखें) और ‘सुदी’ (देखें) भी परिवर्णी शब्द हैं।
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परिवर्त  : पुं० [सं० परि√वृत् (बरतना)+घञ्] १. घुमाव। चक्कर। फेरा। २. अदला-बदली। विनिमय। ३. वह चीज जो किसी दूसरी चीज के बदले में दी या ली जाय। ४. किसी काल या युग का अंत होना या बीतना। ५. ग्रंथ का अध्याय या परिच्छेद। ६. संगीत में स्वर-साधन की एक प्रणाली।
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परिवर्तक  : वि० [सं० परि√वृत्+णिच्+ण्वुल्—अक] घूमनेवाला। चक्कर खानेवाला। वि० [सं० परि√वृत्+णिच्+ण्वुल्] १. घुमानेवाला। फिरानेवाला। चक्कर देनेवाला। २. अदला-बदली या विनिमय करनेवाला। ३. किसी प्रकार का परिवर्तन करनेवाला। ४. युग का अंत करनेवाला। पुं० मृत्यु के पुत्र दुस्साह का एक पुत्र।
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परिवर्तन  : पुं० [सं० परि√वृत्+ल्युट्—अन] [वि० परिवर्तनीय, परिवर्तित, परिवर्ती] १. इधर-उधर घूमना-फिरना। २. चक्कर या फेरा लगाना। घुमाव। चक्कर फेरा। ४. किसी काल या युग का अंत या समाप्ति। ५. एक चीज के बदले में दूसरी चीज देना। विशेषतः किसी की पसंद या सुभीते की चीज उसे देकर उसके बदले में अपनी पसंद या सुभीते की चीज लेना। (कम्यूटेशन) जैसे—नोटों का रुपये में और रुपये का रेजगी में परिवर्तन। ६. वह चीज जो इस प्रकार बदले में दी या ली जाय। ६. किसी की आकृति, गुण, रूप, स्थिति आदि में होनेवाला फेर-फार, सुधार, ह्रास आदि। जैसे—रंग, स्वास्थ्य या हृदय का परिवर्तन। ८. वह क्रिया जो किसी चीज या बात का रूप बदलने अथवा उसे नया रूप देने के लिए की जाय। (चेंज) ९. एक के स्थान पर दूसरे के आने का भाव। जैसे—ऋतु का परिवर्तन, पहनावे का परिवर्तन। १॰. भारतीय युद्ध-कला में शत्रु पर प्रहार करने के लिए उसके चारों ओर घूमना।
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परिवर्तनीय  : वि० [सं० परि√वृत्+अनीयर्] जिसमें परिवर्तन किया जाने को हो।
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परिवर्तिका  : स्त्री० [सं० परि√वृत्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसमें अधिक खुजलाने, दबाने या चोट लगने के कारण लिंगचर्म उलट कर सूज जाता है।
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परिवर्तित  : भू० कृ० [सं० परि√वृत्+णिच्+क्त] १. जिसमें परिवर्तन किया गया हो या हुआ हो। जिसका आकार या रूप बदला गया हो। बदला हुआ। रूपांतरित। २. जो किसी के परिवर्तन या बदले में मिला हो।
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परिवर्तिनी  : स्त्री० [सं० परिवर्तिन्+ङीप्] भादों के शुक्ल पक्ष की एकादशी।
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परिवर्ती (र्तिन्)  : [सं० परि√वृत्+णिनि] १. बराबर घूमता रहनेवाला। २. जिसमें परिवर्तन या फेर-बदल होता रहता हो। बराबर बदलता रहनेवाला। परिवर्तनशील। ३. परिवर्तन या विनिमय करनेवाला।
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परिवर्तुल  : वि० [सं० प्रा० स०] ठीक और पूरा गोल या वर्त्तुल।
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परिवर्त्यता  : स्त्री० [सं०] परिवर्त्य होने की अवस्था, गुण या भाव।
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परिवर्द्धन  : पुं० [सं० परि√वृध् (बढ़ना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवर्द्धित] १. आकार-प्रकार, विषय-वस्तु आदि में की जानेवाली वृद्धि। (एनलार्जमेंट) जैसे—पुस्तक का परिवर्द्धन। २. इस प्रकार बढ़ाया हुआ अंश। ३. जोड़।
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परिवर्द्धित  : भू० कृ० [सं० परि√वर्ध्+णिच्+क्त] जिसका परिवर्द्धन किया गया हो या हुआ हो। बढ़ा या बढ़ाया हुआ। (एनालार्जड)
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परिवर्म (वर्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] वर्म से ढका हुआ। बख्तर से ढका हुआ। जिरहपोश।
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परिवर्ष  : पुं० [सं०] उतना समय जितना किसी एक ग्रह को रवि-बीच से चलकर फिर दोबारा वहाँ तक पहुँचने में लगता है। (अनोमेलस्टिक ईयर)
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परिवर्ह  : पुं० [सं० परि√वर्ह (उत्कर्ष)+घञ्] १. चँवर, छत्र आदि राजत्व की सूचक वस्तुएँ। २. राजाओं के दास आदि। ३. घर, कमरे आदि को सजाने के लिए उसमें रखी जानेवाली वस्तुएँ। सजावट की चीजें। ४. गृहस्थी में काम आनेवाली वस्तुएँ। ५. सम्पत्ति।
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परिवर्हण  : पुं० [सं० परि √वर्ह+ल्युट्—अन] १. अनुचर वर्ग। २. वेश-भूषा। पोशाक। ३. वृद्धि। ४. पूजा।
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परिवसथ  : पुं० [सं० परि√वस् (बसना)+अथच्] गाँव। ग्राम।
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परिवह  : पुं० [सं० परि√वह् (बहना)+अच्] १. सात पवनों में से छठा पवन; जो आकाश गंगा, सप्तऋषियों आदि को वहन करता है। २. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक जिह्वा की संज्ञा।
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परिवहन  : पुं० [सं० परि√वह्+ल्युट्—अन] माल, यात्रियों आदि को एक स्थान से ढोकर दूसरे स्थान पर ले जाने का कार्य, जो आज-कल रेलों, मोटरों, जहाजों, नावों आदि अनेक साधनों द्वारा किया जाता है। (ट्रान्सपोर्ट)
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परिवहन तंत्र  : पुं० [सं०] दे० ‘रक्तवह-तंत्र।
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परिवाँण  : पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवा  : स्त्री०=प्रतिपदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवाद  : पुं० [सं० परि√वद् (बोलना)+घञ्] १. निंदा। बुराई। शिकायत। २. बदनामी। ३. झूठी निन्दा या शिकायत। मिथ्या दोषारोपण। ४. कोई असुविधा या कष्ट होने पर अधिकारियों के सामने की जानेवाली किसी काम, बात, व्यक्ति आदि की शिकायत। (कम्पलेन्ट) ५. लोहे के तारों का वह छल्ला जिसे उँगली पर पहनकर वीणा, सितार आदि बजाई जाती है। मिजराब।
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परिवादक  : वि० [सं० परि√वद्+ण्वुल्—अक] १. परिवाद या निंदा करनेवाला। निंदक। २. शिकायत करनेवाला। पुं० वह जो वीणा, सितार या इसी तरह का और कोई बाजा बजाता हो।
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परिवादिनी  : स्त्री० [सं० परिवादिन्+ङीष्] एक तरह की वीणा जिसमें सात तार होते हैं।
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परिवादी (दिन्)  : वि० [सं० परि√वद्+णिनि]= परिवादक।
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परिवान  : पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवानना  : स० [सं० प्रमाण] प्रमाण के रूप में या ठीक मानना।
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परिवाप  : पुं० [सं० परि√वप् (काटना)+घञ्] १. बाल आदि मूँड़ना। २. बोना। ३. जलाशय। ४. घर का उपयोगी सामान। ५. अनुचरवर्ग। ६. भूना हुआ चावल। लावा। फरुही। ६. छेना।
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परिवापित  : भू० कृ० [सं० परि√वप्+णिच्+क्त] मूँड़ा हुआ। मुंडित।
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परिवार  : पुं० [सं० परि√वृ (ढकना)+घञ्] १. एक ही पूर्व पुरुष के वंशज। २. एक घर में और विशेषतः एक कर्ता के अधीन या संरक्षण में रहनेवाले लोग। ३. किसी विशिष्ट गुण, संबंध आदि के विचार से चीजों का बननेवाला वर्ग। जैसे—आर्य-भाषाओं का परिवार। (फेमिली) ४. किसी राजा, रईस आदि के आगे-पीछे चलने या साथ रहनेवाले लोग।
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परिवारण  : पुं० [सं० परि√वृ+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिवारित] १. ढकने या छिपाने की क्रिया। २. आवरण। आच्छादन। ३. तलवार की म्यान। कोष।
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परिवार नियोजन  : पुं० [सं०] आज-कल देश अथवा संसार की दिन पर दिन बढ़ती हुई जन-संख्या को नियंत्रित करने या सीमित रखने के उद्देश्य से गार्हस्थ जीवन के संबंध में की जानेवाली वह योजना जिससे लोग आवश्यकता अथवा औचित्य से अधिक संतान उत्पन्न न करें। (फैमिली प्लानिंग)
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परिवारित  : भू० कृ० [सं० परि√वृ+णिच्+क्त] घिरा या घेरा हुआ। आवेष्टित।
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परिवारी  : पुं० [सं० परिवार] १. परिवार के लोग। २. नाते-रिश्ते के लोग। वि० पारिवारिक।
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परिवार्षिक  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो पूरे वर्ष भर चलता या होता रहे। जैसे—परिवार्षिक नाला—ऐसा नाला जो बराबर बहता रहे, गरमियों में सूख न जाय; परिवार्षिक वृक्ष=ऐसा वृक्ष जो बराबर हरा रहता हो, और जिसके पत्ते किसी ऋतु में झड़ते न हों। २. बराबर या बहुत दिन तक स्थायी रूप से बना रहनेवाला। (पेरीनियल)
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परिवास  : पुं० [सं० परि√वस्+घञ्] १. टिकना। ठहरना। २. घर। मकान। ३. खुशबू। सुगन्ध। ४. संघ से किसी भिक्षु का होनेवाला बहिष्करण। (बौद्ध)
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परिवासन  : पुं० [सं० परि√वस्+णिच्+ल्युट्—अन] खंड। टुकड़ा।
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परिवाह  : पुं० [सं० परि√वह् (बहना)+घञ्] १. ऐसा बहाव जिसके कारण पानी ताल, तालाब आदि की समाई से अधिक हो जाता हो। पानी का खूब भर जाने के कारण बाँध, मेंड़ आदि के ऊपर से होकर बहना। २. वह नाली जिसके द्वारा आवश्यकता से अधिक पानी बाहर निकलता या निकाला जाता हो। जल की निकासी का मार्ग। ३. किसी प्रदेश की ऐसी नदियों की व्यवस्था जिनमें नावों आदि से माल भेजे जाते हों।
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परिवाही (हिन्)  : वि० [सं० परि√वह+णिनि] [स्त्री० परिवाहिनी] (तरल पदार्थ) जो आधान या पात्र में या किनारों पर से इधर-उधर भर जाने पर ऊपर से बहता हो।
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परिविंदक  : पुं० [सं० परि√विद् (प्राप्त करना)+ण्वुल—अक, नुम्] वह व्यक्ति जो बड़े भाई का विवाह होने से पहले अपना विवाह कर ले। परवेत्ता।
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परिविंदत्  : पुं० [परि√विन्द्+शतृ, नुम्] परिविंदक। (दे०)
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परिविण्ण (न्न)  : पुं० [सं० परि√विन्द् (लाभ)+क्त]= परिवित्त।
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परिवितर्क  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. विचार। २. परीक्षा। (बौद्ध)
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परिवित्त  : पुं० [सं० परि√विद्+क्तिन्] परिविंदक। (दे०)
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परिवित्ति  : पुं० [सं० परि√विद्+क्तिन्] परिवित्त। परिविंदक।
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परिविद्ध  : वि० [सं० परि√व्यध् (बेधना)+क्त] भली भाँति या चारों ओर से बिधा हुआ। पुं० कुबेर।
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परिविविदान  : पुं० [सं० परि√विद्+लिट्+कानच्] परिविंदक। (दे०)
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परिविष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√विष् (व्याप्ति)+क्त] [भाव० परिविष्टि] १. घिरा अथवा घेरा हुआ। २. परोसा हुआ (भोजन)।
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परिविष्टि  : स्त्री० [सं० परि√विष्+क्तिन्] घेरा। वेष्टन। २. सेवा। टहल। ३. भोजन परोसना।
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परिविहार  : पुं० [सं० प्रा० स०] जी भरकर या भली-भाँति किया जानेवाला विहार।
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परिवीक्षण  : पुं० [सं० परि-वि√ईक्ष् (देखना)—ल्युट्—अन] १. भली भाँति देखना। २. चारों ओर ध्यानपूर्वक देखना।
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परिवीजित  : वि० [सं० परि√वीज् (पंखा झलना)+क्त] जिस पर पंखे से हवा की गई हो।
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परिवीत  : भू० कृ० [सं० परि√व्य (बुनना)+क्त] १. घिरा हुआ। लपेटा हुआ। २. छिपाया हुआ। ३. ढका हुआ। आच्छादित।
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परिवृत्त  : वि० [सं० परि√वृ+क्त] १. घेरा, छिपाया या ढका हुआ। २. उलटा-पुलटा हुआ। पुं० कार्य, घटना आदि के संबंध में, दूसरों की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया जानेवाला संक्षिप्त विवरण। (स्टेटमेंट)
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परिवृत्ति  : स्त्री० [सं० परि√वृ+क्तिन्] १. ढकने, घेरने या छिपाने वाली वस्तु। घेरा। वेष्टन। २. घुमाव। चक्कर। ३. विनिमय। ४. अंत। समाप्ति। ५. दोबारा कोई काम करने की क्रिया या भाव। ६. किसी के किये हुए काम को देखकर वैसा ही और कोई काम करना। ६. व्याकरण में, एक शब्द या पद को दूसरे ऐसे शब्द या पद से बदलना जिससे अर्थ वही बना रहे। जैसे—‘कमललोचन’ के ‘कमल’ के स्थान पर पद्म’ अथवा ‘लोचन के स्थान पर ‘नयन’ रखना। ८. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी को अनुपात में कम या सस्ती वस्तु देकर अधिक या महंगी वस्तु लेने का वर्णन होता है।
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परिवृद्ध  : वि० [सं० परि√वृध् (बढ़ना)+क्त] [भाव परिवद्धि] १. जिसका परिवर्द्धन हुआ हो। २. चारों ओर से बढ़ा हुआ।
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परिवृद्धि  : स्त्री० [सं० परि√वृध्+क्तिन्] परिवृद्ध होने की अवस्था या भाव।
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परिवेता (तृ)  : पुं० [सं० परि√विद्+तृच्] परिविंदक। (दे०)
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परिवेद  : पुं० [सं० परि√विद्+घञ्] १. पूर्ण ज्ञान। २. अनेक विषयों की होनेवाली जानकारी। ३. परिवेदन।
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परिवेदन  : पुं० [सं० परि√विद्+ल्युट्—अन] १. पूर्ण ज्ञान। परिवेद। २. बड़े भाई के विवाह से पहले छोटे भाई का होनेवाला विवाह। ३. विवाह। शादी। ४. उपस्थिति। विद्यमानता। ५. प्राप्ति। लाभ। ६. वाद-विवाद। बहस। ६. कष्ट। विपत्ति।
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परिवेदना  : स्त्री० [सं० परि√विद् (ज्ञान)+णिच्+युच्—अन, टाप्] १. पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की विवेक-शक्ति। २. चतुराई।
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परिवेदनीया  : स्त्री० [सं० परि√विद्+अनीयर्+टाप्] परिविंदक की पत्नी। आविवाहित व्यक्ति की अनुज वधू।
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परिवेदिनी  : स्त्री० [सं० परिवेद+इनि—ङीष्]=परिवेदनीया।
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परिवेध  : पुं० [सं० परि√विध्+घञ्] १. प्रायः दो चीजों को जोड़ने के लिए उनमें किया जानेवाला ऐसा छेद जिसमें कील, पेच आदि लगाये अथवा चूल कसी जाती है। ३. इस प्रकार का बनाया जानेवाला छेद। (बोर)
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परिवेधन  : पुं० [परि√विध्+ल्युट्] परिवेध करने की क्रिया या भाव। (बोरिंग)
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परिवेश  : पुं० [सं० परि√विश् (प्रवेश)+घिञ्] १. वेष्टन। परिधि। घेरा। २. बदली के समय सूर्य या चंद्रमा के चारों ओर दिखाई देनेवाला घेरा। ३. प्रकाशमान पिंडों के चारों ओर कुछ दूरी तक दिखाई देनेवाला प्रकाश जो मंडलाकार होता है। ४. तेजस्वी पुरुषों, देवताओं आदि के चित्रों में उनके मुखमंडल के चारों ओर दिखलाया जानेवाला प्रकाशमान घेरा। प्रभा-मंडल। भा-मंडल। (हेलो)
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परिवेष  : पुं० [सं० परि√विष् (व्यक्ति)+घञ्] १. भोजन परसना या परोसना। २. चारों ओर से घेरकर रक्षा करनेवाली रचना या वस्तु। ३. परकोटा। प्राचीर। ४. दे० ‘परिवेश’। ५. दे० ‘प्रभावमंडल’।
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परिवेषक  : पुं० [सं० परि√विष्+ण्वुल्—अक] वह व्यक्ति जो भोजन आदि परसता या परोसता हो।
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परिवेषण  : पुं० [सं० परि√विष्+ल्युट्—अन] १. भोजन आदि परसने या या परोसने का काम। २. घेरा। परिधि। ३. दे० ‘परिवेष’।
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परिवेष्टन  : पुं० [सं० परि√वेष्ट् (घेरना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवेष्टित] १. किसी चीज को घेरना अथवा उसके चारों ओर घेरा बनाना। २. घेरा। परिधि। ३. छिपाने या ढकनेवाली चीज। आच्छादन। आवरण।
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परिवेष्टा (ष्दृ)  : पुं० [सं० परि√विष्+तृच] परिवेषक। (दे०)
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परिवेष्टित  : भू० कृ० [सं० परि√वेष्ट्+क्त] १. जो चारों ओर से घिरा हुआ हो। २. ढका हुआ। आच्छादित।
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परिव्यक्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो अच्छी तरह से व्यक्त हो चुका हो।
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परिव्यय  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज के निर्माण में होनेवाला व्यय। २. वह मूल्य जिस पर बिक्री के लिए उत्पादित की हुई अथवा मँगाई हुई वस्तु का घर पर परता बैठता हो। (कॉस्ट) ३. मूल्य। ४. किसी चीज की मरम्मत आदि करने पर बदले में दिया जानेवाला धन। पारिश्रमिक। ५. शुल्क।
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परिव्ययनीय  : वि० [सं परि√व्यय् (खर्च करना)+ अनीयर्] जो परिव्यय के रूप में किसी से लिया या किसी को दिया जा सके। जिस पर परिव्यय जोड़ा या लगाया जा सके। (चार्जेबुल)
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परिव्याध  : वि० [सं० परि√व्यध् (ताड़ना)+ण] चारों ओर से बेधने या छेदनेवाला। पुं० १. जलबेंत। २. कनेर। ३. एक प्राचीन-ऋषि।
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परिव्याप्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] अच्छी तरह और सब अंगों या स्थानों में फैला या समाया हुआ।
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परिव्रज्या  : स्त्री० [सं० परि√व्रज् (जाना)+क्यप्, टाप्] १. इधर-उधर घूमना-फिरना। भ्रमण। २. तपस्या। ३. सदा घूमते-फिरते रहकर और भिक्षा माँग कर जीवन बिताने का नियम, वृत्ति या व्रत।
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परिव्राज (क)  : पुं० [सं० परि√व्रज्+घञ् (संज्ञा में), परि√व्रज्+ण्वुल्—अक] १. वह संन्यासी जो परिव्रज्या का व्रत ग्रहण करके सदा इधर-उधर भ्रमण करता रहे। २. संन्यासी। ३. बहुत बड़ा यती और परम हंस।
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परिव्राजी  : स्त्री० [सं० परि√व्रज्+णिच्+इन्, ङीष्] गोरखमुंडी। मुंड़ी।
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परिव्राट (ज्)  : पुं० [सं० परि√व्रज्+क्विप्] परिव्राजक। (दे०)
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परिशंकी (किन्)  : वि० [सं० पर√शंक (आशंका करना)+णिनि] अत्यधिक आशंका करने या सशंकित रहनेवाला।
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परिशयन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक सोना। २. कुछ पशुओं और जीव-जंतुओं की वह निद्रा या तंद्रा वाली निष्क्रिय अवस्था जिसमें वे जाड़े के दिनों में शीत के प्रभाव से बचने के लिए बिना कुछ खाये-पीये चुप-चाप एक जगह दबे-दबाये रहते हैं। (हाइबरनेशन)
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परिशिष्ट  : वि० [सं० परि√शिष् (बचना)+क्त] छूटा या बाकी बचा हुआ। अवशिष्ट। पुं० १. पुस्तकों आदि के अंत में दी जानेवाली वे बातें जो मूल में आने से रह गई हों, अथवा जो मूल में आई हुई बातों के स्पष्टीकरण के लिए हों। (एपेंडेक्स) २. अनुसूची। (दे०)
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परिशीलन  : पुं० [सं० परि√शील् (अभ्यास)+ल्युट्—अन] १. मननपूर्वक किया जानेवाला गंभीर अध्ययन। २. स्पर्श।
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परिशीलित  : भू० कृ० [सं० परि√शील्+क्त] (ग्रंथ या विषय) जिसका परिशीलन किया गया हो।
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परिशुद्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिशुद्धता, परिशुद्धि] १. बिलकुल शुद्ध। विशेषतः जिसमें किसी दूसरी चीज का कुछ भी मेल न हो। खरा। २. जिसमें कुछ भी कमी-बेशी या भूल-चूक न हो। बिलकुल ठीक। (एक्योरेट) ३. चुकता किया हुआ। ४. छोड़ा या बरी किया हुआ।
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परिशुद्धता  : स्त्री० [सं० परिशुद्ध+तल्+टाप्]=परिशुद्ध।
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परिशुद्धि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूर्ण शुद्धि। सम्यक् शुद्धि। २. किसी बात या विषय की वह स्थिति जिसमें किसी प्रकार की कमी-बेशी या कोई भूल-चूक न हो। (एक्योरेसी)। ३. छुटकारा। मुक्ति।
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परिशुष्क  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बिलकुल सूखा हुआ। २. अत्यंत रसहीन। ३. रसिकता आदि से बिलकुल रहित। पुं० तला हुआ मांस।
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परिशून्य  : वि० [सं० प्रा० स०] जो बिलकुल शून्य हो। पुं० विज्ञान में, वह स्थान जिसमें वायु आदि कुछ भी न हो या जिसमें वायु निकाल ली गई हो। (वायड)
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परिशेष  : वि० [सं० परि√शिष्+घञ्] [भाव० परिशेषण ] जो अब भी शेष हो। जो पूर्णतः अब भी नष्ट या समाप्त न हुआ हो। पुं० १. वह अंश या तत्त्व जो बाकी बच रहा हो। २. अंत। समाप्ति। ३. दे० ‘परिशिष्ट’।
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परिशोध  : पुं० [सं० परि√शुध् (शुद्ध करना)+घञ्] १. अच्छी तरह शुद्ध करना या बनाना। २. ऋण, देन आदि का चुकाया जाना। (रिपेमेंट) ३. किसी से चुकाया जानेवाला बदला। उपकार के बदले में किया जानेवाला अपकार। प्रतिशोध।
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परिशोधन  : पुं० [सं० परि√शुध्+ल्युट्—अन] [वि० परिशोधनीय, भू० कृ० परिशोधित] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज अच्छी तरह शुद्ध हो कर श्रेष्ठ अवस्था में आजा वे। (रेक्टिफिकशेन) २. ऋण देन आदि चुकता करने की क्रिया या भाव। ३. प्रतिशोधन।
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परिशोष  : पुं० [सं० परि√शुष् (सूखना)+घञ्] १. किसी चीज को अच्छी तरह से सुखाना। २. पूरी तरह से सूखे हुए होने की अवस्था या भाव।
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परिश्रम  : पुं० [सं० परि√श्रम् (आयास करना)+घञ्] कोई कठिन, बड़ा या दुस्साध्य काम करने के लिए विशेष रूप से तथा मन लगाकर किया जानेवाला मानसिक या शारीरिक श्रम। मेहनत।
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परिश्रमी (मिन्)  : वि० [सं० परिश्रम+इनि] १. जो परिश्रमपूर्वक कोई काम करता हो। २. हर काम अपनी पूरी शक्ति लगाकर करनेवाला। मेहनती।
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परिश्रय  : पुं० [सं० परि√श्रि (सेवन)+अच्] १. परिषद्। सभा। २. आश्रय या शरण-स्थल।
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परिश्रांत  : वि० [सं० परि√श्रम्+क्त] [भाव० परिश्रांति] बहुत अधिक थका हुआ। थका-माँदा।
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परिश्रांति  : स्त्री० [सं० परि√श्रम्+क्तिन्] परिश्रांत होने की अवस्था या भाव। बहुत अधिक थकावट।
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परिश्रित्  : वि० [सं० परि√श्रि+क्विप्] आश्रय देनेवाला। पुं० यज्ञ में काम आनेवाला पत्थर का एक विशिष्ट टुकड़ा।
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परिश्रुत  : वि० [सं० प्रा० स०] १. (बात आदि) जो ठीक प्रकार से या भली-भाँति सुनी गई हो। २. ख्यात। प्रसिद्ध।
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परिश्लेष  : पुं० [सं० परि√श्लिष् (आलिंगन करना)+घञ्] आलिंगन। गले लगाना।
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परिषक्त  : स्त्री०=परिषद्।
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परिषत्त्व  : पुं० [सं० परिषद्+त्व] परिषद् का भाव या धर्म।
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परिषद्  : स्त्री० [सं० परि√सद् (गति)+क्विप्] १. चारों ओर से घेर कर या घेरा बनाकर बैठाना। २. वैदिक युग में विद्वानों की वह सभा जो राजा किसी विषय पर व्यवस्था देने के लिए बुलाता था। ३. बौद्ध-काल में वह निर्वाचित राजकीय संस्था या सभा जो राज्य या शासन से संबंध रखनेवाली सब बातों पर विचार तथा निर्णय करती थी। विशेष—प्राचीन काल में परिषदें तीन प्रकार की होती थीं—(क) शिक्षा-संबंधी। (ख) सामाजिक गोष्ठी-सम्बन्धी। और (ग) राज-शासन-सम्बन्धी। ४. आधुनिक राजनीति विज्ञान में, निर्वाचित या मनोनीत विधायकों की वह सभा जो स्थायी या बहुत-कुछ स्थायी होती है। (काउंसिल) ५. सभा। जैसे—संगीत परिषद्।
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परिषद  : पुं० [सं० परि√सद्+अच्] १. सवारी या जुलूस में चलनेवाले वे अनुचर जो स्वामी को घेर कर चलते हैं। परिषद। २. दरबारी। मुसाहब। ३. सदस्य। सभासद। स्त्री०=परिषद्।
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परिषद्य  : पुं० [सं० परिषद्+यत्] १. परिषद् या सदस्य। २. सभासद। सदस्य। ३. दर्शक। प्रेक्षक।
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परिषद्वल  : पुं० [सं० परिषद्+वलच्] सभासद। सदस्य।
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परिषिक्त  : भू० कृ० [सं० परि√सिंच् (सींचना)+क्त] १. जो अच्छी तरह से सींचा गया हो। २. जिस पर छिड़काव हुआ हो।
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परिषीवण  : पुं० [सं० परि√सिव् (सीना)+ल्युट्—अन] १. चारों ओर से सीना। २. गाँठ लगाना। बाँधना।
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परिषेक  : पुं० [सं० परि√सिच्+घञ्] १. पानी से तर करने की क्रिया। सिंचाई। २. छिड़काव। ३. स्नान।
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परिषेचक  : वि० [सं० परि√सिच्+ण्वुल्—अक] १. सींचनेवाला। २. छिड़कनेवाला।
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परिषेचन  : पुं० [सं० परि√सिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिषिक्त] सींचना। छिड़कना।
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परिष्कंद  : पुं० [सं० परि√स्कन्द (गति)+घञ्] वह जिसका पालन-पोषण माता-पिता द्वारा नहीं बल्कि किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा हुआ हो।
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परिष्कर  : पुं० [सं० परि√कृ (करना)+अप्, सुट्] सजावट। सज्जा।
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परिष्करण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० परिष्कृत] परिष्कार करने अर्थात् साफ और सुंदर बनाने की क्रिया या भाव। (एम्बेलिशमेन्ट)
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परिष्करण शाला  : स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ खनिज, तैल, धातुएँ आदि परिष्कृत या साफ की जाती हैं। (रिफाइनरी)
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परिष्करणी  : स्त्री० [सं० परि√कृ+ल्युट्—अन, सुट्] वह कारखाना या स्थान जहाँ यंत्रों आदि की सहायता से तेलों, धातुओं आदि में की मैल निकालकर उन्हें परिष्कृत या साफ किया जाता हो। (रिफाइनरी)
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परिष्कार  : पुं० [सं० परि√कृ+घञ्, सुट्] [भू० कृ० परिष्कृत] १. अच्छी तरह ठीक और साफ करने की क्रिया या भाव। गंदगी, मिलावट, मैल आदि निकालकर किसी चीज को स्वच्छ बनाना। (रिफाइनिंग) २. त्रुटियाँ, दोष आदि दूर करके सुंदर, सुरुचिपूर्ण और स्वच्छ बनाना। (एम्बेलिशमेंट) ३. निर्मलता। स्वच्छता। ४. अलंकार। गहना। ५. शोभा। श्री। ६. बनाव-सिंगार। सजावट। ६. सजाने की सामग्री। उपस्कर। (फरनीचर) ८. संयम। (बौद्ध दर्शन)
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परिष्कृति  : स्त्री० [सं० परि√कृ+क्तिन्, सुट्] १. परिष्कृत होने की अवस्था, गुण या भाव। २. परिष्कार। ३. आचार-व्यवहार की वह उन्नत स्थिति जिसमें अशिष्ट, उद्धत, ग्राम्य, पुरुष, रुक्ष आदि बातों का अभाव और कोमल, नागर, विनम्र, शिष्ट तथा स्निग्ध तत्त्वों की अधिकता और प्रबलता होती है। (रिफाइनमेंट)
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परिष्क्रिया  : स्त्री० [सं० परि√कृ+सुट्,+टाप्] परिष्कार। (दे०)
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परिष्कृत  : भू० कृ० [सं० परि√कृ+क्त, सुट्] [भाव० परिष्कृति] १. जिसका परिष्कार किया गया हो। अच्छी तरह ठीक और साफ किया हुआ। २. सवाँरा या सजाया हुआ। अलंकृत। ४. सुधारा हुआ।
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परिष्कृति  : स्त्री० [सं० परि√कृ+क्तिन्, सुट्] परिष्कृत होने की अवस्था या भाव। परिष्कार।
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परिष्टवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] प्रशंसा। स्तुति।
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परिष्टोम  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. एक प्रकार का सामगान जिसमें ईश्वर की स्तुति होती है। २. घोडे, हाथी आदि की झूल।
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परिष्ठल  : पुं० [सं० परि-स्थल, प्रा० स०] आस-पास की भूमि।
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परिष्यंद  : पुं० [सं० परि√ष्यंद् (बहना)+घञ्, षत्व]= परिस्यंद।
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परिष्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० परिष्यंद+इनि] बहानेवाला।
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परिष्वंग  : पुं० [सं० परि√स्वञ्ज् (आलिंगन)+घञ्] गले लगाना। आलिंगन।
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परिष्वंजन  : पुं० [सं० परि√स्वञ्ज् (चिपकना)+ल्युट्—अन] [वि० परिष्वक्त] गले लगाना। आलिंगन।
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परिष्वक्त  : भू० कृ० [सं० परि√स्वञ्ज्+क्त] जिसे गले लगाया गया हो। आलिंगित।
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परिसंख्या  : स्त्री० [सं० परि-सम्√ख्या (प्रसिद्ध करना) +अङ्+टाप्] १. गणना। गिनती। २. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी स्थान में होनेवाली बात या वस्तु का प्रश्न या व्यंग्यपूर्वक निषेध करके अन्य स्थान पर प्रतिष्ठापन करने का वर्णन होता है। ३. कुछ स्थानों पर होनेवाली वस्तुओं के संबंध में यह कहना कि अब वे वहाँ नहीं रह गईं केवल अमुक जगह में रह गई हैं। जैसे—रामराज्य की प्रशंसा करते हुए यह कहना कि उसमें स्त्रियों के नेत्रों को छोड़कर कुटिलता और कहीं नहीं दिखाई देती थी।
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परिसंख्यान  : पुं० [सं० परि√सम्√ख्या+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिसंख्यात] अनुसूची। (दे०)
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परिसंघ  : पुं० [सं० प्रा० स०] पारस्परिक तथा सामूहिक हितों के रक्षार्थ बननेवाला वह अंतरराष्ट्रीय संघटन जिसके सदस्य स्वतंत्र राष्ट्र होते हैं। (कनफेडरेशन)
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परिसंचर  : पुं० [सं० परि-सम्√चर् (गति)+अच्] प्रलय-काल।
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परिसंचित  : भू० कृ० [सं० परि—सम्√चि (इकट्ठा करना)+क्त] इकट्ठा या संचित किया हुआ।
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परिसंतान  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. तार। २. तंत्री।
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परिसंपद्  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] व्यक्ति, संघटन, संस्था आदि का वह निजी या अधिकृत धन तथा संपत्ति जिसमें से उसका ऋण, देय आदि चुकाया जाता हो या चुकाया जा सके। (असेट्स)
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परिसंवाद  : पुं० [सं० परि-सम्√वद् (बोलना)+घञ्] १. दो या अधिक व्यक्तियों में किसी बात, विषय आदि के संबंध में होनेवाला तर्क संगत या विचारपूर्ण वादविवाद। (डिस्कशन) २. दे० परिचर्चा।
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परिसंहत  : [सं०] १. अच्छी तरह उठा हुआ। २. (कथन या लेख) जिसमें फालतू या व्यर्थ की बातें अथवा शब्द न हों। (टर्म)
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परिसंहित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] बहुत अच्छी तरह गठा या गाँठा हुआ। २. (साहित्य में ऐसी गठी हुई तथा संक्षिप्त रचना) जिसमें ओज, प्रसाद आदि गुण भी यथेष्ट मात्रा में हों।
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परिसम्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] सभासद। सदस्य।
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परिसमंत  : पुं० [सं० प्रा० स०] वृत्त के चारों ओर की रेखा या सीमा।
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परिसमापक  : पुं० [परि-सम्√आप् (व्याप्ति)+ण्वुट्—अक] परिसमापन करनेवाला अधिकारी। (लिक्वीडेटर)
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परिसमापन  : पुं० [परि-सम्√आप्+ल्युट्—अन] १. समाप्त करना। २. किसी चलते हुए काम का समाप्त होना। (टरमीनेशन) ३. किसी ऋणग्रस्त संस्था का कार-बार बंद करते समय किसी सरकारी अधिकारी या आदाता द्वारा उसकी परिसंपद लहनेदारों में किसी विशिष्ट अनुपात में बाँटा जाना। (लिक्वीडेशन) ३. दे० ‘अपाकरण’।
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परिसमाप्त  : भू० कृ० [सं० परि-सम्√आप+क्त] १. जो पूरी तरह से समाप्त हो चुका हो। २. (संस्था) जिसका परिसमापन हो चुका हो।
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परिसमाप्ति  : स्त्री० [सं० परि-सम्√आप्+क्तिन्] परिसमापन।
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परिसमूहन  : पुं० [सं० परि-सम्√ऊह् (वितर्क)+ल्युट्—अन] १. एकत्र करना। २. यज्ञ की अग्नि में समिधा डालना। ३. तृण आदि आग में डालना। ४. यज्ञाग्नि के चारों ओर जल छिड़कने की क्रिया।
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परिसर  : वि० [सं० परि√सृ (गति)+अप्] [स्त्री० परिसरा] १. किसी के चारों ओर वहने (अथवा चलने) वाला। २. किसी के साथ जुड़ा, मिला, लगा या सटा हुआ। ३. फैला हुआ। विस्तृत। उदा०—खुली रूप कलियों में परभर स्तर स्तर सु-परिसरा।—निराला। पुं० १. किसी स्थान के आस-पास की भूमि या खुला मैदान। २. प्रांत भूमि। ३. मृत्यु। ४. ढंग। तरीका। विधि। ५. शरीर की नाड़ी या शिरा।
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परिसरण  : पुं० [सं० परि√सृ+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिसृत] १. किसी के चारों ओर बहना (या चलना)। २. पर्यटन। ३. पराजय। हार। ४. मृत्यु। मौत। ५. दे० रसाकर्षण।
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परिसर्प  : पुं० [सं० परि√सृप् (गति)+घञ्] १. किसी के चारों ओर घूमना। परिक्रिया। परिक्रमण। २. घूमना-फिरना या टहलना। ३. ढूँढ़ने या तलाश करने के लिए निकलना। ४. चारों ओर से घेरना। ५. साहित्य दर्पण के अनुसार नाटक में किसी का किसी की खोज और केवल मार्गचिह्नों आदि के सहारे उसका पता लगाने का प्रयत्न करना। जैसे—सीता-हरण के उपरान्त, राम का सीता को बन में ढूँढ़ते फिरना। ६. सुश्रुत के अनुसार ११ प्रकार के क्षुद्र कुष्ठों में से एक जिसमें छोटी-छोटी फुंसियाँ निकलती हैं और उन फुँसियों से पंछा या मवाद निकलता है। ६. एक प्रकार का साँप।
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परिसर्पण  : पुं० [सं० परि√सृप्+ल्युट्—अन] १. घूमना-फिरना। टहलना। २. साँप की तरह टेढ़े-तिरछे चलना या रेंगना।
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परिसर्पा  : स्त्री० [सं० परि√सृ (गति)+क्यप्+टाप्] १. मृत्यु। २. हार।
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परिसांत्वन  : पुं० [सं० परि√सान्त्व् (ढाढस देना)+ ल्युट्—अन] १. बहुत अधिक सांत्वना देना। २. उक्त प्रकार से दी हुई सान्त्वना।
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परिसाम (मन्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक विशेष साम।
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परिसार  : पुं० [सं० परि√सृ+घञ्]=परिसरण।
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परिसारक  : वि० [सं० परि√सृ+ण्वुल्—अक] जो परिसरण करे। चारों ओर चलने, जाने या बहनेवाला।
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परिसारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√सृ+णिनि] १. परिसरण-संबंधी। २. परिसारक। (दे०)
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परिसिद्धिका  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वैद्यक में, चावले की एक प्रकार की लपसी।
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परिसीमन  : पुं० [सं० परिसीमा से] [भू० कृ० परिसीमित] किसी क्षेत्र, विषय आदि की सीमाएँ निर्धारित करना। (डिलिमिटेशन)
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परिसीमा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अंतिम या चरम सीमा। २. वह मर्यादा या रेखा जहाँ आगे किसी विषय का विस्तार न हो।
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परिसीमित  : भू० कृ० [सं० परिसीमा+इतच्] जिसका परिसीमन हुआ या किया जा चुका हो। २. (संस्था) जिसकी पूँजी, हिस्सेदारी आदि कुछ विशिष्ट नियमों या सीमाओं के अन्दर रखी गई हो। (लिमिटेड)
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परिसून  : पुं० [सं० अत्या० स०] बिना अधिकार के और बूचड़खाने से बाहर मारा हुआ पशु।
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परिसेवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक सेवा करना।
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परिसेवित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसकी बहुत अच्छी तरह सेवा की गई हो। २. जिसका बहुत अच्छी तरह सेवन किया गया हो।
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परिस्कंद  : पुं०=परिष्कंद।
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परिस्तरण  : पुं० [सं० परि√स्तृ (आच्छादन)+ल्युट्—अन] १. इधर-उधर फेंकना या डालना। छितराना। २. फैलाना। ३. ढकना या लपेटना।
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परिस्तान  : पुं० [फा०] १. परियों अर्थात् अप्सराओं का जगत् या देश। २. ऐसा स्थान जहाँ बहुत-सी सुंदर स्त्रियों का जमघट या निवास हो।
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परिस्तोम  : पुं० [सं० प्रा० ब० स०] चित्रित या अनेक रंगोंवाली (हाथी की पीठ पर डाली जानेवाली) झूल।
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परिस्थान  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वासस्थान। २. दृढ़ता।
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परिस्थिति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] [वि० परिस्थितिक] किसी व्यक्ति के चारों ओर होनेवाली वे सब बातें या उनमें से कोई एक जिससे बाध्य या प्रेरित होकर वह कोई कार्य करता हो। (सर्कम्स्टैंसेज)
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परिस्थिति विज्ञान  : पुं० [सं०] आधुनिक जीव विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि देश, काल आदि की परिस्थितियों का जीव-जंतुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है। (इकालोजी)
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परिस्पंद  : पुं० [सं० परि√स्पंद् (हिलना)+घञ्] १. कापने की क्रिया या भाव। कंप। कँपकँपी। २. दबाना या मलना। ३. ठाट-बाट। तड़क-भड़क। ४. फूलों आदि से सिर के बाल सजाना। ५. निर्वाह का साधन। ६. परिवार। ६. धारा। प्रवाह। ८. नदी। ९. द्वीप। टापू।
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परिस्पंदन  : पुं० [सं० परि√स्पंद्+ल्युट्—अन] १. बहुत अधिक हिलना। खूब काँपना। २. काँपना।
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परिस्पर्द्धा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०]=प्रतिस्पर्धा।
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परिस्पर्द्धी (र्द्धिन्)  : पुं० [सं० परि√स्पर्ध् (जीतने की इच्छा)+णिनि]=प्रतिस्पर्धी।
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परिस्फुट  : वि० [सं० प्रा० स०] १. भली-भाँति व्यक्त। सब प्रकार से प्रकट या खुला हुआ। २. अच्छी तरह खिला हुआ। पूर्ण विकसित।
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परिस्फुरण  : पुं० [सं० परि√स्फुर् (गति)+ल्युट्—अन] १. कंपन। २. कलियों, कल्लों आदि का निकलना या फूटना।
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परिस्मापन  : पुं० [सं० परि√स्मि (विस्मय करना)+ णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] बहुत अधिक चकित या विस्मित करना।
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परिस्यंद  : पुं० [सं० परिष्यंद] चूना। रसना।
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परिस्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० परिष्यंदी] जिसमें प्रवाह हो। बहता हुआ।
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परिस्रव  : पुं० [सं० परि√स्रु (बहना)+अप्] बहुत अधिक या चारों ओर से चूना या रसना।
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परिस्राव  : पुं० [सं० परि√स्रु+घञ्] १. चू या रसकर अधिक परिमाण में निकलनेवाला तरल पदार्थ। २. एक रोग जिसमें रोगी को ऐसे बहुत अधिक दस्त होते हैं जिनमें कफ और पित्त मिला होता है।
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परिस्रावण  : पुं० [सं० परि√स्रु+णिच्+ल्युट्—अन] वह पात्र जिसमें कोई चीज चुआ या रसाकर इकट्ठी की जाय।
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परिस्रावी (विन्)  : वि० [सं० परि√स्रु+णिनि] चूने, रसने या बहनेवाला। पुं० ऐसा भगंदर रोद जिसमें फोड़े में से बराबर गाढ़ा मवाद निकलता रहता है।
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परिस्रुत  : वि० [सं० परि√स्रु+क्त] १. जिससे कुछ टपक या चू रहा हो। स्रावयुक्त। २. चुआया या टपकाया हुआ। पुं० फूलों का सुगंधित सार। (वैदिक) स्त्री० मदिरा। शराब।
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परिस्रुत-दधि  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा दही जिसे निचोड़कर उसमें का जल निकाल दिया गया हो।
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परिस्रुता  : स्त्री० [सं० परिस्रुत+टाप्] १. चुआई या टपकाई हुई तरल वस्तु। २. मद्य। शराब। ३. अंगूरी शराब।
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परिहँस  : पुं० [सं० परिहास] १. हँसी-दिल्लगी। परिहास। २. लोक में होनेवाली हँसी। उपहास। उदा०—परहँसि मरसि कि कौनेहु लाजा—जायसी। ३. खेद। दुःख। रंज। (मुख्यतः लोक-निंदा, उपहास आदि के भय से होनेवाला) उदा०—कंठ बचन न बोलि आवै हृदय परिहँस करि, नैन जल भरि रोई दीन्हों, ग्रसति आपद दीन।—सूर।
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परिहत  : भू० कृ० [सं० परि√हन् (हिंसा)+क्त] १. जो मार डाला गया हो। २. मरा हुआ। मृत। ३. पूरी तरह से नष्ट किया हुआ। ४. ढीला किया हुआ। स्त्री० हल की वह लकड़ी जो चौभी में ठुकी रहती है, तथा जिसके ऊपरी भाग में लगी हुई मुठिया को पकड़कर हलवाला हल चलाता है।
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परिहरण  : पुं० [सं० परि√हृ (हरण करना)+ल्युट्—अन] [वि० परिहरणीय] १. किसी की चीज पर बिना उसके पूछे और बलपूर्वक किया जानेवाला अधिकार। २. परित्याग। ३. दोष आदि दूर करने का उपचार या प्रयत्न। निवारण।
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परिहरणीय  : वि० [सं० परि√हृ+अनीयर्] १. जो छीना जा सके या छीने जाने के योग्य हो। २. त्याज्य। ३. जिसका उपचार या निवारण हो सके। निवार्य।
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परिहरना  : स० [सं० परिहरण] १. छीनना। २. त्यागना। छोड़ना।
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परिहस  : पुं०=परिहँस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिहस्त  : पुं० [सं० अव्य० स०] हाथ में बाँधा जानेवाला एक तरह का तावीज या यंत्र।
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परिहाण  : पुं० [सं० परि√हा (त्याग)+क्त] नुकसान या हानि उठाना।
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परिहाणि, परिहानि  : स्त्री० [सं० परि√हा+क्तिन्] नुकसान। हानि।
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परिहार  : पुं० [सं० परि√हृ+घञ्] १. बलपूर्वक छीनने की क्रिया या भाव। २. युद्ध में जीतकर प्राप्त किया हुआ धन या पदार्थ। ३. छोड़ने, त्यागने या दूर करने की क्रिया या भाव। ४. त्रुटियों, दोषों, विकारों आदि का किया जानेवाला अंत या निराकरण। ५. पशुओं के चरने के लिए खाली छोड़ी हुई जमीन। चारागाह। ६. प्राचीन भारत में, कष्ट या संकट के समय राज्य की ओर से प्रजा के साथ की जानेवाली आर्थिक रिआयत। ६. कर या लगान की छूट। माफी। ८. खंडन। ९. अवज्ञा। तिरस्कार। १॰. उपेक्षा। ११. मनु के अनुसार एक प्राचीन देश। १२. नाटक में किसी अनुचित या अविधेय कर्म का प्रायश्चित्त करना। (साहित्य दर्पण) पुं० [?] अवध, बुंदेलखंड आदि में बसे हुए राजपूतों की एक जाति जिनके पूर्वज तीसरी शताब्दी में कालिंजर के शासक थे।
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परिहारक  : वि० [सं० परि√हृ+ण्वुल्—अक] परिहार करनेवाला।
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परिहारना  : स० [सं० परिहार] १. परिहरण करना। २. परिहार करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिहारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√हृ+णिनि] परिहरण करनेवाला।
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परिहार्य  : वि० [सं० परि√हृ+ण्यत्] जिसका परिहरण होने को हो या हो सकता हो।
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परिहास  : वि० [सं० परि√हस् (हँसना)+घञ्] १. बहुत जोरों की हँसी। २. हँसी-मजाक।
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परिहासापह्नुति  : स्त्री० [सं० परिहास-अपह्नुति, मध्य० स०] साहित्य में, अपह्नुति अलंकार का एक भेद जिसमें पूर्वपद तो किसी अश्लील भाव का द्योतक होता है परंतु उत्तर-पद से उस अश्लीलत्व का परिहार हो जाता है और श्रोता हँस पड़ता है। उदा०—तुमको लाजिम है पकड़ो अब मेरा। हाथ में हाथ बामुहब्बतो प्यार।—कोई शायर।
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परिहास्य  : वि० [सं० परि√हस्+ण्यत्] १. जिसके संबंध में परिहास किया जा सके या हो सके। २. हास्यास्पद।
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परिहित  : भू० कृ० [सं० परि√धा (धारण करना)+क्त, हि—आदेश] १. चारों ओर से छिपाया या ढका हुआ। आवृत्त। आच्छादित। २. ओढ़ा या पहना हुआ। (कपड़ा)
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परिहीण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. सब प्रकार से दीन-हीन। अत्यंत हीन। २. छोड़ा, निकाला या फेंका हुआ।
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परिहृति  : स्त्री० [सं० परि+हृ+क्तिन्] ध्वंस। नाश।
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परिहेलना  : स० [सं० प्रा० स०] अनादर या तिरस्कारपूर्वक दूर हटाना। उदा०—कै ममता करु राम-पद कै ममता परिहेलु।—तुलसी।
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परी  : स्त्री० [फा०] १. वह कल्पित रूपवती स्त्री जो अपने परों की सहायता से आकाश में उड़ती है। अप्सरा। विशेष—फारसी साहित्य में इसका वास-स्थान काफ या काकेशस पर्वत माना गया है।
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परीक्षक  : पुं० [सं० परि√ईक्ष् (देखना)+ण्वुल्—अक] [स्त्री० परीक्षिका] १. वह जो किसी की परीक्षा करता या लेता हो। २. किसी के गुण, योग्यता आदि का परीक्षण करनेवाला अधिकारी, विशेषतः परीक्षार्थियों के लिए प्रश्न-पत्र बनाने तथा उनकी उत्तर-पुस्तिकाएँ जाँचनेवाला अधिकारी। (इग्जामिनर) ३. जाँच-पड़ताल करनेवाला व्यक्ति। निरीक्षक।
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परीक्षण  : पुं० [सं० परि√ईक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परीक्षित, वि० परीक्ष्य] १. परीक्षा करने या लेने की क्रिया या भाव। २. वैज्ञानिक क्षेत्रों में; किसी विशिष्ट पद्धति, प्रक्रिया या रीति से किसी चीज के वास्तविक गुण, योग्यता, शक्ति, स्थिति आदि जानने का काम। ३. न्यायालय में इस प्रकार किसी से प्रश्न करना जिससे वस्तु-स्थिति पर प्रकाश पड़ता हो। (इग्जामिनेशन) १. उपयोग, व्यवहार आदि में लाकर किसी चीज के गुण-दोष जानना या परखना। ५. व्यक्ति को किसी काम या पद पर स्थायी रूप से नियुक्त करने से पहले, कुछ समय तक उससे वह काम करवा कर देखना कि उसमें यथेष्ट योग्यता या सामर्थ्य है या नहीं। (प्रोबेशन)
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परीक्षण-काल  : पुं० [ष० त०] उतना समय जितने में यह देखा जाता है, कि जो व्यक्ति किसी काम पर लगाया जाने को है, उसमें वह काम करने की पूरी योग्यता या समर्थता भी है या नहीं। (प्रोबेशन पीरियड)
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परीक्षण-नलिका  : स्त्री० [ष० त०] वैज्ञानिक क्षेत्रों में शीशे की वह नली जिसमें कोई द्रव पदार्थ किसी प्रकार के परीक्षण के लिए भरा जाता है। परख-नली। (टेस्ट-ट्यूब)
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परीक्षण-शलाका  : स्त्री० [ष० त०] किसी धातु का वह छड़ जो इस बात के परीक्षण के काम में आता है कि इस धातु में भार आदि सहने की कितनी शक्ति है। (टेस्ट पीस)
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परीक्षणिक  : वि० [सं० पारीक्षणिक] १. परीक्षण-संबंधी। २. नियुक्त किये जाने से पहले जिसकी असमर्थता की परीक्षा ली जा रही हो। अस्थायी रूप से और केवल परीक्षण के लिए रखा हुआ कर्मचारी। (प्रोबेशनरी)
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परीक्षना  : स० [सं० परीक्षण] किसी की परीक्षा करना या लेना। परखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परीक्षा  : स्त्री० [सं० परि√ईक्ष्+अ+टाप्] १. किसी के गुण, धैर्य, योग्यता, सामर्थ्य आदि की ठीक-ठीक स्थिति जानने या पता लगाने की क्रिया या भाव। (एग्जामिनेशन) २. वह समुचित उपाय, विधि या साधन जिससे किसी के गुणों आदि का पता लगाया जाता है। ३. वस्तुओं के संबंध में, उनकी उपयोगिता, टिकाऊपन आदि जानने के लिए उनका उपयोग या व्यवहार किया जाना। जैसे—हमारे यहाँ अमुक वस्तुएँ मिलती हैं, परीक्षा प्रार्थित है। ४. वह प्रक्रिया जिससे प्राचीन न्यायालय किसी अभियुक्त अथवा साक्षी के सच्चे या झूठे होने का पता लगाते थे। विशेष दे० ‘दिव्य’। ५. जाँच—पड़ताल। ६. देख-भाल।
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परीक्षार्थ  : अव्य० [सं० परीक्षा-अर्थ, नित्य स०] परीक्षा के उद्देश्य से।
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परीक्षार्थी (र्थिन्)  : पुं० [सं० परीक्षा√अर्थ (चाहना)+ णिनि] १. वह जो किसी प्रकार की परीक्षा देना चाहता हो। २. वह जिसकी परीक्षा ली जा रही हो अथवा जो परीक्षा दे रहा हो। (एग्ज़ामिनी)
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परीक्षित्  : पुं० [सं० परि√क्षि (क्षय)+क्विप्, तुक्] १. हस्तिनापुर के एक प्राचीन राजा जो अभिमन्यु के पुत्र और जनमेजय के पिता थे। कहा जाता है कि इन्हीं के राज्य-काल में द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ था। तक्षक नामक साँप के काटने पर इनकी मृत्यु हुई थी। २. कंस का एक पुत्र।
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परीक्षित  : भू० कृ० [परि√ईक्ष्+क्त] १. (व्यक्ति) जिसकी परीक्षण किया जा चुका हो। जो परीक्षा में सफल उतरा हो। ३. (वस्तु) जिसे उपयोग, व्यवहार आदि में लाकर उसके गुण-दोष आदि देखे जा चुके हों। (इग्जै़मिन्ड) पुं०=परीक्षित्।
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परीक्षितव्य  : वि० [सं० परि√ईक्ष्+तव्यत्] १. जिसकी परीक्षा, आजमाइश या जाँच की जा सके या की जाने को हो। २. जिसे जाँच या परख सकें। ३. जिसकी परीक्षा (जाँच या परख) करना आवश्यक या उचित हो।
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परीक्षिती  : पुं० [सं०]=परीक्षार्थी।
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परीक्ष्य  : वि० [सं० परि√ईक्ष्+ण्यत्] परीक्षितव्य। (दे०)
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परीक्ष्यमाण  : वि० [सं० परि√ईक्ष्+यक्, शानच्, मुक्] परीक्षणिक। (दे०)
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परीख  : स्त्री०=परख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीखना  : स०=परखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीछत  : भू० कृ०=परीक्षित। पुं०=परिक्षित।
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परीछम  : पुं० [हिं० परी+छमछम (अनु०)] पैर में पहनने का एक तरह का चाँदी का गहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीछा  : स्त्री०=परीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीछित  : भू० कृ०=परीक्षित। पुं०=परीक्षित्।
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परीजाद  : वि० [फा० परीज़ादः] १. जो परी की संतान हो। २. लाक्षणिक रूप में, परम सुन्दर व्यक्ति।
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परीणाह  : पुं० [सं० परि√नह् (बंधन)+घञ्, दीर्घ] १. दे० ‘परिणाह’। २. शिव। ३. गाँव के आस-पास तथा चारों ओर की वह भूमि जो सार्वजनिक संपत्ति के अन्तर्गत हो, अथवा जिसका उपयोग सब लोग कर सकते हों।
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परीत  : स्त्री०=प्रीति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रेत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीताप  : पुं०=परिताप।
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परीति (ती)  : स्त्री०=प्रीति।
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परीतोष  : पुं०=परितोष।
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परीदाह  : पुं०=परिदाह।
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परीधान  : पुं०=परिधान।
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परीप्सा  : स्त्री० [सं० परि√आप् (व्याप्ति)+सन्+ अ+ टाप्] १. किसी चीज को प्राप्त करने अथवा उसे अधिकार में किये रखने की इच्छा या लालसा। २. जल्दी। शीघ्रता।
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परीबंद  : पुं० [फा०] कलाई पर पहनने का एक आभूषण। बाजूबंद। २. बच्चों के पैरों का एक घुँघरूदार गहना। ३. कुश्ती का एक पेंच।
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परीभव  : पुं०=परिभव।
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परीभाव  : पुं०=परिभाव।
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परीमाण  : पुं०=परिमाण।
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परीरंभ  : पुं०=परिरंभ।
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परीर  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ति करना)+ईरन्] वृक्ष का फल।
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परीरू  : वि० [फा०] परी की तरह सुन्दर आकृतिवाला। परम रूपवान या अति सुन्दर।
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परीवर्तन  : पुं०=परिवर्तन।
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परीवाद  : पुं०=परिवाद।
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परीवार  : पुं०=परिवार।
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परीवाह  : पुं०=परिवाह।
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परीशान  : वि० [फा० परीशाँ] [भाव० परीशानी]= परेशान। (देखें)
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परीशेष  : पुं०=परिशेष।
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परीषह  : पुं० [सं० परि√सह् (सहना)+अच्, दीर्घ] जैन शास्त्रों के अनुसार त्याग या सहन।
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परीष्ट  : वि० [सं० परि√ईष् (चाहना)+क्त] [भाव० परीष्टि] चाहने योग्य।
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परीष्टि  : स्त्री० [सं०] १. इच्छा। २. खोज। छान-बीन। ३. सेवा।
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परीसयर्पा  : स्त्री०=परिसयर्पा।
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परीसार  : पुं०=परिसार।
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परीहन  : पुं०=परिधान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीहार  : पुं०=परिहार।
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परीहास  : पुं०=परिहास।
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परु  : पुं० [सं०√पृ+उन्] १. गाँठ। जोड़। २. अवयव। ३. समुद्र। ४. स्वर्ग। ५. पर्वत। पहाड़। अव्य० [हिं० पर] १. बीता हुआ वर्ष। पर साल। २. आनेवाला वर्ष।
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परुआ)  : पुं०=पड़वा (भैंस का बच्चा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० १. (बैल) जो काम करने के समय बैठ जाय या पड़ा रहे। २. काम-चोर। स्त्री० [?] एक तरह की जमीन।
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परुई  : स्त्री० [देश०] वह नाँद जिसमें भड़भूँजे अनाज के दाने भूँजते हैं।
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परुख  : वि० [भाव० परुखता] परुष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परुत्  : अव्य० [सं० परस्मिन्, नि० सिद्धि] बीता हुआ वर्ष। गत वर्ष।
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परुष  : वि० [सं०√पृ+उषन्] [भाव० परुषता] १. (वचन, वस्तु या व्यक्ति) जो गुण, प्रकृति, स्वभाव आदि की दृष्टि से कड़ा, रुक्ष तथा मृदुता-हीन हो। कठोर और कर्कश। २. उग्रतापूर्ण। तीव्र। ३. हृदयहीन। कठोर हृदयवाला। ४. रसहीन। नीरस। ५. खुरदरा। पुं० १. नीली कटसरैया। २. फालसा। ३. तीर। वाण। सरकंडा। सरपत। ५. खर-दूषण का एक सेनापति। ६. अप्रिय और कठोर बात या वचन।
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परुषता  : स्त्री० [सं० परुष+तल्+टाप्] १. परुष होने की अवस्था या भाव। २. कठोरता। कड़ापन। सख्ती। ३. (वचन या स्वर की) कर्कशता। ४. निर्दयता। निष्ठुरता।
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परुषत्व  : पुं० [सं० परुष+त्वन्]=परुषता।
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परुषा  : स्त्री० [सं० परुष+टाप्] साहित्य में शब्द-योजना की एक विशिष्ट प्रणाली जिसमें टवर्गीय, द्वित्व, संयुक्त, रेप, श, ष आदि वर्णों तथा लंबे समासों की अधिकता होती है। २. रावी नदी। ३. फालसा।
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परुसना  : स०=परोसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परूँगा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बलूत (वृक्ष)।
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परूष, परूषक  : पुं० [सं०√पृ+ऊषन्] [परुष+कन्] फालसा।
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परेंद्रिय ज्ञान  : पुं० [सं०] कुछ विशिष्ट मनुष्यों में माना जानेवाला वह अतींद्रिय ज्ञान जिसकी सहायता से वे बहुत दूर के लोगों के साथ भी मानसिक संबंध स्थापित करके विचार-विनिमय आदि कर सकते हैं। (टेलिपैथी)
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परे  : अव्य० [सं० पर] १. वक्ता अथवा किसी विशिष्ट व्यक्ति से कुछ दूर हटकर या दूर रहकर। जैसे—परे हटकर खड़े होना। मुहा०—परे परे करना=उपेक्षा, घृणा आदि के कारण यह कहना कि दूर रहो या दूर हट जाओ। २. किसी क्षेत्र की सीमा से बाहर या दूर। जैसे—गाँव से परे पहाड़ है। ३. पहुँच, पैठ आदि से दूर या बाहर। जैसे—ईश्वर बुद्धि से परे है। ४. अलग, असंबद्ध या वियुक्त स्थिति में। जैसे वह तो जाति से परे है। ५. तुलना आदि के विचार से ऊँची स्थिति में या बढ़कर। आगे, ऊपर या बढ़कर। जैसे—इससे परे और क्या बात हो सकती है। मुहा०—परे बैठाना=अपनी तुलना में तुच्छ ठहराना। अयोग्य या हीन सिद्ध करना। जैसे—यह घोड़ा तो तुम्हारे घोड़े को परे बैठा देगा। ६. पीछे। बाद। (क्व०)
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परेई  : स्त्री० [हिं० परेवा] १. पंडुकी। फाखता। २. मादा कबूतर। कबूतरी।
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परेखना  : स० [सं० परीक्षण] १. परीक्षा करना। २. दे० ‘परखना’। अ० [सं० प्रतीक्षा] प्रतीक्षा करना। राह देखना। अ० [?] पश्चाताप करना। पछताना।
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परेखा  : पुं० [सं० परीक्षा] १. परीक्षा। जाँच। २. परखने की योग्यता या शक्ति। परख। ३. प्रतीति। पुं० [?] १. मन में होनेवाला खेद या विषाद। २. चिंता। फिक्र। ३. पश्चात्ताप। पुं०=प्रतीक्षा।
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परेग  : स्त्री० [अं० पेग] लोहे की छोटी कील।
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परेड  : स्त्री० [अं०] १. वह मैदान जहाँ सैनिकों को सैनिक शिक्षा दी जाती है। २. सिपाहियों या सैनिकों को दी जानेवाली सैनिक शिक्षा और उनसे संबंध रखनेवाले कार्यों का कराया जानेवाला अभ्यास। सैनिकों की कवायद।
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परेत  : पुं० [सं० प्रेत] १. दे० ‘प्रेत’। २. मृत शरीर। लाश। शव।
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परेता  : पुं० [सं० परित=चारों ओर] १. बाँस की पतली चिपटी तीलियों का बना हुआ बेलन के आकार का एक उपकरण जिसके दोनों ओर पकड़ने के लिए दो लंबी डंडियाँ होती हैं और जिस पर जुलाहे लोग सूत या रेशम लपेट कर रखते हैं। २. उक्त की तरह का वह उपकरण जिस पर पतंग उड़ाने की डोर लपेटी जाती है।
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परेर  : पुं० [सं० पर=दूर, ऊँचा+हिं० एर] आकाश। आसमान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परेला  : वि० [हिं० पड़ना] १. बैल जो चलते चलते पड़ या लेट जाता हो। २. निकम्मा और सुस्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परेली  : स्त्री० [?] तांडव नृत्य का एक भेद जिसमें अंग-संचालन अधिक और अभिनय या भाव-प्रदर्शन कम होता है। इसे ‘देसी’ भी कहते हैं।
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परेव  : पुं०=परेवा।
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परेवा  : पुं० [सं० पारावत] [स्त्री० परेई] १. पंडुकी पक्षी। पेंडुकी। फाखता। २. कबूतर। ३. कोई तेज उड़नेवाला पक्षी। पुं० दे० ‘पत्रवाहक’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परेश  : पुं० [सं० पर-ईश, कर्म० स०] १. वह जो सब का और सबसे बढ़कर मालिक या स्वामी हो। २. परमेश्वर। ३. विष्णु।
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परेशान  : वि० [फा०] [भाव० परेशानी] १. बिखरा हुआ। विश्रृंखल। २. कार्याधिक्य, अथवा चिंता, दुःख आदि के भार से जो बहुत अधिक व्यस्त अथवा विकल और बदहवास हो। ३. दूसरों द्वारा तंग किया अथवा सताया हुआ। जैसे—बच्चों से वह परेशान रहता था।
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परेशानी  : स्त्री० [फा०] १. परेशान होने की अवस्था या भाव। उद्वेगपूर्ण विकलता। हैरानी। २. वह बात या विषय जिससे कोई परेशान हो। काम में होनेवाला कष्ट या झंझट। क्रि० प्र०—उठाना।
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परेषणी  : पुं० [सं० प्रेषणी] वह व्यक्ति जिसके नाम रेल-पार्सल अथवा उसकी बिल्टी भेजी जाय। (कनसाइनी)
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परेषित  : भू० कृ० [सं० प्रेषित] (माल या सामग्री) जो रेल पार्सल द्वारा किसी के नाम भेजी जा चुकी हो। (कनसाइन्ड)
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परेष्टुका  : स्त्री० [सं० पर√इष्+तु+क+टाप्] ऐसी गाय जो प्रायः बच्चे देती हो।
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परेस  : पुं०=परेश (परमेश्वर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परेह  : पुं० [?] बेसन आदि का पकाया हुआ वह घोल जिसमें पकौड़ियाँ डालने पर कढ़ी बनती है।
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परेहा  : पुं० [देश०] जोती और सींची हुई भूमि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परैधित  : वि० [सं० पर-एधित, तृ० त०] अन्य द्वारा पालित। पुं० कोकिल।
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परैना  : पुं० [हिं० पैना] बैल आदि हाँकने की छड़ी या डंडा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परों  : अव्य०=परसों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोक्त-दोष  : पुं० [सं० पर-उक्त, तृ० त०, परोक्त-दोष, कर्म० स०?] न्यायालय में ऊट-पटाँग या गलत बयान देने का अपराध।
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परोक्ष  : वि० [सं० अक्षि-पर अव्य० स०, टच्] [भाव० परोक्षत्व] १. जो दृष्टिके क्षेत्र या पथ के बाहर हो और इसीलिए दिखाई न देता हो। आँखों से ओझल। २. जो सामने उपस्थिति या मौजूद न हो। अनुपस्थित। गैर-हाजिर। ३. छिपा हुआ। गुप्त। ‘प्रत्यक्ष’ का विपर्याय। ४. किसी काम या बात से अनभिज्ञ। अनजान। अपरिचित ५. जिसका किसी से प्रत्यक्ष या सीधा संबंध न हो, बल्कि किसी दूसरे के द्वारा हो। ६. जो उचित और सीधी या स्पष्ट रीति से न होकर किसी प्रकार के घुमाव-फिराव या हेर-फेर से हो। जो सरल या स्पष्ट रास्ते से न होकर किसी और या दूर रास्ते से हो। (इनडाइरेक्ट) जैसे—परोक्ष रूप से आग्रह या संकेत करना। पुं० १. आँखों के सामने न होने की अवस्था या भाव। अनुपस्थिति। २. बीता हुआ समय या भूतकाल जो इस समय सामने न हो। ‘प्रत्यक्ष’ का विपर्याय। ३. व्याकरण में पूर्ण भूतकाल। ४. वह जो तीनों कालों की बातें जानता हो; अर्थात् त्रिकालज्ञ या परम ज्ञानी। ५. ऐसी दशा, स्थान या स्थिति जो आँखों के सामने न हो, बल्कि दृष्टि-पथ के बाहर या इधर-उधर छिपी हुई हो। जैसे—परोक्ष से किसी के रोने का शब्द सुनाई पड़ा। अव्य० किसी की अनुपस्थिति या गैर हाजिरी में। पीठ-पीछे। जैसे—परोक्ष में किसी की निंदा करना।
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परोक्ष-कर  : पुं० [कर्म० स०] अर्थशास्त्र में, दो प्रकार के करों में से एक (प्रत्यक्ष कर से भिन्न) जो लिया तो किसी और व्यक्ति (उत्पादक, आयातक आदि) से जाता है परंतु जिसका भार दूसरों (अर्थात् उपभोक्ताओं) पर पड़ता है। (इनडाइरेक्ट टैक्स) जैसे—उत्पादनकर, आयात-निर्यात कर।
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परोक्षत्व  : पुं० [सं० परोक्ष+त्वन्] परोक्ष या अदृश्य होने की दशा या भाव।
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परोक्ष-दर्शन  : पुं० [ष० त०] विशिष्ट प्रकार की आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसी घटनाओं, वस्तुओं, व्यक्तियों आदि के दृश्य या रूप दिखाई देना जो बहुत दूरी पर हों और साधारण मनुष्यों के दृश्य के बाहर हों। अतीन्द्रिय दृष्टि। (कलेरवायंस)
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परोक्ष-निर्वाचन  : पुं० [सं० त०] निर्वाचन की वह पद्धति जिसमें उच्चपदों के लिए अधिकारी या प्रतिनिधि सीधे जनता द्वारा नहीं चुने जाते हैं, बल्कि जनता के प्रतिनिधियों, निर्वाचन मंडलों आदि के द्वारा चुने जाते हैं। (इनडाइरेक्ट इलेक्शन)
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परोक्ष-श्रवण  : पुं० [ष० त०] विशिष्ट प्रकार की आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसे शब्द सुनाई देना या ऐसे कथनों का परिज्ञान होना जो बहुत दूर पर हो रहे हों और साधारण मनुष्यों के श्रवण-क्षेत्र के बाहर हों। अतींद्रिय-श्रवण। (क्लेअर ऑडिएन्स)
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परोजन  : पुं० [सं० प्रयोजन] १. प्रयोजन। २. कोई ऐसा पारिवारिक उत्सव या कृत्य जिसमें इष्ट-मित्रों, संबंधियों आदि की उपस्थिति आवश्यक हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोढा  : स्त्री० [सं० पर-ऊढा, तृ० त०]=ऊढ़ा (नायिका)।
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परोता  : पुं० [देश०] [स्त्री० परोती] गेहूँ के पयाल से बनाया जानेवाला एक तरह का टोकरा। (पंजाब) पुं० [?] आटा, गुड़, हल्दी, पान आदि जो किसी शुभ कार्य में हज्जाम, भाँट आदि को दिये जाते हैं। पुं०=पर-पोता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोद्वह  : वि० [सं० पर-उद्वह, ब० स०] अन्य द्वारा पालित। पुं० कोयल।
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परोना  : पिरोना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोपकार  : पुं० [सं० पर-उपकार, ष० त०] [भाव० परोपकारिता] ऐसा काम जिससे दूसरों का उपकार या भलाई होती हो। दूसरों के हित का काम।
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परोपकारक  : पुं० [सं० पर-उपकारक, ष० त०] परोपकारी।
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परोपकारिता  : पुं० [सं० परोपकारिन्+तल्+टाप्] १. परोपकार करने की क्रिया या भाव। २. परोपकार।
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परोपकारी (रिन्)  : पुं० [सं० परोपकार+इनि] [स्त्री० परोपकारिणी] वह जो दूसरों का उपकार या हित करता हो। दूसरों की भलाई या हित का काम करने अथवा ऐसी बातें बतलानेवाला जिनसे दूसरों का हित हो सकता हो।
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परोपकृत  : भू० कृ० [सं० पर-उपकृत, तृ० त०] जिसका दूसरों ने उपकार किया हो। जिसके साथ परोपकार हुआ हो।
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परोपजीवी (विन्)  : वि० [सं०] दूसरों के भरोसे जीवन निर्वाह करनेवाला। पुं० ऐसे कीड़े-मकोड़े या वनस्पतियाँ जो दूसरे जीव-जंतुओं या वृक्षों के अंगों पर रहकर जीवन निर्वाह करते हों। (पैरीसाइट)
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परोपदेश  : पुं० [सं० पर-उपदेश, ष० त०] दूसरों को दिया जानेवाला उपदेश।
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परोपसर्पण  : पुं० [सं० पर-उपसर्पण, ष० त०] भीख माँगना।
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परोरजा (जस्)  : वि० [सं० रजस्-पर पं० त०, सुट् नि०] जो राग, द्वेष आदि भावों से परे हो। विरक्त। विमुक्त।
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परोरना  : स० [?] मंत्र पढ़कर फूँकना। अभिमंत्रित करना। जैसे—रोगी को परोरकर पानी पिलाना।
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परोल  : पुं० दे० ‘पैरोल’।
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परोष्णी  : स्त्री० [सं० पर-उष्ण, ब० स०, ङीष्] १. तेल चाटनेवाला एक कीड़ा। तेल-चटा। २. पुराणानुसार कश्मीर की एक नदी।
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परोस  : स्त्री० [हिं० परोसना] परोसने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पड़ोस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोसना  : स० [सं० परिवेषण] खानेवाले की थाली या पत्तल में खाद्य पदार्थ रखना। जैसे—दाल, पूरी और मिठाई परोसना।
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परोसा  : पुं० [हिं० परोसना] प्रायः एक आदमी के खाने भर का वह भोजन जो उसे अपने साथ ले जाने के लिए दिया अथवा उसके यहाँ भेजा जाता है।
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परोसी  : पुं० [स्त्री० परोसिनी]=पड़ोसी।
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परोसैया  : पुं० [हिं० परोसना+ऐया (प्रत्य०)] वह व्यक्ति जो पंगत आदि में बैठे हुए लोगों के लिए भोजन परोसता हो।
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परोहन  : पुं० [सं० प्ररोहण] वह पशु जिस पर चढ़कर सवारी की जाय या जिस पर बोक्ष लादा जाय।
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परोहा  : पुं० [सं० प्ररोहण] १. खेतों की सिंचाई का वह प्रकार जिसमें कम गहरे जलाशय में बाँस आदि से झूलती हुई दौरी की सहायता से पानी उठाकर खेतों में डाला जाता है। २. उक्त दौरी जिसमें पानी निकाला जाता है। ३. कुएँ से पानी निकालने का चरसा। मोट।
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परौं  : अव्य०=परसों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परौका  : स्त्री० [देश०] बाँझ भेड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परौठा  : पुं०=पराँठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परौता  : स्त्री० [देश०] वह चादर जिससे हवा करके अनाज ओसाया जाता है। परती।
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परौती  : स्त्री०=पड़ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्कट  : पुं० [देश०] बगला।
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पर्कटी  : स्त्री० [सं०√पृच् (जोड़ना)+अटि, कुत्व, ङीष्] १. पाकर वृक्ष। २. नई सुपारी। स्त्री० हिं० पर्कट (बगला) का स्त्री०।
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पर्कार  : पुं० [फा०] परकार। (दे०)
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पर्गना  : पुं०=परगना।
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पर्गार  : पुं० [फा०] परकारा। (दे०)
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पर्चा  : पुं०=परचा।
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पर्चाना  : स०=परचाना।
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पर्चून  : पुं०=परचून।
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पर्छा  : पुं०=परछा।
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पर्जंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्ज  : स्त्री०=परज।
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पर्जनी  : स्त्री० [सं०√पृज् (स्पर्श करना)+अन्, ङीष्] दारू हल्दी।
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पर्जन्य  : पुं० [सं०√पृष् (सींचना)+अन्य, ष—ज] १. गरजता तथा बरसता हुआ बादल। मेघ। २. इंद्र। ३. विष्णु। ४. कश्यप ऋषि के एक पुत्र जिसकी गिनती गंधर्वों में होती है।
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पर्जन्या  : स्त्री० [सं० पर्जन्य+टाप्] दारू हल्दी।
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पर्ण  : पुं० [सं०√पृ+न] १. पेड़ का पत्ता। पत्र। जैसे—पर्ण-कुटी=पत्तों से छाकर बनाई हुई कुटी। २. पान का पत्ता। ताम्बूल। ३. पलाश। ढाक। ४. पुस्तक, पंजी आदि का पृष्ठ। (लीफ) ५. कागज का वह टुकड़ा या परत जिसमें से वैसा ही दूसरा टुकड़ा या परत प्रतिलिपि के रूप में काटकर अलग करते हैं। (फायल)
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पर्णक  : पुं० [सं० पर्ण+कन्] पार्णकि गोत्र के प्रवर्तक एक ऋषि।
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पर्णकार  : पुं० [सं० पर्ण√कृ (करना)+अण्] १. पान बेचनेवाला व्यक्ति। तमोली। २. पान बेचनेवालों की एक पुरानी जाति।
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पर्ण-कुटी  : स्त्री० [मध्य० स०] वह झोपड़ी जिसकी छाजन पत्तों की बनी हो।
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पर्ण-कूर्च  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का व्रत जिसमें तीन दिन तक ढाक, गूलर, कमल और बेल के पत्तों का काढ़ा पीया जाता है।
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पर्ण-कृच्छ  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का पाँच दिनों का व्रत जिसमें पहले दिन ढाक के पत्तों का, दूसरे दिन गूलर के पत्तों का, तीसरे दिन कमल के पत्तों का, चौथे दिन बेल के पत्तों का पीकर पाँचवें दिन कुश का काढ़ा पीया जाता था।
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पर्ण-खंड  : पुं० [ब० स०] वह वृक्ष जिसमें फूल, पत्ते आदि न लगते हों।
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पर्ण-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] वनस्पति विज्ञान में, पेड़-पौधों के तने या स्तंभ का वह स्थान जहाँ से पत्ते निकलते हैं। (नोड)
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पर्ण-चोरक  : पुं० [ष० त०] चोरक नाम का गंध द्रव्य।
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पर्ण-नर  : पुं० [मध्य० स०] किसी अज्ञात स्थान में मरनेवाले व्यक्ति का घास-फूस आदि का बनाया हुआ वह पुतला जो उसका शव न मिलने की दशा में उसका शव मानकर जलाया जाता है।
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पर्णभेदिनी  : स्त्री० [सं० पर्ण√भिद् (फाड़ना)+णिनि+ ङीप्] प्रियगु लता।
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पर्ण-भोजन  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसका पत्ता ही भोजन हो। वह जो केवल पत्ते खाकर जीता हो। २. बकरी।
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पर्णभोजनी  : स्त्री० [सं० पर्णभोजन+ङीप्] बकरी।
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पर्ण-मणि  : स्त्री० [मध्य स०] १. पन्ना या मरकत नामक रत्न। २. एक प्रकार का अस्त्र।
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पर्णमाचल  : पुं० [सं० पर्ण-आ√चल्+णिच्+अण्, मुम्] कमरख का पेड़।
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पर्णमुक (च्)  : पुं० [सं० पर्ण√मुच् (छोड़ना)+क्विप्] पतझड़।
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पर्ण-मृग  : पुं० [मध्य० स०] पेड़ों पर रहनेवाले जंगली जीव-जंतु। जैसे—गिलहरी, बंदर आदि।
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पर्णय  : पुं० [सं०] एक असुर जिसे इंद्र ने मारा था।
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पर्णरुह  : पुं० [सं० पर्ण√रुह् (जनमना)+क] वसंत (ऋतु)।
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पर्णल  : वि० [सं० पर्ण+लच्] १. (वृक्ष) जिसमें बहुत अधिक पत्ते लगे हों। २. पत्तों से बनाया हुआ। पत्तों से युक्त
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पर्ण-लता  : स्त्री० [मध्य० स०] पान की बेल या लता।
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पर्णवल्क  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पर्ण-वल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] पालाशी नामक लता।
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पर्ण-वाद्य  : पुं० [मध्य० स०] १. पत्ते का बना हुआ बाजा। २. उक्त बाजे को बजाने से होनेवाला शब्द।
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पर्ण-वीटिका  : स्त्री० [ष० त०] पान का बीड़ा।
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पर्ण-शब्द  : स्त्री० [ष० त०] पत्तों के खड़खड़ाने का शब्द।
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पर्ण-शय्या  : स्त्री० [मध्य० स०] पत्तों का बिछावन या बिस्तर।
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पर्ण-शवर  : पुं० [ब० स०] १. पुराणानुसार एक देश का नाम। २. उक्त देश में रहनेवाली आदिम अनार्य जाति जो संभवतः अब नष्ट हो गई है।
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पर्ण-शाला  : स्त्री० [मध्य० स०] पर्णकुटी।
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पर्णशालाग्र  : पुं० [पर्णशाला-अग्र, ब० स०] पुराणानुसार भद्राश्व वर्ष का एक पर्वत।
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पर्ण-संपुट  : पुं० [ष० त०] पत्ते या पत्तों का बना हुआ दोना।
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पर्ण-संस्तर  : वि० [ब० स०] पर्णशय्या पर सोनेवाला।
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पर्णसि  : पुं० [सं०√पृ+असि, नुक्] १. कमल। २. साग। ३. पानी में बनाया हुआ घर या मकान।
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पर्णांग  : पुं० [पर्ण-अंग, ब० स०] एक विशिष्ट प्रकार के पौधों का वर्ग जिसमें केवल बड़े-बड़े सुंदर पत्ते होते हैं, फूल नहीं लगते। (फर्न)
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पर्णाटक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पर्णाद  : पुं० [सं० पर्ण√अद् (खाना)+अण्] १. वह जो पत्तों का भक्षण करता हो। २. एक प्राचीन ऋषि।
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पर्णाशन  : पुं० [सं० पर्ण+अश् (खाना)+ल्यु—अन] १. वह जो केवल पत्ते खाकर रहता हो। २. बादल। मेघ।
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पर्णास  : पुं० [सं० पर्ण√अस् (फेंकना)+अच्] तुलसी।
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पर्णाहार  : पुं०=पर्णाशन। (दे०)
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पर्णिक  : पुं० [सं० पर्ण+ठन—इक] पत्तों का व्यवसाय करनेवाला। पत्ते बेचनेवाला।
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पर्णिका  : स्त्री० [सं० पर्णिक+टाप्] १. मानकंद। शालपंजी। सरिवन। २. पिठवन्। पृष्णिपर्णी। ३. अग्निमंथ। अरणी। ४. कागज का वह छोटा कटा या काटा हुआ टुकड़ा जो कहीं दिखलाने पर कुछ निश्चित धन या पदार्थ मिलता है, कोई काम होता है अथवा कोई सहायता या सेवा प्राप्त होती है। (कूपन)
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पर्णिनी  : स्त्री० [सं० पर्ण+इनि—ङीप्] १. माषपर्णी। २. एक अप्सरा।
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पर्णिल  : वि० [सं० पर्ण+इलच] पत्तों से युक्त।
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पर्णी (णिनि)  : पुं० [सं० पर्ण+इनि] १. वृक्ष। पेड़। २. शालपर्णी। सरिवन। ३. पिठवन। ४. तेजपत्ता। ५. एक प्रकार की अप्सराएँ, कदाचित् परियाँ।
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पर्णीर  : पुं० [सं० पर्ण+ईरच्] सुगंधवाला।
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पर्णोटज  : पुं० [सं० पर्ण-उटज, मध्य० स०] पर्ण-कुटी।
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पर्त  : स्त्री०=परत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्द  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ति करना)+द] १. सिर के बालों का समूह। २. गुदामार्ग से निकलनेवाली वायु। पाद।
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पर्दन  : पुं० [सं०√पर्द्+ल्युट्—अन] पादने की क्रिया। पादना।
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पर्दनी  : स्त्री० [सं० परिधानी] धोती।
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पर्दा  : पुं०=परदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्धा  : वि० [हिं० आधा का अनु०] आगे से कुछ कम या अधिक। आधे के लगभग। उदा०—वह पूरा कभी वसूल नहीं हो पाता था—कभी आधा कभी पर्धा।—वृन्दावन लाल वर्मा।
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पर्ना  : पुं० [फा०] एक तरह का बूटीदार रेशमी कपड़ा। पुं०=परना।
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पर्प  : पुं० [सं० पृ०+प] १. हरी घास। २. वह पहियेदार छोटी गाड़ी जिस पर पगुओं को बैठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। ३. घर। मकान।
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पर्पट  : पुं० [सं०√पर्प् (गति)+अटन्] १. पित-पापड़ा। २. दाल आदि का बना हुआ पापड़।
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पर्पट-द्रुम  : पुं० [सं० उपमि० स०] कुंभी वृक्ष।
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पर्पटी  : स्त्री० [सं० पर्पट+ङीष्] १. सौराष्ट्र आदि प्रदेशों में होनेवाली एक तरह की मिट्टी जो सुगंधित होती है। २. उक्त मिट्टी में से निकलनेवाली गंध। ३. गंध। महक। ४. पानड़ी। ५. पापड़ी। ६. वैद्यक की स्वर्ण-पर्पटी नाम की रसौषधि। स्त्री०=कनपटी। उदा०—माथे पर और पर्पटी पर मल दिया।—अज्ञेय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्परी  : स्त्री० [सं० पर्प√रा (देना)+क+ङीष्] स्त्रियों की कवरी। जूड़ा। स्त्री० [सं० पर्पट] १. पापड़ के छोटे छोटे टुकड़े। २. कचरी।
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पर्परीक  : पुं० [सं०√पृ+ईकन्, द्वित्व, रुक्] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. जलाशय।
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पर्परीण  : पुं० [सं०√पृ+यङ्, लुक्,+इनन्] पत्ते की नस।
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पर्पिक  : पुं० [सं० पर्प+ठन्—इक] पर्प में बैठनेवाला पंगु व्यक्ति।
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पर्फरीक  : पुं० [सं० √स्फुट् (संचलन)+ईकन्, नि० सिद्धि] नया और कोमल पत्ता।
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पर्ब  : पुं० [सं० पर्व] १.=पर्व। २. वह शुभ दिन जिस दिन सिक्ख लोग उत्सव मनाते हैं। जैसे—गुरुपर्व=नानक के जन्म लेने का दिन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्बत  : पुं०=पर्वत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्बती  : वि० [हिं० पर्वत] पर्वत-संबंधी। पहाड़ी।
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पर्यंक  : पुं० [सं० परि-अंक, प्रा० स०] १. पलंग। २. योग में एक प्रकार का आसन। ३. वीरों के बैठने का एक प्रकार का आसन या ढंग। ४. नर्मदा नदी के उत्तर ओर में स्थित पर्वत जो विन्ध्य पर्वत का पुत्र माना गया है।
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पर्यंक-पदिका  : स्त्री० [सं० पर्यंक-पाद, ब० स०, ठन्—इक, टाप्] एक तरह का सेम जिसकी फलियाँ काले रंग की होती हैं।
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पर्यंत  : भू० कृ० [सं० परि-अंत, प्रा० स०] घिरा हुआ। स्त्री० किसी क्षेत्र के विस्तार की समाप्ति सूचित करनेवाली रेखा। चौहद्दी। सीमा। (बाउण्डरी) अव्य० तक। लौं।
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पर्यंतिका  : स्त्री० [सं० परि-अंतिका, प्रा० स०] नैतिकता तथा सद्गुनों का होनेवाला नाश।
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पर्यग्नि  : पुं० [सं० परि-अग्नि, प्रा० स०] १. हाथ में अग्नि लेकर यज्ञ के लिए छोड़े हुए पशु की परिक्रमा करना। २. वह अग्नि जो उक्त अवसर पर हाथ में ली जाती थी।
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पर्यटक  : पुं० [सं० परि√अट् (गति)+ण्वुल्—अक] पर्यटन करनेवाला। दूसरे देशों में घूमने-फिरनेवाला।
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पर्यटन  : पुं० [सं० परि√अट्+ल्युट्—अन] अनेक महत्त्वपूर्ण स्थल देखने तथा मन-बहलाव के लिए अधिक विस्तृत भूभाग में किया जानेवाला भ्रमण।
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पर्यनुयोग  : पुं० [सं० परि-अनुयोग, प्रा० स०] १. कोई बात मिथ्या सिद्ध करने अथवा किसी तथ्य का खण्डन करने के उद्देश्य से की जानेवाली पूछ-ताछ। २. निंदा।
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पर्यन्य  : पुं०=पर्जन्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्यय  : पुं० [सं० परि√इ (जाना)+अच्] १. चारों ओर चक्कर लगाना। २. समय का बीतना। ३. समय का अपव्यय। ४. किसी लौकिक या शास्त्रीय बन्धन, मर्यादा आदि का उल्लंघन।
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पर्ययण  : पुं० [सं० परि√इ+ल्युट्—अन] १. किसी के चारों ओर चक्कर लगाना। २. घोड़े की जीन। काठी।
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पर्यवदात  : वि० [सं० परि-अवदात, प्रा० स०] १. पूर्ण रूप से निर्मल और शुद्ध। २. निपुण। ३. ज्ञात और परिचित।
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पर्यवरोध  : पुं० [सं० परि-अवरोध, प्रा० स०] चारों ओर से होनेवाली बाधा।
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पर्यवलोकन  : पुं० [सं० परि-अवलोकन, प्रा० स०] १. चारों ओर देखना। २. चारों ओर इस तरह निरीक्षणात्मक दृष्टि से देखना कि समूचे क्षेत्र या उसमें होनेवाली चीजों का चित्र मस्तिष्क में उतर आये। (सर्वे)
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पर्यवसान  : पुं० [सं० परि-अव√सो (समाप्ति)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० पर्यवसित] १. अंत। समाप्ति। २. अंतर्भाव। ३. क्रोध। गुस्सा। ४. अर्थ, आशय आदि के संबंध में होनेवाला ठीक ज्ञान या निश्चय।
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पर्यवस्था  : स्त्री० [सं० परि-अव√स्था (ठहरना)+अङ्—टाप्] १. विरोध। २. खंडन।
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पर्यवस्थान  : पुं० [सं० परि-अव√स्था+ल्युट्—अन] १. विरोध करना। २. खंडन करना।
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पर्यवेक्षक  : वि० [परि-अव√ईक्ष्+ण्वुल्—अक] पर्यवेक्षण करनेवाला। वह अधिकारी जो किसी काम के ठीक तरह से होते रहने की देख-रेख करने पर नियुक्त हो। (सुपरवाइजर)
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पर्यवेक्षण  : पुं० [परि—अव√ईक्ष्+ल्युट्—अन] बराबर यह देखते रहना कि कोई काम ठीक तरह से चल रहा है या नहीं। (सुपरवाइजिंग)
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पर्यश्रु  : वि० [सं० परि—अश्रु, ब० स०] १. आशुओं से नहाया या भींगा हुआ। २. जिसकी आँखों में आँसू भरे हो।
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पर्यसन  : पुं० [सं० परि√अस् (फेंकना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० पर्यस्त] १. दूर करना। बाहर करना। निकालना। २. भेजना। ३. नष्ट करना। ४. रद्द करना।
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पर्यस्त  : भू० कृ० [सं० परि√अस्+क्त] जिसका पर्यसन हुआ हो।
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पर्यस्तापह्नुति  : स्त्री० [सं० पर्यस्ता-अपह्नुति, कर्म० स०] अपह्नुति अलंकार का एक भेद जिसमें किसी उपमान के धर्म का निषेध करके उस धर्म की स्थापना उपमेय में की जाती है।
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पर्यस्ति  : स्त्री० [सं० परि√अस्+क्तिन्] १. दूर करना। २. वीरासन लगाकर बैठना।
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पर्यस्तिका  : स्त्री० [सं० पर्यस्ति+कन्+टाप्] १. वीरासन। २. पलंग।
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पर्याकुल  : वि० [सं० परि-आकुल, प्रा० स०] गंदला, क्षुब्ध (पानी)। २. डरा और घबराया हुआ। ३. अस्त-व्यस्त। ४. उत्तेजित। ५. मरा हुआ।
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पर्यागत  : वि० [सं० परि-आ√गम् (जाना)+क्त] १ जो पूरा चक्कर लगा चुका हो। २. जो अपने सांसारिक जीवन का अंत कर चुका हो।
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पर्याचांत  : पुं० [सं० परि-आ√चंम् (खाना)+क्त] आचमन करने के बाद छोड़ा जानेवाला परोसा हुआ भोजन। (धार्मिक दृष्टि से ऐसा भोजन जूठा माना जाता है)।
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पर्याण  : पुं० [सं० परि√या (गति)+ल्युट्, पृषो० सिद्धि] घोड़े की जीन। काठी।
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पर्याप्त  : वि० [सं० परि√आप् (व्याप्ति)+क्त] [भाव० पर्याप्ति] १. जितना आवश्यक हो उतना सब। पूरा। यथेष्ट। काफी। (सफिशिएन्ट)। २. मिला हुआ। प्राप्त। विशेष—यथेष्ट की तरह इसका प्रयोग भी केवल ऐसी चीजों या बातों के संबंध में होना चाहिए जो आवश्यक हों या जिनसे हमें तृप्ति या संतोष प्राप्त होता हो। जैसे—पर्याप्त धन, पर्याप्त सुख। यह कहना ठीक न होगा—मुझे वहाँ पर्याप्त कष्ट मिला था। ३. जोड़, तुल्यता आदि की दृष्टि से उपयुक्त, अधिक बलवान या सशक्त। ४. परिमित। सीमित। पुं० १. पर्याप्त या यथेष्ट होने की अवस्था या भाव। २. तृप्ति। ३. शक्ति। ४. सामर्थ्य। ५. योग्यता।
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पर्याप्ति  : स्त्री० [सं० परि√आप्+क्तिन्] १. पर्याप्त होने की अवस्था या भाव। यथेष्टता। २. प्राप्ति। मिलना। ३. अन्त। समाप्ति। ४. योग्यता या सामर्थ्य। ५. तृप्ति। संतुष्टि। ६. निवारण। ६. रक्षा करना। रक्षण।
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पर्याप्लाव  : पुं० [सं० परि-आ√प्लु (गति)+घञ्] १. चक्कर। फेरा। २. घेरा।
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पर्याप्लुत  : भू० कृ० [सं० परि-आ√प्लु+क्त] घिरा या घेरा हुआ।
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पर्याय  : पुं० [सं० परि√ई (गति)+घञ्] १. पारस्परिक संबंध की दृष्टि से वे शब्द जो सामान्यतः किसी एक ही चीज, बात या भाव का बोध कराते हों। साधारणतः पर्यायों के अभिधेयार्थ समान होते हैं, लक्ष्यार्थों में भिन्नता हो सकती है। (सिनामिन) २. क्रम। सिलसिला। ३. एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें अनेक आश्रय ग्रहण करने का वर्णन होता है। ४. प्रकार। भेद। ५. अवसर। मौका। ६. बनाने या रचने की क्रिया। निर्माण। ७. द्रव्य का गुण या धर्म। ८. समय का व्यतीत होना। ९. दो व्यक्तियों में होनेवाला ऐसा नाता या संबंध जो एक ही कुल में जन्म लेने के कारण माना जाता या होता है।
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पर्यायकी  : स्त्री० [सं०] भाषा विज्ञान का एक अंग, जिसमें पर्याय शब्दों के पारस्परिक सूक्ष्म अंतरों और भेद-प्रभेदों का अध्ययन किया जाता है। (सिनॉमिनी)
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पर्याय-कोश  : पुं० [ष० त०] वह शब्दकोश जिसमें शब्दों के पर्याय बतलाये गये हों तथा उनमें होनेवाली परस्पर आर्थी अंतरों का विवेचन किया गया हो।
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पर्याय-क्रम  : पुं० [ष० त०] १. पद, मान आदि के विचार से स्थिर किया जानेवाला क्रम। बड़ाई-छोटाई आदि के विचार से लगाया हुआ क्रम। २. उत्तरोत्तर होती रहनेवाली वृद्धि।
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पर्यायज्ञ  : पुं० [सं० पर्याय√ज्ञा (जानना)+क] पर्यायों के सूक्ष्म अंतर जानने वाला विद्वान् व्यक्ति। (सिनानिमिस्ट)
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पर्यायवाचक  : वि० [सं०] १. पर्याय के रूप में होनेवाला। २. जो संबंध के विचार से पर्याय हो।
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पर्यायवाची (चिन्)  : वि० [सं०]=पर्यायवाचक।
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पर्याय-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऐसा स्वभाव जिसके कारण एक छोड़कर दूसरे को, फिर उसे छोड़कर किसी और को अपनाते चलने का क्रम चलता रहता है।
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पर्याय-शयन  : पुं० [तृ० त०] एक के बाद दूसरे का या पारी पारी से सोना।
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पर्यायिक  : वि० [सं० पर्याय+ठन्—इक] १. पर्याय-संबंधी। पर्याय का। २. पर्याय के रूप में होनेवाला। पुं० नृत्य और संगीत का एक अंग।
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पर्यायी  : वि० [सं०] पर्यावाचक।
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पर्यायोक्ति  : स्त्री० [सं० पर्याय—उक्ति, तृ० त०] एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें (क) कोई बात सीधी तरह से न कहकर चमत्कारिक और विलक्षण ढंग से कही जाती है। जैसे—नायक के बिछुड़ने के समय रोती हुई नायिका का अपने आँसुओं से यह कहना कि जरा ठहरो, और मेरे प्राण भी अपने साथ लेते जाओ। (ख) किसी बहाने या युक्ति से कोई काम करने का उल्लेख होता है। जैसे—पक्षियों और हिरनों को देखने के बहाने सीता जी बार-बार श्रीराम की ओर देखती थीं।
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पर्यालोचन  : पुं० [सं० परि-आ√लोच् (देखना)+ल्युट्—अन] १. अच्छी तरह की जानेवाली देख-भाल। २. दुबारा या फिर से की जानेवाली देख-भाल। ३. दे० ‘पुनरीक्षण’।
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पर्यालोचना  : स्त्री० [सं० परि-आ√लोच्+णिच्+युच्—अन,+टाप्]=पर्यालोचन।
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पर्यावरण  : पुं० [सं० परि+आवरण] किसी व्यक्ति या विषय की परिस्थिति। वातावरण। उदा०—कवि पर किसी एक समाज के पर्यावरण का विशेष प्रभाव पड़ता है।—डा० सम्पूर्णानन्द।
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पर्यावर्त्त  : पुं० [सं० परि-आ√वृत् (बरतना)+घञ्] १. वापस आना। लौटना। २. मृत आत्मा का फिर से इस संसार में आकर जन्म लेना या शरीर धारण करना।
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पर्यावर्तन  : पुं० [सं० परि-आ√वृत्+ल्युट्—अन] १. वापस आना। लौटना। २. अदला-बदली। विनिमय।
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पर्याविल  : वि० [सं० परि-आविल, प्रा० स०] गँदला (जल)।
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पर्यास  : पुं० [सं० परि√अस् (फेंकना)+घञ्] १. पतन। गिरना। २. वध। हत्या। ३. नाश। पुं०=प्रयास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्यासन  : पुं० [सं० परि√अस् (बैठना)+ल्युट्—अन] १. किसी को घेर कर बैठना। किसी के चारों ओर बैठना। २. परिक्रमा करना।
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पर्याहार  : पुं० [सं० परि-आ√हृ (हरण करना)+घञ्] १. जूआ। २. ढोने की क्रिया। ३. बोझ। ४. घड़ा। ५. अन्न जमा करना।
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पर्युक्षण  : पुं० [सं० परि√उक्ष् (सींचना)+ल्युट्—अन] श्राद्ध, होम, पूजा आदि के बिना मंत्र पढ़े छिड़का जानेवाला जल।
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पर्युक्षणी  : स्त्री० [सं० पर्युक्षण+ङीप्] पर्युक्षण के लिए जल से भरा पात्र।
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पर्युत्थान  : पुं० [सं० परि-उद्√स्था (ठहरना)+ल्युट्—अन] उठ खड़ा होना।
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पर्युसुक्  : वि० [सं० परि-उत्सुक, प्रा० स०] १. बहुत अधिक उत्सुक। २. उदास। खिन्न। ३. विकल। खिन्न।
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पर्युदय  : पुं० [सं० अत्या० स०] सूर्योदय से कुछ पहले का समय। तड़का।
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पर्युदस्त  : वि० [सं० परि-उद्√अस्+क्त] १. निषिद्ध। २. जिसके संबंध में या जिस पर आपत्ति की गई हो।
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पर्युदास  : पुं० [सं० परि-उद्√अस्+घञ्] नियम आदि के विरुद्ध अपवाद के रूप में कही जानेवाली बात।
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पर्युपस्थान  : पुं० [सं० परि-उप्√स्था+ल्युट्—अन] सेवा।
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पर्युपासक  : पुं० [सं० परि-उपासक, प्रा० स०] १. उपासक। २. सेवक।
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पर्युपासन  : पुं० [सं० परि-उपासन, प्रा० स०] १. उपासना। २. सेवा।
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पर्युपासिता (तृ), पर्युपासी (सिन्)  : पुं० [सं० परि-उप√आस+तृच्, सं० परि-उप√अस्+णिनि] पर्युपासक। (दे०)
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पर्युप्त  : भू० कृ० [सं० परि√वप् (बोना)+क्त] [भाव० पर्युप्ति] जो बोया गया हो।
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पर्युप्ति  : स्त्री० [सं० परि√वप्+क्तिन्] बीज बोने की क्रिया या भाव। बोआई।
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पर्युषण  : पुं० [सं० परि√उष्+ल्युट्—अन] १. जैनियों के अनुसार तीर्थंकरों की पूजा या सेवा। २. जैनों का एक विशिष्ट पर्व जिसमें कई प्रकार के व्रतों का पालन किया जाता है।
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पर्युषित  : वि० [सं० परि√वस्+क्त] १. जो ताजा न हो। एक दिन पहले का। बासी। (फूल या भोजन के लिए प्रयुक्त) २. मूर्ख।
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पर्यूहण  : पुं० [सं० परि√ऊह्+ल्युट्—अन] अग्नि के चारों ओर जल छिड़कना।
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पर्येषणा  : स्त्री० [सं० परि-एषणा, प्रा० स०] १. तर्कपूर्वक की जानेवाली पूछ-ताछ। २. चान-बीन। जाँच-पड़ताल। ३. पूजा।
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पर्योष्टि  : स्त्री० [सं० परि-आ√इष्+क्तिन्]। पर्येषणा। (दे०)
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पर्व (र्वन्)  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ण करना)+वनिप्] १. दो चीजों के जुड़ने का संधि-स्थान। जोड़। गाँठ। जैसे—उँगली या गन्ने का पर्व (पोर)। २. शरीर का ऐसा अंग जो किसी जोड़ के आगे हो और घुमाया फिराया या मोड़ा जा सकता हो। ३. अंश। खंड। भाग। ४. ग्रंथ या कोई विशिष्ट अंश, खंड या विभाग। जैसे—महाभारत में अठारह पर्व हैं। ५. सीढ़ी का डंडा। ६. कोई निश्चित या सीमित काल। अवधि, विशेषतः अमावस्या, पूर्णिमा और दोनों पक्षों की अष्टमियाँ। ७. वे यज्ञ जो उक्त तिथियों में किये जाते थे। ८. आनन्द और उत्सव का दिन या समय। ९. वह दिन जब विशिष्ट रूप से कोई धार्मिक या पुण्य-कार्य किया जाता हो। १॰. कोई विशिष्ट अच्छा अवसर या समय। आनन्द या त्योहार मनाने का दिन। ११. उत्सव। १२. चंद्रमा या सूर्य का ग्रहण। १३. सूर्य का किसी राशि में संक्रमण काल। संक्रांति। १४. चातुर्मास्य।
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पर्वक  : पुं० [सं० पर्वन्√कै (प्रकाशित होना)+क] घुटना।
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पर्वकार  : पुं० [सं० पर्वन्√कृ (करना)+अण्] वह ब्राह्मण जो घन के लोभ से पर्व के दिन काम छोड़ दे, और फिर सुभीते से किसी दूसरे दिन करे।
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पर्व-काल  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह समय जब कोई पर्व हो। पुण्यकाल। २. चंद्रमा के क्षय के दिन, अर्थात् पूर्णमासी से अमावस्या तक का समय।
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पर्वगामी (मिन्)  : पुं० [सं० पर्वन्√गम् (जाना)+णिनि] शास्त्रों द्वारा वर्जित तिथि या पर्व पर स्त्री-गमन करनेवाला व्यक्ति।
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पर्वण  : पुं० [सं०√पर्व् (पूर्ति)+ल्युट्—अन] १. कोई काम पूरा करने की क्रिया या भाव। २. एक राक्षस का नाम।
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पर्वणिका  : स्त्री० [सं० पर्वणी+कन्+टाप्, ह्रस्व] पर्वणी नाम का आँख का रोग।
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पर्वणी  : स्त्री० [सं० पर्वण्+ङीष्] १. सुश्रुत के अनुसार आँख की संधि में होनेवाला एक प्रकार का रोग जिसमें जलन और सूजन होती है। २. पूर्णिमा। ३. दे० ‘पर्विणी’।
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पर्वत  : पुं० [सं०√पर्व+अतच्] १. पत्थरों आदि का बना हुआ, मालाओं या श्रेणियों के रूप में फैला हुआ तथा ऊँची चोटियोंवाला वह भूखंड जो आस-पास की भूमि से सैकड़ों-हजारों फुट ऊँचा होता है तथा जो भूगर्भ की प्राकृतिक शक्तियों से निकलनेवाले मल से बनता है। पहाड़। विशेष—पर्वत प्रायः ढालुएँ होते हैं और उनके ऊपरी भाग निचले भागों की अपेक्षा बहुत कम विस्तृत होते हैं और उनके ऊपरी भाग चौड़े तथा चिपटे होते हैं। २. बहुत-सी चीजों का बना हुआ ऊँचा ढेर। ३. लाक्षणिक अर्थ में, अत्यधिक मात्रा में होने की अवस्था या भाव। जैसे—बातों का पहाड़। ४. पुराणानुसार एक देवर्षि जो नारद मुनि के बहुत बड़े मित्र थे। ५. एक प्रकार की मछली। ६. पेड़। वृक्ष। ७. एक प्रकार का साग। ८. दशनामी संप्रदाय के संन्यासियों का एक भेद या वर्ग; और उनके नाम के साथ लगनेवाली एक उपाधि। ९. मरीचि का एक पुत्र। १॰. एक गंधर्व का नाम। ११. रहस्य-संप्रदाय में (क) पाप, (ख) प्रेम, (ग) मन या ध्यान की ऊँची अवस्था, (घ) परमात्मा।
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पर्वतक  : पुं० [सं० पर्वत+कन्] छोटा पहाड़।
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पर्वत-काक  : पुं० [मध्य० स०] डोम कौआ।
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पर्वत-कीला  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] पृथ्वी।
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पर्वतखंड  : पुं० [सं०] १. पर्वत का टुकड़ा। २. पर्वतीय प्रदेश। ३. तटवर्ती प्रदेश में ऊँची तथा अति तीव्र ढालवाली चट्टान की दीवार।
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पर्वतज  : वि० [सं० पर्वत्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] जो पर्वत से उत्पन्न हुआ हो। पहाड़ से पैदा होने या निकलनेवाला।
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पर्वतजा  : स्त्री० [सं० पर्वतज+टाप्] १. नदी। २. पार्वती।
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पर्वत-जाल  : पुं० [ष० त०] पर्वत-माला।
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पर्वत-तृण  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक तरह की घास जिसे पशु खाते हैं।
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पर्वत-दुर्ग  : पुं० [मध्य० स०] पहाड़ पर बना हुआ किला।
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पर्वत-नंदिनी  : स्त्री० [ष० त०] पार्वती।
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पर्वत-पति  : पुं० [ष० त०] पर्वतों का राजा, हिमालय।
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पर्वत-प्रदेश  : पुं० [सं०] ऐसा प्रदेश जिसमें प्रायः पर्वत ही पर्वत हों।
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पर्वत-माला  : स्त्री० [ष० त०] भूगोल शास्त्र में, पहाड़ों की श्रृंखला जो दूर तक समानांतर चली गई हो। (चेन)
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पर्वत-मोचा  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह के पहाड़ी केले का पौधा और उसका फल।
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पर्वत-राज  : पुं० [ष० त०] १. बहुत बड़ा पहाड़। २. हिमालय पर्वत।
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पर्वतवासिनी  : स्त्री० [सं० पर्वत√वस् (वासना)+णिनि+ ङीष्] १. काली देवी। २. गायत्री। ३. छोटी जटामासी।
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पर्वतवासी (सिन्)  : पुं० [सं० पर्वत√वस्+णिनि] [स्त्री० पर्वतवासिनी] पहाड़ पर वास करनेवाला प्राणी।
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पर्वतस्थ  : वि० [सं० पर्वत√स्था (ठहरना)+क] पर्वत पर स्थित।
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पर्वतात्मज  : पुं० [सं० पर्वत-आत्मज, ष० त०] मैनाक (पर्वत)।
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पर्वतात्मजा  : स्त्री० [पर्वत-आत्मजा, ष० त०] पार्वती।
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पर्वताधारा  : स्त्री० [पर्वत-आधार, ब० स०, टाप्] पृथ्वी।
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पर्वतारि  : पुं० [पर्वत्-अरि, ष० त०] इंद्र।
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पर्वताशय  : पुं० [सं० पर्वत-आ√शी (सोना)+अच] मेघ। बादल।
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पर्वताश्रय  : पुं० [सं० पर्वत-आश्रय, ब० स०] १. शरभ। २. पर्वतवासी।
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पर्वताश्रयी (यिन्)  : पुं० [सं० पर्वत-आ√श्रि (सेवा)+ णिनि] पर्वतवासी।
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पर्वतासन  : पुं० [सं० पर्वत-आसन, मध्य० स०] हठ योग में एक प्रकार का आसन।
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पर्वतास्त्र  : पुं० [सं० पर्वत-अस्त्र, मध्य० स०] प्राचीन काल का एक प्रकार का कल्पित अस्त्र जिसके संबंध में कहा जाता है कि इनके फेंकते ही शत्रु की सेना पर बड़े बड़े पत्थर बरसने लगते थे अथवा अपनी सेना के चारों ओर पहाड़ खड़े हो जाते थे, जिससे शत्रु के प्रभंजनास्त्र विफल हो जाते थे।
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पर्वतिया  : पुं० [सं० पर्वत+इया (प्रत्य०)] १. नैपालियों की एक जाति। २. एक प्रकार का कद्दू। ३. एक प्रकार का तिल। वि०=पर्वतीय (पहाड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्वती  : वि०=पर्वतीय।
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पर्वतीय  : वि० [सं० पर्वत√छ—ईय] १. पर्वत-संबंधी। पहाड़ का’ पहाड़ी। २. पहाड़ पर रहने या होनेवाला। पहाड़ी जैसे—पर्वतीय पावस।
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पर्वतेश्वर  : पुं० [पर्वत-ईश्वर, ष० त०] हिमालय।
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पर्वतोद्भव  : पुं० [पर्वत-उद्भव, ब० स०] १. पारा। २. शिंगरफ।
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पर्वतोद्भूत  : पुं० [सं० पर्वन्-उद्भूत, पं० त०] अबरक।
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पर्वतोर्मि  : पुं० [पर्वत-उर्मि, ब० स०] एक तरह की मछली।
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पर्वधि  : पुं० [सं० पर्वन√धा (धारण करना)+कि] चंद्रमा।
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पर्वपुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] १. नागदंती नामक क्षुप। २. रामदूती नाम की तुलसी।
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पर्व-भाग  : पुं० [ष० त०] हाथ की कलाई।
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पर्व-भेद  : पुं० [सं० ब० स०] संधिभंग नामक रोग का एक भेद।
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पर्व-मूल  : पुं० [ष० त०] किसी पक्ष की चतुर्दशी और अमावश्या (अथवा पूर्णिमा) के संधिकाल का समय।
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पर्व-मूला  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] सफेद दूब।
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पर्व-योनि  : पुं० [ब० स०] ऐसी वनस्पति जिसमें जगह जगह पर्व अर्थात् गाँठें या पोर हों। जैसे—ऊख, बांस आदि।
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पर्वर  : प्रत्य० [फा०] पालन करनेवाला। परवर। पुं०=परवल (पौधा और उसका फल)।
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पर्वाना  : पुं० [फा० पर्वानः] परवाना। (दे०)
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पर्वानगी  : स्त्री० [फा०] आज्ञा। अनुमति।
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पर्वरुट (ह्र)  : पुं० [सं० पर्वन्√रुह् (उत्पत्ति)+क्विप्] अनार।
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पर्वरिश  : स्त्री०=परवरिश।
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पर्वरीण  : पुं० [सं०=पर्परीण, पृषो० सिद्धि०] १. पर्व। २. मृत शरीर। लाश। ३. अभिमान। घमंड।
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पर्व-वल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह की दूब। माला दूर्वा।
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पर्व-संधि  : पुं० [ष० त०] १. पूर्णिमा (या अमावस्या) और प्रतिपदा का संधिकाल। २. चंद्रमा अथवा सूर्य के ग्रहण का समय। ३. घुटनों का जोड़। ४. दो अवस्थाओं के बीच में पड़नेवाला समय या स्थान।
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पर्वा  : स्त्री०=परवाह। स्त्री०=प्रतिपदा।
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पर्वानगी  : स्त्री०=परवानगी।
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पर्वाना  : पुं०=परवाना।
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पर्वावधि  : स्त्री० [सं० पर्वन्-अवधि, ष० त०] गाँठ। जोड़।
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पर्वास्फोट  : पुं० [सं० पर्वन्-आस्पोट, ष० त०] १. उँगलियाँ चटकाने की क्रिया या भाव। २. उँगलिया चटकाने पर होनेवाला शब्द।
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पर्वाह  : पुं० [पर्वन्-अहन्, ष० त०, टच्] वह दिन जिसमें उत्सव मनाया जाय। पर्व का दिन। स्त्री० [फा० पर्वा] परवाह। (दे०)
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पर्विणी  : स्त्री० [सं०] १. छोटा और कम महत्त्वपूर्ण पर्व। २. पर्व का समय।
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पर्वित  : पुं० [सं०√पर्वू (पूर्ति)+क्त] एक प्रकार की मछली।
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पर्वेश  : पुं० [सं० पर्वन्—ईश, ष० त०] फलित-ज्योतिष में ब्रह्मा, इंद्र, चंद्र कुबेर, वरुण अग्नि और यम देवता जो ग्रहण के अधिपति माने जाते हैं। इन सभी का भोगकाल छः छः महीने का होता है।
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पर्श  : पुं० [स०] एक प्राचीन योद्धा जाति जिसके वंशज अफगानिस्तान में एक प्रदेश में रहते थे। पुं०=स्पर्श।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्शनीय  : वि० [सं० स्पर्शनीय] स्पर्श किये जाने के योग्य। स्पृश्य।
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पर्शु  : पुं० [सं०√स्पृश् (छूना)+शुन्—पृ, आदेश] १. आयुध। अस्त्र। २. परशु। फरसा। ३. पसली।
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पर्शुका  : स्त्री० [सं० पर्शु√कै (चमकना)+क+टाप्] पसली।
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पर्शु-पाणी  : पुं० [ब० स०] १. गणेश। २. परशुराम।
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पर्शुराम  : पुं० [मध्य० स०] परशुराम।
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पर्शु-स्थान  : पुं० [ष० त०] अफगानिस्तान का एक प्रदेश जिसमें पर्शु जाति के लोग रहते थे।
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पर्श्वध  : पुं० [सं०=परश्वध, पृषो० सिद्धि] कुठार।
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पर्षद्  : स्त्री०=परिषद्।
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पर्षद्वल  : पुं० [सं० पर्षद्+वलच्] परिषद् का सदस्य।
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पर्हेज  : पुं०=परहेज।
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पर्हेजगार  : वि०=परहेजगार।
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परमेश्वर  : वि० [सं० परमेश्वर+अण्] परमेश्वर संबंधी।
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परिपात्र  : पुं० [सं०] सात मुख्य पर्वत-मालाओं में से एक। पारियात्र।
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पर्याप्तिक  : वि० [सं० पर्याप्त+ठक्—इक] १. पर्याप्त। यथेष्ट। २. संपूर्ण।
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परुष-ग्रह  : पुं० [सं० ष० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार, मंगल, सूर्य और बृहस्पति, ये तीन ग्रह।
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परिक्षण  : पुं०=प्रतिरक्षा।
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