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पवंग  : पुं० [सं० प्लवंग] १. बंदर। २. हिरन। ३. घोड़ा। (डिं०)
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पवँरि (री)  : स्त्री०=पवँरी (ड्योढ़ी)।
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पव  : पुं० [सं०√पू (पवित्र करना)+अप्] १. गोबर। २. वायु। हवा। ३. अनाज की भूसी अलग करना। अनाज ओसाना या बरसाना। पुं०=पौ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पवई  : स्त्री० [देश०] खाकी रंग की एक चिड़िया जिसका निचला भाग खैरे रंग का और चोंच पीली होती है।
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पवन  : पुं० [सं०√पू (पवित्र करना)+युच्—अन] १. वायु। हवा। २. विशेषतः वायु की वह हलकी धारा जो पृथ्वी के प्राणियों के आस-पास रहकर कभी कुछ तेज और कभी कुछ धीमी चलती है और जिसका ज्ञान हमारी त्वगिंद्रिय को होता है। (विंड) विशेष—हमारे यहाँ पुराणों में ४९ प्रकार के पवन कहे गये हैं। परन्तु लोक में पवन उसी अर्थ में प्रचलित है जो ऊपर बतलाया गया है। ३. हवा की सहायता से अनाज के दाने में से भूसा अलग करना। ओसाना। बरसाना। ४. श्वास। साँस। मुहा०—पवन का भूसा होना=उसी प्रकार अदृश्य या नष्ट हो जाना जिस प्रकार हवा में भूसा उड़ जाता है। ५. प्राण-वायु। ६. जल। पानी। ७. कुम्हार का आँवा। ८. विष्णु। ९. पुराणानुसार उत्तम मनु के एक पुत्र का नाम। १॰. रहस्य संप्रदाय में, प्राणायाम। उदा०—आसनु पवनु दूरि कर बवरे।—कबीर।
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पवन-अस्त्र  : पुं०=पवनास्त्र।
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पवन-कुमार  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवनचक्की  : स्त्री० [सं० पवन+हिं० चक्की] पवन के वेग से चलनेवाली चक्की। (विंडमिल) विशेष—ऐसी चक्की में ऊपर के ढाँचे में बड़ा सा पंखेदार चक्कर लगा रहता है। यह चक्कर हवा के जोर से घूमता है जिससे नीचे की चक्की का यंत्र चलने लगता है।
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पवन-चक्र  : पुं० [ष० त०] चक्कर खाती हुई चलनेवाली जोर की हवा। चक्रवात। बवंडर।
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पवनज  : वि० [सं० पवन√जन्+ड] जो पवन से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवन-तनय  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवन-नन्द  : पुं० [ष० त०] पवन-पुत्र। (दे०)
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पवन-नन्दन  : पुं० [सं० ष० त०]=पवन-तनय।
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पवन-परीक्षा  : स्त्री० [ष० त०] १. अषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को होनेवाली ज्योतिषियों की एक क्रिया जिसमें वायु की गति आदि की जाँच करके ऋतु-संबंधी विशेषतः वर्षा संबंधी भविष्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। (कुछ स्थानों में देहातों में इस दिन मेले लगते हैं।) २. वह क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि वायु की गति किस दिशा की ओर है। हवा देखना।
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पवन-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवन-पूत  : पुं०=पवन-पुत्र।
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पवन-प्रचार  : पुं० [सं०] एक प्रकार का यंत्र जो यह सूचित करता है कि वायु का प्रवाह किस दिशा में हो रहा है।
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पवन-भट्ठी  : स्त्री० [सं० पवन+हिं० भट्ठी] धातुएँ आदि गलाने की एक विशेष प्रकार की आधुनिक यांत्रिक भट्ठी जिसमें नीचे से हवा पहुँचाकर आँच तेज की जाती है। (विंड फर्नेस)
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पवन-वाण  : पुं० [मध्य० स०] वह बाण जिसके चलाये जाने पर पवन का वेग बहुत अधिक बढ़ जाता था। (पुराण)
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पवन-वाहन  : पुं० [ब० स०] अग्नि।
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पवन-व्याधि  : स्त्री० [ष० त०] वायु रोग। पुं० [ब० स०] श्रीकृष्ण के सखा उद्धव।
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पवन-संघात  : पुं० [ष० त०] किसी विशिष्ट स्थान पर दो विभिन्न दिशाओं से पवनों का एक साथ आना तथा परस्पर टकराना जो पुराणानुसार अकाल, शत्रुओं के आक्रमण आदि अशुभ लक्षणों का सूचक माना गया है।
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पवन-सुत  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवना  : पुं० [स्त्री० पवनी] पौना (झरना)।
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पवनात्मज  : पुं० [सं० पवन-आत्मज, ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन। ३. अग्नि।
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पवनाश  : पुं० [सं० पवन√अश् (खाना)+अण्] साँप।
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पवनाशन  : पुं० [सं० पवन-अशन, ब० स०] साँप।
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पवनाशनाश  : पुं० [सं० पवनाशन√अश्+अण्] १. गरुड़। २. मोर।
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पवनाशी (शिन्)  : वि० [सं० पवन√अश्+णिनि] जो वायु पीकर जीता हो। पुं० साँप।
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पवनास्त्र  : पुं० [सं० पवन-अस्त्र, मध्य० स०] एक प्राचीन अस्त्र जिसके द्वारा वायु का वेग तीव्रतम किया जाता था। (पुराण)
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पवनी  : स्त्री० [सं० √पु (पवित्र करना)+ल्युट्—अन, ङीष्] झाड़ू। स्त्री० [हिं० पाना=प्राप्त करना] गाँव में रहनेवाली वह प्रजा या कुछ जातियाँ जो अपने निर्वाह के लिए क्षत्रियों ब्राह्मणों अथवा गाँव के दूसरे रहनेवालों से नियमित रूप से कुछ नेग, पारिश्रमिक, पुरस्कार आदि के रूप में अन्न-धन पाती हैं। जैसे—कुम्हार, चमार, नाऊ, बारी, धोबी आदि। स्त्री० हिं० ‘पौना’ का स्त्री० अल्पा०।
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पवनेष्ट  : पुं० [सं० पवन-इष्ट, स० त०] बकायन।
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पवनोबुज  : पुं० [सं० पवन-अंबुज उपमि० स०, पृषो० सिद्धि] फालसा।
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पवमान  : पुं० [सं०√पू+शानन्, मुक्—आगम्] १. पवन। वायु। हवा। २. गार्हपत्य अग्नि। ३. चंद्रमा। ४. अग्नि की पत्नी स्वाहा के गर्भ से उत्पन्न एक पुत्र का नाम। ५. एक प्रकार का स्तोत्र।
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पवर  : स्त्री०=पँवरी (ड्योढ़ी)।
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पवरिया  : पुं०=पौरिया (१. द्वारपाल। २. मंगल-गीत गानेवाला याचक)।
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पवरी  : स्त्री०=पँवरी (ड्योढ़ी)।
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पवर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] व्याकरण में, प, फ, ब, भ और म इन पाँच अक्षरों या वर्णों की सामूहिक संज्ञा। ये सभी ओष्ठ्य तथा स्पर्श हैं, किन्तु प, फ, अधोष और ब, भ, म घोष हैं तथा प, ब, म अल्पप्राण और फ, भ महाप्राण हैं।
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पवाँड़ा  : पुं०=पँवाड़ा।
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पवाँर  : पुं० [देश०] पमार। चकवड़। पुं०=प्रमार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पवाँरना  : स०=पँवारना (फेंकना)।
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पवाँरी  : स्त्री [?] लोहा छेदने का लोहारों का एक औजार।
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पवाई  : स्त्री० [हिं० पाँव] १. जूतों की जोड़ी में से प्रत्येक जूता। २. चक्की के दोनों पाटों में से प्रत्येक पाट।
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पवाका  : स्त्री० [सं०√पू+आक—टाप्] चक्रवात। बवंडर।
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पवाड़  : पुं० [देश०] चकवँड़।
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पवाड़ा  : पुं० [मरा० पवाड़ (कीर्ति, महत्त्व), अथवा सं० प्रवाद?] १. मराठी भाषा का एक प्रसिद्ध लोक छंद जिसमें प्रायः किसी बहुत बड़े या वीर पुरुष की कीर्ति, गुण, पराक्रम आदि का प्रशंसात्मक वर्णन होता था। २. मध्य-युगीन राजस्थान में वह लोककाव्य जिसे परवर्ती चारणों ने विरुदावली शैली में समस्त तत्त्वों से युक्त करके प्रचलित किया था और जो प्रायः लोकगीत के रूप में गाया जाता था। ब्रज में इसी को ‘पमारा’ और मालवे में ‘पँवारा’ कहते हैं। ३. किसी काम या बात का ऐसा व्यर्थ विस्तार जिसमें झगड़े-झमेले की बहुत-सी बातें हों; और इसीलिए जिनसे सहज में जी ऊब जाय।
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पवाना  : स० [हिं० पाना का प्रे० रूप] १. प्राप्त करना। २. खिलाना।
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पवार  : पुं०=परमार (राजपूतों की एक जाति)।
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पवि  : पुं० [सं०√पू+इ] १. वज्र। २. वाण अथवा वाण की नोक। ३. वाणी। ४. वाक्य। ५. अग्नि। ६. थहूर। सेहुँड़। ७. मार्ग। रास्ता। (डिं०)
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पवित  : वि० [सं०] पवित्र। पुं० मिर्च।
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पविताई  : स्त्री०=पवित्रता।
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पवित्तर  : वि०=पवित्र।
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पवित्र  : वि० [सं०√पू+इत्र] [भाव० पवित्रता] १. (पदार्थ) जो धार्मिक उपचारों से इस प्रकार शुद्ध किया गया हो अथवा स्वतः अपने गुणों के कारण इतना अधिक शुद्ध माना जाता हो कि पूजा-पाठ, यज्ञ-होम आदि में काम में लाया या बरता जा सके। जैसे—पवित्र अग्नि, पवित्र जल। ३. (व्यक्ति) जो निश्छल, धार्मिक तथा सद्वृत्तिवाला होने के कारण पूज्य, मान्य तथा श्रद्धा का पात्र हो। जैसे—पवित्रात्मा। ३. (विचार) जो शुद्ध अंतःकरण से सोचा गया हो और जिसमें किसी प्रकार का मल या विकार न हो। ४. साफ। स्वच्छ। निर्मल। ५. दोष, पाप आदि से रहित। पुं० १. वह वस्तु या साधन जिससे कोई चीज निर्दोष, निर्मल या स्वच्छ की जाय। २. कुश या कुशा जिससे घी, जल आदि छिड़ककर चीजें पवित्र की जाती हैं। ३. कुश का वह छल्ला जो तर्पण, श्रद्धा आदि के समय उँगलियों में पहना जाता है। पवित्री। पैंती। ४. यज्ञोपवीत। जनेऊ। ५. ताँबा। ६. मेह। वर्षा। ७. जल। पानी। ८. दूध। ९. घी। १॰. अर्ध्य देने का पात्र। ११. अरघा। १२. मधु। शहद। १३. विष्णु। १४. शिव। १५. कार्तिकेय। १६. तिल का पौधा। १७. पुत्र-जीवी नामक वृक्ष। १८. घर्षण। रगड़।
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पवित्रक  : पुं० [सं० पवित्र√कै+क] १. कुशा। २. दौना (पौधा)। ३. गूलर का पेड़। ४. पीपल। ५. क्षत्रियों का यज्ञोपवीत।
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पवित्रता  : स्त्री० [सं० पवित्र+तल्+टाप्] पवित्र होने की अवस्था या भाव।
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पवित्र-धान्य  : पुं० [कर्म० स०] जौ।
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पवित्र-पाणि  : वि० [ब० स०] जिसके हाथ में कुश हो।
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पवित्रवति  : स्त्री० [सं०] क्रौंच द्वीप में होनेवाली एक प्रकार की वनस्पति। (पुराण)
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पवित्रा  : स्त्री० [सं० पवित्र+टाप्] १. तुलसी। २. हलदी। ३. पीपल। ४. श्रावण के शुक्ल पक्ष की एकादशी। ५. एक प्राचीन नदी। ६. रेशमी धागों से बने हुए मनकों की एक तरह की माला।
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पवित्रात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० पवित्र-आत्मन्, ब० स०] जिसकी आत्मा पवित्र हो। शुद्ध तथा स्तुत्य मनकों की एक तरह की माला।
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पवित्रारोपण  : पुं० [सं० पवित्र-आरोपण, ष० त०] १. यज्ञोपवीत धारण करना। २. [ब० स०] श्रावण शुक्ला द्वादशी को भगवान श्रीकृष्ण को सोने, चाँदी, ताँबे या सूत आदि का यज्ञोपवीत पहनाने की एक रीति या उत्सव।
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पवित्रारोहण  : पुं०। पवित्रारोपण। (दे०)
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पवित्राश  : पुं० [सं० पवित्र√अश् (व्याप्ति)+अण्] सन का बना हुआ डोरा, जो प्राचीन भारत में बहुत पवित्र माना जाता था।
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पवित्रित  : भू० कृ० [सं० पवित्र+णिच्+क्त] पवित्र या शुद्ध किया हुआ।
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पवित्री  : वि० [सं० पवित्र+ङीष्] पवित्र करने या बनानेवाला। स्त्री० १. कुश का बना हुआ एक प्रकार का छल्ला जो कर्मकांड के समय अनामिका में पहना जाता है। पैंती। २. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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पविद  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पवि-धर  : वि० [सं० ष० त०] वज्र धारण करनेवाला। पुं० इंद्र।
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पवीनव  : पुं० [सं०] अथर्ववेद के अनुसार एक प्रकार के असुर जो स्त्रियों का गर्भ गिरा देते हैं।
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पवीर  : पुं० [सं०] १. हल की फाल। २. शस्त्र। हथियार। ३. वज्र। ४. हथियार।
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पवेरना  : स० [हिं० पवारना=फेंकना] [भाव० पवेरा] जोते हुए खेतों में बीज छिड़कना।
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पवेरा  : पुं० [हिं० पवेरना] खेतों में बीज छिड़कने की क्रिया, ढंग या भाव।
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पव्य  : पुं० [सं० √पू+यत्] यज्ञ-पात्र।
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पवंग  : पुं० [सं० प्लवंग] १. बंदर। २. हिरन। ३. घोड़ा। (डिं०)
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पवँरि (री)  : स्त्री०=पवँरी (ड्योढ़ी)।
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पव  : पुं० [सं०√पू (पवित्र करना)+अप्] १. गोबर। २. वायु। हवा। ३. अनाज की भूसी अलग करना। अनाज ओसाना या बरसाना। पुं०=पौ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पवई  : स्त्री० [देश०] खाकी रंग की एक चिड़िया जिसका निचला भाग खैरे रंग का और चोंच पीली होती है।
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पवन  : पुं० [सं०√पू (पवित्र करना)+युच्—अन] १. वायु। हवा। २. विशेषतः वायु की वह हलकी धारा जो पृथ्वी के प्राणियों के आस-पास रहकर कभी कुछ तेज और कभी कुछ धीमी चलती है और जिसका ज्ञान हमारी त्वगिंद्रिय को होता है। (विंड) विशेष—हमारे यहाँ पुराणों में ४९ प्रकार के पवन कहे गये हैं। परन्तु लोक में पवन उसी अर्थ में प्रचलित है जो ऊपर बतलाया गया है। ३. हवा की सहायता से अनाज के दाने में से भूसा अलग करना। ओसाना। बरसाना। ४. श्वास। साँस। मुहा०—पवन का भूसा होना=उसी प्रकार अदृश्य या नष्ट हो जाना जिस प्रकार हवा में भूसा उड़ जाता है। ५. प्राण-वायु। ६. जल। पानी। ७. कुम्हार का आँवा। ८. विष्णु। ९. पुराणानुसार उत्तम मनु के एक पुत्र का नाम। १॰. रहस्य संप्रदाय में, प्राणायाम। उदा०—आसनु पवनु दूरि कर बवरे।—कबीर।
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पवन-अस्त्र  : पुं०=पवनास्त्र।
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पवन-कुमार  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवनचक्की  : स्त्री० [सं० पवन+हिं० चक्की] पवन के वेग से चलनेवाली चक्की। (विंडमिल) विशेष—ऐसी चक्की में ऊपर के ढाँचे में बड़ा सा पंखेदार चक्कर लगा रहता है। यह चक्कर हवा के जोर से घूमता है जिससे नीचे की चक्की का यंत्र चलने लगता है।
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पवन-चक्र  : पुं० [ष० त०] चक्कर खाती हुई चलनेवाली जोर की हवा। चक्रवात। बवंडर।
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पवनज  : वि० [सं० पवन√जन्+ड] जो पवन से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवन-तनय  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवन-नन्द  : पुं० [ष० त०] पवन-पुत्र। (दे०)
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पवन-नन्दन  : पुं० [सं० ष० त०]=पवन-तनय।
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पवन-परीक्षा  : स्त्री० [ष० त०] १. अषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को होनेवाली ज्योतिषियों की एक क्रिया जिसमें वायु की गति आदि की जाँच करके ऋतु-संबंधी विशेषतः वर्षा संबंधी भविष्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। (कुछ स्थानों में देहातों में इस दिन मेले लगते हैं।) २. वह क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि वायु की गति किस दिशा की ओर है। हवा देखना।
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पवन-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवन-पूत  : पुं०=पवन-पुत्र।
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पवन-प्रचार  : पुं० [सं०] एक प्रकार का यंत्र जो यह सूचित करता है कि वायु का प्रवाह किस दिशा में हो रहा है।
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पवन-भट्ठी  : स्त्री० [सं० पवन+हिं० भट्ठी] धातुएँ आदि गलाने की एक विशेष प्रकार की आधुनिक यांत्रिक भट्ठी जिसमें नीचे से हवा पहुँचाकर आँच तेज की जाती है। (विंड फर्नेस)
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पवन-वाण  : पुं० [मध्य० स०] वह बाण जिसके चलाये जाने पर पवन का वेग बहुत अधिक बढ़ जाता था। (पुराण)
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पवन-वाहन  : पुं० [ब० स०] अग्नि।
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पवन-व्याधि  : स्त्री० [ष० त०] वायु रोग। पुं० [ब० स०] श्रीकृष्ण के सखा उद्धव।
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पवन-संघात  : पुं० [ष० त०] किसी विशिष्ट स्थान पर दो विभिन्न दिशाओं से पवनों का एक साथ आना तथा परस्पर टकराना जो पुराणानुसार अकाल, शत्रुओं के आक्रमण आदि अशुभ लक्षणों का सूचक माना गया है।
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पवन-सुत  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवना  : पुं० [स्त्री० पवनी] पौना (झरना)।
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पवनात्मज  : पुं० [सं० पवन-आत्मज, ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन। ३. अग्नि।
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पवनाश  : पुं० [सं० पवन√अश् (खाना)+अण्] साँप।
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पवनाशन  : पुं० [सं० पवन-अशन, ब० स०] साँप।
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पवनाशनाश  : पुं० [सं० पवनाशन√अश्+अण्] १. गरुड़। २. मोर।
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पवनाशी (शिन्)  : वि० [सं० पवन√अश्+णिनि] जो वायु पीकर जीता हो। पुं० साँप।
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पवनास्त्र  : पुं० [सं० पवन-अस्त्र, मध्य० स०] एक प्राचीन अस्त्र जिसके द्वारा वायु का वेग तीव्रतम किया जाता था। (पुराण)
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पवनी  : स्त्री० [सं० √पु (पवित्र करना)+ल्युट्—अन, ङीष्] झाड़ू। स्त्री० [हिं० पाना=प्राप्त करना] गाँव में रहनेवाली वह प्रजा या कुछ जातियाँ जो अपने निर्वाह के लिए क्षत्रियों ब्राह्मणों अथवा गाँव के दूसरे रहनेवालों से नियमित रूप से कुछ नेग, पारिश्रमिक, पुरस्कार आदि के रूप में अन्न-धन पाती हैं। जैसे—कुम्हार, चमार, नाऊ, बारी, धोबी आदि। स्त्री० हिं० ‘पौना’ का स्त्री० अल्पा०।
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पवनेष्ट  : पुं० [सं० पवन-इष्ट, स० त०] बकायन।
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पवनोबुज  : पुं० [सं० पवन-अंबुज उपमि० स०, पृषो० सिद्धि] फालसा।
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पवमान  : पुं० [सं०√पू+शानन्, मुक्—आगम्] १. पवन। वायु। हवा। २. गार्हपत्य अग्नि। ३. चंद्रमा। ४. अग्नि की पत्नी स्वाहा के गर्भ से उत्पन्न एक पुत्र का नाम। ५. एक प्रकार का स्तोत्र।
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पवर  : स्त्री०=पँवरी (ड्योढ़ी)।
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पवरिया  : पुं०=पौरिया (१. द्वारपाल। २. मंगल-गीत गानेवाला याचक)।
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पवरी  : स्त्री०=पँवरी (ड्योढ़ी)।
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पवर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] व्याकरण में, प, फ, ब, भ और म इन पाँच अक्षरों या वर्णों की सामूहिक संज्ञा। ये सभी ओष्ठ्य तथा स्पर्श हैं, किन्तु प, फ, अधोष और ब, भ, म घोष हैं तथा प, ब, म अल्पप्राण और फ, भ महाप्राण हैं।
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पवाँड़ा  : पुं०=पँवाड़ा।
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पवाँर  : पुं० [देश०] पमार। चकवड़। पुं०=प्रमार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पवाँरना  : स०=पँवारना (फेंकना)।
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पवाँरी  : स्त्री [?] लोहा छेदने का लोहारों का एक औजार।
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पवाई  : स्त्री० [हिं० पाँव] १. जूतों की जोड़ी में से प्रत्येक जूता। २. चक्की के दोनों पाटों में से प्रत्येक पाट।
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पवाका  : स्त्री० [सं०√पू+आक—टाप्] चक्रवात। बवंडर।
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पवाड़  : पुं० [देश०] चकवँड़।
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पवाड़ा  : पुं० [मरा० पवाड़ (कीर्ति, महत्त्व), अथवा सं० प्रवाद?] १. मराठी भाषा का एक प्रसिद्ध लोक छंद जिसमें प्रायः किसी बहुत बड़े या वीर पुरुष की कीर्ति, गुण, पराक्रम आदि का प्रशंसात्मक वर्णन होता था। २. मध्य-युगीन राजस्थान में वह लोककाव्य जिसे परवर्ती चारणों ने विरुदावली शैली में समस्त तत्त्वों से युक्त करके प्रचलित किया था और जो प्रायः लोकगीत के रूप में गाया जाता था। ब्रज में इसी को ‘पमारा’ और मालवे में ‘पँवारा’ कहते हैं। ३. किसी काम या बात का ऐसा व्यर्थ विस्तार जिसमें झगड़े-झमेले की बहुत-सी बातें हों; और इसीलिए जिनसे सहज में जी ऊब जाय।
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पवाना  : स० [हिं० पाना का प्रे० रूप] १. प्राप्त करना। २. खिलाना।
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पवार  : पुं०=परमार (राजपूतों की एक जाति)।
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पवि  : पुं० [सं०√पू+इ] १. वज्र। २. वाण अथवा वाण की नोक। ३. वाणी। ४. वाक्य। ५. अग्नि। ६. थहूर। सेहुँड़। ७. मार्ग। रास्ता। (डिं०)
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पवित  : वि० [सं०] पवित्र। पुं० मिर्च।
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पविताई  : स्त्री०=पवित्रता।
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पवित्तर  : वि०=पवित्र।
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पवित्र  : वि० [सं०√पू+इत्र] [भाव० पवित्रता] १. (पदार्थ) जो धार्मिक उपचारों से इस प्रकार शुद्ध किया गया हो अथवा स्वतः अपने गुणों के कारण इतना अधिक शुद्ध माना जाता हो कि पूजा-पाठ, यज्ञ-होम आदि में काम में लाया या बरता जा सके। जैसे—पवित्र अग्नि, पवित्र जल। ३. (व्यक्ति) जो निश्छल, धार्मिक तथा सद्वृत्तिवाला होने के कारण पूज्य, मान्य तथा श्रद्धा का पात्र हो। जैसे—पवित्रात्मा। ३. (विचार) जो शुद्ध अंतःकरण से सोचा गया हो और जिसमें किसी प्रकार का मल या विकार न हो। ४. साफ। स्वच्छ। निर्मल। ५. दोष, पाप आदि से रहित। पुं० १. वह वस्तु या साधन जिससे कोई चीज निर्दोष, निर्मल या स्वच्छ की जाय। २. कुश या कुशा जिससे घी, जल आदि छिड़ककर चीजें पवित्र की जाती हैं। ३. कुश का वह छल्ला जो तर्पण, श्रद्धा आदि के समय उँगलियों में पहना जाता है। पवित्री। पैंती। ४. यज्ञोपवीत। जनेऊ। ५. ताँबा। ६. मेह। वर्षा। ७. जल। पानी। ८. दूध। ९. घी। १॰. अर्ध्य देने का पात्र। ११. अरघा। १२. मधु। शहद। १३. विष्णु। १४. शिव। १५. कार्तिकेय। १६. तिल का पौधा। १७. पुत्र-जीवी नामक वृक्ष। १८. घर्षण। रगड़।
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पवित्रक  : पुं० [सं० पवित्र√कै+क] १. कुशा। २. दौना (पौधा)। ३. गूलर का पेड़। ४. पीपल। ५. क्षत्रियों का यज्ञोपवीत।
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पवित्रता  : स्त्री० [सं० पवित्र+तल्+टाप्] पवित्र होने की अवस्था या भाव।
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पवित्र-धान्य  : पुं० [कर्म० स०] जौ।
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पवित्र-पाणि  : वि० [ब० स०] जिसके हाथ में कुश हो।
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पवित्रवति  : स्त्री० [सं०] क्रौंच द्वीप में होनेवाली एक प्रकार की वनस्पति। (पुराण)
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पवित्रा  : स्त्री० [सं० पवित्र+टाप्] १. तुलसी। २. हलदी। ३. पीपल। ४. श्रावण के शुक्ल पक्ष की एकादशी। ५. एक प्राचीन नदी। ६. रेशमी धागों से बने हुए मनकों की एक तरह की माला।
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पवित्रात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० पवित्र-आत्मन्, ब० स०] जिसकी आत्मा पवित्र हो। शुद्ध तथा स्तुत्य मनकों की एक तरह की माला।
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पवित्रारोपण  : पुं० [सं० पवित्र-आरोपण, ष० त०] १. यज्ञोपवीत धारण करना। २. [ब० स०] श्रावण शुक्ला द्वादशी को भगवान श्रीकृष्ण को सोने, चाँदी, ताँबे या सूत आदि का यज्ञोपवीत पहनाने की एक रीति या उत्सव।
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पवित्रारोहण  : पुं०। पवित्रारोपण। (दे०)
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पवित्राश  : पुं० [सं० पवित्र√अश् (व्याप्ति)+अण्] सन का बना हुआ डोरा, जो प्राचीन भारत में बहुत पवित्र माना जाता था।
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पवित्रित  : भू० कृ० [सं० पवित्र+णिच्+क्त] पवित्र या शुद्ध किया हुआ।
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पवित्री  : वि० [सं० पवित्र+ङीष्] पवित्र करने या बनानेवाला। स्त्री० १. कुश का बना हुआ एक प्रकार का छल्ला जो कर्मकांड के समय अनामिका में पहना जाता है। पैंती। २. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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पविद  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पवि-धर  : वि० [सं० ष० त०] वज्र धारण करनेवाला। पुं० इंद्र।
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पवीनव  : पुं० [सं०] अथर्ववेद के अनुसार एक प्रकार के असुर जो स्त्रियों का गर्भ गिरा देते हैं।
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पवीर  : पुं० [सं०] १. हल की फाल। २. शस्त्र। हथियार। ३. वज्र। ४. हथियार।
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पवेरना  : स० [हिं० पवारना=फेंकना] [भाव० पवेरा] जोते हुए खेतों में बीज छिड़कना।
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पवेरा  : पुं० [हिं० पवेरना] खेतों में बीज छिड़कने की क्रिया, ढंग या भाव।
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पव्य  : पुं० [सं० √पू+यत्] यज्ञ-पात्र।
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