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पहस्तहौसला  : वि० [फा०] पस्त-हिम्मत।
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पहँ  : अव्य० [सं० पार्श्व] निकट। पास। विभ० से।
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पहँसुल  : स्त्री० [सं० प्रह्ल=झुका हुआ+शूल्] हँसिया की तरह का तरकारी काटने का एक छोटा उपकरण।
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पह  : स्त्री०=पौ (प्रातःकाल का प्रकाश)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्याऊ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहचनवाना  : स० [हिं० पहचानना का०] किसी से पहचानने का काम करना।
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पहचान  : स्त्री० [सं० प्रत्यभिज्ञान या परिचय] १. पहचानने की क्रिया, भाव या शक्ति। २. कोई ऐसा चिह्न या लक्षण जिससे पता चले कि यह अमुक व्यक्ति या वस्तु है। जैसे—अपने कपड़े (या लड़के) की कोई पहचान बतलाओ। ३. किसी वस्तु की अच्छाई, बुराई, टिकाऊपन, स्वाद आदि देख-भाल कर जान लेने की शक्ति। जैसे—आम, कपड़े, घी आदि की पहचान। ४. जीव या व्यक्ति के संबंध में, उसके आकार, चेष्टाओं, बातों आदि से उसका वास्तविक रूप अनुमानित करने की समर्थता। जैसे—आदमी या घोड़े की पहचान। ५. दे० ‘जानपहचान’।
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पहचानना  : स० [हिं० पहचान] १. किसी पस्तु या व्यक्ति को देखते ही उसके चिह्नों, लक्षणों, रूप-रंग के आधार पर यह जान या समझ लेना कि यह अमुक व्यक्ति या वस्तु है। यह समझना कि वह यही वस्तु या व्यक्ति है जिसे मैं पहले से जानता हूँ। जैसे—मैं उसके कपड़े पहचानता हूँ। संयो० क्रि०—जानना।—लेना। २. एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद करना। अंतर समझना या जानना। बिलगाना। जैसे—असल या नकल को पहचानना सहज नहीं है। ३. किसी वस्तु या व्यक्ति के गुण-दोषों, योग्यताओं आदि से भली-भाँति परिचित रहना। जैसे—तुम भले ही उनकी बातों में आ जाओ; पर मैं उन्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ।
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पहटना  : स०=पहेटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहटा  : पुं० १. दे० ‘पाटा’। २. दे० ‘पेठा’।
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पहड़िया  : वि०=पहाड़ी। पुं० [हिं० पहाड़] संथाल परगने में रहनेवाली एक जाति।
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पहन  : पुं० [फा०] वह दूध जो बच्चे को देखकर वात्सल्य भाव के कारण माँ की छातियों में भर आवे और टपकने लगे या टपकने को हो। पुं०=पाहन (पाषाण)।
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पहनना  : स० [सं० परिधान] (कपड़े, गहने आदि) शरीर पर धारण करना। परिधान करना। जैसे—कुरता या धोती पहनना; अँगूठी या हार पहनना; खड़ाऊँ, चप्पल या जूता पहनना।
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पहनवाना  : स० [हिं० ‘पहनना’ का प्रे०] १. किसी को कुछ पहनाने में प्रवृत्त करना। जैसे—नौकर से लड़के को कपड़े पहनवाना। २. किसी को कुछ पहनने के लिए विवश करना। (पहनाना से भिन्न)। जैसे—माता ने बच्चे को कुरता पहनवाकर छोड़ा।
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पहना  : पुं० [फा० पहन] वह दूध जो बच्चे को देखकर वात्सल्य भाव के कारण माँ के स्तनों में भर आया हो और टपकता-सा जान पड़े। पुं०=पनहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहनाई  : स्त्री० [हिं० पहनाना] १. पहनने की क्रिया, ढंग या भाव। जैसे—जरा आपकी पहनाई देखिये। २. पहनने या पहनाने के बदले में दिया या लिया जानेवाला पारिश्रमिक। स्त्री० [हिं० पाहन=पत्थर] १. पाहन या पत्थर होने की अवस्था या भाव। २. पाहन या पत्थर की-सी कठोरता, गुरुता या और कोई गुण। उदा०—पाहन ते न कठिन पहनाई।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पहनाना  : सं० [हिं० पहनना] १. दूसरे को अपने हाथों से कपड़े, गहने आदि धारण कराना। जैसे—कोट या जूता पहनाना। २. मारना-पीटना। (बाजारू)
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पहनाव  : पुं०=पहनावा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहनावा  : पुं० [हिं० पहनना] १. पहनने के कपड़े। पोशाक। २. किसी जाति, देश आदि के लोगों द्वारा सामान्यतः तन ढकने के उद्देश्य से पहने जानेवाले कपड़े। जैसे—अँगरेजों का पहनावा पैंट, कोट, कमीज तथा हैट है और भारतीयों का धोती, कुरता और टोपी है। ३. विशिष्ट आकार, प्रकार या रंग के वे कपड़े जो किसी विद्यालय, संस्था आदि के कर्मचारियों, विद्यार्थियों, सदस्यों आदि को पहनने पड़ते हों। जैसे—स्कूली पहनावा।
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पहपट  : पुं० [देश०] १. स्त्रियों द्वारा गाये जानेवाले एक तरह के गीत। २. शोर-गुल। हल्ला। ३. चारों ओर फैलनेवाली निन्दात्मक चर्चा या बदनामी। ४. छल। धोखा। बदनामी। (क्व०)
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पहपटबाज  : पुं० [हिं० पहपट+फा० बाज] [भाव० पहपटबाजी] १. शोर-गुल करने या हल्ला मचानेवाला। २. उपद्रवी। फसादी। शरारती। झगड़ालू। ३. चारों ओर लोगों की निंदा फैलानेवाला। ४. छलिया। धोखेबाज।
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पहपटहाया  : वि० [स्त्री० पहपटहाई]=पहपटबाज।
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पहमिनि  : स्त्री०=पद्मिनी। उदा०—कंवल करी तू पहमिनी मैं निसि भएहु बिहान।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहर  : पुं० [सं० प्रहर] १. समय के विचार से दिन-रात के किये हुए आठ समान भागों में से हर एक जो तीन-तीन घंटों का होता है। २. समय। ३. युग।
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पहरना  : स० [सं० प्र+हरण] नष्ट करना। उदा०—जिड़ि पहरंतैं नवी परि।—प्रिथीराज। स०=पहनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरा  : पुं० [हिं० पहर] १. ऐसी अवस्था या स्थिति जिसमें किसी आदमी, चीज या जगह की रखवाली करने अथवा अपघात, हानि आदि रोकने के लिए एक या अधिक आदमी नियुक्त किये जाते हैं। इस बात का ध्यान रखने का प्रबंध कि कहीं कोई अनुचित रूप से आ-जा न सके अथवा आज्ञा, नियम, विधान आदि के विरुद्ध कोई काम न करने पावे। चौकी। रखवाली। विशेष—(क) पहले प्रायः इस प्रकार की देख-रेख करनेवाले लोग एक एक पहर के लिए नियुक्त किये जाते थे; इसी से उक्त अर्थ में ‘पहरा’ शब्द प्रचलित हुआ था। (ख) पहरे का काम प्रायः एक स्थान पर खड़े होकर, थोड़ी-सी दूरी में इधर-उधर आ-जाकर अथवा किसी विशिष्ट क्षेत्र में चारों ओर घूम-घूमकर किया जाता है। मुहा०—पहरा देना=घूम-घूमकर बराबर यह देखते रहना कि कहीं कोई अनुचित रूप से आ तो नहीं रहा है या कोई अनुचित काम तो नहीं कर रहा है। पहरा पड़ना=ऐसी अवस्था होना कि कहीं कुछ लोग पहरा देते रहें। जैसे—रात के समय शहरों में जगह-जगह पहरा पड़ता है। पहरा बदलना=एक पहरेदार के पहरे का समय बीत जाने पर उसके स्थान पर दूसरे पहरेदार का आना। पहरा बैठना=किसी वस्तु या व्यक्ति के पास पहरेदार या रक्षक बैठाया जाना। चौकीदार को पहरे के काम पर लगाना। पहरा बैठाना=पहरा देने के काम पर किसी को लगाना। (किसी को) पहरे में देना=किसी को इस उद्देश्य से पहरेदारों की देख-रेख में रखना कि वह कहीं भागने, किसी से मिलने-जुलने या कोई अनुचित काम न करने पावे। २. उतना समय जितने में एक रक्षक अथवा रक्षक-दल को रक्षा-कार्य करना पड़ता है। जैसे—तुम्हारे पहले में तो कोई यहाँ नहीं आया था। ३. कोई पहरेदार या पहरेदारों का कोई दल। जैसे—जब तक नया पहरा न आवे, तब तक तुम (या तुम लोग) यहीं रहना। ४. वह जोर की आवाज से पहरेदार लोगों को सावधान करने या रहने के लिए रह-रहकर देता या लगाता रहता है। जैसे—कल रात को इस महल्ले में पहरा नहीं सुनाई पड़ा। ५. कुछ विशिष्ट प्रकार का काल या समय। जामाना। युग। जैसे—अभी क्या है! अभी तो इससे भी बुरा पहरा आवेगा। पुं० [हिं० पौरा का विकृत रूप] किसी विशेष व्यक्ति के अस्तित्व, आगमन, सत्ता आदि का काल या समय। पौरा। जैसे—जब से इस लड़की का पहरा (पौरा) इस घर में आया है, तब से इस घर में लहर-बहर दिखाई देने लगी है।
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पहराइत  : पुं०=पहरेदार। उदा०—पीला भमर किया पहराइत।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहराना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरावनी  : स्त्री० [हिं० पहरावना] १. पहनावा। २. वे कपड़े जो किसी शुभ अवसर पर प्रसन्नतापूर्वक छोटों को दिये या पहनाये जाते हैं।
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पहरावा  : पुं०=पहनावा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरी  : पुं०=प्रहरी (पहरेदार)।
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पहरुआ  : पुं०=पहरेदार।
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पहरू  : पुं०=पहरेदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरेदार  : पुं० [हिं० पहरा+फा० दार] [भाव० पहरेदारी] १. वह जिसका काम कहीं खड़े-खड़े या घूम-घूमकर पहरा देना हो। चौकीदार। संतरी। २. वह जो किसी की रक्षा के लिए कटिबद्ध तथा प्रस्तुत हो। जैसे—हम देश के पहरेदार हैं।
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पहरेदारी  : स्त्री० [हिं० पहरा+फा० दारी] १. पहरा देने का काम या भाव। २. पहरेदार का पद।
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पहल  : पुं० [फा० पहलू, मि० सं० पटल] १. किसी घन पदार्थ के तीन या अधिक कोनों अथवा कोरों के बीच का तल या पार्श्व। २. बगल। पहलू। जैसे—(क) पासे में छः पहल होते हैं। (ख) इस नगीने में बारह पहल कटे हैं। क्रि० प्र०—काटना।—तराशना।—बनाना। मुहा०—पहल निकालना=किसी पदार्थ के पृष्ठ देश या बाहरी सतह को तराश या छीलकर उसमें त्रिकोण, चतुष्कोण, षट्कोण आदि पहल बनाना। २. ऊन, रूई आदि की कुछ कड़ी और मोटी तह या परत। गाला। उदा०—तूल के पहल किधौं पवन अधार के।—सेनापति। ३. किसी तरह की तह या परत। स्त्री० [हिं० पहला] १. किसी नये कार्य का पहली बार होनेवाला आरंभ। २. किसी कार्य, बात आदि का किसी एक पक्ष की ओर होनेवाला आरंभ जिसके पश्चप्रभाव का उत्तरदायित्व उसी पक्ष पर माना जाता है। छेड़। (इनीशिएटिव) जैसे—झगड़े में पहले तो उसने पहल की थी। मुहा०—पहल करना=किसी काम या अपनी ओर से या आगे बढ़कर आरंभ करना।
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पहलदार  : वि० [हिं० पहल+फा० दार] जिसमें पहल कटे या बने हों। जिसमें चारों ओर अलग-अलग तल या सतहें हों।
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पहलनी  : स्त्री० [हिं० पहल] सुनारों का एक औजार जिससे कोंढ़ा या घुंडी गोल करते हैं।
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पहलवान  : पुं० [फा० पहलवान] [भाव० पहलवानी] १. वह व्यक्ति जो स्वयं दूसरों से कुश्ती लड़ता हो अथवा दूसरों को कुश्ती लड़ना सिखलाता हो। २. मोटा-ताजा। तगड़ा। हट्टा-कट्टा। वि० खूब बलवान और मोटा-ताजा।
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पहलवानी  : वि० [फा० पहलवानी] १. पहलवानों से संबंध रखनेवाला। २. पहलवानों की तरह का। स्त्री० १. पहलवान होने की अवस्था या भाव। २. पहलवान का पेशा, वृत्ति या शौक। ३. बलवान और सशक्त होने की अवस्था या भाव। जैसे—वह तुम्हारी सारी पहलवानी निकालकर रख देगा।
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पहलवी  : पुं०, स्त्री० [फा०]=पह्लवी।
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पहला  : वि० [सं० प्रथम, प्रा० पहिले] [स्त्री० पहली] १. समय के विचार से जो और सब से आदि में हुआ हो। जैसे—यह उनका पहला लड़का है। २. किसी चीज विशेषतः किसी वर्गीतकृत चीज के आरंभिक या प्रारंभिक अंश या वर्ग से संबंध रखनेवाला। जैसे—पुस्तक का पहला अध्याय, विद्यालय का पहला दरजा। ३. तुलना, प्रतियोगिता आदि में जो सब से आगे निकल पहुँच या बढ़ गया हो। जैसे—दौड़, परीक्षा आदि में पहला आना। ४. वर्तमान से पूर्व का। विगत। जैसे—पहला जमाना कुछ और ही तरह का था। ५. जो अत्यधिक उपयोगी, महत्त्वपूर्ण या मूल्यवान हो।
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पहलाम  : स्त्री० [हिं० पहला+म (प्रत्य०)] लड़ाई-झगड़े के संबंध में की जानेवाली छेड़। पहल। जैसे—इस बार तो तुम्हीं ने पहलाम की थी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहलू  : पुं० [फा० पहलू] १. किसी वस्तु का कोई विशिष्ट पार्श्व या किसी दिशा में पड़नेवाला अंग या विस्तार। २. व्यक्ति के शरीर का दाहिना या बायाँ अंग। पार्श्व। बगल। जैसे—जो जल उठता है यह पहलू तो वह पहलू बदलते हैं।—कोई कवि। मुहा०—(किसी का) पहलू गरम करना=किसी के शरीर से विशेषतः प्रेयसी प्रेमपात्र का प्रेमी के शरीर से सटकर बैठना। किसी के पास या साथ बैठकर उसे सुखी करना। (किसी से) पहलू गरम करना=किसी को विशेषतः प्रेयसी या प्रेमपात्र को शरीर से सटाकर बैठाना। मुहब्बत में बैठाना। (किसी के) पहलू में रहना=किसी के बहुत पास या बिलकुल साथ में रहना। ३. करवट। बल। जैसे—किसी पहलू से चैन नहीं मिलता। ४. पड़ोस। मुहा०—पहलू बसाना=किसी के पड़ोस में जाकर रहना। ५. किसी समूह का कोई पार्श्व या भाग। जैसे—फौज का दाहिना पहलू ज्यादा मजबूत था। मुहा०—पहलू दबना=किसी अंग या पार्श्व का दुर्बल होने या हारने के कारण पीछे हटना। (किसी के) पहलू पर होना=विकट अवसर पर सहायता करने के लिए प्रस्तुत रहना। ६. किसी बात या विषय का अच्छाई-बुराई, गुण-दोष आदि की दृष्टि से कोई पक्ष। जैसे—मुकदमे के सब पहलू पहले से सोच रखो। मुहा०—(किसी बात का) पहलू बचाना=इस बात का ध्यान रखना या युक्ति करना किसी किसी अंग, पक्ष या पार्श्व से किसी प्रकार का अनिष्ट अथवा कोई अप्रिय घटना या बात न होने पावे। (अपना) पहलू बचाना=कोई काम करने से जी चुराना या टाल-मटोल करके पीछे हटना। ७. अगल-बगल या आस-पास का स्थान। पार्श्व। जैसे—पहाड़ के पहलू में एक घना जंगल था। पद—पहलूनशी=(क) पास बैठनेवाला। (ख) पास बैठा हुआ। मुहा०—(किसी का) पहलू बसाना=किसी के पड़ोस या समीप में जा रहना। पड़ोस आबाद करना। ८. किसी पदार्थ के किसी पार्श्व का कोई समतल पृष्ठ-देश। पहल। जैसे—इस नगीने का कोई पहलू चौकोर नहीं है। ९. गूढ़ अर्थ। १॰. युक्ति। ११. बहाना। १२. रूख।
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पहलूदार  : वि० [फा०] जिसके कई पहलू (पक्ष या पहल) हों।
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पहले  : अव्य० [हिं० पहला] १. आदि आरंभ या शुरु में। सर्वप्रथम। जैसे—पहले यहाँ कोई दूकान नहीं थी। २. काल, घटना, स्थिति आदि के क्रम के विचार से आगे या पूर्व। जैसे—उनके मकान के पहले एक पुल पड़ता है। ३. बीते हुए समय में। पूर्वकाल में। अगले जमाने में। जैसे—पहले की-सी सस्ती अब फिर क्यों होने लगी।
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पहलेज  : पुं० [देश०] एक प्रकार का लंबोतरा खरबूजा।
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पहले-पहले  : अव्य० [हिं० पहले] १. आदि या आरंभ में। सर्वप्रथम। सबसे पहले। २. जीवन में पहली बार। जैसे—वह पहले-पहल दिल्ली गया है।
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पहलौठा  : वि० [हिं० पहल+औठा (प्रत्य०)] [स्त्री० पहलौठी] (माता-पिता का वह पुत्र) जिसे (उन्होंने) सबसे पहले जन्म दिया हो। अथवा जो सबसे पहले जन्मा हो। प्रथम प्रसव।
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पहाड़  : पुं० [सं० पाषाण] [स्त्री० अल्पा० पहाड़ी] १. पृथ्वी तल के ऊपर प्राकृतिक रूप से उठा या उभरा हुआ वह बहुत बड़ा अंश जो प्रायः चूने, पत्थर, मिट्टी आदि की बड़ी-बड़ी चट्टानों से बना होता है और जिसका तल प्रायः असम या ऊबड़-खाबड़ रहता है। पर्वत। मुहा०—पहाड़ खोदकर चूहा निकालना=बहुत अधिक परिश्रम करके बहुत ही तुच्छ परिणाम तक पहुँचना। २. किसी वस्तु का बहुत बड़ा और भारी ढेर। बहुत ऊँची राशि या ढेर। जैसे—पहले बाजारों में अनाज के बोरों के पहाड़ लगे रहते थे। ३. पत्थरों की ढेर की तरह की कोई बहुत बड़ी या भारी चीज या बात अथवा कोई बहुत ही विकट काम या स्थिति। जैसे—(क) मुझे पत्र लिखना तो पहाड़ हो जाता है। (ख) तुम्हें तो मामूली काम भी पहाड़ मालूम होता है। मुहा०—पहाड़ उठाना=कोई बहुत बड़ा, भारी या विकट काम अपने ऊपर लेना या पूरा कर दिखाना। पहाड़ काटना=(क) बहुत ही कठिन या विकट काम कर डालना। (ख) किसी प्रकार कोई बहुत बड़ी विपत्ति या संकट दूर करना। (किसी पर) पहाड़ टूटना या टूट पड़ना=अचानक कोई बहुत बड़ी विपत्ति आना। जैसे—उस पर तो आफत का पहाड़ टूट पड़ा है। पहाड़ से टक्कर लेना=अपने से बहुत अधिक बलवान व्यक्ति या शक्तिशाली से प्रतियोगिता करना या वैर उठाना। बहुत जबरदस्त या बहुत बड़े से भिड़ना। ४. कोई ऐसा कठिन या विकट कार्य, वस्तु या स्थिति जिसका निर्वाह बहुत ही कठिन हो अथवा सहज में जिससे छुटकारा या निस्तार न हो सके। जैसे—पहाड़ की तरह विवाह के योग्य चार-चार लड़कियाँ उसके सामने बैठी थीं।
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पहाड़ा  : पुं० [सं० प्रस्तार या क्रमात् पहाड़ की तरह ऊँचे होते जाने का क्रम] १. किसी अंक के गुणनफलों के क्रमात् आगे बढ़ती चलनेवाली संख्याओं की स्थिति। जैसे—तीन एकम तीन, तीन दूनी छः; तीन तियाँ नौ, तीन चौके बारह आदि। २. उक्त प्रकार की क्रमात् बढ़ती रहनेवाली संख्याओं की सूची। गुणन-सारणी। (मल्टिप्लिकेशन टेबुल) जैसे—पहाड़े की पुस्तक। क्रि० प्र०—पढ़ना।—पढ़ाना।—लिखना।—लिखाना।
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पहाड़िया  : वि०=पहाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहाड़ी  : वि० [हिं० पहाल+ई (प्रत्य०)] १. पहाड़-संबंधी। जैसे—पहाड़ी रास्ता। २. पहाड़ पर मिलने, रहने या होनेवाला। जैसे—पहाड़ी वृक्ष, पहाड़ी व्यक्ति। ३. जिसमें पहाड़ हो। जैसे—पहाड़ी देश। ४. पहाड़ पर रहनेवाले लोगों से संबंध रखनेवाला। जैसे—पहाड़ी पहनावा, पहाड़ी बोली। पं० १. पहाड पर रहनेवाले व्यक्ति। जैसे—आज-कल शहर में बहुत से पहाड़ी आये हुए हैं। २. एक प्रकार का बड़ा खीरा। स्त्री० १. छोटा पहाड़। २. काँगड़े, कुमाऊँ, गढ़वाल आदि पहाड़ी प्रदेशों की बोलियों का वर्ग या समूह। ३. भारत के उत्तर-पश्चिमी पहा़ड़ों में गाई जानेवाली एक प्रकार की धुन या संगीत-प्रणाली। ४. संगीत में, संपूर्ण जाति की एक रागिनी जो साधारणतः रात के पहले या दूसरे पहर में गाई जाती है। ५. एक सुगंधित वनस्पति।
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पहान  : पुं०=पाषाण (पत्थर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहार  : पुं० [स्त्री० अल्पा० पहारी]=पहाड़।
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पहारना  : सं०=प्रहारना (प्रहार करना)।
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पहारी  : स्त्री०=पहाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहारू  : पुं०=पहरेदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहासरा  : पुं० [?] १. पौ फटने का समय। तड़का। २. प्रकाश। रोशनी। उदा०—चंद के पहासरे में आँगन में ठाढ़ी भई, आली तेरी जोति किधौं चाँदनी छिपाई है।—गंग।
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पहि  : अव्य० [सं० परं] पर। परंतु। उदा०—पहि किम पूजै पांगुलौ।—प्रिथीराज।
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पहिआ  : पुं० [हिं० पाह=पथ] १. रास्ता चलनेवाला। पथिक। बटोही। २. अतिथि। अभ्यागत। मेहमान। उदा०—आवत। पहिआ सूधै जाहि।—कबीर। ३. जामाता। दामाद। पुं०=पहिया।
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पहिचान  : स्त्री०=पहचान।
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पहिचानना  : स०=पहचानना।
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पहिती  : स्त्री० [सं० प्रहति=सालन] पकाई हुई दाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिनना  : स०=पहनना।
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पहिना  : स्त्री० [सं० पाठीन] एक प्रकार की मछली।
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पहिनाना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिनावा  : पुं०=पहनावा।
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पहिप  : पुं०=पथिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहियाँ  : अव्य०=‘पहँ’ (पास)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिया  : पुं० [सं० पथ्थ, प्रा० पह्य से पहिया] १. गाड़ी, यान आदि का वह नीचेवाला मुख्य आधार जो गोलाकार होता और धुरी पर घूमता है तथा जिसके धुरी पर घूमने पर गाड़ी या यान आगे बढ़ता है। २. यंत्रों आदि में लगा हुआ उक्त प्रकार का गोलाकार चक्कर जिसके घूमने से उस यंत्र का कोई क्रिया सम्पन्न होती है। चक्कर। (ह्वोल) पुं० पहिआ (पथिक)।
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पहिरना  : स०=पहनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिराना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिरावना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिरावनी  : स्त्री०=पहरावनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिल  : वि०=पहला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० वि०=पहले। स्त्री०=पहल।
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पहिला  : वि०=पहला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिले  : अव्य०=पहले।
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पहिलौठा  : वि० [स्त्री० पहिलौठी]=पहलौठा।
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पहीत  : स्त्री०=पहिती।
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पहुँ  : पुं० [सं० पिय ?] १. पति। २. प्रियतम।
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पहुँच  : स्त्री० [हिं० पहुँचना] १. पहुँचने की क्रिया या भाव। २. किसी के कहीं पहुँचने की भेजी जानेवाली सूचना। जैसे—अपनी पहुँच तुरंत भेजना। ३. ऐसा स्थान जहाँ तक किसी की गति हो सकती हो या कोई पहुँच सकती हो। जैसे—यह तसवीर बहुत ऊँची टँगी है, तुम्हारे हाथ की पहुँच उस तक नहीं होगी (या न हो सकेगी)। ४. किसी स्थान तक पहुँचने की योग्यता, शक्ति या सामर्थ्य। पकड़। जैसे—वह स्थान बड़े बड़ों की पहुँच के बाहर है। ५. किसी विषय का होनेवाला ज्ञान या परिचय। ६. अभिज्ञता की सीमा। ज्ञान की सीमा।
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पहुँचना  : अ० [सं० प्रभूत, प्रा० पहुँच्च] १. (वस्तु अथवा व्यक्ति का) एक विंदु से चलकर अथवा और किसी प्रकार दूसरे विन्दु पर (बीच का अवकाश पार करके) उपस्थित, प्रस्तुत या प्राप्त होना। जैसे—(क) रेलगाड़ी का दिल्ली पहुँचना। (ख) घड़ी की छोटी सूई का १२ पर पहुँचना। (ग) आदमी का घर या स्वर्ग पहुँचना। २. किसी से भेंट आदि करने के लिए उसके यहाँ जाकर उपस्थित होना। पद—पहुँचा हुआ=(क) जिसके संबंध में यह माना जाता हो कि वह सिद्धि प्राप्त करके ईश्वर तक पहुँच गया है। (ख) किसी काम या बात में पूर्ण रूप से दक्ष या पारंगत। किसी बात के गूढ़ रहस्यों या मूल तत्त्वों तक का पूरा ज्ञान रखनेवाला। ३. किसी के द्वारा भेजी हुई चीज का किसी व्यक्ति को मिलना या प्राप्त होना। जैसे—पत्र या संदेश पहुँचना। ४. (किसी चीज का) किसी रूप में मिलना या प्राप्त होना। जैसे—आघात या दुःख पहुँचना, फायदा पहुँचना। ५. फैलने या फैलाये जाने पर किसी चीज का किसी सीमा तक जाना या किसी दूसरी चीज को छूना अथवा पकड़ लेना। जैसे—(क) आग का जंगल की एक सीमा से दूसरी सीमा तक पहुँचना। (ख) हाथ का छींके तक पहुँचना। ६. मान, मात्रा, संख्या आदि में बढ़ते-बढ़ते या घटते-घटते किसी विशिष्ट स्थिति को प्राप्त होना। जैसे—(क) हमारे यहाँ गेहूँ की उपज ५॰ मन प्रति बीघे तक जा पहुँची है। (ख) लड़का आठवें दरजे में पहुँच गया है। (ग) ताप मान अभी ११॰ तक ही पहुँचा है। ७. बढ़कर किसी के तुल्य या बराबर होना। जैसे—अब तुम भी उनके बराबर पहुँचने लगे हो। ८. एक दशा या रूप से दूसरी दशा या रूप को प्राप्त होना। जैसे—जान जोखिम में पहुँचना। ९. प्रविष्ट होना। घुसना। जैसे—वह भी किसी न किसी तरह अंदर पहुँच गया। १॰. किसी चीज का किसी दूसरी चीज से प्रभावित होना। जैसे—कपड़ों में सील पहुँचना। ११. लाक्षणिक अर्थ में, किसी प्रकार के तत्त्व, भाव, मनःस्थति, रहस्य आदि को ठीक-ठीक जानने में समर्थ होना। जैसे—यह बहुत गंभीर विषय है, इस तक पहुँचना सहज नहीं है।
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पहुँचा  : पुं० [सं० प्रकोष्ठ अथवा हिं० पहुँचना] १. हाथ की कुहनी के नीचे और हथेली के बीच का भाग। कलाई। गट्टा। मणिबंध। मुहा०—(किसी का) पहुँचा पकड़ना=बलपूर्वक किसी को कोई काम करने के लिए उसे रोक रखने के लिए उसकी कलाई पकड़ना। जैसे— वह तो राह-चलते लोगों से पहुँचा पकड़कर माँगने (या लड़ने) लगता है। कहा०—उँगली पकड़ते, पहुँचा पकड़ना=किसी को जरा-सा अनुकूल या प्रसन्न देखकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए उसके पीछे पड़ जाना। २. टखने के कुछ ऊपर तथा पिंडली से कुछ नीचे का भाग। ३. पाजामे आदि की मोहरी का विस्तार। (पश्चिम)
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पहुँचाना  : स० [हिं० पहुँचा का स०] १. किसी चीज को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना। जैसे—(क) उनके यहाँ मिठाई (या पत्र) पहुँचा दो। (ख) यह ताँगा हमें स्टेशन तक पहुँचायेगा। २. किसी व्यक्ति के संग चलकर उसे कहीं तक छोड़ने जाना। जैसे—नौकर का बच्चे को स्कूल पहुँचाना। ३. किसी को किसी विशिष्ट स्थिति में प्राप्त करना। किसी विशेष अवस्था या दशा तक ले जाना। जैसे—उन्हें इस उच्च पद तक पहुँचानेवाले आप ही हैं। ४. किसी रूप में उपस्थित, प्राप्त या विद्यमान कराना। जैसे—किसी को कष्ट या लाभ पहुँचाना; आँखों में ठंडक पहुँचाना; कहीं कोई खबर पहुँचाना। ५. प्रविष्ट कराना।
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पहुँची  : स्त्री० [हिं० पहुँचा] १. कलाई पर पहनने का एक तरह का गहना। जिसमें बहुत से गोल या कँगूरेदार दाने कई पत्तियों में गूँथे हुए होते हैं। २. प्राचीन काल में युद्ध के समय कलाई पर पहना जानेवाला एक तरह का आवरण। ३. पायल। पाजेब। (पश्चिम)
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पहु  : पुं०=प्रभु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पौ (प्रातःकाल का हलका प्रकाश)।
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पहुड़ना  : अ० १.=पौड़ना (तैरना)। २.=पौढ़ना (लेटना)।
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पहुतना  : अ०=पहुँचना। (राज०)
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पहुनई  : स्त्री०=पहुनाई।
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पहुना  : पुं०=पाहुना।
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पहुनाई  : स्त्री० [हिं० पाहुना+आई (प्रत्य०)] १. पाहुने के रूप में कहीं ठहरने तथा सेवा-सत्कार आदि कराने की क्रिया या भाव। मुहा०—पहुनाई करना=बराबर दूसरों के यहाँ पाहुन या अतिथि बनकर खाते और रहते फिरना। दूसरों के आतिथ्य पर चैन से दिन बिताना। २. अतिथि का भोजन आदि से किया जानेवाला सत्कार। आतिथ्यसत्कार।
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पहुनी  : स्त्री० [हिं० पाहुना का स्त्री०] १. रखेली स्त्री। २. समधी की स्त्री। समधिन। ३. दे० ‘पहुनाई’।
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पहुन्नी  : स्त्री० [देश०] वह पच्चर जो लकड़ी चीरते समय चिरे हुए अंश के बीच इसलिए लगाया जाता है कि आरा चलाने के लिए बीच में यथेष्ट अवकाश रहे।
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पहुप  : पुं०=पुष्प।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहुमि (मी)  : स्त्री०=पुहमी (पृथ्वी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पहुरना  : पुं० [स्त्री० पहुरनी]=पाहुना।
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पहुरी  : स्त्री० [देश०] संगतराशों की एक तरह की चिपटी टाँकी जिससे वे गढ़े हुए पत्थर चिकने करते हैं। मठरनी।
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पहुला  : पुं० [सं० प्रफुल] १. कुमुद। कोई। उदा०—पहुला हारु हियैं लसै सन की बेंदी भाल।—बिहारी। २. गुलाब का फूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहुवी  : पुहमी (पृथ्वी)। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पहेटना  : स० [सं० प्रखेट, प्रा० पहेट=शिकार] १. किसी को पकड़ने के लिए उसका पीछा करना। २. कोई कठिन काम परिश्रमपूर्वक समाप्त करना। ३. औजारों की धार तेज करने के लिए उन्हें पत्थर या सान पर रगड़ना। ४. अच्छी तरह या डटकर खाना। खूब भर-पेट भोजना करना। ५. अनुचित रूप से ले लेना।
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पहेरी  : स्त्री०=पहेली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रहरी।
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पहेली  : स्त्री० [सं० प्रहेलिका] १. प्रस्ताव के रूप में होनेवाली एक प्रकार की प्रश्नात्मक उक्ति या कथन जिसमें किसी चीज या बात के लक्षण बतलाते हुए अथवा घुमाव-फिराव से किसी प्रसिद्ध बात या वस्तु का स्वरूप मात्र बतलाते हुए यह कहा जाता है कि बतलाओ कि वह कौन सी बात या वस्तु है। (रिडल) क्रि० प्र०—बुझाना।—बूझना। विशेष—पहेलियाँ प्रायः दूसरों के ज्ञान या वृद्धि की परीक्षा के लिए होती हैं, और सभी जातियों तथा देशों में प्रचलित होती हैं। यह अर्थी और शब्दी दो प्रकार की होती हैं। यथा—‘फाट्यो पेट, दरिद्री नाम। उत्तम घर में बाको ठाम।’ शंख की आर्थी पहेली है, और ‘उस आधा आधा रफि होई। आधा-साधा समझै सोई।’ अशरफी की शाब्दी पहेली है। हमारे यहाँ वैदिक युग में पहले को ‘ब्रह्मोदय’ कहते थे; और अश्वमेध आदि यज्ञों में बलि कर्म से पहले ब्राह्मण तथा होता लोगों से ब्रह्मोदय के उत्तर पूछते अर्थात् पहेलियाँ बुझाते थे। भारत की कई (आदिम) जातियों में अब भी विवाह के समय पहेलियाँ बुझाने की प्रथा प्रचलित है। २. कोई ऐसी कठिन या गूढ़ बात अथवा समस्या जिसका अभिप्राय, आशय, तत्त्व या निराकरण सहज में न होता हो और जिसे सुनकर लोगों की बुद्धि चकरा जाती हो। दुर्ज्ञेय और विकट प्रश्न या बात। (रिडल, उक्त दोनों अर्थों में) ३. अधिक विस्तार में घुमा-फिराकर तथा अस्पष्ट रूप में कही हुई कोई बात। मुहा०—पहेली बुझाना=बहुत घुमाव-फिराव से ऐसी बात कहना जो लोगों को चक्कर में डाल दे। जैसे—अब पहेलियाँ बुझाना छोड़ो, और साफ-साफ बतलाओ कि तुम क्या चाहते हो (या वहाँ क्या हुआ)।
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पह्लव  : पुं० [सं०] १. ईरान या फारस देश का प्राचीन निवासी। २. ईरान या फारस में रहनेवाली एक प्राचीन जाति। ३. ईरान या फारस देश।
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पह्लवी  : स्त्री० [फा०] आर्य-परिवार की एक प्राचीन भाषा जिसका प्रचलन ईरान या फारस देश में ईसवी तीसरी, चौथी और पाँचवीं शताब्दियों में था।
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पह्लिका  : स्त्री० [सं० अप√ह्रु+ड+कन्, इत्व, अकार लोप] जल-कुंभी।
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पहस्तहौसला  : वि० [फा०] पस्त-हिम्मत।
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पहँ  : अव्य० [सं० पार्श्व] निकट। पास। विभ० से।
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पहँसुल  : स्त्री० [सं० प्रह्ल=झुका हुआ+शूल्] हँसिया की तरह का तरकारी काटने का एक छोटा उपकरण।
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पह  : स्त्री०=पौ (प्रातःकाल का प्रकाश)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्याऊ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहचनवाना  : स० [हिं० पहचानना का०] किसी से पहचानने का काम करना।
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पहचान  : स्त्री० [सं० प्रत्यभिज्ञान या परिचय] १. पहचानने की क्रिया, भाव या शक्ति। २. कोई ऐसा चिह्न या लक्षण जिससे पता चले कि यह अमुक व्यक्ति या वस्तु है। जैसे—अपने कपड़े (या लड़के) की कोई पहचान बतलाओ। ३. किसी वस्तु की अच्छाई, बुराई, टिकाऊपन, स्वाद आदि देख-भाल कर जान लेने की शक्ति। जैसे—आम, कपड़े, घी आदि की पहचान। ४. जीव या व्यक्ति के संबंध में, उसके आकार, चेष्टाओं, बातों आदि से उसका वास्तविक रूप अनुमानित करने की समर्थता। जैसे—आदमी या घोड़े की पहचान। ५. दे० ‘जानपहचान’।
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पहचानना  : स० [हिं० पहचान] १. किसी पस्तु या व्यक्ति को देखते ही उसके चिह्नों, लक्षणों, रूप-रंग के आधार पर यह जान या समझ लेना कि यह अमुक व्यक्ति या वस्तु है। यह समझना कि वह यही वस्तु या व्यक्ति है जिसे मैं पहले से जानता हूँ। जैसे—मैं उसके कपड़े पहचानता हूँ। संयो० क्रि०—जानना।—लेना। २. एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद करना। अंतर समझना या जानना। बिलगाना। जैसे—असल या नकल को पहचानना सहज नहीं है। ३. किसी वस्तु या व्यक्ति के गुण-दोषों, योग्यताओं आदि से भली-भाँति परिचित रहना। जैसे—तुम भले ही उनकी बातों में आ जाओ; पर मैं उन्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ।
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पहटना  : स०=पहेटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहटा  : पुं० १. दे० ‘पाटा’। २. दे० ‘पेठा’।
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पहड़िया  : वि०=पहाड़ी। पुं० [हिं० पहाड़] संथाल परगने में रहनेवाली एक जाति।
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पहन  : पुं० [फा०] वह दूध जो बच्चे को देखकर वात्सल्य भाव के कारण माँ की छातियों में भर आवे और टपकने लगे या टपकने को हो। पुं०=पाहन (पाषाण)।
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पहनना  : स० [सं० परिधान] (कपड़े, गहने आदि) शरीर पर धारण करना। परिधान करना। जैसे—कुरता या धोती पहनना; अँगूठी या हार पहनना; खड़ाऊँ, चप्पल या जूता पहनना।
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पहनवाना  : स० [हिं० ‘पहनना’ का प्रे०] १. किसी को कुछ पहनाने में प्रवृत्त करना। जैसे—नौकर से लड़के को कपड़े पहनवाना। २. किसी को कुछ पहनने के लिए विवश करना। (पहनाना से भिन्न)। जैसे—माता ने बच्चे को कुरता पहनवाकर छोड़ा।
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पहना  : पुं० [फा० पहन] वह दूध जो बच्चे को देखकर वात्सल्य भाव के कारण माँ के स्तनों में भर आया हो और टपकता-सा जान पड़े। पुं०=पनहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहनाई  : स्त्री० [हिं० पहनाना] १. पहनने की क्रिया, ढंग या भाव। जैसे—जरा आपकी पहनाई देखिये। २. पहनने या पहनाने के बदले में दिया या लिया जानेवाला पारिश्रमिक। स्त्री० [हिं० पाहन=पत्थर] १. पाहन या पत्थर होने की अवस्था या भाव। २. पाहन या पत्थर की-सी कठोरता, गुरुता या और कोई गुण। उदा०—पाहन ते न कठिन पहनाई।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पहनाना  : सं० [हिं० पहनना] १. दूसरे को अपने हाथों से कपड़े, गहने आदि धारण कराना। जैसे—कोट या जूता पहनाना। २. मारना-पीटना। (बाजारू)
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पहनाव  : पुं०=पहनावा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहनावा  : पुं० [हिं० पहनना] १. पहनने के कपड़े। पोशाक। २. किसी जाति, देश आदि के लोगों द्वारा सामान्यतः तन ढकने के उद्देश्य से पहने जानेवाले कपड़े। जैसे—अँगरेजों का पहनावा पैंट, कोट, कमीज तथा हैट है और भारतीयों का धोती, कुरता और टोपी है। ३. विशिष्ट आकार, प्रकार या रंग के वे कपड़े जो किसी विद्यालय, संस्था आदि के कर्मचारियों, विद्यार्थियों, सदस्यों आदि को पहनने पड़ते हों। जैसे—स्कूली पहनावा।
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पहपट  : पुं० [देश०] १. स्त्रियों द्वारा गाये जानेवाले एक तरह के गीत। २. शोर-गुल। हल्ला। ३. चारों ओर फैलनेवाली निन्दात्मक चर्चा या बदनामी। ४. छल। धोखा। बदनामी। (क्व०)
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पहपटबाज  : पुं० [हिं० पहपट+फा० बाज] [भाव० पहपटबाजी] १. शोर-गुल करने या हल्ला मचानेवाला। २. उपद्रवी। फसादी। शरारती। झगड़ालू। ३. चारों ओर लोगों की निंदा फैलानेवाला। ४. छलिया। धोखेबाज।
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पहपटहाया  : वि० [स्त्री० पहपटहाई]=पहपटबाज।
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पहमिनि  : स्त्री०=पद्मिनी। उदा०—कंवल करी तू पहमिनी मैं निसि भएहु बिहान।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहर  : पुं० [सं० प्रहर] १. समय के विचार से दिन-रात के किये हुए आठ समान भागों में से हर एक जो तीन-तीन घंटों का होता है। २. समय। ३. युग।
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पहरना  : स० [सं० प्र+हरण] नष्ट करना। उदा०—जिड़ि पहरंतैं नवी परि।—प्रिथीराज। स०=पहनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरा  : पुं० [हिं० पहर] १. ऐसी अवस्था या स्थिति जिसमें किसी आदमी, चीज या जगह की रखवाली करने अथवा अपघात, हानि आदि रोकने के लिए एक या अधिक आदमी नियुक्त किये जाते हैं। इस बात का ध्यान रखने का प्रबंध कि कहीं कोई अनुचित रूप से आ-जा न सके अथवा आज्ञा, नियम, विधान आदि के विरुद्ध कोई काम न करने पावे। चौकी। रखवाली। विशेष—(क) पहले प्रायः इस प्रकार की देख-रेख करनेवाले लोग एक एक पहर के लिए नियुक्त किये जाते थे; इसी से उक्त अर्थ में ‘पहरा’ शब्द प्रचलित हुआ था। (ख) पहरे का काम प्रायः एक स्थान पर खड़े होकर, थोड़ी-सी दूरी में इधर-उधर आ-जाकर अथवा किसी विशिष्ट क्षेत्र में चारों ओर घूम-घूमकर किया जाता है। मुहा०—पहरा देना=घूम-घूमकर बराबर यह देखते रहना कि कहीं कोई अनुचित रूप से आ तो नहीं रहा है या कोई अनुचित काम तो नहीं कर रहा है। पहरा पड़ना=ऐसी अवस्था होना कि कहीं कुछ लोग पहरा देते रहें। जैसे—रात के समय शहरों में जगह-जगह पहरा पड़ता है। पहरा बदलना=एक पहरेदार के पहरे का समय बीत जाने पर उसके स्थान पर दूसरे पहरेदार का आना। पहरा बैठना=किसी वस्तु या व्यक्ति के पास पहरेदार या रक्षक बैठाया जाना। चौकीदार को पहरे के काम पर लगाना। पहरा बैठाना=पहरा देने के काम पर किसी को लगाना। (किसी को) पहरे में देना=किसी को इस उद्देश्य से पहरेदारों की देख-रेख में रखना कि वह कहीं भागने, किसी से मिलने-जुलने या कोई अनुचित काम न करने पावे। २. उतना समय जितने में एक रक्षक अथवा रक्षक-दल को रक्षा-कार्य करना पड़ता है। जैसे—तुम्हारे पहले में तो कोई यहाँ नहीं आया था। ३. कोई पहरेदार या पहरेदारों का कोई दल। जैसे—जब तक नया पहरा न आवे, तब तक तुम (या तुम लोग) यहीं रहना। ४. वह जोर की आवाज से पहरेदार लोगों को सावधान करने या रहने के लिए रह-रहकर देता या लगाता रहता है। जैसे—कल रात को इस महल्ले में पहरा नहीं सुनाई पड़ा। ५. कुछ विशिष्ट प्रकार का काल या समय। जामाना। युग। जैसे—अभी क्या है! अभी तो इससे भी बुरा पहरा आवेगा। पुं० [हिं० पौरा का विकृत रूप] किसी विशेष व्यक्ति के अस्तित्व, आगमन, सत्ता आदि का काल या समय। पौरा। जैसे—जब से इस लड़की का पहरा (पौरा) इस घर में आया है, तब से इस घर में लहर-बहर दिखाई देने लगी है।
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पहराइत  : पुं०=पहरेदार। उदा०—पीला भमर किया पहराइत।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहराना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरावनी  : स्त्री० [हिं० पहरावना] १. पहनावा। २. वे कपड़े जो किसी शुभ अवसर पर प्रसन्नतापूर्वक छोटों को दिये या पहनाये जाते हैं।
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पहरावा  : पुं०=पहनावा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरी  : पुं०=प्रहरी (पहरेदार)।
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पहरुआ  : पुं०=पहरेदार।
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पहरू  : पुं०=पहरेदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरेदार  : पुं० [हिं० पहरा+फा० दार] [भाव० पहरेदारी] १. वह जिसका काम कहीं खड़े-खड़े या घूम-घूमकर पहरा देना हो। चौकीदार। संतरी। २. वह जो किसी की रक्षा के लिए कटिबद्ध तथा प्रस्तुत हो। जैसे—हम देश के पहरेदार हैं।
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पहरेदारी  : स्त्री० [हिं० पहरा+फा० दारी] १. पहरा देने का काम या भाव। २. पहरेदार का पद।
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पहल  : पुं० [फा० पहलू, मि० सं० पटल] १. किसी घन पदार्थ के तीन या अधिक कोनों अथवा कोरों के बीच का तल या पार्श्व। २. बगल। पहलू। जैसे—(क) पासे में छः पहल होते हैं। (ख) इस नगीने में बारह पहल कटे हैं। क्रि० प्र०—काटना।—तराशना।—बनाना। मुहा०—पहल निकालना=किसी पदार्थ के पृष्ठ देश या बाहरी सतह को तराश या छीलकर उसमें त्रिकोण, चतुष्कोण, षट्कोण आदि पहल बनाना। २. ऊन, रूई आदि की कुछ कड़ी और मोटी तह या परत। गाला। उदा०—तूल के पहल किधौं पवन अधार के।—सेनापति। ३. किसी तरह की तह या परत। स्त्री० [हिं० पहला] १. किसी नये कार्य का पहली बार होनेवाला आरंभ। २. किसी कार्य, बात आदि का किसी एक पक्ष की ओर होनेवाला आरंभ जिसके पश्चप्रभाव का उत्तरदायित्व उसी पक्ष पर माना जाता है। छेड़। (इनीशिएटिव) जैसे—झगड़े में पहले तो उसने पहल की थी। मुहा०—पहल करना=किसी काम या अपनी ओर से या आगे बढ़कर आरंभ करना।
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पहलदार  : वि० [हिं० पहल+फा० दार] जिसमें पहल कटे या बने हों। जिसमें चारों ओर अलग-अलग तल या सतहें हों।
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पहलनी  : स्त्री० [हिं० पहल] सुनारों का एक औजार जिससे कोंढ़ा या घुंडी गोल करते हैं।
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पहलवान  : पुं० [फा० पहलवान] [भाव० पहलवानी] १. वह व्यक्ति जो स्वयं दूसरों से कुश्ती लड़ता हो अथवा दूसरों को कुश्ती लड़ना सिखलाता हो। २. मोटा-ताजा। तगड़ा। हट्टा-कट्टा। वि० खूब बलवान और मोटा-ताजा।
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पहलवानी  : वि० [फा० पहलवानी] १. पहलवानों से संबंध रखनेवाला। २. पहलवानों की तरह का। स्त्री० १. पहलवान होने की अवस्था या भाव। २. पहलवान का पेशा, वृत्ति या शौक। ३. बलवान और सशक्त होने की अवस्था या भाव। जैसे—वह तुम्हारी सारी पहलवानी निकालकर रख देगा।
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पहलवी  : पुं०, स्त्री० [फा०]=पह्लवी।
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पहला  : वि० [सं० प्रथम, प्रा० पहिले] [स्त्री० पहली] १. समय के विचार से जो और सब से आदि में हुआ हो। जैसे—यह उनका पहला लड़का है। २. किसी चीज विशेषतः किसी वर्गीतकृत चीज के आरंभिक या प्रारंभिक अंश या वर्ग से संबंध रखनेवाला। जैसे—पुस्तक का पहला अध्याय, विद्यालय का पहला दरजा। ३. तुलना, प्रतियोगिता आदि में जो सब से आगे निकल पहुँच या बढ़ गया हो। जैसे—दौड़, परीक्षा आदि में पहला आना। ४. वर्तमान से पूर्व का। विगत। जैसे—पहला जमाना कुछ और ही तरह का था। ५. जो अत्यधिक उपयोगी, महत्त्वपूर्ण या मूल्यवान हो।
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पहलाम  : स्त्री० [हिं० पहला+म (प्रत्य०)] लड़ाई-झगड़े के संबंध में की जानेवाली छेड़। पहल। जैसे—इस बार तो तुम्हीं ने पहलाम की थी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहलू  : पुं० [फा० पहलू] १. किसी वस्तु का कोई विशिष्ट पार्श्व या किसी दिशा में पड़नेवाला अंग या विस्तार। २. व्यक्ति के शरीर का दाहिना या बायाँ अंग। पार्श्व। बगल। जैसे—जो जल उठता है यह पहलू तो वह पहलू बदलते हैं।—कोई कवि। मुहा०—(किसी का) पहलू गरम करना=किसी के शरीर से विशेषतः प्रेयसी प्रेमपात्र का प्रेमी के शरीर से सटकर बैठना। किसी के पास या साथ बैठकर उसे सुखी करना। (किसी से) पहलू गरम करना=किसी को विशेषतः प्रेयसी या प्रेमपात्र को शरीर से सटाकर बैठाना। मुहब्बत में बैठाना। (किसी के) पहलू में रहना=किसी के बहुत पास या बिलकुल साथ में रहना। ३. करवट। बल। जैसे—किसी पहलू से चैन नहीं मिलता। ४. पड़ोस। मुहा०—पहलू बसाना=किसी के पड़ोस में जाकर रहना। ५. किसी समूह का कोई पार्श्व या भाग। जैसे—फौज का दाहिना पहलू ज्यादा मजबूत था। मुहा०—पहलू दबना=किसी अंग या पार्श्व का दुर्बल होने या हारने के कारण पीछे हटना। (किसी के) पहलू पर होना=विकट अवसर पर सहायता करने के लिए प्रस्तुत रहना। ६. किसी बात या विषय का अच्छाई-बुराई, गुण-दोष आदि की दृष्टि से कोई पक्ष। जैसे—मुकदमे के सब पहलू पहले से सोच रखो। मुहा०—(किसी बात का) पहलू बचाना=इस बात का ध्यान रखना या युक्ति करना किसी किसी अंग, पक्ष या पार्श्व से किसी प्रकार का अनिष्ट अथवा कोई अप्रिय घटना या बात न होने पावे। (अपना) पहलू बचाना=कोई काम करने से जी चुराना या टाल-मटोल करके पीछे हटना। ७. अगल-बगल या आस-पास का स्थान। पार्श्व। जैसे—पहाड़ के पहलू में एक घना जंगल था। पद—पहलूनशी=(क) पास बैठनेवाला। (ख) पास बैठा हुआ। मुहा०—(किसी का) पहलू बसाना=किसी के पड़ोस या समीप में जा रहना। पड़ोस आबाद करना। ८. किसी पदार्थ के किसी पार्श्व का कोई समतल पृष्ठ-देश। पहल। जैसे—इस नगीने का कोई पहलू चौकोर नहीं है। ९. गूढ़ अर्थ। १॰. युक्ति। ११. बहाना। १२. रूख।
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पहलूदार  : वि० [फा०] जिसके कई पहलू (पक्ष या पहल) हों।
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पहले  : अव्य० [हिं० पहला] १. आदि आरंभ या शुरु में। सर्वप्रथम। जैसे—पहले यहाँ कोई दूकान नहीं थी। २. काल, घटना, स्थिति आदि के क्रम के विचार से आगे या पूर्व। जैसे—उनके मकान के पहले एक पुल पड़ता है। ३. बीते हुए समय में। पूर्वकाल में। अगले जमाने में। जैसे—पहले की-सी सस्ती अब फिर क्यों होने लगी।
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पहलेज  : पुं० [देश०] एक प्रकार का लंबोतरा खरबूजा।
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पहले-पहले  : अव्य० [हिं० पहले] १. आदि या आरंभ में। सर्वप्रथम। सबसे पहले। २. जीवन में पहली बार। जैसे—वह पहले-पहल दिल्ली गया है।
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पहलौठा  : वि० [हिं० पहल+औठा (प्रत्य०)] [स्त्री० पहलौठी] (माता-पिता का वह पुत्र) जिसे (उन्होंने) सबसे पहले जन्म दिया हो। अथवा जो सबसे पहले जन्मा हो। प्रथम प्रसव।
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पहाड़  : पुं० [सं० पाषाण] [स्त्री० अल्पा० पहाड़ी] १. पृथ्वी तल के ऊपर प्राकृतिक रूप से उठा या उभरा हुआ वह बहुत बड़ा अंश जो प्रायः चूने, पत्थर, मिट्टी आदि की बड़ी-बड़ी चट्टानों से बना होता है और जिसका तल प्रायः असम या ऊबड़-खाबड़ रहता है। पर्वत। मुहा०—पहाड़ खोदकर चूहा निकालना=बहुत अधिक परिश्रम करके बहुत ही तुच्छ परिणाम तक पहुँचना। २. किसी वस्तु का बहुत बड़ा और भारी ढेर। बहुत ऊँची राशि या ढेर। जैसे—पहले बाजारों में अनाज के बोरों के पहाड़ लगे रहते थे। ३. पत्थरों की ढेर की तरह की कोई बहुत बड़ी या भारी चीज या बात अथवा कोई बहुत ही विकट काम या स्थिति। जैसे—(क) मुझे पत्र लिखना तो पहाड़ हो जाता है। (ख) तुम्हें तो मामूली काम भी पहाड़ मालूम होता है। मुहा०—पहाड़ उठाना=कोई बहुत बड़ा, भारी या विकट काम अपने ऊपर लेना या पूरा कर दिखाना। पहाड़ काटना=(क) बहुत ही कठिन या विकट काम कर डालना। (ख) किसी प्रकार कोई बहुत बड़ी विपत्ति या संकट दूर करना। (किसी पर) पहाड़ टूटना या टूट पड़ना=अचानक कोई बहुत बड़ी विपत्ति आना। जैसे—उस पर तो आफत का पहाड़ टूट पड़ा है। पहाड़ से टक्कर लेना=अपने से बहुत अधिक बलवान व्यक्ति या शक्तिशाली से प्रतियोगिता करना या वैर उठाना। बहुत जबरदस्त या बहुत बड़े से भिड़ना। ४. कोई ऐसा कठिन या विकट कार्य, वस्तु या स्थिति जिसका निर्वाह बहुत ही कठिन हो अथवा सहज में जिससे छुटकारा या निस्तार न हो सके। जैसे—पहाड़ की तरह विवाह के योग्य चार-चार लड़कियाँ उसके सामने बैठी थीं।
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पहाड़ा  : पुं० [सं० प्रस्तार या क्रमात् पहाड़ की तरह ऊँचे होते जाने का क्रम] १. किसी अंक के गुणनफलों के क्रमात् आगे बढ़ती चलनेवाली संख्याओं की स्थिति। जैसे—तीन एकम तीन, तीन दूनी छः; तीन तियाँ नौ, तीन चौके बारह आदि। २. उक्त प्रकार की क्रमात् बढ़ती रहनेवाली संख्याओं की सूची। गुणन-सारणी। (मल्टिप्लिकेशन टेबुल) जैसे—पहाड़े की पुस्तक। क्रि० प्र०—पढ़ना।—पढ़ाना।—लिखना।—लिखाना।
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पहाड़िया  : वि०=पहाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहाड़ी  : वि० [हिं० पहाल+ई (प्रत्य०)] १. पहाड़-संबंधी। जैसे—पहाड़ी रास्ता। २. पहाड़ पर मिलने, रहने या होनेवाला। जैसे—पहाड़ी वृक्ष, पहाड़ी व्यक्ति। ३. जिसमें पहाड़ हो। जैसे—पहाड़ी देश। ४. पहाड़ पर रहनेवाले लोगों से संबंध रखनेवाला। जैसे—पहाड़ी पहनावा, पहाड़ी बोली। पं० १. पहाड पर रहनेवाले व्यक्ति। जैसे—आज-कल शहर में बहुत से पहाड़ी आये हुए हैं। २. एक प्रकार का बड़ा खीरा। स्त्री० १. छोटा पहाड़। २. काँगड़े, कुमाऊँ, गढ़वाल आदि पहाड़ी प्रदेशों की बोलियों का वर्ग या समूह। ३. भारत के उत्तर-पश्चिमी पहा़ड़ों में गाई जानेवाली एक प्रकार की धुन या संगीत-प्रणाली। ४. संगीत में, संपूर्ण जाति की एक रागिनी जो साधारणतः रात के पहले या दूसरे पहर में गाई जाती है। ५. एक सुगंधित वनस्पति।
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पहान  : पुं०=पाषाण (पत्थर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहार  : पुं० [स्त्री० अल्पा० पहारी]=पहाड़।
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पहारना  : सं०=प्रहारना (प्रहार करना)।
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पहारी  : स्त्री०=पहाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहारू  : पुं०=पहरेदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहासरा  : पुं० [?] १. पौ फटने का समय। तड़का। २. प्रकाश। रोशनी। उदा०—चंद के पहासरे में आँगन में ठाढ़ी भई, आली तेरी जोति किधौं चाँदनी छिपाई है।—गंग।
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पहि  : अव्य० [सं० परं] पर। परंतु। उदा०—पहि किम पूजै पांगुलौ।—प्रिथीराज।
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पहिआ  : पुं० [हिं० पाह=पथ] १. रास्ता चलनेवाला। पथिक। बटोही। २. अतिथि। अभ्यागत। मेहमान। उदा०—आवत। पहिआ सूधै जाहि।—कबीर। ३. जामाता। दामाद। पुं०=पहिया।
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पहिचान  : स्त्री०=पहचान।
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पहिचानना  : स०=पहचानना।
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पहिती  : स्त्री० [सं० प्रहति=सालन] पकाई हुई दाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिनना  : स०=पहनना।
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पहिना  : स्त्री० [सं० पाठीन] एक प्रकार की मछली।
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पहिनाना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिनावा  : पुं०=पहनावा।
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पहिप  : पुं०=पथिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहियाँ  : अव्य०=‘पहँ’ (पास)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिया  : पुं० [सं० पथ्थ, प्रा० पह्य से पहिया] १. गाड़ी, यान आदि का वह नीचेवाला मुख्य आधार जो गोलाकार होता और धुरी पर घूमता है तथा जिसके धुरी पर घूमने पर गाड़ी या यान आगे बढ़ता है। २. यंत्रों आदि में लगा हुआ उक्त प्रकार का गोलाकार चक्कर जिसके घूमने से उस यंत्र का कोई क्रिया सम्पन्न होती है। चक्कर। (ह्वोल) पुं० पहिआ (पथिक)।
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पहिरना  : स०=पहनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिराना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिरावना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिरावनी  : स्त्री०=पहरावनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिल  : वि०=पहला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० वि०=पहले। स्त्री०=पहल।
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पहिला  : वि०=पहला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिले  : अव्य०=पहले।
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पहिलौठा  : वि० [स्त्री० पहिलौठी]=पहलौठा।
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पहीत  : स्त्री०=पहिती।
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पहुँ  : पुं० [सं० पिय ?] १. पति। २. प्रियतम।
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पहुँच  : स्त्री० [हिं० पहुँचना] १. पहुँचने की क्रिया या भाव। २. किसी के कहीं पहुँचने की भेजी जानेवाली सूचना। जैसे—अपनी पहुँच तुरंत भेजना। ३. ऐसा स्थान जहाँ तक किसी की गति हो सकती हो या कोई पहुँच सकती हो। जैसे—यह तसवीर बहुत ऊँची टँगी है, तुम्हारे हाथ की पहुँच उस तक नहीं होगी (या न हो सकेगी)। ४. किसी स्थान तक पहुँचने की योग्यता, शक्ति या सामर्थ्य। पकड़। जैसे—वह स्थान बड़े बड़ों की पहुँच के बाहर है। ५. किसी विषय का होनेवाला ज्ञान या परिचय। ६. अभिज्ञता की सीमा। ज्ञान की सीमा।
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पहुँचना  : अ० [सं० प्रभूत, प्रा० पहुँच्च] १. (वस्तु अथवा व्यक्ति का) एक विंदु से चलकर अथवा और किसी प्रकार दूसरे विन्दु पर (बीच का अवकाश पार करके) उपस्थित, प्रस्तुत या प्राप्त होना। जैसे—(क) रेलगाड़ी का दिल्ली पहुँचना। (ख) घड़ी की छोटी सूई का १२ पर पहुँचना। (ग) आदमी का घर या स्वर्ग पहुँचना। २. किसी से भेंट आदि करने के लिए उसके यहाँ जाकर उपस्थित होना। पद—पहुँचा हुआ=(क) जिसके संबंध में यह माना जाता हो कि वह सिद्धि प्राप्त करके ईश्वर तक पहुँच गया है। (ख) किसी काम या बात में पूर्ण रूप से दक्ष या पारंगत। किसी बात के गूढ़ रहस्यों या मूल तत्त्वों तक का पूरा ज्ञान रखनेवाला। ३. किसी के द्वारा भेजी हुई चीज का किसी व्यक्ति को मिलना या प्राप्त होना। जैसे—पत्र या संदेश पहुँचना। ४. (किसी चीज का) किसी रूप में मिलना या प्राप्त होना। जैसे—आघात या दुःख पहुँचना, फायदा पहुँचना। ५. फैलने या फैलाये जाने पर किसी चीज का किसी सीमा तक जाना या किसी दूसरी चीज को छूना अथवा पकड़ लेना। जैसे—(क) आग का जंगल की एक सीमा से दूसरी सीमा तक पहुँचना। (ख) हाथ का छींके तक पहुँचना। ६. मान, मात्रा, संख्या आदि में बढ़ते-बढ़ते या घटते-घटते किसी विशिष्ट स्थिति को प्राप्त होना। जैसे—(क) हमारे यहाँ गेहूँ की उपज ५॰ मन प्रति बीघे तक जा पहुँची है। (ख) लड़का आठवें दरजे में पहुँच गया है। (ग) ताप मान अभी ११॰ तक ही पहुँचा है। ७. बढ़कर किसी के तुल्य या बराबर होना। जैसे—अब तुम भी उनके बराबर पहुँचने लगे हो। ८. एक दशा या रूप से दूसरी दशा या रूप को प्राप्त होना। जैसे—जान जोखिम में पहुँचना। ९. प्रविष्ट होना। घुसना। जैसे—वह भी किसी न किसी तरह अंदर पहुँच गया। १॰. किसी चीज का किसी दूसरी चीज से प्रभावित होना। जैसे—कपड़ों में सील पहुँचना। ११. लाक्षणिक अर्थ में, किसी प्रकार के तत्त्व, भाव, मनःस्थति, रहस्य आदि को ठीक-ठीक जानने में समर्थ होना। जैसे—यह बहुत गंभीर विषय है, इस तक पहुँचना सहज नहीं है।
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पहुँचा  : पुं० [सं० प्रकोष्ठ अथवा हिं० पहुँचना] १. हाथ की कुहनी के नीचे और हथेली के बीच का भाग। कलाई। गट्टा। मणिबंध। मुहा०—(किसी का) पहुँचा पकड़ना=बलपूर्वक किसी को कोई काम करने के लिए उसे रोक रखने के लिए उसकी कलाई पकड़ना। जैसे— वह तो राह-चलते लोगों से पहुँचा पकड़कर माँगने (या लड़ने) लगता है। कहा०—उँगली पकड़ते, पहुँचा पकड़ना=किसी को जरा-सा अनुकूल या प्रसन्न देखकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए उसके पीछे पड़ जाना। २. टखने के कुछ ऊपर तथा पिंडली से कुछ नीचे का भाग। ३. पाजामे आदि की मोहरी का विस्तार। (पश्चिम)
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पहुँचाना  : स० [हिं० पहुँचा का स०] १. किसी चीज को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना। जैसे—(क) उनके यहाँ मिठाई (या पत्र) पहुँचा दो। (ख) यह ताँगा हमें स्टेशन तक पहुँचायेगा। २. किसी व्यक्ति के संग चलकर उसे कहीं तक छोड़ने जाना। जैसे—नौकर का बच्चे को स्कूल पहुँचाना। ३. किसी को किसी विशिष्ट स्थिति में प्राप्त करना। किसी विशेष अवस्था या दशा तक ले जाना। जैसे—उन्हें इस उच्च पद तक पहुँचानेवाले आप ही हैं। ४. किसी रूप में उपस्थित, प्राप्त या विद्यमान कराना। जैसे—किसी को कष्ट या लाभ पहुँचाना; आँखों में ठंडक पहुँचाना; कहीं कोई खबर पहुँचाना। ५. प्रविष्ट कराना।
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पहुँची  : स्त्री० [हिं० पहुँचा] १. कलाई पर पहनने का एक तरह का गहना। जिसमें बहुत से गोल या कँगूरेदार दाने कई पत्तियों में गूँथे हुए होते हैं। २. प्राचीन काल में युद्ध के समय कलाई पर पहना जानेवाला एक तरह का आवरण। ३. पायल। पाजेब। (पश्चिम)
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पहु  : पुं०=प्रभु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पौ (प्रातःकाल का हलका प्रकाश)।
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पहुड़ना  : अ० १.=पौड़ना (तैरना)। २.=पौढ़ना (लेटना)।
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पहुतना  : अ०=पहुँचना। (राज०)
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पहुनई  : स्त्री०=पहुनाई।
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पहुना  : पुं०=पाहुना।
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पहुनाई  : स्त्री० [हिं० पाहुना+आई (प्रत्य०)] १. पाहुने के रूप में कहीं ठहरने तथा सेवा-सत्कार आदि कराने की क्रिया या भाव। मुहा०—पहुनाई करना=बराबर दूसरों के यहाँ पाहुन या अतिथि बनकर खाते और रहते फिरना। दूसरों के आतिथ्य पर चैन से दिन बिताना। २. अतिथि का भोजन आदि से किया जानेवाला सत्कार। आतिथ्यसत्कार।
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पहुनी  : स्त्री० [हिं० पाहुना का स्त्री०] १. रखेली स्त्री। २. समधी की स्त्री। समधिन। ३. दे० ‘पहुनाई’।
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पहुन्नी  : स्त्री० [देश०] वह पच्चर जो लकड़ी चीरते समय चिरे हुए अंश के बीच इसलिए लगाया जाता है कि आरा चलाने के लिए बीच में यथेष्ट अवकाश रहे।
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पहुप  : पुं०=पुष्प।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहुमि (मी)  : स्त्री०=पुहमी (पृथ्वी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पहुरना  : पुं० [स्त्री० पहुरनी]=पाहुना।
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पहुरी  : स्त्री० [देश०] संगतराशों की एक तरह की चिपटी टाँकी जिससे वे गढ़े हुए पत्थर चिकने करते हैं। मठरनी।
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पहुला  : पुं० [सं० प्रफुल] १. कुमुद। कोई। उदा०—पहुला हारु हियैं लसै सन की बेंदी भाल।—बिहारी। २. गुलाब का फूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहुवी  : पुहमी (पृथ्वी)। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पहेटना  : स० [सं० प्रखेट, प्रा० पहेट=शिकार] १. किसी को पकड़ने के लिए उसका पीछा करना। २. कोई कठिन काम परिश्रमपूर्वक समाप्त करना। ३. औजारों की धार तेज करने के लिए उन्हें पत्थर या सान पर रगड़ना। ४. अच्छी तरह या डटकर खाना। खूब भर-पेट भोजना करना। ५. अनुचित रूप से ले लेना।
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पहेरी  : स्त्री०=पहेली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रहरी।
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पहेली  : स्त्री० [सं० प्रहेलिका] १. प्रस्ताव के रूप में होनेवाली एक प्रकार की प्रश्नात्मक उक्ति या कथन जिसमें किसी चीज या बात के लक्षण बतलाते हुए अथवा घुमाव-फिराव से किसी प्रसिद्ध बात या वस्तु का स्वरूप मात्र बतलाते हुए यह कहा जाता है कि बतलाओ कि वह कौन सी बात या वस्तु है। (रिडल) क्रि० प्र०—बुझाना।—बूझना। विशेष—पहेलियाँ प्रायः दूसरों के ज्ञान या वृद्धि की परीक्षा के लिए होती हैं, और सभी जातियों तथा देशों में प्रचलित होती हैं। यह अर्थी और शब्दी दो प्रकार की होती हैं। यथा—‘फाट्यो पेट, दरिद्री नाम। उत्तम घर में बाको ठाम।’ शंख की आर्थी पहेली है, और ‘उस आधा आधा रफि होई। आधा-साधा समझै सोई।’ अशरफी की शाब्दी पहेली है। हमारे यहाँ वैदिक युग में पहले को ‘ब्रह्मोदय’ कहते थे; और अश्वमेध आदि यज्ञों में बलि कर्म से पहले ब्राह्मण तथा होता लोगों से ब्रह्मोदय के उत्तर पूछते अर्थात् पहेलियाँ बुझाते थे। भारत की कई (आदिम) जातियों में अब भी विवाह के समय पहेलियाँ बुझाने की प्रथा प्रचलित है। २. कोई ऐसी कठिन या गूढ़ बात अथवा समस्या जिसका अभिप्राय, आशय, तत्त्व या निराकरण सहज में न होता हो और जिसे सुनकर लोगों की बुद्धि चकरा जाती हो। दुर्ज्ञेय और विकट प्रश्न या बात। (रिडल, उक्त दोनों अर्थों में) ३. अधिक विस्तार में घुमा-फिराकर तथा अस्पष्ट रूप में कही हुई कोई बात। मुहा०—पहेली बुझाना=बहुत घुमाव-फिराव से ऐसी बात कहना जो लोगों को चक्कर में डाल दे। जैसे—अब पहेलियाँ बुझाना छोड़ो, और साफ-साफ बतलाओ कि तुम क्या चाहते हो (या वहाँ क्या हुआ)।
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पह्लव  : पुं० [सं०] १. ईरान या फारस देश का प्राचीन निवासी। २. ईरान या फारस में रहनेवाली एक प्राचीन जाति। ३. ईरान या फारस देश।
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पह्लवी  : स्त्री० [फा०] आर्य-परिवार की एक प्राचीन भाषा जिसका प्रचलन ईरान या फारस देश में ईसवी तीसरी, चौथी और पाँचवीं शताब्दियों में था।
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पह्लिका  : स्त्री० [सं० अप√ह्रु+ड+कन्, इत्व, अकार लोप] जल-कुंभी।
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