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पित्त  : पुं० [सं० अपि√दो (काटना)+क्त, तादेश, अकार-लोप] १. वैद्यक के अनुसार शरीर के तीन मुख्य तत्त्वों में से एक (अन्य दो वात और कफ है) जो नीलापन लिये तरल होता है और यकृत में बनता है। (बाइल) २. उक्त का प्रमुख गुण, ताप या शक्ति जो भोजन पचाती है। मुहा०—पित्त उबलना=दे० ‘पित्ता’ के अंतर्गत ‘पित्ता खौलना’। पित्त उभरना=पित्त का प्रकोप या विकार उत्त्पन्न होना। (किसी का) पित्त गरम होना=स्वभावतः क्रोधी होना। मिजाज में गरमी होना। जैसे—अभी तुम जवान हो इसी से तुम्हारा पित्त इतना गरम है। पित्त डालना=कै करना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पित्त-कर  : वि० [ष० त०] पित्त को बढ़ानेवाला (पदार्थ)।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पित्त-कास  : पुं० [मध्य० स०] पित्त बिगड़ने के फलस्वरूप होनेवाली एक तरह की खाँसी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पित्त-कोष  : पुं० [ष० त०] पित्ताशय। (दे०)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पित्त-क्षोभ  : पुं० [ष० त०] पित्त के बिगड़ने से होनेवाले विकार।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पित्त-गुल्म  : पुं० [सं०] पित्त की अधिकता के कारण होनेवाला पेट फूलने का एक रोग।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पित्तध्न  : वि० [सं० पित्त√हन्+टक्] पित्त का नाश अथवा उसके विकारों को दूर करनेवाला। पुं० घी। घृत।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पित्तघ्नी  : स्त्री० [सं० पित्तघ्न+ङीष्] गुरुच।
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पित्तज  : वि० [सं० पित्त√जन् (उत्त्पत्ति)+ड] पित्त अथवा उसके प्रकोप से उत्पन्न होनेवाला। जैसे-पित्तज ज्वर, पित्तज शोथ आदि।
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पित्त-ज्वर  : पुं० [मध्य० स०] पित्त बिगड़ने से होनेवाला ज्वर।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पित्तदाह  : पुं० [सं०] पित्त-ज्वर। (दे०)
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पित्तद्रावी (विन्)  : वि० [सं० पित्त√द्रु (गति)+णिच्+णिनि] पित्त को द्रवित करने अर्थात् पिघलानेवाला। पुं० मीठा नींबू।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पित्त-धरा  : स्त्री० [ष० त०] पित्त को धारण करनेवाली एक कला या झिल्ली। ग्रहणी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पित्त-नाड़ी  : स्त्री० [ष० त०] एक प्रकार का नाड़ी-व्रण जो पित्त के प्रकोप से होता हो। (वैद्यक)
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पित्त-नाशक  : वि० [ष० त०] १. पित्त का नाश करनेवाला। २. पित्त का प्रकोप दूर करनेवाला।
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पित्त-निर्वहण  : वि० [ष० त०]=पित्त-नाशक।
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पित्त-पथरी  : स्त्री० [सं० पित्त+हिं० पथरी] एक प्रकार का रोग जिसमें पित्ताशय अथवा पित्तवाहक नलियों में पित्त की कंकडियाँ बन जाती है। यद्यपि ये पित्ताशय में ही बनती हैं, पर यकृत और पित्त-प्रणालियों में भी पाई जाती है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पित्त-पांडु  : पुं० [ब० स०] पित्त के प्रकोप के कारण होनेवाला एक रोग जिसमें रोगी के मूत्र, विष्ठा, और नेत्र के सिवा सारा शरीर पीला हो जाता है।
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पित्त-पाप़ड़ा  : पुं०=पित्तपापड़ा (दे०)।
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पित्त-प्रकृति  : वि० [ब० स०] जिसके शरीर में वात और कफ की अपेक्षा पित्त की प्रधानता या अधिकता हो।
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पित्त-प्रकोप  : पुं० [ष० त०] पित्त के अधिक बढ़ जाने अथवा उसमें विकार होने के फलस्वरूप उसका उग्र रूप धारण करना (जिसके फलस्वरूप अनेक रोग होते हैं)।
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पित्त-प्रकोपी (पिन्)  : वि० [सं० पित्त-प्रकोप, ष० त०+इनि] पित्त को बढ़ाने या कुपित करनेवाला (द्रव्य) जिसे खाने से पित्त की वृद्धि हो।
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पित्त-भेषज  : पुं० [ष० त०] मसूर की दाल।
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पित्त-रंजक  : पुं० [सं०]=पित्तारूण।
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पित्त-रक्त  : पुं० [मध्य० स०] रक्तपित्त नामक रोग।
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पित्तल  : वि० [सं० पित्त+लच्] १. जिसमें पित्त की बहुलता हो। २. जिससे पित्त का प्रकोप या दोष बढ़े। पित्तकारी (द्रव्य)। पुं० १. पीतल। २. हरताल। ३. भोजपत्र।
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पित्तला  : स्त्री० [सं० पित्तल+टाप्] १. जल-पीपल। २. वैद्यक के अनुसार योनि का एक रोग जो दूषित पित्त के कारण होता है। इसके कारण योनि में अत्यन्त दाह, पाक तथा शरीर में ज्वर होता है।
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पित्त-वर्ग  : पुं० [ष० त०] मछली, गाय, घोड़े, रुरु और मोर के पित्तों का समूह। पंचविधपित्त।
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पित्त-वल्लभा  : स्त्री० [ष० त०] काला अतीस।
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पित्त-वायु  : स्त्री० [मध्य० स०] पित्त के प्रकोप से पेट में उत्पन्न होनेवाली वायु।
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पित्त-विदग्ध  : वि० [तृ० त०] जिसका पित्त कुपित हो।
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पित्त-विदग्ध-दृष्टि  : पुं० [ब० स०] आँख का एक रोग जो दूषित पित्त के दृष्टि स्थान में आ जाने के कारण होता है। इसके कारण रोगी दिन में नहीं देख सकता केवल रात में देखता है।
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पित्त-विसर्प  : पुं० [मध्य० स०] विसर्प रोग का एक भेद।
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पित्त-व्याधि  : स्त्री० [मध्य० स०] पित्त के कुपित होने से होनेवाला रोग।
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पित्त-शमन  : वि० [ष० त०] पित्त का प्रकोप दूर करनेवाला।
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पित्त-शूल  : वि० [मध्य० स०] पित्त के प्रकोप के कारण होने वाला शूल।
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पित्त-शोथ  : पुं० [मध्य० स०] पित्त के प्रकोप के कारण होनेवाला शोथ या सूजन।
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पित्त-श्लेष्म ज्वर  : पुं० [सं० पित्त-श्लेष्मन्, द्व० स०, पित्तश्लेष्म-ज्वर, मध्य० स०] पित्त और कफ दोनों के प्रकोप से होनेवाला एक तरह का ज्वर।
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पित्त-श्लेष्मोल्वण  : पुं० [सं० पित्तश्लेष्म-उल्वण, मध्य० स०] एक प्रकार का सन्निपात ज्वर जिसमें पतला मल निकलता है और सारे शरीर में पीड़ा होती है।
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पित्त-शंसमन  : पुं० [ष० त०] आयुर्वेदोक्त ओषधियों का एक वर्ग। इस वर्ग की ओषधियाँ प्रकुपित पित्त को शांत करनेवाली मानी जाती हैं। चन्दन, लालचंदन, खस, सतावर, नीलकमल, केला, कमलगट्टा आदि इस वर्ग में माने गये हैं।
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पित्त-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. पित्ताशय। २. शरीर के अंदर के वे पाँच स्थान जिनमें वैद्यक के अनुसार पाचक, रंजक आदि ५ प्रकार के पित्त रहते हैं. ये स्थान आमाशय-पक्वाशय, यकृत, प्लीहा हृदय, दोनों नेत्रों और त्वचा हैं।
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पित्त-स्यंदन  : पुं० [मध्य० स०] पित्त के विकार से उत्पन्न एक नेत्र रोग।
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पित्त-स्राव  : पुं० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार, एक प्रकार का नेत्ररोग जिसमें आँखों से पीला (या नीला) और गरम पानी बहता है।
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पित्त-हर  : पुं० [ष० त०] खस। उशीर।
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पित्तहा (हन्)  : पुं० [सं० पित्त√हन्+क्विप्] पित्त पापड़ा। वि० पित्त का प्रकोप शांत करनेवाला।
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पित्तांड  : पुं० [पित्त-अंड, ब० स०] घोडों के अंडकोश में होनेवाला एक रोग।
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पित्ता  : पुं० [सं० पित्त] १. वह थैली जिसमें पित्त रहता है। पित्ताशय। (देखें) २. शरीर के अंदर का पित्त, जिसका मनुष्य के मनोभावों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। पद—पित्तामार काम=ऐसा कठिन काम जो बहुत देर में पूरा होता हो और जिसमें बहुत अधिक तल्लीनता अथवा सहिष्णुता की आवश्यकता हो। मुहा०—पित्ता उबलना या खौलना=किसी कारणवश मन में बहुत अधिक क्रोध उत्पन्न करना। पित्ता निकलना=बहुत अधिक, कष्ट, परिश्रम आदि के कारण शरीर की दुर्दशा होना। पित्ता पानी करना=किसी काम को पूरा करने के लिए बहुत अधिक परिश्रम करना। पित्ता मरना=शरीर में उत्साह, उमंग आदि का बहुत कुछ अंत या अभाव हो जाना। पित्ता मारना=(क) मन के दूषित भाव या बुरी बातें उमड़ने न देना। (ख) मन के उत्साह, उमंग आदि को दबा या रोककर रखना। जैसे—पित्ता मारकर काम करना सीखो। ३. हिम्मत। साहस। हौसला। जैसे—उसका क्या पित्ता है जो तुम्हारे सामने ठहरे। ४. कुछ पशुओं के शरीर से निकला हुआ पित्त नामक पदार्थ जिसका उपयोग औषध के रूप में होता है। जैसे—बैल का पित्ता।
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पित्तातिसार  : पुं० [पित्त-अतिसार, मध्य० स०] वह अतिसार रोग जो पित्त के प्रकोप या दोष से होता है।
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पित्ताभिष्यंद  : पुं० [पित्त-अभिष्यंद, मध्य० स०] पित्त कोप से आँख आने का रोग।
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पित्तारि  : पुं० [पित्त-अरि, ष० त०] १. पित्त-पापडा। २. लाख। ३. पीला चंदन।
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पित्तारुण  : पुं० [सं० पित्त-अरुण] आधुनिक विज्ञान में, शरीर के रक्त रस में रहनेवाला एक रंगीन तत्त्व जिसकी अधिकता से आदमियों को कामला या पीलिया नामक रोग हो जाता है। (बिली रुबिन)।
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पित्ताशय  : पुं० [पित्त-आशय, ष० त०] शरीर के अंदर यकृत के पीछे की ओर रहनेवाली थैली के आकार का वह अंग जिसमें पित्त रहता है। (गालब्लैडर)
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पित्तिका  : स्त्री० [सं० पित्त+कन्+टाप्, इत्व] एक प्रकार की शतपदी (ओषधि)।
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पित्ती  : स्त्री० [हिं० पित्त+ई] १. एक रोग जो पित्त के प्रकोप से रक्त में बहुत अधिक उष्णता होने के कारण होता है तथा जिसमें शरीर के विभिन्न अंगों में छोटे-छोटे ददोरे निकल आते हैं जिन्हें खुजलाते-खुजलाते रोगी विकल हो जाता है। क्रि० वि०—उछलना। २. वे लाल महीन दाने जो गरमी के दिनों में पसीना मरने से शरीर पर निकल आते हैं। अंभौरी। क्रि० प्र०—निकलना। पुं० [सं० पितृव्य] पिता का भाई। चाचा।
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पित्तोत्क्लिष्ट  : पुं० [पित्त-उत्क्लिष्ट, ब० स०] आँख का एक रोग जिसमें पलकों में दाह, क्लेद और पीड़ा होती है तथा ज्योति कम हो जाती है। (वैद्यक)
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पित्तोदर  : पुं० [पित्त-उदर, मध्य० स०] पित्त-गुल्म। (देखें)
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पित्तोन्माद  : पुं० [पित्त-उमाद, मध्य० स०] [वि० पित्तोन्मादिक] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का उन्माद, रोग जिसमें साधारणतः बिना किसी कारण के रोगी बहुत ही खिन्न, चिन्तित और दुःखी रहता है और जो पित्ताशय के ठीक काम न करने से उत्पन्न होता है। (हाइपोकान्ड्रिया)
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पित्तोपहत  : वि० [पित्त-उपहत, तृ० त०] जिसे पिता का प्रकोप हुआ हो।
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पित्तोल्वण सन्निपात  : पुं० [पित्त-उल्वण, तृ० त०, पित्तोल्वण—सन्निपात, कर्म० स०] एक प्रकार का सन्निपात ज्वर। भ्रम, मूर्छा, मुँह और शरीर में लाल दाने निकलना आदि इसके लक्षण हैं। (वैद्यक)
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पित्त  : पुं० [सं० अपि√दो (काटना)+क्त, तादेश, अकार-लोप] १. वैद्यक के अनुसार शरीर के तीन मुख्य तत्त्वों में से एक (अन्य दो वात और कफ है) जो नीलापन लिये तरल होता है और यकृत में बनता है। (बाइल) २. उक्त का प्रमुख गुण, ताप या शक्ति जो भोजन पचाती है। मुहा०—पित्त उबलना=दे० ‘पित्ता’ के अंतर्गत ‘पित्ता खौलना’। पित्त उभरना=पित्त का प्रकोप या विकार उत्त्पन्न होना। (किसी का) पित्त गरम होना=स्वभावतः क्रोधी होना। मिजाज में गरमी होना। जैसे—अभी तुम जवान हो इसी से तुम्हारा पित्त इतना गरम है। पित्त डालना=कै करना।
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पित्त-कर  : वि० [ष० त०] पित्त को बढ़ानेवाला (पदार्थ)।
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पित्त-कास  : पुं० [मध्य० स०] पित्त बिगड़ने के फलस्वरूप होनेवाली एक तरह की खाँसी।
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पित्त-कोष  : पुं० [ष० त०] पित्ताशय। (दे०)
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पित्त-क्षोभ  : पुं० [ष० त०] पित्त के बिगड़ने से होनेवाले विकार।
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पित्त-गुल्म  : पुं० [सं०] पित्त की अधिकता के कारण होनेवाला पेट फूलने का एक रोग।
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पित्तध्न  : वि० [सं० पित्त√हन्+टक्] पित्त का नाश अथवा उसके विकारों को दूर करनेवाला। पुं० घी। घृत।
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पित्तघ्नी  : स्त्री० [सं० पित्तघ्न+ङीष्] गुरुच।
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पित्तज  : वि० [सं० पित्त√जन् (उत्त्पत्ति)+ड] पित्त अथवा उसके प्रकोप से उत्पन्न होनेवाला। जैसे-पित्तज ज्वर, पित्तज शोथ आदि।
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पित्त-ज्वर  : पुं० [मध्य० स०] पित्त बिगड़ने से होनेवाला ज्वर।
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पित्तदाह  : पुं० [सं०] पित्त-ज्वर। (दे०)
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पित्तद्रावी (विन्)  : वि० [सं० पित्त√द्रु (गति)+णिच्+णिनि] पित्त को द्रवित करने अर्थात् पिघलानेवाला। पुं० मीठा नींबू।
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पित्त-धरा  : स्त्री० [ष० त०] पित्त को धारण करनेवाली एक कला या झिल्ली। ग्रहणी।
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पित्त-नाड़ी  : स्त्री० [ष० त०] एक प्रकार का नाड़ी-व्रण जो पित्त के प्रकोप से होता हो। (वैद्यक)
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पित्त-नाशक  : वि० [ष० त०] १. पित्त का नाश करनेवाला। २. पित्त का प्रकोप दूर करनेवाला।
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पित्त-निर्वहण  : वि० [ष० त०]=पित्त-नाशक।
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पित्त-पथरी  : स्त्री० [सं० पित्त+हिं० पथरी] एक प्रकार का रोग जिसमें पित्ताशय अथवा पित्तवाहक नलियों में पित्त की कंकडियाँ बन जाती है। यद्यपि ये पित्ताशय में ही बनती हैं, पर यकृत और पित्त-प्रणालियों में भी पाई जाती है।
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पित्त-पांडु  : पुं० [ब० स०] पित्त के प्रकोप के कारण होनेवाला एक रोग जिसमें रोगी के मूत्र, विष्ठा, और नेत्र के सिवा सारा शरीर पीला हो जाता है।
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पित्त-पाप़ड़ा  : पुं०=पित्तपापड़ा (दे०)।
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पित्त-प्रकृति  : वि० [ब० स०] जिसके शरीर में वात और कफ की अपेक्षा पित्त की प्रधानता या अधिकता हो।
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पित्त-प्रकोप  : पुं० [ष० त०] पित्त के अधिक बढ़ जाने अथवा उसमें विकार होने के फलस्वरूप उसका उग्र रूप धारण करना (जिसके फलस्वरूप अनेक रोग होते हैं)।
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पित्त-प्रकोपी (पिन्)  : वि० [सं० पित्त-प्रकोप, ष० त०+इनि] पित्त को बढ़ाने या कुपित करनेवाला (द्रव्य) जिसे खाने से पित्त की वृद्धि हो।
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पित्त-भेषज  : पुं० [ष० त०] मसूर की दाल।
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पित्त-रंजक  : पुं० [सं०]=पित्तारूण।
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पित्त-रक्त  : पुं० [मध्य० स०] रक्तपित्त नामक रोग।
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पित्तल  : वि० [सं० पित्त+लच्] १. जिसमें पित्त की बहुलता हो। २. जिससे पित्त का प्रकोप या दोष बढ़े। पित्तकारी (द्रव्य)। पुं० १. पीतल। २. हरताल। ३. भोजपत्र।
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पित्तला  : स्त्री० [सं० पित्तल+टाप्] १. जल-पीपल। २. वैद्यक के अनुसार योनि का एक रोग जो दूषित पित्त के कारण होता है। इसके कारण योनि में अत्यन्त दाह, पाक तथा शरीर में ज्वर होता है।
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पित्त-वर्ग  : पुं० [ष० त०] मछली, गाय, घोड़े, रुरु और मोर के पित्तों का समूह। पंचविधपित्त।
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पित्त-वल्लभा  : स्त्री० [ष० त०] काला अतीस।
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पित्त-वायु  : स्त्री० [मध्य० स०] पित्त के प्रकोप से पेट में उत्पन्न होनेवाली वायु।
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पित्त-विदग्ध  : वि० [तृ० त०] जिसका पित्त कुपित हो।
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पित्त-विदग्ध-दृष्टि  : पुं० [ब० स०] आँख का एक रोग जो दूषित पित्त के दृष्टि स्थान में आ जाने के कारण होता है। इसके कारण रोगी दिन में नहीं देख सकता केवल रात में देखता है।
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पित्त-विसर्प  : पुं० [मध्य० स०] विसर्प रोग का एक भेद।
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पित्त-व्याधि  : स्त्री० [मध्य० स०] पित्त के कुपित होने से होनेवाला रोग।
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पित्त-शमन  : वि० [ष० त०] पित्त का प्रकोप दूर करनेवाला।
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पित्त-शूल  : वि० [मध्य० स०] पित्त के प्रकोप के कारण होने वाला शूल।
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पित्त-शोथ  : पुं० [मध्य० स०] पित्त के प्रकोप के कारण होनेवाला शोथ या सूजन।
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पित्त-श्लेष्म ज्वर  : पुं० [सं० पित्त-श्लेष्मन्, द्व० स०, पित्तश्लेष्म-ज्वर, मध्य० स०] पित्त और कफ दोनों के प्रकोप से होनेवाला एक तरह का ज्वर।
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पित्त-श्लेष्मोल्वण  : पुं० [सं० पित्तश्लेष्म-उल्वण, मध्य० स०] एक प्रकार का सन्निपात ज्वर जिसमें पतला मल निकलता है और सारे शरीर में पीड़ा होती है।
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पित्त-शंसमन  : पुं० [ष० त०] आयुर्वेदोक्त ओषधियों का एक वर्ग। इस वर्ग की ओषधियाँ प्रकुपित पित्त को शांत करनेवाली मानी जाती हैं। चन्दन, लालचंदन, खस, सतावर, नीलकमल, केला, कमलगट्टा आदि इस वर्ग में माने गये हैं।
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पित्त-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. पित्ताशय। २. शरीर के अंदर के वे पाँच स्थान जिनमें वैद्यक के अनुसार पाचक, रंजक आदि ५ प्रकार के पित्त रहते हैं. ये स्थान आमाशय-पक्वाशय, यकृत, प्लीहा हृदय, दोनों नेत्रों और त्वचा हैं।
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पित्त-स्यंदन  : पुं० [मध्य० स०] पित्त के विकार से उत्पन्न एक नेत्र रोग।
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पित्त-स्राव  : पुं० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार, एक प्रकार का नेत्ररोग जिसमें आँखों से पीला (या नीला) और गरम पानी बहता है।
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पित्त-हर  : पुं० [ष० त०] खस। उशीर।
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पित्तहा (हन्)  : पुं० [सं० पित्त√हन्+क्विप्] पित्त पापड़ा। वि० पित्त का प्रकोप शांत करनेवाला।
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पित्तांड  : पुं० [पित्त-अंड, ब० स०] घोडों के अंडकोश में होनेवाला एक रोग।
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पित्ता  : पुं० [सं० पित्त] १. वह थैली जिसमें पित्त रहता है। पित्ताशय। (देखें) २. शरीर के अंदर का पित्त, जिसका मनुष्य के मनोभावों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। पद—पित्तामार काम=ऐसा कठिन काम जो बहुत देर में पूरा होता हो और जिसमें बहुत अधिक तल्लीनता अथवा सहिष्णुता की आवश्यकता हो। मुहा०—पित्ता उबलना या खौलना=किसी कारणवश मन में बहुत अधिक क्रोध उत्पन्न करना। पित्ता निकलना=बहुत अधिक, कष्ट, परिश्रम आदि के कारण शरीर की दुर्दशा होना। पित्ता पानी करना=किसी काम को पूरा करने के लिए बहुत अधिक परिश्रम करना। पित्ता मरना=शरीर में उत्साह, उमंग आदि का बहुत कुछ अंत या अभाव हो जाना। पित्ता मारना=(क) मन के दूषित भाव या बुरी बातें उमड़ने न देना। (ख) मन के उत्साह, उमंग आदि को दबा या रोककर रखना। जैसे—पित्ता मारकर काम करना सीखो। ३. हिम्मत। साहस। हौसला। जैसे—उसका क्या पित्ता है जो तुम्हारे सामने ठहरे। ४. कुछ पशुओं के शरीर से निकला हुआ पित्त नामक पदार्थ जिसका उपयोग औषध के रूप में होता है। जैसे—बैल का पित्ता।
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पित्तातिसार  : पुं० [पित्त-अतिसार, मध्य० स०] वह अतिसार रोग जो पित्त के प्रकोप या दोष से होता है।
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पित्ताभिष्यंद  : पुं० [पित्त-अभिष्यंद, मध्य० स०] पित्त कोप से आँख आने का रोग।
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पित्तारि  : पुं० [पित्त-अरि, ष० त०] १. पित्त-पापडा। २. लाख। ३. पीला चंदन।
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पित्तारुण  : पुं० [सं० पित्त-अरुण] आधुनिक विज्ञान में, शरीर के रक्त रस में रहनेवाला एक रंगीन तत्त्व जिसकी अधिकता से आदमियों को कामला या पीलिया नामक रोग हो जाता है। (बिली रुबिन)।
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पित्ताशय  : पुं० [पित्त-आशय, ष० त०] शरीर के अंदर यकृत के पीछे की ओर रहनेवाली थैली के आकार का वह अंग जिसमें पित्त रहता है। (गालब्लैडर)
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पित्तिका  : स्त्री० [सं० पित्त+कन्+टाप्, इत्व] एक प्रकार की शतपदी (ओषधि)।
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पित्ती  : स्त्री० [हिं० पित्त+ई] १. एक रोग जो पित्त के प्रकोप से रक्त में बहुत अधिक उष्णता होने के कारण होता है तथा जिसमें शरीर के विभिन्न अंगों में छोटे-छोटे ददोरे निकल आते हैं जिन्हें खुजलाते-खुजलाते रोगी विकल हो जाता है। क्रि० वि०—उछलना। २. वे लाल महीन दाने जो गरमी के दिनों में पसीना मरने से शरीर पर निकल आते हैं। अंभौरी। क्रि० प्र०—निकलना। पुं० [सं० पितृव्य] पिता का भाई। चाचा।
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पित्तोत्क्लिष्ट  : पुं० [पित्त-उत्क्लिष्ट, ब० स०] आँख का एक रोग जिसमें पलकों में दाह, क्लेद और पीड़ा होती है तथा ज्योति कम हो जाती है। (वैद्यक)
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पित्तोदर  : पुं० [पित्त-उदर, मध्य० स०] पित्त-गुल्म। (देखें)
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पित्तोन्माद  : पुं० [पित्त-उमाद, मध्य० स०] [वि० पित्तोन्मादिक] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का उन्माद, रोग जिसमें साधारणतः बिना किसी कारण के रोगी बहुत ही खिन्न, चिन्तित और दुःखी रहता है और जो पित्ताशय के ठीक काम न करने से उत्पन्न होता है। (हाइपोकान्ड्रिया)
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पित्तोपहत  : वि० [पित्त-उपहत, तृ० त०] जिसे पिता का प्रकोप हुआ हो।
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पित्तोल्वण सन्निपात  : पुं० [पित्त-उल्वण, तृ० त०, पित्तोल्वण—सन्निपात, कर्म० स०] एक प्रकार का सन्निपात ज्वर। भ्रम, मूर्छा, मुँह और शरीर में लाल दाने निकलना आदि इसके लक्षण हैं। (वैद्यक)
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