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प्रेम  : पुं० [सं० प्रिय+इमनिच, प्र आदेश] [वि० प्रेमी] किसी के मन में होनवाला कोमल भाव जो किसी ऐसे काम, चीज, बात या व्यक्ति के प्रति होता है जिसे वह बहुत अच्छा, प्रशंसनीय तथा सुखद समझता है अथवा जिसके साथ वह अपना घनिष्ठ संबंध बनाये रखना चाहता है। प्रीति। मुहब्बत। जैसे—(क) काव्य, चित्रकला, जाति, देश आदि के प्रति होनेवाला प्रेम। (ख) भाई-बहन माता-पुत्र में होनेवाला प्रेम। विशेष—अपने विशुद्ध और विस्तृत रूप में यह ईश्वरीय तत्त्व या ईश्वरता का व्यक्त रूप माना जाता है और सदा स्वार्थ-रहित तथा दूसरों क सर्वतोमुखी कल्याण के भावों से ओतप्रोत होता है। इसमें दया, सहानुभूति आदि प्रचुर मात्रा में होती है। २. श्रृंगारिक तथा साहित्यिक क्षेत्रों में, वह मनोभाव जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे के गुण, रूप, व्यवहार, स्वभाव आदि पर रीझकर सदा पास या साथ रहना और एक दूसरे को अपना बनाकर प्रसन्न तथा संतुष्ट रखना चाहते हैं। प्रीति। मुहब्बत। विशेष—यह अनुराग तथा स्नेह का बहुत आगे बढ़ा हुआ रूप है; और प्रायः इसके मल में या काम-वासना या तृप्ति से प्राप्त होनेवाला सुख होता है; या काम-वासना की तृप्ति करना इसका उद्देश्य होता है। अनुराग या स्नेह तो मुख्यतः लैंगिक सम्बन्ध होने से पहले होते हैं; परन्तु प्रेम प्रायः किसी न किसी प्रकार के शारीरिक संबंध का परिचायक होता है। स्त्री और पुरुष जाति के जीव जन्तुओं में यह कामज की होता है। ३. केशव के अनुसार एक प्रकार का अलंकार। ४. संसारिक बातों के प्रति होनेवाली माया या लोभ। ५. आनन्द। प्रसन्नता।
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प्रेम-कलह  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] प्रेम के प्रसंग में किया जानेवाला या होनेवाला झगड़ा।
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प्रेम-गर्विता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] साहित्य में वह नायिका जो इस बात का गर्व आ अभिमान करती है कि मेरा पति या प्रेमी मुझसे अधिक प्रेम करता है।
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प्रेम-जल  : पुं० [सं० ष० त० या मध्य० स०] प्रेमाश्रु।
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प्रेमजा  : स्त्री० [सं०] मरीचि (ऋषि) की पत्नी का नाम।
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प्रेम-नीर  : पुं०=प्रेमाश्रु।
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प्रेमपात्र  : पुं० [सं० ष० त०] [स्त्री० प्रेम-पात्री] १. वह व्यक्ति जिससे प्रेम किया जाय। २. वह जिस पर किसी की विशेष कृपा-दृष्टि हो।
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प्रेम-पाश  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. प्रेम का फंदा या जाल। २. आलिंगन।
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प्रेम-पुलक  : स्त्री० [सं० तृ० स०] आवेग के कारण होनेवाला रोमांच।
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प्रेम-भक्ति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०]=प्रेम-लक्षणा।
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प्रेम-मार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] वह मार्ग जो मनुष्य को सांसारिक विषयों में फंसाता है। अविद्या-मार्ग।
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प्रेम-लक्षणा  : स्त्री० [सं० ब० स०] भक्ति का वह प्रकार जिसकी साधना पुष्टमार्ग (देखें) में होती है। उदा०—श्रवण, कीर्तन, पाद-रत, अरचन, वंदन, दास, सख्य अरु आत्मनिवेदन प्रेम-लक्षणा जास।—सूर।
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प्रेम-लेश्या  : स्त्री० [सं०] जैनों के अनुसार वह वृत्ति जिसके अनुसार मनुष्य विद्वान, दयालु, विवेकी होता तथा निस्वार्थ भाव से सबसे प्रेम करता है।
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प्रेमवती  : स्त्री० [सं० प्रेमन्+मतुप्] १. पत्नी। २. प्रेमिका।
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प्रेम-वारि  : पुं०=प्रेमाश्रु।
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प्रेमा  : पुं० [सं० प्रेमन्] १. प्रेम। २. प्रेमी। ३. इंद्र। ४. वायु। ५. उपजाति वृत्त का ग्यारहवाँ भेद जिसके पहले, दूसरे और चौथे चरणों में क्रमशः जतजगण और दो गुरु और तीसरे चरण में क्रमशः ततज और दो गुरु होते हैं।
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प्रेमाक्षेप  : पुं० [सं० प्रेमन्-आक्षेप, ब० स०] केशव के अनुसार आक्षेप अलंकार का एक भेद जिसमें भेद का निवेदन करते समय किसी प्रेम-जन्य कार्य से ही उसमें बाधा होने का वर्णन होता है।
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प्रेमालाप  : पुं० [सं० प्रेमन्-आलाप मध्य० स०] १. आपस में प्रेमपूर्वक होनेवाली बातचीत। २. दो प्रेमियों में होनेवाली बातचीत।
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प्रेमालिंगन  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. किसी को प्रेमपूर्वक गले लगाना। २. कामशास्त्र के अनुसार नायक और नायिका का एक विशेष प्रकार का आलिंगन।
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प्रेमाश्रु  : पुं० [प्रेमन्-अश्रु, मध्य० स०] वे आँसू जो प्रेम के आधिक्य के समय आप से आप आँखों से निकलने लगते हैं।
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प्रेमिक  : वि० [सं०] [स्त्री० प्रेमिका]=प्रेमी।
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प्रेमी (मिन्)  : वि० [सं० प्रेमन्+इनि] किसी से प्रेम करनेवाला। जैसे—देश-प्रेमी, साहित्य-प्रेमी। पुं० १. वह व्यक्ति जो किसी स्त्री विशेषतः प्रेमिकी से प्यार करता हो। २. किसी स्त्री के साथ अनुचित रूप से संबंध रखनेवाला व्यक्ति। यार।
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