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बिगड़ना  : अ० [सं० विकार, हिं० बिगाड़] १. किसी तत्त्व या पदार्थ के गुण, प्रकृति, रूप आदि में ऐसा विकार या खराबी होना जिससे उसकी उपयोगिता, क्रियाशीलता या महत्त्व कम हो जाय या न रह जाय। प्रकृत स्थिति से गिरकर विकृत या खराब होना। जैसे—(क) बासी होने या सड़ने के कारण खाद्य पदार्थ का बिगड़ना। (ख) पुरजा टूटने के कारण कल या यंत्र बिगड़ना। २. किसी क्रिया के होते रहने या किसी चीज के बनने के समय उसमें कोई ऐसी खराबी आना कि काम ठीक या पूरा न उतरे। जैसे—(क) पकाने के समय भोजन या सिलाई के समय कुरता या कोट बिगड़ना। (ख) गवाही के समय गवाह बिगड़ना। ३. अच्छी या ठीक अवस्था से खराब या बुरी स्थिति में आना। जैसे—(क) जरा-सी भूल से किया कराया काम बिगड़ना। (ख) घर की स्थिति या देश की शासन व्यवस्था बिगड़ना। ४. आपस के व्यवहर में ऐसी खराबी या दोष आना कि सुगमतापूर्वक निर्वाह न हो सके। जैसे—(क) शासन से पीड़ित होने पर प्रजा का बिगड़ना। (ख) भाइयों में आपस में बिगड़ना। ५. आचरण, प्रवृत्ति, स्वभाव आदि में ऐसा दोष या विकार उत्पन्न होना कि नीति, न्याय। सभ्यता आदि के विरुद्द समझा जाता हो। उचित पथ से भ्रष्ट होना। जैसे—(क) गलियो के लड़को के साथ रहते-रहते तुम्हारी जबान भी बिगड़ जाती है। (ख) बुरी संगति में अच्छा आदमी भी बिगड़ जाता है। ६. व्यक्तियों के संबंध में किसी पर क्रुद्ध या नाराज होकर उसे बड़ी बातें सुनाना। जैसे—आज भाई साहब हम लोगों पर बिगड़े थे। ७. पशुओं आदि के संबंध में क्रुद्ध होने के कारण नियंत्रण या वश से बाहर होकर उपद्रव या खराबी करना। जैसे—जुते हुए घोड़े (या बैल) जब बिगड़ जाते हैं तब गाड़ी (या हल) तक तोड़ डालते हैं। ८. रुपये पैसे के संबंध में बुरी तरह से व्यर्थ व्यय होना। जैसे—तुम्हारे फेर में हमारे दस रूपये बिगड़ गये।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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