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शब्द का अर्थ

बींझ  : पुं० [?] चना।
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बींट  : पुं० [?] घेरा (राज०)।
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बींड़  : पुं० १.=बीड़ा। २.=बीड़ा। स्त्री०=बीड़।
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बीड़ा  : पुं० [?] [स्त्री० अल्पा० बीड़ी] १. पेड़ की पतली टहनियों से बुनकर बनाया हुआ मेडरे के आकार का लंबा नाल जो कच्चे कुएँ में भगाड़ की मजबूती के लिए लगाया जाता है। २. धान के पयाल को बुन और लपेटकर बनाई हुई गेंड़ुरी जिसपर घड़े रखे जाते हैं। ४. किसी चीज को लपेटकर बनाया हुआ गोला पिंड। लुंड़ा। ५. कोई चीज बाँध या लेपटकर बनाया हुआ बोझ।
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बींड़िया  : पुं० [हिं० बीड़ी] तीन बैलोंवाली गाड़ी में सबसे आगे जोता हुआ बैल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीड़ी  : स्त्री० [हिं० बीड़ा] १. वह मोटी और कपड़े आदि में लपेटी हुई रस्सी जो उस बैल के आगे गले के सामने छाती में रहती है जो तीन बैलों की गाड़ी में सबसे आगे रहता है। २. रस्सी या सूत की वह पिडी जो लकड़ी या किसी और चीज के ऊपर लपेट कर बनायी जाती है। ३. वह लकड़ी जिस पर उक्त सूत लपेटा जाता है। ४. बोझ के नीचे रखने की गेड़ुरी।
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बींदना  : स० [सं० विद्] अनुमान करना। स०=बींधना।
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बींधन  : स्त्री० [हिं० बींधना] १. बीधने की क्रिया या भाव। २. बींधने पर पड़नेवाला चिन्ह या निशान। ३. कठिनता। दिक्कत। उदा०—उसने अपनी कुछ बींधने गिनाई। वृन्दावनलाल वर्मा।
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बींधना  : स० [सं० विद्ध] १. किसी चीज में आर-पार छेद करने के लिए उसमें नोकदार चीज गड़ाना या धँसाना। विद्ध करना। छेदना। जैसे—कान बींधना, मोती बींधना। २. ऊपर से छेद करके अन्दर गड़ाना या धसाना। जैसे—किसी के शरीर में तीर बींधना। ३. बहुत ही चुभती या लगती हुई बात कहना। ४. उलझाना। फँसाना। (क्व०) १. विद्ध या आबद्ध होना। २. फँसा या उलझा रहना।
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बी  : स्त्री० [फा० बीबी का संक्षिप्त रूप] दे० ‘बीबी’। उदा०—बड़ी बी, आपको क्या हो गया है ?—अकबर।
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बीका  : वि० [सं० वक्] टेढ़ा। वक। मुहा०—बाल तक बीका न होना=कुछ भी कष्ट या हानि न पहुँचना।
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बीख  : पुं० [?] पद। कदम। डग। पु०=विष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीग  : पुं० [सं० वृक] [स्त्री० बीगिन] भेड़िया।
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बीगना  : स० [सं० विकिरण] १. छितराना। बिखेरना। २. फेंकना। बीहगाटी—स्त्री० [हिं० बीधा+टी (प्रत्य)] वह लगान जो बीधे के हिसाब से लिया जाता हो।
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बीधा  : पुं० [सं० विउगह, प्रा० विग्गह] खेत नापने का एक वर्ग-मान जो बीस विस्वे का होता है। एक एकड़ का ३/५ वाँ भाग।
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बीच  : पुं० [सं० विच्=अलग करना] १. किसी वस्तु का वह केन्द्रीय अंश या भाग जहाँ से उसके सभी छोर समान दूरी पर पड़ते हों। २. किसी वस्तु के दो छोरों के भीतर का कोई विंदु या स्थान। जैसे—काशी से दिल्ली जाते समय इलाहाबाद, कानपुर और अलीगढ़ बीच में पड़ते हैं। पद—बीच खेत=(क) खुले मैदान। सबके सामने। प्रकट रूप में। (ख) निश्चित रूप से। अवश्य। बीच बीच में।=(क) रह-रहकर। थोड़ी थोड़ी देर में। (ख) थोड़ी थोड़ी दूर पर। २. जगह। स्थान। जैसे—वहाँ तिल घरने को बीच नहीं है। ३. अन्तर। फरक। कि० प्र०—डालना।—पड़ना। मुहा०—बीच डालना या पारना=पार्थक्य या भेद उत्पन्न करना। बीच रखना=मन में पार्थक्य का भाव रखना। दूसरा या पराया समझना। ४. दो पक्षों में झगड़ा या विवाद होने पर उसे निपटाने के लिए की जाने वाली मध्यस्थता। पद—बीच बचाव=दो विरोधी पक्षों के बीच में आकर दोनों पक्षों के हितों की की जानेवाली रक्षा। मुहा०—बीच करना=(क) लड़नेवालों को लड़ने से रोकने के लिए अलग-अलग करना। (ख) दो दलों या पक्षों का आपस का झगड़ा निपटाना। ५. दो वस्तुओं या खंडों के बीच का अन्तर या अवकाश दूरी। मुहा०—(किसी को) बीच मान या रखकर=(क) किसी को मध्यस्थ बनाकर। (ख) किसी को साक्षी बनाकर। जैसे—ईश्वर को बीच मानकर प्रतिज्ञा करना। बीच में कूदना=अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप करना। व्यर्थ टाँग अड़ाना। बीच में पड़ना=(क) झगड़ा निपटाने के लिए मध्यस्थ बनना या होना। पंच बनना। (ख) किसी का जमानतदार या जिम्मेदार बनना। ६. अवसर। मौका। उदा०—चतुर गंभीर राम महतारी। बीच का निज बात सवाँरी।—तुलसी। अव्य० दरमियान। अन्दर में। स्त्री०=वीचि (लहर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीचु  : पुं०=बीच।
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बीचोबीच  : कि० वि० [हिं० बीच] बिलकुल बीच में। जैसे—सड़क के बीचो बीच नहीं चलना चाहिए।
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बीछना  : स० [सं० विचयन] १. चुनना। छाँटना। २. सबको अलग अलग करके देखना।
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बीछी  : स्त्री० [सं० वृश्चिक] बिच्छू। मुहा०—बीछी चढ़ना=बिच्छू के डंक का विष चढ़ना। बीछी मारना=बिच्छू का अपने डंक से किसी पर आघात करना। बिच्छू का काटना।
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बीछू  : पुं० १.=बिच्छू। २.=बिछुआ।
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बीज  : पुं० [सं० बीज] १. अन्न का वह कण जो खेत में बोने के काम आता है। कि० प्र०—उगना।—डालना।—बोना। २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसी आरंभिक बात जो आगे चलकर बहुत बड़ा रूप धारण करती हो। ३. किसी काम, चीज या बात का मुख्य अथवा मूल कारण। ४. जड़ी। ५. कारण। सबब। हेतु। ६. वीर्य। शुक्र। ७. नाटय-शास्त्र में अर्थ प्रकृति की पाँच स्थितियों में से पहली स्थिति जो उसे हेतु का संकेत करती है और जो आगे चलकर फल का कारण होता है। ८. वह भावपूर्ण अव्यक्त सांकेतिक वर्ग-समुदाय या शब्द जिसका अर्थ या आशय सब लोग न समझ सकते हों, केवल जानकर समझ सकते हों। ९. वह अव्यक्त ध्वनि या शब्द जिसमें तंत्रानुसार किसी देवता को प्रसन्न करने की शक्ति मानी गई हो। पद—बीज-मंत्र=बीजाक्षर। (देखे) १॰. मंत्र का प्रधान अंश या भाग। ११. वह अक्षर या चिन्ह जो कोई अज्ञात अथवा अव्यक्त राशि या संख्या सूचित करने के लिए पयुक्त होता है। पद—बीचगणित। (देखें) स्त्री०=बिजली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीजक  : पुं० [सं० वीजक] १. सूची। फिहरिस्त। २. वह सूची जिसमें किसी को भेजे जानेवाले माल का ब्यौरा, दर, मूल्य आदि लिखा रहता है। (इन्वॉयस) ३. वह सूची जो मध्य युग में जमीन में गाड़ी जानेवाली धन-संपत्ति के साथ प्रायः घातु के पत्तर पर उत्कीर्ण कर रखी जाती थी और जिस पर गाड़ने वाले का नाम, समय और धन संपत्ति का विवरण अंकित रहता था। ४. किसी संत या महात्मा के प्रामाणिक पदों या आणियों का संग्रह। जैसे—कबीर का बीजक, दरियादास का १ बीजक आदि। ५. वैद्यक में, जन्म के समय बच्चे की वह अवस्था जब उसका सिर दोनों भुजाओं के बीच में होकर योनि द्वार पर आ जाता है। ६. अनाज़ों, फलों आदि का दाना। बीज। ७. बिजौरा नींबू। ८. असना नामक वृक्ष।
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बीज-कोश  : पुं० [सं० बीचकोश] वनस्पति का वह अंश जिसके अन्दर उसके बीज या दाने बंद रहते हैं।
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बीजक्रिया  : स्त्री [सं० बीजक्रिया] बीजगणित के नियमानुसार गणित के किसी प्रश्न का उत्तर जानने के लिए जानेवाली किया।
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बीजखाद  : पुं० [हिं० बीज+खाद] वह रकम जो मध्य युग में जमींदारों, महाजनों आदि की ओर से किसानों को बीज और खाद आदि खरीदने के लिए दी जाती थी।
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बीजगणित  : पुं० [सं० बीजगणित] गणित का वह प्रकार जिसमें अक्षरों को अज्ञात संख्याओं के स्थान पर मानकर वास्तविक मान या संख्याएँ जानी जाती हैं। (अलजबरा)।
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बीजगर्भ  : पुं० [सं० बीज गर्भ] परवली।
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बीजगुप्ति  : स्त्री० [सं० बीजगुप्ति] १. सेम। २. फली। ३. भूसी। बीजत्य
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बीजदर्शक  : पुं० [सं० वीजदर्शक] नाटकों में वह व्यक्ति जो नाटकों के अभिनय की अवस्था की व्यवस्था करता हो परिदर्शक।
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बीजद्रव्य  : पुं० [सं० वीजद्रव्य] किसी पदार्थ का मूल तत्त्व या द्रव्य।
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बीजधान्य  : पुं० [सं० वीजधान्य] धनियाँ।
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बीजन  : पुं० [सं० व्यजन] पंखा। पुं० [हिं० बीजना] १. बीजने या बोने की किया, ढंग या भाव। २. बीज।
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बीजना  : सं० [हिं० बीज] १. किसी अनाज, पेड़ या पौधे का बीज बोना। २. किसी काम या बात का बीजारोपण करना। पुं० [सं० व्यंजन] पंखा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीजपादप  : पुं० [सं० वीजपादप] भिलावाँ।
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बीजपुष्प  : पुं० [सं० बीजपुष्प] १. मरुआ। २. मदन वृक्ष।
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बीजपूर  : पुं० [सं० १ वीजपूर] १. बिजौरा नींबू। २. चकोतरा।
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बीजपूरक  : पुं०=बीजपूर।
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बीजबंद  : पुं० हि० बीज+बाँधना] खिरैंटी या बरियारे का बीज। बला।
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बीजमंत्र  : पुं० [सं० वीजमंत्र] १. तंत्रशास्त्र में, किसी देवता के उद्देश्य से निश्चित किया हुआ मूल-मंत्र। २. कोई काम करने का वह ढंग जो सबसे सुगम हो और जिससे वह काम निश्चित रूप से पूरा होता हो। मूल-मंत्र गुर।
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बीजमातृका  : स्त्री० [सं० वीजमातृका] कमलगट्ठा।
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बीजमार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] वाममार्ग का एक भेद।
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बीजमार्गी  : पुं० [सं० वीजमार्गी] बीजमार्ग पंथ के अनुयायी।
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बीजरत्न  : पुं० [सं० वीजरत्न] उड़द की दाल।
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बीजरी  : पुं०=बिजली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीजरेचन  : पुं० [सं० वीजरेचन] जमालगोटा।
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बीजल  : पुं० [सं० वीजल] वह जिसमें बीज हो। वि० बीज-युक्त। स्त्री० [हिं० बिजली] तलवार। (डिं०)
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बीजवाहन  : पुं० [सं० वीजवाहन] शिव।
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बीजवृक्ष  : पुं० [सं० वीजवृक्ष] असना का पेड़।
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बीजसि  : स्त्री० [सं० द्वितीय] चांद्र मास की दूसरी तिथि। द्वितीया। दूज। उदा०—पड़वा आनंदा बीजसि चंदा पाँचों लेबा पाली—गोरखनाथ।
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बीजसू  : स्त्री० [सं० वीजयू] पृथ्वी।
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बीजहरा  : स्त्री० [सं० वीजहरा] १. एक डाकिनी का नाम। २. जादूगरनी।
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बीजांक प्रक्रिया  : स्त्री० [सं० वीजांक प्रक्रिया] गुप्त रूप से पत्र आदिलिखने या समाचार भेजने की वह प्रकिया जिसमें अभिप्रेत अक्षरों के स्थान पर सांकेतिक रूप से कुछ दूसरे ही अक्षर, जिन्ह आदि अंकित किये अथवा कुछ विशिष्ट और असाधारण कम से रखे जाते हैं। (साइफ़र प्रोसिज्योर)
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बीजांकुर  : पुंय [सं० वीजांकुर] बीज से निकलनेवाला अंकुर।
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बीजांकुर न्याय  : पुं० [सं० वीजांकुर न्याय] तर्कशास्त्र में वह स्थिति जिसमें यह पता न चले कि दो तत्त्वों में से कौन किसका कारण या मूल है। जैसे—पहले बीज हुआ या वृक्ष अथवा पहले अंडा बना या चिड़िया।
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बीजांड  : पुं० [सं० वीज+अंड] १. जीव-विज्ञान में भ्रूण का वह आरम्भिक और मूल रूप जिसके विकसित होने पर भ्रूण का रूप बनता है। २. वनस्पति विज्ञान में, बीज का आरम्भिक और मूल रूप। (ओव्यूल)
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बीजा  : वि० सं० द्वितीया, पा० द्वितियों, प्रा० दुओ पु० हि० दूज्जा] दूसरा। पुं०=बीज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीजाक्षर  : पुं० [सं० वीजाक्षर] किसी बीज मंत्र का पहला अक्षर।
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बीजाख्य  : पुं० [सं० वीजाख्य] जमालगोटा।
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बीजारोपण  : वि० [सं० वीज-आरोपण] १. खेत में बीज बोना। २. छोटे रूप में कोई ऐसा काम करना जिसका आगे चलकर बहुत बड़ा परिणाम हो।
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बीजाश्व  : पुं० [सं० वीज-अश्व] कोतल घोड़ा।
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बीजित  : भू० कृ० [सं० वीजित] जिसमें बीज बोया जा चुका हो। बोया हुआ।
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बीजी  : वि० [सं० वीजिन्] १. बीज या बीजों से युक्त। जिसमें बीज हो या हों। २. बीज-संबंधी। पुं० पिता। बाप। स्त्री० [हिं० बीज] १. फल के अंदर की गिरी। मींगी। २. फल की गुठली। स्त्री०=बिजली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीजुपाता  : पुं०=वज्त्रपात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीजुरी  : स्त्री०=बिजली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीजू  : वि० [हिं० बीज+ऊ (प्रत्य०)] १. (पौधा) जो बीज बोने से उगा हो। कलमी से भिन्न। २. (फल) जो उक्त प्रकार के पौधे या वृक्ष का हो। जैसे—बीजू आम, बीजू नींबू। पुं० १.=बिज्जु। २.=बिज्जू।
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बीजोदक  : पुं० [सं० वीज-उदय] ओला।
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बीज्य  : वि० [सं० वीज्य] १. अच्छे बीज से उत्पन्न। २. अच्छे कुल में उत्पन्न। कुलीन।
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बीझ  : वि० [?] घना। सधन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बीझना  : अ०=बझना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीझा  : वि० [सं० विजन] (स्थान) जहाँ मनुष्य न हों। निर्जन। एकांत। पुं० निर्जन स्थान।
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बीट  : स्त्री० [सं० विट्] १. पक्षियों की विष्ठा। चिड़ियो का गुह। २. गुह। मल। ३. बहुत ही तुच्छ या हेय वस्तु। (व्यंग्य) पुं०=विटलवण।
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बीटिका  : स्त्री०=वीटिका (पान की बीड़ा)।
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बीठल  : पुं०=बिट्ठल।
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बीड़  : स्त्री० [सं० वीट या वीटक] एक पर रखे हुए सिक्कों का थाक। जैसे—रुपयों की बीड़। पुं०=बींड।
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बीड़ा  : पुं० [सं० वीटक] १. पान के पत्ते पर कत्था, चूना आदि लगाकर तथा उस पर सुपारी आदि रखकर उसे (पत्ते को) विशेष प्रकार से मोड़कर दिया जानेवाला तिकोना रूप। खीली। गिलौरी। रखकर यह कहना कि जो इसका भार अपने ऊपर लेना चाहता हो, वह यह बीड़ा उठा ले। विशेष—मध्य युग में राज-दरबारों में यह प्रथा थी कि जब कोई विकट काम सामने आता था, तब थाली में पान का बीड़ा, सबके बीच में रख दिया जाता था। जो व्यक्ति वह काम करने का उत्तरदायित्व या भार अपने ऊपर लेने को प्रस्तुत होता था, वह पान का बीड़ा उठा लेता था। इसी से उक्त मुहा०—बने हैं। २. उक्त प्रथा के आधार पर, परवर्ती काल में, कोई काम करने के लिए किसी को नियुक्त करने के संबंध में होनेवाला पारस्परिक निश्चय। मुहा०—बीड़ा-देना=(क) किसी को कोई काम करने का भार सौपना। (ख) नाचने-गाने, बाजा बजाने आदि का पेशा करनेवालों को कुछ पेशगी धन देकर यह निश्चय करना कि अमुक दिन या अमुकसमय पर आकर तुम्हें अपनी कला का प्रदर्शन करना होगा। ३. तलवार की म्यान के ऊपरी सिरे की वह डोरी जिससे तलवार की मूठ से म्यान बाँधी जाती है।
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बीड़िया  : वि० [हिं० बीड़ा+इया (प्रत्य)] बीड़ा उठानेवाला। पुं० अगुआ नेता।
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बीड़ी  : स्त्री० [हिं० बीड़ा] १. पान का छोटा बीड़ा। २. मिस्सी, जिसे मलने से होंठ उसी प्रकार रंगीन हो जाते हैं, जिस प्रकार पान खाने से होते हैं। ३. तम्बाकू। ४. कुछ विशिष्ट प्रकार के पत्तों में तम्बाकु का चूर्ण लपेटकर बनाया जानेवाला एक तरह का छोटा लंबोतरा पिंड जिसे सुलगाकर सिगरेट की तरह पीया जाता है। ५. एक प्रकार की नाव। ६. कलाई पर पहनने का चूड़ी की तरह का एक गहना। ७. दे० ‘बीड़’ (गड्डी)। ८. वह सामान तथा नकदी जो विवाह की बात पक्की होने पर कन्यापक्षवालों के यहाँ से वरपक्षों के यहां भेजी जाती है। (पूरब)
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बीत  : स्त्री० [सं० वृत्त] वह धन जो छोटे-मोटे काम करनेवाले लोगों नेगियों आदि को पारिश्रमिक या वृत्ति के रूप में दिया जाता है। बीतक
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बीतना  : अ० [सं० व्यतीत] १. काल-मान की दृष्टि से घटना, बात आदि का वर्तमान से होते हुए भूत में जाना। जैसे—दिन या समय बीतना। २. लाक्षणिक अर्थ में किसी घटना, बात आदि का फल-भोग सहन किया जाना। जैसे—उन दिनों हम पर जो बीती थी, वह हम ही जानते हैं। ३. किसी काम, चीज या बात का अन्त या समाप्ति होना। उदा०—(क) बीती ताहि बिसारि देइ, आगे की सुध लेई।—गिरधर। (ख) सब के भय बीते।
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बीता  : पुं०=बित्ता (लंबाई की नाप)।
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बीथि (थी)  : स्त्री०=वीथी।
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बीथित  : वि०=व्यथित।
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बीदर  : पुं० [सं० विदर्भ] १. विदर्भ देश का एक नगर। २. एक प्रकार की उपधातु जो ताँवे और जस्ते के मेल से बनती है। (आरंभ में वह बीदर नगर में बनी थी, इसीलिए इसका यह नाम पड़ा।
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बीदरी  : स्त्री० [हिं० बीदर] जस्ते और ताँबें के मेल में बरतन आदि बनाने का काम जिसमें बीच-बीच में सोने या चाँदी के तारों से नक्काशी की हुई होती है। बीदर की धातु का काम। वि० १. बीदर-संबंधी। बीदर का। २. बीदरी की धातु का बना हुआ।
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बीदरीसाज  : पुं० [हिं० बीदर+फा० साज] वह जो बीदर की धातु से बरतन आदि बनाता हो। बीदर का काम बननेवाला।
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बीध  : अव्य० [सं० विधि] विधिपूर्वक।
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बीधन  : स्त्री०=बींघन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीधना  : सं०=बींधना। अ०=विधना।
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बीधा  : पुं० [सं० विधान] मालगुज़ारी निश्चित करने की किया या भाव।
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बीन  : स्त्री० [सं० वीणा] १. सितार की तरह का पर उससे बड़ा एक प्रकार का प्रसिद्ध बाजा। वीणा। २. सँपेरों के बजाने की तूमड़ी। ३. उक्त के बजाने पर होनेवाला शब्द। ४. बाँसुरी। वि० [सं० वीक्षण से फा०] [भाव० बीनी] १. देखनेवाला। यौ० के अन्त में। जैसे—तमाशबीन। २. दिखानेवाला। जैसे—दूरबीन।
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बीनकार  : पुं० [हिं० बीन+फा० कार] [भाव० बीनकारी] वह जो बीन या वीणा बजाने में प्रवीण हो।
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बीनना  : स० [सं० विनयन] १. दे० ‘चुनना’। २. छोटी-छोटी चीजों तो उठाना। ३. चीजें अलग करना। छाँटना। स० १.=बींधना। २.=बुनना। उदा०—बीनो स्नेह सुरुचि संयम से शील-वसन नव भव यौवन का।—पंत।
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बीनी  : स्त्री० [फा०] देखने की किया या भाव। जैसे—तमाशबीनी, सैरबीनी आदि।
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बीफै  : पुं० [सं० बृहस्पति] बृहस्पतिवार। गुरुवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीबी  : स्त्री० [फा०] १. कुल बधू। कुलीन स्त्री। महिला। २. जोरू। पत्नी। ३. पश्चिम में स्त्रियों के लिए आदरसूचक सम्बोधन। जैसे—बीबी हरबंस कौर। ४. अविवाहित कन्या तथा माता के लिए सम्बोधन। (पश्चिम)
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बीभच्छ  : वि०=वीभत्स।
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बीभत्स  : वि०=वीभत्स।
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बीभत्सु  : पुं० [सं० बध्+सन्, द्वित्वादि,+उ] १, अर्जुन। २. अर्जुन नामक वृक्ष।
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बीम  : पुं० [अं०] १. शहतीर। २. जहाज के पार्श्व में लंबाई के बल में लगा हुआ बड़ा शहतीर। आड़ा। (लश०) ३. जहाज का मस्तूल। पुं० [फा० [डर। भय।
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बीना  : पुं० [फा० बीम=भय] १. किसी प्रकार की हानि विशेषतः आर्थिक हानि पूरी करने की वह जिम्मेदारी जो कुछ निश्चित धन मिलने पर उसके बदले में अपने ऊपर ली जाती है। कुछ धन लेकर इस बात का भार अपने ऊपर लेना कि यदि अमुक कार्य में अमुक प्रकार की हानि होगी तो उसकी पूर्ति हम इतना धन देकर कर देंगे। (इन्श्योरेंन्स) विशेष—ऐसी जिम्मेदारी बाहर भेजी जानेवाली चीजों और दुर्घटनाओं से होनेंवाली धन-जन की हानि के संबंध मे, पारस्परिक समझौते से होती है, और बीमा करनेवाले को उसके बदले में कुछ निश्चित धन एक साथ अथवा कुछ किश्तों में देना पड़ता है। २. वह पत्र जिसपर उक्त प्रकार के समझौते की शर्तें लिखी होती हैं और जिस पर दोनों पक्षों के हस्ताक्षर होते हैं। ३. वह पत्र या पारसल जिसकी हानि आदि के संबंध में उक्त प्रकार की जिम्मेदारी ली या सौंपीं गई हो।
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बीमार  : विं० [फा०] १. जो किसी रोग विशेषतः किसी ज्वर से पीड़ित हो। कि० प्र०—पड़ना।—होना। २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसा व्यक्ति जो किसी उग्र भावावेश, संताप आदि के कारण उत्क्षिप्त तथा अस्वस्थ बना रहता हो।
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बीमारदार  : वि० [फा०] [भाव० बीमारदारी] रोगी की सेवा-सुश्रूषा करनेवाला।
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बीमारदारी  : स्त्री० [फां०] रोगियों की सेवा-सुश्रूषा।
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बीमारी  : स्त्री० [फा०] १. बीमार होने की अवस्था या भाव। जैसे—बीमारी में भी वे भोजन किये चलते हैं। २. वह विकार जिसके फल-स्वरूप शरीर अस्वस्थ तथा रुग्ण रहता है। ३. बुरी आदत। दुव्यर्सन। ४. झगड़े या झंझट का काम।
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बीय  : वि०=बीजा (दूसरा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीया  : वि० [सं० द्वितीय] दूसरा। पुं० [हिं० बीज] बीज। (दे० ) पुं०=बया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीरउ  : पुं०=बिरवा।
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बीरज  : पुं०=वीर्य।
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बीरत  : पुं०=वीरत्व (वीरता)।
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बीरन  : पुं० [सं० वीर] स्त्रियों का अपने भाई के लिए सम्बोधन। वीर।
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बीरनि  : स्त्री० [सं० वीर] कान में पहनने का एक प्रकार का गहना। तरना। बीरी।
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बीर-बहूटी  : स्त्री० [सं० विर+बधूटी] गहरे लाल रंग का छोटा रेंगनेवाला कीड़ा, जो देखने में बहुत ही सुन्दर होता है।
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बीरा  : पुं० [हिं० बीड़ा] १. वह फूल, फल आदि जो देवता के प्रसाद स्वरूप भक्तों आदि को मिलता है। २. दे० ‘बीड़ा’।
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बीरी  : स्त्री० [सं० वीरि या हिन्दी बीड़ा] १. ढरकी के बीच में लंबाई के बल वह छेद जिसमें से नरी भरकर तागा निकाला जाता है। २. लोहे का वह छेददार टुकड़ा जिस पर कोई दूसरा लोहा रखकर लोहार छेद करते हैं। ३. कान में पहनने का तरना या बिरिया नाम का वगहना ४. दे० ‘बीड़ी’।
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बीरौ  : पुं०=‘बिरवा’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बील  : वि० [सं० विल] अंदर से खाली। खोखला। पोला। पुं० वह नीची भूमि जिसमें पानी जमा होता है। जैसे—झील आदि की भूमि। पुं० [सं० विल्व] १. एक प्रकार की ओषधि। २. बेल (वृक्ष और फल)। पुं० [सं० वीज मंत्र] मंत्र। उदा०—जब तै वह सिर पढ़ि दियौ हेरन मैं हित बील।—रसनिधि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीवी  : स्त्री०=बीबी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीस  : वि० [सं० विशर्ति, प्रा० वीशति, वीसा] १. जो संख्या में दस का दूना या उन्नीस से एक अधिक हो। पद—बीस बिस्वै=(क) इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि। अधिकतम संभावित रूप में। जैसे—बीस बिस्वे वे आज ही यहाँ आ जायँगे। (ख) भली-भाँति। अच्छी तरह। बीसहू कै=बीस बिस्वे। भली-भाँति। उदा०—मातु-पिता बंधु हित...मोको बीसहू कै ईस अनुकूल आज भो।—तुलसी। २. किसी की तुलना में अच्छा या बढ़कर। जैसे—कुश्ती में यह लड़का औरों से बीस पड़ता है। कि० प्र०—ठहरना।—पड़ना। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती हैं— २॰।
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बीसना  : स० [सं० वेशन] शतरंज या चौसर आदि खेलने के लिए बिसात बिछाना। खेल के लिए बिसात फैलाना।
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बीसरना  : अव्य०=बिसरना (भूलना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बीसवाँ  : विं० [हिं० बीस+वाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० बीसवीं] कम, गिनती आदि में बीस के स्थान पर पड़नेवाला।
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बीसी  : स्त्री० [हिं० बीस] १. एक ही तरह की बीस चीज़ों का समूह। कोड़ी। २. गिनती का वह प्रकार जिसमें बीस बीस वस्तुओं के समूह को एक-एक इकाई मान कर गिना जाता है। ३. गणित ज्योतिष में, साठ संवत्सरों विष्णुबीसी और तीसरी रुद्रबीसी कहलाती है। ४. भूमि की एक प्रकार की नाप जो एकड़ से कुछ कम होती है। ५. उतनी भूमि जिसमें बीस नालियाँ हों। ६. वह लगान जो बीस बिस्वे अर्थात् पूरे बीघे के हिसाब से लगता हो। स्त्री० पुं० [सं० विशिख] तौलने का काँटा। तुला।
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बीह  : पुं० [सं० भस] भय। डर। उदा०—भिड़ दहूँ ऐ भाजै नहीं, नहीं मरण रौ बीह।—बाँकीदास। वि० बीस।
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बीहड़  : वि० [सं० निकट] १. ऊँचा-नीचा ऊबड़खाबड़ विषय जैसे—बीहड़ भूमि। २. जो सम या सरल न हो, अर्थात् बहुत विकट। जैसे—बीहड़ काम। पुं० ऊँची-ऊँची और ऊबड़-खाबड़ भूमि। उदा०—इन लोगों ने अपनी पैदल पल्टन पूर्व और दक्षिण के बीहड़ में छिपा ली।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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बीहर  : वि० [सं० बहिर्] अलग। पृथक्। जुदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बीज  : पुं० [?] घोड़ों का एक भेद। स्त्री० [?] पासंग नामक बकरे की मादा।
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