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बेंग  : पुं० [सं० व्यंग] मेढ़क।
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बेंगनकुटी  : स्त्री० [देश०] अबाली। (दे०)
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बेंच  : स्त्री० [अं०] १. पत्थर आदि का बना हुआ पाश्चात्य ढँग का एक आसन जो कुरसी से कई गुना लंबा होता है। तथा जिस पर कई आदमी एक साथ बैठ सकते हैं। २. राजकीय न्यायालयों मे न्यायाधीशों के बैठने का स्थान। ३. संसद भवन मे दल विशेष के सदस्यों का बैठने का स्थान।
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बेंचना  : स०=बेचना।
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बेंट  : स्त्री० [सं० वंट] औजारों आदि में लगा हुआ काठ आदि का दस्ता मूठ। दस्ता। जैसे—छुरी की बेंट।
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बेंठ  : स्त्री०=बेंट।
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बेंड  : पुं० [देश०] १. वह भेड़ा जो भेड़ों के झुंड में बच्चे उत्पन्न करने के लिए छूटा रहता है। (गड़रिये) २. नगद रुपया। (दलाल) ३. किसी भारी चीज को गिरने से बचाने के लिए उसके नीचे लगाया जानेवाला सहारा। चाँड़। ४. पड़ाव। (क्व) स्त्री० [हिं० बेड़ा] टेक। चाँड़।
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बेंड़ना  : स०=बेढ़ना (बाढ़ लगाना)।
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बेंडा  : पुं०=बेंवड़ा। वि० [हिं० बेड़ा (आड़ा या तिरछा)] १. आड़ा। तिरछा। २. कठिन। पुं०=ब्योंड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेंड़ी  : स्त्री० [देश०] १. एक तरह की चौड़े मुँहवाली छिछली टोकरी जिससे गड्ढे आदि में भरा हुआ पानी खेतों में उलीचा जाता है। २. हँसिया के आकार का लोहे का एक औजार जिससे बरतनों पर जिला करते है।
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बेढ़  : पुं० [?] जहाज के खंभे के ऊपरी सिरे पर लगा रहनेवाला घातु का पत्तर जो हवा का रुख बतलाता है। (लश)
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बेंत  : पुं० [सं० बेतस्] १. खजूर, ताड़ आदि की जाति की एक प्रसिद्धलता जो पूर्वी एशिया और उसके आस-पास के टापुओं में जलाशयों के पास अधिकता से होती है। इसकी छड़िया बनती है और इसके छिलकों आदि से कुर्सियाँ, टोकरियाँ आदि बुनी जाती हैं। २. उक्त के डंठल की बनी हुई छड़ियाँ बनती हैं और इसके छिलकों आदि के कुर्सियाँ, टोकरियाँ आदि बुनी जाती है। २. उक्त के डंढल की बनी हुई छड़ी या डंडा। मुहा०—बेंत की तरह काँपना= थरथर काँपना। बहुत अधिक डरना। जैसे—यह लड़का आपको देखते ही बेंत की तरह काँपता है।
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बेंदली  : स्त्री०=बिंदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेदा  : पुं० [सं० बिदु] १. माथे पर लगाया जानेवाला चंदन आदि का गोल टीका। २. माथे पर पहनने का बंदी या बेंदी नाम का गहना।
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बेंदी  : स्त्री० [सं० बिंदु० हि० विदी] १. टिकली। बिंदी। २. बिदी। सिफर। सुन्ना। ३. माथे पर पहनने का बेंदी नाम का गहना। ४. सरों के पेड़ की तरह का अंकन या चित्रण।
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बेंवड़ा  : पुं०=ब्योंड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेंवताना  : सं० [हिं० व्योतना का प्रे०] ब्योंतनें का काम दूसरे से कराना। सिलाने के लिए किसी से कपड़ा नपवाना और कटवाना।
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बे  : अव्य० [सं० वि० मि० फा० बे] बिना। बगैर। (इसका प्रयोग प्रायः अरबी, फारसी आदि शब्दों के साथ यौगिक बनाते समय पूर्व पद के रूप के रूप में होता है। जैसे—बेइज्जत, बेईमानी आदि। अव्य० [अनु०] हिं० अबे का संक्षिप्त रूप जिसका प्रयोग उपेक्षा सूचक संबोधन के लिए होता है। मुहा०—बे ते करना= किसी को तुच्छ समझते हुए उसके साथ अशिष्टता पूर्वक बातें करना।
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बेअंत  : वि० [हिं० बे=सं० अंत] जिसका कोई अंत न हो। अनंत। समीप। बेहद। पद—बेअंत माया=अत्यधिक मात्रा में होनेवाली कोई चीज। (व्यंग्य)
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बेअकल  : वि० [फा० बे+अ० अक्ल] [भाव० बेअकली] जिसे अकल न हो। निर्बुद्धि।
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बेअकली  : स्त्री० [फा० बे+अ० अक्ल] नासमझी। मूर्खता। बेवकूफी।
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बेअदब  : वि० [फा० बे+अ० अदब] [भाव० बेअदबी] १. जो बड़ों का अदब या आदर न करता हो। २. जो मर्यादा का ध्यान न रखकर अशिष्ट आचरण करता हो। अशिष्ठ। उद्दंड। धृष्ट।
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बेआब  : वि० [फा० बे+अ० आब] [भाव० बेआबी] १. जिसमें आब (चमक) न हो। २. जिसकी कोई प्रतिष्ठा न हो।
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बेआबरू  : वि० [फा०] [भाव० बे-आबरुई] जिसकी कोई आबरू या प्रतिष्ठा न हो। फलतः अपमानित और तिरस्कृत।
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बेआबी  : स्त्री० [फा० बे+अ० आब] १. बेआब होने की अवस्था या भाव। मलिनता। निस्तेजता। २. अप्रतिष्ठा।
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बेआरा  : पुं० [देश०] एक में मिला हुआ जौ और चना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेइंतिहा  : वि० [अ०+फा०] अपार। असीम। बेहद।
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बेइंसाफ  : वि० [फा०] [भाव० बेइंसाफी] अन्यायी।
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बेइज्जत  : वि० [फा० बे+अ० इज़्ज़त] १. जिसकी कोई इज्जत या प्रतिष्ठा न हो। अप्रतिष्ठित। २. जिसका अपमान किया गया हो अपमानित।
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बेइज़्ज़ती  : स्त्री० [फा०+अ०] १. अप्रतिष्ठा। २. अपमान।
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बेइलि  : पुं० दे० ‘बेला’। स्त्री०=(वल्ली)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेइल्म  : वि० [फा० बे+इल्म] [भाव० बेइल्मी] बे पढ़ा-लिखा। अपढ़।
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बेईमान  : वि० [फा० बे०+अ० ईमान] [भाव० बेईमानी] १. जिसका ईमान ठीक न हो। जिसे धर्म का विचार न हो। अधर्मी। २. अविश्वसनीय।
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बेईमानी  : स्त्री० [फा० बे+अ० ईमान] १. बेईमान होने की अवस्था या भाव। २. बुरी नियत से किया जानेवाला कोई कार्य।
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बेउँगा  : पुं० [देश०] बाँस का वह चोंगा जिसे कंबल की पट्टियाँ बुनते समय ताने की साथी अलग करने के लिए रखते है।
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बेउ  : वि० [सं० द्वि+अपि] दोनों। उदाहरण-बाहाँ तिकरि पसारी बेउ। -प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेउज्र  : वि० [फा० बे+उज्ज्] जो उडज्ज या आपत्ति न करता हो।
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बेउसूल  : कि० वि० [फा०+अ०] बिना किसी सिद्धांत के। वि० जिसका कोई उसूल या सिद्धांत न हो। सिद्धांतहीन।
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बेएतबार  : पु० [फा०+अ०] [भाव० बे०-एतवारी] अविश्वास। वि० १. जिस पर विश्वास न किया जा सके। २. जो विश्वास न करता हो।
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बेएब  : वि० [फा०+अ०] निर्दोष।
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बेओनी  : स्त्री० [देश०] जुलाहों का कंघी की तरह का एक औजार जिसे वे ताने के सूतों के बीच में रखते हैं।
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बेऔलाद  : वि० [फा०+अ०] निःसंतान।
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बेकति  : पुं०=व्यक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेकदर  : वि० [फा० बे+अ० क़द्र] [भाव० बेकदरी] १. जिसकी कछल भी कदर न हो। २. जो किसी की कदर न करता हो।
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बेकदरा  : वि०=बेकदर।
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बेकदरी  : स्त्री० [फा०] १. बेकदर होने की अवस्था या भाव। २. अनादर।
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बेकरा  : पुं० [देश०] पशुओं का खुरपका नामक रोग। खुरहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेकरार  : वि० [फा० बे+अ० क़रार] [भाव० बेकरारी] १. बेचैन। विकल। २. परम उत्सुकता।
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बेकरारी  : स्त्री० [फा० बेक़रारी] १. बेकरार होने की अवस्था या भाव। बेचैनी। व्याकुलता। २. परम उत्सुकता।
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बेकल  : वि० [सं० विकल] व्याकुल। विकल। बेचैन।
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बेकली  : स्त्री० [हिं० बेकल+ई (प्रत्य० )] १. बेकल होने की अवस्था या भाव। बेचैनी। व्याकुलता। २. स्त्रियों का एक रोग जिसमें उनकी धरन या गर्भाशय अपने स्थान से कुछ हट जाता है और जिसमें रोगी को बहुत अधिक पीड़ा होती है। उदा०—मीर गुल से अब रहने में हुई वह बेकली। टल गई का नाफदानी, पेडू पत्थर हो गया।—जान साहब।
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बेकस  : वि० [फा०] [भाव० बेकसी] १. निःसहाय। निराश्रय। २. दीन-हीन। २. कष्टग्रस्त।
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बेकसूर  : वि० [फा० बे+अ० कुसूर] [भाव० बेकसूरी] जिसका कोई कसूर न हो। निरपराध।
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बेकहा  : वि० [फा० बे+हिं० कहना] [स्त्री० बेकही] जो किसी का कहना न मानता हो। किसी के कहने के अनुसार न चलनेवाला।
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बेकानूनी  : वि० [फा० बे०+कानून] अवैध।
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बेकाबू  : वि० [फा० बे+अ० काबू] १. जो काबू में किया या वश में लाया न जा सके। २. जिस पर किसी का काबू या वश न हो। अनियंत्रित। ३. निरंकुश।
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बेकाम  : वि० [फा० बे०+हिं० कम] १. जिसे कोई काम न हो। निकम्मा। निठल्ला। २. जिसमें कोई काम न निकल सके। रद्दी। कि० वि० निरर्थक। व्यर्थ।
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बेकायदा  : वि० [फा० बे+अ० क़ायदा] जो कायदे अर्थात् नियम या विधान के विरुद्ध हो। अनियमित।
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बेकार  : वि० [फा०] [भाव० बेकारी] १. जो काम में न लगा हुआ हो। २. जो काम न कर सकता या किसी काम में न आ सकता हो। निरर्थक। निकम्मा। कि० वि० व्यर्थ। बे-फायदा।
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बेकारा  : पुं० [सं० बेकुरा=शब्द] किसी को जोर से बुलाने का शब्द। जैसे—अरे, हो आदि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेकारी  : स्त्री० [फा०] बेकार होने की अवस्था या भाव। ऐसी स्थिति जिसमें आदमी या कुछ लोगों के हाथ में कोई काम, धन्धा या रोजगार न हो और इसीलिए जिसकी आय या जीविका-निर्वाह का को आई साधन न हो। (अन्-एम्प्लॉयमेन्ट)
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बेंकूप  : वि०=बेवकूफ। उदा०—सबै स्वान बेकूप।—भगवान रसिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेख  : स्त्री० [फा०] जड़। मूल। पुं० १.=बेष। २.=स्वाँग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेखटक  : वि० [हिं० बे+हि० खटका] बिना किसी प्रकार के खटके के। बिना किसी प्रकार की रुकावट या असमंजस के। निस्संकोच। अव्य०=बेखटके।
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बेखटके  : अव्य० [हिं० बेखटत] बिना आशंका या खटके के। फलतः निर्भय होकर।
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बे-खता  : वि० [फा० बे+अ० खता=कुसूर] १. जिसने कोई खता या अपराध न किया हो। निरपराध। बेकसूर। २. जो कहीं खता न करे; अर्थात् कहीं न चूकनेवाला। अचूक। अमोध। जैसे—बेखता निशाना लगाना।
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बेखबर  : वि० [फा० बे+खबर] [भाव० बेखबरी] १. जिसको किसी बात की खबर न हो। अनजान। नावाफिक। २. जिसे कुछ भी खबर न हो। बेसुध। बेहोश। जैस—सब लोग बेखबर सोये थे।
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बेखबरी  : स्त्री० [फा० बें०+अ० खबरी] १. बेखबर होगे की अवस्था या भाव। अज्ञानता। २. बेहोशी।
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बेखुद  : वि० [फा० बेखुद] [भाव० बेखुदी] जो आपे में न हो। अपनी सुध-बुध भूला हुआ।
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बेखुदी  : स्त्री० [फा०] बेखुद होने की अवस्था या भाव। आपे में न होना।
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बेखुर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जिसका शिकार किया जाता है।
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बेखौफ  : वि० [फा० बे+अ० खौफ़] जिसे खौफ या भय न हो। निर्भय।
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बेग  : पुं० [अ० बैग] कपड़े, चमड़े, प्लस्टिक आदि लचीले पदार्थों का कोई ऐसा थैला जिसमें चीजें रखी जाती हों और जिसका मुँह ऊपर से बंद किया जा सकता हो। थैला। पुं० [तृ०] [स्त्री० बेगम] १. अमीर। धनवान्। २. नेता। सरदार। ३. मुगलों का अल्ल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)पुं०=वेग। कि० वि० वेगपूर्वक। जल्दी से। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेगड़ी  : पुं० [देश०] १. हीरा काटनेवाला कारीगर। हीरा तराश। २. जौहरी। ३. नगीने बनानेवाला कारीगर। हक्काक।
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बेगती  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली।
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बेगना  : अ० [हिं० वेग] १. वेगपूर्वक कोई काम करना। २. जल्दी करना या मचाना।
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बेगम  : स्त्री० [तु० बेग का स्त्री०] [बहु० बेगमात] १. भले घर की स्त्री। महिला। २. किसी बड़े नवाब, बादशाह या सरदार की पत्नी। ३. ताश का वह पत्ता जिस पर रानी या स्त्री का चित्र बना रहता है।
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बे-गम  : वि० [हिं० बे+अ० गम] जिसे किसी बात का गम या चिन्ता न हो। निश्चिन्त।
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बेगम-फूली  : पुं० [तु० बेगम हिं० फूल+ई (प्रत्य०)] एक प्रकार का बढ़िया आम।
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बेगम-बेलिया  : पुं० [अ० ब्रिगनोलिया] एक प्रकार की लता जिसमें कई रंगों के फूल लगते हैं।
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बेगमा  : स्त्री० ‘हिं० ‘बेगम’ का सम्बोधन कारक में रूप।
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बेगमी  : वि० [तु० बेगम+ई (प्रत्य०)] १. बेगम-संबंधी। बेगम का। २० बेगमों के लिए उपयुक्त अर्थात् उत्तम। बहुत बढ़िया। वि० [फा० बे+अ० गमी] निश्चितता। बेफिकी। पुं० १. एक प्रकार का बढ़िया कपूरी पान। २. एक प्रकार का बढ़िया चावल। ३. एक प्रकार का पनीर जिसमें नमक कम होता है।
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बेगर  : अव्य०=बगैर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेगरज  : वि० [फा० बे+अ० ग़रज] [भाव० बेगरजी] जिसे कोई गरज या परवा न हो। कि० वि० बिना किसी गरज। प्रयोजन या मतलब के। निःस्वार्थ रूप से।
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बेगरजी  : स्त्री० [फा० बे+अ० ग़रज+ई (प्रत्य)] बेरगज होने की अवस्था या भाव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)वि०=बेगरज। जैसे—बेगरजी नौकर, बेगरजी सैंया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेगरा  : वि० [?] १. अलग। २. दूर का। अव्य० दूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेगल  : अव्य०=बैगर।
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बेगला  : वि०, अव्य०=बेगरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेगवती  : स्त्री, [सं० वेग+मतुप्, म=व, ङीष्] एक प्रकार का वर्णा-र्द्धवृत्त जिसके विषमपादों में ३ सगण, १ गुरु और समपादों में ३ भगड़ और २ गुरु होते हैं।
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बेगसर  : पुं० [सं० वेद√सृ (जाना)+अच्]। खच्चर। (डिं०)
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बेगा  : पु० [?] आत्मीय। ‘पराया’ का विपर्याय। उदा०—वेगा० कै मुदई मिलत।—घाघ।
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बेगानगी  : स्त्री० [फा०] १. बेगाना होने की अवस्था या परायापन। २. अपरिचय।
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बेगाना  : वि० [फा० बेगाना] १. जो अपना न हो। ग़ैर। पराया। २. जिससे आत्मीयता पूर्ण जान-पहचान, परिचय या सम्बन्ध न हो। ३. जो किसी काम या बात से अनजान या अपरिचित हो। ना-बाकिफ।
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बेगार  : स्त्री० [फा०] १. वह काम जो किसी से जबरदस्ती और बिना कुछ अथवा उचित पारिश्रमिक दिये कराया जाय। २. उक्त के आधार पर बिना किसी पारिश्रमिक या पुरस्कार की संभावना के चलता किया जानेवाला काम। मुहा०—बेगार टालना=बिना चित्त लगाये कोई काम यों ही चलता करना। पीछा छुड़ाने के लिए कोई काम जैसे—तैसे पूरा करना। ३. ऐसा व्यर्थ और झगड़े का काम जिसका कोई अच्छा फल न हो। उदा०—नाहि तो भव बेगारि महँ परिहौ छूटत अति कठिनाई रे।—तुलसी।
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बेगारी  : पुं० [फा०] १. वह मजदूर जिसमें बिना मजदूरी दिये जबरदस्ती का लिया जा। बेगार में काम करनेवाला आदमी। कि० प्र०—पकड़ना। २. मन लगाकर काम न करनेवाला। काम चलता करनेवाला। स्त्री०=बेगार।
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बेगि  : वि० [सं० वेग] १. जल्दी से। शीघ्रतापूर्वक। २. चटपट। तुरंत।
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बेगुन  : पुं०=बैंगन। वि०=विगुण (गुण रहित)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेगुनाह  : वि० [फा०] [भाव० बेगुनाही] १. जिसने कोई गुनाह न किया हो। जिसने कोई पाप न किया हो। निष्पाप। २. जिसने कोई अपराध न किया। निरपराध।
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बेगुनी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की सुराही। वि०=विगुण (गुण रहित)।
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बेगैरत  : वि० [फा० बे०+अ० गैरत] [भाव० बेगैरती] निर्लज्ज।
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बेचक  : पुं० [हिं० बेचना] बेचनेवाला। बिक्री करनेवाला। विक्रेता।
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बेचना  : संय [सं० विक्रय] १. अपनी कोई चीज या संपत्ति किसी से दाम लेकर उसे दे देना। संयो० कि०—डालना।—देना। मुहा०—बेच खाना= पूरी तरह से रहित, वंचित या हीन हो जाना। जैसे—तुमने तो लाज-शरम बेच खाई है। २. स्वार्थ-सिद्धि के उद्देश्य से अपने किसी गुण को खो या छोड़ बैठना। जैसे—ईमान या धर्म बेचना।
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बेचवाना  : स०=बिकवाना।
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बेचवाल  : पु० [हिं० बेचना+वाना (प्रत्य,)] माल या सौदा बेचनेवाला। ‘लिवाल’ का विपर्याय।
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बेचाना  : सं०=विकवाना।
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बेचारगी  : स्त्री० [फा०] बेचारा होने की अवस्था या भाव।
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बेचारा  : वि० [फा० बेचार] [भाव० बेचारगी] [स्त्री० बेचारी] १. जिसके लिए कोई चारा (उपाय या साधन) न रह गया हो। २. जो दीन और निःस्सहाय हो। जिसका कोई साथी या अलंवब न हो। गरीब। दीन।
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बेचिराग  : वि० [फा० बे+अ० चिराग़]१. (स्थान) जहाँ दीया तक न जलता हो; अर्थात् उजड़ा हुआ। २. निःसंतान। बे-औलाद।
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बेची  : स्त्री० [हिं, बेचना] १. बिक्री। विक्रय। २. बेचने के सम्बन्ध में लिखा हुआ लेख। जैसे—इस हुंडी पर बेची तो है ही नहीं।
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बेचु  : पुं० [हिं० बेचना] बेचने वाला। विक्रेता।
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बेचैन  : वि. [फा.] जिसे किसी प्रकार चैन न पड़ता हो। व्याकुल। विकल। बेकल।
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बेचैनी  : स्त्री० [फा०] बेचैन होने की अवस्था या भाव। विकलता। व्याकुलता। बेकली।
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बेजड़  : वि० [फा० बे+हिं० जड़] जिसकी कोई जड़ या बुनियाद न हो। जिसके मूल में कोई तत्त्व या सार न हो। जो यों ही मन में गढ़ या बना लिया गया हो। निर्मूल।
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बेजबान  : वि० [फा० बे+ज़बान] [भाव० बेजबानी] १. जो कुछ कहना न जानता हो। २. जो किसी बात की शिकायत न करके सब कुछ चुपचाप सह लेता हो। ३. जो दीनता या नम्रता के कारण किसी प्रकार का दुःख या विरोध न करे। दीन। गरीब।
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बेजबानी  : स्त्री० [फा०] १. बेजबान होने की अवस्था या भाव। २. चुप रहना। ३. शिकायत न करना।
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बेजर  : वि० [फा० बेज़र] [भाव० बेजरी] धनहीन। निर्धन।
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बेजा  : वि० [फा०] जो उचित या संगत न हो।
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बेजान  : वि० [फा०] १. जिसमें जान न हो। निर्जीव। २. मरा हुआ। मृत। ३. जिसमें कुछ भी दम या शक्ति न हो। बहुत ही अशक्त या दुर्बल।
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बे-जाब्तगी  : स्त्री० [फा० बे+अ० ज़ाब्तगी] बेजाब्ता अथवा अनियमित या नियमविरुद्ध होने की अवस्था या भाव।
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बेजाब्ता  : वि० [फ़ा० बे+ अ० ज़ाब्ता] [भाव० बेजाब्तगी] जो जाब्ते के अनुसार न हो। कानून या नियम आदि के विरुद्ध। अवैध।
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बेजार  : वि० [फ़ा० बेज़ार] [भाव० बेजारी] १. जो किसी बात से बहुत तंग आ गया हो। जिसका चित्त किसी बात से बहुत दुःखी हो चुका हो। जैसे—आप तो जिंदगी से बेज़ार हुए जाते हैं। २. बहुत ही अप्रसन्न, खिन्न या नारज। ३. विमुख। पराङमुख।
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बेजुर्म  : वि० [फा०+अ०] जिसने कोई जुर्म या अपराध न किया हो। निरपराध।
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बेजू  : पुं० [अं० बैजर] डेढ़ दो हाथ लंबा एक प्रकार का जंगली जानवर जो प्रायः सभी गरम देशों में पाया जाता है।
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बेजोड़  : वि० [फा० बे+हि० जोड़] १. जिसमें जोड़ न हो। जो एक ही टुकड़े का बना हो। अखंड। २. जिसके जोड़ या मुकाबले का और कोई न हो। अद्वितीय। अनुपम।
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बेझ  : पुं० दे० ‘बेझा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेझड़  : पुं० [हिं० मेझरना=मिलाना] एक में मिले हुए कई तरह के अन्न। जैसे—गेहँ, चने और जौ का बेझड़।
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बेझना  : स०=बेधना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेझरा  : पुं०=बेझड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेझा  : पुं० [सं० वेघ] निशाना। लक्ष्य।
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बेट  : स्त्री०=बेंट।
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बेटकी  : स्त्री० [हिं० बेटा] १. बेटी। २. पुत्री। ३. कन्या। लड़की।
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बेटला  : पुं० [स्त्री० बेटली]=बेटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेटवा  : पुं०=बेटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेटा  : पुं० [सं० बटु=बालक] [स्त्री० बेटी] पुत्र। सुत। लड़का। पद—बेटेवाला=वर का पिता अथवा वरपक्षका और कोई बड़ा आदमी।
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बेटा-बेटी  : पुं० [हिं० बेटा] बाल-बच्चे। औलाद।
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बेटी  : स्त्री० [सं०] १. लड़की। पुत्री। पद—बेटी का बाप= (क) वैसा ही दीन और नम्र जैसा विवाह के समय वधु का पिता होता है। (ख) सब प्रकार से दीन-हीन और विवश। बेटीवाला=वधु का पिता अथवा बधू-पक्ष का और कोई बड़ा आदमी। मुहा०—बेटी देना—अपनी पुत्री का किसी के साथ विवाह करना। उदा०—जिससे बेटी दी उसने सब कुछ दिया। (कहा०)
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बेटौना  : पुं०=बेटा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेट्टा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का भैंसा जो मैसूर देश में होता है। पुं०=बेटा (पुत्र) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेठ  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार की ऊसर जमीन जिसे बीहड़ भी कहते है। २. ऋण के रूप में लिया हुआ वह पेशगी धन जो मजदूर, कारीगर आदि धीरे-धीरे कुछ काम करके या सामान देकर चुकाते हैं। मुहा०—बेठ भरना=काम करके या सामान देकर उक्त प्रकार का ऋण चुकाना। उदा०—नित उठ कोरिया बेठ भरत है।...।—कबीर।
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बेठन  : पुं० [सं० वेष्ठन] वह वस्त्र जो किसी चीज को धूल, मिट्टी आदि से सुरक्षित रखने के उद्देश्य से उस पर लपेटा जाता है। पद—पोयी का बेठन=(क) जो कुछ भी पढ़ा-लिखा न हो। (ख) जो पढ़ा-लिखा होने पर भी किसी काम का न हो।
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बेठिकाने  : वि० [फा० बे+हि० ठिकाना] १. जो अपने स्थान पर न हो। स्थानच्युत। २. जिसका कोई ठौर-ठिकाना न हो। ३. जिसका कोई सिर-पैर न हो। ४. निरर्थक। व्यर्थ। अव्य० ठिकाने अर्थात् उपयुक्त या निश्चित स्थान पर न होकर किसी अन्य स्थान पर। अनुपयुक्त अवसर या स्थान पर।
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बेड़  : पुं० [हिं० बाढ़] खेतों या वृक्षों के चारों ओर लगाई हुई बाढ़। मेंड़। पु० [हिं० बीड] नगद रुपया। सिक्का। (दलाल) पुं० [?] [स्त्री० बेड़नी, बेड़िन] नटों आदि के वर्ग की एक छोटी जाति जो गाने-बजाने का पेशा करती है।
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बेड़ना  : सं० [हिं० बेड़+ना (प्रत्य०)] नये वृक्षों आदि के चारों ओर उनकी रक्षा के लिए छोटी दीवार आदि खड़ी करना। थाला बाँधना। भेंड़ या बाढ़ लगाना। स० [सं० विडंवन ?] तोड़ना-फोड़ना नष्ट-भ्रष्ट करना। उदा० बिजड़ा मुट्ठे बेड़ते बलभद्र।—प्रिथीराज।
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बेड़नी  : स्त्री० [हिं० बेड़] बड़े जाति की स्त्री जो प्रायः देहातों में गाने-बजाने का पेशा करती है।
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बेड़ा  : पुं० [सं० वेष्ट] १. बड़े लट्ठों, लकड़ियों या तख्तों आदि को एक में बाँधकर बनाया हुआ ढाँचा जिस पर बाँस का टट्रटर बिछा देते हैं और जिस पर बैठकर नदी आदि पार करते है। तिरना। मुहा०—बेड़ा डूबना=विपत्ति में पड़कर पूर्ण रूप से विनष्ट होना (किसी का) बेड़ा पार करना या लगाना=किसी को संकट से पार लगाना या छुड़ाना। विपत्ति के समय सहायता करके किसी का काम पूरा कर देना या रक्षा करना। २. बहुत सी नाबों या जहाजों आदि का समूह। जैसे—उन दिनों भारतीय महासागर में अमरीकी बेड़ा आया हआ था। ३. नाव। (ड़ि०) ४. झुंड। समूह। (पूरब) मुहा०—बेड़ा बाँधना=बहुत से आदमियों को इकट्ठा करना। लोगों को एकत्र करना। वि० [हिं० आड़ा का अनु० या सं० बलि=टेढ़ा] १. जो आँखों के समानांतर दाहिनी ओर से बाई ओर अथवा बाईं ओर से दाहिनी ओर गया हो। आड़ा। २. कठिन। मुश्किल। विकट। जैसे—बेड़ा काम।
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बेड़िचा  : पुं० [देश०] बाँस की कमाचियों की बनी हुई एक प्रकार की टोकरी जो थाल के आकार की होती है और जिससे किसान लोग के खेत सींचने के लिए तालाब से पानी निकालते हैं।
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बेड़िन  : स्त्री०=बड़नी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेड़ी  : स्त्री० [सं० वलय] लोहे के कड़ों की जोड़ी या जंजीर जो कैदियों या पशुओं आदि को इसलिए पहनाई जाती है जिसमें वे स्वतंतापूर्वक घूम-फिर न सकें। निगड़। कि० प्र०—डालना।—देना।—पड़ना।—पहनना।—पहचाना। २. बाँस की टोकरी जिसके दोनों ओर रस्सी बँधी रहती है और जिसकी सहायता से नीचे से पानी उठाकर खेतों में डाला जाता है। ३. साँप काटने का एक इलाज जिसमें काटे हुए स्थान को गरम लोहे से दाग देते हैं। स्त्री० [हिं, बेड़ा का स्त्री० अल्पा०] १. नदी पार करने का अट्टर आदि का बना हुआ बेड़ा। २. नाव। (पश्चिम)
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बेडौल  : वि० [हिं० बे+डौल=रूप] १. जिसका डौल या रूप अच्छा न हो। भद्दा। २. जो अपने स्थान पर उपयुक्त न जान पड़े। बेढ़ंगा।
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बेढ़ंग  : वि०=बेढ़ंगा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेंढ़गा  : वि० [हिं० वे+हि० ढंग+ आ (प्रत्य० )] १. जिसका ढंग ठीक न हो। बुरे ढंगवाला। २. जो ठीक कम या प्रकार से लगाया, रखा या सजाया न गया हो। बेतरतीब। ३. कुरूप। भद्दा। भोंडा।
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बेढ़ंगापन  : पुं० [हिं० बेढंगा+पन (प्रत्य०)] बेढ़ंगे होने की अवस्था या भाव।
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बेढ़  : पुं० [?] १. नाश। बरबादी। २० बोया हुआ वह बीज जिसमें अंकुर निकल आया हो। स्त्री० वृक्षों आदि के चारों ओर लगा हुआ घेरा। बाढ़।
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बेढ़ई  : स्त्री० [हिं० बेड़ना] वह रोटी या पूरी जिसमें दाल, पीठी आदि कोई चीज भरी हो। कचौड़ी।
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बेढ़न  : पुं० [हि० बेड़ना] वह जिससे कोई चीज़ घेरी हुई हो। बेठन। घेरा।
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बेढ़ना  : सं० [सं० वेष्टन] १. वृक्षों या खेतों आदि को, उनकी रक्षा के लिए चारों ओर टट्टी बाँधकर, काँटे बिछाकर या और किसी प्रकार घेरना। रूँधना। २. चौपायों को घेरकर हाँक ले जाना।
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बेढ़नी  : स्त्री०=बेड़नी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेढ़व  : वि० [हिं० बे+ढव] १. जिसका ढब या ढंग अच्छा या ठीक न हो। २. भद्दा। भोंडा। कि० वि० १. बुरी तरह से। अनुचित या अनुपयुक्त रूप से। २. अनावश्यक या असाधारण रूप से।
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बेढ़ा  : पुं० [हिं० बेढ़ना=घेरना] १. हाथ में पहनने का एक प्रकार का कड़ा २. घर के आसपास वह छोटा सा घेरा हुआ स्थान जिसमें तरकारियाँ आदि बोई जाती हों।
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बेढ़ाआ  : स० [हिं० बेढ़ना का प्रे०] १. घेरने का काम दूसरे से कराना। घिरवाना। २. ओढ़ना या ढाँकना।
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बेढ़आ  : पुं० [देश०] गोल मेथी।
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बेणीफूल  : पुं० दे० ‘सीसफूल’।
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बेत  : पुं०=बेंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेतकल्लुफ  : वि० [फा० बे+अ० तकल्लुफ़] [भाव० बेतकल्लुफी] जो तकल्लुफ अर्थात् दिखावटी ऊपरी शिष्टाचार का विशेष ध्यान न रखता हो। सीधा सादा और सच्चा व्यवहार करनेवाला, और मन की बात स्पष्ट में कहनेवाला। कि० वि० १. बिना किसी प्रकार के तकल्लुफ़ या दिखावटी शिष्टाचार के। २. निःसंकोच। बेधड़क।
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बे-तकल्लुफी  : स्त्री० [फा०] बेतकल्लुफ होने की अवस्था या भाव। सरलता। सादगी।
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बे-तकसीर  : वि० [फा० वे+ अ० तक़सीर] जिसने कोई तकसीर या अपराध न किया हो। निरपराध। निर्दोष। बेगुनाह।
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बेतना  : अ० [?] जान पड़ना।
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बे-तमीज  : वि० [फा० बे+अ० तमीज़] [भाव० बेतमीजी] जिसे तमीज न हो। अशिष्ट और उद्दंड।
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बे-तरह  : कि० वि० [फा० बे+अ० तरह] १. विकट रूप से। २. असाधारण रूप से। बहुत अधिक। जैसे—आज तो बे-तरह पानी बरसा।
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बे-तरीका  : वि० [फा० बे+ तरीक़ा] जो सही ढंग से न हुआ हो। कि० वि० बिना तरीके या ठीक ढंग के।
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बे-तरतीब  : वि० [फा० बे+अ० तर्तीब] [भाव० बेतरतीबी] १. जो किसी क्रम से न रखा हुआ हो। क्रमहीन। २. अस्त-व्यस्त।
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बेतला  : वि० [?] [स्त्री बेतली] अभागा।
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बेतवा  : स्त्री० [सं० वेत्रवती] बुंदेलखंड की एक नदी।
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बे-तहाशा।  : कि० वि० [फा० बे+ अ० तहाशा] १. अकस्मात् और तेजी से। अचानक और वेगपूर्वक। २. बहुत घबराकर या बिना सोचे-समझे।
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बे-ताब  : वि० [फा०] [भाव० बेताबी] १. जिसमें धैर्य या सब्र न हो। २. विकल। व्याकुल। ३. परम उत्सुक। ४. अशक्त।
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बे-ताबी  : स्त्री० [फा०] १. बेताब होने की अवस्था या भाव। २. विकलता। ३. परम उत्सुकता।
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बेताल  : पुं० [सं० वैतालिक] भाट। बंदी। पुं०=वैताल।
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बे-ताला  : वि० [फा० बे+हिं० ताल] [स्त्री० बैताली] १. जो ठीक ताल के हिसाब से गाता या बजाता न हो। २. गाना या बजाना) जो ताल के हिसाब से ठीक न हो। (संगीत)
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बे-तुका  : वि० [फा० बे+ हिं० तुका] [स्त्री० बेतुका] १. (पद्यमय रचना) जिससी तुर्के न मिलती हों। अंत्यानुप्रास-हीन। २. (बात) जो अवसर, प्रसंग आदि के विचार से बहुत ही अनुपयुक्त तथा महत्त्वहीन हो। मुहा०—बेतुकी हाँकना= बेढंगी बात कहना। ऐसी बात कहना जिसका कोई सिर-पैर न हो। ३. (व्यक्ति)जो अवसर-कुअवसर का ध्यान न रखकर बेंढंगे या भद्दे काम करता अथवा बातें कहता हो। ४. (पदार्थ) जो ठीक ढंग या ठिकाने का न हो। जैसे—बेतुकी पगड़ी।
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बेतुका छंद  : पुं० [हिं० बेतुका+सं० छंद] ऐसा छंद जिसके तुकांत आपस में न मिलते हों। अमिताक्षर छंद।
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बेतौर  : कि० वि० [फा० बे+अ० तौर] बुरी तरह से। बेढ़ंगेपन से। बेतरह। वि० जिसका तौर-तरीका या रंग-ढंग ठीक न हो।
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बेद  : पुं० १.=वेद। २. बेंत। ३.=मुश्क बेद।
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बेदक  : पुं० [सं० वैदिक] हिंदू। (डिं०)
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बे-दखल  : वि० [फा० बे+अ० दख्ल] [भाव० बेदखली] जिसका किसी चीज पर दखल अर्थात् कब्जा न रह गया हो। अधिकार-च्युत।
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बे-बखली  : स्त्री० [स्त्री० [फा० बे+अ० दख्ली] दखल या कब्जे का हटाया जाना अथवा न होना। अधिकार में न रहने देने की अवस्था या भाव।
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बेदन  : पुं० [सं० वेदन] १. पशुओं का एक प्रकार का संक्रामक भीषण ज्वर जिसमें रोगी पशु काँपने लगता है। और उसे पाखाने के साथ आँव निकलती है। २. दे० ‘वेदन’।
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बेदना  : स्त्री०=वेदना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-दम  : वि० [फा०] १. जिसमें जीवनी शक्ति न हो अथवा नहीं के समान हो। २. मुरदा। मृतक। ३. जिसकी जीवनी-शक्ति बहुत कुछ नष्ट हो चुकी हो। जर्जर। बोदा।
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बेद-मजनूँ  : पुं० [फा०] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी शाखाएँ बहुत झुकी हुई रहती हैं और जो इसी कारण बहुत मुरझाया और ठिठुरा हुआ जान पड़ता है।
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बेद-माल  : पुं० [देश०] लकड़ी की वह तख्ती जिस पर रंगड़कर सिकलीगर औज़ार चमकाते हैं।
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बेद-मुश्क  : पुं० [फा०] एक प्रकार का वृक्ष जो पश्चिम भारत और विशेषतः पंजाब में अधिकता से होता है।
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बेदरी  : वि०=बीदरी।
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बे-दर्द  : वि० [फ़ा० ] [भाव० बेदर्दी] जो दूसरों के दुःख का अनुभव न करता हो। दसरों के कष्टों को देखकर दुःखी न होनेवाला। कठोर हदय। पाषाण हृदय।
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बे-दर्दी  : स्त्री० [फा०] बेदर्द होने की अवस्था या भाव। निर्दयता। बेरहमी। कठोरता। वि०=बेदर्द।
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बेद-लैला  : पुं० [फा०] एक प्रकार का पौधा जिसमें सुन्दर फूल लगते हैं।
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बेदवा  : पुं० [सं० वेद] वेदों का ज्ञाता और अनुयायी। (उपेक्षासूचक)
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बेदाग  : वि० [फा० बेदाग़] १. जिसमें या जिसपर कोई दाग या धब्बा न हो। साफ। २. (व्यक्ति, उसका चरित्र या स्वभाव) जिसमें कोई ऐब या दोष न हो। बे-ऐब। निर्दोष। ३. निरपराध। बेकसूर। कि० वि० बिना किसी प्रकार की त्रुटि या दोष के। जैसे—वेदाग निशाना लगाना।
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बेदाना  : पुं० [हिं० विहीदाना या फा० बे+ दाना] १. पतले छिलकेवाला एक प्रकार का बढ़िया अनार जिसके दानों में मिठास अधिक होती है। २. बिहीदाना नामक फल। २. उक्त फल के बीज जो रेचक और ठंढ़े होते हैं। ४. दारु-हल्दी। ५. एक प्रकार का छोटा शहतूत। ६. बहुत छोटे दानोंवाली बुँदिया नामक मिठाई। वि०=नादान (नासमझ)। वि० [फा० बेदानः] (फल) जिसमें बीच न हों। जैसे—बेदाना अमरूद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-दाम  : वि० [फा०] बिना दाम का। जिसका कुछ मूल्य न दिया गया हो। कि० वि० बिना दाम या मूल्य दिये। वि०=बादाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-दार  : वि० [फा०] [भाव० बेदारी] जो जाग्रत तथा सचेत हो। जागा हुआ।
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बेदारी  : स्त्री० [फा०] जाग्रत और सचेत होने की अवस्था या भाव। जाग्रति।
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बेदिल  : वि० [फा०] [भाव० बेदिली] उदास। खिन्न।
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बेदी  : स्त्री०=वेदी। पुं० [सं० वेद] वेदों पर श्रद्धा रखनेवाला व्यक्ति। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बेध  : पुं० [सं० वेध] १. छेद। २. मोती, मूँगे आदि में किया हुआ छेद। ३. दे० ‘वेध’।
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बे-धड़क  : कि० वि० [फा० बे+हिं० धड़क] १. भय, मर्यादा अथवा संकोच की परवाह न करते हुए। २. बिना किसी आज्ञा या खटके या भय के। ३. बिना किसी बात की चिन्ता या परवाह किये हुए। ४. बिना कुछ सोचे-समझे हुए। वि० १. जिसे किसी प्रकार का संकोच या खटका न हो। निर्द्वद्व। २. जिसे किसी प्रकार की आशंका या भय न हो।
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बेधना  : सं० [सं० बेचन] १. किसी नुकीली चीज की सहायता से छेद करना। भेदना। जैसे—मोती बेधना। २. शरीर पर किसी प्रकार का क्षत या घाव करना।
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बे-धर्म  : वि० [फा० बे+सं० धर्म] [भाव० बेधर्मी] १. जिसे अपने धर्म का ध्यान न हो। २. जो अपना धर्म छोड़ चुका हो। धर्मच्युत।
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बेधिया  : पुं० [सं० वेध] अंकुश। वि० बेधने या छेदनेवाला।
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बेधी  : वि०=वेधी। स्त्री०=वेदी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बेधीर  : वि०=अधीर।
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बेनंग  : पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा पहाड़ी बाँस जो प्रायः लता के समान होता है।
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बेन  : पुं० [सं० वेणु] १. वंशी। मुरली। बाँसुरी।बाँस। ३. सँपेरों के बजाने की बीन। महुअर। ४. एक प्रकार का वृक्ष। ५. दे० ‘वेणु’। पुं० [अ० वेन] एक प्रकार की झंडी जो जहाज के मस्तूल पर लगा दी जाती है और जिसके फहराने से यह पता चलता है कि हवा का रुख किधर है। (लश०) पुं० [अं० विंड] वायु। हवा लाश०)
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बेनउर  : पुं०=बिनौला।
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बे-नजीर  : पुं० [फा० बे+अ० नज़ीर] अद्वितीय। अनुपम।
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बेनट  : स्त्री० [अं० बायोनेट] लोहे की वह छोटी किरच जो सैनिकों की बंदूक के अगले सिरे पर लगी रहती है। संगीन।
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बेनवर  : पुं०=बिनौला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-नसीब  : वि० [फां०+अ०] [भाव० बेनसीबी] अभागा। भाग्यहीन।
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बेना  : पुं० [सं० वीरण] खस। पुं० [सं० वेणु] १. बाँस। २. बाँस का बना हुआ पंखा। पुं० [सं० वेणी] एक गहना जो माथे पर बेंदी के बीच मे पहना जाता है। पद–बेना-बंदी=बेना और बेंदी नाम के गहने जो प्रायः एक साथ पहने जाते हैं।
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बेनागा  : क्रि० वि० [फा० बे+अ० नाग़ा] बिना नागा किये। निरंतर। लगातार। नित्य।
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बे-नाम  : वि० [फा०] १. जिसका कोई नाम न हो। २. अप्रसिद्ध।
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बे-नामी  : वि. [हि. बे+नाम] (सम्पत्ति) जिस पर उसके वास्वतिव स्वामी ने अपना नाम न चढ़वाकर अपने किसी अधीनस्थ या दूसरे विश्वसनीय आदमी का नाम चढ़वा रखा हो।
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बे-नियाज़  : वि० [फा०] [भाव० वनियाज़ी] निःस्पृह।
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बेनी  : स्त्री० [स० वेणी] १. स्त्रियों की चोटी। २. किवाड़ के एक पल्ले में लगी हुई हुई एक छोटी लकड़ी जो दूसरे पल्ले को खुलने से रोकती है। ३. एक प्रकार का धान जो भादों के अंत या कुआर के आरंभ में तैयार होता है। ४. दे० ‘त्रिवेणी’।
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बेनी-पान  : पुं०=बेंदी (गहना)।
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बेनू  : स्त्री० १.=बेन। २. वेणु।
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बेनुली  : स्त्री० [हिं० बिदली] जाँते या चक्की में वह छोटी सी लकड़ी जिसके दोनों सिरों पर जोती रहती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेनौटी  : वि० [हिं० बिनौला] कपास के फूल की तरह हलके पीले रंग का कपासी। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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बेनौरा  : पुं०=बिनौला।
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बेनौरी  : स्त्री० [हिं० बिनौला] ओला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेपरद  : वि० [फा० बेपर्द
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बे-परदगी  : स्त्री० [फा० बे-पर्दगी] १. बे-परदा होने की अवस्था या भाव। २. स्त्री का परदे में न रहना। बिना परदा किये तथा निस्संकोच भाव से स्त्रियों का पर-पुरुषों के सामने आना।
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बे-परवा  : वि० [फा० बेपर्वा] [भाव० बेपरवाई] १. जिसे कोई परवा न हो। बेफिक्र। २. जो किसी बात की परवा न करता हो। ला-परवाह। ३. बहुत बड़ा उदार और दानी।
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बेपर्द  : वि०=बेपरद।
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बे-पाय  : वि० [हिं बे+सं० उपाय] जिसे घबराहट के कारण कोई उपाय न सूझे। भौचक। हक्काबक्का। उदा०—पाय महावर देइ को, आप भई बे-पाय।—बिहारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेपार  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत ऊँचा वृक्ष जो हिमालय की तराई में ६००० से ११००० फुट की ऊँचाई तक अधिकता से पाया जाता है। फेल। पुं०=व्यापार। वि०=अपार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेपारी  : पुं०=व्यापारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेपीर  : वि० [फा० बे+ हिं० पीर=पीड़ा] १. जिसके हृदय में किसी के दुःख के लिए सहानुभूति न हो। दूसरों के कष्ट को कुछ न समझनेवाला। २. निर्दय। बेरहम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेपेंदा  : वि० [हिं० बे+पेंदा] [स्त्री० बेपेंदी] जिसमें पेंदा न हो और इसी कारण जो इधर-उधर लुढ़कता हो। पद—बेपेंदी का लोटा=व्यक्ति जो अपने किसी निश्चय पर स्थिर न रहता हो। बल्कि दूसरों की बातें सुन-सुनकर अपना निश्चय बारबार बदलता रहता हो।
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बे-फायदा  : वि० [फा० बे-फ़ाइदः] जिससे कोई फायदा न हो। जिससे कोई लाभ न हो सके। व्यर्थ का। क्रि वि० बिना किसी फायदे या लाभ के। निरर्थक। व्यर्थ।
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बे-फिकरा  : वि० [फा० वे-फ़िक्र] १. जिसे कोई फ़िक्र या चिन्ता न हो। २. अपनी अपनी ही मौज में रहनेवाला तथा घर-बार की कुछ भी चिन्ता न रखनेवाला। ३. आवारा और निकम्मा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-फिकरी  : स्त्री० [फा० बेफ़िक्री] बेफिक्र होने की अवस्था या भाव। निश्चिंतता।
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बे-फिक्र  : वि० [फा० बेफ़िक्र] [भाव०] [भाव० बे-फिकरी] जिसे कोई फिक्र न हो। निश्चित। बेपरवा।
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बेबस  : वि० [सं० विवश] [भाव० बेबसी] १. जिसका कुछ वश न चले। लाचार। २. पर-वश। पराधीन।
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बे-बसी  : स्त्री० [हिं० बेबस+ई (प्रत्य) १. बेबस होने की अवस्था या भाव। लाचारी। मजबुरी। विवशता। २. पर-वशता।
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बे-बाक  : वि० [फा० बे+अ० बाक़] १. (देय) जो चुका दिया गया हो, और इसीलिए जिसका कुछ भी अंश बाकी न रह गया हो। चुकता किया हुआ। चुकाया हुआ। २. ऋणमुक्त। वि० [फ़ा] [भाव० बेबाकी] निडर। निर्भय।
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बेबाकी  : स्त्री० [फा० बेवाकी] ऋण का चुकता होना। पूर्ण परिशोध। बे-बुनियाद
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बे-ब्याहा  : वि० [फा० बे+हिं० ब्याहा] [स्त्री० बे-ब्याही] जिसका विवाह न हुआ हो। आविवाहित कुँआरा।
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बे-भाव  : कि० [फा० बे+ हि० भाव] बिना किसी भाव (गिनती) या हिसाब) के। बेहिसाब। वि० बहुत अधिक। बेहद। मुहा० बेभाव की पड़ना= (क) बहुत अधिक मार पड़ना। (ख) बहुत अधिक भर्त्सना होना।
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बेम  : स्त्री० [देश०] जुलाहों की कंघी। बय। बैसर।
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बे-मग्ज  : वि० [फा० बे+अ० मग्ज़] निर्बुद्घि।
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बेमजगी  : स्त्री० [फा० बेमज़गी] बेमजा होने की अवस्था या भाव।
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बेमजा  : वि० [फा० बेमज़
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बे-मन  : क्रि० वि० [फा० बे+ हि० मन] बिना मन लगाये। बिना दत्तचित्त हुए। वि० (काम में) जिसका मन न लगता हो या न लग रहा हो।
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बे-मरम्मत  : वि० [फा०+अ०] [भाव० बेमरम्मती] जिसकी मरम्मत होने को हो, पर न हुई हो। टूटा-फूटा और बिगड़ा हुआ।
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बे-मरमती  : स्त्री० [फा०] बेमरम्मत होने की अवस्था या भाव। वि० बेमरम्मत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवाई  : स्त्री०=बिवाई (रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेमारी  : स्त्री०=बीमारी।
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बेमालूम  : क्रि० वि० [फा०] ऐसे ढंग से जिसमें किसी को मालूम न हो। बिना किसी को पता लगे। वि० जो ऊपर से देखने पर मालूम न पड़ता हो।
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बेमुख  : वि०=विमुख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-मुनासिब  : वि० [फा०] जो मुनासिब न हो। अनुचित। ना-मुनासिब।
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बे-मुरव्वत  : वि० [फा०] जिसमें मुरव्वत न हो। जिसमें शील या संकोच का अभाव हो। तोता-चश्म।
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बे-मुरव्वती  : स्त्री० [फ़ा०] बेमुरव्वत होने की अवस्था या भाव।
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बे-मेल  : [फा. बे+ हिं० मेल] जिसका किसी से मेल न बैठता हो। अनमेल
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बे-मौका  : वि० [फा० बेमौका] जो अपने मौके पर न हो। जो अपने उपयुक्त अवसर या स्थान पर न हो। क्रि० वि० बिना मौके या उपयुक्त अवसर का ध्यान रखे हुए। पुं० मौके अर्थात उपयुक्त अवसर का अभाव।
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बे-मौत  : अव्य० [फा० बे+हि० मौत]बिना मौत आये ही। जैसे—हम तो बे-मौत मर गए।
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बे-मौसिम  : वि० [फा०] १. जिसका मौसिम न हो। २. मौसिम न होने पर भी होनेवाला।
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बेयरा  : पुं०=बेरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेरंग  : वि० [फा०] निर्लज्ज। वि० [अ० बियरिंग] (डाक द्वारा भेजा हुआ वह पत्र) जिस पर टिकट लगा ही न हो अथवा कम मूल्य का लगा हुआ हो।
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बेर  : पुं० [सं० बदरी] १. एक प्रसिद्ध पेड़ जिसके कांड रेखा युक्त और विदीर्ण होते हैं, पत्र गोल, काँटेदार तथा वक्र, फल हरे तथा पकने पर पीले होते हैं। २. उक्त के फल जिनमें लम्बोतरी या गोल गुठली भी होती है। स्त्री० [सं० बेला, हि० वार] १. बार। दफा। २. देर। विलंब। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेर-जरी  : स्त्री० [हिं० बेर+झड़ी ?] झड़बेरी। जंगली बेर।
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बेरजा  : पुं०=बिरोजा।
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बेरवा  : पुं० [देश०] कलाई पर पहनने का एक प्रकार का कड़ा। पुं०=ब्योरा (विवरण)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेरस  : वि० [फा० बे+हिं० रस] १. जिसमें रस का अभाव हो। नीरस। रस-हीन। फीका २. जिसमें कुछ स्वाद न हो। ३. जिसमें कोई आनन्द या मजा न हो।
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बे-रसना  : सं० [सं० विलसन] १. विलास करना। २. भोगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेर-हड्डी  : स्त्री० [बेर ?+ हि० हड्डी] घुटने के नीचे की हड्डी में का उभार।
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बे-रहम  : वि० [फा० बेरहम] [भाव०] जिसके हृदय में रहम अर्थात् दया न हो। निर्दय। निष्ठुर।
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बेरहमी  : स्त्री० [फा़] बेरहम होने की अवस्था या भाव। निर्दयता। निष्ठुरता।
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बेरा  : पुं० [सं० वेला] १. समय। वक्त। बेला। २. प्रभाव का समय तड़का। पुं० [हिं० मेझरा ?] एक में मिला हुआ जौ और चना। बेरी। पुं०=बेड़ा। पुं० [अ० बेअरर= वाहक] चपरासी, विशेषत
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बे-राग  : वि० [फा० बे+सं० राग] जिसमें किसी प्रकार का राग या प्रवृत्ति न हो। राग-रहित। उदा०—कौतुक देखत फिरेउ बेरागा।—तुलसी। पुं०=वैराग्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेरादरी  : स्त्री०=बिरादरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेराम  : वि० [हिं० बे+आराम] बीमार। रोगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेरामी  : स्त्री० [हिं० वे+आरामी] बीमारी। रोग।
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बेरास  : पुं०=विलास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-राह  : वि० [फा०] गलत या बुरे रास्ते पर चलनेवाला। पथभ्रष्ट।
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बेरिआ  : स्त्री० [सं० वेला=समय] बेला। समय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेरियाँ  : स्त्री० [हिं० वेर] समय। वक्त। काल। बेला।
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बेरी  : स्त्री० [हिं० वेर (फल) १. हिमालय में होनेवाली एक प्रकार की लता। इसे ‘भुरकूल’ भी कहते हैं। २. बेर का छोटा वृक्ष। स्त्री० [?] एक में मिली हुई तीसी और सरसो। स्त्री० [हिं० बार=दफा] १. उतना अनाज जितना एक बार चक्की में पीसने के लिए डाला जाता है। २. बेर। दफा। स्त्री० १.=बेड़ी (पैरों की)। २. बेड़ी (नाव)। उदा०—नाव फाटी प्रभु पाल बाँधों बूड़त है बेरी।—मीराँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेरी-छत  : पुं० [देश०] एक पद जो महावत लोग हाथी को किसी काम से मना करने के लिए कहते है।
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बेरी-बेरी  : पुं० [सिंह, बेरी=दुर्बलता] एक प्रकार का भीषण संक्रामक ज्वर। विशेष दे० ‘वातवलासक’।
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बेरुआ  : पुं० [देश०] बाँस का वह टुकड़ा जो नाव खींचने की गुन में आगे की ओर बँधा रहता है और जिसे कंधे पर रखकर मुल्लाह नाव खींचते हुए चलते हैं।
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बेरुई  : स्त्री० [हिं० बेड़िन] वेश्या। रंडी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेरुकी  : स्त्री० [देश०] बैलों का एक रोग जिसमें उनकी जीभ पर काले छाले हो जाते हैं।
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बेरुख  : वि० [फा० बेरुख] [भाव० बेरुखी] १. जो समय पड़ने पर (मुँह) फेर ले। बेमुरव्वत। २. अप्रसन्न। नाराज। कि० प्र०—पड़ना। होना।
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बेंरुखी  : स्त्री० [फा० बेरुखी] १. बेरुख होने की अवस्था या भाव। २. अपेक्षा। क्रि० प्र०—दिखलाना।
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बेरोक  : वि० [फा० बे+हि० रोक] जिस पर रोक न लगी हुई हो। अव्य० बिना रोक के। स्वच्छंद रूप में।
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बे-रोजगार  : वि० [फा० बेरोजगार] [भाव० बेरोजगारी] व्यवसायहीन। बेकार।
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बे-रोजगारी  : स्त्री० [फा०] बेरोजगार होने की अवस्था या भाव अर्थात् व्यवसायहीन या बेकार होने की अवस्था या भाव।
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बे-रौनक  : वि० [फा० बेरौनक़] १. जिसमें या जिस पर रौनक न हो। २. श्रीहीन। शोभाहीन। ३. (स्थान) जहाँ चहल-पहल न हो।
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बे-रौनकी  : स्त्री० [बेरौनक़ी] बेरौनक होने की अवस्था या भाव। क्रि० प्र०—छाना।
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बेर्रा  : पुं० [देश०] १. मिले हुए जौ और चले का आटा। २. कोई का फल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेर्रा-बरार  : पुं० [हिं० बेर्रा=जौ और चना+फा० बरार=लादा हुआ] अन्न की उगाही।
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बेलंद  : वि० [फा० बलंद] १. ऊँचा। २. जो बुरी तरह परास्त या विफल हुआ हो। (व्यंग्य) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेलंब  : पुं०=विलंब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेल  : पुं० [सं० बिल्व] १. एक प्रसिद्ध बहुत बड़ा पेड़ जिसकी त्वचा श्वेत वर्ण की होती तथा जिसके तने में नहीं, बल्कि शाखाओं में बँटे होते है। यह बहुत पवित्र माना जाता है और इसकी पत्तियाँ शिवजी पर चढ़ाई जाती है २. उक्त वृक्ष का गोलाकार फल जिसका गुदा पेट के रोग के लिए बहुत गुणकारी होता है। स्त्री० [सं० वल्ली] वनस्पति का वह प्रकार या वर्ग जिसमें अधिक मोटा कांड या तना नहीं होता और जो जमीन पर चारों ओर दूर तक फैलती या बाँसों, वक्षों आदि के सहारे ऊपर की ओर बढ़ती है। लहर लता। मुहा०—बेल मँढ़ें चढ़ना=किसी कार्य का अन्त तक ठीक-ठीक या पूरा उतरना। आरंभ किये हुए कार्य में पूरी सफलता होना। २. उक्त के आकार-प्रकार का अंकन या चित्रकारी। जैसे—बेल-दार किनारे की साड़ी। पद—बेल-बूटे। ३. रेशमी या मखमली फीते आदि पर जर-दोजी आदि से बनी हुई इसी प्रकार की फूल-पत्तियाँ जो प्रायः पहनने के कपड़ों पर टाँकी जाती है। जैसे—इस दुपट्टे पर बेल टँक जाय तो और भी अच्छा हो। क्रि० प्र०—टाँकना।—लगाना। ४. लाक्षणिक रूप में, वंश या सन्तान की परम्परा। मुहा०—बेल बढ़ना=वंश-वृद्धि होना। पुत्र-पौत्र आदि होना। ५. विवाह आदि। कुछ विशिष्ट अवसरों पर संबंधियों और बिरादरी वालों की ओर से हज्जामों, गानेवालियों और इसी प्रकार के नेगियों को मिलनेवाला थोड़ा-थोड़ा धन, जिसे पाकर वे वंश-बृद्धि का आशीर्वाद देते या शुभ कामना प्रकट करते हैं। क्रि० प्र०—देना।—पड़ना। ६. नाव खेने का डाँड़ा। बल्ली। ७. घोड़ों का एक रोग जिसमें उनके पैर सूज जाते हैं। स्त्री० [सं० वेला] १. तरंग। लहर। २. जलाशय का किनारा। तट। उदा०—गहि सु-बेल बिरलई समुझि बहिगे अपर हजार।—तुलसी। पुं० [फा० बेलच
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बेलक  : पुं० [फा० बेल्च
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बेलकी  : पुं० [हिं० बेल] चरवाहा।
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बेल-खजी  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत ऊँचा वृक्ष जिसके हीर की लकड़ी लाल होती है।
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बेल-गगरा  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली।
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बे-लगाम  : विं० [फा०] १. (घोड़ा) जिसके मुँह में लगाया न लगी हो। २. लाक्षणिक अर्थ में, मुँह-फट।
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बेल-गिरी  : स्त्री० [हिं० बेल+गिरी=भींगी] बेल के फल का गूदा।
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बेलचक  : पुं०=बेलचा।
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बेलचा  : पुं० [फा० बेल्चः] १. एक प्रकार की छोटी कुदाल जिससे माली लोग बाग की क्यारिया आदि बनाते हैं। २. किसी प्रकार की छोटी कुदाली। ३. एक प्रकार की लंबी खुरपी।
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बे-लज्ज़त  : वि० [फा० बेलज्ज़त। १. जिसमें किसी प्रकार की लज्जत अर्थात् स्वाद न हो। स्वाद-रहित। २. नीरस। फीका। ३. जिसमें कोई आनन्द आ सुख न हो। जैसे—गुनाह बेलज्जत।
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बेलड़ी  : स्त्री० [हिं० बेल+ ड़ी (प्रत्य०) छोटी बेल या लता। बौंर।
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बेलदार  : पुं० [फा०] वह मज़दूर जो फावड़ा चलाने, ज़मीन खोदने आदि का काम करता हो। वि० [हिं० बेल+फा० दार] जिसमें बेल-बूटे बने हों। जैसे—बेलदार साड़ी।
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बेलदारी  : स्त्री [फा०] फावड़ा चलाने का काम, भाव या मजदूरी।
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बेलन  : पुं० [हिं० बेलना] १. लकड़ी, पत्थर, लोहे आदि का वह भारी, गोल और दंड के आकार का खंड जो अपने अक्ष पर घूमता है और जिसे लुढ़काकर कोई चीज पीसते, किसी स्थान को समतल करते अथवा कंकड़, पत्थर आदि कूटकर सड़के बनाते है। (रोलर) २. यंत्र आदि में लगा हुआ इस आकार का कोई बड़ा पुरज़ा जो घुमाकर दबाने आदि के काम में आता है। जैसे—छापने की मशीन का बेलन।य़ ३. कोल्ह का जाठ। ४. रुई धुनने की मुठिया या हत्था। ५. करधे में का पौसार। ६. रोट। पूरी आदि बेलने का बेलना’ नामक उपकरण। पुं० [देश०] १. एक प्रकार का जड़हन धान। २. एक में मिलाई हुई वे दो नावें जिनकी सहायता से डूबी हुई नाव पानी में से निकाली जाती है।
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बेलना  : सं० [सं० वलन] १. रोटी, पूरी, कचौरी आदि के पेड़े या लोई को चकले पर रखकर बेलने (उपकरण) की सहायता से आगे-पीछे बार-बार चलाते हुए बढ़ाकर बड़ा पतला करना। मुहा०—(की तरह के) पापड़ बेलना=अनेक प्रकार के ऐसे काम करना जिनमें से किसी में भी सफलता न हो। जैसे—वे कई तरह के पापड़ बेल चुके है। २. कपास ओटना। ३. चौपट या नष्ट करना। मुहा०—पापड़ बेलना=काम बिगाड़ना। चौपट करना। जैसे—यह सारा पापड़ आपका ही बेला हुआ है। ४. मनोविज्ञान के लिए जलाशय में एक दूसरे पर पानी के छीटे उड़ाना। पुं० काठ। पीतल आदि का बना हुआ एक प्रकार का लंबा उपकरण जो बीच में मोटा और दोनों ओरकुछ पतला होता है और जो प्रायः रोटी, पूरी कचौरी आदि की लोई को चकले पर रखकर बेलने के काम आता पूरी, कचौरी आदि की लोई को चकले पर रखकर बेलने के काम आता है।
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बेलनी  : स्त्री० [हिं० बेलना] कपास ओटने की चरखी।
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बेलपत्ती  : सत्री=बेलपत्र।
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बेलपत्र  : पुं० [सं० बिल्वपत्र] बेल (वृक्ष) के पत्ते।
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बेलपात  : पुं०=बेलपत्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेलबागुरा  : पुं० [डिं०] हिरनों को पकड़ने का जाल।
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बेलबूटे  : पुं० [हिं० बेल+बूटे] किसी चीज पर अंकित या चित्रित लताओं, पेड़-पौधों आदि के अंकन या चित्र।
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बेलवाना  : सं० [हिं० बेलना का प्रे०] बेलने का काम दूसरे से कराना।
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बेलसना  : अ० [सं० विलास+ना (प्रत्य०)] भोग-विलास करना। सुख लूटना। आनंद करना।
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बेलहरा  : पुं० बिलहरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेलहरी  : पुं० [हिं० बल+ हरी (प्रत्य,)। साँची पान।
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बेल-हाजी  : स्त्री० [हिं, बेल+ हाजी ?] धोती आदि के किनारों पर लहरियेदार बेल छापने का लकड़ी का ठप्पा। (छीपी)
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बेल-हाशिया  : पुं० [हिं० बेल+फा० हाशिया] धोती आदि के किनारों पर बेल छापने का ठप्पा।
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बेला  : पुं० [सं० मल्लिका ?] १. चमेली आदि की जाति का एक प्रकार का छोटा पौधा जिसमें सफेद रंग के सुगंधित फूल लगते हैं। इसके मोतिया, मोगरा और मदनवान नामक तीन प्रकार होते है। २. मल्लिका। त्रिपुरा। ३. बेले के फूल के आकार का एक प्रकार का गहना। स्त्री० [सं० वेला] १. समय। वक्त। जैसे—सबेरे की बेला। मुहा०—बेला- बाँटना=सेबेरे या सन्ध्या के समय नियमित रूप से गरीबों को अन्न, धन आदि बाँटना। २. पानी की लहर। ३. समुद्र का किनारा जहाँ लहरें आकर टकराती हैं। ४. एक प्रकार का छोटा कटोरा। ५. चमड़े की बनी हुई एक प्रकार की छोटी कुल्हिया जिसमें लकड़ीकी लंबी ड़डी लगी रहनी है और जिसकी सहायता से तेल नापते या दूसके पात्र में डालते हैँ। स्त्री० [अ० वायोलिन] सारंगी की तरह का एक प्रकार का पाश्चात्य बाजा।
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बेलाई  : स्त्री० [हिं० बेलना+आई (प्रत्य०)] १. बेलने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. धातु के पत्तरों को यंत्र की सहायता से दबाकर चौड़ा या लंबा करना। स्त्री०=बिलाई (बिल्ली)।
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बे-लाग  : वि० [फा० बे+हि० लाग=लगावट] १. जिसमें किसी प्रकार की लगावट या संबंध न हों। बिलकुल अलग और साफ या स्वतंत्र। २. सच्चा और साफ। खरा।
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बेलावल  : पुं० [सं० वल्लभ] १. पति। २. प्रियतम। स्त्री० [सं० वल्लभा] १. पत्नी। २. प्रियतमा। पुं०=बिलावल (राग)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेंलि  : स्त्री०=बेल (वल्ली)। उदा०—अँसुवन तन सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बेलिया  : स्त्री० [हिं० बेला का अल्पा०] छोटी कटोरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेली  : पुं० [हिं० बल ?] रक्षक और सहायक। जैसे—गरीबों का भी है अल्लाह बेली।—कोई शायर। स्त्री० [सं० वल्ली] १. बेल। लता। २. रहस्य-संप्रदाय में (क) विषय-वासना। (ख)। ईश्वर-भक्ति के रूप में फैलनेवाली बेल।
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बेलुत्फ  : वि० [फा०+अ०] [भाव० बेलुत्फी] जिससे कोई लुत्फ या मजा न मिल रहा हो। बेमजा।
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बे-लौस  : वि० [फा० बे+ अ० लौस] [भाव० बेलौसी] जो किसी से लौस अर्थात् कामनापूर्ण लगाव या सम्बन्ध न रखता हो, अर्थात् खरा और सच्चा व्यवहार करनेवाला। पाक-साफ।
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बेवकूफ  : वि० [फा० बे+अ० वुकूफ़] [भाव० बेवकूफी] जिसे किसी प्रकार का वकूफ़ अर्थात् शऊर न हो। मूर्ख। निर्बुद्धि। नासमझ। बेवकूफी
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बे-वक्त  : अव्य० [फा०+अ०] कुसमय में।
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बे-वजह  : अव्य० [फा०+अ०] बिना किसी वजह अर्थात् कारण या हेतु के। निष्प्रयोजन।
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बेवट  : स्त्री० [?] १. विवशता। २. संकट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-वतन  : वि० [फा०] १. जिसका कोई वतन अर्थात् देश न हो। २. जिसके रहने आदि का कोई ठिकाना न हो। बे-घर बार का। ३. परेदेसी। विदेशी।
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बेवतना  : स०=ब्योंतना।
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बेवपार  : पुं०=व्यापार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवपारी  : पुं०=व्यापारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-वफ़ा  : वि० [फा० बे+अ० वफ़ा] [भाव० बेवफाई] १. जिसमें वफा अर्थात् निष्ठा, सद्भाव आदि बातें न हों; फलतः कृतध्न। २. वचन भंग करनेवाला। दगाबाज।
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बेवफाई  : स्त्री० [फा०+अ०] १. बेवफा होने की अवस्था या भाव। कृतध्नता। २. वचन भंग। दगाबाजी।
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बेवर  : पुं० [देश०] एक तरह की घास जो रस्सी बुनने के काम आती है।
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बेवरा  : पुं०=ब्योरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवरेबाजी  : स्त्री [हिं० ब्यौरा+फा० बाजी] चालाकी। चालबाजी। (बाजारू)
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बेवरेवार  : वि० [हिं० बेवरा+ वार (प्रत्य० )] तफसीलवार। विवरण-सहित।
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बेवसाउ  : पुं०=व्यवसाय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवस्था  : स्त्री०=व्यवस्था।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवहना  : अ० [सं० व्यवहार] १. व्यवहार करना। बरताव करना। बरतना। २. सूद पर रुपयों का लेन-देन करना।
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बेवहरिया  : पुं० [सं० व्यवहार+इया (प्रत्य०)]१. सूद पर रुपया का लेन-देन करनेवाला। महाजन। २. बही-खाता लिखनेवाला। लिपिक। मुनीम।
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बेवहार  : पुं० [सं० व्यवहार] १. सूद पर रुपए उधार देने का व्यवसाय। महाजनी। २. रोजगार। व्यापार। ३. दे० ‘व्यवहार’।
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बेवहारी  : पुं०=बेवहरिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवा  : स्त्री० [फा० बेव
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बेवाई  : स्त्री०=बिवाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेवान  : पुं०=विमान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेश  : वि० [फा०] [भाव० बेशी] अधिक। ज्यादा। जैसे—वेश कीमत=बहुत अधिक मूल्य का। अव्य० ऐसा ही सही। अच्छा। (पूरब) पुं०=भेस (वेष)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-शऊर  : वि० [फा० बे०+अ० शुऊर] [भाव० बेशऊरी] जिसे शऊर न हो। अर्थात् जिसे कोई काम ठीक तरह से करने का ढंग न आता हो। मूर्ख।
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बेशऊरी  : स्त्री० [फा० बे+शऊर+हि० ई (प्रत्य०)] बे-शऊर होने की अवस्था या भाव।
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बे-शक  : अव्य० [फा० बे+अ० शक] १. बिना किसी प्रकार के शक या संदेश के। २. अवश्य। जरूर। निःसन्देह।
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बेश-कीमत  : वि० [फा० बेश+अ० कीमत] बहुमूल्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेश-कीमती  : वि०=बेशक़ीमत।
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बे-शरम  : वि० [फा० बेशर्म] [भाव० बेशरमी] जिसे शरम हया न हो। निर्लज्ज। बेहया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-शरमी  : स्त्री० [फा० बेशर्मी] निर्लज्जता। बेहयाई।
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बेशी  : स्त्री० [फा०] १. बेश होने की अवस्था या भाव। २. अधिकता। ज्यादती। ३. लाभ। नफा।
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बे-शुबहा  : अ० [फा० बे+अ० शुब्हः] बिना किसी शक या शुबहा के। निःसंदेह। बेशक।
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बेशुमार  : वि० [फा०] [भाव० बेशुमारी] जो गिना न जा सके। अगणित। असंख्य। अनगिनत।
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बेशोकम  : वि० [फा०] थोड़ा-बहुत।
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बेश्म  : पुं० [सं० वेश्म] घर। मकान।
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बेसंदर  : पुं० [सं० वैश्वानर] अग्नि।
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बे-संभार  : वि० [फा० बे+हिं० सँभाल=सुध] जो अपने आपको सँभाल न सकता हो अर्थात् अचेत या बेसुध।
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बेस  : स्त्री० [सं० वयम्] उम्र। अवस्था। उदा०—बाल बेस ससि ता समीप, अम्रित रस पिन्निय।—चंदबरदाई। पुं० वि०=बेश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेसन  : पुं० [देश०] चने की दाल का चूर्ण। चने का आटा।
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बेसनी  : वि० [हिं० बेसन+ई (प्रत्य० )] १. बेसन का बना हुआ। जैसे—बेसनी लड्डू। २. जिसमें बेसन पड़ा या मिला हो। जैसे—बेसनी पूरी या रोटी। स्त्री० १. बेसन की बनी हुई पूरी। २. बेसन भरकर बनाई हुई कचौरी।
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बे-सबब  : अव्य० [फा०] बिना कारण। अकारण।
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बे-सबर (ा)  : वि० [फा० बे+अ० सब्र+हि० आ (प्रत्य) हि० आ (प्रत्य)] [भाव० बेसवरी] जिसे सब्र या संतोष न होता हो। जो संतोष न रख सके। अधीर।
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बे-सबरी  : स्त्री० [फा० बे+अ० सब्री] बेसबर होने की अवस्था या भाव अधीरता।
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बे-समझ  : वि० [फा० बे+हिं० समझ] मूर्ख। निबुर्द्धि। ना-समझ।
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बे-समझी  : स्त्री० [हिं० बेसमझ+ई (प्रत्य०)] बे-समझ होने की अवस्था या भाव। मूर्खता। नासमझी।
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बेसर  : स्त्री० [?] नाक में पहनने की एक तरह की बुलाक। पुं० १. गधा। २. खज्जर। ३. एक अंत्यज जाति।
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बेसरा  : वि० [फा० बे+सरा= ठहरने का स्थान] जिसके लिए ठहरने का कोई स्थान न हो। आश्रयहीन। पु० एक प्रकार की चिड़िया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-सरोसामान  : वि० [फा०] १. जिसके पास कुछ भी सामान या सामग्री न हो। २. दरिद्र। कंगाल।
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बे-सलीका  : वि० [फा० बे+अ० सलीक़ः] [भाव० बेसलीकगी] १. जिसे काम करने का सलीका या ढंग न आता हो। २. अशिष्ट और असम्य।
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बेसवा  : स्त्री०=वैश्या। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेसवार  : पुं० [देश०] वह सड़ाया हुआ मसाला जिससे शराब चुआई जाती है।
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बेसहना  : स०=बेसाहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेसा  : स्त्री०=वेश्या। पुं० भेस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेसाख्ता  : अव्य० [बे+साख़्तः] [भाव० बेसाख्तगी] बिलकुल आप से आप और स्वाभाविक रूप से।
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बेसारा  : वि० [हिं० बैठाना, गुज० बैसाना] १. बैठानेवाला। २. जमाकर रखने या स्थापित करनेवाला।
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बेसाहना  : स० [सं० व्यवसन] १. मोल लेना। खरीदना। २. जान-बूझकर अपने ऊपर लेना अथवा पीछे या साथ लगाना। बिसहना। जैसे—किसी से झगड़ा या बैर बेसाहना।
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बेसाहनी  : स्त्री० [हिं० बेसाहना] १ खरीदने या मोल लेने की किया या भाव। क्रय। २. मोल ली हुई चीज। सौदा। ३. जान-बूझकर अपने पीछे लगाई हुई चीज या बात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेसाहा  : पुं० [हिं० बेसाहना] १. खरीदी हुई चीज। सौदा। सामग्री। २. जान-बूझकर अपने ऊपर लिया हुआ संकट।
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बे-सिलसिले  : अव्य० [हिं० बे+फा० सिलसिला] बिना किसी कम या सिलसिले के। अव्यवस्थित रूप से।
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बेसी  : स्त्री०=बेशी। वि०=बेश।
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बेसुध  : वि० [फा०+हिं० सुध-होश] १. जिसे सुध अर्थात् होश न हो। अचेत।बेहोश। २. जिसका होश-हवास ठिकाने न हो। बहुत घबराया हुआ। बद-हवास।
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बेसुधी  : स्त्री० [हिं, बेसुध+ई (प्रत्य०)] बेसुध होने की अवस्था या भाव।
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बेसुर  : वि०=बेसुरा।
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बेसुरा  : वि० [हिं० बे+सुर=स्वर] १. जो नियमित स्वर में न हो। जो अपने नियत स्वर से हटा हुआ हो। (संगीत) जैसे—बेसुरा गाना। २. (व्यक्ति) जो ठीक स्वर में न गाता हो। ३. जो उपयुक्त अथवा ठीक अवसर या समय पर न हो। बे-मौका।
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बेसूद  : वि० [फा०] जिसमें कुछ भी लाभ न हो। बेफायदा।
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बेस्या  : स्त्री० [सं० वेश्या] १. रंडी। वेश्या। २. एक प्रकार की बर्रे जो देखने में बहुत सुन्दर होती है पर जिसका डंक बहुत जहरीला होता है।
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बे-स्वाद  : वि० [हिं०+सं० स्वादु] १. जिसमें कोई अच्छा स्वाद न हो। स्वाद-रहित। २. नीरस। फीका।
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बेहंगम  : वि० [सं० विहंगम] १. जो देखने में भद्दा हो। बेढंगा। २. बेढब। ३. विकट।
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बेहँसना  : अ०=विहँसना (ठठाकर हँसना)।
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बेह  : पुं० [सं० बेध] १. छेद। सुराख। २. दे० ‘वेध’।
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बेहर  : पुं० [?] पहाड़ी इलाकों में वह नीची और ऊबड़-खाबड़ भूमि जिसकी बहुत सी मिट्टी नदी या वर्षा के जल से बह गई हो, और जगह जगह गहरे गड्ढ़े पड़ गये हों।
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बेहड़  : वि० पुं०=बीहड़ पुं०=बेहट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेहतर  : वि० [फा०] अपेक्षाकृत अच्छा। किसी की तुलना या मुकाबले में अच्छा। किसी से बढ़कर। अव्य० प्रार्थना या आदेश के उत्तर में स्वीकृति-सुचक अव्यय। अच्छा। (प्रायः इस अर्थ में इसका प्रयोग ‘बहुत’ शब्द के साथ होता है। जैसे—आप कल सुबह आइयेगा ? उत्तर—बहुत बेहतर।
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बेहतरी  : स्त्री० [फा०] १. बेहतर होने की अवस्था या भाव। अच्छापन। २. उपकार। भलाई। ३. कल्याण। मंगल।
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बेहद  : वि० [फ़ा०] १. जिसकी हद या सीमा न हो। असीम। अपार। २. बहुत अधिक।
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बेहन  : पुं० [सं० वपन] अनाज आदि का बीज जो खेत में बोया जाता है। बीया। कि० प्र०—डालना।—पड़ना। वि० [?] जर्द। पीला।
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बेहना  : पुं० [देश०] १. जुलाहों की एक जाति जो प्रायः रूई घुनने का काम करती है। २. धुनिया।
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बेहनौर  : पुं० [हिं० बेहन+और (प्रत्य०)] वह स्थान जहाँ धान या जड़हन का बीज डाला जाय। पनीर। बियाड़ा
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बे-हया  : वि० [फा०] [भाव० बेहयाई] (व्यक्ति) जिसे हया या लज्जा न हो। निर्लज्ज। बेशर्म।
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बे-हयाई  : स्त्री० [फा०] बेहया होने की अवस्था या भाव। बेशर्मी। निर्लज्जता।
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बेहर  : वि० [सं० विहृ ?] १. अचर। स्थावर। २. अलग। जुदा। पृथक्। उदा०—बेहर बेहर भाऊ तेन्ह खँड-खँड ऊपर जा।—जायसी। पुं० [?] वापी।= बावली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेहरना  : अ० [हिं० बेहर] किसी चीज का फटना या तड़क जानआ। दरार पड़ना।
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बेहरा  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार की घास जिसे चौपाये बहुत चाव से खाते हैं। (बुंदेल०) २. मूँज की घास जिसे चौपाये बहुत चाव से खाते हैं। (बुंदेल०) २. मूँज की बनी हुई गोल या चिपटी पिटारी जिसमें नाक में पहनने की नथ रखी जाती है। वि० [हिं० बेहर] अलग। जुदा। पृथक्। पुं०=बेयरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेहराना  : सं० [हिं० बेहरना का स०] फाड़ना।
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बेहरी  : स्त्री० [सं० विहृति= बलपूर्वक लेना] १. किसी विशेष कार्य के लिए बहुत से लोगों से चंदे के रूप में माँगकर थोड़ा-थोड़ा धन इकट्ठा करने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—उगाहना—माँगना। २. उक्त प्रकार से इकट्ठा किया हुआ धन। ३. वह किस्त जो असामी शिकमीदार को देता है। बाछा।
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बेहला  : पुं० [अं० वायोलिन] सारंगी की तरह का एक प्रकार का पाश्चात्य बाजा।
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बेहाई  : स्त्री० [फा बे-हयाई] बेहया होने की अवस्था या भाव। निर्लज्जता। बेशरमी। क्रि० वि० बे-हया बनकर। निर्लज्जता-पूर्वक। उदा०—आए नैन घाइ कै लीजै, आवत अब बेहया बेहाई।—सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-हाथ  : वि० [फा० बे+हि० हाथ] १. जो अपने हाथ (अर्थात् कार्य करने की शक्ति या साधन) से रहित या हीन हो चुका हो। जैसे—फारखती लिखकर तो तुम बे-हाथ हो चुके हो। २. जो हाथ (अर्थात् अधिकार या वश) के बाहर हो गया हो। जैसे—अब तो लड़का तुम्हारे हाथ से निकल कर बे-हाथ हो चुका हो।
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बेहान  : पुं०=बिहान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-हाल  : वि० [फा० बे+अ० हाल] [भाव० हाली] १. जिसका बेहाल अर्थात् दशा बहुत बिगड़ गई हो। मरणासन्न। २. दुर्दशाग्रस्त। ३. अचेत। संज्ञाहीन। ४. व्याकुल। विकल।
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बे-हाली  : स्त्री [फा०] १. बेहाल होने की अवस्था या भाव। २. बेचैनी। व्याकुलता।
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बे-हिसाब  : अव्य० [फा० बे+अ० हिसाब] बहुत अधिक। बहुत ज्यादा। वि० असंख्य।
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बेही  : स्त्री० [?] नव विवाहित वर-बधू को गाँव के कुम्हारों द्वारा दिया जानेवाला नया बर्तन। (पूरब) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-हुनर  : वि० [फा०] १. जिसे कोई हुनर न आता हो। २. जो कुछ भी काम न कर सकता हो। मूर्ख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बे-हुनरी  : स्त्री० [फा०] किसी प्रकार का हुनर या गुण न होने की अवस्था या भाव।
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बे-हुरमत  : वि० [फा०] [भाव० बेहुरमती] जिसकी कोई प्रतिष्ठा न हो। बेइज्जत।
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बे-हूदगी  : स्त्री० [फा०] १. बेहूदा होने की अवस्था या भाव। असभ्यता। अशिष्टता। २. बेहूदेपन से भरा हुआ काम या बात।
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बेहूदा  : वि० [फा० बेहूदः] १. (व्यक्ति) जिसे तमीज़ या समझ न हो और इसीलिए जो शिष्टता या सभ्यतापूर्वक आचरण या व्यवहार करना न जानता हो। (२. काम या बात) जो शिष्टता या सभ्यता ते विरुद्ध हो। अशिष्टता-पूर्ण।
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बेहूदापन  : पुं० [फा० बेहूदा+पन (प्रत्य०)] बेहुदा होने की अवस्था या भाव। बेहूदगी। अशिष्टता।
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बे-हून  : अ० य० [सं० विहीन] बिना। बगैर। रहित।
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बे-हैफ  : वि० [फा० बेहैफ] बेफिक्र। जिससे कोई चिंता न हो। चिंतारहित।
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बे-होश  : वि० [फा०] [भाव० बेहोशी] जिसे होश न रह गया हो। मूर्च्छित। बेसुध। अचेत।
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बे-होशी  : स्त्री० [फा०] बेहोश होने की अवस्था या भाव। मूर्च्छा। अचेतनता।
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बेगना  : पुं० बैगनी (पकवान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बेनसगाई  : स्त्री० [हिं० बैन+सगाई] रचना में होने वाला अनुप्राय। वर्णमैत्री। (राज०)
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