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बैंक  : पुं० [अं०] दे० ‘बंक’ (महाजनी कोठी)।
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बैंकर  : पुं० [अं०] महाजन।
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बैंगन  : पुं० [सं० वंगण ?] १. एक पौधा जिसके लंबोतरे फलों की तरकारी बनाई जाती है। भंटा। २. उक्त पौधे का फल जिसकी तरकारी बनाई जाती है। भंटा। २. उक्त पौधे का फल जिसकी तरकारी बनती है। ३. दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का धान और उसका चावल।
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बैंगनी  : वि० [हिं० बैगन+ई (प्रत्य०)] बैंगन के रंग का। जो ललाई लिये नीले रंग का हो। बैंजनी। पुं० उक्त प्रकार का रंग। स्त्री० एक प्रकार का पकवान जो बैंगन के टुकड़ों को घुले हुए बेसन में लपेटकर और घी या तेल में तलकर बनाया जाता है।
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बैंच  : पुं० [?] एक प्रकार का वृक्ष और उसका फल। स्त्री०=बेंच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैंजनी  : वि०=बैंगनी।
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बैंटा  : पुं०=बेंट (मुठिया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैंड  : पुं० [अं०] १. झुंड। दल। २. अँगरेजी बाजा बजाने वालों का दल जिसमें सब लोग मिलकर एक साथ बाजा बजाते हैं। ३. पाश्चात्य ढंग के कुछ विशिष्ट बाजों का समूह दो एक साथ बजाये जाते हैं।
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बैंड़ना  : सं०=बेड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैंडा  : वि०=बेंड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैंडी  : स्त्री० [?] तालाब या जलाशय में सींचने के लिए पानी उछालने का कार्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैंत  : पुं० १.=बैत। २. बेंत।
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बै  : स्त्री० [अ० बे] रुपए, पैसे आदि के बदले में कोई वस्तु दूसरे को इस प्रकार दे देना कि उस पर अपना कोई अधिकार न रह जाय। बेचना। बिक्री। स्त्री० [सं० याय] करघे में की कंघी। बैसर। स्त्री०=वय (अवस्था या उमर)।
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बैकना  : अ०=बहकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैकल  : वि० [सं० विकल, मि० फा० बेफल] १. विकल। बेचैन। २. पागल। उन्मत्त।
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बैकुंउ  : पुं०=वैकुण्ठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैखरी  : स्त्री०=वैखरी।
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बैखानस  : वि० बैखानस।
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बैन  : पुं० [अ०] १. थैला। झोला। २. बोरा।
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बैगन  : पुं०=बैगन।
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बैंजनी  : स्त्री० [सं० बैजयंती] १. फूल के एक पौछे का नाम जिसके पत्ते हाथ-हाथ भर लंबे और चार पाँच अंगुल चौड़े धड़ या मूल कांड से लगे हुए होते हैं। २. विष्णु के गले की माला का नाम।
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बैज  : पुं० [अं०] १. चिन्ह। निशान। २. चपरास। ३. संस्था आदि का चिन्ह सूचित करनेवाला पट्टा का कागज अथवा कपड़े का टुकड़ा। बिल्ला।
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बैजई  : वि० [फा० बैजावी] हलके नीले रंग का। पुं० उक्त प्रकार का अर्थात् हलका नीला रंग।
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बैजनाथ  : पुं०=बैद्यनाथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बैजला  : पुं० [देश०] १. उर्द का एक भेद। २. कवड्डी नामक खेल।
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बैजवी  : वि० [अ० वज़ावी] १. अंडे का। २. अंडाकार।
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बैजा  : पुं० [अ० बैज़] १. अंडा। २. गलका नामक रोग जिसकी गिनती चेचक या शीतला में होती है।
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बैजावी  : वि० [अ० बज़ावी] अंडाकार।
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बैजिक  : वि० [सं० बीज+ठक्—इक] १. बीज-संबंधी २. मूल-संबंधी। ३. पैतृक। पुं० १. अंकुर। २. कारण। ३. आत्मा।
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बैटरी  : स्त्री० [अ०] १. तांबे या पीतल आदि का वह पात्र जिसमें रासायनिक पदार्थों के योग से रासायनिक प्रक्रिया द्वारा बिजली पैदा करके काम में लाई जाती है। (बैटरी) मुहा०—बैटरी चढाना= बैटरी या बिजली की सहायता से किसी चीज पर किसी धातु का मुलम्मा करना। २. तोपखाना।
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बैटा  : स्त्री० [देश०] रूई ओटने की चरखी। ओटनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैठ  : पुं० [हिं० बैठना=पड़ता पड़ना] सरकारी मालगुजारी या लगान की दर। राजकीय कर या उसकी दर।
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बैठक  : स्त्री० [हिं० बैठना] १. बैठने की क्रिया, ढंग भाव या मुद्रा। जैसे—इस जानवर की बैठक ही ऐसी होती है। बैठकी। २. घर का वह कमरा जिसमें प्रायः आये-गये लोग बैठकर आपस में बात-चीत करते हैं। बैठका। ३. बैठने के लिए बना हुआ कोई आसन या स्थान। उदा०—अति आदर सों बैठक दीन्ही।—सूर। ४. नीचे का वह आधार जिस पर खंभा। मूर्ति या ऐसी ही और कोई चीज खड़ी की या बैठाई जाती है। पद-स्तल। ५. सभा सम्मेलन आदि का एक बार में और एक साथ होनेवाला कोई अधिवेशन। (सिटिंग) जैसे—आज सम्मेलन की दूसरी बैठक होती। ६. कुछ लोगों के आपस में प्रायः संग मिलकर बैठने की किया या भाव। बैठकी। ७. एक प्रकार की कसरत जिसमें बार-बार खड़ा होना और बैठना पड़ता है। बैठकी। क्रि० प्र०—लगाना। ८. किसी विशिष्ट उद्देश्य से किसी स्थान पर जाकर जब तक बैठने की क्रिया, जब तक वह काम पूरा न हो जाय। ९. काँच, धातु आदि का दीवट जिसके सिरे पर बत्ती जलती या मोमबत्ती खोंसी जाती है। बैठकी। १॰. दें० ‘बैठकी’।
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बैठका  : पुं० [हिं० बैठक] १. वह चौपाल या दालान आदि जहाँ कोई बैठता हो और जहाँ जाकर लोग उससे मिलते या उसके पास बैठकर बातचीत करते हों। २. बैठक।
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बैठकी  : स्त्री० [हिं० बैठक+ई (प्रत्य०)] १. किसी स्थान पर प्रायः जाकर बैठने की क्रिया। जैसे–आज-कल वकील साहब के यहाँ उनकी बहुत बैठकी होती है। २. बार-बार बैठने और उठने की कसरत। बैठक। ३. बैठने का आसन। बैठक। ४. वेश्याओं का वह गाना जिसमें वे बैठकर गाती है, नाचती नहीं। ५. शीशे का वह झाड़ जो जमीन पर रखकर जलाया जाता है। (छत में लटकाये जानेवाले झाड़ से भिन्न) ६. वह नगीना जो किसी गहने में जड़कर बैठाया जाता है। (बेधकर पिरोये जानेवाले नगीने से भिन्न) जैसे—अँगूठी में जड़ा जाने-वाला मोती ‘बैठकी’ कहलाता है। वि० बैठने से सम्बन्ध रखनेवाला। जैसे—बैठकी हड़ताल।
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बैठकी हड़ताल  : स्त्री० [हिं०] हड़ताल का वह प्रकार या रूप जिसमें किसी कर्मशाला या कार्यालय में कर्मचारी लोग उपस्थित तो होते हैं, पर अपने अपने स्थान पर खाली बैठे रहते हैं, अपना काम नहीं करते। बैठ-हड़ताल। (सिट डाउन स्ट्राइक)
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बैठन  : स्त्री० [हिं० बैठना] १. बैठने की किया, ढंग या भाव। २. आसन। पुं०=बेठन।
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बैठना  : अ० [सं० वेशन, विष्ठ, प्रा० बिट्ठ+ना (प्रत्य०)] १. प्राणियों का अपने घुटने टेक या टाँगे मोड़कर शरीर को ऐसी स्थिति में करना या लाना कि धड़ सीधा ऊपर की ओर रहे और उसका सारा भार चूतड़ों और जाघों के नीचेवाले तल पर पड़े। शरीर का नीचेवाला आधा भाग किसी आधार पर टिका या रखकर पट्ठों के बल आसीन या स्थित होना। (खड़े रहने और लेटने या सोने से भिन्न) जैसे—कुरसी, चौकी या जमीन पर बैठना। विशेष—पक्षियों को बैठने के लिए प्रायः अपने पैर मोड़ने नहीं पड़ते और उनका खड़ा रहना तथा बैठना दोनों समान होते है। जब वे उड़ना छोड़कर जमीन या पेड़ की डाल पर खड़े होते हैं, तब उनकी वही स्थिति ‘बैठना’ भी कहलाती है। पर अंडे सेने के समय जब वे बैठते हैं, तब उनकी टाँगे भी मुड़ जाती है। पद—(कहीं या किसी के साथ) बैठना-उठना या उठना-बैठना=किसी के संग या साथ रहकर बात-चीत करना और समय बिताना। जैसे—उनका बैठना-उठना सदा से बड़े आदमियों के यहाँ (या साथ) ही रहा है। बैठते-उठते या उठते-बैठते=अधिकतर अवसरों पर। प्रायः। हर समय। जैसे—बैठते उठते। (या उठते-बैठते) ईश्वर का ध्यान रखना चाहिए। बैठे-बैठे= (क) अचानक। सहसा। उदा०—बैठे-बैठे हमें क्या जानिए क्या याद आया।—कोई शायर। (ख) बिना कुछ किये। जैसे—चलो, बैठे-बैठे तुम्हें भी सौ रुपये मिल गये। (ग) दें० ‘बैठे-बैठाये तुमने यह झगड़ा मोल ले लिया। मुहा०—बैठे रहना=कर्तव्य, कार्य आदि का ध्यान छोड़कर यथा-साध्य उससे अलग या दूर रहना। जैसे—तुम जहाँ जाते हों वही बैठ रहते हो। बैठे रहना= (क) कुछ भी काम-धंधा न करना। जैसे—छुट्टी के दिन वे घर पर ही बैठे रहते हैं, कहीं आते-जाते नहीं। (ख) किसी काम या बात में योग न देना अथवा हस्तक्षेप न करना। जैसे—मैं भी वहाँ चुपचाप बैठा रहा। कुछ बोला नहीं। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति या कार्य की सिद्धि के लिए आसन या स्थान ग्रहण करना। जैसे—(क) विद्यार्थी का पढ़ने के लिए (या परीक्षा में) बैठना। (ख) अधिकारी का काम के समय अपनी जगह पर या मालिक का गद्दी पर) बैठना। (ग) अपना चित्र अंकित कराने के लिए चित्रकार के सामने बैठना। (घ) चिड़ियों या मछलियों का अंडे सेने के लिए बैठना। ३. किसी का किसी पद या स्थान पर अधिकारी या स्वामी बनकर आसीन होना। जैसे—(क) उनके बाद उनका लड़का गद्दी पर बैठा। (ख) कल राज्य में नये राज्यपाल बैठेंगे। ४. जिस काम के लिए कोई उद्यत, तत्पर या सत्रद्ध हुआ हो, उससे अलग दूर या विरत होना अथवा संबंध छोड़ना। जैसे—(क) चुनाव के लिए जो चार उम्मेदार थे, उनमें से दो बैठ गये। (ख) अब उनके सभी सहायक और साथी बैठ गये हैं। ५. किसी प्रकार की सवारी पर आसीन या स्थित होना। जैसे—घोडे, नाव, मोटर या रेल पर बैठना। ६. किसी चीज का नीचेवाला अंश या भाग या जमीन में अच्छी तरह यथास्थान स्थित होना। ठीक तरह से लगना। जैसे—(क) यहाँ अभी एक खंभा और बैठेगा। (ख) इस जमीन में जड़हन (या धान) नहीं बैठेगा। ७. किसी स्थान पर जमकर या दृढ़तापूर्वक आसीन या स्थित होना। उदा०—हजरते दाग जहाँ बैठ गये, बैठ गये।—दाग। ८. स्त्रियों के संबंध में, किसी के साथ अवैध सम्बन्ध करके उसके घर में जाकर पत्नी के रूप में रहना। जैसे—विधवा होने पर वह अपने देवर के घर जा बैठी। ९. नर और मादा का संभोग करने के लिए किसी स्थान पर आना या होना, अथवा संभोग करना। (बाजारू) जैसे—इस बार यह कुतिया किसी बाजारू कुत्ते के साथ बैठी थी। १॰. किसी रखी जानेवाली अथवा अपने स्थान से हटी हुई चीज का उपयुक्त और ठीक रूप से उस स्थान पर जमना, फिर से आना या स्थित होना; जहाँ उसे वस्तुतः आना, रहना या होना चाहिए। जैसे—(क) धरन या पत्थर का अपनी जगह पर बैठना। (ख) टोपी या पगड़ी का सिर पर ठीक से बैठना। (ग) उखड़ी हुई नस या हड्डी का फिर से अपनी जगह पर बैठना। ११. जो ऊपर की ओर उठा या खड़ा हो, उसका गिर या हटकर नीचे आना या धराशायी होना। गिर पड़ना या जमीन से आ लगता। जैसे—(क) इस बरसात में पचासों मकान बैठ गये। (ख) कड़ाके की धूप या पाले से सारी फसल बैठ गई। (ग) भार की अधिकता के कारण नाव बैठ गई। १२. किसी काम, चीज या बात का अपने उचित या साधारण रूप में न चौपट या नष्ट हो जाना। जैसे—(क) लगातार कई बरसों तक घाटा होने के कारण उसका कारबार बैठ गया। (ख) अधिक व्यय और कुव्यवस्था के कारण संस्था बैठ गई। १३. तरल पदार्थ में घुली या मिली हुई चीज का निथर कर तल में जा लगना। जैसे—पानी में घोला हुआ चूना या रंग बैठना। १४. किसी उभारदार चीज का नष्ट या विकृत होकर कुछ गहरा या समतल हो जाना। पिचकना जैसे—(क) पुल्टिस लगाने से फोड़ा (या दवा लगाने से सूजन) बैठना। (ख) पुल्टिस लगाने से फोड़ा (या दवा लगाने से सूजन) बैठना। (ख) शीतला के प्रकोप से किसी की आँख बैठना। (ग) बीमारी या बुढ़ापे में गाल बैठना। १५. किसी चीज का गल, पिघल या सड़कर अपना गुण, रूप, स्वाद आदि गँवा देना। जैसे—(क) अधिक आँच लगने से गुड़ का बैठना। (ख) गंदे हाथ लगने से अचार का बैठना। (ग) पानी अधिक हो जाने से मात का बैठना। (घ) अधिक उमस के कारण अमरूद या आम बैठना। १६. नापने-तौलने, पड़ता निकालने या हिसाब लगाने पर किसी निश्चित मात्रा, मान, मूल्य आदि का ज्ञात अथवा स्थिर होना। जैसे—(क) तौलने पर गेहूँ का बोरा सवा दो मन बैठा। (ख) नाव और उसका सामान खरीदने में तीन सौ रुपये बैठे। (ग) घर तक ले जाने में यह कपड़ा तीन रुपये गज बैठेगा। १७. प्रहार आदि के लिए अस्त्र-शस्त्र, शारीरिक अंग अथवा ऐसी ही किसी चीज का चलाये जाने या फेंके जाने पर अपने ठीक लक्ष्य पर जाकर लगता। जैसे—(क) निशाने पर गोला या गोली बैठना। (ख) शरीर पर थप्पड़ या मुक्का बैठना। १८. ग्रहों, तारों आदि का आकाश में नीचे उतरना या उतरते हुए क्षितिज के नीचे जाना। अस्त होना। जैसे—सूर्य के बैठने का समय हो चला था। १९. अर्थ, उक्ति, कथन सिद्धांत आदि का कहीं इस प्रकार लगना कि उसका ठीक ठीक आशय या रूप समझ मे आ जाय अथवा वह उपयुक्त रूप से घटित या चरितार्थ हो। जैसे—(क) यहाँ इस चौपाई का ठीक अर्थ नहीं बैठता। (ख) आपका वह कथन (या सिद्धांत) यहाँ बिलकुल ठीक बैठता है। २॰ कार्यो, क्रियाओं आदि के सम्बन्ध में, हाथ का इस प्रकार अभ्यस्त होना कि सहज में स्वभावतः उससे ठीक और पूरा परिणाम निकले। जैसे—बाजे पर (या लिखने में) अभी उसका हाथ ठीक नहीं बैठता है। संयो० कि०—जाना। विशेष—‘बैठना’ क्रिया का प्रयोग कुछ मुख्य क्रियाओं के साथ संयोज्य क्रिया के रूप में प्रायः नीचे लिखे अर्थों में भी होता है। (क) अवधारण या अधिक निश्चय सूचित करने के लिए; जैसे—कोई चीज खो या गँवा बैठना। (ख) कार्य की पूर्णता सूचित करने के लिए; जैसे—कहीं जा बैठना या मालिक बन बैठना। (ग) अनजान में या सहसा होनेवाली आकस्मिकता सूचित करने के लिए; जैसे—कह बैठना, दे बैठना या मार बैठना और (घ) दृढ़ता या धृष्टता सूचित करने के लिए; जैसे—चढ़ बैठना, पूछ बैठना, बिगड़ बैठना।
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बैठनि  : स्त्री०=बैठन (बैठक)।
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बैठनी  : स्त्री० [हिं० बैठन] वह आसन या स्थान जिस पर बैठकर जुलाहे करघे से कपड़ा बुनते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैठवाँ  : वि० [हिं० बैठना+वाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० बैठवीं] बैठा या दबा हुआ। फलतः चिपटा। जैसे—बैठवाँ जूता।
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बैठवाई  : स्त्री० [हिं० बैठवाना] १. बैठवाने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘बैठाई’।
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बैठवाना  : स० [हिं० बैठाना का प्रे०] बैठाने का काम दूसरे से कराना।
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बैठ-हड़ताल  : स्त्री०=बैठकी हड़ताल।
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बैठाना  : सं० [हिं० बैठना का स०] १. किसी को बैठने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम करना जिससे कोई बैठे। आसीन, उपविष्ट या स्थित करना जैसे—जो लोग खड़े हैं, उन्हें यथा-स्थान बैठा दो। २. किसी उद्देश्य की पूर्ति या कार्य की सिद्धि के लिए किसी को किसी पद या स्थान पर आसीन या नियुक्त करना। जैसे—(क) किसी को कहीं का प्रबंधक बनाकर बैठाना। (ख) झगड़ा निपटाने के लिए पंचायत बैठाना। (ग) रखवाली के लिए पहरा बैठाना। ३. आये हुए व्यक्ति या व्यक्तियों को आदरपूर्वक उचित आसन या स्थान पर आसीन करना। जैसे—अतिथियों को बैठाना। ४. किसी को किसी काम में इस प्रकार लगाना कि वह वहाँ आसन जमाकर काम करे। जैसे—पंड़ित को पूजा-पाठ के लिए या लड़के को किसी के यहाँ काम सीखने के लिए बैठाना। ५. जिस काम के लिए कोई उद्धत, तत्पर या सत्रद्ध हुआ हो, उससे उसे रोककर उम्मेदवार को बैठाना। ६. जो चीज किसी प्रकार उठी, उभरी या अपने स्थान से बढ़ी य़ा हटी हो० उसे फिर यथा-स्थान करना या लाना। जैसे—नस, सूजन या हड्डी बैठाना। ७. किसी को किसी यान या सवारी पर आसीन कराना। जैसे—बगीचे में पेड़-पौधे बैठाना। ९. उबालने, गरम करने, पकाने आदि के लिए आग या चूल्हे पर चढ़ाना या रखना। जैसे—दाल या दूध बैठाना। पद—बैठा भात=वह भात जो चावल और पानी एक ही साथ आग पर रखकर पकाया गया हो। १॰. किसी प्रकार या रूप में नीचे की ओर गिराना, दबाना या धँसाना। जैसे—उस कमरे के बोझ ने सारा मकान बैठा दिया। ११. कोई चलता हुआ काम इस प्रकार विकृत करना कि उसका अंत या नाश हो जाय। जैसे—ये नये कार्यकर्त्ता तो चार दिन में कारखाने (या संस्था) को बैठा देंगे। १२. किसी वस्तु या व्यक्ति को ऐसी अवस्था में लाना कि वह निक्म्मा, रद्दी या बेकार हो जाय। जैसे—(क) बीमारी (या बुढ़ाये) ने उन्हें बैठा दिया है। (क) तुमने लापरवाही से सारा अचार बैठा दिया। १३. किसी स्त्री को उपपत्नी बनाकर अपने घर ले आना और रखना। जैसे—उन्होंने एक वेश्या को बैठा लिया था। १४. नर और मादा को संभोग करने के लिए एक साथ रखना। जोड़ा खिलाना। जैसे—मुरगे को मुरगी के साथ बैठाना। १५. पानी आदि में घुली वस्तु को तल में ले जाकर जमाना। जैसे—यह दवा सब मैल नीचे बैठा देगी। १६. किसी काम में कौशल प्राप्त करने के लिए इस प्रकार अभ्यास करना कि शरीर का कोई अंग ठीक तरह से काम करने लगे। जैसे—चित्रकारी में हाथ बैठाना। १७. प्राहर के समय फेंक या चलाकर कोई चीज ठीक जगह पर पहुँचाना। क्षिप्त वस्तु को निर्दिष्ट लक्ष्य या स्थान पर जमाना या लगाना। जैसे—निशाना बैठाना। १८. उक्ति, कथन, सिद्धान्त आदि कहीं इस रूप में लगाना कि वह उपयुक्त या सार्थक जान पड़े। घटित करना। घटाना। जैसे—(क) आप अपना यहसिद्धान्त हर जगह नहीं बैठा सकते। (ख) इस दोहे का अर्थ बैठाओ तोजानें उत्तर याफल निकालने के लिए उचित किया या हिसाब करना। जैसे—जोड़ पड़त या हिसाब बैठना। २0 फगाहने आदि के लिए कर या शुल्क नियत करना जैसे। अब तो नित्य नए नए कर बैठाय जाते हैं। २१. कोई चीज किसी के पास गिरवी या रेहन रखना। (जुआरी) जैसे—उसके दाँव चुकाने के लिए अँगूठी बैठा दी। संयो० क्रि०—देना।
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बैठारना  : स०=बैठाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैठालना  : स०=बैठाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैड़ाल  : वि० [सं० विड़ाल+अण्] बिल्ली-सम्बन्धी।
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बैडाल-व्रत  : पुं० [सं० उप० स०] बिल्ली की तरह ऊपर से सौजन्य औक सद्भाव प्रकट करने पर भी मन में कपट छिपाये रखना और घात में लगे रहना।
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बैड़ालव्रती  : पुं० [सं० बैडालव्रच+इति] १. वह जो बैड़ालव्रत धारण किये हो। बिल्ली के समान से सीधा-सादा पर समय पर घात करनेवाला। कपटी। २. ऐसा व्यक्ति जो स्त्री के अभाव में ही सदाचारी बना हुआ हो, अपनी इन्द्रियों पर वश रखने के कारण सदाचारी न हो।
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बैढ़ना  : सं०=बेढ़ना (घेरना)।
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बैण  : पुं० [सं० वैण] बाँस की खपाचियों से टोकरियाँ तथा अन्य सामान बनानेवाला कारीगर।
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बैत  : स्त्री० [अ०] किसी शेर (पद्य) के दोनों चरण। मिसरों में से कोई मिसरा।
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बैतड़ा  : वि० [फा० बदतर ?] १. बदमाश। लुज्जा। २. बेहुदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैतबाजी  : स्त्री० [अ०+फा०] वह प्रतियोगिता जिसमें एक बालक एक शेर पढ़ता है और दूसरा बालक उक्त शेर के अन्तिम शब्द से आरम्भ होनेवाला दूसरा शेर पढ़ता है और इसी प्रकार यह प्रतियोगिता चलती रहती है।
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बैतरनी  : स्त्री० [सं० वतरणी] १. एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है। २. दे० ‘वैतरणी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैतरा  : पुं०=बैतड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैताल  : पुं०=बेताल।
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बैतालिक  : वि० पुं०=वैतालिक।
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बैतुल्लाह  : पुं० [अं०] १. खुदा का घर। २. मुसलमानों का काबा तीर्थ।
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बैद  : पु० [स्त्री० बैदिन]=वैद्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैदई  : स्त्री० [हिं० वैद] वैद्य का काम, पेशा या भाव। बैदगी। उदा०—अर्थ, सुनारी, बैदई, करि जानत पतिराम।—बिहारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैदाई  : स्त्री०=बैदई।
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बैदूर्य  : पुं०=वैदूर्य।
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बैदेही  : स्त्री०=वैदेही।
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बैन  : पुं० [सं० वचन, प्रा० वपन] १. वचन। बात। मुहा०—बैन झरना= मुँह से बात निकलना। २. वेणु। बाँसुरी। उदा०—मोहन मन हर लिया सुबैन बजाय कै।—आनंदघन। ३. घर में मृत्यु होने पर कुछ विशिष्ट शोकसूचक पद या वाक्य जिन्हें स्त्रियाँ कह कहकर रोती है। (पंजाब)
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बैनतेय  : पुं०=बैनतेय।
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बैना  : पुं० [सं० वापन] शुभ अवसरों पर इष्ट-मित्रों तथा सम्बन्धियों के यहाँ से आने अथवा उनके यहाँ भेजी जानेवाली मिठाई। क्रि प्र०—देना।—बाँटना।—भेजना। स० [सं० वपन] (बीज) बोना। पुं०=बेंदा। पुं०=बैन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैनामा  : पुं० [अ० बै+फा० नामा] वह पत्र जिसमें किसी वस्तु विशेषतः मकान या जमीन, जायदाद आदि के बेचने और उससे संबंध रखनेवाली शर्तों का उल्लेख होता है। विक्रय-पत्र। (सेल डीड)
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बैपर  : स्त्री० [सं० बधूवर=हिं० बहुअर] औरत।
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बैपार  : पुं०=व्यापार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैपारी  : पुं०=व्यापारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैमातेय  : वि०=वैमात्रेस।
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बैयाँ  : अव्य० [?] घटनों के बल। घटनों के सहारे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बैया  : पुं० [सं० बाय] बै। बैसर। (जुलाहे)
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बैरंग  : वि० [अं० बियरिंग] १. वह (चिट्ठी) जिस पर टिकट न लगाया हो फलतः जिसका महसूल उसे पानेवाले को चुकाना पड़ता हो। २. विफल। मुहा०—बैरंग लौटना=बिना काम हुए, विफल लौटना।
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बैर  : पुं० [सं० बैर] १. किसी का बहुत बड़ा अहित या अपकार करने की मन में होनेवाली उत्कट भावना जो स्वभावजन्य, कारण-जन्य अथवा ईर्ष्याजन्य होती है। २. बदला लेने की भावना। मुहा०—वैर काढ़ना= किसी का अहित या अपकार करके उसके द्वारा किये हुए अहित या अपकार का बदला चुकाना। बैर चितारना, चुकाना या साधना= पुराना बैर याद करके उसका बदला लेना। उदा०—पपैया प्यारे कब को बैर चिताइयों।—मीराँ। बैर ठानना=बदला लेने के लिए अथवा दुर्भावनाश किसी का अपकार करने के लिए तत्पर होना। बैर डालना= विरोध उत्पन्न करना। दुश्मनी पैदा करना। बैर निकालना= बैर काढ़ना। (किसी के) बैर पड़ना=प्रायः जान-बूझकर किसी को सताना। बैर बढ़ाना= अधिक दुर्भाव उत्पन्न करना। दुश्मनी बढ़ाना। ऐसा काम करना जिससे अप्रसन्न या कुपित मनुष्य और भी अपसन्न और कुपित होता जाय। बैर बिसाहना या मोल लेना=जिस बात से अपना कोई संबंध न हो, उसमें योग देकर दूसरे को व्यर्थ अपना विरोधी या शत्रु बनाना। बिना मतलब किसी से दुश्मनी पैदा करना। बैर मानना। दुश्मनी रखना। बैर लेना= किसी का अपकार करके वैर का बदला चुकाना। पुं० [सं० बदरी] बेर का पेड़ और उसका फल। पुं० [देश०] तल में लगा हुआ चिलम के आकार का चोंगा जिसमें भरे हुए बीज हल चलाने में बराबर कूँड़ में पड़ते जाते हैं।
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बैरक  : पुं० [तु० बैरक़] १. छोटा झंडा। झंडी। २. अधिकार में लाई हुई अथवा जीती हुई जमीन में हाड़ा जानेवाला झंडा। मुहा०—बैरक बाँधना= कोई अनुष्ठान करने अथवा दूसरों को अपना अनुयायी बनाने के लिए झंडा करना। उदा०—अपने नाम की बैरक बाँधों सुबस बसौ इहि गाँव—सूर। स्त्री० [अं०] छावनी में वह इमारत अथवा इमारतों की श्रृंखला जिसमें सैनिक समूह रहते हों।
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बैरख  : पुं०=बैरक (झंडा)।
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बैरन  : स्त्री० [हिं० बैरी का स्त्री० रूप] १. वह स्त्री जो किसी से शत्रुतापूर्ण व्यवहार करती हो। २. सौत।
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बैरा  : पुं० [देश०] १. हल के मूठे में बाँधा जानेवाला एक प्रकार का चोंगा जिसमें बोते समय बीज डाले जाते हैं। माला। २. ईट के टुकड़े, रोड़े आदि जो मेहराब बनाते समय उसमें चुनी हुई ईटों को जमी रखने के लिए खाली स्थान में भर देते हैं। पु० [अ० बेयरर] होटलों आदि में वह व्यक्ति जो अभ्यागतों को भोजन पहुँचाता है।
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बैराखी  : स्त्री०=बेरखी।
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बैराग  : पुं०=बैराग्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैरागर  : पुं० [बैर ?+सं० आगार] रत्नों आदि की खान। उदा०—गुणमणि बैरागर धीरज को सागर।—केशव।
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बैरागी  : पुं०=वैरागी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैराग्य  : पुं०=वैराग्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैराना  : अ० [हिं० बाई=वायु] वातग्रस्त होना। अ०=बौराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैरिस्टर  : पुं० [अं०] इंग्लैंड के उच्चतर न्यायालयों में बहस करने की मान्यता प्राप्त करनेवाला अधिवक्ता या वकील।
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बैरिस्टरी  : स्त्री० [अ० बैरिस्टरी+हिं० ई (प्रत्य०)] बैरिस्टरी का काम या पेशा।
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बैरी  : वि० [सं० वैरी, वैर+इनि] जिसका किसी से वैर हो। पुं० शत्रु।
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बैरोमीटर  : पुं० [अं०] वायु के दबाव या भार का सूचक एक वैज्ञानिक उपकरण।
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बैल  : पुं० [सं० बलिवर्दः] १. गाय से उत्पन्न प्रसिद्ध नर चौपाया जो गाड़ी, हल आदि में जोता जाता है। २. लाक्षणिक अर्थ में० (क) बहुत बड़ा मूर्ख व्यक्ति। (ख) परिश्रमी व्यक्ति। ३. रहस्य संप्रदाय में (क) शरीर (ख) त्रिगुण।
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बैल-मुतनी  : स्त्री० दे० ‘गौमूत्रिका’।
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बैलर  : पुं० [अं० ब्वायलर] पीपे के आकार का लोहे का बड़ा देग जो भाप से चलनेवाली कलों में होता है।
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बैलून  : पुं० [अं०] १. गुब्बारा। २. आज-कल वह बहुत बड़ा गुब्बारा जो विशिष्ट वैज्ञानिक अनुसंधानों आदि के लिए आकाश में उड़ाया जाता है; अथवा जिसके सहारे लोग कुछ दूर तक ऊपर आकाश में उड़ते हैं।
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बैल्व  : वि० [सं० बिल्व+ अण्] १. बेल वृक्ष अथवा उसकी लकड़ी से संबंध रखनेवाला। २. बेल की लकड़ी का बना हुआ। ३. (स्थान) जिसमें बहुत से बेल के वृक्ष हों।
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बैषानस  : पुं०=वैखानस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैष्क  : पुं० [सं०] शिकार किये हुए पशु का मांस।
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बैसंदर  : पुं०=बैसंतर (अग्नि)।
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बैस  : स्त्री० [सं० वयस्] १. वयस। वर। उमर। उदा०—बारी बैस गुलाब की, सींचत मनमथ छैल।—रसनिधि। २. युवास्था। जवानी कि० प्र०—चढ़ना। पुं०=वैश्य। पुं० (किसी मूल पुरुष के नाम पर) क्षत्रियों की एक प्रसिद्ध शाखा जो अधिकतर कन्नौज से अंतर्वेद तक बसी है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैसना  : सं०=बैठना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैसरा  : स्त्री० दें० ‘कंघी’ (जुलाहों की)।
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बैसवाड़ा  : पुं० [हिं० बैस+बाड़ा (प्रत्य०)] [वि० बैसवाड़ी] अवध के दक्षिण-पश्चिमी भू-भाग का नाम।
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बैसवाड़ी  : वि० [हिं० बैसवाड़ा] बैसवाड़े में होनेवालास्त्री० बैसवाड़े की बोली। पुं० बैसवाड़े का निवासी।
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बैसा  : पुं० [सं० वंश बाँस] औजारों की मूठ या दस्ता। उदा० वैसी लगै कुठार को...। वृंद।
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बैसाख  : पुं० [सं० बैशाख] चैत के बाद और जेठ के पहले का महीना। वैशाख।
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बैसाखी  : स्त्री० [सं० वैशाख] १. सौर वैशाख का पहला दिन। २. उक्त दिन मनाया जानेवाला त्यौहार। स्त्री० [सं० द्विशाखी= दो शाखाओंवाला] १. वह डंडा जिसे बगल के नीचे रखकर लंगड़े चलते है। २. डंडा।
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बैसारना  : सं०=बैठाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैसिक  : पुं०=वैशिक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैस्वा  : स्त्री०=वेश्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बैहर  : वि० [सं० वैर=भयानक] भयानक। विकट। स्त्री० [सं० वायु०] वायु। हवा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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