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भंग  : पुं० [सं०√भंज्+घञ्] १. टूटने की क्रिया या भाव। २. वि-घटित करने की क्रिया या भाव। ३. ध्वंस। नाश। ४. पराजय। हार। ५. खंड। टुकड़ा। ६. भेद। ७. कुटिलता। टेढ़ापन। ८. बीमारी। रोग। ९. गमन। जाना। १॰. पानी के निकलने का स्थान। सोत। स्रोत। ११. डर। भय। १२. तरंग। लहर। १३. बाधा। विघ्न। १४. लकवा नामक रोग। १५. निश्चय प्रतीति नियम आदि से पढ़नेवाला अन्तर। १६. कर्त्तव्य व्यवस्था आदि का बीच में कुछ समय के लिए रूकना और ठीक तरह से न चल सकना (ब्रीच) जैसे—शांति भंग। स्त्री० [सं० भंगा०] एक पौधा जिसकी पत्तियां नशीली होने के कारण लोग पीसकर पीते हैं। भाँग। पुं० =विभंग।
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भंगड़  : पुं० [हिं० भांग+अड़ (प्रत्यय)] वह जो नित्य भाँग पीने का अभ्यस्त हो। जिसे भाँग पीने की लत हो।
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भँगड़ा  : पुं० [हिं० भंगेड़ी] बड़े ढोल के ताल पर होनेवाला पंजाबियों का एक प्रकार का लोक नृत्य। विशेष—अभी कुछ दिन पहले तक पंजाब के जाट और सिक्ख खूब भंग पीया करते थे, हो सकता है कि उस भंग की तरंग में खूब नाचने के कारण इसका नाम भँगड़ा पड़ा हो।
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भंगना  : अ० [हिं० भंग] १. भग्न होना। टूटना। २. किसी से दबाना। स० १. भग्न करना। तोड़ना। २. किसी को दबाना या हराना।
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भंग-पद  : पुं० [सं० मध्य० स०] श्लेष कथन के दो भेदों में से एक जिसमें किसी की कही हुई बात के शब्दों के टुकड़े करके और उन्हें आगे या पीछे जोड़कर कुछ और ही मतलब निकाला जाता है।
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भँगरा  : पुं० [हिं० भाँग+रा=का०] भाँग के पौधों के रेशों से बुना हुआ एक प्रकार का मोटा कपड़ा। पुं० =भँगरैया।
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भंगराज  : पुं० [सं० भंगराज] १. कोयल की तरह की एक प्रकार की चिड़िया जो बहुत सुरीली और मधुर बोली बोलती है। और प्रायः सभी पशु-पक्षियों की बोलियों की नकल करती है।
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भंग-रेखा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] चित्र-कला में ऐसी रेखा जो बिलकुल सीधी न हो, बल्कि आकर्षक या सुन्दर रूप में किसी ओर कुछ मुड़ी हुई हो। (कर्व)।
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भंगरैया  : स्त्री० [सं० भृंगराज] जमीन पर फैलनेवाला एक क्षुप झिसके फूल पीले,सफेद या नीले रंग के होते हैं और बीज काली जीरी की तरह छोटे-छोटे होते हैं।
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भंगा  : स्त्री० [सं० भंग+टाप्०] भाँग का पौधा और उसकी पत्तियाँ।
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भँगार  : पुं० [सं० भंग से] १. वह गड्ढा जो बरसात के दिनों में वर्षा के पानी से भर जाता है। २. वह ग़ड्ढा जो कूआँ बनाते समय पहले खोदा जाता है। पुं० [हिं० भाँग] १. घास-फूस। २. कड़ा-करकट।
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भंगि  : स्त्री० [सं०√भंज्+इन्] १. भंग होने की अवस्था या भाव। विच्छेद। २. कुटिलता। टेढ़ापन। ३. शरीर के अंगों की ऐसी विशिष्ट मुद्रा या संचालन जो किसी प्रकार के मनोभाव का सूचक हो। ४. तरगं। लहर। ५. भाँग। ६. ब्याज। ७. प्रतिकृति।
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भंगिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० भंग+इमनिच्] १. वह कलापूर्ण शारीरिक मुद्रा, जिससे कोई विशिष्ट मनोभाव प्रकट होता है। २. वक्रता। कुटिलता।
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भंगियाना  : अ० [हिं० भाँग] भाँग के नशे में चूर होना। स० भाँग पिलाकर नशे में चूर करना।
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भंगी (गिन्)  : वि० [सं० भंग+इनि] [स्त्री० भंगिनी] १. भंगशील। नष्ट होनेवाला। २. भंग करने या तोड़नेवाला। स्त्री० [सं० भंग+ङीष्] १. रेखाओं के झुकाव से खींचा हुआ चित्र। या बेल-बूटे। २. मनोभाव प्रकट करनेवाली शारीरिक मुद्रा या अंग-संचालन भंगी। वि० [हिं० भाँग] भाँग पीनेवाला। भँगेड़ी। पुं० [?] [स्त्री० भंगिन] झाड़ू देने तथा मैला उठानेवाला व्यक्ति।
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भंगुर  : वि० [सं√भंज्+घुरच्] १. भंग होने अर्थात् टूट-फूटकर या विघटित होकर नष्ट होनेवाला। नाशवान्। जैसे—क्षणभंगुर। २. टेढा। वक्र। उदाहरण—उरज भार भंगुर जाति गति जाकी।—नन्ददास। ३. छली। धूर्त। पुं० नदी का मोड़ा या घुमाव।
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भंगुरा  : वि० [सं० भंगुर+टाप्] १. अतिविषा। अतीस। २. प्रियंगू।
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भँगेड़ी  : पुं० [हिं० भाँग+एड़ी (प्रत्यय)] वह जिसे भाँग पीने की लत हो। प्रायः बहुत भाँग पीनेवाला। भंगड़।
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भँगेरा  : पुं० =भँगेरा। (भँगरैया)।
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भँगेला  : पुं० =भँगरा।
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भंग्य  : वि० [सं०√भंज्+ण्यत्] जो भंग किया जा सके या भंग किया जाने को हो। पुं० भाँग का खेत।
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