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रत्तिका  : स्त्री० [सं० रक्त+ठन्—इक, टाप्] १. घुंघची। २. रत्ती नामक तौल या परिमाण।
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रत  : पुं० [सं०√रम् (क्रीड़ा)+क्त] १. मैथुन। प्रसंग। २. भग। योनि। ३. लिंग। ४. प्रीति। प्रेम वि० १. जो किसी काम में पूरे मनोयोग से लगा हुआ हो। २. प्रेम में पड़ा हुआ। आसक्त। वि० पुं० +रक्त। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रत-कील  : पुं० [सं० रत√कील् (बाँधना)+क, उप० स०] कुत्ता।
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रत-गुरु  : पुं० [स०त०] स्त्री का पति। खसम। शौहर।
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रत-जगा  : पुं० [हिं० रात+जागना] १. रात में होनेवाला जागरण। २. ऐसा आनन्दोत्सव जिसमें लोग रात भर जागते हैं। ३. एक त्योहार जो पूर्वी संयुक्त प्रान्त तथा बिहार आदि में भाद्रपद कृष्ण की रात हो होता है और जिसमें स्त्रियाँ रात भर जागकर कजली गाती और नाचती हैं।
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रतन  : पुं० =रत्न। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतन-जोत  : स्त्री० [सं० रत्न-ज्योति] १. एक प्रकार की मणि। २. एक प्रकार की सुगंधित लकड़ी जिसकी छाल से लाल रंग तैयार किया जाता या तेल आदि रँगा जाता है। ३. बड़ी दंती।
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रतनाकर  : पुं० १. दे० ‘रत्नाकर’। २. दे० ‘रतन-जोत’।
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रतनागर  : पुं० =रत्नाकर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रतनागरभ  : स्त्री० [सं० रत्नगर्भा] पृथ्वी। भूमि। (डि०)
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रतनार  : वि० =रतनारा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतनारा  : वि० [सं० रक्त, प्रा० रत्त अथवा रत्न=मानिक+आर (प्रत्यय)] लाल रंग का। सुर्ख।
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रतनारी  : पुं० [हिं० रतनार+ई (प्रत्यय)] एक प्रकार का धान। स्त्री० लाली। सुर्खी। वि०=रतनार।
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रतनारीच  : पुं० [सं० स० त०] १. कामदेव। २. कामुक और लंपट व्यक्ति।
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रतनालिया  : वि० =रतनारा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रतनावली  : स्त्री०=रत्नावली।
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रत-निधि  : पुं० [ब० स०] खंजन पक्षी। ममोला।
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रतबंध  : पुं० =रतिबंध।
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रत-मुँहा  : वि० [हिं० रत=राजा+मुँह+आँ (प्रत्यय)] [स्त्री० रतमुँही] लाल मुँहवाला। पुं० बंदर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतल  : स्त्री० [अ० रत्ल] १. शराब का प्याला। चषक। २. एक पौंड का बटखरा। ३. तौल में पौंड या कोई चीज।
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रतवाँस  : पुं० [हिं० रात+वाँस (प्रत्यय] हाथियों, घोड़ों आदि का वह चारा जो उन्हें रात के समय दिया जाता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतवाई  : स्त्री० [देश] १. नई ईख का रस पहले-पहल पेरना। २. उक्त रस को लोगों में बाँटने की क्रिया या भाव। स्त्री० [हिं० रात] १. मजदूरों का रात-भर काम करना। २. मजदूरों को रात के समय काम करने पर मिलनेवाला पारिश्रमिक। ३. मेवाड़ का एक प्रकार का ग्राम गीत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतवाही  : स्त्री०=रतवाई।
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रतब्रण  : पुं० [सं० ब० स०] कुत्ता।
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रतशायी (यिन्)  : पुं० [सं० रत√शो (क्षीण करना)+णिनि] कुत्ता।
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रतहिंडक  : पुं० [सं० च०त०] १. वह जो स्त्रियाँ चुराता हो। २. कामुक और लंपक व्यक्ति।
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रता  : स्त्री० [देश] भुकड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रताना  : अ० [सं० रात+हिं० आना (प्रत्यय)] रत होना। स० रत करना। अ० [हिं० रत+आना (प्रत्यय)] लाल होना। स० लाल करना।
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रतायनी  : स्त्री० [सं० रत-अयन, ब० स० ङीष्] वेश्या।
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रतालू  : पुं० [सं० रक्तालु] १. पिंडालू नामक कंद जिसकी तरकारी बनाते हैं। २. बराही कन्द। गेंठी।
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रति  : स्त्री० [सं०√रम्+क्तिन्] १. किसी काम, चीज, बात या व्यक्ति में रत होने की अवस्था या भाव। २. उक्त अवस्था में मिलनेवाला आनंद या होनेवाली तृप्ति। ३. विशेषतः मैथुन आदि में होनेवाली तृप्ति या मिलनेवाला आनंद। साहित्य में इसे श्रृंगार रस का स्थायी भाव माना गया है। ४. मैथुन। संभोग। ५. प्रीति। प्रेम। ६. छवि। शोभा। ७. सौभाग्य। ८. गुप्त-भेद। रहस्य। ९. कामदेव की पत्नी का नाम। स्त्री०=रत्ती। अव्य०=रती। स्त्री०=रात। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतिकर  : अव्य० [हिं० रत्ती] रत्तीभर, अर्थात् बहुत थोड़ा। जरा-सा वि० [सं० रति√कृ (करना)+ट०] १. रति करनेवाला। २. आनन्द और सुख की वृद्धि करनेवाला। ३. अनुराग या प्रेम बढ़ानेवाला। पुं० कामुक और लंपट व्यक्ति।
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रति-करण  : पुं० [ष० त०] रति या संभोग करने का कौशल या ढंग।
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रति-कलह  : पुं० [ष० त०] मैथुन। संभोग।
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रति-कांत  : पुं० [ष० त०] रति का पति। कामदेव।
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रति-कुहर  : पुं० [ष० त०] योनि। भग।
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रति-केलि  : स्त्री० [ष० त०] मैथुन। संभोग।
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रति-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] मैथुन। संभोग।
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रतिगर  : अव्य० [हिं० रात+गर] प्रातःकाल। तड़के। सबेरे। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रति-गृह  : पुं० [ष० त०] योनि। भग।
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रतिज्ञ  : पुं० [ष०रति√ज्ञा (जानना)+क] १. वह जो रति-क्रिया में चतुर हो। २. वह जो स्त्रियों को अपने प्रेम में फँसाने की कला में निपुण हो।
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रति-तस्कर  : पुं० [ष० त०] वह जो स्त्रियों को अपने साथ व्यभिचार करने में प्रवृत्त करता हो।
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रति-दान  : पुं० [ष० त०] संभोग। मैथुन।
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रति-देव  : पुं० [ष० त०] १. विष्णु। २. [ब० स०] कुत्ता। ३. चंद्रवंशी राजा सांकृति के पुत्र एक राजा।
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रति-नाथ  : पुं० [ष० त०] कामदेव।
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रति-नायक  : पुं० [ष० त०] कामदेव।
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रतिनाह  : पुं० =रतिनाथ (कामदेव)।
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रति-पति  : पुं० [ष० त०] कामदेव।
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रति-पाश  : पुं० [ष० त०] सोलह प्रकार के रति-बंधों में से एक भेद। (काम शास्त्र)
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रति-प्रिय  : पुं० [ष० त०] १. कामदेव। २. [ब० स०] मैथुन से आनंदित होनेवाला व्यक्ति। वि० [स्त्री० रति-प्रिया] रति (मैथुन) का शौकीन। कामुक।
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रति-प्रिया  : स्त्री० [ब० स०] १. तांत्रिकों के अनुसार शक्ति की एक मूर्ति का नाम। २. दाक्षायणी देवी का एक नाम। ३. मैथुन से आनंदित होनेवाली स्त्री।
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रति-प्रीता  : स्त्री० [तृ० त०] १. वह नायिका जिसकी रति में विशेष अनुराग हो। कामिनी। २. रति से आनंदित होनेवाली स्त्री।
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रति-बंध  : पुं० [स० त०] काम-शास्त्र में बतलाये हुए संभोग करने के ८४ आसनों में से हर एक।
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रति-भवन  : पुं० [ष० त०] १. रति-क्रीड़ा या मैथुन करने का कमरा या भवन। २. योनि। भग।
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रति-भाव  : पुं० [ष० त०] १. पति, और पत्नी, प्रेमी और प्रेमिका या नायक और नायिका का पारस्परिक अनुराग। २. प्रीति। प्रेम। मुहब्बत।
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रतिभौन  : पुं० =रतिभवन।
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रति-मंदिर  : पुं० [ष० त०] रति-भवन (दे०)।
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रतिमदा  : स्त्री० [सं० ब० स०] अप्सरा।
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रति-मित्र  : पुं० [स०त०] एक रतिबंध। (कामशास्त्र)
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रतियाना  : अ० [हिं० रति=प्रीति+आना (प्रीति)] किसी पर रत या अनुरक्त होना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रति-रमण  : पुं० [ष० त०] १. रति-क्रीड़ा। मैथुन। २. कामदेव।
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रतिराइ  : पुं० =रतिराज (कामदेव)।
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रति-राज  : पुं० [ष० त०] कामदेव।
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रतिवंत  : वि० [सं० रति+हिं० वंत (प्रत्यय)] सुंदर। खूबसूरत।
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रति-वर  : पुं० [स० त०] १. रति में प्रवीण कामदेव। २. वह धन या भेंट जो नायक-नायिका को रति में प्रवृत्त करने के उद्देश्य से देता है।
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रति-वर्द्धन  : वि० [सं० ष० त०] काम-शक्ति बढ़ानेवाला।
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रति-वल्ली  : स्त्री० [ष० त०] प्रेम। प्रीति। मुहब्बत।
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रतिवाही (हिन्)  : पुं० [सं० रति√वह् (ढोना)+णिनि] संगीत में एक प्रकार का राग, जिसका गान-समय रात को १६ दंड से २0 दंड तक है।
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रतिशास्त्र  : पुं० [मध्य० स०] वह शास्त्र जिसमें रति के ढंगों, आकारों आसनों आदि का विवेचन होता है। कामशास्त्र।
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रतिसत्वरा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] असबरग। पृक्का।
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रति-समर  : पुं० [ष० त०] संभोग मैथुन।
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रति-साधन  : पुं० [ष० त०] पुरुष का लिंग। शिश्न।
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रति-सुन्दर  : पुं० [ष० त०] एक रति बंध। (कामशास्त्र)
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रती  : स्त्री० [सं० रति] १. कामदेव की पत्नी। रति। २. सौन्दर्य। ३. शोभा। ४. मैथुन। संभोग। ५. आनन्द। मौज। स्त्री०=रत्ती। अव्य०बहुत थोड़ा। जरा सा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतीक  : अव्य०=रतिक (थोड़ा सा)।
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रतीश  : पुं० [रति-ईश, ष० त०] कामदेव।
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रतुआ  : पुं० [देश] एक तरह का बरसाती घास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रतून  : पुं० [देश] वह ईख या गन्ना जो एक बार काट लेने पर सिर उसी पहली जड या पेड़ी से निकलता है। पेड़ी या गन्ना।
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रतोपल  : पुं० [सं० रक्तोत्पल] १. लाल कमल। २. लाल सुरमा। ३. लाल खड़िया। ४. गेरू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रतौंधी  : स्त्री० [हिं० रात+अंधा] आँख का एक प्रसिद्ध रोग जिसके कारण रोगी को रात के समय कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।
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रतौन्हीं  : स्त्री०=रतौंधी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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रत्त  : पुं० =रक्त। वि० रत।
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रत्तक  : पुं० [सं० रत्तक, प्रा० रत्त] एक तरह का लाल रंग का पत्थर।
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रत्तरी  : स्त्री०=रात्रि।
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रत्ती  : स्त्री० [सं० रक्ति, का प्रा० रत्तीआ] १. माशे के आठवें अंश के बराबर की एक तौल या मान। २. उक्त परिमाण या बटखरा। ३. घुंघची का दाना जो साधारणतया तौल में माशे के आठवें अंश के बराबर होता है। पद—रत्ती भर=बहुत थोड़ा। जरा सा। वि० बहुत ही थोड़ा। किंचित् मात्र। स्त्री० [सं० रति] १. छवि। शोभा। २. सौन्दर्य।
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रत्थी  : स्त्री०=अरथी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रत्न  : पुं० [सं०√रम् (क्रीड़ा)+णिच्, न० तकार-अन्तादेश] १. कुछ विशिष्ट छोटे चमकीले खनिज पदार्थ या बहूमूल्य पत्थर जो आभूषणों आदि में जड़े जाते हैं २. माणिक्य मानिक। लाल। ३. वह जो अपनी जाति या वर्ग में औरों से बहुत अच्छा या बढ़-चढ़कर हो। ४. जैनों के अनुसार सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र।
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रत्न-कंदल  : पुं० [ष० त०] प्रवाल। मूँगा।
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रत्नकर  : पुं० [सं० रत्न√कृ (करना)+ट] कुबेर का एक नाम।
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रत्न-कर्णिका  : स्त्री० [मध्य० स०] कान में पहनने का एक तरह का जड़ाऊ गहना।
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रत्न-कांति  : स्त्री० [ब० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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रत्न-कूट  : पुं० [ब० स०] १. एक पौराणिक पर्वत का नाम। २. एक बोधिसत्व का नाम।
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रत्नगर्भा  : पुं० [ब० स०] १. कुबेर का एक नाम। २. रत्नाकर। समुद्र। ३. एक बुद्ध का नाम।
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रत्न-गर्भ  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] वह जिसके गर्भ में रत्न हो। पृथ्वी।
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रत्नगिरि  : पुं० [मध्य० स०] बिहार के एक पहाड़ का प्राचीन नाम।
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रत्नचूड़  : पुं० [ब० स०] एक बोधिसत्व।
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रत्नछाया  : स्त्री० [सं० रत्नच्छाया] रत्न की आभा, छाया या पानी।
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रत्न-त्रय  : पुं० [ष० त०] सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र (जैन)।
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रत्न-दामा  : स्त्री० [ष० त०] १. रत्नों की माला। २. सीता की माता। (गर्ग संहिता)।
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रत्न-दीप  : पुं० [मध्य० स०] १. रत्नों से जड़ा हुआ दीपक। रत्नजटित दीपक। २. एक कल्पित रत्न का नाम जो बहुत उज्जवल माना गया है।
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रत्न-द्रुम  : पुं० [ष० त०] मूँगा।
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रत्न-द्वीप  : पुं० [मध्य० स०] पुराणानुसार एक द्वीप का नाम।
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रत्न-धर  : पुं० [ष० त०] धनवान्। वि० रत्न धारण करनेवाला।
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रत्न-धेनु  : स्त्री० [मध्य० स०] दान के उद्देश्य से रत्नों की बनाई हुई गौ की मूर्ति।
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रत्न-ध्वज  : पुं० [ब० स०] एक बोधिसत्त्व।
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रत्न-नाभ  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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रत्न-निधि  : पुं० [ष० त०] १. खंजन पक्षी। ममोला। २. समुद्र। ३. मेरू पर्वत। ४. विष्णु।
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रत्न-परीक्षक  : पुं० [ष० त०] जौहरी।
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रत्न-पर्वत  : पुं० [ष० त०] सुमेरु पर्वत।
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रत्न-पाणि  : पुं० [ब० स०] एक बोधिसत्व।
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रत्न-पारखी  : पुं० =रत्न-परीक्षक (जौहरी)।
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रत्न-प्रदीप  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा एक कल्पित रत्न जो दीपक के समान प्रकाशमान माना गया है।
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रत्न-प्रभ  : पुं० [ब० स०] देवताओं का एक वर्ग।
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रत्न-प्रभा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] १. पृथ्वी। २. जैनों के अनुसार एक नरक।
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रत्न-बाहु  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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रत्न-भूषण  : पुं० [मध्य० स०] रत्न जटित आभूषण। जड़ाऊ गहना।
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रत्न-माला  : स्त्री० [मध्य० स०] १. रत्नों की माला। २. राजा बलि की कन्या का नाम।
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रत्न-माली (लिन्)  : पुं० [सं० रत्नमाला+इनि] देवताओं का एक वर्ग।
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रत्न-राज्  : पुं० [सं० रत्न√राज् (चमकना)+क्विप्, उप० स०] माणिक्य। लाल।
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रत्न-वती  : स्त्री० [सं० रत्न+मतुप्+ङीष्] पृथ्वी।
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रत्न-शाला  : स्त्री० [ष० त०] १. रत्नों के रखने का स्थान। २. ऐसा भवन या महल जिसकी दीवारों पर रत्न जड़े हों।
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रत्न-सागर  : पुं० [मध्य० स०] समुद्र का वह भाग जहाँ से प्रायः रत्न निकलते हों।
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रत्न-सानु  : पुं० [ब० स०] सुमेरु पर्वत।
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रत्न-सू  : स्त्री० [सं० रत्न√सू (प्रसव)+क्विप्] पृथ्वी।
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रत्नाकर  : पुं० [रत्न-आकर, ष० त०] १. समुद्र। २. ऐसी खान जिसमें से रत्न निकलते हों। ३. वाल्मिकी का पुराना नाम। ४. गौतम बुद्ध का एक नाम।
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रत्नागिरि  : पुं० =रत्नगिरि बिहार में स्थित एक पर्वत।
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रत्नाचल  : पुं० [रत्न-अचल, मध्य० स०] दान के उद्देश्य से लगाया हुआ रत्नों का ढेर।
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रत्नाद्रि  : पुं० [रत्न-अद्रि, मध्य० स०] एक पर्वत। (पुराण)
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रत्नाधिपति  : पुं० [रत्न-अधिपति, ष० त०] कुबेर।
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रत्नावली  : स्त्री० [रत्न-आवली, ष० त०] १. मणियों या रत्नों की अवली या श्रेणी। २. रत्नों की माला। ३. साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें कोई बात ऐसे कलिष्ट शब्दों में कही जाती है कि उनसे प्रस्तुत अर्थों के सिवा कुछ और अर्थ भी निकलते हैं। जैसे—‘आप चतुरास्य लक्ष्मीपति और सर्वज्ञ है’ का साधारण अर्थ के सिवा यह भी अर्थ निकलता है कि आप ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं।
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रत्यर्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० रति√अर्थ√णिच् (स्वार्थ में)+णिनि, उप० स०] [स्त्री० रत्यर्थिनी] रति की इच्छा या कामना रखनेवाला। जो रति करना चाहता हो।
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रत्युत्सव  : पुं० [सं० रति-उत्सव, ष० त०] रति या संभोग का उत्सव।
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रत-द्रु  : पुं० [मध्य० स०] १. तिनिश का पेड़। २. बेंत।
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