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लोकंजन  : पुं० =लोपांजन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोकंदा  : पुं० [हिं० लोकना] [स्त्री० लोकंदी] १. विवाह के कन्या में डोले के साथ दास या दासी भेजने की क्रिया। २. वह दास जो कन्या के डोले के साथ उसकी सेवा के लिए भेजा जाता है। ३. चंचल चरित्रहीन और दुष्ट व्यक्ति। उदाहरण—नंद को पूत वह धूत लोकंदा।
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लोक  : पुं० [सं०√लोक (दर्शन)+घञ्] १. कोई ऐसा स्थान जिसका बोध देखने से होता है। जगह। २. जगत् या संसार। ३. विश्व का कोई विशिष्ट भाग या स्थान जिसमें कुछ अलग प्रकार के जीव या प्राणी रहते हैं। जैसे—जीवलोक। देवलोक। ब्रह्मलोक। मनुष्यलोक। ४. पुराणानुसार किसी विशिष्ट देवता के रहने का वह स्थान जहाँ मरने पर उसके भक्त जाकर रहते हैं। जैसे—विष्णुलोक। विशेष—हमारे यहाँ अनेक दृष्टियों से कई प्रकार के लोक माने गये हैं, और उनकी अलग-अलग संख्याएँ कही गई है। मूलतः तीन ही लोक माने जाते थे, स्वर्ग, पृथ्वी, और पाताल। पर आगे चलकर चौदह लोक माने जाने लगे जिसमें से सात हमारे ऊपर और सात हमारे नीचे कहे गये हैं। ऊपर से सात लोक ये है—भूलोक, भ्रुवर्लोक, स्वर्लोक, महलोंक, जनर्लोक तपर्लोक और सत्यलोक या ब्रह्मलोक। नीचे के सात लोकों के नाम क्रमात् ये हैं—अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल। ४. उक्त के आधार पर कोई विशिष्ट दिशा या प्रांत। पद—लोक-पाल। ६. सारी मानवजाति। ७. किसी राजा या राज्य के अधीन रहनेवाले लोग। प्रजा। ८. किसी देश या स्थान में रहनेवाले सब मनुष्यों का वर्ग, समाज या समूह। लोग। ९. देश का कोई प्रान्त या विभाग। प्रदेश। १॰. लोगों में प्रचलित प्रणाली, प्रथा या रीति। ११. जीव। प्राणी। १२. देखने की इन्द्रिय या शक्ति। दृष्टि। १३. कीर्ति। यश। पुं० [?] बत्तख की तरह का एक प्रकार का बड़ा पक्षी।
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लोक-कंटक  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह जो समाज का कलंक, विरोधी या हानिकारक हो। दुष्ट प्राणी। २. कोई ऐसा काम या बात जिसमें लोगों को कष्ट होता हो। (नुएज़ेन्स)। वि० जन-साधारण को कष्ट देने या पीड़ित करनेवाला।
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लोक-कथा  : स्त्री० [सं० ष० त०] लोक विशेषतः ग्राम्य लोगों में प्रचलित कोई प्राचीन गाथा।
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लोक-कर्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. महेश।
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लोक-काम  : वि० [सं० लोक√कम् (चाहना)+णिङ्, +अण्, उप० स०] किसी विशेष लोक में जाने की कामना करनेवाला।
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लोककार  : पुं० [सं० लोक√कृ+अण्, उप० स०] ब्रह्म, विष्णु और महेश।
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लोक-गत  : वि० [सं० द्वि० त०] जिसे जन साधारण ने अपनाकर स्वीकृत कर लिया हो। लोक में प्रचलित तथा प्रिय।
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लोक-गति  : स्त्री० [सं० ष० त०] लोकाचार।
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लोक-गाथा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] परंपरा से चले आये हुए वे गीत आदि जो लोक में प्रचलित हों।
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लोक-गीत  : पुं० [सं० मध्य० स० या ष० त०] गाँव-देहातों में गाये जानेवाले जन-साधारण के वे गीत जो परम्परा से किसी जन-समाज में प्रचलित तथा लय-प्रधान हों। (फोक साँग) जैसे—भिन्न-भिन्न ऋतुओं में त्यौहारों पर अथवा धार्मिक उत्सवों, संस्कारों आदि के समय गाये जानेवाले गीत।
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लोक-घोषणा  : स्त्री० [सं० ष० त०] सब लोगों की जानकारी के लिए की जानेवाली घोषणा। (मैनिफ़ेस्टी)।
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लोक-चक्षु (स्)  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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लोकचार  : पुं० =लोकाचार।
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लोकजित्  : पुं० [सं० लोक√जि (जय)+क्विप्, तुगागम] गौतम बुद्ध।
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लोक-जीवन  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. घरेलू जीवन से भिन्न वह चर्या जिसमें व्यक्ति सार्वजनिक महत्त्व के कार्यों में संलग्न रहता है। २. वह अवधि या भोग-काल जिसमें कोई व्यक्ति सार्वजनिक कार्य करता है। (पब्लिक लाइफ़)।
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लोकज्ञ  : वि० [सं० लोक√ज्ञा (जानना)+क] १. लोगों की प्रवृत्तियों, मनोभाव आदि जानेवाला। २. लौकिक या सांसारिक व्यवहारों में कुशल। दुनियादार।
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लोकटी  : स्त्री० =लोमड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोक-तंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० लोकतांत्रिक] वह शासन-प्रणाली जिसमें जन-साधारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में अपने राष्ट्र या राज्य पर शासन करता हो जनता का शासन। (डिमोक्रेसी)
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लोक-तंत्रिक  : वि० [सं० लोकतांत्रिक] लोकतन्त्र-संबंधी। (डिमोक्रेटिक)
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लोकतांत्रिक  : वि० [सं० लोकतंत्र+ठक्-इक]=लोक-तांत्रिक।
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लोक-दूषण  : वि० [सं० ष० त०] १. लोगों को हानि पहुँचानेवाला। २. लोगों में दोष निकालनेवाला।
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लोक-धर्म  : पुं० [सं० ष० त०] वास्तविक धर्म से भिन्न वे बातें या कृत्य जो जन-साधारण में प्राय धर्म के रूप में प्रचलित हों। जैसे—तंत्र-मंत्र भूत-प्रेत की पूजा-वीर पूजा आदि।
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लोक-धारिणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] पृथ्वी।
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लोक-धुनि  : स्त्री० [सं० लोक-ध्वनि] अफवाह। किवदंती।
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लोकन  : पुं० [सं०√लोक (देखना)+ल्युट—अन] अवलोकन।
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लोकना  : स० [?] १. उड़ती गिरती या फेंकी हुई वस्तु को जमीन छूने से पहले ही हवा में पकड़ लेना। जैसे—उछाला हुआ गेंद या कटी हुई पतंग लोकना। बीच में उड़ा या हड़प लेना। पुं० [स्त्री० लोकती] दे० ‘लोकंदा’।
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लोक-नाट्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] शास्त्रीय नियमों से बननेवाले नाटकों से भिन्न वे नाटक या अभिनय जो जन-साधारण बिना नाट्य-कला सीखे अपनी उद्भावना से बनाते और जन-साधारण को दिखलाते हैं। जैसे—कठपुतली का नाच, नौटंकी रामलीला आदि।
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लोक-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्रह्मा। २. लोकपाल। ३. गौतम बुद्ध।
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लोक-निर्माण  : पुं० [सं० ष० त०] लोक वस्तु।
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लोकनी  : स्त्री० =लोकंदी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोकनीय  : वि० [सं०√लोक् (दर्शन)+अनीयर्] अवलोकन करने योग्य। दर्शनीय।
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लोक-नृत्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] शास्त्रीय नृत्य-कला से रहित ऐसे नाच जो गाँव देहात के लोग उमंग में आकर नाचते हैं। (फोक डान्स) जैसे—अहीरों, धोबियों आदि के नृत्य, मणिपुरी सन्थाली आदि नृत्य।
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लोक-पद  : पुं० [सं०] लोक या जनता की सेवा से सम्बन्ध रखनेवाला राजकीय पद या ओहदा। (पब्लिक आफिस)
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लोक-पाल  : पुं० [सं० लोक√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्] १. दिक्पाल। २. नरेश।
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लोक-पितामह  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्मा।
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लोक-प्रत्यय  : पुं० [सं० ब० स०] वह जो संसार में सर्वत्र दिखाई देता या मिलता हो।
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लोक-प्रवाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. ऐसी साधारण बात जो संसार के सभी लोग कहते और समझते हों। २. लोक में प्रचलित प्रवाद या किवदंती।
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लोक-प्रवाही (हिन्)  : वि० [सं० लोक-प्रवाह, ष० त०+इनि] लोगों की प्रवृत्ति या रूख देखकर उसी के अनुसार चलनेवाला।
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लोक-प्रिय  : वि० [सं० ष० त०] [भाव० लोक-प्रियता] १. जो जन-साधारण को प्रिय तथा रुचिकर प्रतीत होता हो। २. समाज के बहुमत की पसंद या रुचि के अनुकूल होनेवाला। जैसे—लोकप्रिय-साहित्य।
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लोक-प्रियता  : स्त्री० [सं० लोकप्रिय+तल्+टाप्] लोकप्रिय होने की अवस्था या भाव। (पॉपुलेरिटी)
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लोक-बंधु  : पुं० [सं० ष० त०] १. शिव। २. सूर्य।
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लोक-बाह्य  : वि० [सं० ष० त०] १. जो इस लोक या संसार में न होता या न दिखाई देता हो। २. जो साधारण जन समाज में न होता हो। ३. बिरादरी या समाज से निकाला हुआ। ४. झक्की। सनकी।
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लोक-भावन  : स्त्री० [सं० ष० त०] लोक की रचना करनेवाला। २. लोक की भलाई करनेवाला।
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लोक-भावना  : स्त्री० [सं० ष० त०] लोक अर्थात् जनता का उपकार, सेवा आदि करने की भावना या वृत्ति। (पब्लिक स्पिरिट)
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लोक-मत  : पुं० [सं० ष० त०] किसी बात या विषय में देश या समाज में रहनेवाले सब अथवा अधिकतर लोगों का मत, राय या विचार। समाज के बहुत से लोगों का ऐसा मत जो किसी एक दल या वर्ग का नहीं बल्कि समष्टि के विचार या हित का सूचक हो। (पब्लिक ओपीनियन)
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लोक-माता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. लक्ष्मी। २. गौरी।
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लोक-यात्रा  : स्त्री० [सं० ष० त०] संसार में रहकर लोगों के साथ व्यवहार करना।
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लोक-रंजन  : पुं० [सं० ष० त०] सब को प्रसन्न तथा सुखी रखना। वि० सबको प्रसन्न तथा सुखी रखनेवाला।
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लोक-रंजनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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लोक-रक्षक  : वि० [सं० ष० त०] सब लोगों की रक्षा करनेवाला। पुं० १. राजा। २. शासक।
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लोकल  : वि० [अं०] १. (निवासियों की दृष्टि से उनके) नगर या गाँव की सीमा के अन्दर-अन्दर होनेवाला। जैसे—लोकल पालिटिक्स। २. जिसका संबंध किसी विशिष्ट गाँव, नगर आदि में ही सीमित हो। जैसे—लोकल पोस्टकार्ड।
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लोक-लीक  : स्त्री० [सं० लोक+हिं० लीक] लोक में प्रचलित प्रथाएँ और मर्यादा।
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लोक-लोचन  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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लोक-वदंती  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] लोक में प्रचलित चर्चा। अफवाह। किवदंती।
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लोक-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. कहावत। २. किवदंती। अफवाह।
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लोक-वार्ता  : स्त्री० [सं० ष० त०] इतिहास पुरातत्व आदि के अध्ययन का वह अंग जिसमें लोक में प्रचलित पुरानी धारणाओं, प्रथाओं, विश्वासों आदि से संबंध रखनेवाली बातों का विचार या विवेचन होता है। (फोकलोर)
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लोक-वास्तु  : पुं० [सं० ष० त०] १. राज्य या शासन का वह विभाग जो लोक के उपयोग तथा कल्याण के लिए इमारतें, नहरें सड़के आदि बनाता है। (पब्लिक वर्क्स) २. जन साधारण तथा राजकीय विभागों के काम में आनेवाली इमारते, सड़के आदि।
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लोक-वाहक  : पुं० [सं० ष० त०] जनता का सामान ढोने के लिए प्रयुक्त मोटर गाडियाँ आदि (पब्लिक कैरियर)।
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लोक-विरुद्ध  : वि० [सं० तृ० त०] (आचरण, कथन या कार्य) जो लोक में प्रचलित न हो और इसीलिए ठीक न माना जाता हो।
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लोक-विश्रुत  : वि० [सं० स० त०] संसार भर में अर्थात् सब जगह प्रसिद्ध। जनद्विख्यात।
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लोक-वेद  : पुं० [सं०, लोक और वेद से] हिन्दुओं में प्रचलित वे पौराणिक आचार-विचार जिन्हें लोक वेदों के विधान के समान ही आवश्यक और मान्य समझते हैं।
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लोक-व्यवहार  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह व्यवहार जो लोक में सब लोगों से मेल-जोल बनाए रखने के लिए करना पड़ता है। लोकाचार। २. समाज की मर्यादा के विचार से किया जानेवाला शिष्ट व्यवहार।
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लोक-शांति  : स्त्री० [सं० स० त०] लोक अर्थात् जन-साधारण या समाज में बनी रहनेवाली ऐसी शांति जिसमें किसी प्रकार का उत्पात, उपद्रव या लडा़ई-झगड़ा न हो। (पब्लिक पीस)
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लोक-शासन  : पुं० [सं० ष० त०] देश या राज्य का ऐसा शासन या सरकार जो लोक-मत के आधार पर चलती हो। जन-तन्त्र। (पापुलर गवर्नमेंट)
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लोक-श्रुति  : स्त्री० [सं० ष० त०] जनश्रुति। अफवाह।
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लोक-संग्रह  : पुं० [सं० ष० त०] १. सब लोगों को प्रसन्न रखकर उन्हें अपने साथ मिलाये रखना। २. संसार के सभी लोगों के कल्याण या मंगल का ध्यान रखना। ३. लोगों को अपनी ओर मिलाना या अपने पक्ष में करना।
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लोक-संग्रही (हिन्)  : वि० [सं० लोक-संग्रह+इनि] जो सब लोगों को प्रसन्न रखकर अपने पक्ष में करता हो।
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लोक-संस्कृति  : स्त्री० [सं० ष० त०] साधारण जन-समाज में प्रचलित ये सब बातें जो सिद्धान्ततः संस्कृति के क्षेत्र से संबद्ध हों।
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लोक-सत्ता  : स्त्री० [सं० ष० त०] लोक-तांत्रिक शासन-प्रणाली के द्वारा लोक या सारी जनता को प्राप्त होनेवाली सत्ता।
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लोक-सत्ताक  : वि० =लोक-सत्तात्मक।
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लोक-सत्तात्मक  : वि० [सं० लोकसत्ता-आत्मन्, ब० स०+कप्] १. लोकसत्ता संबंधी। लोक सत्ता का। २. (देश या राज्य) जिसमें लोक तांत्रिक शासन प्रणाली प्रचलित हो।
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लोक-सदन  : पुं० [सं० ष० त०] लोक सभा। (दे०)
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लोक-सभा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. प्रतिनिधि सत्तात्मक या प्रजातन्त्र शासन में साधारण जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की वह सभा जो देश के लिए विधान आदि बनाती है। २. भारतीय संविधान में उक्त प्रकार की केन्द्रीय सभा (हाउस आफ पीपुल्स) ३. इंग्लैड़ में उक्त प्रकार की सभा (हाउस आफ कामन्स)।
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लोक-सिद्ध  : वि० [सं० ष० त०] इतिहास या शास्त्र-सम्मत न होने पर भी जिसे जन-साधारण ठीक मानता हो। जन सामान्य में मान्य और प्रचलित।
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लोकसुंदर  : वि० [सं० स० त०] जो सब की दृष्टि में अच्छा हो। पुं० गौतम बुद्ध।
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लोक-सेवक  : पुं० [सं० स० त०] १. वह जो लोक अर्थात् जनता की सेवा या हित के कामों में लगा रहता हो। वह अधिकारी या कर्मचारी जो राज्य या शासन की ओर से जनता की सेवा और हित के लिए नियुक्त हो (पब्लिक सर्वेन्ट)।
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लोक-सेवा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. जन-साधारण की सेवा अर्थात् उपकार या हित के लिए निःस्वार्थ भाव से किये जानेवाले काम। २. राज्य या शासन की नौकरी जो वस्तुतः जन साधारण की सेवा या हित के लिए होती है। (पब्लिक सर्विस)।
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लोक-सेवा-आयोग  : पुं० [सं० ष० त०] राज्य द्वारा नियुक्त कुछ व्यक्तियों का वह आयोग या समिति जिसके जिम्मे राजकीय सेवाओं से सम्बन्ध रखनेवाले पदों पर नियुक्त करने के लिए प्रार्थियों में से उपयुक्त तथा योग्य व्यक्ति चुनने का काम होता है। (पब्लिक सर्विस कमीशन)
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लोक-स्वास्थ्य  : पुं० [सं०] सार्वजनिक रूप से जनता या लोगों का स्वास्थ्य (पब्लिक हेल्थ)।
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लोक-हार  : पुं० [सं० लोक√हृ (हरण)+अण्, उप० स०] संसार का नाश करनेवाले शिव।
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लोक-हित  : पुं० [सं० ष० त०] लोक-सेवा। (दे०)
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लोकांतर  : पुं० [सं० अन्य-लोक, मयू० स०] वह लोक जहाँ मरने पर जीव जाता है। पर-लोक।
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लोकांतरण  : पुं० [सं० लोकांतर+णिच्+ल्युट—अन] इस लोक से हटकर दूसरे लोक में कर देना।
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लोकांतरित  : भू० कृ० [सं० लोकांतर+णिच्+क्त] १. जो इस लोक से दूसरे लोक में चला गया हो। २. जो मर चुका हो।
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लोकाचार  : पुं० [सं० लोक-आचार, ष० त०] १. वह व्यवहार जो दूसरों से सामाजिक संबंध बनाए या स्थिर रखने के लिए आवश्यक समझा जाता हो। २. दे० ‘लोक व्यवहार’।
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लोकाचारी (रिन्)  : वि० [सं० लोकाचर+इनि] १. लोकाचार का आचरण या पालन करनेवाला। २. दिखावटी आचरण या व्यवहार करनेवाला। ढोंगी ३. लोक को प्रसन्न रखनेवाला आचरण अथवा व्यवहार करनेवाला। दुनियादार। स्त्री० =लोकाचार।
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लोकाट  : पुं० =लुकाट।
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लोकाधिक  : वि० [सं० लोक-अधिक, पं० त०] लोक अर्थात् संसार से परे या बाहर अर्थात् असाधारण।
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लोकाधिप  : पुं० [सं० लोक-अधिप, ष० त०] १. लोकपाल। २. बुद्ध।
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लोकाना  : स० [हिं० लोकने का प्रे०] ऊपर से फेंकना। उछालना।
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लोकानुग्रह  : पुं० [लोक-अनुग्रह, स० त०] लोगों का कल्याण। लोकहित।
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लोकापवाद  : पुं० [सं० लोक-अपवाद, स० त०] लोक-निंदा। बदनामी।
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लोकायत  : पुं० [सं० लोक-आयत=विस्तीर्ण] १. वह जो इस लोक के अतिरिक्त दूसरे लोक को न मानता हो। २. भारतीय दर्शन में एक प्राचीन भूतवादी नास्तिक सम्प्रदाय जिसके प्रवर्तक देव-गुरु बृहस्पति कहे जाते हैं। इसलिए इसे बार्हस्पत्य भी कहते हैं। प्रवाद है कि बृहस्पति ने असुरों का नाश कराने के लिए ही उनमें इस मत का प्रचार किया था। विशेष—कुछ लोगों का मत है कि किसी समय लोक में इसी नास्तिक मत का सबसे अधिक प्रचार था। इसीलिए इसका नाम लोकायत पड़ा। इस मत का मुख्य सिद्धान्त यह है कि आत्मा, परलोक, नरक और स्वर्ग की कल्पनाएँ मिथ्या हैं, और वर्णाश्रम आदि का विधान व्यर्थ है। ३. चार्वाक दर्शन, जिसमें परलोक या परोक्षवाद का खंडन है। ४. दुर्मिल छंद का एक नाम।
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लोकायतिक  : वि० [सं० लोकयत+ठन्—-इक] लोकायत सम्बन्धी। लोकायत का। पुं० १. लोकायत सम्प्रदाय का अनुयायी। २. नास्तिक।
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लोकालोक  : पुं० [सं० लोक-आलोक, कर्म० स०] पुराणानुसार एक पर्वत जो सातों समुद्रों और द्वीपों को चारों ओर से घेरे हुए है, और जिसके उस पार घोर अंधकार है। बौद्ध ग्रन्थों में इसी को चक्रवाल कहा गया है।
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लोकित  : वि० [सं०√लोक (दर्शन)=क्त] देखा हुआ।
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लोकेश्वर  : पुं० [सं० लोक-ईश्वर, ष० त०] १. लोक का स्वामी। परआत्मा। २. गौतम बुद्ध।
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लोकैषणा  : स्त्री० [सं० लोक-एषणा, ष० त०] १. सांसारिक अभ्युदय की कामना। समाज में प्रतिष्ठा और यश की कामना। २. स्वर्ग सुख की कामना।
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लोकोक्ति  : स्त्री० [सं० लोक-उक्ति, मध्य० स०] १. लोक में समान रूप से प्रचलित बात। कहावत। मसला। २. साहित्य में एक अलंकार जो उस समय माना जाता है जब लोकोक्ति के प्रयोग से काव्य में अधिक रोचकता आ जाती है।
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लोकोत्तर  : वि० [सं० लोक-उत्तर, पं० त०] लोक में होनेवाले पदार्थों या बातों से अधिक बढ़कर या श्रेष्ठ। जो इस लोक में न होता हो। (पदार्थ या बात)
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लोकोपकार  : पुं० [सं० लोक-उपकार, ष० त०] लोक या जन साधारण के उपकार, लाभ या हित के नाम।
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लोकोपकारी (रिन्)  : वि० [सं० लोकोपकार+इनि] १. लोगों का उपकार करनेवाला। २. लोकोपकार-संबंधी। २. जिनमें लोगों का उपकार होता हो।
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लोकोपयोगि-सेवा  : स्त्री० [सं० उपयोगिनी-सेवा, कर्म० स० लोक-उपयोगि-सेवा, ष० त०] वह सेवा या कार्य जो जनता के लिए विशेष उपयोगी या काम का का हो। जैसे—नगर की जल-कल व्यवस्था, बिजली, सफाई आदि के काम (पब्लिक युटिलिटि सर्विस)।
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