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विधेय  : वि० [सं०] १. देने योग्य। २. प्राप्त करने योग्य। ३. जिसके प्रति विधि का आदेश दिया जाय। ४. जिसे कुछ करने का आदेश दिया जाय। ५. जिसके संबंध में विधान किया जाने को हो। ६. प्रदर्शित किये जाने के योग्य। ७. प्रज्जवलित किये जाने के योग्य। पुं० १. वह काम जो अवश्य किये जाने के योग्य हो। २. व्याकरण में, वह पद या वाक्यांश जिसके द्वारा किसी के संबंध में कुछ विधान किया अर्थात् कहा या बतलाया जाता है। हिन्दी में इसका अन्वय या तो (क) कर्ता से होता है या (ख) प्रधान कर्म से। जैसे— (क) राम जाता है। और (ख) राम रोटी खाता है। में जाता ‘है’ और खाता ‘है’ विधेय है, क्योंकि ‘जाता है’ से राम (कर्ता) के संबंध में और ‘खाता है’ से राम (कर्ता) के सम्बन्ध में और ‘खाता है’ से रोटी (कर्म) के संबंध में कुछ कहा या बतलाया गया है। ३. साहित्य में प्रिय के मन-मोचन के दो उपचारों में से एक जिसमें उपेक्षा, धृष्टता, भय, हर्ष आदि दिखलाकर उसे प्रकारान्तर से अनुकूल करने का प्रयत्न किया जाता है।
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विधेयक  : पुं० [सं० विधेय+कन्] आज-कल किसी कानून या विधान का वह प्रस्तावित रूप या मसौदा जो विधान बनानेवाली परिषद् या सभा के सामने विचारार्थ उपस्थित किया जाने को हो (बिल)।
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विधेयता  : स्त्री० [सं० विधेय+तल्+टाप्] १. विधेय होने की अवस्था, गुण या भाव। २. अधीनता।
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विधेयत्व  : स्त्री० [सं० विधेय+तल्+टाप्] विधेयता।
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विधेयात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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विधेयाविमर्ष  : पुं० [सं० ब० स०] साहित्य में एक प्रकार का वाक्य-दोष जो विधेय अंश के प्रधान स्थान प्राप्त होने पर होता है। मुख्य बात का वाक्य-रचना के बीच दबा रहना।
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