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शा  : पुं० [फा० नश्शः] १. वह मानसिक विकृति जो अफीम, चरस, गाँजा, भाँग, शराब आदि मादक द्रव्यों का सेवन करने से उत्पन्न होती है। मादक द्रव्यों का उपयोग या व्यवहार उत्पन्न करने पर होने वाली ऐसी स्थिति जिसमें मनुष्य बदहवास हो जाता है। विशेष–ऐसी स्थिति में मनुष्य थोड़े समय के लिए प्रायः दुख और कष्ट भूलकर निश्चिंत और मस्त हो जाता है; ज्ञान अथवा बुद्धि पर उसका नियंत्रण शिथिल पड़ जाता है; वह ऐसे काम या बातें करने लगता है, जो साधारण स्थिति में नहीं होते। नशे की मात्रा बढ़ने पर आदमी बेहोश हो जाता है और कुछ अवस्थाओं में मर भी सकता है। यह कुछ समय शारीरिक क्लांति दूर करके मन में नई-नई उमंग पैदा करता है। क्रि० प्र०—उतरना।–चढ़ना।–जमना।–टूटना। मुहा०—नशा किरकिरा होना=कोई अप्रिय घटना या बात होने पर नशे के आनंद या मस्ती में बाधा पड़ना। नशा हिरन हो जाना=कोई विकट घटना या बात होने पर नशा बिल्कुल दूर हो जाना। २. वह पदार्थ जिसके सेवन से मनुष्य की उक्त प्रकार की मानसिक स्थिति होती हो। मादक द्रव्य। ३. कोई मादक पदार्थ सेवन करते रहने की प्रवृत्ति या बान। ४. किसी प्रकार के अधिकार, प्रवृत्ति, बल मनोविकार आदि की अधिकता, तीव्रता या प्रबलता के कारण उत्पन्न होने वाली उक्त प्रकार की अनियंत्रित अथवा असंतुलित मानसिक अवस्था। मद। जैसे–जवानी, दौलत या मुहब्बत का नशा ! मुहा०—(किसी का) नशा उतरना=कष्ट, दंड आदि देकर घमंड या मद दूर करना। ५. ऐसी स्थिति जिसमें मनुष्य आनंद पूर्वक किसी धुन में लगा रहना चाहता हो। मस्ती।
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शप्तशति  : स्त्री० [सं० द्वि० स०] १. एक प्रकार की तरह सात चीजों का वर्ग या समूह। २. सात सौं पदो या वृत्तों का संग्रह। सतसई। जैसे—दुर्गासप्तशती। पुं० बंगाली ब्राह्मणो की एक जाति या वर्ग।
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श  : देवनागरी वर्णमाला का तीसवाँ वर्ण जो व्याकरण और भाषा विज्ञान के अनुसार ऊष्म, तालव्य, अमोघ, महाप्राण, ईषद्विवृत्त व्यंजन है।
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शंक  : पुं० [सं०√शंक्+घञ्] १. शंका। २. भय।
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शंकना  : अ० [सं० शंका] १. संदेह करना। २. डरना।
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शंकनीय  : वि० [सं०√शंक्+अनीयर्] १. जिसके विषय में कोई शंका हो सकती हो या उठाई जा सकती हो। शंक्य। २. जिसके ठीक होने के संबंध में किसी को दृढ़ निश्चय न हो; और इसलिए जिसके संबंध में कुछ प्रश्न किया जा सकता हो। (क्वेश्चनेबुल)
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शंकर  : पुं० [सं० शं√कृ+अच्] १. शिव। २. शंकराचार्य। ३. भीमसेनी कपूर। ४. एक प्रकार का छन्द। ५. संगीत में एक प्रकार का राग। वि० [स्त्री० शंकरा] कल्याण कारी। शुभंकर। वि० पुं०=संकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शंकर-शैल  : पुं० [सं० ष० त०] कैलास पर्वत।
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शंकरा  : स्त्री० [सं० शंकर+टाप्] १. पार्वती। २. मंजीठ। ३. शमी। पुं० शंकर नामक राग। वि० स्त्री कल्याण करनेवाली।
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शंकराचार्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. दक्षिण भारत के केरल प्रदेश के एक प्रसिद्ध शैव आचार्य जो अद्वैत मत के प्रतिपादक तथा प्रवर्त्तक थे (सन् ७८८-८२॰ ई०)। विशेष-इन्होंने बदरिकाश्रम, करवीर द्वारका और शारदा नाम के चार पीठ स्थापित किए थे, जिनके अधिष्ठाता अभी तक शंकराचार्य कहे जाते हैं।
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शंका  : स्त्री० [सं०√शंक्+अ+टाप्] १. किसी प्रकार के भावी अनिष्ट, आघात या हानि का अनुमान होने पर मन में होनेवाला कष्ट मिश्रित भय। आशंका। २. मन की वह स्थिति जिसमें किसी मान्य या निर्णीत तथा निश्चित की हुई बात के सामने आने पर उसके संबंध में कोई आपत्ति, जिज्ञासा या प्रश्न उत्पन्न होता है। कोई बात ठीक न जान पड़ने पर उसके संबंध में मन में तर्क उठने की अवस्था या भाव। जैसे— (क) आपने इस चौपाई (या श्लोक) का जो अर्थ किया है,उसके संबंध में मुझे एक शंका है अर्थात् मैं समझता हूँ कि वह अर्थ ठीक नहीं हैं, और उसका ठीक रूप कुछ दूसरा ही होना चाहिए। (ख) पंडित लोग शास्त्रार्थ करते समय एक-दूसरे के मत पर तरह-तरह की शंकाएँ करते हैं। विशेष-मनोविज्ञान की दृष्टि से यह कोई मनोवेग नहीं है बल्कि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में होनेवाला बौद्धिक या मानसिक व्यापार मात्र है। ३. उक्त के आधार पर साहित्य में तैतीस संचारी भावों में से एक। मन का वह भाव जो किसी प्रकार की आशंका भय आदि के कारण होता है और जिसमें शरीर में कंप होता रंग फीका पड़ जाता और स्वर विकृत हो जाता है। उदाहरण—चौंकि चौकि चकत्ता कहत चहूँघाते यारो, लेत रहौ खबरि कहाँ लौ सिवराज है।—भूषण। ४. दे० ‘आशंका‘ ‘संदेह’ और ‘संशय’।
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शंकाकुल  : वि० [सं० तृ० त०] शंका से आकुल या विचलित।
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शंकावगाह  : पुं० [सं० शंका+अवगाह] किसी बात की शंका होने पर उसके संबंध में पता लगाने के लिए की जानेवाली बातचीत।
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शंका-समाधान  : पुं० [सं०] किसी की उठाई हुई शंका का इस प्रकार निराकरण करना जिससे जिज्ञासु का पूरा समाधान या संतोष हो जाय।
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शंकित  : भू० कृ० [सं० शंका+इतच्] जिसके मन में शंका हुई हो।
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शंकु  : पुं० [सं०√शंक+उण्] १. कोई ऐसा धन पदार्थ जिसका नीचेवाला भाग तो गोलाकार हो, मध्य भाग क्रमशः पतला होता गया हो और ऊपरी सिरा बिलकुल नुकीला हो (कोन)। २. कील। मेख। ३. खूंटा या खूँटी। ४. बरछा। भाला। ५. तीर की गाँसी या फल। ६. शंख नाम की बहुत बड़ी संख्या। ७. शिव ८. कामदेव। ९. जहर। विष। १॰. पाप। ११. राक्षस। १२. हंस। १३. एक प्रकार की मछली। १४. दीमकों में बाँबी। वल्मीक। १५. पुरानी चाल का एक प्रकार का बाजा। १६. बारह अंगुल की नाप। १७. उक्त नाप की वह खूंटी जिसकी सहायता से प्राचीन काल में दीपक सूर्य आदि की छाया नापी जाती थी। १८.व नस्पतियों की वह शक्ति जिससे वे जमीन के अन्दर का रस खींचती हैं। १९. पत्तें या पत्ती की नस। २॰. वास्तु शास्त्र में ऐसा खंभा जिसका बीच का भाग मोटा और ऊपर का भाग पतला होता है। २१. जूए का दाँव। बाजी। २२. लिंग। २३. नखी नामक गंध द्रव्य।
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शंकु गणित  : पुं० [सं०] ज्यामिति के अंतर्गत गणित की वह क्रिया जिससे शंकु के भिन्न-भिन्न भागों का मान स्थिर किया जाता है। (कोनिक्स)
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शंकुच्छाया  : स्त्री० [सं० ष० त०] प्राचीन भारत में १२ अंगुल की एक नाप जिससे दीपक, सूर्य आदि की छाया नापी जाती थी।
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शंकुमती  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वैदिक छन्द जिसके पहले चरण में पाँच और बाकी चरणों छः छः या कुछ कम या अधिक वर्ण होते हैं।
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शंख  : पुं० [सं०√शम्+ख] १. एक प्रकार का बड़ा समुद्री घोंघा (जल-जंतु) जिसका ऊपरी आवरण या खोल फूँककर बजाने के काम आता है। २. उक्त जल-जंतु का खोल जिसके ऊपरी छेद में मुँह से जोर से हवा भरने पर एक विशेष प्रकार का जोर का शब्द होता है। यह दो प्रकार का होता है—दक्षिणावर्त्त और वामावर्त्त। पद-शंख का मोती=एक प्रकार का कल्पित मोती जिसकी उत्पत्ति शंख के गर्भ से मानी जाती है। मुहावरा—शंख बजना=विजय या आनंदोत्सव होना। शंख बजाना= (क) आनंद मनाना। (ख) वंचित रहना। (व्यंग्य)। ३. एक लाख करोड़ या दस खर्व की संख्या। ४. हाथी का गंडस्थल। ५. कनपटी। ६. पुराणानुसार एक निधि का नाम। ७. कुबेर की निधि के देवता। ८. चरम चिन्ह। ९. नखी नामक गंध द्रव्य। १॰. छप्पय छंद का एक भेद जिसमें १५२ मात्राएँ या १4९ वर्ण होते हैं जिनमें से ३ गुरु और शेष लघु होते हैं। ११. दंदक वृत्त का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में दो तगण और चौदह रगण होते हैं। 1२. कपाल। मस्तक। १३. हवा चलने से होनेवाला शब्द। १४. दे० ‘शंखासुर’।
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शंखक  : पुं० [सं०√शंख+वुन्-अक] १. शंख की बनी हुई चूड़ी। सांख। २. वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का विकट रोग जिसमें कनपटी के पास लाल गिलटी निकलती है और शरीर में बहुत जलन होती है। ३. शंख नामक निधि। ४. हीरा कसीस। ५. मस्तक। माथा।
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शंखकार  : पुं० [सं० शंख√कृ+अण्] १. वह जो शंख से तरह-तरह की चीजें बनाता हो। २. पुराणानुसार एक संकर जाति जो उक्त प्रकार का काम करती थी।
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शंख-चूड़  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार का बहुत जहरीला नाग या साँप जिसके शरीर पर काली बिदियाँ होती हैं। २. एक प्राचीन तीर्थ। ३. पुराणानुसार एक राक्षस जिसे कंस ने कृष्ण को मारने के लिए भेजा था, पर जो कृष्ण के हाथों स्वयं मारा गया था।
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शंखज  : वि० [सं० शंख√जन्+ड] शंख से निकला या बना हुआ। पुं० एक प्रकार का कल्पित मोती जिसकी उत्पत्ति शंख के गर्भ से मानी गई है।
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शंख-द्राव  : पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का बहुत तीक्ष्ण अरक जो उदर रोगों के लिए उपकारी माना गया है। कहते हैं कि यह धातुओं, शंखों आदि तक को गला देता है, इसीलिए यह काँच या चीनी के बरतन में रखा जाता है।
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शंख-धर  : [सं० ष० त०] विष्णु।
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शंख-नारी  : स्त्री० [सं०] सोमराजी नामक वृक्ष का एक नाम।
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शंख-पलीता  : पुं० [हिं०] ज्वालामुखी पर्वतों में से निकलनेवाला एक प्रकार का रेशेदार खनिज पदार्थ जिसका उपयोग गैस के भट्ठे बनाने में होता है। इस पर ताप तथा विद्युत का प्रभाव बहुत कम और देर में होता है।
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शंखपाणि  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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शंख-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] १. सफेद अपराजिता। २. जूही। ३. शंखाहुली।
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शंख-लिखित  : वि० [द्व० स०] दोष रहित। बे-ऐब। पुं० १. शंख और लिखित नाम के दो ऋषि जिन्होंने एक स्मृति बनाई थी। २. उक्त ऋषियों की बनाई हुई स्मृति। ३. न्यायशील और पुण्यात्मा राजा।
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शंखवटी  : स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार की बटी या गोली जो पेट के रोगों के लिए गुणकारी कही गई है।
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शंख-वात  : पुं० [ष० त०] वायु के प्रकोप से सिर में होनेवाली पीड़ा।
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शंख-विष  : पुं० [मध्य० स०] संखिया।
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शंखावर्त्त  : पुं० [सं० शंख-आवर्त, ब० स०] भगंदर रोग का एक शंबुकावर्त नामक भेद।
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शंखासुर  : पुं० [सं० शंख-असुर, कर्म० स०] एक प्रसिद्ध राक्षस जिसका वध विष्णु ने मस्त्यावतार में किया था। कहते है कि यह ब्रह्मा के यहाँ से वेद चुराकर समुद्र में जा छिपा था।
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शंखिनी  : स्त्री० [सं० शंख+इनि+ङीष्] १. एक प्रकार की वनौषधि। २. कामशास्त्र में वह नायिका जो न अधिक मोटी हो न पतली, जिसका सिर तथा स्तन छोटे पैर बड़े और बाहें लंबी होती हैं। यह काम से अधिक पीड़ित परपुरुष से रमण की इच्छुक कर्कश तथा चुगलखोर स्वभाववाली होती है।
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शंड  : पुं०=षंड।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शंपा  : स्त्री० [सं०] विद्युत। बिजली।
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शंपाक  : पुं० [सं० ब० स०] अमलतास।
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शंब  : पुं० [सं०√शम्ब् (गति)+अच्] 1,०इंद्र का वज्र। २. दोबारा की गई जोताई। वि० १. भाग्यशाली। २. सुखी। ३. अभागा।
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शंबर  : पुं० [सं०√शंब्+अरन्] १. जल। २. मेघ। ३. पर्वत। ४.एक प्रकार का हिरन। ५.युद्ध। ६. इंद्रजाल। जादू। ७. अर्जुन वृक्ष। ८. एक राक्षस।
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शंबरारि  : पुं० [सं० ष० त०] कामदेव।
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शंबा  : पुं० [फा० शंबः] शनिवार ।
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शंबु  : पुं० [सं०शंब+उन्] घोंघा।
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शंबूक  : पुं० [सं०√शम्बू+कू, शंबू+कन्] १. घोंघा २. शंख। २. हाथी के कुंभ का अंतिम भाग। ४. हाथी का सूँड़ की नोक। ५. त्रेतायुग में रामराज्य का एक शूद्र तपस्वी जिसकी तपस्या से एक ब्राह्मण पुत्र अकाल ही मर गया था। कहते है कि इस पर राम ने इसका वध किया और ब्राह्मण का मृत पुत्र जी उठा था।
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शंबूका  : स्त्री० [सं० शंबूक+टाप्] सीपी।
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शंभु  : वि० [सं० शम्√भू+डु] कल्याण करने और सुख देनेवाला। पुं० १. शिव। २. विष्णु। ३. एक प्रकार के सिद्ध पुरुष। ४. ब्राह्मण।
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शंभु-क्रिय  : पुं० [सं० ब० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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शंसन  : पुं० [सं०√शंस्+ल्युट-अन] १. प्रशंसा करना। २. मंगल कामना करना। ३. कहना।
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शंसनीय  : वि० [सं०√शंस्+अनीयर्] १. प्रशंसनीय। २. मंगल करने वाला। ३. कथनीय।
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शंसा  : स्त्री० [सं०√शंस्+अ+टाप्] १. प्रशंसा। २. मंगल-कामना। ३. कथन।
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शंस्य  : वि० [सं०√शंस्+ण्यत्] १. शंसा के योग्य। २. जिसकी शंसा की जाय। ३. प्रशंसनीय। ४. कथित।
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शः  : प्रत्यय० [सं०] एक प्रत्यय जो कुछ शब्दों के अंत में लगकर (क) उसके अनेक गुने होने का भाव सूचित करता है। जैसे—बहुशः शतशः आदि। (ख) उसके सिलसिलेवार होने का सूचक होता है। जैसे—क्रमशः। (ग) जैसे—प्रकृतिशः।
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श  : पुं० [सं०√शी+ड] १. कल्याण। २. मंगल। ३. सौख्य। ४. समृद्धि। ५. शास्त्र। ६. शिव। ७. शस्त्र। वि० शुभ।
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शऊर  : पुं० [अ० शुऊर] १. कोई बात या काम करने का ठीक ढंग या तरीका। जैसे—उसे बात करने का शऊर नहीं है। २. सामान्य योग्यता या लियाकत। ३. बुद्धि।
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शक  : पुं० [सं०√शक्+अच्] १. तातार देश का पुराना नाम। २. तातार देश की, एक प्राचीन जाति जिसके कुछ लोगों ने भारत पर आक्रमण किए थे। कहते हैं कि विक्रमादित्य ने उन्हें पूरी तरह से परास्त किया था। जो लोग बच गये थे, वे भारतीय आर्यों और विशेषतः ब्राह्मणों से मिलकर शाकद्वीपी ब्राह्मण कहलाने लगे थे। राजा शालिवाहन का एक नाम। ४. बहुत बड़ा या मारके का युद्ध और उसमें होनेवाली विजय। पुं० [अ०] बहुत कुछ अनुमान पर आधारित ऐसी धारणा कि अमुक काम ऐसे हुआ होगा या अमुक व्यक्ति ने ऐसा किया होगा। जैसे—पुलिस उस पर चोरी का शक कर रही है।
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शक़  : वि० [अ०] जिसमें दरार पड़ी हो। फटा हुआ। विदीर्ण।
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शकट  : पुं० [सं०√शक्+अटन्] १. छकड़ा। २. गाड़ी। ३. छकडे या गाड़ी भर का बोझ जो २॰॰॰ पलों का एक परिमाण था। ४. एक असुर जिसे कृष्ण ने बाल्यावस्था में मारा था। ५. तिनिश वृक्ष। ६. दे० ‘शकट व्यूह’।
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शकट-व्यूह  : पुं० [सं० मध्य० स०] प्राचीन भारत में एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना जिसके दोनों पक्षों के बीच में सैनिकों की दोहरी पंक्तियाँ होती थीं।
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शकटी (टिन्)  : पुं० [सं० शकट+इन्] शकट अर्थात् बैलगाड़ी हाँकनेवाला व्यक्ति।
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शकर  : स्त्री० [सं० शकल से फा०] शक्कर। चीनी।
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शकरखोरा  : पुं० [फा० शकरखोरः] गोरैया के आकार की एक प्रकार की हरे नीले रंग की बारहमासी चिड़ियां जिसकी दुम गहरी भूरी, पुतलियाँ भूरी और चोंच तथा पैर काले रंग के होते हैं।
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शकर-पारा  : पुं० [फा० शकर पारः] १. एक प्रकार का फल जो नीबू से कुछ बड़ा होता है। २. आटे-मैदे आदि का एक तरह का पकवान जो टुकड़ों में होता है और प्रायः चाशनी में लिपटा होता है। ३. सिलाई में एक प्रकार का टाँका।
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शकर-पीटन  : पुं० [?] थूहर की तरह की एक प्रकार की कँटीली झाड़ी।
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शकर-बादाम  : पुं० [फा० शकर+बादाम] खूबानी का जर्द आलू नामक फल।
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शकरी  : स्त्री० [फा० शकर] फालसा।
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शकल  : पुं० [सं०√शक् (कर सकना)+कलच्] १. त्वचा। चमड़ी। २. छाल। छिलका। ३. दालचीनी। ४. आँवला। ५. कमल की नाल। ६. चीनी। शक्कर। ७. खंड। टुकड़ा। उदाहरण—पंच भूत का भैरव मिश्रण शम्याओं के शकल निपात।—प्रसाद। ८. एक प्राचीन देश। स्त्री० [सं० शक्ल, मि० सं० शकल=त्वचा] १. चेहरे की बनावट। आकृति। रूप। जैसे—शकल न सूरत, गधे की मूरत। पद-सूरत शकल=चेहरे की बनावट। रंग-रूप। मुहावरा- (किसी की) शकल बिगाड़ना=इतना मारना-पीटना कि आकृति, गढ़न ढाँचा या बनावट। मुहावरा—शकल बनाना=अच्छा या सुंदर रूप धारण करना (या कराना)। ४. उपाय। युक्ति। मुहावरा-शकल निकालना=युक्ति चलना या सूझना।
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शकली  : स्त्री० [सं० शकल+ङीष्] सकुची। मछली।
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शक संवत्  : पुं० [सं०√शक् (सामर्थ्य)+अच्, मध्य० स०] महाराज शालिवाहन द्वारा प्रवर्तित एक संवत् जो ई० सन् ७८ में प्रचलित हुआ था।
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शकाँतक  : पुं० [सं० शक-अंतक, ष० त०] शक जाति का अंत करनेवाला, विक्रमादित्य।
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शकाब्द  : पुं० [सं० शक-अब्द, मध्य० स०] राजा शालिवाहन का चलाया हुआ संवत्। शक संवत्। विशेष—यह ईसवीं सन् के ७८ वर्ष पश्चात् आरंभ हुआ था।
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शकार  : पुं० [सं० श+कार] १. शकवंशीय व्यक्ति। शकवंश का आदमी। २. संस्कृत नाटकों की परिभाषा में राजा का वह साला जो नीच जाति का हो।
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शकारि  : पुं० [सं० ष० त०] शक जाति का शत्रु, विक्रमादित्य।
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शकील  : वि० [फा०] [स्त्री०=शकीला] अच्छी शकल-सूरत वाला। सुन्दर। खूबसूरत।
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शकुंत  : पुं० [सं०√शक्+उन्त] १. पक्षी। चिड़िया। २. नीलकंठ। ३. एक प्रकार का कीड़ा।
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शकुंतक  : पुं० [सं०√शकुन्त+कन्] छोटी चिड़िया।
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शकुंतला  : स्त्री० [सं० शकुंत√ला (लेना)+क+टाप्] पुराणानुसार मेनका नामक अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न विश्वामित्र की कन्या जिसका विवाह राजा दुष्यंत से हुआ था।
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शकुंतिका  : स्त्री० [सं०√शक्+उन्ति+कन्+टाप्] १. छोटी चिड़िया। २. प्रजा। रिआया।
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शकुन  : पुं० [सं०√शक् (कर सकना)+उनन्] १. चिड़िया। पक्षी। २. कोई काम आरंभ होने के समय घटित होनेवाली कोई ऐसी विशिष्ट घटना जो उस कार्य के लिए भविष्य के संबंध में शुभ अथवा अशुभ परिणाम सूचित करनेवाले लक्षण के रूप में मानी जाती हो। जैसे—यात्रा के समय बिल्ली का सामने से रास्ता काटकर निकल जाना अशुभ शकुन और गौ या पानी का घड़ा दिखाई देने शुख शकुन माना जाता है। विशेष-प्राचीन काल में प्रायः पक्षियों के बोलने या सामने आने से ही इस प्रकार के शुभाशुभ फलों का अनुमान या कल्पना की जाती थी, इसीलिए इस धारणा का भी पक्षीवाचक शकुन नाम पड़ा था। मुहावरा—शकुन देखना या विचारना=कोई कार्य करने से पहले किसी उपाय से लक्षण आदि देख या पूछकर यह निश्चय करना कि यह काम होगा या नहीं, अथवा काम अभी करना चाहिए या नहीं। ३. शुभ मुहुर्त में होनेवाला कोई शुभ काम। ४. उक्त अवसरों पर गाये जानेवाले गीत। ५. गिद्ध नामक शिकारी पक्षी।
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शकुनज्ञ  : पुं० [सं० शकुन√ज्ञा (जानना)+क] १. शकुनों का शुभाशुभ फल बतलाने वाला व्यक्ति। २. ज्योतिषी।
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शकुन-द्वार  : पुं० [सं०] यात्रा पर निकलने के समय एक साथ शुभ और अशुभ सगुन होना।
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शकुन-शास्त्र  : पुं० [सं० मध्यम० स०] वह शास्त्र जिसमें शकुनों के शुभ और अशुभ फलों का विवेचन हो। शकुन बतलानेवाला शास्त्र।
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शकुनाहृत  : पुं० [सं० शकुन-आहृत, तृ० त०] १. एक प्रकार का चावल जिसे दाऊदखानी कहते हैं। २. बच्चों को होनेवाला एक प्रकार का रोग। ३. एक प्रकार की मछली।
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शकुनि  : पुं० [सं०√शक्+उनि] १. पक्षी। चिड़िया। २. गिद्ध पक्षी। ३. गंधार राज सुबल के एक पुत्र का नाम। विशेष—यह दुर्योधन के मामा थे तथा बहुत बड़े पापाचारी थे। वि० १. दुष्ट। २. पापचारी।
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शकुनिका  : स्त्री० [सं० शकुनि+कन्+टाप्] स्कंद की अनुचरी एक मातृका।
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शकुनी  : स्त्री० [सं० शकुन+ङीष्] १. श्यामा पक्षी। २. मादा गौरैया पक्षी। ३. बच्चों को कष्ट देनेवाली एक कल्पित पूतना।
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शकुनी-मातृका  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] बालकों की एक प्रकार की कष्टदायक व्याधि जो उनके जन्म से छठे दिन, छठे मास या छठे वर्ष होती है और जिसमें उन्हें ज्वर तथा कंप होता है।
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शकुनीश्वर  : पुं० [सं० शकुनि-ईश्वर, ष० त०] पक्षियों के स्वामी, गरुड़।
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शकुली  : स्त्री० [सं० शकुल+ङीष्] १. सकुची मछली। २. एक पौराणिक नदी।
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शकृत  : पुं० [सं०] १. विष्ठा। गुह। २. गोबर।
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शकृद्देश  : पुं० [सं० शकृत-देश, ष० त०] मलद्वार। गुदा।
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शकृद्दव्रर  : पुं० [सं० शकृत-द्वार, ष० त०] मलद्वार। गुदा।
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शक्कर  : स्त्री० [सं० शर्करा, मि० फा० शकर=चीनी] १. चीनी। २. कच्ची चीनी। खाँड़। पुं० [सं०] १. साँड़। २. बैल।
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शक्करी  : स्त्री० [शक्करी+ङीष्] १. वर्णवृत्त के अन्तर्गत चौदह अक्षरोंवाले छंदों की संज्ञा। २. मेखला। ३. एक प्राचीन नदी। वि० [हिं० शक्कर] जिसमें शक्कर या चीनी मिली हो।
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शक्की  : वि० [अ० शक+ई (प्रत्यय)] १. जो हर बात की संदेह भरी दृष्टि से देखता हो। २. जिसका शक सदा बना रहता हो।
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शक्त  : वि० [सं०√शक् (सकना)+क्त] १. शक्ति। सम्पन्न। समर्थ। २. पठु। ३. मधुरभाषी।
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शक्तव  : पुं० [सं० सक्त] सत्तू।
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शक्ति  : स्त्री० [सं०√शक् (सकना)+क्तिन्] १. वह शारीरिक गुण या धर्म जिसके द्वारा अंगों का संचालन आत्म-रक्षा, बल-प्रयोग और ऐसे ही दूसरे काम होते हैं। पराक्रम। ताकत। जोर (स्ट्रेन्थ)। जैसे—रोग के कारण उसमें उठने-बैठने की भी शक्ति नहीं रह गई है। २. कोई ऐसा गुण, तत्त्व या धर्म जो कोई विशिष्ट कार्य करता, कराता अथवा क्रियात्मक रूप में अपना परिणाम या प्रभाव दिखाता हो। ताकत। बल। जैसे— (क) बातें याद रखने या सोचने-समझने की शक्ति। (ख) ओषधियों में होनेवाली रोगनाशक शक्ति। ३. कोई ऐसा तत्व जो निश्चित रूप में और बलपूर्वक किसी से कोई काम कराने में समर्थ हो। (फोर्स) जैसे— (क) उसमें उसका मुँह बन्द करने की शक्ति है। (ख) इस इंजन में सौ घोड़ों की शक्ति है। (ग) मंत्रों में आज-कल वह शक्ति नहीं रह गई है। ४. कोई ऐसा तत्त्व या साधन जो अभीष्ट या कार्य की सिद्धि में सहायक होती है। जैसे—आर्थिक शक्ति, सैनिक शक्ति। ५. आधुनिक राजनीति में, वह बड़ा पराक्रमी और बलशाली राज्य जिसके पास यथेष्ट धन, सेना आदि का साधन हो और जिसका दूसरे राज्यों की नीति आदि पर प्रभाव पड़ता हो। (पावर)। जैसे—आज-कल अमेरिका और रूस ही संसार की सबसे बड़ी शक्तियाँ है। ६. धार्मिक क्षेत्रों में ईश्वर, देवी-देवता आदि में माना जानेवाला वह गुण या तत्त्व जिसके फलस्वरूप वे अपना कार्य करते या प्रभाव दिखाते हैं। जैसे—दैवी शक्ति, रौद्री शक्ति। विशेष-हमारे यहाँ कुछ देवताओं की उक्त प्रकार की शक्तियाँ उनकी पत्नी और देवी के रूप में मानी गई है। जैसे—दुर्गा पार्वती लक्ष्मी आदि। ७. तंत्र के अनुसार किसी पीठ की अधिष्ठाती देवी जिसकी उपासना करनेवाले शाक्त कहे जाते हैं। ८. तांत्रिकों की परिभाषा में वह नटी, कापालिकी, वेश्या, धोबिन, नाउन, ब्राह्मणी, शूद्रा, ग्वालिन या मालिन जो युवती रूपवती और सौभाग्यवती हो। ९. स्त्रियों की भग। योनि (तांत्रिक)। १॰. न्याय और साहित्य में, वह तत्त्व जो शब्द और उसके अर्थ से संबंध स्थापित करता अथवा शब्द का अर्थ प्रकट करता है। ११. बोल-चाल में अधिकार या वश। जैसेउसे मनाना तुम्हारी शक्ति के बाहर है। १२. प्रकृति १३. माया। १४. बरछी या साँग नामक अस्त्र। पुं० एक प्राचीन ऋषि जो पराशर के पिता थे।
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शक्ति-ग्रह  : पुं० [सं० शक्ति√ग्रह् (ग्रहण करना)+अच्] १. शिव। महादेव। २. कार्तिकेय। ३. भाला-बरदार। ४. साहित्य में वह वृत्ति या शक्ति जिससे शब्द के अर्थ का ज्ञान होता है।
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शक्ति-धर  : पुं० [सं० ष० त०] स्कंद। कार्तिकेय।
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शक्ति-पाणि  : पुं० [सं० ब० स०] कार्तिकेय। स्कंद।
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शक्ति-पूजक  : वि० [ष० त०] १. शक्ति का उपासक। २. वाममार्गी।
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शक्ति-पूजा  : स्त्री० [सं० ष० त०] शाक्तों द्वारा होनेवाली शक्ति की पूजा।
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शक्ति-बोध  : पुं० [सं० तृ० त०] शब्द शक्तियों से प्राप्त होनेवाले अर्थों का ज्ञान।
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शक्ति-मत्ता  : स्त्री० [सं० शक्ति+मतुप्, शक्तिमत्+तल्+टाप्] १. शक्ति सम्पन्न होने की अवस्था या भाव। २. शक्ति का होनेवाला घमंड।
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शक्ति-मान् (मतृ)  : वि० [सं० शक्ति+मतुप्] [स्त्री० शक्तिमती] जिसमें यथेष्ट शक्ति हो। बलवान्। बलिष्ठ। ताकतवर।
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शक्तिवादी (दिन्)  : वि० [सं० शक्ति√वद् (कहना)+णिनि] १. शक्ति संबंधी। २. शक्ति का उपासक तथा अनुयायी। शाक्त।
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शक्ति-वीर  : पुं० [सं० ष० त०] वह जो शक्ति की उपासना करता हो। वाममार्गी। शाक्त।
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शक्ति-वैकल्य  : पुं० [सं० ष० त०] १. शक्ति का अभाव। कमजोरी। दुर्बलता। २. असमर्थता।
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शक्ति-शोधन  : पुं० [सं० ष० त०] शाक्तों का एक संस्कार जिसमें वे किसी स्त्री को शक्ति की प्रतिनिधि या प्रतीक बनाने से पहले कुछ विशिष्ट कृत्य करके उसे शुद्ध करते हैं।
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शक्तिष्ठ  : वि० [सं० शक्ति√स्था (ठहरना)+क] शक्ति संपन्न।
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शक्ती  : पुं० [सं० शक्ती] एक प्रकार का मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १८ मात्राएँ होती हैं और इसकी रचना ३+३+४+३+५ होती है। अंत में सगण, रगण या नगण में से कोई एक और आदि में एक लघु होना चाहिए। वि० शक्ति संपन्न।
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शक्तु  : पुं० [सं०√शच् (एकत्रित होना)+तुन्] सत्तू।
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शक्तुक  : पुं० [सं० शक्तु√कै (मालूम होना)+क] भावप्रकाशानुसार एक प्रकार का बहुत तीव्र और उग्र विष।
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शक्य  : वि० [सं०√शक् (सकना)+यत्] [भाव० शक्यता] १. जिसका अस्तित्व में आना संभावित हो। जो हो सकता हो। २. (अर्थ) जो शब्द शक्ति से प्राप्त होता हो।
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शक्यता  : स्त्री० [सं० शक्य+तल्+टाप्] शक्य होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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शक्र  : पुं० [सं०√शक्+रक्] १. दैत्यों का नाश करनेवाले, इन्द्र। २. अर्जुन वृक्ष। ३. कुटज। कोरैया। ४. इन्द्रजौ। ५. ज्येष्ठा नक्षत्र। ६. रगण का एक भेद जिसमें ७ मात्राएँ होती हैं। वि० योग्य। समर्थ।
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शक-कार्मुक  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र-धनुष।
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शक्र-केतु  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्रध्वज।
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शक्र-गोप  : पुं० [सं० शक्र√गुप् (छिपाना)+णिच्+अण्] इन्द्रगोप। वीरबहूटी।
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शक्र-चाप  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्रधनुष।
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शक्र-जाल  : पुं० [तृ० त०]=इन्द्रजाल।
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शक्रजित्  : पुं० [सं० शक्र√जि (जीतना)+क्विप्, तुक्] १. वह जिसने इंद्र पर विजय प्राप्त की हो। २. मेघनाद।
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शक्रत्व  : पुं० [सं० शक्र+त्व] शक्र का धर्म या भाव।
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शक्र-दिशा  : स्त्री० [सं० ष० त०] पूर्व दिशा जिसके स्वामी इन्द्र माने जाते हैं।
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शक्र-देव  : पुं० [सं० कर्म० स०] इन्द्र।
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शक्र-दैवत  : पुं० [सं० ब० स०] ज्येष्ठा नक्षत्र जिसके स्वामी इन्द्र माने जाते हैं।
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शक्र-धनुष  : पुं० [सं०] इन्द्र-धनुष।
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शक्र-ध्वज  : पुं० [सं०] इन्द्रध्वज।
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शक्र-नंदन  : पुं० [सं० ष० त०] अर्जुन जो इन्द्र का पुत्र माना गया है।
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शक्र-पुर  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र के रहने की पुरी, अमरावती।
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शक्र-पुष्पी  : स्त्री० [सं० शक्रपुष्प+ङीष्] १. कलिहारी। कलियारी। २. अग्नि-शिखा नामक वृक्ष। ३. नागदमनी।
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शक्र-भवन  : पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग।
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शक्र-माता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] इंद्र की माता, भार्गी।
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शक्र-यव  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र जौ। कुटज बीज।
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शक्र-लोक  : पुं० [सं० ष० त०] इंद्रलोक। स्वर्ग।
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शक्र-वाहन  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र का वाहन अर्थात् मेघ। बादल।
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शक्र-शरासन  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र-धनुष।
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शक्र-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] यज्ञ-भूमि में वह स्थान जिसके स्वामी इन्द्र और अग्नि माने जाते हैं।
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शक्राणि  : स्त्री० [सं० शक्र+ङीष्,आनुक्] १. इन्द्र की पत्नी, शची। इन्द्राणी। २. निर्गुडी।
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शक्रात्मज  : पुं० [सं० शक्र-आत्मज, ष० त०] अर्जुन।
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शक्रानिल  : पुं० [सं० शक्र-अनिल, ष० स०] ज्योतिष में प्रसव आदि साठ संवत्सरों के बारह युगों में से दसवें युग के अधिपति।
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शक्राशन  : पुं० [सं० शक्र√अश् (भोजन करना)+ल्युट-अन] १. भाँग। विजया। भंग। २. कुटज। कोरैया। ३. इन्द्र जौ।
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शक्रासन  : पुं० [सं० ष० त०] १. इन्द्र का आसन। २. सिंहासन।
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शक्रि  : पुं० [सं० शक+क्रित्, बहु] १. मेघ। बादल। २. वज्र। ३. हाथी। ४. पहाड़। पर्वत।
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शक्रोत्थान  : पुं० [ब० स०] इंद्रध्वज नामक उत्सव। शक्रोत्सव।
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शक्रोत्सव  : पुं० [सं० ष० त०] इंद्रध्वज नाम का उत्सव।
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शक्ल  : स्त्री० [अ०] दे० ‘शकल’ (आकृति या सूरत)।
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शक्वर  : पुं० [सं०√शक् (कर सकता)+वनिप्-रच] १. बैल। २. आकाश।
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शक्वरी  : स्त्री० [सं० शक्वर+ङीष्] १. गाय। २. उँगली। ३. मेखला। ४. एक प्रकार का छन्द। ५. एक प्राचीन नदी।
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शखस  : पुं०=शख्स (व्यक्ति)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शख्स  : पुं० [अ०] [भाव० शख्सीयत] आदमी। पुरुष। व्यक्ति।
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शख्सियत  : स्त्री० [अ०] शख्स (व्यक्ति) होने की अवस्था या भाव। व्यक्तित्व।
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शख्सी  : वि० [अ०] १. शख्स का। मनुष्य का। २. वैयक्तिक।
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शगल  : पुं० [अ० शुगल] १. ऐसा काम जिसे समय गुजारने विशेषतः मन-बहलाव के लिए किया जाता हो। (हाँबी) २. धंधा।
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शगाल  : पुं० [सं० श्रृंगाल से फा०] गीदड़। श्रृंगाल।
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शगुन  : पुं० [सं० शकुन] १. दे० ‘शकुन’। २. हिन्दुओं में एक रस्म जिसमें वर-कन्या के विवाह की बात पक्की की जाती है। ३. उक्त अवसर पर वह धन जो कन्या-पक्षवाले वर-पक्षवालों को देते हैं।
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शगुनियाँ  : पुं० [हिं० शगुन+इयाँ (प्रत्यय)०] १. वह ज्योतिषी जो विभिन्न प्रकारों के सगुनों का शुभाशुभ फल बतलाता हो। २. सगुनों का फल बतलानेवाला पंडित।
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शगुफ्ता  : वि० [फा० शिगुफ्तः] [भाव० शगुफ्ती] १. खिला हुआ। विकसित। २. प्रफुल्लित। प्रसन्न-चित्त।
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शगून  : पुं०=शगुन या शकुन।
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शगूनियाँ  : पुं०=शगुनियाँ।
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शगूफा  : पुं० [फा० शिगूफः] १. खिला हुआ फूल। २. कोई मनोरंजक या विलक्षण बात। मुहावरा—शगूफा छोड़ना=कोई ऐसी विलक्षण या मनोरंजक बात कहना जो झगड़े की मूल हो।
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शग्ल  : पुं०=शगल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शचि  : स्त्री० [सं०√शच् (स्पष्ट कहना)+कचि] १. इन्द्र की पत्नी। २. प्रज्ञा। बुद्धि। ३. वाग्मिता। ४. शतावर। ५. असवर्ग।
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शची  : स्त्री०=शचि।
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शचीपति  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र।
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शचीश  : पुं० [सं० ष० त० स०] इन्द्र।
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शजर  : पुं० [अ०] दरख्त। वृक्ष।
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शजरा  : पुं० [अ० शजरः] १. शजर अर्थात् वृक्ष की आकृति के रूप में होनेवाला किसी वंश के लोगों का विवरण। वंश-वृक्ष। ३. खेतों का वह नकशा जो पटवारी या लेखपाल अपने पास रखते हैं।
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शट  : पुं० [सं√शट् (रोग आदि)+अच्] १. खटाई। अम्लरस। २. एक प्राचीन देश। वि० अम्ल। खट्टा।
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शटा  : स्त्री० [सं० शट्+टाप्] १. जटा। २. शेर का अयाल। सिहं-केसर।
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शटि  : स्त्री० [सं० शट+इनि] १. कचूर। कर्चूर। २. कपूरकचरी। ३. आँवा हल्दी। ४. सुगन्ध बाला।
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शटी  : स्त्री० [सं० शटि+ङीष्]=शटि।
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शट्टक  : पुं० [सं० शट्ट+कन्] गूँधा हुआ चौरेठा जिसमें मोयन भी डाला गया है।
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शठ  : वि० [सं० शठ+अच्] १. स्वभाव से दुष्ट। २. धोखेबाज। ३. मूर्ख। ४. आलसी। पुं० १. साहित्य में वह नायक जो ऊपर-ऊपर से अपनी स्त्री के प्रति प्रेम प्रकट करता हो परन्तु वस्तुतः जो पर-स्त्री से प्रेम करता हो। ऐसा नायक जो अपराध छिपाने में चतुर हो। २. वह जो दो आदमियों के बीच में पड़कर उसके झगड़े का निपटारा करता हो। मध्यस्थ। ३. लोहा। ४. ताड़ का पेड़। ५. केसर। ६. धतूरा। ७. चित्रक। चीता। ८. तगर का फूल।
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शठता  : स्त्री० [सं० शठ+तल्+टाप्] १. शठ का धर्म या भाव। शठ का कोई कार्य जो दूषित वृत्ति का सूचक हो। ३. दुष्ट उद्देश्य से किया जानेवाला कोई काम।
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शठत्व  : पुं० [सं० शट+त्व] शठता।
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शठिका  : स्त्री० [सं० शठ+कन्+टाप्, इत्व] १. कचूर। २. कपूर कचरी। ३. वनअदरक।
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शठी  : स्त्री० [शठ+ङीष्]=शठिका।
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शण  : पुं० [सं०√शण् (दान आदि)+अच्] १. सन नामक पौधा। २. शणपुष्पी। बन-सलाई। ३. भंग। भाँग। विजया।
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शणपुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार की वनस्पति जो साधारणतः बनसलाई कहलाती है। २. अरहर।
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शत  : वि० [सं० दशत=दश=श] १. सौ। २. असंख्य। पुं० १. सौ का सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—१॰॰। २. एक तरह की सौ चीजों का संग्रह। जैसे—नीति शतक। ३. शताब्दी। शती। ४. विष्णु का एक नाम। वि० जिसके सौ अंश या विभाग हों।
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शत-किरण  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार की समाधि।
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शत-कुंडी (डिन्)  : पुं० [सं० शतकुंड+इन्] एक प्रकार का यज्ञ जिसमें सौ कुण्डों में हवन एक साथ होता है।
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शत-कुंभ  : पुं० [सं०] सफेद कनेर।
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शतकुंभ  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक पर्वत जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि वहाँ सोना मिलता है। २. सोना। ३. सफेद कनेर।
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शत-कोटि  : पुं० [सं० ब० स०] १. सौ करोड़ की संख्या। अर्बद। इन्द्र का वज्र। ३. हीरा।
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शतक्रतु  : पुं० [सं० ब० स०] इन्द्र। वि० जिसमें सौ यज्ञ किये हों।
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शतखंड  : पुं० [सं० ब० स०] १. सोना। स्वर्ण। २. सोने की बनी हुई कोई चीज। स्वर्ण-वस्तु।
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शतगु  : वि० [सं० ब० स०] जिसके पास सौ गाएँ हों।
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शतगुण  : वि० [सं० कर्म० स०] सौ गुना।
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शतगुणित  : भू० कृ० [सं० शतगुण+इतच्] सौगुना किया हुआ।
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शत-ग्रीव  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार की भूत योनि।
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शतघ्न  : पुं० [सं०] शिव।
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शतघ्नी  : स्त्री० [सं० शत√हन् (मारना)+टक्+ङीष्] १. एक तरह का प्राचीन क्षेप्यास्त्र। २. गले में होनेवाली एक प्रकार की घातक गाँठ (रोग)।
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शत-चंद्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार का आभूषण या गहना जिसमें चन्द्रमा की सैकड़ों आकृतियाँ बनी होती हैं।
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शतच्छद  : पुं० [सं० ब० स०] १. सौ पत्तियोंवाला कमल। शतदल। कमल। २. कठफोड़वा या काठ-ठोका नामक पक्षी।
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शतजटा  : स्त्री० [सं० ब० स०] सतावर। शतमूली।
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शतजित्  : पुं० [सं० शत्√जि (जीतना)+क्विप्, तुक्] १. विष्णु का एक नाम। २. एक प्रकार का यज्ञ।
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शतजिह्न  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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शत-तंत्री  : स्त्री० [सं० शततंत्र+ङीप्] एक प्रकार की वीणा जिसमें प्रायः सौ तार लगे होते हैं।
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शततारका  : स्त्री० [सं० ब० स०] शतभिषा नक्षत्र।
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शतदल  : वि० [ब० स०] जिसके सौ दल हों। सौ दलोंवाला। पुं० कमल।
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शतदला  : स्त्री० [सं० शतदल+टाप्] सेवती (फूल)।
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शतद्रु  : स्त्री० [सं० सत्√द्रु (बहना)+कु] १. शतदल नदी का प्राचीन नाम। २. गंगा नदी।
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शतधन्वा  : पुं० [सं० ब० स०] एक योद्धा जिसने सत्राजित् को मारा था, और इसीलिए जो श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया था।
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शतधा  : स्त्री० [सं० शत+धा] दूब। वि० १. सौ गुना। २. सौ तरह का। अव्य० सैकड़ों प्रकार से।
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शतघामा  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु का एक नाम।
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शतधार  : वि० [ब० स०] १. सौ धाराओंवाला। २. (अस्त्र) जिसकी सौ धारें हों।
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शतधृति  : पुं० [सं० ब० स०] १. इन्द्र। २. ब्रह्मा। ३. स्वर्ग।
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शतपति  : पुं० [सं० ब० स०] सौ मनुष्यों या सैनिकों का सरदार।
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शतपत्र  : वि० [सं० ब० स०] १. सौ दलों या पत्तोंवाला। २. सौ पंखों या परोंवाला। पुं० १. कमल। २. सेवती। ३. मोर। मयूर। ४. कठ-फोड़वा नामक पक्षी। ५. सारस। ६. मैना। ७. बृहस्पति।
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शतपत्रा  : स्त्री० [सं० शतपत्र+टाप्] १. स्त्री। २. दूब।
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शतपत्री  : स्त्री० [सं० शतपत्र+ङीप्] १. सेवती। २. गुलाब का केसर।
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शतपथ  : वि० [सं० ब० स०] १. बहुत से मार्गोंवाला। २. बहुत सी शाखाओंवाला। पुं० [सं० ब० स० अच् +समा] यजुर्वेद का एक ब्राह्मण जिसके कर्ता याज्ञवल्क्य माने जाते हैं।
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शतपथिक  : वि० [सं० शतपथ+ठन्-इक] १. बहुत से मतों का अनुयायी। २. शतपथ ब्राह्मण का अनुयायी या ज्ञाता।
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शतपद  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० शतपदी] सौ परोंवाला। पुं० [स्त्री० शतपदी] १. गाजर। २. च्यूँटी।
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शतपद्य  : पुं० [सं० मध्यम० स०] सफेद कमल।
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शतपर्वा  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. बाँस। वंश। २. गन्ना। ३. दूब। ४. बच। ५. कुटकी। ६. सुगंधित। द्रव्य। कुरेमू का साग। ८. भार्गव ऋषि की पत्नी का नाम।
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शतपाद  : वि० पुं० [ब० स०]=शतपद।
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शतपादिका  : स्त्री० [सं० शतपाद+कप्+टाप्, इत्व] १. काकोली नामक अष्टवर्गीय ओषधि। २. कनखजूरा। गोजर।
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शतपुत्री  : स्त्री० [सं० ब० स०+ङीप्] १. सतपुतिया। तरोई। २. शतावर।
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शतपुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] साठी धान्य।
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शतपुष्पा  : स्त्री० [सं० शतपुष्प+टाप्] १. सोआ नाम का साग। ३. सौंफ। ३. गवेधुक।
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शतफल  : पुं० [सं० ब० स०] बाँस।
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शतबला  : स्त्री० [सं० ब० स०] एक नदी (महाभारत)।
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शतबाहु  : पुं० [सं० ब० स०] १. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का कीड़ा। २. पुराणानुसार एक असुर। ३. बौद्धों के अनुसार मार का एक पुत्र।
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शतभिषा  : स्त्री० [सं० शतभिषा+टाप्] २७ नक्षत्रों में से चौबीसवाँ नक्षत्र जिसमें १॰॰ तारे हैं। शत-तारका।
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शतभीरू  : पुं० [सं० ब० स०] मल्लिका। चमेली।
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शतमख  : पुं० [सं० ब० स०] १. इन्द्र। शतक्रतु। २. उल्लू।
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शतमन्यु  : वि० [सं० ब० स०] १. क्रोधी। गुस्सावर। २. उत्साही। पुं० १. इन्द्र। २. उल्लू।
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शत-मयूख  : पुं० [ब० स०] चन्द्रमा।
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शत-मान  : पुं० [सं० शत√मि+ल्युट—अन] १. सोना, चाँदी आदि तौलने का सौ मन का बटखरा या बाट। २. आढ़क नाम की प्राचीन काल की तौल जो प्रायः पौने चार सेर की होती थी। ३. रूपामक्खी नामक उपधातु। वि० जो तौल में सौ मान हो।
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शतमूला  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] १. बड़ी सतावरी। २. बच। ३. नीली दूब।
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शतमूली  : स्त्री० [सं० शतमूल—ङीष्] १. सतावरी नाम की ओषधि। २. मूसली नामक ओषधि। ३. बच।
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शतरंज  : पुं० [फा० मि० सं० चतुरंग] एक प्रकार का प्रसिद्ध खेल जो चौसठ खानों की बिसात पर ३२ गोटियों से खेला जाता है। विशेष-सब मोहरें दो रंगों के होते है। प्रत्येक रंग में 8 सिपाही या पैदल, २ हाथी, २ घोड़े, २ ऊँट, १ बादशाह तथा १ वजीर होते हैं।
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शतरंजबाज  : पुं० [फा० शतरंज+फा० बाज] [भाव० शतरंदजबाजी] १. शतरंज खेलने का शौकीन। २. शतरंज के खेल का बहुत बड़ा खिलाड़ी।
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शतरंजबाजी  : स्त्री० [फा०] शतरंज खेलना।
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शतरंजी  : स्त्री० [फा०] १. शतरंज का खिलाड़ी। २. शतरंज खेलने की बिसात। ३. ऐसी चादर या दरी जिसमें रंग-बिरंगे खाने बने हुए हों। ४. मिस्सी की रोटी।
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शतरात्र  : पुं० [सं० ब० स०] सौ रातों तक बराबर चलता रहनेवाला यज्ञ।
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शतरूद्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. रुद्र का एक रुप जिसके सौ मुँह कहे गये हैं। २. एक शक्ति (शैव)।
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शतरुद्रिय  : स्त्री० [सं०शतरुद्र+घ-ईय] १. यज्ञ की हवि। २. यजुर्वेद का एक अंग या अध्याय।
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शतरुद्री  : स्त्री० [सं० शतरुद्र+ङीष्]=शतरुद्रिय।
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शतरूपा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] १. ब्रह्मा की पत्नी तथा माता। २. स्वयंभुव मनु की पत्नी तथा माता।
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शत-लोचन  : वि० [सं० ब० स०] जिसके सौ नेत्र हों। पुं० १. स्कन्द का एक अनुचर। २. एक गोत्र-प्रवर्तक ऋषि।
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शत-वल्ली  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. नीली दूब। २. काकोली।
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शतवादन  : पुं० [सं० ष० त०] सौ बाजों का एक साथ बजना।
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शत-वार्षिक  : वि० [सं० शतवर्ष+ठर्-इक] १. सौ सौ वर्षों के उपरान्त होनेवाला। २. जिसकी अवधि सौ वर्षों की हो।
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शत-वार्षिकी  : स्त्री० [सं०] किसी पुरुष,संस्था आदि के जन्म के ठीक सौ वर्ष बाद मनाया जानेवाला उत्सव (सेन्टेनरी)। जैसे—रवीन्द्र शत-वार्षिकी।
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शत-वीर्या  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. सफेद दूब। २. सतावर। ३. सफेद मूसली। ४. मुनक्का। ५. किशमिश।
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शतशः  : अव्य० [सं० शत+शस्] सैकड़ों प्रकार से बहुत तरह से।
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शतशीर्ष  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु का एक नाम। २. एक प्रकार का अभिमंत्रित अस्त्र।
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शतह्रदा  : स्त्री० [सं० ब० स०]+टाप्] १. विद्युत। बिजली। २. वज्र। ३. दक्ष की एक कन्या जो बाहुपुत्र को ब्याही थी। ४.विराध नामक राक्षस की माता।
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शतांग  : वि० [सं० ब० स०] जिसके सौ अंग हों। पुं० १. रथ। २. तिनिश वृक्ष। ३. एक राक्षस।
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शतांश  : पुं० [सं० कर्म० स०] किसी चीज के सौ बराबर हिस्सों में से कोई एक। सौवां हिस्सा।
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शता  : स्त्री० [सं० शत+टाप्] सफेद मूसली।
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शताक्ष  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० शताक्षी] की आँखोंवाला। पुं० पुराणानुसार एक दानव।
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शताक्षी  : स्त्री० [सं० शताक्ष+ङीष्] १. पार्वती। २. दुर्गा। ३. रात्रि। रात। ४. सौंफ।
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शतानंद  : पुं० [सं० शतआ√नन्द+अण्] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. विष्णु का रथ। ४. श्रीकृष्ण। ५. गौतम ऋषि।
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शतानक  : पुं० [सं० ब० स०] श्मशान। मरघट।
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शतानन  : पुं० [सं० ब० स०] बेल। श्रीफल। वि० सौ मुहोंवाला।
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शतानना  : स्त्री० [सं० शतानन+टाप्] एक देवी का नाम।
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शतानीक  : वि० [सं० ब० स०] (वृद्ध) जिसकी अवस्था सौ या अधिक वर्षों की हो। पुं० १. द्रौपदी के गर्भ से उत्पन्न नकुल का एक पुत्र। २. व्यास के एक शिष्य। ३. जनमेजय के पुत्र का नाम।
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शताब्द  : वि० [सं० ब० स०] सौ वर्षवाला। पुं० शताब्दी।
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शताब्दी  : स्त्री० [सं० शताब्द+ङीष्] १. सौ वर्षों की अवधि की सूचक संज्ञा। २. किसी सन या संवत् की किसी इकाई से सैकड़े तक का समय। शती (सेन्चुरी)। वि० सौ वर्षों के उपरान्त होनेवाला। जैसे—शताब्दी समारोह।
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शतायु (स्)  : वि० [सं० ब० स०] १॰॰ वर्ष की अवस्थावाला।
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शतायुध  : वि० [सं० ब० स०] जो सौ अस्त्र धारण करता हो। सौ अस्त्रों वाला।
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शतार  : पुं० [सं० ब० स०] १. वज्र। २. सुदर्शन चक्र।
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शतारु  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का कोढ़ जिसमें खाल पर लाल, काली और दाहयुक्त फुँसिया हो जाती हैं।
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शतावधान  : पुं० [ब० स०] वह व्यक्ति जो सौ काम एक साथ कर सकता हो।
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शतावर  : पुं० [सं० शत-आ√वृ (वरण करना)+अच्, शतावरी] सफेद मूसली। सतावर।
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शतावरी  : स्त्री० [सं० शत-आ√वु+अच्+ङीष्] १. शतमूली। शतावर। सफेद मूसली। २. कचूर। ३. इन्द्राणी। शची।
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शतावर्त  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. शिव।
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शताशनि  : पुं० [सं० ब० स०] वज्र।
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शतिक  : वि० [सं० शत+ठन्—इक] १. शत अर्थात् सौ संबंधी। सौ का। २. प्रति सौ के हिसाब से लगनेवाला (कर)।
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शती  : स्त्री० [सं० सत+इनि, शतिन्] १. सौ का समूह। सैकड़ा। जैसे—दुर्गा शप्तशती। २. दे० ‘शताब्दी’।
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शतोदर  : पुं० [सं० ब० स०] शिव का एक नाम। २. शिव का एक अनुचर या गण। ३. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र।
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शतोदरी  : स्त्री० [सं० शतोदर+ङीप्] कार्तिकेय की एक मातृका।
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शत्रुंजय  : पुं० [सं० शत्रु√जि (जीतना)+खच्-मुम्] १. काठियावाड़ में स्थित एक प्रसिद्ध पर्वत। विमलाद्रि। २. परमेश्वर। वि० शत्रु को जीतनेवाला।
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शत्रु  : पुं० [सं०] १. दो पक्षों में से हर एक जिनमें एक दूसरे के प्रति दुर्भावना हो। २. वह जो अपना अथवा दूसरे का घोर अहित चाहता हो। ३. वह जो किसी के नाश के लिए उतारू हो।
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शत्रुधारी  : पुं० [सं० शत्रु√हन् (मारना)+णिनि-कुत्व=घ, शत्रु-घातिन] शत्रुघ्न के पुत्र का नाम। वि० शत्रु का नाश करनेवाला।
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शत्रुघ्न  : पुं० [सं० शत्रु√हन् (मारना)+क] सुमित्रा के गर्भ से उत्पन्न राजा दशरथ के चतुर्थ पुत्र। वि० शत्रुओं को मार डालनेवाला।
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शत्रुघ्नी  : स्त्री० [सं० शत्रुघ्न+ङीष्] हथियार।
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शत्रुजित  : वि० [सं० शत्रु√जि (जीतना)+क्विप्, तुक्] शत्रु को जीतनेवाला। पुं० शिव।
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शत्रुता  : स्त्री० [सं० शत्रु+तल्+टाप्] द्वेष भाव से उत्पन्न वह मनोभावना जिससे किसी को कष्ट या हानि पहुँचाने की प्रवृत्ति होती है। विशेष-वैर और शत्रुता में मुख्य अंतर यह है कि वैर का स्वरूप अपेक्षया अधिक उग्र या तीव्र होता है और सदा जाग्रत रहता है। वैर जातिगत या स्वाभाविक भी हो सकता है,पर शत्रुता में ये बातें या तो होती ही नहीं या कम होती हैं। नेवले और साँपों में वैर ही होता है शत्रुता नहीं। इसके विपरीत हम किसी अवसर पर अज्ञान या मूर्खतावश अपने साथ शत्रुता तो कर सकते हैं परन्तु वैर नहीं कर सकते।
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शत्रुताई  : स्त्री०=शत्रुता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शत्रुत्व  : पुं० [सं० शत्रु+त्व] शत्रुता। दुश्मनी।
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शत्रुदमन  : वि० [सं० शत्रु√गम् (दमन करना)+ल्युट-अन] शत्रुओं का दमन या नाश करने-वाला। पुं० दशरथ के पुत्र शत्रुघ्न।
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शत्रुमर्द्दन  : पुं० [सं० शत्रु√मृद् (मर्दन करना)+ल्यु-अन] शत्रुघ्न का एक नाम। वि० शत्रुओं का मर्दन करनेवाला।
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शत्रुसाल  : वि० [सं० शत्रु+हिं० सालना] शत्रु के हृदय में शूल अर्थात् कष्ट और भय उत्पन्न करनेवाला।
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शत्रुहंसा (तृ)  : वि० [सं० ष० त०] शत्रु का नाश करनेवाला।
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शत्रुहा  : वि० [सं० शत्रु√हन् (मारना)+क्विप्, दीर्घ, न-लोप] शत्रु का नाश करनेवाला। पुं० शत्रुघ्न।
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शत्वरी  : स्त्री० [सं० शत्+वरच्+ङीष्] रात्रि। रात।
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शद  : पुं० [सं०√शद् (पतला करना)+अच्] १. कोई वानस्पतिक खाद्य पदार्थ। २. राजस्व। कर।
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शदक  : पुं० [सं०√शद् (पतला करना)+ण्वुल्-अक] ऐसा अनाज जिसकी भूसी न निकाली गई हो।
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शदीद  : वि० [अ०] १. प्रबल। २. कठिन।
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शद्द  : पुं० [अ०] १. शब्द पर जोर देना। २. द्वित्व अक्षर।
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शद्रि  : पुं० [सं०√शद् (पतला करना)+क्रि] १. मेघ। बादल। २. हाथी। ३. अर्जुन। स्त्री० १. बिजली। २. खंड।
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शन  : पुं० [सं० शन+अच] १. शांति २. चुप्पी। मौन पुं०=सन नामक पौधा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शनपुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स०] बन-सनई।
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शनाख्त  : स्त्री० [फा०] ठीक ठीक और पूरी पूरी पहचान।
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शनास (सा)  : वि० [फा०] पहचानने या परखनेवाला।
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शनासाई  : स्त्री० [फा०] जान-पहचान। परिचय।
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शनि  : पुं० [सं० शन+इनि√शो (पतला करना)+अनि-कित्] १. सौर जगत् के नौ ग्रहों में सातवाँ ग्रह जो फलित ज्योतिष में अशुभ और कष्टदायक माना जाता है। शनैश्चर। २. दुर्भाग्य। बद-किस्मती। पुं०=शनिवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शनिप्रसू  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] शनि की माता छाया जो सूर्य की पत्नी कही गई हैं।
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शनि-प्रिय  : पुं० [सं० ष० त० स०] नीलमणि। नीलम।
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शनिवार  : पुं० [सं० मध्य० स०] सप्ताह के सात दिनों में एक दिन का नाम जो शुक्र और रवि के बीच पड़ता है।
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शनिश्चर  : पुं०=शनि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शनैः  : अव्य० [सं० शण+डैसि-वुक्, पृषो०] धीरे आहिस्ता। हौले।
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शनैश्चर  : पुं० [सं० शनैस्√चर् (चलना)+ट] शनि नामक ग्रह।
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शपथ  : स्त्री० [√शस् (निन्दा करना)+अथन्] अपने कथन की सत्यता जतलाने के उद्देश्य से ईश्वर,देवता अथवा किसी पूज्य या अतिप्रिय वस्तु की दी जानेवाली साक्षी तथा की जानेवाली दुहाई। (ओथ)
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शपथ-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] ईश्वर तथा अंतः करण को साक्षी रखकर शुद्ध हृदय से लिखा जानेवाला वह पत्र जो न्यायालय में या वरिष्ठ अधिकारी के सामने यह सूचित करने के लिए उपस्थित किया जाता है कि मेरा अमुक कथन या प्रस्थान बिलकुल ठीक है। हलफनामा। (एफिडेविट)
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शपथ-भंग  : पुं० [सं०ष०त०] शपथपूर्वक कोई प्रतिज्ञा करके भी उसका पालन न करना,जो विधिक दृष्टि से अपराध माना जाता है।
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शपन  : पुं० [सं०√शप् (बिदा करना)+ल्युट-अन] १. शपथ। कसम। २. गाली। दुर्वचन।
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शप्त  : पुं० [सं०√शप् (निन्दा करना)+क्त] उलूक नामक तृण। वि० जिसे शाप दिया गया या मिला हो।
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शफ  : पुं० [सं०√शप्+अच्, पृषो० प=फ] १. वृक्ष की जड़। २. पशुओं का खुर। ३. नखी नामक गन्ध द्रव्य।
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शफक  : स्त्री० [अ० शफक] सूर्य के निकलने और डूबने के समय क्षितिज पर दिखाई देनेवाली लाली। मुहावरा—शफक फूलना=उक्त अवसरों पर क्षितिज में दूर तक लाली फैलना। उदाहरण—फूले शफक तो जर्द हों गालों के सामने। पानी भरे घटा तेरे बालों के सामने।—कोई शायर।
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शफकत  : स्त्री० [अ० शफ़क़त] १. अनुग्रह। मेहरबानी। २. प्रेम। मुहब्बत।
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शफ़गोल  : पुं० [फा०] इसबगोल।
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शफ़तालू  : पुं० [फा०] एक प्रकार का बड़ा आडू या सतालू।
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शफर  : स्त्री० [सं० शफ√रा (लेना)+फ] पोठी या सौरी मछली।
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शफरी  : स्त्री०=शफर।
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शफा  : स्त्री० [अ० शफा] १. स्वास्थ्य। तन्दुरुस्त। २. आरोग्य।
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शफाखाना  : पुं० [अ० शफा+फा० खाना] १. स्वास्थ्यवर्द्धक स्थान। २. अस्पताल। चिकित्सालय।
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शफीक  : वि० [अ० शफीक] १. शफरत या अनुग्रह करनेवाला। २. प्यार करने या प्रिय लगनेवाला। पुं० प्रिय मित्र।
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शफ्तालू  : पुं०=शफतालू।
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शफ्फाफ  : वि० [अं० शपफ़्फाफ़] उजला या धवल (वस्त्र)।
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शब  : स्त्री० [फा०] रात। रात्रि। पद-शबोरोज=रात-दिन।
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शबदी  : पुं० [सं० शब्द] १. शब्द। लफ्ज। २. किसी महात्मा के कहे हुए उपदेशात्मक पद या पद्य। जैसे—गुरु नानक की शबदी।
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शबनम  : स्त्री० [फा०] १. ओस। २. सफेद रंग का एक प्रकार का बढ़िया कपड़ा।
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शबनमी  : स्त्री० [फा] शबनम अर्थात् ओस से बचने के लिए ताना जानेवाला कपड़ा।
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शबबरात  : स्त्री० [फा०] हिजरी सन के शाबान माह की चौदहवीं रात। विशेष-इस दिन मुसलमान अपने मृत पूर्वजों के उद्देश्य से गरीबों को भोजन, बाँटते, उत्सव, मनाते दीपमालाएँ जलाते तथा आतिशबाजी छोड़ते हैं।
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शबर  : पु० [सं० श√वृ (वरण करना)+अच्] १. दक्षिण भारत में रहनेवाली एक जंगली या पहाड़ी जाति। २. जंगली आदमी। ३. शिव। ४. हाथ। ५. जल। ६. ऐसी सन्तान जो शूद्र भील के संयोग से उत्पन्न हुई हो। वि० चितकबरा।
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शबरक  : वि० [सं० शबर+कन्] [स्त्री० शबरिका] १. शबर लोगों में होनेवाला। २. जंगली।
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शबर-चंदन  : पुं० [सं० शबर+हिं० चंदन] एक प्रकार का चंदन जो लाल और सफेद दोनों मिले हुए रंगों का होता है।
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शबरी  : पुं० [सं० शबर+ङीष्] १. शबर जाति की नारी। २. रामायण में वर्णित शबर जाति की एक राम-भक्त स्त्री जिसने उन्हें चख चखकर जूठे बेर खिलाये थे। ३. बौद्ध तांत्रिकों की एक उपास्य नायिका जो बहुत दूर के किसी ऊँचे पर्वत पर रहनेवाली अबोध बालिका के रूप में मानी गई है।
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शबल  : वि० [सं० शप् (निन्दा करना)+वल्, प+ब] १. चितकबरा। २. रंगबिरंगा। ३. अनुकृत। पुं० १. कई रंगों को मिलाकर बनाया हुआ रंग। २. बौद्धों का एक प्रकार का धार्मिक कृत्य। ३. अगिया घास। ४. चित्रक। चीता।
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शबलक  : वि० [सं० शबल+कन्]=शबल।
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शबलता  : स्त्री० [सं० शबल+तल्+टाप्] शबल होने की अवस्था या भाव। रंग-बिरंगा होना।
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शबलत्व  : पुं० [सं० शबल+त्व]=शबलता।
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शबला  : स्त्री० [सं० शबल+टाप्] १. चितकबरी या बहुरंगी गौ। २. कामधेनु।
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शबलित  : भू० कृ० [सं० शबल+इतच्] १. चितकबरा। रंगबिरंगा। २. अनेक रंगों में रँगा हुआ।
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शबली  : स्त्री० [सं० शबल+ङीष्] शबला। (दे०)
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शबाब  : पुं० [अं०] १. यौवनकाल। युवावस्था। जवानी। २. उठती जवानी। ३. युवावस्था का सौन्दर्य। ४. सौन्दर्य।
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शबाहत  : स्त्री० [अ०] १. रूप। २. आकृति। सूरत। ३. अनुरूपता। समानता।
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शबिस्तान  : पुं० [फा०] १. बड़े आदमियों के सोने का कमरा। अंतःपुर। २. मसजिद में वह स्थान जहाँ रात को ईश्वर-प्रार्थना करते हैं।
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शबीह  : स्त्री० [अं०] १. वह चित्र जो किसी व्यक्ति की सूरत-शक्ल के ठीक अनुरूप बना हो। २. अनुरूपता। समानता।
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शब्द  : पुं० [सं०√शब्द+घञ्] १. किसी प्रकार के आघात के फल-स्वरूप वायु में होनेवाला ऐसा कंप जो कानों में पहुँचकर सुनाई पड़ता हो। आवाज। ध्वनि। (साउन्ड)। २. अक्षरों, वर्णों आदि से बना और मुँह से उच्चारित होने या लिखा जानेवाला वह संकेत जो किसी कार्य, बात या भाव का बोधक हो। सार्थक ध्वनि। लफ्ज (वर्ड)। ३. परमात्मा का मुख्य नाम ओम्। ४. साधु-संतों के ऐसे पद जिनमें निराकार का गुण कथन होता है।
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शब्द-काम  : वि० [सं०] [स्त्री० शब्द-कामा] जिसे बात-चीत करने का चस्का हो। बातें करने का शौकीन। बातरसिया। पुं० बातचीत में होनेवाली चुहलबाजी।
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शब्दग्रह  : पुं० [सं० शब्द√ग्रह+अच्] कान। वि० [सं०] शब्द अर्थात् ध्वनि या वर्ण ग्रहण करनेवाला।
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शब्द-चातुर्य  : पुं० [सं० प० त०] बातचीत करने का कौशल।
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शब्द-चित्र  : पुं० [ब० स०] १. अनुप्रास नामक अलंकार। २. चुने हुए शब्दों में किसी घटना या बात का किया जानेवाला सजीव वर्णन। ऐसी रचना जिसमें किसी घटना, बात आदि का सजीव वर्णन हो।
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शब्द-चोर  : पुं० [सं०] दूसरों की रचनाओं से शब्द, प्रयोग आदि उड़ा लेनेवाला।
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शब्द-जाल  : पुं० [सं० ष० त० ब० स०] कथन का वह रूप जिसमें कोई छोटी सी तथा सीधी-सी बात बहुत से तथा भारी-भारी शब्दों में घुमाफिरा कर कही गई हो।
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शब्दत्व  : पुं० [सं० शब्द+त्व] शब्द का धर्म या भाव। शब्दता।
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शब्द-नृत्य  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का नृत्य।
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शब्द-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. बातों का धनी। २. विशेषतः ऐसा व्यक्ति जो कहता तो बहुत कुछ हो परन्तु करता-धरता कुछ न हो।
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शब्द-प्रमाण  : पुं० [सं० कर्म० स०] मौखिक प्रमाण। आप्त प्रमाण।
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शब्द-प्राश  : पुं० [सं० ष० त०] शब्द के अर्थों का अनुसंधान। शब्दार्थ की जिज्ञासा।
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शब्द-बोध  : पुं० [सं० तृ० त०] किसी की कही हुई बातों मात्र से प्राप्त होनेवाला ज्ञान।
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शब्द-ब्रह्म  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. परमात्मा या ब्रह्म का वह ब्रह्मा वाला रूप जिससे उसने सृष्टि की रचना की थी। २. योगिनों, साधकों आदि की परिभाषा में कुंडलिनी से ऊपर उठनेवाले नाद का वह रूप जो निरुपाधि दशा में रहता है। ३. ओंकार। प्रणव। ४. वेद।
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शब्द-भेदी  : पुं०=शब्दभेदी।
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शब्दमहेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] शिव।
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शब्दयोनि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. शब्द की उत्पत्ति। व्युत्पत्ति। २. जड़। मूल। पुं० ऐसा शब्द जो अपने आरंभिक या मूल रूप में हो विकृत न हुआ हो।
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शब्द-विद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] शब्द-शास्त्र। व्याकरण।
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शब्दविरोध  : पुं० [सं० ष० त०] शब्द-गत विरोध। विषयगत विरोध से भिन्न।
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शब्दवेध  : पुं० [सं० शब्द√विध् (मारना)+घञ्] किसी ऐसे चिन्ह या लक्ष्य पर तीर चलाना जो देखा तो न गया हो परन्तु जिससे या जिसका होता हुआ शब्द सुना गया हो।
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शब्दवेधी (धिन्)  : पुं० [सं० शब्द√विध् (वेधन करना)+णिनि] १. वह व्यक्ति जो बिना लक्षित किए ऐसे चिन्ह या लक्ष्य का वेधन करता हो जहाँ से कुछ शब्द हुआ हो। २. अर्जुन।
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शब्दशः  : अव्य० [सं०] १. जैसे शब्द हैं वैसे। २. शब्दावली के अनुसार। एक एक शब्द करके।
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शब्द-शक्ति  : स्त्री० [ष० त०] शब्द की वह शक्ति जो उसका अर्थ उद्घाटित करती है। ये तीन प्रकार की मानी जाती गई है।—अभिधा, लक्षणा और व्यंजना।
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शब्द-शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त० मध्य० स०] वह शास्त्र जिसमें भाषा के भिन्न भिन्न अंगों और स्वरूपों का विवेचन तथा निरूपण किया जाय। व्याकरण।
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शब्द-शूर  : पुं० [सं० स० त०] वह जो केवल बातें करने में अपनी बहादुरी दिखाता हो।
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शब्द-साधन  : पुं० [सं० ब० स०] व्याकरण का वह अंग या अध्याय जिसमें शब्दों की व्युत्पत्ति, रूपांतर आदि दिखलाया जाता है।
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शब्द-सौष्ठव  : पुं० [सं० ष० त०] किसी रचना का शब्द-गत सौन्दर्य। शब्दों के संकलन क्रम आदि से लक्षित होनेवाला सौन्दर्य।
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शब्दाडंबर  : पुं० [सं० ष० त०] १. साधारण बात कहने के लिए बड़े-बड़े शब्दों और जटिल वाक्यों का प्रयोग। शब्द-जाल (बाम्बाँस्ट) २. साहित्य में उक्त प्रकार की कोई ऐसी उक्ति जिसमें कोई विशेष चमत्कार न हो। जैसे—केवल अनुप्रास के विचार से कहना-का बलमा बलमा बलमा बलमा बलमा बलमा बलमा है।
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शब्दातीत  : वि० [सं० ब० स०] १. शब्द की जिस तक पहुँच न हो। जो शब्दों के परे हो। २. जो शब्दों में न कहा जा सके। अकथनीय। ३. ईश्वर का एक विशेषण।
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शब्दानुशासन  : पुं० [सं० ष० त०] व्याकरण।
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शब्दायमान  : वि० [सं० शब्द+क्यङ्, शानच्, मुम्] शब्द करता हुआ।
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शब्दार्थ  : पुं० [सं० ष० त०] शब्द का अर्थ।
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शब्दार्थी  : स्त्री० [सं०] १. किसी अन्य भाषा के कुछ विशिष्ट शब्दों अथवा अपनी ही भाषा के कठिन या पारिभाषिक शब्दों की ऐसी सूची जिसमें उन शब्दों के अर्थ, पर्याय या व्याख्याएँ भी की गई हों। (ग्लासरी)।
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शब्दालंकार  : पुं० [सं० मध्य० स०] साहित्य में अलंकारों के दो मुख्य भेदों में से एक जिसमें शब्दों या उनके वर्णों का चमत्कार प्रधान होता है, अर्थों का नहीं।
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शब्दावली  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. किसी बोली या भाषा में प्रयुक्त होनेवाले शब्दों का समूह। २. किसी जाति, वर्ग संप्रदाय आदि में प्रचलित सब शब्दों का समूह (वोकेबुलरी)। ३. किसी वाक्य आदि के शब्दों का प्रकार तथा क्रम। ४. किसी विज्ञान या विषय में प्रयुक्त होनेवाले पारिभाषिक शब्दों की सूची, विशेषतः ऐसी सूची जो अक्षरक्रम में लगी हो और जिसके साथ उसके पर्याय या व्याख्याएँ भी दी गई हों (टर्मिनालाँजी) ५. दे० ‘शब्दार्थी’।
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शब्देन्द्रिय  : स्त्री० [सं० ष० त०] कान।
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शब्बो  : स्त्री० [फा०] रजनीगंधा नामक पौधा या उसका फूल। गुलशब्बो।
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शम  : पुं० [सं०√शम् (शान्ति प्राप्त करना)+घञ्] १. शांति। २. मोक्ष। ३. निवृत्ति। छुटकारा। ४. अंतःकरण तथा इन्द्रियों को वश में रखना जो साहित्य में शान्त रस का स्थायी भाव माना गया है। ५. क्षमा। ६. उपकार। ७. तिरस्कार। ८. हस्त। हाथ।
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शमई  : वि० [अं० शमअ] १. शमा का। २. शमा के रंग का। पुं० शमा अर्थात् मोमबत्ती की तरह का सफेद रंग।
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शमक  : वि० [सं०√शम्+ण्वुल्-अक] १. शमन करनेवाला (ओषधि या औषध) जो त्वचा की जलन और शोथ की पीड़ा कम करता अथवा उनका शमन करता हो (डिमल्सेन्ट)।
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शमता  : स्त्री० [सं० शम्+तल्+टाप्] शम का धर्म या भाव। शमत्व।
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शमथ  : पुं० [सं० शम+अथच्, बाहु] १. शांति। २. मंत्री।
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शमन  : पुं० [सं०√शम् (शान्त होना)+ल्युट-अन] १. बढ़ हुए उपद्रव, कष्ट, दोष को दबाने की क्रिया। दमन। जैसे—रोग या विद्रोह का शमन। २. शांति। ३. वैद्यक में, ऐसी ओषधि जो बात-संबंधी दोषों को दूर करती है। ४. यम। ५. हिंसा। ६. अनाज। ७. बलि।
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शमनवस्ति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का वस्तिकर्म जिसमें प्रियंगु, मुलेठी नागरमोथा और रसौत को दूध में पीसकर मलद्वार से पिचकारी देते हैं।
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शमनस्वसा  : स्त्री० [सं० ष० त०] यम की भगिनी अर्थात् यमुना।
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शमनी  : स्त्री० [सं० शमन+ङीष्] रात। रात्रि।
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शमनीय  : वि० [सं०√शम् (शान्त होना)+अनीयर्] जिसका शमन किया जा सके या किया जाने को हो।
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शमल  : पुं० [सं० शम+कलच्] १. विष्ठा। गुह। २. पाप।
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शमला  : पुं० [अ० मिलाओ, सं० शामुल्य] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का पतला शाल जो पगड़ी पर बंद के रूप में बाँधा जाता था। २. पुरानी चाल की एक प्रकार की पगड़ी। ३. पगड़ी पर लगाया जानेवाला तुर्रा। कलँगी।
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शमशम  : पुं० [सं० मध्यम० स०] शिव।
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शमशीर  : स्त्री०=शमशेर।
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शमशेर  : स्त्री० [फा० शम=नाखून+शेर=सिहं] १. वह हथियार जो शेर की पूँछ अथवा नख के समान बीच में कुछ झुका हो अर्थात् तलवार खड्ग आदि । २. तलवार।
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शमांतक  : पुं० [सं० ष० त०] कामदेव।
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शमा  : स्त्री० [अ० शमअ] १. मोम। २. मोमबत्ती। ३. दीया।
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शमादान  : पुं० [फा०] वह पात्र जिसमें मोमबत्तियां रखकर जलाई जाती हैं।
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शमि  : स्त्री० [सं० शम+इनि] १. शिंबी धान्य (मूँग, मसूर, सोठ, उड़द, चना, अरहर, मटर, कुलथी, लोबिया इत्यादि)। २. सफेद कीकर। पुं०=यज्ञ।
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शमित  : भू० कृ० [सं०√शम् (शान्त होना)+क्त] १. जिसका शमन किया गया हो या हुआ हो। दबाया हुआ। २. शान्त।
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शमिता (तृ)  : पुं० [सं०√शम् (शान्त होना)+तृच्] यज्ञ में पशु की बलि देनेवाला।
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शमिपत्र  : पुं० [सं० ब० स०] पानी में होनेवाली लजालू नाम की लता।
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शमी  : स्त्री० [सं० शमि+ङीष्, शिवा] एक प्रकार का बड़ा कीकर जो पवित्र माना जाता है। सफेद कीकर। वि० [सं० शमिन्] १. शमन करनेवाला। २. शान्त।
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शमीक  : पुं० [सं० शमी+कन्-शम्+ईकन्] एक प्रसिद्ध क्षमा-शील ऋषि जिनके गले में परीक्षित ने मरा हुआ साँप डाल दिया था। इस पर वे तो कुछ भी न बोले,पर इनके पुत्र श्रृंगी ऋषि ने परीक्षित को शाप दिया जिसके कारण सातवें दिन तक्षक के काटने से परीक्षित की मृत्यु हुई थी।
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शमीगर्भ  : पुं० [सं० शमीगर्भ+अच्] १. ब्राह्मण। २. अग्नि।
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शमीधान्य  : पुं० [सं० मयू० स०]=शिबी धान्य।
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शमीर  : पुं० [सं० शमी+र] शमी वृक्ष।
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शमीरकंद  : पुं० [सं० मध्यम० स०] वाराही कंद। शूकर कंद।
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शम्स  : पुं० [अं] १. सूर्य। २. तसबीह में लगा हुआ फुँदना।
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शम्सी  : वि० [अ०] सूर्य संबंधी। सौर। स्त्री० मुगल शासन में मिलनेवाला छमाही वेतन।
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शयंड  : पुं० [सं०√शी (शयन करना)+अण्डन्] १. एक प्राचीन जनपद। २. उक्त जनपद का निवासी।
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शय  : पुं० [सं०√शी (शयन करना)+अच्] १. शय्या। २. निद्रा। नींद। ३. सांप। ४. पण। शर्त। ५. हाथ। स्त्री० [अ० शै] १. वस्तु। २. बाधा। (भूत-प्रेत की)। स्त्री०=शह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शयथ  : पुं० [सं० शी+अथच्] १. गहरी नींद। २. मृत्यु। मौत। ३. यम। ४. साँप। ५. सूअर। ६. मछली।
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शयन  : पुं० [सं०√शी+ल्युट-अन] १. निद्रित होने या सोने की क्रिया। २. खाट। शय्या। ३. विस्तर। बिछौना। ४. स्त्री० प्रसंग। मैथुन। संभोग।
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शयन आरती  : स्त्री० [सं० शयन+आरती] देवताओं की वह आरती जो रात में उन्हें सुलाने के समय की जाती है।
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शयन-कक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] सोने का कमरा या घर। शयनागार।
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शयन-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] सोने का स्थान। शयन मंदिर। शयनागार।
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शयन-बोधिनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] अगहन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी।
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शयन-मंदिर  : पुं० [सं० ष० त०] सोने का स्थान। सोने का कमरा। शयन-गृह। शयनागार।
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शयनागार  : पुं० [सं० ष० त०] सोने का स्थान। शयन मंदिर। शयन गृह।
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शयनासन  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह आसन या बिस्तर जिस पर कोई सोता हो। २. खाट, चारपाई चौकी पीढ़ा आदि वे सब उपकरण जिन पर लोग बैठते, लेटते या सोते हैं।
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शयनिका  : स्त्री० [सं० शयन+कन्-टाप्, इत्व] १. शयनागार। २. आज-कल रेलगाड़ी का वह डिब्बा जिसमें यात्रियों के सोने की व्यवस्था रहती है (स्लीपर)।
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शयनीय  : वि० [सं०√शी (शयन करना)+अनीयर्] सोने के योग्य। (स्थान)।
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शयनैकादशी  : स्त्री० [सं० ष० त०] आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी।
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शयाक  : पुं० [सं०√शी (शयन करना)+शानच्+कन्, शी+आनकवी] १. सर्प। साँप। २. गिरगिट।
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शयालु  : वि० [सं० शी+आलुच्] नींद से भरा हुआ। निद्रालु। पुं० १. अजगर। २. कुत्ता। ३. गीदड़।
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शयित  : भू० कृ० [सं०√शी (शयन करना)+क्त] १. सोया हुआ। सुस्त। २. लेटा या लेटाया हुआ। ३. आड़े बल में रखा हुआ। पुं० १. अजगर। २. लिसोड़ा।
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शयिता (तृ)  : वि० [सं०√शी (शयन करना)+तृच्] सोनेवाला।
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शय्या  : स्त्री० [सं० शीक+क्यप्-टाप्] १. खाट। पलंग। २. पलंग पर बिछा हुआ बिछौना।
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शय्यागत  : वि० [सं० द्वि० त० स०] शय्या पर पड़ा हुआ। पुं० रोगी।
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शय्या-दान  : पुं० [सं० ष० त० स०] मृतक की प्रेत-आत्मा की शांति के उद्देश्य से महापात्र को दिया जानेवाला पलंग तथा बिछावन।
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शय्या-पाल  : पुं० [सं० शय्या√पाल् (पालन करना)+अच्] वह जो राजाओं आदि के शयनागार की व्यवस्था तथा रक्षा करता हो।
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शय्या-मूत्र  : पुं० [सं० ष० त० स०] बालकों का वह रोग जिसके कारण वे सोये सोये बिस्तर पर पेशाब कर देते हैं।
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शय्या-व्रण  : पुं० [सं० मध्य० स०] रोगी के बहुत दिनों तक शय्या ग्रस्त रहने के कारण उसकी पीठ आदि के छिल जाने से होनेवाला घाव। बिस्तर घाव (बेड-सोर)।
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शरंड  : पुं० [सं० शु+अण्डज्] १. पक्षी। चिड़िया। २. छिपकली। ३. गिरगिट। ४. पुरानी चाल का एक प्रकार का गहना। वि० १. कामुक। २. धूर्त।
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शर  : पुं० [सं०√शृ+अच्] तीर। बाण। २. सामुद्रिक शास्त्र में शरीर के किसी अंग पर होनेवाला तीर का सा निशान जो शुभाशुभ फल का सूचक माना जाता है। ३. कामदेव के पाँच बाणों के आधार पर पाँच की सूचक संख्या। ४. बरछी या भाले का फल। ५. हिंसा। ६. सरकंडा। ७. सरपत। ८. उशीर। खस। ९. दही या दूध के ऊपर की मलाई। साढ़ी।
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शरअ  : स्त्री० [अ०] १. वह सीधा रास्ता जो ईश्वर ने भक्तों के लिए बताया हो। २. कुरान में बतलाया हुआ विधान या इसी प्रकार की आज्ञा जिसका पालन प्रत्येक मुसलमान के लिए जीवन-यात्रा के उपरान्त के प्रसंग में आवश्यक और कर्त्तव्य हो। ३. इस्लामी धर्म-शास्त्र। ४. धर्म। मजहब। ५. दस्तूर। प्रथा।
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शरई  : वि० [अ०] १. शरअ के अनुसार किया जानेवाला। २. जो शरअ की दृष्टि से उचित हो। ३. जिसका कुरान में उल्लेख हो और पालन हर मुसलमान के लिए आवश्यक बतलाया गया हो। ४. शरअ का पालन करनेवाला।
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शरकांड  : पुं० [सं० ष० त०] सरपत। सरकंडा।
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शरकार  : पुं० [सं० शर√कृ (करना)+अण्] वह जो तीर बनाता हो।
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शर-कोट  : पुं० [सं० ष० त०] १. इस प्रकार चलाए हुए तीर कि शत्रु के चारों ओर तीरों का घेरा बन जाय। २. इस प्रकार तीरों से बननेवाला घेरा।
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शरगा  : पुं० [अ० शर्गः] बादामी रंग का घोड़ा।
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शरतचन्द्र  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. शरत् ऋतु का चन्द्रमा। २. विशेषतः शरत् पूर्णिमा का चन्द्र।
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शरज  : पुं० [सं० शर√जन् (उत्पन्न करना)+ड] मक्खन। नवनीत। वि० शर से उत्पन्न या बना हुआ।
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शरट  : पुं० [सं०√श (गमनादि)+अटन्] १. कुसुंभ नाम का साग। २. करंज। ३. गिरगिट।
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शरटी  : स्त्री० [सं० शरट्—ङीष्] लज्जालुक। लाजवंती।
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शरण  : स्त्री० [सं० श्रृं (पूरा करना)ल्युट-अन] १. उपद्रव, कष्ट आदि से बचने के लिए किसी समर्थ के पास आकर अपनी रक्षा कराने की क्रिया या भाव। पनाह। क्रि० प्र०-में आना या जाना। २. ऐसा स्थान जहाँ पर जाकर कोई रक्षित रहे। क्रि० प्र०—पाना।—लेना। ३. रक्षा के लिए भागकर आये हुए व्यक्ति के शत्रु को मारना या उसका नाश करना। ४. घर। मकान। ५. अधीनस्थ व्यक्ति। मातहत। ६. सारन प्रदेश का पुराना नाम।
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शरण-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. ऐसा स्थान जहाँ अपराधी, भगोड़े आदि पहुँचकर शरण लेते और सुरक्षित रहते हों। शरण स्थान। विशेष-मध्य युग में ईसाई धर्माधिकारी अपनी शरण में आये हुए लोगों को राजकीय अधिकारियों के हाथों से बचा कर अपने यहाँ रख लेते थे। जिससे यह शब्द बना था। आजकल दूसरे देशों के अपराधियों को शरण देनेवाले राज्यों या क्षेत्रों के लिए व्यवह्रत। २. पशु-पक्षियों आदि के लिए वह सुरक्षित स्थान जहाँ वे निर्भयता-पूर्वक रह सकते हों और जहाँ उनका शिकार करने की मनाही हो। शरणास्थान। (संक्चुअरी)
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शरणगृह  : पुं० [सं० ष० त०] जमीन के नीचे बनाया हुआ वह स्थान जहाँ लोग हवाई जहाजों के आक्रमण से बचने के लिए छिपकर रहते हैं। (शेल्टर)
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शरणद  : वि० [सं० शरण√दा+क] शरण देनेवाला।
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शरणस्थान  : पुं० [सं० शरण, ष० त०] शरण-क्षेत्र। (दे०)।
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शरणा  : स्त्री० [सं० शरण-टाप्] गंध-प्रसारिणी (लता)।
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शरणागत  : भू० कृ० [द्वि० त० स०] किसी की शरण में आया हुआ।
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शरणागति  : स्त्री० [सं०] किसी की शरण में आए हुए होने की अवस्था या भाव।
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शरणापन्न  : वि० [सं० द्वि० त० स०] शरणागत।
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शरणार्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० शरण√अर्थ (माँगना)+णिनि, ब० स० वा] जो किसी की शरण चाहता हो। फलतः असहाय तथा विस्थापित। पुं० आजकल वे लोग जो पाकिस्तान से भागकर शरण लेने के लिए भारत में आकर बस गये हैं। (रिफ़्यूजी)
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शरणि  : स्त्री० [सं० श्रृं+अनि] १. मार्ग। पथ। रास्ता। २. जमीन। भूमि। ३. हिंसा।
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शरणी  : स्त्री० [सं० शरण-ङीष्] १. गंध-प्रसारिणी नाम की लता। २. जयंती। ३. पथ। मार्ग। वि० स्त्री शरण देनेवाली जैसे—अशरण-शरणी भवानी।
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शरण्य  : वि० [सं० शरण+यत्] १. जिसके पास या जहाँ पहुँचकर शरण ली जाय या ली जा सके। २. आक्रमण विकार आदि से रक्षित रखने वाला। (प्रोटेक्टिव)। जैसै—आयुर्वेद का शरण्य स्वरूप।
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शरण्यता  : स्त्री० [सं० शरण्य०+तल्-टाप्] शरण्य का भाव।
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शरण्यशुल्क  : पुं० दे० ‘संरक्षण शुल्क’।
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शरण्या  : स्त्री० [सं० शरण्य-टाप्] दुर्गा।
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शरण्यु  : पुं० [सं० शृ+अन्यु] १. मेघ। बादल। २. वायु। हवा। स्त्री० सूर्य की पत्नी का नाम।
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शरत्  : स्त्री० [सं० शु+अदि, चर्त्व] १. वैदिक युग में भाद्रपद और आश्विन् महीनों की ऋतु। २. आज-कल आश्विन और कार्तिक महीनों की ऋतु। ३. वत्सर। वर्ष।
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शरत  : स्त्री० १. =शरत्। २. =शर्त्त।
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शरता  : स्त्री० [सं०] १. शर का भाव। २. वाण-विद्या। उदाहरण—छोड़ि दई शरता...।—केशव। ३. वाण-विद्या में होनेवाली पटुता।
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शरतिया  : अव्य०=शर्त्तिया।
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शरत्काल  : पुं० [सं० ष० त० स०] आश्विन् और कार्तिक के लिए। शरत् ऋतु।
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शरत्पद्म  : पुं० [सं० मध्यम० स०] श्वेत पद्य।
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शरत्पर्व  : पुं० [सं० ष० त० स०] शरद् पूर्णिमा।
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शरदंड  : पुं० [सं० ब० स०] १. चाबुक। २. सरकंडा। ३. शरदंडा नदी के तट पर बसी हुई साल्व जाति की एक शाखा।
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शरदंडा  : स्त्री० [सं० शरदंड-टाप्] पूर्वी पंजाब की एक प्राचीन नदी (कदाचित् शरावती)।
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शरदंत  : पुं० [सं० ष० त०] शरद ऋतु का अंत। अर्थात् हेमंत ऋतु का आरंभ।
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शरद  : स्त्री०=शरत्।
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शरदई  : वि०=सर्दई (सर्दे के रंग का)।
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शरद पूर्णिमा  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] क्वार मास की पूर्णिमा। शारदीय पूर्णिमा।
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शरदा  : स्त्री० [सं० शरद—टाप्] १. शरद ऋतु। २. वर्ष। साल।
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शरदिज  : वि० [सं० शरदि√जन् (उत्पन्न करना)+ड] शरत् ऋतु में उत्पन्न होनेवाला
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शरदेंदु  : पुं० [सं० ष० त० स०] शरद् ऋतु का चन्द्रमा। शरच्चंद्र।
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शरद्वत्  : पुं० [सं० शरत+मतुप्-म=व] शरत् ऋतु।
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शरधि  : पुं० [सं० शर√धा (रखन)+कि] तूणीर। तरकश।
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शरन्मुख  : पुं०[सं०ष०त०स] शरद् ऋतु का आरंभ।
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शरपंख  : पुं० [सं० ब० स०] जवासा। घमासा।
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शर-पंजर  : पुं०[सं०] शर कोट (दे०) उदाहरण-जारयो शर-पंजर छार करयो नैऋत्यन को अति चित्त डरयो।—केशव।
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शरपुंख  : पुं० [सं० ब० स०] १. नील की तरह का सर-फोंका नाम का पौधा। २. तार या वाण में लगाया हुआ पंख या पर। ३. वैद्यक में चीर-फाड़ के काम के लिए एक प्रकार का यंत्र।
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शरफ  : पुं० [अ०] १. खूबी। २. बड़ाई। प्रशंसा। ३. सौभाग्य। ४. मान। प्रतिष्ठा। महत्त्व।
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शरबत  : पुं० [अ०] १. चीनी आदि में पकाकर तैयार किया हुआ ओषधि या फल का गाढा रस। जैसे—अनार, संतरे या शहतूत का सरबत। २. उक्त का कुछ अंश पानी में घोलकर बनाया हुआ पेय। ३. किसी फल का रस निचोड़कर तथा उसमें चीनी-पानी आदि मिलाकर बनाया हुआ पेय। ४. ऐसा पानी जिसमें गुड़, चीनी मिसली आदि में से कोई चीज घुली हो। ५. मुसलमानों में एक रीति जिसमें विवाह के उपरांत कन्यापक्ष वाले वर पक्षवालों को शरबत पिलाते हैं। ३. उक्त अवसर पर वह धन जो शरबत पीने के उपलक्ष्य में वर पक्ष वालों को दिया जाता है।
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शरबत-पिलाई  : स्त्री० [हिं० शरबत+पिलाना] वह धन जो वर और कन्या पक्ष के लोग एक दूसरे को पिलाकर देते हैं। (मुसल०)
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शरबती  : वि० [हिं० शरबत] १. शरबत की तरह मीठा या तरल। जैसे—शरबती तरकारी। २. उक्त के आधार पर रसपूर्ण, मधुर तथा प्रिय। जैसे—शरबती आँखें। ३. जो शरबत बनाने के काम आता हो। जैसे—शरबती नींबू, शरबती फालसा। ४. जो शरबत के रंग का हो। कुछ कुछ लाल। गुलाबी। पुं० १. पानी में घुली हुई चीनी की तरह का एक प्रकार का हलका पीला रंग जिसमें हलकी लाली भी होती हो। २. एक प्रकार का नगीना जो पीलापन लिए लाल रंग का होता है। ३. एक प्रकार का बढ़िया कपड़ा जो तनजेब से कुछ मोटा और अद्धी से कुछ पतला होता है। ४. मीठा नींबू। ५. एक प्रकार का बढ़िया आम।
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शरबती नींबू  : पुं० [हि० शरबत+नींबू] १. चकोतरा। २. गलगल। ३. जंबीरा या मीठा नींबू।
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शरबान  : पुं० [सं० शर+बान] अगिया घास।
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शरभंग  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन महर्षि जो दक्षिण में रहते थे।
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शरभ  : पुं० [सं० शर√भृ+अभच्] १. टिड्डी। २. फतिंगा। ३. हाथी का बच्चा। ४. विष्णु। ५. ऊँट। ६. एक प्रकार का पक्षी। ७. शेर। सिंह। ८. आठ पैरोंवाला एक कल्पित मृग। ९. राम की सेना का एक यूथपति बन्दर। १॰. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में ४ नगण और १ सगण होता है। इसे शशिकला और मणिगुण भी कहते हैं। ११. दोहे का एक भेद जिसमें २॰ गुरु और ८ लघु मात्राएँ होती हैं।
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शरभा  : स्त्री० [सं० शरभ-टाप्] १. शुष्क अवयवों वाली और विवाह के अयोग्य कन्या। २. लकड़ी का एक प्रकार का यंत्र।
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शरभू  : पुं० [सं० शर√भू+क्विप्] कार्तिकेय।
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शरम  : स्त्री० [फा० शर्म] १. लज्जा। हया। गैरत। मुहावरा—शरम से गड़ना=मारे लज्जा के दबे या झुके जाना। बहुत लज्जित होना। शरम से पानी पानी होना=बहुत लज्जित होना। २. किसी बड़े का लिहाज या संकोच। ३. इज्जत। प्रतिष्ठा।
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शरमनाक  : वि० [फा० शर्मनाक] (कार्य या व्यवहार) जिसके कारण शर्म आती हो या आनी चाहिए। लज्जाजनक। निर्लज्जतापूर्ण।
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शरमल्ल  : पुं० [सं० सप्त, त० स] १. वह जो तीर चलाने में निपुण हो। धनुर्धारी। २. मैना पक्षी।
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शरमसार  : वि० [फा० शर्मसार] [भाव० शरमसारी] १. जिसे शरम हो। लज्जावाला। २. लज्जत। शरमिन्दा।
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शरम-हुजुरी  : स्त्री० [अ० शर्म+फा० हुजुर] मुँह देखने की लाज।
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शरमाऊ  : वि० [हि० शरम+आऊ (प्रत्यय)] शरमानेवाला। लजीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शरमाना  : अ० [अ० शर्म+आना (प्रत्यय)] १. किसी के कुछ कहने या करने का उत्साह न होने के फलस्वरूप झेंपना। लाज से नम्र होना। २. लज्जित होना। स० लज्जित या शरमिन्दा करना।
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शरमालू  : वि०=शरमाऊ।
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शरमा-शरमी  : अव्य० [फा० शर्म] १. लज्जा के कारण। २. संकोचवश।
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शरमिंदगी  : स्त्री० [फा०] शरमिंदा या लज्जित होने की अवस्था या भाव। लाज। झेंप। क्रि० प्र०—उठाना।
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शरमिंदा  : वि० [फा० शर्मिन्दः] जो अपने किसी अनुचित कार्य या व्यवहार के फलस्वरूप लज्जित तथा दुःखी हो। लज्जा से जिसका मस्तक नत हो गया हो।
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शरमीला  : वि० [फा० शर्म+ईला (प्रत्यय)] लाज-भरा। लाज से युक्त। निर्लज्ज का विरुद्धार्थक। जैसे—शरमीली आँखें, शरमीली वधू।
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शरयू  : स्त्री०=सरयू (नदी)।
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शरर  : पुं० [अ०] चिनगारी।
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शरलोमा (मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन ऋषि जिन्होंने भरद्वाज जी से आयुर्वेद संहिता लाने के लिए प्रार्थना की थी।
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शरवाणि  : स्त्री० [सं०] १. शर। २. तीर का फल। पुं० १. तीर चलानेवाला योद्धा। २. पैदल सिपाही।
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शर-वारण  : पुं० [सं० ब० स०] ढाल, जिससे तीरों की बौछार रोकी जाती है। छाल जिससे तीरों का वारण किया जाता है।
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शरव्य  : पुं० [सं० शरु+यत्—शर√व्ये (मुक्त होना)+ड] १. वाण का लक्ष्य। २. तीरंदाज।
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शरह  : स्त्री० [अ०] १. वह कथन या वर्णन जो किसी बात को स्पष्ट करने के लिए किया जाय। अच्छी तरह अर्थात् स्पष्ट और विस्तृत रूप से कुछ कहना। २. व्याख्या। ३. ग्रन्थ की टीका या भाष्य। ४. किसी चीज की बिक्री की दर या भाव। ५. किसी काम या चीज की दर। जैसे—लगान की शरअ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शरह-बंदी  : स्त्री० [अ० शरह+फा० बन्दी] १. दर या भाव निश्चित करने की क्रिया। २. (मंडी आदि के) भावों की तालिका। स्त्री०=शरअ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शराकत  : स्त्री० [फा०] १. शरीक या सम्मिलित होने की अवस्था या भाव। २. हिस्सेदारी। साझा।
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शराटिका  : स्त्री० [सं०] १. टिटिहरी। २. लजालू लता।
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शराध  : पुं०=श्राद्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शराप  : पुं०=शाप।
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शरापना  : स० [सं० शाप+हिं० ना (प्रत्यय)] किसी को शाप देना।
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शराफ  : पुं०=सराफ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शराफत  : स्त्री० [अ० शराफत] १. शरीफ या सज्जन होने की अवस्था या भाव। २. सज्जनोचित कोई व्यवहार या शिष्टाचार।
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शराफ  : पुं०=सराफा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शराफी  : स्त्री०=सराफी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शराब  : स्त्री० [अ०] १. मदिरा। सुरा। वारुणी। मद्य। दारू २. हकीमों की परिभाषा में किसी चीज का मीठा अरक या शरबत। जैसे—शराब बनफशा।
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शराबखाना  : पुं० [अ० शराब+फा० खाना] शराब बनने या बिकने की जगह। वह स्थान जहाँ शराब मिलती हो।
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शराबखोरी  : स्त्री० [फा०] १. शराब पीने का कृत्य। मदिरा पान। २. शराब पीने की आदत या लत।
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शराबख्वार  : पुं० [फा०] वह जो शराब पीता हो। मदिरा पीनेवाला। मद्यप। शराबी।
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शराबी  : पुं० [अ० शराब+हिं० ई (प्रत्यय)] व्यक्ति जिसे शराब पीने का व्यसन हो।
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शराबोर  : वि० [फा०] पानी से तर। गीला।
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शरारत  : स्त्री० [अ०] १. शरीर का पाजी होने की अवस्था या भाव। २. दुष्टतापूर्ण कार्य।
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शरारतन्  : क्रि० वि० [अ०] शरारत या पाजीपन से। अव्य [अ०] शरारत अर्थात् किसी को तंग करने की नियत से।
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शरारि  : पुं० [सं० शर√ऋ (गमनादि)+इ] १. राम की सेना का एक यूथपति बंदर। २. टिटिहरी नाम की चिड़िया।
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शरारि  : स्त्री० [शरारि+ङीष्] टिटिहरी।
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शरारोप  : पुं० [सं० ब० स०] धनुष जिस पर शर चढ़ाया जाता है। कमान।
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शराली  : स्त्री० [सं० शरालि—ङीप्] टिटिहरी नाम की छोटी चिड़िया।
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शराव  : पुं० [सं० शर√अव (रक्षा करना)=अण्] १. मिट्टी का एक प्रकार का पुरवा। कुल्हड़। २. वैद्यक में एक प्रकार का परिमाण या तौल जो चौसठ तोले या एक सेर की होती है। (वैद्यक में सेर चौसठ तोले का ही होता है)।
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शरावती  : स्त्री० [सं० शरा+मतुप्,=व-दीर्घ-ङीष्] १. गंगा नामक नदी का पुराना नाम। २. एक प्राचीन नगरी जिसे लव ने अपनी राजधानी बनाई थी।
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शरावर  : पुं० [सं० ब० स०] १. ढाल। २. कवच। वर्म।
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शरावरण  : पुं० [सं० ब० स०] ढाल जिससे तीर का वार रोकते हैं।
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शराविका  : स्त्री० [सं० शराव+कन्-टाप्, इत्व] १. ऐसी फुंसी जो ऊपर से ऊँची और बीच में गहरी हो। २. एक प्रकार का कुष्ठ रोग।
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शराश्रय  : पुं० [सं० ष० त० स०] तीर रखने का स्थान, तरकश।
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शरासन  : पुं० [सं० शर√अस् (फेंकना)+ल्युट-अन] धनुष कमान। चाप।
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शरास्य  : पुं० [सं० शर√अस् (रखना)+ण्यत्] धनुष कमान।
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शरिष्ठ  : वि०=श्रेष्ठ।
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शरी  : स्त्री० [सं० शरि-ङीष्] एरका या मोथा नाम का तृण।
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शरीअत  : स्त्री० [अ०] मुसलमानी धर्म में शरअ के अनुसार आचरण करना। नमाज, रोजे आदि का निर्वाह और पालन। विशेष—सूफी संप्रदाय में यह साधना की चार स्थितियों में से पहली है। शेष तीन स्थितियों तरीकत मारफत और हकीकत कहलाती है।
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शरीक  : वि० [अ०] १. किसी के साथ मिला हुआ। शामिल। सम्मिलित। २. कष्ट आदि के समय सहानुभूति दिखाने या सहायता करनेवाला। पुं० १. वह जो किसी बात में किसी के साथ रहता हो। साथी। २. साझीदार। हिस्सेदार। ३. ऐसा निकट सम्बन्धी जो पैतृक संपत्ति का हिस्सेदार हो या रहा हो।
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शरीफ  : पुं० [अ० शरीफ] १. ऊँचे घराने का व्यक्ति। कुलीन मनुष्य। २. सज्जन और सभ्य व्यक्ति। भला आदमी। ३. मक्के के प्रधान अधिकारी की उपाधि। वि० पवित्र या शुभ। जैसे—मिजाज शरीफ। पुं० [अ० शेरीफ] अंगरेजी शासन में कलकत्ते बम्बई और मद्रास में सरकार की ओर से नियक्त किए जानेवाले एक प्रकार के अवैतनिक अधिकारी। जिनके सुपुर्द शांति-रक्षा तथा इस प्रकार के और कुछ काम होते हैं।
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शरीफा  : पुं० [सं० श्रीफल या सीताफल] १. मझोले आकार का एक प्रकार का प्रसिद्ध वृक्ष जो प्रायः सारे भारत में फल के लिए लगाया जाता है। २. उक्त वृक्ष का फल जो अमरूद की तरह गोल और खाकी रंग का होता है। इसके अन्दर सफेद मीठा गूदा (बीजों में लिपटा हुआ) होता है। श्रीफल। सीताफल। रामसीता।
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शरीर  : पुं० [सं० शृ (हिंसा करना)+ईरन्] [भाव० शरीरता, वि० शारीरिक] १. मनुष्य या पशु आदि के समस्त अंगो की समष्टि। सिर से पैर तक के सब अंगों का समूह। देह। तन। वदन। जिस्म। वि० [अ०] दुष्ट-प्रकृति।
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शरीरक  : पुं० [सं० शरीर+कै+क+कन्] १. छोटा शरीर। २. आत्मा।
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शरीरज  : वि० [सं० शरीर√जन् (उत्पन्न करना)+ड] जो शरीर से उत्पन्न हुआ हो या होता हो। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. कामदेव।
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शरीरता  : स्त्री० [सं० शरीर+तल्-टाप्] शरीर का भाव या धर्म।
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शरीरत्याग  : पुं० [सं० ष० त०] मृत्यु। मौत।
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शरीरत्व  : पुं० [सं० शरीर+त्व] शरीर का भाव या धर्म। शरीरता।
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शरीर-पतन  : पुं० [सं० ष० त० या ब० स०] १. शरीर का धीरे-धीरे क्षीण होना। २. मृत्यु। मौत।
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शरीर-पात  : पुं० [सं० ष० त०] देह का अंत या नाश। शरीरांत। देहावसान। मृत्यु। मौत।
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शरीर-भृत  : पुं० [सं० शरीर√भृ+क्विप्+तुक्] १. वह जो शरीर धारण किए हो। शारीरी। २. विष्णु। ३. जीवात्मा।
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शरीर-यापन  : स्त्री० [ब० स०] जीवन का निर्वाह या यापन।
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शरीर-रक्षक  : पुं० [ष० त० स०] अंगरक्षक (दे०)।
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शरीर-वृत्ति  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] जीवन निर्वाह करने की वृत्ति।
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शरीर-शास्त्र  : पुं० [सं०] शारीर।
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शरीर-शोधन  : पुं० [सं० ब० स० ष० त०] वह औषधि जो कुपित मल, पित्त और कफ ऊर्ध्व अथवा अधोमार्ग से शरीर के बाहर निकाल दे।
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शरीर-संस्कार  : पुं० [सं० ष० त०] १. शरीर को शुद्ध तथा स्वच्छ करने की क्रिया। २. गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक के मनुष्य के वेद-विहित सोलह संस्कार।
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शरीर-सेवा  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऐसे सब काम जिनसे शरीर अच्छी तरह और सुख से रहे।
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शरीर-सेवी  : पुं० [सं० शरीर-सेवा+इनि] वह जो केवल अपने शारीरिक सुखों का ध्यान रखता हो।
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शरीरस्थ  : वि० [सं० शरीर√स्था (ठहरना)+क] १. शरीर में रहनेवाला या स्थित। २. जीवित।
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शरीरांत  : पुं० [सं० ष० त० स०] मृत्यु।
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शरीरार्पण  : पुं० [सं० ष० त० स०] सेवा-भाव से किसी कार्य में जी-जान से जुटना।
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शरीरावरण  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. शरीर को ढकनेवाली कोई चीज। २. खाल। चमड़ा। ३. ढाल। वर्म।
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शरीरस्थि  : पुं० [सं० ष० त० स० शरीर+अस्थि] कंकाल। पिंजर।
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शरीरी  : वि० [सं० शरीर+इनि, दीर्घ, न लोप] शरीरधारी। पुं० १. प्राणी। २. आत्मा। जीव।
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शरु  : पुं० [सं० शृ (हिंसा करना)+उन्] १. वज्र। २. तीर। वाण। ३. हिंसा। ४. आयुध। अस्त्र। ५. क्रोध। गुस्सा। वि० १. हिंसक। २. बहुत पतला। ३. नुकीला।
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शरेज  : पुं० [सं० शरे√जन् (उत्पन्न करना)+ड, सप्तमी, अलुक्] कार्तिकेय।
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शरेष्ट  : पुं० [सं०√शृ+अच्=शरः काम-इष्ट, ष० त०] आम। आम्र। वि०=श्रेष्ठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शर्कर  : पुं० [सं०√शृ (हिंसा करना)+करन्] १. कंकड़। २. बालू का कण। ३. एक पौराणिक देश। ४. उक्त देश का निवासी। ५. एक प्रकार का जल-चर जंतु। ६. शक्कर। चीनी।
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शर्करकंद  : पुं० [सं० ष० त० या ब० स०] ‘शकरकंद’।
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शर्करक  : पुं० [सं० शर्कर+कन्] मीठा नीबू। शरबती नींबू।
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शर्करजा  : स्त्री० [सं० शर्करा√जन् (उत्पन्न करना)+ड—टाप्] चीनी।
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शर्करा  : स्त्री० [सं० शर्करा—टाप्] १. शक्कर। चीनी। २. बालू का कण। ३. पथरी नामक रोग। ४. कंकड़। ५. ठीकरा। ६. पुराणानुसार एक देश जो कूर्मचक्र के पुच्छ भाग में कहा गया है। ७. दे० ‘शर्करार्बुंद’।
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शर्कराचल  : पुं० [सं० ष० त०] पुराणानुसार चीनी का वह पहाड़ जो दान करने के लिए लगाया जाता है।
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शर्कराधेनु  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] पुराणानुसार चीनी की वह गौ जो दान करने के लिए बनाई जाती है।
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शर्कराप्रभा  : स्त्री० [सं० ब० स०] जैनों के अनुसार एक नरक का नाम।
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शर्कराप्रमेह  : पुं० [सं० मध्य० स०] ऐसा प्रमेह जिसमें मूत्र का रंग सफेद हो जाता है और उसके साथ शरीर की शर्करा भी निकलती है।
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शर्करामापी  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का यंत्र जिससे यह जाना जाता है कि किसी घोल या तरल पदार्थ में शर्करा या चीनी का कितना अंश है। (सैक्रिमीटर)
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शर्करार्बुद  : पुं० [ब० स०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें त्रिदोष के कारण मांस, शिरा और स्नायु में गाँठें पड़ जाती है।
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शर्करा-सप्तमी  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] वैशाख शुक्ल सप्तमी इस दिन सुवर्णाश्व का पूजन होता है।
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शर्करासव  : पुं० [सं० मध्यम० स०] चीनी से बनाई जानेवाली शराब।
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शर्करिक  : वि० [सं० शर्करा+ठन्-इक] १. शर्करा से युक्त। २. शर्करा से बना हुआ।
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शर्करी  : स्त्री० [सं० शर्करा-ङीष्] १. नदी। २. मेखला। ३. कलम। लेखनी। ४. वर्णवृत्त के अन्तर्गत चौदह अक्षरों की एक वृत्ति इसके कुल १६३८४ भेद होते हैं जिसमें १३ मुख्य हैं।
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शर्करीय  : वि० [सं० शर्करा+छ—ईय] शर्करा-संबंधी। शर्करा का।
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शर्करोदक  : पुं० [सं० मध्यम० स०] शरबत।
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शर्कोटि  : पुं० [सं० ब० स०] साँप।
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शर्ट  : स्त्री० [अं०] एक प्रकार का पाश्चात्य पहनावा जो कुरते की तरह का तथा कालर वाला होता है। कमीज।
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शर्त  : स्त्री० [अ०] १. किसी बात, घटना आदि की सत्यता तथा असत्यता अथवा विद्यमानता तथा अविद्यमानता आदि के संबंध में दो पक्षों द्वारा दाँव पर लगाया जानेवाला धन। बाजी। क्रि० प्र०—जीतना।—बदना।—बाँधना।—लगाना।—हारना। २. कोई ऐसी बात जो किसी काम या बात की सिद्धि के लिए आवश्यक रूप से अपेक्षित हो (टर्म) जैसे—वह यहाँ आ तो सकता है, पर शर्त यह है कि तुम उससे लड़ने लगो। ३. दे० ‘उपबन्ध’। क्रि० प्र०—रखना।—लगाना।
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शर्तिया  : अव्य० [अ०] शर्तबदकर अर्थात् बहुत ही निश्चय या दृढ़तापूर्वक। जैसे—मैं शर्तिया कहता हूँ कि आप अच्छे हो जायेंगे। वि० बिल्कुल ठीक और निश्चित।
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शर्ती  : अव्य०=शर्तिया।
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शर्द्ध  : पुं० [सं०√शृधु (अपान वायु के निन्दित शब्द)+घञ्०] १. तेज। २. अपान वायु। पाद।
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शर्द्धन  : पुं० [सं०√शुधु (अपना वायु के शब्द)+ल्युट—अन] अधोवायु त्याग करना। पादना।
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शर्बत  : पुं०=शरबत।
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शर्बती  : वि० पुं०=शरबती।
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शर्म  : पुं० [सं०√शृ (हिंसा करना)+मनिन्] १. सुख। आनन्द। २. घर। मकान। वि० परम सुखी। स्त्री०=शरम। विशेष—शर्म और हया का अन्तर जानने के लिए दे० ‘हया’ का विशेष।
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शर्मद  : वि० [सं० शर्म्म√दा (देना)+क०] [स्त्री० शर्मदा] आनन्द देनेवाला। सुखदायक। पुं० विष्णु का एक नाम।
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शर्मन्  : पुं०=शम्म।
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शर्मर  : पुं० [सं० शर्म्म√रा (लेना)+क] एक प्रकार का वस्त्र।
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शर्मरी  : स्त्री० [सं० शर्म्मर—ङीष्] दारू हल्दी।
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शर्मसार  : वि० [फा०] [भाव० शर्मसारी] १. लज्जाशील। २. लज्जित। शरमिन्दा।
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शर्मा  : पुं० [सं० शर्म्मन्, दीर्घ, नलोप] ब्राह्मणों के नाम के अन्त में लगने वाली उपाधि। जैसे—पं० पद्मसिंह शर्मा।
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शर्माऊ, शर्मालू  : वि०=शरमीला।
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शर्माना  : अ० स०=शरमाना।
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शर्माशर्मी  : अ० य०=शरमा-शरमी।
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शर्मिदगी  : स्त्री०=शरमिंदगी।
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शमिंदा  : वि०=शरमिंदा।
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शर्मिष्ठा  : स्त्री० [सं० शर्म्म+इष्ठन्-टाप्] दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या जो शुक्राचार्य की कन्या देवयानी की सखी थी।
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शर्मीला  : वि०=शरमीला।
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शर्य  : पुं० [सं०√शृ (हिंसा करना)+यत्] १. योद्धा। २. तीर। बाण। ३. उँगली।
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शर्यण  : पुं० [सं० शर्य्य√नी (ढोना)+ड] वैदिक काल का एक जनपद जो कुरुक्षेत्र के अंतर्गत था।
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शर्यणावत्  : पुं० [सं० शर्य्यन√अव (रक्षा करना)+क्विप्, तुक्] शर्य्यण नामक जनपद के पास का एक प्राचीन सरोवर जो तीर्थ माना जाता था।
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शर्या  : स्त्री० [सं० शर्य्य-टाप्] १. रात्रि। रात। २. उँगली। ३. छोटा तीर।
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शर्र  : पुं० [फा०] १. शरारत। २. झगड़ा-फसाद। ३. बुराई। खराबी।
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शर्व  : पुं० [सं०√शृ (हिंसा करना)+व, शर्व+अच्] १. शिव। महादेव। २. विष्णु।
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शर्वपत्नी  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] १. पार्वती। २. लक्ष्मी।
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शर्वपर्वत  : पुं० [सं० ष० त० स०] कैलाश (पर्वत)।
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शर्वर  : पुं० [सं०√सर्व+अरन्] १. अंधकार। अँधेरा। २. सन्ध्या। ३. कामदेव।
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शर्वरी  : स्त्री० [सं०√शृवनिप्-ङीष्] १. रात। रात्रि। २. सन्ध्याकाल। ३. हलदी। ४. औरत। स्त्री। ५. बृहस्पति के साठ संवत्सरों में से चौतीसवाँ संवत्सर।
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शर्वरीकर  : पुं० [सं० शर्वरी√कृ (करना)+ट-अच-वा] विष्णु।
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शर्वरी-दीपक  : पुं० [सं० ष० त० स०] चन्द्रमा।
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शर्वरीपति  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. चन्द्रमा। २. शिव।
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शर्वरीश  : पुं० [सं० ष० त० स०] चन्द्रमा।
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शर्वला  : स्त्री० [सं०√शर्व+घञ्√ला+क—टाप्] तोमर नामक अस्त्र।
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शर्वाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] रुद्राक्ष। शिवाक्ष।
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शर्वाचल  : पुं० [सं० ष० त० स०] कैलाश।
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शर्वाणी  : स्त्री० [सं० शर्व+ङीष्—आनुक्] पार्वती।
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शर्शरीक  : वि० [सं०√शृ (हिंसा करना)+ईकन्] १. हिंसक। २. खल। दुष्ट। पुं० १. अग्नि। २. घोड़ा।
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शलंग  : पुं० [सं०√शल्+अङच्, ब० स०] १. लोकपाल। २. एक प्रकार का नमक।
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शल  : पुं० [सं०√शल् (गमनादि)+अच्] १. ब्रह्मा। २. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ३. कंस का एक अमात्य। ४. ऊँट। ५. भाला। ६. साही का काँटा। ७. दे० ‘शल्यराज’।
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शलक  : पुं० [सं० शल+वुन्-अक] १. मकड़ी। २. ताड़ का पेड़। ३. साही का काँटा।
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शलगम  : पुं० [फा० शलजम] एक प्रकार का कंद जो चरी के काम आता है तथा जिसकी तरकारी भी बनाई जाती है।
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शलभ  : पुं० [सं०√शल् (गमनादि)+अभच्] १. टिड्डी। शरभ। २. फतिंगा। ३. छप्पय के ३१ वें भेद का नाम। इसमें ४॰ गुरु और ७२ लघु कुल ११२ वर्ण या मात्राएँ होती हैं।
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शलवार  : स्त्री०=सलवार।
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शलाक-धूर्त्त  : पुं० [सं० ष० त० स०] वह जो शलाकाओं आदि की सहायता से पक्षियों को पकड़ता हो। चिड़ीमार। बहेलिया।
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शलाका  : स्त्री० [सं० शल+आकन्=टाप्] १. धातु, लकड़ी आदि की लंबी सलाई। सलाखा। सीख। २. आँख में सुरमा लगाने की सलाई। ३. घाव की गहराई आदि नापने की सलाई। ४. जूआ खेलने का पासा। ५. काठ का छोटा टुकड़ा जिसकी सहायता से निर्वाचन में मत लिया जाता था। (बैलट) ६. अस्थि। हड्डी। ७. तिनका। तृण। ८. मैना पक्षी। ९. मदन वृक्ष। १॰. सलाई का पेड़। शल्लकी। ११. बच। १२. पैर की नली की हड्डी।
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शलाकापत्र  : पुं० [ष० त० स०] प्राचीन भारत की शलाका के स्थान पर आज-कल प्रयुक्त होनेवाला वह पत्र जिसके द्वारा चुनाव के समय लोग अपना मत प्रकट करते हैं। (बैलट पेपर)
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शलाकापुरुष  : पुं० [सं० मध्यम० स०] बौद्धों के ६३ दैवपुरुषों में से एक।
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शलाका मुद्रा  : स्त्री० [सं०] सभ्यता के आरम्भिक काल की वे मुद्राएँ या सिक्के जो छोटे-छोटे धातु खंडों के रूप में होते थे और धातुओं के छड़ या शलाकाएँ काटकर बनाये जाते थे (बेन्टवार क्वायन)। विशेष—ऐसे सिक्कों पर प्रायः कोई अंक या चिन्ह नहीं होता था।
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शलाख  : स्त्री०=सलाख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शलातुर  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन जनपद जो पाणिनी का निवास स्थान था।
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शली  : स्त्री० [सं०√शल् (हिंसा करना)+अच्-ङीष्] साही (जंतु)।
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शलीता  : पुं०=सलीता।
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शलूका  : पुं० [फा० सलूकः] आधी बाँह की एक प्रकार की कुरती जो प्रायः स्त्रियाँ पहना करती हैं।
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शल्क  : पुं० [फा० शल+क] १. टुकड़ा। खंड। २. कुछ विशिष्ट फलों का ऊपरी कड़ा छिलका। ३. मछली के शरीर का पर छिलका जो कड़ा और चमकीला होता है। (स्केल)
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शल्कल  : पुं० [सं०√शल् (संवरण करना आदि)+कलन्]=शल्क।
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शल्कली  : पुं० [सं० शल्कल+इनि शल्कलिन्] मछली।
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शल्मलि  : पुं० [सं०√शल्+मलच्-इनि, इञ्, वा] शाल्मली वृक्ष। सेमल।
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शल्य  : पुं० [सं०√शल्+यत्] १. मद्र देश के एक रजा का नाम जो द्रौपदी के स्वयंबर के समय भीमसेन के साथ मल्लयुद्ध में हार गये थे। २. एक प्रकार का तीर। ३. फोड़ों आदि को चीर-फाड़ के द्वारा की जानेवाली चिकित्सा। ४. हड्डी। ५. आँख में सुरमा लगाने की सलाई। ६. छप्पय के ५६वें भेद का नाम। इसमें १५ गुरु १२२ लघु कुल १३७ वर्ण या १५२ मात्राएँ होती हैं। ७.मैनफल। ८.सफेद खैर। ९.शिंलिग मछली। १॰.लोध। 1१. बेल का पेड़। १२. साही नामक जन्तु। १३. सांग। बरछी। १४. दुर्वचन। १५. पाप। १६. वे पदार्थ जिनसे शरीर में किसी प्रकार की पीड़ा या रोग आदि उत्पन्न होता है।
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शल्यकंठ  : पुं० [सं० ब० स०] साही जंतु।
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शल्यक  : पुं० [सं०शल्य√कै+क] १. साही नामक जन्तु। २. मैनफल। ३. खादिर। खैर। ४. बेल का पेड़ या फल। ५. लोध। ६. एक प्रकार की मछली। वि० १. शल्य संबंधी। २. शल्य चिकित्सा या शल्य कर्म से संबंध रखनेवाला (सर्जिकल)।
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शल्य-कर्त्तन  : पुं० [सं० ब० स०] रामायण के अनुसार एक प्राचीन जनपद।
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शल्य-कर्त्ता  : पुं० [सं०√शल्य√कृ+तृच्] शल्यकार।
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शल्यकार  : पुं० [सं० शल्य√कृ+अण्] वह जो शल्य चिकित्सा का अच्छा ज्ञाता हो, या शल्य चिकित्सा करता हो (सर्जन)।
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शल्यकारी  : स्त्री० [सं०] शल्य अर्थात् चीर-फाड़ करके चिकित्सा करने की क्रिया। (सर्जरी)
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शल्यकी  : स्त्री० [सं० शल्यक—ङीष्] साही।
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शल्य-क्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] शारीरिक विकार को दूर करने के लिए की जाने वाली चीर-फाड़। (सर्जरी)
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शल्य-चिकित्सक  : पुं० [सं०]=शल्यकार।
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शल्य-चिकित्सा  : स्त्री० [सं०]=शल्यकारी।
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शल्यज नाड़ी व्रण  : पुं० [सं० नारी-व्रण, ष० त० स० शल्यज—नाड़ी व्रण कर्म० स०] नाड़ी में होनेवाला एक प्रकार का व्रण या घाव जो नाड़ी में कंकड़ी या काँटा पहुँच जाने पर होता है।
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शल्य-तंत्र  : पुं० [सं० मध्यम० स०] वह विद्या जिसमें शल्य-चिकित्सा के सब अंगों का विवेचन हो।
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शल्य-लोम (मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] साही।
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शल्य-शालक  : पुं० [सं० ष० त० स०]=शल्यकारी।
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शल्य-शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०] चिकित्सा शास्त्र का वह अंग जिसमें शरीर में गड़े हुए काँटों आदि के निकालने का विधान रहता है। (सर्जरी)
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शल्या  : स्त्री० [सं० शल्य-टाप्] १. मेदा नाम की ओषधि। २. नाग वल्ली। ३. विकंकत।
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शल्यारि  : पुं० [सं० ष० त० स०] युधिष्ठिर।
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शल्योद्धार  : पुं० [सं० ष० त० स०] शरीर में गड़े हुए काँटे, तीर आदि को निकालने का कार्य।
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शल्योपचार  : पुं० [सं० मध्य० स०] चिकित्सा क्षेत्र में शल्य के द्वारा किया जानेवाला उपचार। चीर-फाड़। (ऑपरेशन)
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शल्योपचारक  : पुं०=शल्योपचारी।
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शल्योपचारिक  : वि० [सं० ष० त०] शल्योपचार संबंधी।
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शल्योपचारी  : वि० [सं० शल्योपचार+इनि] वह जो शल्योपचार द्वारा चिकित्सा करता हो (सर्जिकल आपरेटर)।
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शल्ल  : पुं० [सं० शल्√ला (लेना)+क-शल्+लच् वा] १. चमड़ा। २. वृक्ष की छाल। ३. मेढ़क। वि० शिथिल तथा सुन्न।
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शल्लक  : पुं० [सं० शल्ल+कन्] १. शोणवृक्ष। सलई। २. साही नामक जन्तु। २. शरीर की खाल या चमड़ा। स्त्री० [तु०] बकवाद।
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शल्लकी  : स्त्री० [सं० शल्लक-ङीप्] १. साही। २. सलाई का पेड़।
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शल्व  : पुं० [शल+व०] शाल्व नामक एक प्राचीन भूखण्ड।
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शव  : पुं० [सं०√शव् (गमनादि)+अच्] १. जीवनी शक्ति से रहित शरीर। देह जिसमें से प्राण-पखेरू उड़ गये हों। लाश। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसी वस्तु जो अचेष्ट और निर्जीव हो चुकी हो। ३. जल।
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शवच्छेद (न्)  : पुं०=शव-छेद (न्)।
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शवछेद (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] १. वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए शव का किया जानेवाला शल्योपचार। २. दे० ‘शव-परीक्षा’।
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शवता  : स्त्री० [सं० शव+तल्-टाप्] १. शव का भाव। २. निर्जीवता। मुरदापन।
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शव-दाह  : पुं० [सं० ष० त०] हिन्दुओं में एक संस्कार जिसमें शव जलाया जाता है।
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शव-दूष्य  : पुं० [सं० ष० त०] मृत शरीर पर डाला जानेवाला कंबल या चादर। कफन।
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शवधान  : पुं० [सं० ब० त०] पुराणानुसार शरधान प्रदेश का दूसरा नाम।
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शव-परीक्षा  : स्त्री० [सं० ष० त०] दुर्घटनावश या सन्दिग्ध अवस्था में मरे हुए व्यक्ति के शव की वह जाँच या परीक्षा जिससे यह जाना जाता है कि मृत्यु आकस्मिक और स्वाभाविक हुई है या किसी के हत्या करने पर हुई है (पोस्ट मार्टेम)।
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शव-भस्म  : पुं० [सं० ष० त०] चिता की भस्म जो शिव जी शरीर पर लगाते थे।
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शव-मंदिर  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. श्मशान। मरघट। २. समाधि। मकबरा।
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शव-यान  : पुं० [सं० ष० त०] १. अरथी जिस पर शव ले जाते हैं। टिकठी। २. वह सवारी जिसमें मुर्दे ढोये जाते हैं।
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शवर  : पुं० [सं० शव=अरन् बाहु शव√रा (लेना)+क वा] [स्त्री० शवरी] शबर (दे०)।
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शव-रथ  : पुं० [सं०]=शव यान।
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शवरी  : स्त्री० [सं० शवर-ङीष्]=शबरी।
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शवल  : पुं० [सं०√शाप् (निन्दा करना)+कलन्, य्=व] १. चीता। चित्रक। २. जल। पानी। वि० चित-कबरा। शबल।
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शवला  : स्त्री० [सं० शवल-टाप्] चितकबरी गाय।
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शवलित  : भू० कृ० [सं० शवल+इतच्] =शबलित।
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शवली  : स्त्री० [सं० शवल-ङीष्] चितकबरी गाय।
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शव-शयन  : पुं० [सं० ब० स०] श्मशान। मरघट।
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शव-समाधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] किसी महात्मा का अथवा कुछ विशिष्ट रोगों के कारण मरे हुए व्यक्ति का शव जल में प्रवाहित करने अथवा गाड़ने का एक संस्कार।
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शव-साधन  : पुं० [सं० तृ० त०] तंत्र में शव पर या श्मशान में बैठकर मंत्र जगाने की क्रिया।
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शवान्न  : पुं० [सं० उपमि० स०] १. मनुष्य के शव का मांस। २. सड़ा गला अन्न।
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शवासन  : पुं० [सं० शव+आसन, मध्य० स०] हठयोग में एक प्रकार का आसन जिसमें मृत व्यक्ति की तरह चित्त लेटकर शरीर के सब अंग बिलकुल ढीले या शिथिल कर दिये जाते हैं।
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शव्य  : पुं० [सं० शव+यत्] वह कृत्य जो शव को अन्तेष्टि क्रिया के लिए ले जाने के समय होता है। वि० शव संबंधी। शव का।
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शव्वाल  : पुं० [अ] दसवाँ अरबी महीना।
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शश  : पुं० [सं०√शश् (गमनादि)+अच्] १. खरगोश। २. चन्द्रमा का कलंक या लांछन। ३. लोध। ४. कामशास्त्र में चार प्रकार के पुरुषों में से ऐसा पुरुष जो सर्वगुण सम्पन्न हो। वह मधुर-भाषी, सत्यवादी सुशील तथा कोमलांग होता है। वि० [फा०] छः। पुं० छः की संख्या।
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शशक  : पुं० [सं० शश+क] खरगोश।
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शशगानी  : पुं० [फा० शश=छः+गानी] चाँदी का एक प्रकार का सिक्का जो फिरोजशाह के राज्य में प्रचलित था।
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शशदर  : पुं० [फा०] चौसर के पासे में वह घर जहाँ पहुँच कर गोटी रुक जाती है और इस प्रकार खिलाड़ी निरुपाय हो जाता है। वि० १. निरुपाय। २. चकित। ३. हैरान।
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शशधर  : पुं० [सं० ष० त०] १. चन्द्रमा। २. कपूर।
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शशभृत्  : पुं० [सं० शश√भृ (भरण करना)+क्विप्-तुक्] १. चन्द्रमा। २. कपूर।
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शशमाही  : वि० [फा०] हर छः महीने पर होनेवाला। छमाही।
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शशमौलि  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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शश-लक्षण  : पुं० [सं० ब० स०] चन्द्रमा।
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शश-लांछन  : पुं० [सं० ब० स०] चन्द्रमा।
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शश-श्रृंग  : पुं० [सं० ष० त० स०] वैसी ही असंभव या अनहोनी बात अथवा कार्य जैसा खरगोश को सींग होना होता है (‘आकाश कुसुम’) की तरह प्रयुक्त)।
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शश-स्थली  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] गंगा-यमुना के बीच का प्रदेश। दोआब।
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शशांक  : पुं० [सं० ब० स०] १. चन्द्रमा। २. कपूर।
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शशांकज  : पुं० [सं० शशांक√जन् (उत्पन्न होना)+ड] बुध जो चन्द्रमा का पुत्र कहा गया है।
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शशांक-शेखर  : पुं० [सं० ब० स०] महादेव। शिव।
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शशांक-सुत  : पुं० [सं० ष० त० स०] चन्द्रमा का पुत्र बुध (ग्रह)।
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शशांकोपल  : पुं० [सं० मध्यम० स०] चन्द्रकांतमणि।
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शशा  : स्त्री० [शश्-टाप्] मादा खरगोश।
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शशाद (न्)  : पुं० [सं० शश√अद् (खाना)+ल्यु-अन] बाज नाम का पक्षी।
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शशि (शिन्)  : पुं० [सं० शश+इनि] १. चन्द्रमा। इंदु। २. मोती। ३. छः की संख्या का वाचक शब्द। ४. छप्पय के ५४ वें भेद का नाम। इसमें १७ गुरु और ११८ लघु कुल १३५ वर्ण या १५२ मात्राएँ होती हैं। ५. रगण के दूसरे भेद (॥ऽऽ) की संज्ञा।
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शशिक  : पुं० [सं० शशि+कन्] १. एक प्राचीन जनपद। २. उक्त जनपद में रहनेवाली जाति।
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शशिकर  : पुं० [सं० ष० त० स०] चन्द्रमा की किरण।
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शशि-कला  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] १. चन्द्रमा की १६ कलाओं में से हर एक। २. एक प्रकार का वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में ४ नगण और १ सगण होता है।
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शशिकांत  : पुं० [सं० ब० स०] १. चन्द्रकांत मणि। २. कुमुद। कोई।
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शशिखंड  : पुं० [सं० ष० त० या ब० स] १. चन्द्रमा की किरण। २. महादेव।
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शशिज  : पुं० [सं० शशि√जन् (उत्पन्न करना)+ड] चन्द्रमा का पुत्र बुध। (ग्रह)। वि० शशि से उत्पन्न।
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शशि-तिथि  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] पूर्णिमा। पूर्णमासी।
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शशि-दैव  : पुं० [सं० ब० स०] मृगशिरा नक्षत्र जिसके अधिष्ठाता दैव चन्द्रमा कहे गये है।
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शशिधर  : पुं० [सं०√धृ+अच्,ष० त० स०] शिव।
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शशिनी  : स्त्री० [सं०] चन्द्रमा की १६ कलाओं में से एक।
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शशि-पुत्र  : पुं० [सं० ष० त० स०] बुध (ग्रह) जो चन्द्र का पुत्र कहा गया है।
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शशिपुष्प  : पुं० [सं० ष० त०] कमल। पद्म।
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शशि-पोषक  : वि० [सं० ष० त० स०] चन्द्रमा का पोषण करनेवाला। पुं० उजला पाख। शुक्ल पक्ष।
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शिशि-प्रकाशी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। शशि-प्रभ
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शशि-प्रभा  : स्त्री० [सं० शशिप्रभ-टाप्] ज्योत्स्ना। चांदनी।
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शशि-प्रिय  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. कुमुद। कोई। २. मोती।
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शशि-प्रिया  : स्त्री० [सं० शशिप्रिय-टाप्, ष० त०] सत्ताइसों नक्षत्र जो चन्द्रमा की पत्नियाँ माने जाते हैं (पुराण)।
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शशि-भाल  : पुं० [सं० ब० स०] महादेव। शंकर।
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शशि-भूषण  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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शशिभृत्  : पुं० [सं० शशि√भृ (भरण करना)+क्विप्-तुक्] शिव। महादेव।
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शशि-मंडल  : पुं० [सं० ष० त० स०] चन्द्रमा का घेरा या मंडल। चन्द्र-मंडल।
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शशि-मणि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] चन्द्रकांत मणि।
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शशि-मुख  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० शशिमुखी] शशि सदृश सुन्दर मुखवाला।
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शशि-मौलि  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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शशि-रस  : पुं० [सं० ष० त० स०] अमृत।
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शशि-रेखा  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] चन्द्रमा की एक कला।
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शशि-लेखा  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] १. चन्द्रमा की कला। २. गिलोय। गुडुच। ३. बकुची।
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शशि-वदना  : वि० [ब० स०] शशि-मुखी। स्त्री० एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में १ लगण (।।।) और १ यगण (।ऽऽ) होता है। इसे चौवंसा चंडरसा और पादांकुलक भी कहते हैं।
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शशि-शाला  : स्त्री० [ष० त० या फा० शीशा+सं० शाला] शीशों का बना हुआ या बहुत से शीशों से सजा हुआ घर। शीश-महल।
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शशि-शेखर  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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शशि-पोषक  : वि० [सं० ष० त० स०] चन्द्रमा की कलाओं का शोषक। पुं,० अँधेरा पाख। कृष्णपक्ष।
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शशि-सुत  : पुं० [सं० ष० त०] चन्द्रमा का पुत्र बुध (ग्रह)।
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शशि-हीरा  : पुं० [सं०+हि] चन्द्रकांत मणि।
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शशी  : पुं०=शशि।
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शशीकर  : पुं० [सं० शशिकर] चन्द्रमा की किरण।
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शशीश  : पुं० [सं० ष० त०] १. शिव। महादेव। २. कार्तिकेय।
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शश्वत  : वि०=शाश्वत।
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शष्कुली  : स्त्री० [सं० शष्कुल-ङीप्] १. पूरी, पक्वान्न आदि। २. कान का छेद। ३. सौरी मछली।
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शष्प  : स्त्री० [सं० शष+पक्] १. नई घास। २. नीली दूब। ३. ज्ञान या बुद्धि का नाश। ४. उपस्थ पर के बाल।
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शसन  : पुं० [सं०√शस् (वध करना)+ल्युट-अन] १. बलि के निमित्त पशु का किया जानेवाला वध। २. हत्या।
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शसा  : पुं० [सं० शश] खरगोश। खरहा।
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शसि  : पुं०=शशि।
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शसी  : पुं०=शशि।
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शस्त  : पुं० [सं०√शंस् (कल्याण करना)+क्त] १. शरीर। बदन। २. कल्याण। मंगल। भू० कृ० १. प्रशस्त। घायल। २. प्रशंसित। ३. जो मार डाला गया हो। निहत। ४. आहत। घायल। ५. मांगलिक। पुं० [फा०] १. वह हड्डी या बालों का छल्ला जो तीर चलाने के समय अंगूठे में पहना जाता था। २. निशाना। लक्ष्य। क्रि० प्र०—बाँधना।—लगाना। ३. दूरबीन की तरह का वह यंत्र जिससे जमीन नापने के समय उसकी सीध देखी जाती है। ४. मछली फँसाने का काँटा। बंसी।
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शस्तक  : पुं० [सं० शस्त+कन्] हाथ में पहनने का चमड़े का दस्ताना। अंगुलित्र।
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शस्ति  : स्त्री० [सं०√शस् (कल्याण करना)+क्तिन्] स्तुति। प्रशंसा। प्रशस्ति।
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शस्त्र  : पुं० [सं०√शंस्+ष्ट्रन्] १. कोई ऐसी चीज जिससे लड़ाई-झगड़े या युद्ध के समय शत्रु पर प्रहार किया जाता हो। हथियार। २. लाक्षणिक रूप में कोई ऐसी चीज या बात जिसके द्वारा विपक्षी या विरोधी को दबाया या शांत किया जाता हो। (बेपन)। ३. किसी प्रकार का उपकरण या औजार। ४. लोहा। ५. फौलाद। ६. स्तोत्र। ७. कुछ पढ़कर सुनाना। पाठ।
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शस्त्रक  : पुं० [सं० शस्त्र+कन्] लोहा।
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शस्त्र-कर्म (कर्म्मन्)  : पुं० [सं०] घाव या फोड़े में नश्तर लगाना। फोड़ों आदि की चीड़-फाड़ का काम। शल्यकारी।
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शस्त्र-क्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] १. शस्त्र-कर्म। २. शल्योपचार।
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शस्त्र-गृह  : पुं० [सं० ष० त० स०]=शस्त्रागार।
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शस्त्रजीवी (विन्)  : पुं० [सं० शस्त्र√जीव् (जीवित रहना)+णिनि] योद्धा। सैनिक।
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शस्त्रदेवता  : पुं० [सं० ष० त० स०] युद्ध का अधिष्टाता। देवता।
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शस्त्रधर  : पुं० [सं० ष० त०] योद्धा। सैनिक।
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शस्त्रधारी (रिन्)  : वि० [सं० शस्त्र√धृ+णिनि] [स्त्री० शस्त्रधारिणी] शस्त्र धारण करनेवाला। हथियार बंद। पुं० १. योद्धा। सैनिक। २. एक प्राचीन देश। ३. सिलहपोश नाम का जंतु।
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शस्त्रपाणि  : पुं० [सं० ब० स०] शस्त्रधारी।
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शस्त्रभूत  : पुं० [सं०]=शस्त्रधारी।
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शस्त्र-विद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. शस्त्र चलाने का कौशल या ज्ञान। २. यजुर्वेद का उपवेद, धनुर्वेद जिसमें सब प्रकार के अस्त्र चलाने की विधियों और लड़ाई के संपूर्ण भेदों का वर्णन किया गया है।
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शस्त्रशाला  : स्त्री० [सं० ष० त०]=शस्त्रगार।
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शस्त्रशास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०]=शस्त्रविद्या।
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शस्त्रहत चतुर्दशी  : स्त्री० [सं० शस्त्र-हत, तृ० त०-चतुर्दशी, ष० त०] गौण आश्विन् कृष्ण चतुर्दशी और गौण कार्तिक चतुर्दशी। इन दोनों तिथियों में उन लोगों का श्राद्ध किया जाता है, जिनकी हत्या शस्त्रों द्वारा होती है।
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शस्त्राख्य  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का केतु (बृहत्संहिता)।
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शस्त्रागार  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. शस्त्र आदि रखने का स्थान। शस्त्रशाला। शस्त्रालय। सिलहखाना। २. वह स्थान जहाँ पर अनेक प्रकार के शस्त्र प्रदर्शित किए अथवा सुरक्षित रखे जाते हों।
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शस्त्राजीव  : पुं० [सं० शस्त्र-आ√जीव् (जीवित रहना)+अच्, ब० स०]=शस्त्रजीवी।
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शस्त्रायस  : पुं० [सं० मध्यम० स० समा-अच्] ऐसा लोहा जिससे शस्त्र बनाये जाते हैं।
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शस्त्रालय  : पुं० [सं० ष० त०]=शस्त्रागार।
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शस्त्री  : पुं० [सं० शस्त्र+इनि शस्त्रिन्] १. वह जो शस्त्र आदि चलाना जानता हो। २. वह जिसके पास शस्त्र हो। ३. छोटा शस्त्र विशेषतः छुरी या चाकू।
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शस्त्रीकरण  : पुं० [सं० शस्त्र+च्वि√कृ+ल्युट-अन, दीर्घ] आक्रमण आदि से राष्ट्र की रक्षा के उद्देश्य से सेना तथा निवासियों को शस्त्रों आदि से सज्जित करना।
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शस्त्रोपजीवी (विन्)  : पुं० [सं० शस्त्र-उप√जीव् (जीवित रहना)+णिनि] शस्त्रजीवी। (दे०)
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शस्प  : पुं०=शष्प।
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शस्य  : वि० [सं०√शस्+यत्] १. प्रशंसनीय। २. बढ़िया। पुं० १. नई घास। कोमल तृण। २. वृक्ष का फल। ३. फसल। ४. अन्न। ५. प्रतिभा का नाश या हानि। ६. सद्गुण।
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शस्यक  : पुं० [सं० शस्य+कन्] एक प्रकार का रत्न।
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शस्यागार  : पुं० [सं० ष० त० स०] खलिहान।
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शहंशाह  : पुं० [फा०] १. राजाओं का राजा। सम्राट। २. चक्रवर्ती राजा।
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शहंशाही  : वि० [फा०] १. शहंशाहों में होनेवाला। २. शहंशाह द्वारा किया हुआ। ३. शाहों का सा। शाही। राजसी। जैसे—शंहशाही ठाट-बाट। स्त्री० १. शहशाह होने की अवस्था, गुण, धर्म या भाव। २. शहंशाह का पद। ३. लेन-देन का खरापन।
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शह  : पुं० [फा० शाह का संक्षिप्त रूप] १. बहुत बड़ा राजा। बादशाह। २. दूल्हा। वर। वि० बड़ा और श्रेष्ठ। स्त्री० [फा०] १. शतरंज के खेल में कोई मोहरा किसी ऐसे स्थान पर रखना जहाँ से बादशाह उसकी घात में पड़ता हो। क्रि० प्र०—खाना।—देना।—लगाना। २. गुप्त रूप से किसी को भड़काने या उभारने की क्रिया या भाव। जैसे—ये तुम्हारी शह पाकर ही तो इतना उछलते हैं। क्रि० प्र०—देना। ३. गुड्डी, पतंग या कनकौवे आदि को धीरे-धीरे डोर ढीली करते हुए आगे बढ़ाने की क्रिया या भाव। क्रि०—प्र०—देना।
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शहचाल  : स्त्री० [फा० शह+हि० चाल] शतरंज में बादशाह की वह चाल जो बाकी सब मोहरों के मारे जाने पर चली जाती है।
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शहजादा  : पुं० [फा० शाहजादः] [स्त्री० शहजादी] १. शाह का बेटा। राजपुत्र। २. युवराज।
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शहजादी  : स्त्री० [फा० शहजादी] १. राजकुमारी। २. युवराज्ञी।
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शहजोर  : वि० [फा०] [भाव० शहजोरी] बलवान। ताकतवर।
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शहजोरी  : स्त्री० [फा०] १. शहजोर होने की अवस्था या भाव। २. बलप्रयोग। जबरदस्ती।
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शहत  : पुं०=शहद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शहतीर  : पुं० [फा०] लकड़ी का चीरा हुआ बहुत बड़ा और लंबा लट्ठा जो प्रायः छत छाने के काम आता है।
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शहतूत  : पुं० [फा०] १. तूत का पेड़ और उसका फल। २. उक्त वृक्ष की मीठी फली।
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शहद  : पुं० [अं०] एक बहुत प्रसिद्ध मीठा, गाढ़ा और परम स्वादिष्ट तरल पदार्थ जो कई प्रकार के कीड़े विशेषतः मधुमक्खियाँ अनेक प्रकार के फूलों के मकरन्द से संग्रह करके अपने छत्तों में रखती है। मधु। विशेष—यह प्रायः सभी प्रकार के रोगों में गुणकारी माना जाता और सभी अवस्थाओं के प्राणियों के लिए लाभ-दायक माना जाता है। पद-शहद की छुरी=मीठी छुरी (देखें)। मुहावरा—शहद लगाकर अलग होना=उपद्रव का सूत्रपात करके अलग होना। आग लगाकर दूर होना। शहद लगाकर चाटना=किसी निरर्थक पदार्थ को यों ही लिए रहना और उसका कुछ भी उपयोग न कर सकना (व्यंग्य) जैसे—आप अपनी पुस्तक शहद लगाकर चाटिये, मुझे उससे कहीं अच्छी पुस्तक मिल गई है। वि० अत्यधिक मीठा।
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शहनगी  : पुं० [अं० शहनः] १. शहना होने की अवस्था या भाव। २. शस्य-रक्षक का काम। ३. वह धन जो चौकीदार को देने के लिए असामियों से वसूल किया जाता है।
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शहनशीन  : पुं० [फा०] बहुत बड़े आदमियों के बैठने के लिए सबसे ऊँचा या मुख्य आसन।
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शहना  : पुं० [अ० शहनः] १. खेत की चौकसी करनेवाला। शस्यरक्षक। २. खेतिहरों से राज-कर उगाहनेवाला अधिकारी। उदाहरण—राज्य का शहरा आया, आठवाँ अंश ले गया।—वृन्दावनलाल वर्मा। ३. वह व्यक्ति जो जमींदार की ओर से असामियों को बिना कर दिए, खेत की उपज उठाने से रोकने और उसकी रक्षा के लिए नियुक्त किया जाता है। ४. नगर का कोतवाल।
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शहनाई  : स्त्री० [फा०] १. बाँसुरी या अलगोजे के आकार का, पर उससे कुछ बड़ा मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला एक प्रकार का बाजा जो प्रायः रोशन-चौकी के साथ बजाया जाता है। नफीरी। २. रोशनचौकी।
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शहबाज  : पुं० [फा०] एक प्रकार का बड़ा बाज पक्षी।
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शहबाला  : पुं० [फा०] वह छोटा बालक जो विवाह के समय दूल्हे के साथ पालकी पर अथवा उसके पीछे घोड़े पर बैठकर वधू के घर जाता है।
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शहबुलबुल  : स्त्री० [फा०] एक प्रकार की बुलबुल जिसका सारा शरीर लाल कंठ काला और सिर पर सुनहले रंग की चोटी होती है।
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शहमात  : स्त्री० [फा०] शतरंज के खेल में ऐसी मात जिसमें बादशाह को केवल शह या किस्त देकर इस प्रकार मात किया जाता है कि बादशाह के चलने के लिए कोई घर ही नहीं रह जाता।
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शहर  : पुं० [फा० शह्र] मनुष्यों की बस्ती जो कस्बे से बहुत बड़ी हो, जहाँ हर तरह के लोग रहते हों और जिसमें अधिकर बड़े पक्के मकान हों। नगर।
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शहर-पनाह  : स्त्री० [फा०] वह दीवार जो किसी नगर की रक्षा के लिए उसके चारों ओर बनाई जाय। शहर की चार-दीवारी। प्राचीर। नगरकोटा।
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शहरी  : वि० [फा०] १. शहर से संबंध रखनेवाला। शहर का। २. शहर का निवासी। नागरिक। ३. शहरियों का सा।
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शहवत  : स्त्री० [अ०] १. इच्छा, विशेषतः भोग-विलास की इच्छा। २. स्त्री-संभोग के लिए होनेवाली इच्छा। काम-वासना। ३. स्त्री-संभोग। मैथुन।
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शहवत परस्त  : वि० [अ+फा०] जिसमें भोग-विलास या स्त्री-संभोग की प्रबल शक्ति हो।
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शह-सवार  : वि० [फा०] कुशल घुड़सवार।
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शहादत  : स्त्री० [अ०] १. शहीद होने की अवस्था या भाव विशेषतः जहाद में लड़ते हुए प्राण देना। २. वध। ३. गवाही। ४. प्रमाण।
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शहाना  : वि० [फा० शहाना] [स्त्री० शाहानी] १. शाहों का। २. शाहों में होनेवाला। ३. शाहों जैसा। राजसी। ४. उत्तम। बढ़िया। पुं० १. कपड़ों का वह जोड़ा जो विवाह के समय वर को पहनाया जाता है। २. मुसलमानों में विवाह के समय गाया जानेवाला एक प्रकार का लोक-गीत। पुं० [देश या फा० शाही से] सम्पूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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शहाना कान्हड़ा  : पुं० [हिं० शहाना+कान्हड़ा] संपूर्ण जाति का एक प्रकार का कान्हड़ा राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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शहाब  : पुं० [फा०] [वि० शहाबी] गहरा लाल रंग। विशेषतः कुसुम से तैयार किया जानेवाला गहरा लाल रंग।
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शहाबा  : पुं० दे० ‘अगिया बैताल’।
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शहाबी  : वि० [फा०] शहाब के रंग का। गहरा लाल। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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शहीद  : वि० [अ०] १. अपने धर्म, सदाचार या कर्तव्य-पराणयता की रक्षा के लिए निमित्त अपने प्राण देनेवाला। जैसे—शहीद हकीकत राय। २. आज-कल (वह व्यक्ति) जो स्वतन्त्रता की रक्षा अथवा उसकी प्राप्ति के लिए अपनी जान गँवाता हो। जैसे—शहीद भगत सिंह।
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शहीदी  : वि० [अ० शहीद] १. शहीद संबंधी। २. जो शहीद होने के लिए तैयार हो। जैसे—शहीदी जत्था। ३. लाल रंग।
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शांकर  : वि० [स० शंकर+अण्] १. शहीद संबंधी। शंकर का। २. शंकराचार्य का। जैसे—शांकर भाष्य। पुं० १. शंकराचार्य का अनुयायी। २. एक प्रकार का छंद। ३. एक प्रकार की सोमलता। ४. आर्द्रा नक्षत्र, जिसके देवता शिव है। ५. साँड़।
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शांकरी  : पुं० [सं० शंकर+इञ्] शिव के पुत्र गणेश जी। २. कार्तिकेय। ३. अग्नि। ४. शमी वृक्ष। स्त्री० [शांकर-ङीष्] शिव द्वारा निर्धारित अक्षरों का क्रम शिव-सूत्र।
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शांकव  : वि० [सं० शंकु+अञ्] जो शंकु के आकार या रूप में हो। जिसके नीचे का भाग चौड़ा और मोटा हो और ऊपर का भाग बराबर पतला या कोणाकार होता गया हो (कोनिक)।
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शांख  : पुं० [सं० शंख+अण्] शंख की ध्वनि। वि० शंख-संबंधी। शंख का।
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शांखायन  : पुं० [सं० शख+फिञ्-आयन] एक गहना और श्रौत सूत्रकार ऋषि जिनका कौशीतकी ब्राह्मण ग्रंथ है।
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शांखिक  : वि० [सं० शंख+ठञ्-इक] [स्त्री० शांखिकी] १. शंख संबंधी। २. शंख का बना हुआ। पुं० १. वह जो शंख बजाता हो। २. वह जो शंख बनाता और बेचता हो।
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शांख्य  : वि० [सं० शंख-इञ्] १. शंख-संबंधी। २. शंख का बना हुआ।
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शांडिक  : वि० [सं० शंख-इञ्] साँड़ा नामक जंतु।
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शांडिल्य  : पुं० [सं० शंड+ठक्-यञ्] १. एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि जो स्मृतिकार भी कहे गये हैं। २. उक्त मुनि के कुल या गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति। ३. बेल वृक्ष या उसका फल। ४. अग्नि।
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शांतंपापं  : अव्य, [सं०] एक पद जिसका अर्थ है पाप शांत हो और जिसका प्रयोग किसी बड़े के सामने उसके कोप आदि से बचने की कामना से किया जाता था।
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शांत  : वि० [सं०√शम् (शांत होना)+क्त, निपा०, दीर्घ] १. (उत्पात या उपद्रव) जिसका शमन हो चुका हो या किया जा चुका हो। जो दबाया गया हो। जिसकी उग्रता या प्रचंडता न रह गई हो या नष्ट कर दी गई हो। जैसे—उपद्रव क्रोध या विद्रोह शांत होना। २. (क्रिया या व्यापार) जिसका पूर्णतः अन्त या समाप्ति हो चुकी हो। जैसे—शीत शांत होना। ३. जिसमें कोई आवेग, चंचलता वासना या विकार न रह गया हो। जैसे—वह बहुत शातं भाव से जीवन बिताता है। ४. जिसने इंद्रियों और मन को वश में कर लिया हो जितेंद्रिय। ५. उत्साह, उमंग, कर्मठता आदि से रहित। ६. चुप। मौन। ७. थका या हारा हुआ। श्रांत। ८. जिसकी उष्णता या ताप नष्ट हो चुका हो। जैसे—अग्नि या दीपक शान्त होना। ९. जिसकी घबराहट या चिंता दूर हो चुकी हो। पुं० १. साहित्य में नौ रसों में से अंतिम रस जो सब रसों में प्रधान या सर्वोपरि माना गया है और जिसका स्थायी भाव निर्वेद अर्थात् काम आदि मनोविकारों का शमन माना गया है। (भक्ति-काल में इस रस को विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ था)।
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शांतता  : स्त्री० [सं० शांत+तल्-टाप्] शांति।
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शांतनव  : पुं० [सं० शन्तनु+अण्] [स्त्री० शांतनवी] राजा शांतनु के पुत्र भीष्म।
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शांतनु  : पुं० [सं० शांतनु+डु] १. द्वापर युग के २१ वें चन्द्रवंशी राजा। २. ककड़ी।
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शांतस्वरूपी  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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शांता  : स्त्री० [सं० शांत-टाप्] १. श्रृंगी ऋषि की पत्नी का नाम जिसके जनक दशरथ थे और पालक-पोषक अंगराज लोमपाद थे। २. शमी-वृक्ष। ३. आँवला। ४. रेणुका नामक गन्ध द्रव्य। ५. दूब। ६. संगीत में, एक श्रुति।
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शांति  : स्त्री० [सं०√शम् (शान्त होना)+क्तिन्] १. शांत होने की अवस्था जिसमें उद्वेग, क्षोभ, चिंता, दुःख आदि का पूर्णतः अभाव होता है। चित्त का ठिकाने और स्वस्थ रहना। २. दिल का आराम, इतमीनान और चैन। ३. जन-समूह या समाज की वह अवस्था जिसमें उत्पात, उपद्रव, मार-पीट, लड़ाई-झगड़ा विद्वेष आदि का अभाव हो और फलतः लोग निश्चिंत भाव से सुखपूर्वक जीवन बिताते हों। ४. राजनीतिक क्षेत्र में वह स्थिति जिसमें राज्य,राष्ट्र आपस में लड़ते-झगड़ते या मार-पीट न करते हों। ५. वातावरण की वह स्थिति जिसमें नैसर्गिक तत्त्वों में कोई उग्रता या प्रचंडता न रहती हो। ६. ऐसी स्थिति जिसमें किसी प्रकार की अप्रिय या कटु ध्वनि या शब्द न होता हो। नीरवता। सन्नाटा। स्तब्धता। ७. ऐसी शारीरिक स्थिति जिसमें पीड़ा, रोग आदि का दमन या शमन हो चुका हो। (पीस, उक्त सभी अर्थों में) ८. जीवन का शारीरिक व्यापारों का अंत या समाप्ति। मृत्यु। मौत। ९. गंभीरता, धीरता आदि की सौम्य स्थिति। १॰. धार्मिक दृष्टि से तृष्णा, राग, विराग आदि से मुक्त या रहित होने की अवस्था। ११. कर्मकांड में वह धार्मिक कृत्य जो अनिष्ट या अशुभ बातों का निवारण करने के लिए किया जाता है। जैसे—गृह-शांति, मूलशांति आदि। १२. दुर्गा का एक नाम।
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शांतिक  : वि० [सं० शांति+ठक्] १. शांति-संबंधी। शांति का। २. शांति के परिणाम स्वरूप होनेवाला। पुं० कर्मकाण्ड का शांति नामक कर्म।
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शांतिकर्म  : पुं० [सं०√मध्य० स०] वह पूजा पाठ जो अनिष्ट, बाधा आदि की शांति के निमित्त किया जाता है।
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शांतिकलश  : पुं० [सं० मध्यम० स०] शुभ अवसरों पर शांति के निमित्त स्थापित कलश।
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शांतिगृह  : पुं० [सं० ष० त०] वह स्थान जहाँ पर यज्ञ की समाप्ति के बाद स्नान करने का विधान होता था।
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शांतिद  : वि० [सं० शांति√दा+क] [स्त्री० शांतिदा] शांति देनेवाला। पुं० विष्णु।
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शांतिदाता (तृ)  : वि० [सं० ष० त०] [स्त्री० शांतिदात्री] शांति देनेवाला।
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शांतिदायक  : वि० [सं० शांति√दा+ण्वुल्-अक,-युक्] [स्त्री० शांतिदायिका] शांति देनेवाला।
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शांतिदायी (यिन्)  : वि० [सं० शांति√दा+णिनि-युक्] [स्त्री० शांति-दायिनी] शांति देनेवाला।
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शांतिनाथ  : पुं० [सं० ब० स०] जैनों के एक तीर्थकार या अर्हत् का नाम।
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शांतिपर्व  : पुं० [सं०√मध्य० स०] महाभारत का बारहवाँ और सबसे बड़ा पर्व जिसमें युद्ध के उपरांत युधिष्ठिर की चित्तशांति के लिए कही हुई बहुत सी कथाएँ, उपदेश या ज्ञान-चर्चाएँ हैं।
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शांतिपाठ  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. किसी मांगलिक कार्य के आरंभ में, विघ्न-बाधा दूर करने के लिए किया जानेवाला धार्मिक पाठ या कृत्य। २. बराबर यह कहते रहना कि शांति रहे शांति रहे।
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शांतिपात्र  : पुं० [सं० मध्यम० स०] वह पात्र जिसमें ग्रहों, पापों आदि की शांति के लिए जल रखा जाय।
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शांतिभंग  : पुं० [सं० ष० त०] १. शांत स्थिति में होनेवाली गड़बड़ी या बाधा। २. ऐसा अनुचित काम या उपद्रव जिससे जन-साधारण के सुख और शांतिपूर्वक रहने में बाधा होती हो (ब्रीच ऑफ पीस)।
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शांतिवाचन  : पुं० [सं० मध्यम० स०] शांतिपाठ।
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शांतिवाद  : पुं० [सं० शांति√वद्+घञ्] [वि० शांतिवादी] आधुनिक राजनीति में वह वाद या सिद्धान्त जिसमें सब प्रकार की सैनिक शक्तियों के प्रयोगों और युद्धों का विरोध करते हुए यह कहा जाता है कि सब राष्ट्रों को शांतिपूर्वक रहना और आपसी झगड़ों को शांति पूर्ण उपायों से निपटाना चाहिए। (पैसिफिज्म)
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शांति-वादी  : वि० [सं०] शांतिवाद संबंधी। शांतिवाद का। पुं० वह जो शांतिवाद के सिद्धान्तों का अनुयायी और समर्थक हो। (पैसिफ़िस्ट)
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शांतिसंधि  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] युद्ध के उपरांत युद्ध-रत राष्ट्रों में होनेवाली वह संधि जिसके द्वारा शांति स्थापित होती और परस्पर मित्रता का व्यवहार आरम्भ होता है। (पीस ट्रीटी)
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शांब  : पुं० [सं०]=सांब।
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शांबर  : वि० [सं० शंबर+अण्] १. शंबर दैत्य संबंधी। २. साँभर मृग संबंधी। पुं० लोध का पेड़।
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शांबर-शिल्प  : पुं० [सं० कर्म० स०] इंद्रजाल। जादू।
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शांबरिक  : पुं० [सं० शम्बर+ठक्-इक] जादूगर। मायावी।
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शांबरी  : स्त्री० [सं० शांबर-ङीष्] १. माया। इन्द्रजाल। २. जादूगरनी। पुं० १. एक प्रकार का चंदन। २. लोध। ३. मूसाकानी।
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शांबविक  : पुं० [सं० शंबु+ठञ्-इक] शंख का व्यवसाय करनेवाला व्यक्ति।
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शांबुक  : पुं० [सं० शांबु+कन्] घोंघा।
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शांभर  : स्त्री० [सं० शंभर+अण्] साँभर झील। पुं० साँभर नामक नमक।
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शांभव  : वि० [वि० शंभु+अण्] १. शंभु संबंधी। शिव का। २. शंभु से उत्पन्न। ३. शिव का उपासक। पुं० १. देवदार। २. कपूर। ३. गुग्गुल। ४. एक प्रकार का विष।
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शांभवी  : स्त्री० [सं० शांभव-ङीष्] १. दुर्गा। २. नीली दूब।
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शाइस्तगी  : स्त्री० [फा०] शाइस्ता होने की अवस्था या भाव।
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शाइस्ता  : वि० [फा० शाइस्तः] १. शिष्ट तथा सभ्य। २. नम्र तथा सुशील। ३. जिसे अच्छा आचरण या व्यवहार सिखाया गया हो।
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शांकभरी  : स्त्री० [सं० शाक√भृ (भरण करना)+खच्, मुम्-ङीष्] १. दुर्गा। २. साँभर नगर का प्राचीन नाम।
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शाकंभरीय  : वि० [सं० शाकंभर+छ-ईय] सांभर झील से उत्पन्न। पुं० साँभर नमक।
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शाक  : वि० [सं० शक+अण्] १. शक जाति संबंधी। २. शक राजा का। ३. शक सम्वत् संबंधी। पुं० १. वनस्पति। २. विशेषतः ऐसी वनस्पति जिसकी तरकारी बनाई जाती हो। ३. किसी वनस्पति के वे पत्ते जिनकी तरकारी बनाई जाती है। ४. उक्त की बनी हुई तरकारी। ५. सागवान। ६. भोजपत्र। ७. सिरिस। ८. सात द्वीपों में से छठा द्वीप। ९. शक जाति के लोग। १॰. एक युग विशेषतः शक राजा शालिवाहन का युग। ११. उक्त के द्वारा चलाया हुआ संवत्। १२. शक्ति। वि० [अ० शाक] १. भारी। २. दूभर। दुस्सह। मुहावरा—शाक गुजरना=कष्टकर प्रतीत होना। खलना। ३. कष्ट या दुःख देनेवाला। (काम)।
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शाकट  : वि० [सं० शकट+अण्] १. शकट या गाड़ी संबंधी। २. (वह जो कुछ) गाड़ी पर लादा गया हो। पुं० १. गाड़ी खींचनेवाला पशु। २. गाड़ी पर लादा जानेवाला बोझ। ३. लिसोड़ा। ४. धौ का पेड़। ५. खेत।
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शाकटायन  : पुं० [सं० शकट+फक्-आयन] १. शकट का पुत्र या वंशज। २. एक बहुत प्राचीन संस्कृत वैयाकरण जिसका उल्लेख पाणिनी ने किया है। ३. एक दूसरे अर्वाचीन वैयाकरण जिनके व्याकरण का प्रचार जैनों में है।
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शाकटिक  : पुं० [सं० शकट+ठक्-इक] १. सग्गड़ हाँकनेवाला व्यक्ति। २. गाड़ीवान।
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शाकटीन  : पुं० [सं० शकट+खञ्-ईन] १. गाड़ी का बोझ। २. बीस तुला या दो हजार पल की एक पुरानी तौल।
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शाकद्रुम  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. वरुण वृक्ष। २. सागौन।
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शाकद्वीपीय  : वि० [सं० शाकद्वीप+छ-ईय] शक (द्वीप) का रहनेवाला। पुं० ब्राह्मणों का एक वर्ग जिसे मग भी कहते हैं और शक द्वीप से आया हुआ माना जाता है।
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शाक-भक्ष  : वि० [सं० ब० स०]=शांकाहारी।
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शाकरी  : स्त्री० [सं० शाक√रा (लेना)+क, ङीष्] दे० ‘शाकारी’।
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शाकल  : वि० [सं० शकल+अण्] १. शकल अर्थात् अंश या खंड से संबंध रखनेवाला। २. शकल नामक रंग से बना या रँगा हुआ। पुं० १. अंश। खण्ड। टुकड़ा। २. ऋग्वेद की एक शाखा या संहिता। ३. लकड़ी का बना हुआ जंतर या तावीज। ४. एक प्रकार का साँप। ५. प्राचीन भारत में मद्र जनपद की राजधानी। (आजकल का स्थालकोट नगर)।
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शाकलिक  : वि० [सं०√शाकल+ठक्-इक] शकल या शाकल संबंधी।
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शाकली  : पुं० [सं० शाकल-ङीप्] एक प्रकार की मछली।
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शाकल्य  : पुं० [सं० शकल+यञ्] एक प्राचीन ऋषि जो ऋग्वेद की शाखा के प्रचारक थे और जिन्होंने पहले-पहल उसका पद पाठ किया था।
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शाकशाल  : पुं० [सं० शाक√शाल (सुशोभित होना)+अच्] बकायन। महानिंब वृक्ष।
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शाका  : स्त्री० [सं० शाक-टाप्] हरीतकी। हड़। हर्रे।
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शाकारी  : स्त्री० [सं० शकार+अण्-ङीष्] शकों अथवा शाकरों की बोली जो प्राकृत का एक भेद है।
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शाकाष्टका  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अष्टमी (इस दिन पितरों के उद्देश्य से शाकदान किया जाता है)।
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शाकाष्टमी  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०]=शाकाष्टका।
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शाकाहार  : पुं० [सं० ष० त० स०] अनाज अथवा फल-फूल का भोजन (मांसाहार से भिन्न)।
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शाकाहारी  : पुं० [सं० शाकाहारिन्] वह जो केवल अन्न, फल और सागभाजी खाता हो, मांस न खाता हो। निराभिषभोजी (वेजीटेरियन)।
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शाकिनी  : स्त्री० [सं० शाक+इनि-ङीष्] १. शाक अर्थात् शाक-भाजी की खेती। २. वह भूमि जिसमें साक-भाजी बोई जाती हो। [सं० शाकिन-ङीष्] ३. एक पिशाची या देवी जो दुर्गा के गणों में समझी जाती है। डाइन। चुड़ैल।
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शाकिर  : वि० [अ०] १. शुक्र करने अर्थात् कृतज्ञता प्रकाशित करनेवाला। शुक्रगुजार। २. संतोषी।
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शाकी  : वि० [अ०] १. शिकायत करनेवाला। २. नालिश या फरियाद करनेवाला। ३. चुगल खोर।
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शाकुंतल, शाकुंतलेय  : वि० [सं० शकुंतला+अण्, शकुंतला,+ढक्-एय] शकुंतला संबंधी। पुं० शकुंतला के गर्भ से उत्पन्न राजा भरत।
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शाकुंतिक  : पुं० [सं० शकुंत+ठञ्-इक] बहेलिया।
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शाकुन  : वि० [सं० शकुन+अण्] १. पक्षी संबंधी। चिड़ियों का। २. शकुन संबंधी। पुं० १. बहेलिया। २. दे० ‘शकुन’।
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शाकुनि  : पुं० [सं० शाकुन+इन] बहेलिया।
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शाकुनी  : पुं० [सं० शाकुन+इन, दीर्घ, नलोप, शाकुनिन] १. मछली पकड़नेवाला। मछुआ। २. शकुन का विचार करनेवाला पंडित। ३. एक प्रकार का प्रेत।
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शाकुनेय  : वि० [सं० शकुन+ढय-एय] पक्षी संबंधी। शकुन संबंधी। पं० १. बकासुर दैत्य का एक नाम। २. एक प्रकार का छोटा उल्लू।
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शाकुल  : पुं०=शाकुलिक।
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शाकुलिक  : पुं० [सं० शकुल+ठक्—इक] १. मछलियों का झोल या समूह। २. मछुआ। मल्लाह।
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शाक्त  : वि० [सं० शक्ति+अण्] १. शक्ति संबंधी। बल संबंधी। २. दुर्गा संबंधी। पुं० वह जो तांत्रिक रीति से शक्ति अर्थात् देवी की पूजा करता हो। शक्ति का उपासक, अर्थात् वाम-मार्गी।
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शाक्तागम  : पुं० [सं० ष० त० स०] शाक्तों का आगम या शास्त्र अर्थात् तंत्रशास्त्र।
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शाक्तिक  : पुं० [सं० शक्ति+ठक्-इक] १. शक्ति का उपासक शाक्त। २. शक्ति (एक प्रकार का भाला) चलानेवाला। भाला बरदार।
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शाक्तीक  : वि० [सं० शक्ति+ईकक्] शाक्तिक।
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शाक्तेय  : पुं० [सं० शक्ति+ढक्-एय] शक्ति का उपासक। शाक्त।
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शाक्य  : पुं० [सं० शक+घञ्+यत्-ञ्य, वा०] १. गौतम बुद्ध के वंश का नाम। २. गौतम बुद्ध।
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शाक्यमुनि  : पुं० [सं० कर्म० स०] गौतमबुद्ध।
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शाक्य सिंह  : पुं० [सं० सप्त० त०] गौतमबुद्ध।
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शाक्र  : पुं० [सं० शक+अण्] शक्र (इंद्र) संबंधी। पुं० ज्येष्ठा नक्षत्र जिसके अधिपति इंद्र माने जाते हैं।
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शाक्री  : स्त्री० [सं० शक-ङीष्] १. दुर्गा। २. इन्द्राणी।
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शाक्वर  : पुं० [सं०√शक्+ष्वरप्-अण्] १. इन्द्र। २. इन्द्र का वज्र। ३. साँड़। ४. प्राचीन आर्यों का एक संस्कार।
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शाख  : पुं० [सं०√शाख् (व्याप्त होना)+अच्] कृतिका का पुत्र। कार्तिकेय। २. भाँग। ३. करंज। स्त्री० [सं० शाखा से फा०] १. वृक्ष की शाखा। डाली। मुहावरा— (किसी बात में) शाख निकालना=व्यर्थ दोष या भूल निकालना। २. किसी वस्तु संस्था आदि का वह अंश या विभाग जो उसके संबंध के अथवा उसकी तरह के कुछ काम करता हो। शाखा। ३. पशु का सींग। ४. शरीर का दूषित रक्त निकालने का सींग का उपकरण। सिंगी। ५. किसी बड़ी चीज के साथ लगा हुआ छोटा खंड या टुकड़ा। ६. नदी आदि की बड़ी धारा में से निकली हुई छोटी धारा। शाखा।
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शाखदार  : वि० [फा०] १. शाखाओं से युक्त। २. सींगवाला (पशु)।
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शाखसाना  : पुं० [फा०] १. झगड़ा। विवाद। २. तर्क-वितर्क। बहस। ३. किसी काम या बात में निकाला जानेवाला व्यर्थ का दोष। ४. किसी बात का कोई विशिष्ट अंग या पक्ष। ६. ईरान में फकीरों का एक फिरका जो अपने आपको घायल कर लेने की धमकी देकर लोगों से पैसे लेते हैं।
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शाखा  : स्त्री० [सं०] १. वृक्षों आदि के तने से इधर-उधर निकले हुए अंग। टहनी। डाल २. किसी मूल वस्तु से इसी रूप में या इसी प्रकार के निकले हुए अंग। जैसे—नदी की शाखा। मुहावरा— (किसी की) शाखाओं का वर्णन करना= (क) गुण, महत्व आदि का वर्णन करना। उदाहरण—शाखा बरनै रावरी द्विजवर ठौरे ठौर।—दीनदयाल। (ख) शाखोच्चार करना। ३. किसी मूल वस्तु के वे अंग जो दूर रहकर भी उसके अधीन और उसके अनुसार काम करता हो। जैसे—किसी दुकान या बैंक की शाखा। (ब्रांच, उक्त सभी अर्थों के लिए)। ४. वेद की संहिताओं के पाठ और क्रम-भेद। किसी विषय या सिद्धान्त के संबंध में एक ही तरह के विचार या मत रखनेवाले लोगों का वर्ग। वर्ग। संप्रदाय। (स्कूल)। ६. ज्ञान या मत से संबंध रखनेवाला किसी विषय की कई भिन्न-भिन्न विचार-प्रणालियों या सिद्धान्तों में से कोई एक (स्कूल)। ७. शरीर के हाथ और पैर नामक अंग। ८. हाथों या पैरों की उँगलियाँ। ९. दरवाजे की चौखट। १॰. घर का किसी ओर निकला हुआ कोना। ११. विभाग। हिस्सा। १२. किसी चीज का किसी प्रकार का अंग या अवयव।
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शाखा चंक्रमण  : पुं० [सं० ष० त०] १. एक डाल पर से दूसरी डाल पर कूद कर जाना। २. बिना किसी एक काम को पूरा किये दूसरे काम को हाथ में ले लेना। ३. थोड़ा-थोड़ा करके काम करना।
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शाखाचंद्र-न्याय  : पुं० [सं० मध्य० स०] उसी प्रकार मिथ्या बात को सत्य मानने का एक प्रकार का न्याय जैसे शाखा पर चंद्र का होना मान लिया जाय।
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शाखानगर  : पुं० [कर्म० स०] उप-नगर।
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शाखापित्त  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें हाथों-पैरों में जलन और सूजन होती है।
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शाखापुर  : पुं० [सं०] उप-नगर।
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शाखामृग  : पुं० [सं० ष० त०] १. बानर। बंदर। २. गिलहरी।
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शाखायित  : वि० [सं० शाखा+क्यङक्त] शाखाओं से युक्त।
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शाखारंड  : पुं० [सं०] ऐसा ब्राह्मण जो अपनी वैदिक शाखा को छोड़कर किसी दूसरी वैदिक शाखा का अध्ययन करें।
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शाखालंबी  : वि० [सं०] वृक्ष की शाखा में लटकनेवाला। पुं० बंदरों की तरह का एक जंतु जो प्रायः वृक्षों की शाखाओं में लटका रहता है, और अधिक चल-फिर नहीं सकता।
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शाखा-वात  : पुं० [सं० ब० स०] हाथ या पैर में होनेवाला वात रोग।
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शाखाशिफा  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] पेड़ की वह शाखा जिसने जड़ का रूप धारण कर लिया हो।
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शाखी (खिन्)  : वि० [सं० शाखा+इनि, दीर्, नलोप] १. (वृक्ष) जिसकी अनेक शाखाएँ हों। २. (संस्था) जिसके अधीनस्थ कार्यालय अनेक स्थानों पर हों। ३. किसी साखा से संबंधित। पुं० १. पेड़। वृक्ष। २. वेद। ३. वेद की किसी शाखा का अनुयायी। ४. पीलू वृक्ष। ५. तुर्किस्तान का निवासी।
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शाखीय  : वि० [सं० शाखा+छ-ईय] १. शाखा संबंधी। शाखा का। २. शाखा पर का।
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शाखोच्चार  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. विवाह के समय वर और वधू की ऊपर की पीढ़ियों का संबंधित पुरोहित द्वारा होनेवाला कथन। २. किसी के पूर्वजों के नाम ले-लेकर उन पर कलंक लगाना या उनके दोष बताना (व्यंग)।
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शाखोट  : पुं० [सं० ब० स०] सिहोर (पेड़)।
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शाख्य  : वि० [सं० शाखा+यत्]=शाखीय।
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शागिर्द  : पुं० [फा०] [भाव० शागिर्दगी] १. चेला। शिष्य। २. संबंध के विचार से किसी के द्वारा सिखाया-पढ़ाया हुआ व्यक्ति।
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शागिर्द-पेशा  : पुं० [फा० शागिर्द-पेशा] १. वह जो किसी के अधीन रहकर कोई काम सीखता हो। २. कर्मचारी। अहलकार। ३. खिदमतगार। ४. मकान के पास ही नौकर-चाकर के रहने के लिए बनाई हुई कोठरी।
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शागिर्दी  : स्त्री० [फा०] १. शागिर्द होने की अवस्था या भाव। शिष्यता। २. टहल या सेवा जो शागिर्द का कर्त्तव्य है।
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शाचिव  : पुं० [सं०] वि० १. प्रबल। २. शक्तिशाली। ३. प्रसिद्ध। ख्यात। ४. ऐसा जौ जिसका छिलका या भूसी कूटकर निकाल दी गई हो। २. जौ का दलिया।
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शाज  : वि० [अ०] १. दुर्लभ। २. अदभुत। अनोखा। पद-शाजो नादिर=कभी-कभी यदा-कदा।
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शाट  : पुं० [सं०√शट् (डोरा)+अण्] १. कपड़े का टुक़ड़ा। २. कमर में लपेटकर पहना जानेवाला कपड़ा। जैसे—धोती, तहमद आदि। ३. एक प्रकार की कुरती या फतही। ४. कोई ढीला-ढाला पहनावा। जैसे—चोगा। पुं० [अं] खेल में गेंद पर किया जानेवाला जोर का आघात।
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शाटक  : पुं० [सं०√शाट् (डोरा)+ण्वुल-अक] वस्त्र। कपड़ा।
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शाटिका  : स्त्री० [सं० शाटक+टाप्, इत्व] १. साड़ी। धोती। २. स्त्रियों की पहनने की धोती या साड़ी। ३. कचूर।
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शाटी  : स्त्री० [सं० शाट-ङीष्] १. साड़ी। धोती।
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शाठ्य  : पुं० [सं० शठ+ष्यञ्] =शठता।
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शाण  : पुं० [सं० शण+अण्] १. हथियारों की धार तेज करने का पत्थर या और कोई उपकरण। २. कसौटी नामक काला पत्थर। ३. चार माशे की एक पुरानी तौल। वि० १. सन के पौधे से संबंध रखनेवाला। २. सन के रेशों से बना हुआ। पुं० सन के रेशे का बना हुआ कपड़ा। भँगरा।
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शाणवास  : पुं० [सं० ब० स०] १. वह जो सन का बना हुआ वस्त्र पहनता हो। २. जैनों का एक अर्हत्।
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शाणाजीव  : पुं० [सं० शाण-आ√जीव्+अच्] सान लगानेवाला कारीगर।
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शाणिता  : भू० कृ० [सं० शाण+इतच्-टाप्] १. (शस्त्र) जिसे सान पर चढ़ाकर चोखा या तेज किया गया हो। २. कसौटी पर कसा हुआ।
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शाणी  : स्त्री० [सं० शाण+ङीष्] १. सन के रेशों से बना हुआ कपड़ा। भँगरा। २. फटा पुराना कपड़ा। फटी पोशाक। ३. वह छोटा कपड़ा जो यज्ञोपवीत के समय ब्रह्मचारी को पहनने के लिए दिया जाता है। ४. धार तेज करने की सान। ५. कसौटी नामक पत्थर। ६. छोटा खेमा। रावटी। ७. आरा। ८. चार माशे की तौल। ९. संकेत।
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शात  : भू० कृ० [सं०√शो (पतला करना)+क्त] १. सान पर चढ़ाकर तेज किया हुआ। २. पतला। बारीक। ३. दुर्बल। कमजोर। पुं० १. धतूरा। २. सुख। ३. आनन्द।
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शात-कुंभ  : पुं० [सं० शतकुभ+अण्] १. कचनार का वृक्ष। २. धतूरा। ३. कनेर। ४. सोना। स्वर्ण।
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शातन  : पुं० [सं०√शो (पतला करना)+णिच्, तङ-ल्युट-अन] [वि० शातनीय, भू० कृ० शातित] १. सान पर चढ़ाकर धार तेज करना। चोखा करना। २. पेड़ आदि को काटना या कटवाना। ३. नष्ट करना। ४. छीलना। तराशना। ५. लकड़ी रँदना।
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शात-पत्रक  : पुं० [सं० शतपत्र=अण्-कन्] चंद्रिका। चाँदनी। ज्योत्स्ना।
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शातला  : स्त्री०=सातला।
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शातिर  : पुं० [अ०] १. शतरंज का अच्छा खिलाड़ी। २. बहुत बड़ा चालाक और चालबाज। परम धूर्त। ३. दूत।
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शातोदर  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० शातोदरी] १. पतली कमरवाला। क्षीण-कटि। २. दुबला-पतला।
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शात्रव  : पुं० [सं० शत्रु+अण्] १. शत्रुत्व। शत्रुता। २. शत्रु। दुश्मन। ३. शत्रुओं का समूह। वि० १. शत्रु-संबंधी। २. दुश्मन का। ३. शत्रुतापूर्ण।
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शाद  : पुं० [सं०√शो (पतला करना)+द] १. गिरना या पड़ना। पतन। २. घास। ३. कीचड़।
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शाद-मान  : वि० [फा०] [भाव० शादमानी] प्रसन्न। खुश।
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शादाब  : वि० [फा०] [भाव० शादाबी] १. सिंचित। २. हराभरा। सरसब्ज।
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शादियाना  : पुं० [फा० शादियानः] १. खुशी या आनंद-मंगल के समय बजनेवाले बाजे। २. आन्नद-मंगल के समय गाया जानेवाला गीत। ३. वह धन जो किसान जमींदार को ब्याह के अवसर पर देते हैं। ४. बधावा। बधाई।
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शादी  : स्त्री० [फा०] १. खुशी। प्रसन्नता। आनन्द। २. आनन्द विशेषतः ब्याह के अवसर पर मनाया जानेवाला उत्सव। ३. विवाह ब्याह। क्रि० प्र०—करना।—रचना।—होना।
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शादी-गमी  : स्त्री० [सं० फा०+अ०] १. विवाह तथा मृत्यु। २. बोल-चाल में गृहस्थी में लगे रहनेवाले जन्म, मृत्यु विवाह आदि सुख-दुःख।
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शाद्वल  : वि० [सं० शाद्+डव्लच्] हरित तृम या दूब से युक्त। हरी घास से ढका हुआ। हरा-भरा। पुं० १. हरी घास। २. मरु द्वीप (दे०) ३. साँड़। ४. बैल।
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शान  : पुं० [सं० शान (तेज करना)+अच्] १. कसौटी। २. सान नामक उपकरण जिससे चाकू, छुरी आदि की धार तेज करते हैं। स्त्री० [अ०] १. तड़क-भड़कवाली सजावट। ठाट-बाट। जैसे—कल बड़ी शान से सवारी निकली थी। पद—शान—शौकत (देखें)। २. गर्व, महत्व, वैभव आदि सूचित करनेवाली चर्चा या स्थिति। जैसे—वह खूब शान से बातें करता (या रहता) है। ३. विशालता। जैसे— (क) उसके मकान की शान देखने योग्य है। (ख) वह सब खुदा की शान है। ४. मान-मर्यादा। प्रतिष्ठा। मान्यता। पद-किसी की शान में=किसी बड़े के संबंध में। किसी के प्रति या किसी के विषय में। जैसे—उसकी शान में, ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। मुहावरा—शान गवाँना=शान में बट्टा लगाना। शान मारी जाना=शान पर ऐसा आघात लगना कि वह नष्ट हो जाय। शान में बट्टा लगाना=शान या मान-मर्यादा में कमी या त्रुटि होना।
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शानदार  : वि० [अ० शान+फा० दार] [भाव० शानदारी] १. ऐश्वर्य वाला। २. तड़क-भड़कवाला। ३. उच्च कोटि का तथा प्रशंसनीय। जैसे—शानदार जीत।
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शानपाद  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. चन्दन रगड़ने का पत्थर। २. पारियात्र पर्वत।
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शान-शौकत  : स्त्री० [अ०] तड़क-भड़क। वैभव-सूचक। ठाठबाट या सजावट।
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शाना  : पुं० [फा० शान] १. कंघा। कंघी। २. कन्धा। मोढ़ा। मुहावरा-शाने से सान छिलना=बहुत अधिक भीड़ और रेल-पेल होना।
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शाप  : पुं० [सं०√शप् (निंदा करना)+घञ्] १. अनिष्ट कामना के उद्देश्य से किया जानेवाला कथन। २. उक्त की सूचक बात या वाक्य। विशेष—प्राचीन भारत में प्रायः कुपित या पीड़ित होने पर ऋषि, मुनि, ब्राह्मण आदि हाथ में जल लेकर किसी दुष्ट या पीड़क के सम्बन्ध में कोई अशुभ कामना प्रकट करते थे। २. धिक्कार। भर्त्सना। ३. ऐसी शपथ जिसके न पालन करने पर कोई अनिष्ट परिणाम कहा जाय। बुरी कसम।
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शापग्रस्त  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] जिसे किसी ने शाप दिया हो। शापित।
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शाप-ज्वर  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का ज्वर जो माता-पिता, गुरु आदि बड़ों के शाप के कारण होनेवाला कहा गया है।
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शापांबु  : पुं० [सं० मध्यम० स०] वह जल जो किसी को शाप देने के समय हाथ में लिया जाता था।
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शापास्त्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] शाप रूपी अस्त्र।
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शापित  : भू० कृ० [सं० शाप+इतच्] शाप से पीड़ित।
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शापोत्सर्ग  : पुं० [सं० ष० त० स०] किसी को शाप देने की क्रिया।
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शापोद्वार  : पुं० [सं० ष० त०] शाप या उसके प्रभाव से होनेवाला छुटकारा। शाप-मुक्ति।
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शाफरिक  : पुं० [सं० शबर+ठक्—इक] मछुआ। धीवर।
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शाबर  : वि० [सं० शबर+अञ्] दुष्ट। कपटी। पु० १. खराबी। बुराई। २. हानि। ३. लोध का पेड़। ४. ताँबा। ५. अँधेरा। अन्धकार। ६. एक प्रकार का चंदन।
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शाबर-तंत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक तन्त्र ग्रन्थ जो शिव का बनाया हुआ माना जाता है।
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शाबर-भाष्य  : पुं० [सं० तृ० त० स०] मीमांसा सूत्र पर प्रसिद्ध भाष्य या व्याख्या।
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शाबरी  : स्त्री० [सं० शाबर-ङीष्] १. शबरों की भाषा। २. एक प्रकार की प्राकृत भाषा।
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शाबल्य  : पुं० [सं० शबल+ष्यञ्] शबलता।
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शाबाश  : अव्य० [फा० शाद बाश=प्रसन्न रहो] एक प्रशंसा सूचक शब्द। खुश रहो। वाह वाह। धन्य हो। क्या कहना।
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शाबाशी  : स्त्री० [फा०] किसी कार्य के करने पर ‘शाबाश’ कहना। वाहवाही। साधुवाद। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।
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शाब्द  : वि० [शब्द+अण्] [स्त्री० शाब्दी] १. शब्द संबंधी। शब्द या शब्दों का। २. वाक्य के शब्दों में रहने या होनेवाला। ३. साहित्य में, शब्दों के कारण स्पष्ट रूप से कहा हुआ। कथित ‘अर्थ’ से भिन्न और उसका उल्टा। जैसे—शाब्दी विभावना या व्यंजना। ४. मौखिक। ५. शब्द करता हुआ। पुं० १. शब्द-शास्त्र का पंडित। २. वैयाकरण।
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शाब्दबोध  : पुं० [सं० कर्म० स०] शब्दों के प्रयोग द्वारा होनेवाले अर्थ का ज्ञान। वाक्य के तात्पर्य का ज्ञान।
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शाब्दिक  : वि० [सं० शब्द+ठक्—इक] १. शब्द संबंधी। शब्द का। २. शब्द करता हुआ। ३. शब्दों के रूप में होनेवाला। मौखिक। जैसे—शाब्दिक सहानुभूति। पुं० १. शब्दशास्त्र का ज्ञाता। २. वैयाकरण।
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शाब्दी  : वि० [सं०] १. शब्द संबंधी। २. केवल शब्दों में होनेवाला। जैसे—शाब्दी व्यंजना।
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शाब्दी-व्यंजना  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] व्यंजना शब्द-शक्ति का एक भेद, जिसमें व्यंजित होनेवाला अर्थ किसी विशेष शब्द तक ही सीमित रहता है, उससे आगे नहीं बढ़ता।
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शाम  : वि० [सं० शम+अण्] शम अर्थात् शांति संबंधी। पुं० [सं० शामन्] सामगान। वि०, पुं०=श्याम। वि० [फा०] साय। साँझ। मुहावरा—शाम फूलना=संध्या समय पश्चिम की ललाई का प्रकट होना। स्त्री० [देश०] लोहे, पीतल आदि धातु का बना हुआ वह छल्ला जो हाथ में ली जानेवाली छड़ियों, डंडों आदि के निचले भाग में अथवा औजारों के दस्ते में लकड़ी को घिसने या छीजने से बचाने के लिए लगाया जाता है। क्रि० प्र०—जड़ना।—लगाना। पुं० एक प्रसिद्ध प्राचीन देश जो अरब के उत्तर में है।
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शामक  : वि० [सं०√शम्+ण्वुल्-अक] १. शमन करनेवाला। २. (दवा) जो कष्ट, घबराहट या पीड़ा कम करें। (सेडीटिव)।
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शामकरण  : पुं०=श्यामकर्ण (घोड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शामक  : स्त्री० [अ०] १. बदकिस्मती। दुर्भाग्य। २. दुर्दशा करनेवाली विपत्ति। क्रि० प्र०—आना।—घेरना।—में पड़ना या फँसना। पद-शामत का मारा=जिसे शामत ने घेरा हो। मुहावरा-शामत सवार होना या सिर पर खेलना=शामत आना। दुर्दशा का समय आना।
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शामत-ज़दा  : वि० [अ० शामत+फा० जदा] १. जिस पर शामत या विपत्ति आई हो। विपदग्रस्त। २. कमबख्त। बदनसीब। अभागा।
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शामती  : वि० [अ० शामत+हिं० ई (प्रत्यय)] जिसकी शामत आई हो। जिसकी दुर्दशा होने को हो।
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शामन  : पुं० [सं० शमन+अण्] १. शमन। २. शांति। ३. मार डालना। हत्या।
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शामनी  : स्त्री० [सं० शामन-ङीष्] १. दक्षिण दिशा जिसके अधिपति यम माने गए हैं। २. शालि। ३. स्तब्धता। ४. अन्त। समाप्ति। ५. वध। हत्या।
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शामा  : पुं० [?] १. एक प्रकार का पौधा जिसकी पत्तियाँ और जड़ कोढ़ के रोगी के लिए लाभदायक मानी जाती है। वि० स्त्री० श्यामा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शामित्र  : स्त्री० [सं० शामितृ-अण्] १. यज्ञ में मांस पकाने के लिए जलाई हुई अग्नि। २. वह स्थान जहाँ उक्त आग जलाई जाती है।
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शामियाना  : पुं० [फा० शामियानः] एक प्रकार का तंबू जो बाँसों पर रस्सियों की सहायता से टाँगा जाता है। क्रि० प्र०-खड़ा करना।—गाड़ना। तानना।—लगाना।
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शामिल  : वि० [फा०] १. मिला हुआ। सम्मिलित। पद-शामिल हाल। २. इकट्ठा।
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शामिल-हाल  : वि० [फा० शामिल+अ० हाल] १. जो दुःख, सुख आदि अवस्थाओं में साथ रहे। साथी। शरीफ। २. (परिवार के लोग)। जो एक साथ मिलकर रहते हों।
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शामिलात  : स्त्री० [अ०] संयुक्त संपत्ति। साझी जायदाद।
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शामिलाती  : वि० [अ० शामिलात] किसी के साथ मिला हुआ। सम्मिलित।
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शामी  : वि० [श्याम (देश)] १. शाम देश सम्बन्धी। २. शाम देश में होनेवाला। जैसे—सामी कबाब। पुं० [देश] एक प्रकार का लोहे का छल्ला जो छड़ी या लकड़ी की मूठ आदि पर चढ़ाया जाता है। क्रि० प्र०—जड़ना।—लगाना।
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शामी-कबाब  : पुं० [हि० शामी+कबाब] टिकियाँ के रूप में तवे पर भूना हुआ मांस जिसमें मसाले आदि मिलाये गये होते हैं।
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शामूल  : पुं० [सं० शम+ऊलच्—अण्] ऊनी कपड़ा।
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शाम्य  : पुं० [सं० शाम+यत्] १. शम का धर्म या भाव। शमता। २. भाई-चारा। बन्धुत्व। २. शालि।
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शायक  : पुं० [सं०√शो+ण्वुल्—अक—युक्] १. बाण। तीर। शर। २. तलवार। वि० [अ० शाइक] १. शौक करने या रखनेवाला। शौकीन। २. अभिलाषी। इच्छुक।
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शायद  : अव्य० [सं० स्यात् से फा०] सन्देह और संभावना सूचक अव्यय। कदाचित्। संभव है कि। जैसे—शायद वह आज आएगा।
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शायर  : पुं० [अ०] [स्त्री० शायरा] १. वह जो उर्दू फारसी आदि के शेर आदि बनाता हो। २. काव्य-रचना करनेवाला।
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शायराना  : वि० [अ० शायर+फा० आना (प्रत्यय)] १. शायर संबंधी। २. शायरों जैसा। जैसे—शायराना तबीयत। ३. कवि सुलभ।
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शायरी  : स्त्री० [अ०] १. कविता करने का भाव या कार्य। २. कविता। काव्य।
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शायाँ  : वि० [फा०] अनुरूप। उपयुक्त।
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शाया  : वि० [फा०] १. प्रकट। जाहिर। २. छापकर प्रकट किया हुआ। प्रकाशित।
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शायिक  : वि० [सं० शय्या-ठक्+इक्] १. शय्या बनानेवाला। २. सेज सजानेवाला।
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शयिका  : स्त्री० [सं० शायिक-टाप्] १. शयन। २. निद्रा। ३. दे० ‘शयनिका’।
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शायित  : भू० कृ० [सं० शी (शयन करना)+णिच्-क्त] [स्त्री० शायिता] १. सुलाया या लेटाया हुआ। २. गिराया हुआ।
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शायिता  : स्त्री० [सं० शायिन्+तल्-टाप्] शयन। सोना।
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शायी  : वि० [सं०√शी (शयन करना)+णिनि] [स्त्री० शायिनी] शयन करनेवाला। सोनेवाला। जैसे—शेषशायी भगवान्।
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शारंग  : पुं०=सारंग।
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शारंगक  : पुं० [सं० शारंग+कन्] एक प्रकार का पक्षी।
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शारंग-धनुष  : पुं० [सं० ब० स०] १. सारंग नामक धनुष से सुशोभित अर्थात् विष्णु। २. श्रीकृष्ण।
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शारंगपाणि  : पुं० [सं० ब० स०] १. हाथ में सारंग नामक धनुष धारण करनेवाले विष्णु। २. श्रीकृष्ण। ३. रामचन्द्र।
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शारंग-पानी  : पुं०=शारंगपाणि।
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शारंग-भृत्  : पुं० [सं० शारंग√भृ (रखना)+क्विप्-तुक्] १. सारंग धनुष को धारण करने वाले विष्णु। २. श्रीकृष्ण।
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शारंगवत  : पुं० [सं० शारंग+मतुप-म=व] कुरु वर्ष नामक देश।
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शारंगष्टा  : स्त्री० [सं० शारंग, स्था (ठहरना)+क-टाप्] १. काक जंघा। २. मकोय। ३. गुंजा। घुँघची।
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शारंगी  : स्त्री० [सं० शारंग-ङीष्] सारंगी नामक बाजा।
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शार  : वि० [सं०√शृ+घञ्] १. चितकबरा। कई रंगों का। २. पीला। ३. नीले-पीले और हरे रंग का। पुं० १. एक प्रकार का पासा। २. वायु। हवा। ३. हिंसा। स्त्री० कुश। कुशा।
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शारअ  : पुं० [अ० शारिअ] १. बड़ी सड़क। राजमार्ग। २. लोगों को धर्म का मार्ग बतलानेवाला। धर्मशास्त्री।
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शारक  : स्त्री० [फा० मिलाओ, सं० शारिका] मैना।
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शारणिक  : वि० [सं० शरण+ठक्-इक] १. शरण देनेवाला। २. शरण चाहनेवाला। शरणार्थी।
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शारद  : वि० [सं० शरद्+अण्] १. शरद संबंधी। २. शरद ऋतु में होनेवाला। ३. नवीन। ४. वार्षिक। ५. शालीन। पुं० १. वर्ष। साल। २. बादल। मेघ। ३. सफेद कमल। ४. मौलसिरी। ५. काँस नामक तृण। ६. हरी मूँग। ७. एक प्रकार का रोग।
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शारदा  : स्त्री० [सं० शारद-टाप्] १. सरस्वती। २. भारत की एक प्राचीन लिपि जो दसवें शताब्दी के लगभग पंजाब और कश्मीर में प्रचलित हुई थी। आज-कल की कश्मीरी, गुरुमुखी और टाकरी लिपियाँ इसी से निकली हैं। ३. एक प्रकार की वीणा। ४. दुर्गा। ५. ब्राह्मी। ६. अनंतमूल।
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शारदाभरण  : पुं० [सं० ब० स०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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शारदिक  : पुं० [सं० शरद्+ठञ्-इक] १. शरद् ऋतु में होनेवाला ज्वर। २. शरद् की धूप। ३. श्राद्ध। ४. बीमारी। रोग।
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शारदी  : स्त्री० [सं० शारद-ङीष्] १. जलपीपल। २. छतिवन। सप्तपर्णी। ३. आश्विन मास की पूर्णिमा। पुं० [सं० शारदिन्] १. अपराजिता। २. सफेद कमल। ३. अन्न, फल आदि। वि० शरद काल का।
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शारदीय  : वि० [सं० शरद+छण्-ईय] [स्त्री० शारदीय] शरद्काल का। शरद ऋतु संबंधी। जैसे—शरदीय नवरात्र।
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शारदीय महापूजा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] शरद्काल में होनेवाली दुर्गा की पूजा। नवरात्रि की दुर्गापूजा।
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शारद्य  : वि० [सं० शारद्+यत्] शरद् काल का। शरद् ऋतु संबंधी।
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शारि  : पुं० [सं०√शृ (हिंसा करना)+इञ्] १. पासा, शतरंज आदि खेलने की गोटी। मोहरा। चौसर, शतरंज आदि की विसात। कपट। छल। ४. मैना पक्षी। ५. एक प्रकार के गीत।
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शारिका  : स्त्री० [सं० शारि+कन्-टाप्] १. मैना चिड़िया। २. चौसर शतरंज आदि के खेल। ३. सारंगी बजाने की कमानी। वीणा, सारंगी आदि कोई बाजा। ५. दुर्गा।
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शारिका कवच  : पुं० [सं० ष० त०] दुर्गा का एक कवच जो रुद्रयामल तन्त्र में है।
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शारित  : वि० [सं० शारि+इतच्] चित्र-विचित्र। रंग-बिरंगा।
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शारिपट्ट  : पुं० [सं० ष० त० स०] शतरंज, चौसर आदि खेलने की बिसात।
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शारिफल  : पुं० [सं० ष० त० स०]=शारिपट्ट।
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शारिवा  : स्त्री० [सं० शारि√वन् (पृथक् करना)+ड-टाप्]अनंतमूल। सालसा। दुरालभा। २. जवासा। धमासा।
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शारी  : स्त्री० [सं० शारि-ङीष्] १. कुश नामक घास। २. एक प्रकार का पक्षी। २. मूँज। पुं० १. गोटी। मोहरा। २. गेंद।
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शारीर  : वि० [सं० शरीर+अण्] १. शरीर संबंधी। शरीर का। २. शरीर से उत्पन्न। पुं० १. जीवात्मा। २. साँड़। ३. गृह। मल।
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शारीरक  : वि० [सं० शरीर+कन्-अण्] १. शरीर से उत्पन्न। २. शरीर संबंधी। ३. शरीर में स्थित। पुं० १. आत्मा। २. आत्मा संबंधी। अन्वेषण।
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शारीरक भाष्य  : पुं० [सं० मध्य०, स०] शंकराचार्य का किया हुआ ब्रह्मसूत्र का भाष्य।
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शारीरक-सूत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] वेदव्यास कृत वेदांत सूत्र।
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शारीरिकीय  : वि० [सं० शारीरिक+छ-ईय]=शारीरिक।
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शारीरतत्त्व  : पुं० [सं० शरीर-तत्त्व, ष० त० स०+अण्] शरीर विज्ञान।
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शारीर विज्ञान (शास्त्र)  : पुं० [सं० ब० स०] वह शास्त्र जिसमें जीवों की शारीरिक रचना और उनके बाहरी तथा भीतरी सभी अंगों, अस्थियों, नाड़ियों और उनके कार्यों आदि का विवेचन होता है। (एनाटमी)।
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शारीर-विद्या  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०]=शरीर विज्ञान।
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शारीरिविधान  : पुं० [सं० ब० स०] १. वह शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि जीव किस प्रकार से उत्पन्न होते और बढ़ते है। २. शारीर विज्ञान।
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शारीरव्रण  : पुं० [सं० ब० स०] वह रोग जो वात, पित्त, कफ और रक्त के विकार से उत्पन्न हो।
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शारीर शास्त्र  : पुं० [सं०] आधुनिक विज्ञान की वह शाखा जिसमें प्राणियों और वनस्पतियों के अंगों और उपांगों का व्यवच्छेदन करके उनकी क्रियाओं आदि का अध्ययन किया जाता है (एनाटमी)।
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शारीरिक  : वि० [सं० शरीर+ठक्-इक] १. शरीर-संबंधी। २. भौतिक।
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शारुक  : वि० [सं०√शृ (हिंसा करना)+उकञ्] हत्या का नाश करनेवाला।
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शार्ग  : पुं० [सं० शुंग+अण्] १. धनुष। कमान। २. विष्णु के हाथ में रहनेवाला धनुष। ३. अदरक। आदी। ४. एक प्रकार का साग। ५. धनुर्धारी। वि० १. श्रृंग-सम्बन्धी। श्रृंग का। २. सींग का बना हुआ।
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शार्गंक  : पुं० [सं० शार्ग+कन्] पक्षी। चिड़िया।
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शार्गंधन्वा (न्वन्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. श्रीकृष्ण। ३. वह जो धनुष चलाता हो। कमनैत।
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शार्गधर  : पु० [सं० ष० त० स०] १. विष्णु। २. श्रीकृष्ण।
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शार्गपाणि  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. श्रीकृष्ण। ३. वह जो धनुष चलाता हो। कमनैत।
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शार्गंभृत्  : पुं० [सं० शार्ग्र√भू+क्विप्—तुक्] विष्णु।
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शार्गवैदिक  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का स्थावर विष।
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शार्गेष्टा  : स्त्री० [सं० शार्ग√स्था (ठहरना)+क-टाप्] १. काक जंघा। २. घुँघची।
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शार्गेष्ठा  : स्त्री० [सं०] १. महाकरंज। २. लता करंज।
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शार्गांयुध  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. श्रीकृष्ण। ३. धनुर्धारी। कमनैत।
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शार्गी (ग्ङिन्)  : पुं० [सं० शार्ग्ङ+इनि] १. विष्णु। २. श्रीकृष्ण। ३. धनुर्धर। कमनैत।
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शार्क  : पुं० [सं० शृ+कन्—अण्] चीनी। शर्करा। स्त्री० [अं०] एक प्रकार की बड़ी हिंसक मछली जो समुद्रों में रहती है।
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शार्कक  : पुं० [सं० शार्क+कन्] १. दूध का फेन। दुग्धफेन। २. चीनी का डला। ३. मांस का टुकड़ा।
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शार्कर  : पुं० [सं० शर्करा+अण्] १. दूध का फेन। २. लोध। ३. कंकरीली या पथरीली जगह। वि० १. जिसमें कंकड़, पत्थर आदि हों। २. शर्करा या चीनी से बना हुआ।
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शार्करक  : पुं० [सं० शार्कर+कन्] १. वह स्थान जो कंकड़ों और पत्थरों से भरा हो। कंकरीली-पथरीली जगह। २. चीनी बनाने का स्थान। खंडसार। वि० कंकड़ पत्थर आदि से भरा हुआ।
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शार्करमय  : पुं० [सं० शार्कर-मयट्] प्राचीन काल की एक प्रकार की शराब जो चीनी और जौ से बनाई जाती थी।
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शार्करी-धान  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन देश जो उत्तर दिशा में था।
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शार्करीय  : वि० [सं० शर्करा+छण्-ईय] शार्करीक।
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शार्दूल  : पुं० [सं०√शृ (हिंसा करना)+उलच्-दुकच्, निपा० सिद्ध] १. चीता। बाघ। २. केसरी। सिंह। ३. राक्षस। ४. शरभ नामक जंतु। ५. एक प्रकार का पक्षी। ६. यजुर्वेद की एक शाखा। ७. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। ८. दोहे का एक भेद जिसमें ६ गुरु और ३६ लघु मात्राएं होती हैं। वि० सर्वश्रेष्ठ।
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शार्दुल-कंद  : पुं० [सं० ब० स०] जंगली प्याज।
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शार्दूलज  : पुं० [सं० शार्दूल√जन् (उत्पन्न करना)+ड] व्याघ्र-नख नामक गंध-द्रव्य। वि० शार्दूल से उत्पन्न।
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शार्दूल-ललित  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का वर्ण वृत्त जिसका प्रत्येक पद अठारह अक्षरों का होता है और उनका क्रम इस प्रकार है-म, स, ज, स, त, स।
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शार्दूल-लसित  : पुं० [सं० ब० स०]=शार्दूलललित।
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शार्दूल-वाहन  : पुं० [सं० ब० स०] एक जिन (जैन)।
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शार्दूल-विक्रीडित  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसका प्रत्येक पद १९ अक्षरों का होता है। उनका क्रम इस प्रकार है-म, स, ज, स, त, त, एक गुरु।
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शार्यात  : पुं० [सं० शर्यात्य+अण्] १. वैदिक काल के एक प्राचीन राजर्षि। २. एक प्रकार का साग।
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शार्वर  : पुं० [सं० शर्वर+अण्] बहुत अधिक अंधकार।
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शार्वरिक  : वि० [सं० शर्वरी+ठक्-इक] रात्रि संबंधी। रात का।
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शार्वरी  : स्त्री० [सं० शर्वरी+अण्-ङीष्] १. रात। २. लोच। पुं० [सं०शार्वरिन्] बृहस्पति के साठ संवत्सरों में से ३४वाँ संवत्सर।
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शालंकटांकह  : पुं० [सं०] सुकेशी राक्षस का एक नाम जो वामन पुराण के अनुसार विद्युतकेशी का पुत्र था।
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शालंकायन  : पुं० [सं० शलंक+फक्-आयन] १. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम। २. शिव का नंदी।
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शालंकायनि  : पुं० [सं० शालंकायन+ङीप्] एक प्राचीन गोत्र प्रवर्तक ऋषि।
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शालंकि  : पुं० [सं० शलंक+इञ्] पाणिनि।
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शालंकी  : स्त्री० [सं० शालंक-ङीष्] १. गुड़िया। २. कठ-पुतली।
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शाल  : पुं० [सं०√शल् (प्रशस्त होना)+घञ्] १. साखू (वृक्ष)। २. पेड़। वृक्ष। ३. एक प्राचीन नद। ४. एक प्रकार की मछली। ५. धूना। राल। ६. राजा शालिवाहन का एक नाम। स्त्री० [फा०] ओढ़ने की एक प्रकार की गरम चादर।
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शालक  : पुं० [सं० शाल+कन्] १. पटुआ। २. मसखरा। हँसोड़।
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शाल-कल्याणी  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] एक प्रकार का साग जो चरक के अनुसार भारी, रूखा, मधुर शीतवीर्य और पुरीष-भेदक होता है।
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शालग्राम  : पुं० [सं० ब० स०] गोलाकार बटिया के रूप में गंडक नदी में मिलनेवाले पत्थर के टुकड़े जिनकी पूजा की जाती है।
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शालज  : पुं० [सं० शाल√जन् (उत्पन्न करना)+ड] एक प्रकार की मछली। वि० शाल (शाखू) से उत्पन्न या बना हुआ।
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शाल-दोज  : पुं० [फा०] वह जो शाल के किनारे पर बेल-बूटे आदि बनाता हो।
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शाल-निर्यास  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. राल। घूना। २. शाल या सर्ज नामक वृक्ष।
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शाल-पत्रा  : स्त्री० [सं० ब० स०] शालपर्णी।
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शालपर्णिका  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. मुरा नामक गंध द्रव्य। २. एकांगी नामक वनस्पति।
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शालपर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०] सरिवन नामक वृक्ष।
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शालबाफ  : पुं० [फा०] [भाव० शालबाफी] १. शाल या दुशाला बुननेवाला। २. लाल रंग का एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।
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शालबाफी  : स्त्री० [फा०] १. दुशाला बुनने का काम। शालबाफ का काम। २. शाल बुनने की मजदूरी।
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शाल-भंजिका  : स्त्री० [सं० शाला√भंज् (बनाना)+ण्वुल्-अक-टाप्, इत्व] १. कठ-पुतली। २. गुड़िया। पुतली। ३. प्राचीन भारत में राज-दरबार में नाचनेवाली स्त्री। ४. रंडी। वेश्या।
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शालभंजी  : स्त्री० [सं०]=शाल भंजिका।
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शालभ  : पुं० [सं० शलभ+अण्] बिना सोचे-विचारे उसी प्रकार आपत्ति में कूद पड़ना जिस प्रकार पतंगा आग या दीपक पर कूद पड़ता है। वि० शलभ संबंधी। शलभ का।
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शालमत्स्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] शिलिंद नामक मछली।
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शाल-युग्म  : पुं० [सं० ष० त० स०] दोनों प्रकार के शाल अर्थात् सर्जवृक्ष और विजय सार।
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शालरस  : पुं० [सं० ष० तस०] राल। धूना।
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शालव  : पुं० [सं० शाल√वल् (जाना आदि)+ड०] लोध्र। लोध।
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शालवानक  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्राचीन देश। २. उक्त देश का निवासी।
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शालवाहन  : पुं० [सं० ब० स०]=शालिवाहन।
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शालसार  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. हींग। हिंगु। २. धूना। राल। ३. शाल या साखू नामक वृक्ष। ४. पेड़। वृक्ष।
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शाला  : स्त्री० [सं०√शो (पतला करना)+कालन्-टाप्] १. घर। गृह। मकान। २. किसी विशिष्ट कार्य के लिए बना हुआ मकान या स्थान। जैसे—गोशाला, नृत्यशाला, पाठशाला। ३. पेड़ की डाल। शाखा। ४. इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के योग से बननेवाले सोलह प्रकार के वृत्तों में से एक प्रकार का वृत्त।
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शालाक  : पुं० [सं० शाला+कन्] १. झाड-झंखाड़। २. झाड़-झंखाड़ से उत्पन्न होनेवाली आग।
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शालाकी (किन्)  : पुं० [सं० शालाक+इनि] १. शल्य चिकित्सा करनेवाला। जर्राह। २. नापित। हज्जाम। ३. भाला-बरदार।
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शालाक्य  : पुं० [सं० शलाक+ण्य] १. आयुर्वेद की एक शाखा जिसमें कान, आँख, नाक, जीभ, मुँह आदि रोगों की चिकित्सा सम्बन्धी विवरण हैं। २. वह जो आँख, नाक, मुँह आदि के रोगों की चिकित्सा करता हो।
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शालाजिर  : पुं० [सं० ब० स०] मिट्टी की तश्तरी, पुरवा, प्याला आदि बरतन।
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शालातुरीय  : वि० [सं० शालातुर+छ—ईय] शालातुर प्रदेश सम्बन्धी। पुं० १. शालातुर का निवासी। २. पाणिनी।
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शाला-मृग  : पुं० [सं० सप्त० स०] १. गीदड़। श्रृंगाल। २. कुत्ता।
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शालार  : पुं० [सं० शाला√ऋ (गमनादि)+अण्] १. सीढी। २. पिंजरा। ३. दीवार में लगी हुई खूँटी। ४. हाथी का नख।
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शाला-वृक  : पुं० [सं० सप्त० त०] १. कुत्ता। २. बन्दर। ३. बिल्ली। ४. हिरन। ५. गीदड़। श्रृंगाल। ६. लोमड़ी।
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शालि  : पुं० [सं०√शल्+इञ्] १. हेमंत ऋतु में होनेवाला धान। अगहन। २. चावल। विशेषतः जड़हन धान का चावल। ३. बासमती चावल। ४. काला जीरा। ५. गन्ना। ६. गन्ध-विलाव। ७. एक प्रकार का यज्ञ।
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शालिक  : पुं० [सं० शालि+कन्] १. जुलाहा। २. कारीगरों की बस्ती। ३. एक तरह का कर।
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शालिका  : स्त्री० [सं० शालि√कै (होना)+क—टाप्] १. बिदारी कंद। २. शालपर्णी। ३. घर। मकान। ४. मैना पक्षी।
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शालि-धान  : पुं० [सं० शालि धान्य] बासमती चावल।
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शालिनी  : स्त्री० [सं० सालि√नी (ढोना)+ड, ङीष्] १. गृहस्वामिनी। २. ग्यारह अक्षरों का एक वृत्त जिसमें क्रम से १ यगण, २ तगण और अंत में २ गुरु होते हैं। ३. पद्यकंद। भसींड। ४. मेथी।
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शालिपर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. मेदा नामक अष्टवर्गीय ओषधि। २. पिठवन। ३. बन-उरदी। ३. सरिवन।
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शालि-वाहन  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रसिद्ध भारतीय सम्राट जिन्होंने शक संवत् चलाया था।
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शालिहोत्र  : पुं० [सं० शालि√हू (देन-लेन)+ष्ट्रन्] १. घोडा। २. अश्व चिकित्सा। ३. घोड़ों और दूसरे पशुओं आदि की चिकित्सा का शास्त्र। पशु-चिकित्सा। (वेटेरिनरी)।
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शालिहोत्री  : पुं० [सं० शालहोत्र+इनि (प्रत्यय)] १. घोड़ों की चिकित्सा करनेवाला। २. पशु चिकित्सक।
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शाली  : स्त्री० [सं० शाल+अच्—ङीष्] १. काला जीरा। २. शालपर्णी। ३. मेथी। ४. दुरालभा। प्रत्य० [सं० शालिन्] [स्त्री० शालिनी] एक प्रत्यय जो संज्ञा शब्दों के अंत में लगकर युक्त, वाला आदि का अर्थ देता है। जैसे—ऐश्वर्यशाली, भाग्यशाली, शक्तिशाली।
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शालीन  : वि० [सं० शाला+ख-ईन] [भाव० शालीनता] १. लज्जाशील। हयावाला। २. विनीत। नम्र। ३. अच्छे आचरणवाला। ४. सादृश्य। समान। ५. शाला-संबंधी।
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शालीनता  : स्त्री० [सं० शालीन+तल्—टाप्] शालीन होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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शालीनत्व  : पुं० [सं० शालीन+त्व] शालीनता।
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शालीय  : वि० [सं० शाला+छ-ईय] शाला अर्थात् घर सम्बन्धी।
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शालु  : पुं० [सं० शाल+उण्] १. भसींड। कमलकंद। २. चोरक नामक गन्ध द्रव्य। ३. कसैली चीज। ४. मेढ़क। ५. एक प्रकार का फल।
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शालुक  : पुं० [सं० शल+उकञ्] १. भसींड़। पद्यकंद। २. जायफल।
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शालूक  : पुं० [सं० शाल+ऊकञ्] १. जायफल। जातीफल। २. मेंढ़क। ३. भसींड़। ४. एक प्रकार का रोग।
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शालेय  : पुं० [सं० शालि+ठक्—एय] १. शालि अर्थात् धान का खेत। २. सौंफ। ३. मूली। वि० १. शाल सम्बन्धी। शाल का। २. शाला अर्थात् घर सम्बन्धी।
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शाल्मलि  : पुं० [सं० शाल+मलिच्—ङीष् वा] १. सेमल का पेड़। २. पृथ्वी के सात खण्डों में से एक जिसकी गिनती नरकों में होती है। ३. पुराणानुसार एक द्वीप।
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शाल्मली  : स्त्री० [सं० शाल्मल—ङीष्] १. शाल्मलि। सेमर। २. पाताल की एक नदी। पुं० गरुड़।
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शाल्मली-कंद  : पुं० [सं० ष० त० स०] शाल्मलि की जड़ जो वैद्यक में ओषधि के रूप में व्यवहृत होती है।
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शाल्मली-फलक  : पुं० [सं० शाल्मली-फल्+कन्] एक तरह की लकड़ी जिसपर रगड़कर शल्य तेज किये जाते थे (सुश्रुत)।
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शाल्मली वेष्ट  : पुं० [सं०] सेमल के वृक्ष का गोंद। मोचरस।
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शाल्व  : पुं० [सं० शाल+व] १. एक प्राचीन देश। २. उक्त देश का राजा या निवासी।
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शाव  : पुं० [सं०√शव् (गमनादि)+घञ्] १. बच्चा विशेषतः पशुओं आदि का बच्चा। शावक। २. मृत शरीर। शव। ३. घर में किसी के मरने पर होनेवाला अशौच। सूतक। ४. मरघट। मसान। ५. भूरा रंग। वि० १. शव संबंधी। शव का। २. मृत्यु के फलस्वरूप होनेवाला।
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शावक  : पुं० [सं० शाव+कन्] १. किसी पक्षी का बच्चा। २. अपराध। कसूर। ३. लोध का पेड़।
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शावर  : पुं० [सं० शव+णिच्-अरन्] १. पाप। गुनाह। २. अपराध। कसूर। ३. लोघ का पेड़। वि० पुं०=शाबर।
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शावरक  : पुं० [सं० शावर+कन्] पठानी लोध।
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शावरी  : स्त्री० [सं० शावर+अण्-ङीष्] कौंछ। केवाँच।
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शाश्वत  : वि० [सं० शश्वत+अण्] जो सदा से चला आ रहा हो और सदा चला-चलने को हो। नित्य (एटर्नल)। पुं० १. स्वर्ग। २. अंतरिक्ष। ३. शिव। ४. वेदव्यास।
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शाश्वतवाद  : पुं० [सं० ष० त] वह दार्शनिक सिद्धांत कि आत्मा एक रूप, चिरन्तन और नित्य है, उनका न तो कभी नाश होता है और न कभी उसमें कोई विकार होता है। ‘उच्छेदवाद’ का विपर्याय।
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शाश्वतिक  : वि० [सं० शाश्वत+ठक्—इक]=शाश्वत।
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शाश्वती  : स्त्री० [सं० शाश्वत-ङीष्] पृथ्वी।
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शाष्कुल  : वि० [सं० शष्कुल+अण्] मांस-मछली खानेवाला।
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शास  : पुं० [सं०√शास् (अनुशासन करना)+घञ्] १. अनुशासन। २. प्रशंसा। स्तुति।
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शासक  : पुं० [सं०√शास् (अनुशासन करना)+ण्वुल्—अक] [स्त्री० शासिका] १. वह जो शासन करता हो। शासन कर्ता। २. किसी शासनिक इकाई का प्रधान अधिकारी। (हाकिम)।
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शासन  : पुं० [सं०√शास्+ल्युट-अन] १. ज्ञान-वृद्धि के लिए किसी को कुछ बतलाना, समझाना या सिखाना। २. किसी को इस प्रकार अपने अधिकार, नियंत्रण या वश में रखना कि वह आज्ञा, नियम आदि के विरुद्ध आचरण या व्यवहार न कर सके। ३. किसी देश, प्रान्त या स्थान पर नियंत्रण रखते हुए उसकी ऐसी व्यवस्था करना कि किसी प्रकार की गड़बड़ी या अराजकता न होने पाए। हुकूमत। सरकार (गवर्नमेंट)। ५. वह प्रमुख अधिकारी और उसके मुख्य सहायकों का वर्ग जो उक्त प्रकार की व्यवस्था करते हों। हुकूमत। (गवर्नमेंट) ६. आज्ञा। आदेश। हुकुम। ७. वह आज्ञा पत्र जिसमें किसी को प्रबंध या व्यवस्था करने का अधिकार या आदेश दिया गया हो। ८. कोई ऐसा पत्र जिस पर कोई निश्चय, प्रतिज्ञा या समझौता लिखा गया हो। जैसे—पट्टा, शर्तनामा आदि। ९. राजा या राज्य के द्वारा निर्वाह आदि के लिए दान की हुई भूमि। १॰. इन्द्रिय-निग्रह। ११. शास्त्र। १२. दंड। सजा। १३. कायदा। नियम। वि० दंड देने या नष्ट करनेवाला (यौ० के अन्त में) जैसे— (क) पाक शासन=पाक नामक असुर को मारनेवाला, अर्थात् इन्द्र। (ख) स्मर शासन=कामदेव का नाश करनेवाले, अर्थात् शिव।
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शासन-कर  : पुं० [सं०] गुप्त काल में वह अधिकारी जो राजा या शासन का आदेश लिखकर निम्न अधिकारियों के पास भेजता था।
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शासन-कर्ता (तृ)  : पुं० [सं० ष० त० स०] वह जो शासन करता हो। शासक।
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शासन-तंत्र  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. वे सिद्धान्त जिनके अनुसार शासन होता या किया जाता हो। २. शासन करने के लिए होनेवाली व्यवस्था।
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शासन-धर  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. शासक। २. राजदूत।
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शासन-निकाय  : पुं० [सं०] वह समिति या निकाय जो किसी संस्था की प्रशासनिक व्यवस्था करने के लिए और सब प्रकार से उस पर नियंत्रण रखने के लिए नियुक्त किया गया हो। शासी-निकाय। (गवर्निग बाड़ी)।
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शासन-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] सरकारी हुकुम—नामा। राज्यादेश।
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शासन-प्रणाली  : स्त्री० [सं० ष० त०] किसी देश या राज्य पर शासन करने की कोई विशिष्ट प्रणाली या ढंग। शासन-तंत्र।
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शासन-वाहक  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. वह जो राजा की आज्ञा लोगों तक पहुँचाता हो। २. राजदूत।
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शासन-शिला  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह शिला जिस पर कोई राजाज्ञा लिखी हो। वह पत्थर जिस पर किसी शासक की घोषणा, लेख आदि अंकित हो।
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शासनहर  : पुं० [सं० ष० त०]=शासन-वाहक।
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शासनहारी (रिन)  : पुं० [सं० शासनहारिन्]=शासन वाहक।
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शासना  : स्त्री० [सं०] दंड। सजा।
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शासनिक  : वि० [सं० शासन+ठक्-इक] १. शासन से संबंध रखनेवाला। २. सरकारी। राजकीय। ३. शासन-विभाग का। जैसे—शासनिक अधिकारी।
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शासनी  : स्त्री० [सं० शासन-ङीष्] धर्मोपदेश करनेवाली स्त्री।
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शासनीय  : वि० [सं०√शास्+अनीयर्] १. जिस पर शासन करना उचित हो। २. जिस पर शासन किया जा सके। ३. दंड पाने के योग्य। दंडनीय। ४. जिसमें सुधार करना हो या किया जा सके।
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शासित  : भू० कृ० [सं०√शास् (शासन करना)+क्त] [स्त्री० शासिता] १. (प्रदेश) जो शासन के अधीन हो। २. (व्यक्ति) जो नियन्त्रण में हो। ३. जिसे दंड दिया गया हो। दंडित। पुं० १. प्रजा। २. निग्रह। संयम।
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शासी (सिन्)  : वि० [सं०√शस् (शासन करना)+णिनि] शासन करनेवाला।
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शासी निकाय  : पुं० [सं० ष० त०] राज्य, संस्था आदि की व्यवस्था और शासन (प्रबंध) करनेवाले लोगों का वर्ग, निकाय या संघ। शासन-निकाय। (गवर्निग बॉडी)।
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शास्ता (स्तृ)  : पुं० [सं०√शास् (शासन करना)+तृच्] १. कोई ऐसा व्यक्ति जिसे किसी प्रकार का शासन करने का पूर्ण अधिकार हो। २. अधिनायक। तानाशाह। शासक। ३. राजा। ४. पिता। बाप। ५. गुरु। शिक्षक। ६. निरंकुश शासक।
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शास्ति  : स्त्री० [सं० शास्+ति० बाहु] १. शासन दंड। सजा। २. कोई ऐसी दंडात्मक क्रिया या कार्रवाई जो किसी पूर्ण स्वतन्त्र व्यक्ति राज्य संस्था आदि के साथ उसे ठीक रास्ते पर लाने के लिए की जाय। अनुशास्ति (सैन्कशन)। ४. अर्थदण्ड या जुरमाने से भिन्न वह अल्प धन जो अनुचित या नियम विरुद्ध कार्य करनेवाले से वसूल किया जाता हो। (पेनैलिटी)
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शास्त्र  : पुं० [सं०√शास्+ष्ट्रन्] [वि० शास्त्रीय] १. कोई ऐसी आज्ञा या आदेश जो किसी को नियम या विधान के अनुसार आचरण या व्यवहार करने के संबंध में दिया जाय। २. कोई ऐसा धर्मग्रन्थ जिसमें आचार, नीति आदि के नियमों का विधान किया गया हो और जिसे लोग पवित्र तथा पूज्य मानते हों। विशेष—हिन्दुओं में प्राचीन ऋषि-मुनियों के बनाये हुए बहुत से ऐसे ग्रन्थ जो लोक में ‘शास्त्र’ के नाम से प्रसिद्ध और मान्य हैं। पर मुख्य रूप से शास्त्र चौदह कहे गये हैं यथा—चार वेद, छः वेदांग, पुराण मात्र, आन्वीक्षिकी, मीमासा और स्मृति। इनके सिवा शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष और अलंकार शास्त्री की गणना भी शास्त्रों में होती है। ३. किसी कला, विद्या या विशिष्ट विषय से संबंध रखनेवाला ऐसा विवेचन अथवा विवेचनात्मक ग्रन्थ जिसमें उसके सभी अंगो, उपांगों प्रक्रियाओं आदि का वैज्ञानिक ढंग से वर्णन और विश्लेषण हो (सायन्स) विशेष—‘विज्ञान’ और ‘शास्त्र’ में मुख्य अन्तर यह है कि विज्ञान तो उन तथ्यों पर आश्रित होता जो हमें अपने अनुभवों निरीक्षणों आदि के आधार पर प्राप्त होते हैं, परन्तु उन आध्यात्मिक तथ्यों का विवेचनात्मक स्वरूप है जो हमें उक्त प्रकार के अनुभवों निरीक्षणों आदि का अनुशीलन या मनन करने पर विदित होते हैं। इसके अतिरिक्त विज्ञान का क्षेत्र तो वही तक परिमित रहता है, जहाँ तक वस्तुओं का संबंध प्रकृति से होता है, परन्तु शास्त्र का क्षेत्र इसके उपरांत और आगे विस्तृत होकर उस सीमा की ओर बढ़ता है जहाँ उसका संबंध हमारी आत्मा और मनोभावों से स्थापित होता है। जैसे—ज्योतिष शास्त्र, शरीर शास्त्र आदि। ४. वे सब बातें जिनका ज्ञान पढ़ या सीखकर प्राप्त किया जाय। ५. किसी गंभीर विषय का किसी के द्वारा प्रतिपादित किया हुआ मत या सिद्धान्त।
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शास्त्रकार  : पुं० [सं० शस्त्र√कृ (करना)+अण्, उपप० स०] शास्त्र विशेषतः धर्मशास्त्र की रचना करनेवाला।
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शास्त्रकृत्  : पुं० [सं० शास्त्र√कृ (करना)+क्विप्-तुक्] १. शास्त्र बनाने वाले अर्थात् ऋषि-मुनि। २. आचार्य।
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शास्त्रचक्षु (स्)  : पुं० [सं० ष० त०] १. शास्त्र की आँख, अर्थात् ज्योतिष। २. पंडित। विद्वान।
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शास्त्रज्ञ  : पुं० [सं० शास्त्र√ज्ञा (जानना)+क] १. शास्त्र का ज्ञाता। २. धर्मशास्त्रों का आचार्य।
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शास्त्र-तत्त्वज्ञ  : पुं० [सं० ष० त० स०] गणक। ज्योतिषी।
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शास्त्रत्व  : पुं० [सं० शास्त्र+त्व] शास्त्र का धर्म या भाव।
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शास्त्रदर्शी  : पुं० [सं० शास्त्र√दृश् (देकना)+णिनि]=शास्त्रज्ञ।
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शास्त्रशिल्पी (ल्पिन्)  : पुं० [सं० शास्त्रशिल्प+इनि] १. काश्मीर देश। २. जमीन। भूमि।
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शास्त्राचरण  : पुं० [सं० शास्त्रआ√चर् (करना)+णिच्-ल्यु-अन] १. शास्त्रों का अध्ययन और मनन। २. शास्त्र में बतलाई हुई बातों का आचरण और पालन।
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शास्त्रार्थ  : पुं० [सं० ष० त०] १. शास्त्र का अर्थ। २. शास्त्र के ठीक अर्थ तक पहुँचने के लिए होनेवाला तर्क-वितर्क या विवाद। ३. किसी प्रकार का तात्त्विक वाद-विवाद।
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शास्त्री (स्त्रिन्)  : पुं० [सं० शास्त्र+इनि] १. वह जो शास्त्रों आदि का अच्छा ज्ञाता हो। शास्त्रज्ञ। २. धर्मशास्त्र का अच्छा ज्ञाता या पंडित। ३. आज-कल एक प्रकार की उपाधि जो कुछ विशिष्ट परीक्षाओं में उत्तीर्ण होनेवाले व्यक्तियों को मिलती है।
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शास्त्रीकरण  : पुं० [सं० शास्त्र+च्वि√कृ+ल्युट-अन-दीर्घ] किसी विषय की सब बातें व्यवस्थित रूप से एकत्र करके और शास्त्रीय ढंग से उनका विवेचन करके उसे शास्त्र का रूप देना।
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शास्त्रीय  : वि० [सं० शास्त्र+छ-ईय] १. शास्त्र-संबंधी। शास्त्र का। २. शास्त्र में बतलाये हुए ढंग या प्रकार का। जैसे—शास्त्रीय संगीत। ३. शास्त्रीय ज्ञान अथवा उसके शिक्षण से संबंध रखनेवाला। शैक्षणिक। ४. शास्त्रीय ज्ञान पर आश्रित। (एकेडेमिक)। जैसे—शास्त्रीय विवेचन।
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शास्त्रोक्त  : भू० कृ० [सं० स० त०] शास्त्र में कहा हुआ।
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शास्य  : वि० [सं०√शास् (शासन करना)+ण्यत्] १. जिसका शासन किया जा सकता हो या किया जाने को हो। २. सुधारे जाने के योग्य। ३. दंडित होने के योग्य।
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शाहंशाह  : पुं० [फा०] सम्राट।
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शाहंशाही  : स्त्री० [फा०] १. शाहंशाह होने की अवस्था या भाव। २. शाहंशाह का कार्य या पद। वि० १. शाहंशाह संबंधी। २. शहंशाहों का सा। ३. उदारता, बड़प्पन आदि का सूचक।
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शाह  : पुं० [फा०] १. बहुत बड़ा राजा या महाराज। बादशाह। २. मुसलमान फकीरों की उपाधि। ३. ताश, शतरंज आदि में का बादशाह। वि० १. बहुत बड़ा या श्रेष्ठ (यौ० के आरंभ में) जैसे—शाहकार, शाहबलूत, शाहराह आदि। २. शाहों का सा। जैसे—शाह खर्च।
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शाहकार  : पुं० [फा०] कला संबंधी कोई बहुत बड़ी कृति।
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शाहखर्च  : वि० [फा०] [भाव० शाहखर्ची] बहुत अधिक खर्च करनेवाला।
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शाहखर्ची  : स्त्री० [फा०] १. शाहखर्च होने की अवस्था या भाव। २. शाहों की तरह किया जानेवाला अन्धाधुन्ध खर्च।
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शाहजादा  : पुं० [फा० शाहजादः] [स्त्री० शाहजादी] बादशाह का लड़का। राजकुमार।
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शाहजादी  : स्त्री० [फा०] १. बादशाह की कन्या। राजकुमारी। २. कमल के फूल के अन्दर का पीला जीरा।
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शाहतरा  : पुं० [फा०] पित्त पापड़ा।
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शाहदरा  : पुं० [फा०] किले या महल के आसपास की बस्ती।
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शाहदाना  : पुं० [फा० शाहदानः] १. बहुत बड़ा मोती। २. भाँग के बीज।
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शाहदारू  : पुं० [फा०] औषधों का राजा अर्थात् भाँग या शराब।
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शाहनर्शी  : पुं० [फा०] शह-नशीन।
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शाहबलूत  : पुं०=बलूत (वृक्ष)।
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शाहबाज  : पुं० [फा० शाहबाज] एक प्रकार का बाज।
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शाहबाला  : पुं०=शहबाला।
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शाहबुलबुल  : स्त्री० [अ० शाह+फा० बुलबुल] एक प्रकार की बुलबुल जिसका सिर काला सारा शरीर सफेद और दुम एक हाथ लंबी होती है।
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शाहरम  : स्त्री० [फा०] वह बड़ी और सीधी नली जो गले से नीचे की ओर जाती है और जिससे सांस लेते हैं। श्वास नली।
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शाहराह  : स्त्री० [फा०] १. वह बड़ा मार्ग जिस पर बादशाह की सवारी निकलती थी। २. बड़ा और चौड़ा रास्ता। राजमार्ग। ३. सड़क।
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शाह-सुलेमान  : पुं० [फा०] हुदहुद पक्षी का मुसलमानी नाम।
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शाहाना  : वि० [फा० शाहानः] १. शाहों का। २. शाहों का सा। ३. शाहों के योग्य। ४. बहुत बढ़िया। पुं०=शहाना (राज०)।
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शाहिद  : पुं० [अ०] शहादत देनेवाला। गवाह। वि० मनोहर। सुन्दर।
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शाही  : वि० [फा०] १. शाह का। २. शाह द्वारा रचाया हुआ। ३. शाहों का सा। ४. राजसी। स्त्री० १. बादशाह का शासन अथवा राज्य काल। २. किसी प्रकार का आधिकारिक प्रकार, व्यवहार या स्वरूप। जैसे—नादिरशाही, नौकरशाही।
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शिंगरफ़  : पुं० [फा० शंगर्फ़] इंगुर। हिंगुल।
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शिंगरफी  : वि० [फा० शंगर्फी] १. शिंगरफ संबंधी। २. शिंगरफ के रंग का। लाल। सुर्ख। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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शिंघाण  : पुं० [सं०√शिघ् (सूँघना)+ल्युट-अन, णत्व, पृषो, शिघ√नी (ढोना)+ड] १. अन्दर की वायु की जोर से नाक का मल बाहर निकालना। २. लौहमल। मंडूर। ३. तराजू की डंडी के ऊपर का काँटा या सुई। ४. कांच का बरतन। ५. दाढ़ी। ६. फूला हुआ अंडकोश।
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शिंघाणक  : पुं० [सं० शिंघाण+कन्] [स्त्री० शिंघाणिका] १. नाक के अन्दर का चेप। २. कफ। बलगम।
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शिंघाणी (णिन्)  : पुं० [सं० शिंघाण+इनि] नाक।
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शिंघित  : भू० कृ० [सं० शिंघ् (सूँघना)+क्त] सूँघा हुआ। आघ्रात।
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शिंघिनी  : स्त्री० [सं० शिंघ+इनि, ङीष्] नाक।
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शिंजन  : पुं० [सं० शिंज (आभूषणों आदि की झनकार)+ल्युट-अन] [वि० शिंजित] १. आभूषणों का होनेवाला शब्द। २. धातु खण्डों के बजने से होनेवाला शब्द।
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शिंजा  : स्त्री० [सं० शिंज् (ध्वनि होना)+अच्-टाप्] १. शिजंन। आवाज। झंकार। २. धनुष की डोरी।
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शिंजिका  : स्त्री० [सं०] करधनी।
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शिंजित  : भू० कृ० [सं० शिंज (ध्वनि होना)+क्त] शब्द करता हुआ।
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शिंजिनी  : स्त्री० [सं०√शिंज (ध्वनि होना)+णिनि-ङीष्] १. धनुष की डोरी। चिल्ला। पतचिका। २. करधनी नूपुर आदि के घुँगरू।
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शिंजी (जिन्)  : वि० [सं०√शिज् (ध्वनि करना)+णिनि] १. शब्द करनेवाला। २. बजनेवाला।
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शिंपैंजी  : पुं० [?] अफ्रीका के जंगलों में पाया जानेवाला एक प्रकार का बन-मानुष। चिंपैंजी।
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शिंब  : पुं० [सं० शम+डिम्बच् बाहु०] १. फली। छीमी। २. चकवँड़। चक्रमर्द।
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शिंबा  : स्त्री० [सं० शिव-टाप्] १. छीमी। फली। २. सेम। ३. शिबी धान्य़।
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शिंबिक  : पुं० [सं० शिब+टक्-इंक] मूँगफली।
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शिंबिका  : स्त्री० [सं० सिबिक-टाप्] १. फली। छीमी। २. सेम।
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शिंबिनी  : स्त्री० [सं० शिब+इनि-ङीष्] १. श्यामा चिड़िया। कृष्ण चटक। २. बड़ी सेम।
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शिंबिपर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०-ङीष्] वनमूँग। मुदगपर्णी।
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शिंबी  : स्त्री० [सं० शिब-ङीष्] १. छीमी। फली। बीड़ी। २. सेम। ३. केवाँच। कौंछ। ४. बन-मूँग।
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शिंबी-धान्य  : पुं० [सं० मध्यम० स०] वह अन्न जिसके दानों में दो दल हों। द्विदल अन्न। दाल। जैसे—मसूर, मोठ, उड़द आदि।
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शिंशपा  : स्त्री० [सं० शिंश√पा (रक्षा करना)+क-टाप्] [शिव√वा (पान करना)+क, पृषो,० सिद्ध वा] १. शीशम का पेड़। २. अशोक वृक्ष।
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शिंशुपा  : स्त्री०=शिंशपा।
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शिंशुमार  : पुं० [सं० शिशु√मृ (मारना)+णिच्-अच्] सूँस नामक जल जन्तु।
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शिकंजा  : पुं० [फा० शिकंजः] १. कोई ऐसा यंत्र जिससे चीजें कसकर दबाई जाती हों। २. जिल्दबंदों का एक यंत्र जिससे वे बनकर तैयार होनेवाली किताबें बनाकर उनके किनारे काटते हैं। ३. वह तागा जिससे जुलाहे घुमावदार बंद बनाते हैं। ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का यंत्र जिसमें अपराधियों को यंत्रणा देने के लिए उनके पैर कसकर जकड़ दिये जाते थे। मुहावरा— (किसी को) शिकंजे में खिचवाना= (क) उक्त प्रकार के यंत्र में किसी के पैर फँसा कर या और किसी प्रकार बहुत अधिक यंत्रणा देना। (ख) बहुत अधिक कष्ट देना। ५. रूई की गाँठे बाँधने के समय उन्हें दबाने का यंत्र। पेंच। ६. ऊख तेल आदि पेरने का कोल्हू।
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शिकन  : स्त्री० [फा०] किसी समतल सतह के दबने, मुड़ने, बढ़ने, सिकुड़ने आदि के फलस्वरूप बननेवाला रेखाकार चिन्ह। क्रि० प्र०—आना।—डालन।—निकालना।—पड़ना। मुहावरा—चेहरे पर शिकन आना=आकृति से असन्तोष कष्ट आदि व्यक्त होना।
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शिकम  : पुं० [फा०] पेट। उदर। पद—शिकम परवर=पेटू।
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शिकमी  : वि० [फा०] १. पेट संबंधी। २. निज का। अपना। ३. किराये, लगान आदि के विचार से जो किसी दूसरे के अन्तर्गत हो। जैसे—शिकमी, काश्तकार, शिकमी किरायेदार। मुहावरा—शिकमी देना=किराये, लगान आदि पर ली हुई जमीन किसी दूसरे को किराये या लगान पर देना।
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शिकमी काश्तकार  : पुं० [फा०] ऐसा काश्तकार जिसे जोतने के लिए खेत दूसरे काश्तकार से मिला हो।
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शिकरा  : पुं० [फा० शिकरः] एक प्रकार का बाज जो दूसरे पक्षियों का शिकार करने के लिए सधाया या सिखाया जाता।
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शिकवा  : पुं० [अ० शिकवः] १. शिकायत। उलाहना। २. ग्लानि।
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शिकस्त  : स्त्री० [फा०] १. भंग। २. टूटना। ३. विफलता। ४. पराजय। क्रि० प्र०—खाना।—देना। स्त्री० [फा० शिकस्त] उर्दू लिपि की घसीट लिखावट। वि० टूटा-फूटा।
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शिकस्तगी  : स्त्री० [फा०] १. टूटे-फूटे हुए होने की अवस्था या भाव। २. तोड़-फोड़।
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शिकस्ता  : वि० [फा० शिकस्तः] टूटा-फूटा। भग्न। स्त्री०=शिकस्त (लिपि)।
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शिकायत  : स्त्री० [अ०] १. किसी के अनुचित या नियम-विरुद्ध व्यवहार के फलस्वरूप मन में होनेवाला असंतोष। २. उक्त असंतोष को दूर करने के लिए संबंधित अथवा आधिकारिक व्यक्ति से किया जानेवाला निवेदन। ३. किसी के अनुचित काम का किसी के सम्मुख किया जानेवाला कथन। ४. दंडित करवाने के उद्देश्य से किसी की किसी दूसरे से कही जानेवाली सही या गलत बात। ५. कोई ऐसा आरम्भिक या हलका शारीरिक कष्ट जो रोग के रूप में हो। जैसे—बुखार की शिकायत।
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शिकायती  : वि० [अ० शिकमत+हिं० ई (प्रत्यय)] १. शिकायत करनेवाला (पत्र या लेख)। २. जिसमें किसी की या कोई शिकायत हो।
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शिकार  : पुं० [फा०] १. जंगली विशेषतः हिंसक पशु पक्षियों को पकड़ने या मारने का कार्य। मृगया। आखेट। क्रि० प्र०—खेलना। २. वह जानवर जो उक्त प्रकार से मारा जाय। ३. ऐसे पशु का मांस जो खाया जाता हो। गोश्त। ४. भक्ष्य पदार्थ। आहार। भोजन। जैसे—छिपकली को शिकार मिल गया। ५. फँसाया हुआ ऐसा व्यक्ति जिससे लाभ उठाया जा सकता हो। क्रि०—प्र०—बनना।—बनाना। होना। ६. असामी।
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शिकारगाह  : स्त्री० [फा०] शिकार खेलने का स्थान।
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शिकारबंद  : पुं० [फा०] वह तस्मा जो घोड़े की दुम के पास चारजामे के पीछे शिकार किये हुए जानवर को लटकाने या आवश्यक सामान बाँधने के लिए लगाया जाता है।
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शिकारा  : पुं० [फा० शिकारः] कश्मीर में होनेवाली एक प्रकार की बड़ी नाव जिसमें पूरी गृहस्थी के सुखपूर्वक रहने की व्यवस्था होती है। (हाउस बोट)।
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शिकारी  : पुं० [फा०] शिकार या आखेट करनेवाला अहेरी। वि० १. शिकार संबंधी। २. जिसका शिकार किया जाता हो उससे संबंध रखनेवाला। ३. जिससे शिकार किया जाता हो जैसे—शिकारी राइफल।
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शिकोह  : पुं० [फा० शिकोह] भय।
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शिक्थ  : पुं० [सं० शिच्+थक्-कुक, पृषो,० स=श वा] मोम।
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शिक्य  : पुं० [सं० शि+यत्, कुक च०]=शिक्या।
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शिक्या  : स्त्री० [सं० शिक्य-टाप्] १. बहँगी के दोनों कोरों पर बँधा हुआ रस्सी का जाल जिस पर बोझ रखते हैं। २. छींका। सिकहर। ३. तराजू की रस्सी।
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शिक्षक  : पुं० [सं०√शिक्ष् (अभ्यास करना)+ण्वुल्—अक] विद्या या हुनर सिखानेवाला व्यक्ति।
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शिक्षण  : पुं० [सं०√शिक्ष् (अभ्यास करना)+ल्युट—अन] शिक्षा देने अर्थात् पढ़ाने का काम। तालीम। शिक्षा।
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शिक्षण-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] वह विज्ञान जिसमें शिक्षार्थियों को शिक्षा देने के सिद्धान्तों का विवेचन होता है (पेडागोजी)।
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शिक्षणालय  : पुं० [सं० ष० त०] वह स्थान जहाँ शिक्षार्थी शिक्षा प्राप्त करते हैं।
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शिक्षणीय  : वि० [सं०√शिक्ष् (अभ्यास करना)+अनीयर्] जिसे शिक्षा दी जा सके या दी जाने को हो। सिखाये-पढ़ाये जाने के योग्य।
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शिक्षा  : स्त्री० [सं०√शिक्ष्+अ] [वि० शिक्षित, शैक्षणिक] १. किसी प्रकार का ज्ञान या विद्या प्राप्त करने के लिए सीखने-सिखाने का क्रम। तालीम। जैसे—किसी भाषा विज्ञान या शास्त्र की शिक्षा। २. उक्त प्रकार से प्राप्त किया हुआ ज्ञान या विद्या (एजूकेशन)। जैसे—आप अभी अमेरिका से चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा प्राप्त कर लौटे हैं। क्रि०—प्र०—देना।—पाना।—मिलना।—लेना। विशेष—आज—कल शिक्षा के अन्तर्गत वे सभी बातें हैं जो किसी को किसी विषय का अच्छा ज्ञाता या उपयुक्त कार्यकर्ता बनाने के लिए पढ़ाई या सिखाई जाती हैं। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को विद्या या विषय का ज्ञाता बनाने के सिवा नैतिक, मानसिक और शारीरिक सभी दृष्टियों से कर्मठ, योग्य, सदाचारी, समर्थ, स्वावलम्बी आदि बनाना भी होता है। ३. किसी प्रकार के अनुचित कार्य या व्यवहार से मिलनेवाला उपदेश या ज्ञान। नसीहत। जैसे—इस मुकदमेबाजी से तुम्हें तो शिक्षा मिली। ४. (क) छः वेदांगों में से एक जिसमें वैदिक साहित्य के वर्णों, मात्राओं, स्वरों आदि के उच्चारण—प्रकार का विवेचन है। (ख) आजकल व्याकरण का वह अंग जिसमें अक्षरों या वर्णों और उनके संयुक्त रूपों आदि के ठीक-ठीक उच्चारण स्वरूप और फलतः उनके लेखन-प्रकार (अक्षरी या हिज्जे) का विवेचन होता है। (आँर्थोग्रैफी) ५. नम्रता विनय। ६. दक्षता। निपुणता। ७. उपदेश। ८. मंत्रणा० सलाह। ९. शासन। दंड। सजा।
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शिक्षाकार  : पुं० [सं०√शिक्षा√कृ (करना)अच्] व्यास।
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शिक्षाक्षेप  : पुं० [सं० ब० स०] काव्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें प्रिय को किसी प्रकार की शिक्षा देकर अर्थात् अच्छी बात बतलाकर कही जाने से रोका जाता है। (केशव)
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शिक्षा-गुरु  : पुं० [सं० ष० त० स०] शिक्षा देने अर्थात् विद्या पढ़ानेवाला गुरु।
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शिक्षा-दंड  : पुं० [सं० मध्यम० स०] वह दंड जो कोई बुरी आदत या चाल छुड़ाने के लिए दिया जाय।
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शिक्षा-दीक्षा  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] ऐसी शिक्षा जो चारित्रिक, बौद्धिक या मानसिक विकास के उद्देश्य से दी जाती हो।
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शिक्षा-पद  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. उपदेश। २. बौद्धों में पंचशील के नियम जिनका लोगों को उपदेश दिया जाता है।
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शिक्षा-पद्धति  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] शिक्षा देने का ढंग या तरीका। जैसे—भारतीय शिक्षा-पद्धति।
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शिक्षा-परिषद्  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] १. प्राचीन भारत में किसी ऋषि का वह शिक्षालय जहाँ वैदिक ग्रन्थों की पढ़ाई होती थी। २. आजकल शिक्षा संबंधी व्यवस्था करनेवाली परिषद्।
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शिक्षा-प्रणाली  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] विद्यार्थियों को शिक्षा देने की प्रणाली अर्थात् ढंग या तरीका।
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शिक्षार्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० शिक्षार्थ+इनि] १. जो शिक्षा प्राप्त करना चाहता हो। २. शिक्षा प्राप्त करनेवाला।
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शिक्षालय  : पुं० [सं० ष० त० स०] शिक्षणालय (दे०)।
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शिक्षा-विभाग  : पुं० [सं० ष० त० स०] शिक्षा-संबंधी राजकीय विभाग।
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शिक्षा-व्रत  : पुं० [सं० मध्यम० स०] जैन धर्म के अनुसार गार्हस्थ्य धर्म का एक प्रधान अंग जो चार प्रकार का कहा गया है—सामयिक, देशावकाशिक, पौष और अतिथि संविभाग।
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शिक्षा-शक्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] शिक्षा ग्रहण करने का सामर्थ्य।
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शिक्षित  : भू० कृ० [सं०√शिक्ष् (अभ्यास करना)+क्त, शिक्षा+इतच्, वा] १. (वह) जो शिक्षा प्राप्त कर चुका हो। २. जिसे शिक्षा मिली हो। पढ़ा-लिखा। साक्षर। ३. सिखाया हुआ।
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शिक्ष्यमाण  : पुं० [सं०√शिक्ष् (अभ्यास करना)+यक्, शानच्-मुक्] १. वह जिसे किसी प्रकार की शिक्षा दी जा रही हो। २. वह जिसे किसी कार्यालय में काम मिलने से पहले किसी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करनी पड़ रही हो।
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शिखंड  : पुं० [सं० शिखा√अम्+ड, ष० त० स०] १. मोर की पूँछ। मयूर-पुच्छ। २. चोटी। शिखा। ३. काक-पक्ष। काकुल।
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शिखंडक  : पुं० [सं० शिखंड+कन्] १. काक-पक्ष। काकुल। २. मोर की पूँछ।
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शिखंडिक  : पुं० [सं० शखंड+ठन्-इक] १. कुक्कुट। मुर्गा। २. एक प्रकार का मानिक रत्न।
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शिखंडिका  : स्त्री० [सं० शिखंडिक-टाप्] शिखा। चोटी।
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शिखंडिनी  : स्त्री० [सं० शिखंड+इनि-ङीष्] १. मोरनी। मयूरी। २. जूही। ३. मुरगी। वि० स्त्री० शिखंड युक्त।
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शिखंडी  : पुं० [सं० शिखंडिन्] [स्त्री० शिखंडिनी] १. मोर। २. मुरगा। ३. बाण। तीर। ४. शिखा। ५. विष्णु। ६. शिव। ७. बृहस्पति। ८. कृष्ण। ९. द्रुपद का पुत्र जो जन्मतः स्त्री था, पर बाद में तपस्या से पुरुष बन गया था। महाभारत में अर्जुन ने इसी को बीच में खड़ा करके इसकी आड़ से भीष्म को घायल किया था। १॰. फलतः ऐसा व्यक्ति जिसमें पौरुष या बल का अभाव हो, पर जिसकी आड़ लेकर दूसरे लोग अपना काम निकालते हों। ११. पीली जूही। स्वर्ण यूथिका। १२. गुंजा। घुँघची।
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शिख  : स्त्री०=शिक्षा।
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शिखर  : पुं० [सं० शिखा+अरच् अलोप] १. किसी चीज का सबसे ऊपरी भाग। सिरा। चोटी। २. पहाड़ की चोटी। पर्वत-श्रृंग। ३. गुंबद मंदिर मसजिद आदि का ऊँचा नुकीला सिरा। ४. गुंबद। ५. मंडप। ६. मंदिर या मकान के ऊपर का उठा हुआ नुकीला सिरा। कँगूरा कलश। ७. जैनों का एक प्रसिद्ध तीर्थ। ८. एक प्रकार का छोटा रत्न। ९. उँगलियों की एक मुद्रा जो तान्त्रिक पूजन में बनाई जाती है। १॰. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र। ११. लौंग। १२. कुंद की कली। १३. काँख। बगल। १४. लपुलक। रोमांच।
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शिखरणी  : स्त्री० [सं० शिखर√नि+क्विप्-ङीष्]=शिखरिणी।
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शिखर-दशना  : वि० स्त्री० [सं० ब० स०] (स्त्री) जिसके दाँत कुंद की कली के समान हों।
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शिखरन  : पुं० [सं० शिखर√नी (ढोना)+ड, शिखरिणी] दही और चीनी का बना हुआ एक प्रकार का मीठा गाढ़ा पेय पदार्थ जिसमें केशर, कपूर, मेवे आदि पड़े होते हैं।
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शिखर-वासिनी  : स्त्री० [सं० शिखर√वस् (रहना)+णिनि] शिखर पर बसनेवाली दुर्गा।
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शिखर-सम्मेलन  : पुं० [ष० त०] कई राष्ट्रों के सर्वोच्च अधिकारियों अथवा शासकों का ऐसा सम्मेलन जो किसी महत्वपूर्ण राजनीतिक विषय पर विचार करने के लिए हो (सम्मिट कान्फरेन्स)।
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शिखरा  : स्त्री० [सं० शिखर-टाप्] १. मूर्व्वा। मरोड़फली। मुर्रा। २. एक गदा जो विश्वामित्र ने रामचन्द्र को दी थी।
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शिखरिणी  : स्त्री० [सं० शिखर+इनि+हीष्] १. श्रेष्ठ स्त्री। २. शिखरन नामक पेय पदार्थ। ३. १७ अक्षरों की एक वर्णवृत्ति जिसमें छठें और ग्यारहवें वर्ण पर यति होती है। ४. रोमावली। ५. बेला का मोतिया नामक फूल। ६. नेवारी। ७. आम। ८. किशमिश। ९. मूर्वा। मरोड़-फली।
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शिखरी  : पुं० [सं० शिखर+इनि-द्रघी, नलोप] १. पर्वत। पहाड़। २. पहाड़ी। किला। ३. पेड़। वृक्ष। ४. अपामार्ग। चिचड़ा। ५. बंदाक। बाँदा। ६. लोवान। ७. काकड़ा सिंगी। ८. ज्वार। मक्का। ९. कुंदरू नामक गन्ध द्रव्य। १॰. एक प्रकार का मृग। स्त्री० [सं० शिखरा।] एक गदा जो विश्वामित्र ने रामचन्द्र को दी थी। शिखरा।
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शिखांत  : पुं० [सं० शिखा+अंत, ष० त०] शिखा का अंतिम अर्थात् सबसे ऊपरी भाग।
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शिखा  : स्त्री० [सं० शि+खक, पृषो०-टाप्] १. हिन्दुओं में मुंडन के समय सिर के बीचोबीच छोड़ा हुआ बालों का गुच्छा जो फिर कटाया नहीं जाता और बढ़कर लंबी चोटी के रूप में हो जाता है। चुंदी। चोटी। पद-शिखासूत्र=चोटी और जनेऊ जो द्विजों के मुख्य चिन्ह हैं और जिनका त्याग केवल सन्यासियों के लिए विधेय है। २. मोर, मुर्गी आदि पक्षियों के सिर पर उठी हुई चोटी या पंखों का गुच्छा। चोटी। कलगी। ३. आग, दीपक आदि की ऊपर उठनेवाली लौ। ४. प्रकाश की किरण। ५. किसी चीज का नुकीला सिरा। नोक। ६. ऊपर उठा हुआ सिरा। चोटी। ७. पैर के पंजों का सिरा। ८. स्तन का अगला भाग। चूचुक। ९. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके विषम पदों में २८ लघु मात्राएँ और अन्त में एक गुरु होता है। सम पादों में ३॰ लघु मात्राएँ और अन्त में एक गुरु होता है। १॰. पहने हुए कपड़ें का आँचल। दामन। ११. पेड़ की जड़। १२. पेड़ की डाल। शाखा। १३. श्रेष्ठ वस्तु या व्यक्ति। १४. नायक। सरदार। १५. काम-वासना की तीव्रता के कारण होनेवाला ज्वर। काम-ज्वर। १६. तुलसी। १७. बच। १८. जटामासी। बालछड़। १९. कलियारी नामक विष। लांगली। २॰. मरोड़-फली। मूर्वा।
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शिखाकंद  : पुं० [सं० ब० स०] शलजम। शलगम।
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शिखातरु  : पुं० [सं० ष० त० स०] दीप-वृक्ष। दीवट। दीयर।
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शिखाधर  : पुं० [सं० ष० त० स०] मयूर। मोर। वि० शिखा धारण करनेवाला।
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शिखाधार  : पुं० [सं०]=शिखाधर।
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शिखापित्त  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें हाथ-पैर की उँगलियों में सूजन और जलन होती है।
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शिखाभरण  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. शिरोभूषण। २. मुकुट।
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शिखामणिक  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. सिर पर धारण किया जानेवाला रत्न। २. मुकुट में लगाया जानेवाला रत्न। ३. सर्वश्रेष्ठ पदार्थ या वस्तु।
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शिखामूल  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा कंद जिसके ऊपर पत्तियाँ या पत्तें हों। जैसे—गाजर, शलजम आदि।
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शिखालु  : पुं० [सं० शिखा+आलुच्] मोर की चोटी। कलगी।
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शिखावल  : पुं० [सं० शिखा+मतुप-म=व-नुम्-दीर्घ नलोप] [स्त्री० शिखावती] सिखावाला। पुं० १. अग्नि। २. चित्रक। चीता। ३. केतु ग्रह। ४. मयूर। मोर।
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शिखावृक्ष  : पुं० [सं० ष० त० स०] वह आधार जिस पर दीया रखा जाता है। दीवट।
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शिखावृद्धि  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] १. ब्याज का प्रतिदिन बढ़ना। २. ब्याज पर भी जोड़ा जानेवाला ब्याज। सूद-दर-सूद। (कम्पाउंड इस्टरेस्ट)।
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शिखि (खिन्)  : पुं० [सं० शिखा+इन] १. मोर। मयूर। २. तामस मन्वन्तर के इन्द्र का नाम। ३. कामदेव। ४. अग्नि। ५. तीन की संख्या का वाचक शब्द। वि०=शिखावान्।
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शिखि-ग्रीव  : पुं० [सं० शिखि-ग्रीवा,०+अच्, ब० स० वा] १. नीलाथोथा। २. कांत पाषाण नाम का नीला पत्थर।
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शिखिध्वज  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. धूम। धूआँ। २. एक प्राचीन तीर्थ। ३. मयूरध्वज राजा का दूसरा नाम।
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शिखिनी  : स्त्री० [सं० शिखा+इनि-ङीप्] १. मयूरी। मोरनी। २. मुरगी। ३. जटाधारी नाम का पौधा।
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शिखि-वाहन  : पुं० [सं० ब० स०] मयूर की सवारी करनेवाले कार्तिकेय।
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शिखींद्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. तेदू। (पेड़)। २. आबनूस (वृक्ष)।
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शिखी (खिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० शिखिनी] शिखा या शिखाओं से युक्त। चोटी या चोटियोंवाला। पुं० १. मोर। मयूर। २. मुरगा। ३. एक प्रकार का सारस। बगला। ४. बैल या साँड़। ५. घोड़ा। ६. चित्रक। चीता। ७. अग्नि। ८. तीन की संख्या का वाचक शब्द। ९. दीपक। दीआ। १॰. पित्त। ११. पुच्छल तारा। केतु। १२. मेथी। १३. शतावर। १४. पेड़। वृक्ष। १५. पर्वत। पहाड़। १६. ब्राह्मण। १७. बाण। तीर। १८. जटाधारी साधु। १९. इन्द्र। २॰.एक प्रकार का विष।
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शिखीश्वर  : पुं० [ष० त० स०] कार्तिकेय।
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शिगाफ  : पुं० [फा० शिग्राफ] १. दरार। दरज। २. सूराख।। छेद। ३. चिकित्सा के उद्देश्य से नश्तर से फोड़ों आदि में लगाया जानेवाला चीरा।
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शिगाल  : पुं० [सं० श्रृंगाल से फा०] गीदड। सियार।
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शिगूडी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का जंगली पौधा जो दवा के काम आता है।
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शिगूफा  : पुं०=शगूफा।
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शिग्रु  : पुं० [सं० शि+रुक्-गुक्,च०] १. सहिजन का वृक्ष। शोभांजन। २. शाक। साग।
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शित  : भू० कृ० [सं०√शो (पतला करना)+क्त०] १. सान पर चढ़ा कर तेज किया हुआ। २. नुकीला। ३. दुर्बल। वि०=सित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शितद्रु  : स्त्री० [सं० शित√द्रु (पिघलना)+कु०] १. शतद्रु। सतलज। २. क्षीर-मोरठ। मोरठ।
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शिताफल  : पुं० [सं० ब० स०] शरीफा। सीताफल।
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शिताब  : अव्य० [फा] झटपट। शीघ्र।
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शिताबी  : स्त्री० [फा०] १. शीघ्रता। जल्दी। २. उतावली। हड़बड़ी।
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शितावर  : पुं० [सं० शतावर] १. बकुची। सोमराजी। २. शिरियारी। ३. शतावर।
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शिति  : वि० [सं०√शो (पतला करना)+क्तिच्] १. सफेद। २. काला। ३. नीला। ४. रंग-बिरंगा। पुं० भोजपत्र।
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शितिकंठ  : पुं० [सं० ब० स०] १. महादेव। शिव। २. नाग देवता। ३. जल-काक। मुरगाबी। ४. पपीहा। ५. मोर।
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शिति-चंदन  : पुं० [सं० ब० स०] कस्तूरी।
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शितिपक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] हंस।
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शिति-रत्न  : पुं० [मध्यम० स०] नीलम।
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शित्पुट  : पुं० [सं० ब० स०] १. बिल्ली की तरह का एक जानवर। २. एक प्रकार का काला भौंरा।
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शिथिल  : वि० [√श्लथ् (हिंसा करना)+किलच्, पृषो०] [भाव० शिथिलता] १. जिसमें खिचाव न होने के कारण ढिलाई हो। ढीला। २. (व्यक्ति) जिसके वृद्धावस्था, थकावट, बीमारी आदि के फलस्वरूप अंग-अंग ढीले पड़ गये हों। ३. जिसमें तेजी या फुरती न हो। जिसकी गति मंद हो। ४. आलस्य के कारण काम न करनेवाला। ४. जो अपनी बात पर दृढ़ न रहता हो। ५. (काम या बात) जिसका पालन दृढ़तापूर्वक न होता हो। ६. नियंत्रण या दबाव में रखा हुआ। ७. (शब्द) जो स्पष्ट न हो।
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शिथिलता  : स्त्री० [सं० शिथिल+तल्-टाप्] १. शिथिल होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. साहित्य में वाक्य-रचना का वह दोष जिसमें आर्थी दृष्टि से शब्द अच्छी तरह गठे हुए न हो। ३. तर्क में किसी अवयव का अभाव।
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शिथिलाई  : स्त्री०=शिथिलता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शिथिलाना  : अ० [सं० शिथिल+आना (प्रत्यय)] १. शिथिल होना। ढीला पड़ना। २. श्रान्त होना। थकना। सं० १. शिथिल करना। २. थकना।
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शिथिलित  : भू० कृ० [सं० शिथिल+इतच्] जो शिथिल हो गया हो। ढीला पड़ा हुआ ।
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शिथिलीकरण  : पुं० [सं० शिथिल+च्वि√कृ (करना)ल्युट-अन, दीर्घ] [वि० शिथिलीकृत] शिथिल करना। ढीला करना।
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शिथिलीभूत  : भू० कृ० [सं० शिथिल+च्वि√भू (होना)+क-दीर्घ] जो शिथिल हो गया हो। ढीला पड़ा हुआ।
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शिद्दत  : स्त्री० [अ०] १. तीव्रता। प्रबलता। २. उग्रता। प्रचंडता। ३. अधिकता। ज्यादती। ४. कठिनाई। कष्ट।
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शिनाख्त  : स्त्री० [फा०] १. यह निश्चय कि अमुक वस्तु या व्यक्ति यही है। किसी व्यक्ति, वस्तु आदि को देखकर बतलाना कि यही अमुक व्यक्ति या वस्तु है। पहचान। २. भला-बुरा पहचानने की योग्यता। तमीज। परख। जैसे—उसे हीरों की अच्छी शिनाख्त है।
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शिनास  : वि० [फा०] [भाव० शिनासी] पहचानने वाला। जानकार।
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शिनासाई  : स्त्री० [फा०] १. पहचान। परिचय। २. जानकारी।
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शिनि  : पुं० [सं० शि+निक्] १. गर्ग ऋषि के पुत्र का नाम। २. क्षत्रियों का एक भेद।
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शिप्र  : पुं० [सं० शि+रक्-पुक्] हिमालय पर्वत का एक सरोवर।
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शिप्रा  : स्त्री० [सं० शिप्र-टाप्] एक नदी जिसके तट पर उज्जयिनी नगर बना हुआ है। (कहते हैं कि यह शिप्र नामक सरोवर से निकली थी)।
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शिफर  : पुं०=सिफर (ढाल)।
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शिफा  : स्त्री० [सं० शि+फक्-टाप्] १. एक प्रकार के वृक्ष की रेशेदार जड़ जिससे प्राचीन काल में कोड़े बनते थे। २. कोड़े या चाबुक की फटकार अथवा मार। ३. कोड़ा या चाबुक। पद—सिफा-दंड=कोड़े या बेंत मारने का दंड। ४. माता। माँ। ५. हलदी। ६. कमल की नाल। भसींड़। ७. लता। वल्ली। ८. दरिया। नदी। ९. जटामासी। १॰. चोटी। शिखा।
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शिफ़ा  : स्त्री० [अ०] १. बीमारी, रोग आदि से होनेवाला छुटकारा। २. स्वास्थ्य।
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शिफाकंद  : पुं० [सं० उपमि० स०] कमल की जड़। भसींड़।
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शिफारुह  : पुं० [सं० शिफा√रुह् (आरोहण करना)+क] बरगद (पेड़)। वटवृक्ष।
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शिबि  : पुं० [सं० शिखि-कित्]=शिवि।
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शिमाल  : स्त्री० [अ०] [वि० शिमाली] उत्तर दिशा।
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शिया  : पुं०=शीया (संप्रदाय)।
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शिरःकपाली  : पुं० [सं० शिरकपाल+इनि] कापालिक संन्यासी।
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शिरःखंड  : पुं० [सं० ष० त० स०] माथे की हड्डी। कपालास्थि।
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शिरःफल  : पुं० [सं० ब० स०] नारिकेल। नारियल।
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शिर (स्)  : पुं० [सं० शृ+क] १. सिर। कपाल। मुंड़। खोंपड़ा। २. मस्तक। माथा। ३. ऊपरी भाग। चोटी। ४. अगला भाग। सिरा। ५. सेना का अगला भाग। ६. पद्य के चरण का आरंभ। टेक। ७. अगुआ प्रधान या मुखिया। ८. पिप्पली मूल। ९. शय्या। १॰. बिछौना। बिस्तर। ११. अजगर।
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शिरकत  : स्त्री० [अ०] १. शरीक होने की अवस्था, क्रिया या भाव। मिलना। २. एक साथ मिलकर किसी काम में प्रवृत्त होना। ३. व्यापार में हिस्सेदार बनना। साझेदारी।
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शिरकती  : वि० [फा०] १. साझे का। सम्मिलित। २. शिरकत के फलस्वरूप होनेवाला।
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शिरखिस्त  : पुं०=शीर-खिश्त।
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शिरगंला  : पुं० [देश] दुग्ध-पाषाण नामक वृक्ष।
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शिरज  : पुं० [सं० शिर√जन् (उत्पन्न करना)+ड] केश। बाल। वि० शिर या सिर से उत्पन्न।
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शिरत्रान  : पुं०=शिरस्त्राण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शिरनेत  : पुं० [देश०] १. गढ़वाल या श्रीनगर के आस-पास का प्रदेश। २. क्षत्रियों का एक वर्ग।
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शिरफूल  : पुं०=सीस-फूल (गहना)।
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शिरमौर  : पुं०=शिर-मौर।
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शिरशचन्द्र  : पुं० [सं० ब० स०] महादेव। शिव।
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शिरसा  : अव्य० [सं० शिरस+आप्] सिर झुकाकर या आदरपूर्वक। शिरोधार्य करते हुए। जैसे—कोई बात शिरसा मानना या स्वीकृत करना।
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शिरसिज  : पुं० [सं० शिरसि√जन् (उत्पन्न करना)+ड, सप्तमी अलुक० स०] केश बाल।
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शिरसिरुह  : पुं० [सं० शिरिस्√रुह् (उगना)+क-अलुक, स० ष० त० स०] केश बाल।
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शिरस्कर  : पुं० [सं० शिरसि√कै (प्रकाशित)+क] १. पग़ड़ी। २. शिरस्त्राण।
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शिरस्त्र  : पुं० [सिरस्√त्रै (रक्षा करना)+क]=शिरस्त्राण।
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शिरस्त्राण  : पुं० [सं० शिरस्√त्रै+ल्युट-अन] वह टोप जो युद्ध आदि के सयम सैनिक सिर पर पहनते हैं।
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शिरहन  : पुं० [सं० शिर+आघान] १. तकिया। २. सिरहाना।
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शिरा  : स्त्री० [सं० शृ+क-टाप्] १. रक्त की छोटी नाड़ी। खून की छोटी नली (ब्लड वेसल। २. पानी का सोता विशेषतः जमीन के अंदर बहनेवाला सोता। ३. पानी का सोता विशेष जमीन के अन्दर बहने वाला सोता। ४. कूएँ से पानी खींचने का डोल।
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शिराकत  : स्त्री०=शराकत।
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शिराग्रह  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का वात रोग।
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शिराज  : स्त्री० [देश] हिन्दुओं की एक जाति जो चमड़े का काम करती है।
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शिराजाल  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. शरीर के अन्दर की छोटी रक्त-नाड़ियों का समूह। २. आँख संबंधी एक रोग।
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शिरापत्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. पीपल का पेड़। २. हिंताल। ३. कपित्थ। कैथ।
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शिरापीड़िका  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. आँख का एक रोग जिसमें पुतली के पास एक फुँसी निकल आती है। २. बहुमूत्र के रोगियों को निकलने वाली एक प्रकार की घातक फुँसी।
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शिराफल  : पुं० [सं० ब० स०] नारियल।
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शिरामल  : पुं० [सं० ब० स०] नाभि।
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शिरायु  : पुं० [सं० ब० स०] रीछ। भालू।
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शिराल  : वि० [सं० शिरा+लच्] १. शिरा-संबंधी। २. शिरायुक्त। ३. बहुत सी शिराओंवाला। पुं० कमरख।
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शिरावरोध  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर के अंदर किसी शिरा में रक्त के कणों की गाठ बनकर ठहर जाती और उस अंग के रक्त-संचार में बाधक होती है। (थ्राम्बोसिस)
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शिराहर्ष  : पुं० [ष० त० स० ब० स० वा] १. नसों का झनझनाना। २. एक रोग जिसमें आँख लाल हो जाती हैं।
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शिरि  : पुं० [सं०√शृ+कि] १. खड्ग। तलवार। २. तीर। बाण। ३. फतिंगा। ४. टिड्डी।
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शिरियारी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की जंगली बूटी या शाक जो औषध के काम आती है। सुसना।
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शिरीष  : पुं० [सं० शृ+ईषन्-किन्] १. सिरस का पेड़। २. उक्त का पुष्प।
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शिरोगृह  : पुं० [सं० मध्यम० स०] अट्टालिका का सबसे ऊपरवाला कमरा।
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शिरोग्रह  : पुं० [सं० ब० स०] समलबाई नामक रोग।
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शिरोज  : पुं० [सं० शिरस√जन् (उत्पन्न करना)+ड] बाल। केश।
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शिरोदाम  : पुं० [सं० ष० त० स०] शिरोदामन्। पगड़ी। साफा।
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शिरोधरा  : स्त्री० [सं० शिरस्√चर् (रखना)+अच्-टाप्] ग्रीवा। गरदन।
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शिरोधाम  : पुं० [सं० त० स०] चारपाई का सिरहाना।
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शिरोधार्य  : वि० [सं० तृ० त० स०] आदरपूर्वक सिर पर धारण किए जाने या माने जाने के योग्य। सादर अंगीकार किए जाने के योग्य।
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शिरोपाव  : पुं०=सिरोपाव।
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शिरोभूषण  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. सिर पर पहनने का गहना। जैसे—सीसफूल। २. मुकुट। ३. श्रेष्ठ व्यक्ति।
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शिरोभूषा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सिर की भूषा। २. सिर पर धारण किया जानेवाला वस्त्र, पगड़ी, टोपी आदि।
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शिरोमणि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. सिर पर का रत्न। चूड़ामणि। २. मान्य और श्रेष्ठ व्यक्ति। ३. माला में का सुमेरु।
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शिरोमाली (लिन्)  : पुं० [सं० शिरस्-माला, ष० त० स०—इनि, दीर्घ, नलोप] मनुष्य की खोपड़ियों या मुड़ों की माला धारण करनेवाले शिव।
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शिरोमौलि  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. सिर पर पहना जानेवाला आभूषण या रत्न। २. श्रेष्ठ व्यक्ति।
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शिरोरक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० शिरस्-रक्षा, ष० त० स—इनि] प्राचीन भारत में सदा राजा के साथ रहनेवाला रक्षक। अंग-रक्षक। (बाँडी गॉर्ड)।
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शिरोरत्न  : पुं० [सं० ष० त० स०]=शिरोमणि।
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शिरोवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० शिरस्√वृत्त (रहना)+णिनि, दीर्घ, नलोप] प्रधान। मुखिया। पुं० प्रधान। मुखिया। नायक।
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शिरोवल्ली  : स्त्री० [सं० थृ० त] मोर, मुर्गे आदि की चोटी। कलगी।
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शिरोवस्ति  : पुं० [सं० ष० त० स०] वैद्यक में शिर के वातज दर्द का एक उपचार।
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शिरोविंदु  : पुं० [सं० मध्य० स०] आकाश में वह स्थान या उसका सूचक बिन्दु जो हमारे सिर के ठीक ऊपर पड़ता है। ‘अधोबिन्दु’ का विपर्याय (जेनिथ)।
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शिरोहर्ष  : पुं० [सं० ब० स०] समलबाई नामक रोग।
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शिरोहारी (रिन्)  : पुं० [सं० शिरस्√हृ+णिनि] खोपड़ियों की माला पहननेवाले शिव।
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शिलंधिर  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन गोत्र-प्रवर्तक ऋषि।
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शिलंब  : पुं० [सं० ब० स०] १. जुलाहा। तंतुवाय। २. बुद्धिमान्। व्यक्ति।
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शिल  : पुं० [सं०√शिल् (एक, एक कण का बीनना)+क०] उछ नामक वृत्ति। स्त्री० १. =शिला। २. =सिल।
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शिलज  : पुं० [सं० शिल√जन् (उत्पन्न करना)+ड०]=शैलज (छरीला)।
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शिल-रति  : पुं० [सं० ब० स०] उंछशील (दे०)।
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शिला  : स्त्री० [सं० शिल+क-टाप्] १. पाषाण। पत्थर। २. पत्थर का बड़ा और चौड़ा टुकड़ा। चट्टान। सिल ३. पत्थर की कंकड़ी या रोड़ा। ४. मनःशिल। मैनसिल। ५. कपूर। ६. शिलाजीत। ७. गेरू। ८. नील का पौधा। ९. हर्रे। १॰. गोरोचन। ११. दूब। १२. उंछवृत्ति।
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शिलाकुसुम  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. शैलेय नामक गन्ध द्रव्य। २. शिलाजीत।
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शिलाक्षार  : पुं० [सं० ष० त० स०] चूना।
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शिलाखंड  : पुं० [सं० ष० त०] १. पत्थर का बड़ा टुकडा। चट्टान। २. आज-कल पुरातत्व में पत्थरों का वह ढेर जो बहुत प्राचीन काल में किसी घटना या स्मारक के रूप में लगाया जाता था।
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शिलाज  : पुं० [सं० शिला√जन् (उत्पन्न करना)+ड] १. छरीला। पत्थर का फूल। २. लोहा। ३. शिलाजीत। ४. पेट्रोल।
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शिला-जतु  : पुं० [मध्य० स०] शिलाजीत।
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शिलाजा  : स्त्री० [सं० शिलाज—टाप्] संगमरमर।
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शिलाजीत  : स्त्री० [सं० शिलाजतु] कुछ विशिष्ट प्रकार की चट्टानों के अत्यधिक तपने पर उनमें से निकलनेवाला एक प्रकार का रसजो काले रंग का होता है और अत्यधिक पौष्टिक माना जाता है।
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शिलाटक  : पुं० [सं० शिला√अट् (जाना)+ण्वुल—अक] १. बहुत बड़ा मकान। अट्टालिका। २. घर के ऊपर का कोठा। अटारी। ३. बड़ी इमारत की चहारदीवारी। परकोटा। ४. गड्ढा। गर्त्त।
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शिलात्व  : पुं० [सं० शिला+त्व] १. शिला का भाव। २. शिला का धर्म अर्थात् कठोरता, जड़ता आदि।
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शिला-दान  : पुं० [सं० ष० त० स०] पत्थर की मूर्ति विशेषतः शालग्राम का दिया जानेवाला दान।
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शिलादिव्य  : पुं० [सं०] हर्षवर्द्धन।
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शिलाधातु  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. सोनगेरू। २. खपरिया। ३. चीनी। शक्कर।
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शिलानिर्यास  : पुं० [ष० त० स०]=शिलाजीत।
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शिला-न्यास  : पुं० [सं० ष० त०] १. नये भवन की नींव के रूप में रखा जानेवाला पहला पत्थर। २. नींव रखने का कृत्य।
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शिला-पट्ट  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. पत्थर की चट्टान। २. मसाले आदि पीसने की सिल।
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शिला-पुत्र (क)  : पुं० [ष० त०] पत्थर का वह टुकड़ा जिसे सिल पर रगड़ कर चीजें पीसी जाती है। लोढ़ा।
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शिलापुष्प  : पुं० [सं० ष० त०] १. छरीला। शैलेय। २. शिलाजीत।
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शिलाप्रमोक्ष  : पुं० [सं० ष० त० स०] लड़ाई में शत्रुओं पर पत्थर फेंकना या लुढ़काना (कौ०)।
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शिला-बंध  : पुं० [ब० स०] पत्थर की चहारदीवारी या परकोटा।
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शिला-भव  : पुं० [सं० त० स०] १. शिलाजीत। २. छरीला।
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शिलाभेद  : पुं० [सं०+शिला√भिद्+अण्] १. पत्थर तोड़ने की छेनी। २. पाषाणभेदी वृक्ष। पखानभेद।
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शिला-मल  : पुं० [ष० त० स०] शिलाजीत।
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शिला-मुद्रण  : पुं० [सं० तृ० त०] [भू० कृ० शिलामुद्रित] पुस्तकों आदि की पुरानी चाल की एक प्रकार की छपाई जो पत्थर की शिला पर अंकित चिन्हों या अक्षरों की सहायता से होती थी। (लीथोग्राफ)
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शिलायु  : पुं० [सं० ब० स०] गले में होनेवाला एक प्रकार का विकार।
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शिला-रस  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. शैलेय नामक गन्ध द्रव्य। २. लोबान की तरह का एक प्रकार का सुगंधित गोंद।
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शिलारोपण  : पुं० [ष० त०] नींव में पत्थर को प्रस्थापित करना। शिलान्यास।
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शिला-लेख  : पुं० [सप्त० स०] १. वह लेख जो पत्थर पर खुदा हो। २. वह पत्थर जिसपर लेख आदि खुदा हो। ३. दे० ‘पुरालेख’।
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शिलालेखविद्  : पुं० [सं० शिलालेख√विद्+क्विप्] वह जो पुराने शिलालेखों के लेख आदि पढ़ने में प्रवीड। पुरालेखविद्। (एपिग्राफिस्ट)
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शिलावह  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्राचीन जनपद। २. उक्त जनपद का निवासी।
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शिला-वृष्टि  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] १. आकाश से ओले या पत्थर गिरना। २. पत्थर के टुकड़े किसी पर फेंकना।
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शिलावेश्म (न्)  : [सं० ष० त० स०] १. कंदरा। गुफा। २. पत्थरों का बना हुआ मकान।
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शिलासन  : पुं० [सं० ब० स०] १. पत्थर का बना हुआ आसन। २. शिलाजीत। ३. शैलेय नामक गन्ध द्रव्य।
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शिलासार  : पुं० [सं० ष० त० स०] लोहा।
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शिलास्वेद  : पुं० [सं० ष० त० स०] शिलाजीत।
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शिला-हरि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] शालग्राम की मूर्ति।
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शिलाहारी (रिन्)  : वि० [सं० शिला√हृ (हरण करना)+णिनि] खेतों से अन्न बीनकर जीविका चलानेवाला। ऊँछशील।
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शिलाह्व  : पुं० [सं० ब० स०] शिलाजीत।
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शिलिंद  : पुं० [सं० शिलि√दा (देना)+क, पृषो, सिद्ध] एक प्रकार की मछली।
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शिलि  : पुं० [सं०√शिल् (एक-एक दाना बीनना)+कि] भोजपत्र। भूर्जवृक्ष। स्त्री० डेहरी।
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शिलींध्र  : पुं० [सं० शिली√धृ (रखना)+क, पृषो० मुम्] १. केले का फूल। २. आकाश से गिरनेवाला ओला। बिनौरी। ३. भुँइछत्ता। ४. कठ-केला। ५. शिलिंद नामक मछली।
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शिलींध्रक  : पुं० [सं० शिलीध्र+कन्] कुकुरमुत्ता। खुमी।
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शिलीध्री  : स्त्री० [सं० शिलिध्र—ङीप्] १. केंचुआ। गंडूपदी। २. मिट्टी। ३. एक प्रकार का पक्षी।
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शिली  : स्त्री० [सं० शिल-ङीष्] १. केचुआ। २. मेढ़क। ३. देहिलीज। ४. भोजपत्र। ५. तीर। बाण। ६. भाला।
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शिलीपद  : पुं० [सं० ब० स] फीलपाँव नामक रोग। श्लीपद।
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शिलीभूत  : भू० कृ० [सं०] जो जमकर पत्थर के सदृश कठोर हो गया हो।
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शिलीमुख  : पुं० [सं० ब० स०] १. भ्रमर। २. तीर। बाण। ३. युद्ध। समर। वि० बेवकूफ। मूर्ख।
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शिलूष  : पुं० [सं० ब० स०] १. नाट्यशास्त्र के आचार्य एक प्राचीन ऋषि। २. बेल का वृक्ष।
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शिलेप  : वि० [सं०] शिला-संबंधी। शिला का। पुं० शिलाजीत।
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शिलोंछ  : पुं० [सं० शिल√उंछि+घञ्] खेतों से अन्न बीनकर जीविका निर्वाह करना। उंछवृत्ति।
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शिलोच्चय  : पुं० [सं० ब० स०] पर्वत। पहाड़।
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शिलोत्थ  : पुं० [सं० शिल-उद्√स्थ (ठहरना)+क, स०=थ, लोप] १. छरीला या शैलेय नामक गंध द्रव्य। २. शिलाजीत।
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शिलोद्भव  : पुं० [सं० ब० स०] १. शैलेय। छरीला। २. पीला चन्दन।
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शिलौका  : वि० [सं० ब० स० शिलौकस] पर्वत पर होनेवाला। पुं० गरुड़।
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शिल्प  : पुं० [सं० शिल+पक्] हाथ से काम करने का हुनर। दस्तकारी। हस्तकला।
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शिल्पक  : पुं० [सं० शिल्प+कन्] एक प्रकार का नाटक जिसमें इंद्रजाल तथा अध्यात्म संबंधी बातों का वर्णन रहता है।
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शिल्पकर  : पुं० [शिल्प√कृ (करना)+अच्] शिल्पकार।
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शिल्पकला  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] शिल्प (दे०)।
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शिल्पकार  : पुं० [सं० शिल्प√कृ (करना)+अण्, उप० स०] १. शिल्पी। कारीगर। २. मकान बनाने वाला राज। मेमार।
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शिल्पकारी  : पुं० [सं० शिल्प√कृ (करना)+णिनि, शिल्पकारिन्]=शिल्पकार। स्त्री०=शिल्प।
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शिल्प-गृह  : पुं० [ष० त० स०] वह स्थान जहाँ शिल्प-संबंधी कोई कार्य होता हो। कारखाना।
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शिल्जीवी (विन्)  : पुं० [सं० शिल्प√जीव् (जीवन निर्वाह करना)+णिनि] शिल्प से जिसकी जीविका चलती हो। शिल्पी।
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शिल्पज्ञ  : वि० पुं० [सं० शिल्प√ज्ञा (जाना)+क०] शिल्प जाननेवाला।
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शिल्पता  : स्त्री० [सं० शिल्प+तल्-टाप्] शिल्प का भाव या धर्म। शिल्पत्व।
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शिल्पत्व  : पुं० [सं० शिल्प+त्व]=शिल्पता।
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शिल्पप्रजापति  : पुं० [सं० मध्यम० स०] विश्वकर्मा का एक नाम।
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शिल्प-यंत्र  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा यंत्र जिससे शिल्प सम्बन्धी काम होता या चीजें बनती हों।
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शिल्प-लिपि  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] पत्थर, ताँबे आदि पर अक्षर खोदने की कला।
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शिल्प-विद्या  : स्त्री० [ष० त०, स०] १. हाथ से तरह-तरह की चीजें बनाने की कला। २. गृह-निर्माण कला। मकान आदि बनाने की विद्या।
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शिल्प-विद्यालय  : पुं० [ष० त० स०] वह विद्यालय जिसमें अनेक प्रकार के शिल्प अर्थात् चीजें बनाने की कला सिखाई जाती हो।
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शिल्पशाला  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] कारखाना। शिल्पगृह।
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शिल्पशास्त्र  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. वह शास्त्र जिसमें दस्तकारियों का विवेचन होता है। २. वास्तुशास्त्र।
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शिल्पिक  : पुं० [सं० शिल्प+इनि+कन्] १. वह जो शिल्प द्वारा निर्वाह करता हो। कारीगर। शिल्पी। २. शिव का एक नाम। ३. नाटक का शिल्पक नामक भेद।
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शिल्पिका  : स्त्री० [सं० शिल्पिक-टाप्] एक प्रकार का तृण जो ओषधि रूप में काम आता है।
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शिल्पिनी  : स्त्री० [सं० शिल्पिन्—ङीप्
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शिल्पी (ल्पिन्)  : पुं० [सं०] १. शिल्प संबंधी काम करनेवाला व्यक्ति। शिल्पकार। कारीगर। २. मेमर। राज। ३. चित्रकार। ४.नखी नामक गन्ध द्रव्य।
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शिल्हक  : पुं० दे० ‘शिलारस’।
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शिवंकर  : पुं० [सं० शिव√कृ (करना)+खच्-मुम्] मंगल करने वाले,शिव। २. शिव का एक गण। ३. एक असुर जो रोग फैलानेवाला कहा गया है। ४. एक प्रकार का बालग्रह। ५. तलवार।
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शिवंसा  : पुं० [सं० शिव+अंश] पैदावार या फसल का वह अंश जो शैव साधुओं के लिए अनाज काटने के समय पृथक् कर दिया जाता है।
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शिव  : वि० [सं०√शी (पतला करना)+वन्, पृषो०] १. माँगलिक। शुभ। २. स्वस्थ तथा सुखी। ३. भाग्यवान्। पुं० १. कल्याण। मंगल। २. हिन्दुओं के प्रसिद्ध देवता महादेव जी त्रिमूर्ति के अंतिम देवता तथा सृष्टि का संहार करनेवाले माने गये हैं। ३. देवता। ४. देव। ५. लिंग जो शिव का चिन्ह माना जाता है। ६. परमेश्वर। ७. महाकाल या रुद्र नामक देवता। ८. वशु। ९. मोक्ष। १॰. शुभग्रह। ११. जल। पानी। १२. बालू। रेत। १३. फलित ज्योतिष में विष्कंभ आदि सत्ताइस योगों में ५-६ के विश्राम से ११ मात्राएँ अन्त में सगण, रगण नगण में से कोई एक होती है। तीसरी, छठी और नवीं मात्राएँ लघु रहती है। १५.प्लक्ष द्वीप तथा जंबू द्वीप के एक वर्ष का नाम। १६.पारा। १७. सिन्दूर। १८. गुग्गुल। १९. पुँडरीक वृक्ष। २॰ काला धतूरा। २१. आँवला। २२. कदंब। २३. मिर्च। २४. तिल का फूल। २५. चन्दन। २६. मौलसिरी। २७. लोहा। २८. फिटकरी। २९. सेंधा नमक। 3॰ समुद्री नमक। 3१. सुहागा। 3२. नीलकंठ पक्षी। 3३. कौआ। 3४.एक प्रकार का मृग। ३५.गीदड़। ३६. खूँट। ३७. गुड़ की शराब। ३८. एक प्रकार का नृत्य।
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शिवक  : पुं० [सं० शिव+कन्] १. काँटा। कील। २. खूँटा।
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शिवकर  : पुं० [सं० शिव√कृ (करना)+अच्] चौबीस जिनों में से एक।
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शिवकर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] कार्तिकेय की एक मातृका।
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शिवकांची  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थ।
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शिवकांता  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] पार्वती।
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शिवकारिणी  : स्त्री० [सं० शिव√कृ (करना)+णिनि-ङीष्] मंगल करनेवाली, दुर्गा।
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शिवकारी  : वि० [शिव√कृ (करना)+णिनि-दीर्घ, नलोप] [स्त्री० शिवकारिणी] १. कल्याण करने वाला। २. शुभ।
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शिव-कीर्तन  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. शिव का भजन तथा स्तुति। २. शिव का कीर्तन करनेवाला शैव। ३. विष्णु। ४. शिव के द्वारपाल।
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शिवक्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. कैलास। २. काशी।
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शिवगंगा  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऐसा नदी या जलाशय जो शिव के मंदिर के समीप हो।
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शिव-गति  : पुं० [सं० ब० स० वा] जैनों के अनुसार एक अर्हत का नाम। वि० १. सुखी। २. समृद्ध।
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शिवगिरि  : पुं० [सं० ष० त० स०] कैलास (पर्वत)।
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शिव-चतुर्दशी  : स्त्री० [मध्यम० स०] १. फाल्गुन बदी चौदस जिस दिन शिवरात्रि का उत्सव मनाया जाता है। २. शिवरात्रि।
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शिवता  : स्त्री० [सं०] १. शिव का धर्म, पद या भाव। २. शिवसायुज्य। मोक्ष। अमरता।
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शिव-तीर्थ  : पुं० [मध्य० स०] काशी।
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शिवतेज (स्)  : पुं० [सं० ष० त० स०] पारा। पारद।
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शिवत्व  : पुं० [शिव+त्व]=शिवता।
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शिवदत्त  : पुं० [सं० तृ० त० स०] विष्णु का चक्र।
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शिव-दिशा  : स्त्री० [सं० ष० त०] ईशान कोण जिसके स्वामी शिव है।
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शिवदूती  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. दुर्गा। २. एक योगिनी।
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शिवदैव  : पुं० [सं० ब० स०] आर्द्रा नक्षत्र जिसके अधिष्ठाता देवता शिव हैं।
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शिव-द्रुम  : पुं० [सं० मध्यम० स०] बेल का पेड़ जिसकी पत्तियाँ भगवान शिव को चढ़ाई जाती हैं।
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शिवधातु  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. पारद। पारा। २. गोदंती नामक मणि।
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शिवनंदन  : पुं० [सं० शिव√नन्द (हर्षित करना)+ल्यु-अन] शिव जी के पुत्र गणेश।
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शिवनाथ  : पुं० [सं० कर्म० स०] शिव। महादेव।
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शिव-नाभि  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का शिव-लिंग जो अन्य शिव-लिगों में श्रेष्ठ माना जाता है।
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शिवनामी  : स्त्री० [सं०+हि०] वह चादर जिस पर शिव का नाम अनेक स्थानों पर छपा होता है तथा जिसे शिवभक्त ओढ़ते हैं।
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शिवनारायणी (णिन्)  : पुं० [सं० शिव-नारायण, द्व० स०—इनि] हिन्दुओं का एक संप्रदाय।
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शिव-निर्माल्य  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. शिव को अर्पित किया या चढ़ाया हुआ पदार्थ सिर पर उपभोग वर्जित है। २. परम अग्राह्य वस्तु।
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शिव-पीठिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह आधार जिस पर शिवलिंग स्थापित किया जाता है।
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शिवपुत्र  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. गणेश। २. कार्तिकेय। ३. पारा। पारद।
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शिवपुर  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. जैनों का स्वर्ग जहाँ वे मुक्ति का सुख भोगते हैं। मोक्ष-शिला। २. काशी।
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शिवपुराण  : पुं० [सं० मध्यम० स०] अठारह पुराणों में से एक पुराण जो शैव पुराण भी कहा जाता है और जिसमें शिव की महिमा बतलाई गई है।
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शिवपुरी  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] काशी।
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शिव-प्रिय  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. रुद्राक्ष। २. धतूरा। ३. भाँग। विजया। ४. अगस्त का पेड़। ५. बिल्लौर। स्फटिक।
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शिव-प्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त० स० टाप्] दुर्गा।
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शिव-बीज  : पुं० [सं० ष० त० स०] पारा जो शिव जी का वीर्य कहा गया है।
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शिवमल्लिका  : स्त्री० [सं० शिवमल्ल+कन्—टाप्—इत्व] १. वसु नामक पुष्प वृक्ष। २. आक। मदार। ३. अगस्त का पेड़। ४. शिवलिंग। ५. श्रीवल्ली वृक्ष।
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शिवमल्ली  : स्त्री० [सं० शिवमल्ल—ङीप्] १. मौलसिरी। २. आक। मदार। ३. वक वृक्ष। ४. लिगंनी लता।
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शिवमात्र  : पुं० [सं० शिव+मात्रच्] बौद्धों के अनुसार एक बहुत बड़ी संख्या का नाम।
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शिवरंजनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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शिवराजी  : पुं० [हिं० शिव+राज] एक प्रकार का बहुत बड़ा कबूतर।
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शिवरात्र  : स्त्री०=शिवरात्रि।
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शिवरात्रि  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] १. फाल्गुन बदी चतुर्दशी। (कहते हैं कि इसी रात्रि को शिव-पार्वती का विवाह हुआ था। २. किसी चान्द्र मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी।
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शिव-रानी  : स्त्री० [सं०+हिं०] पार्वती।
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शिव-लिंग  : पुं० [सं० ष० त० स०] लिंग के आकार का वह सिला-खंड जिसे महादेव जी की पिंडी मानकर पूजा जाता है। शिव की लिंगमूर्ति।
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शिवलिंगी  : स्त्री० [सं० शिवलिंग-ङीप्] एक प्रकार की प्रसिद्ध लता। बिजगुरिया। पचगुरिया। वि० शिव लिंग संबंधी।
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शिव-लोक  : पुं० [सं० ष० त०] शिव जी का लोक, कैलास।
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शिव-वल्लभा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. दुर्गा। २. सेवती।
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शिववल्ली  : स्त्री०=शिवलिगी।
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शिव-वाहन  : पुं० [सं० ष० त० स०] नंदी नामक बैल जिसकी सवारी शिव करते थे।
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शिव-वीर्य  : पुं० [सं० ष० त० स०] पारा जो शिव का वीर्य कहा गया है।
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शिव-वृषभ  : पुं० [सं० ष० त० स०] शिव का बैल अर्थात् नंदी।
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शिव-शंकरी  : स्त्री० [सं० शिव-शंकर—ङीष्, शिवशंकरी] देवी की एक मूर्ति।
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शिव-शेखर  : पुं० [सं० ब० स० ष० त० स० वा] १. शिव का मस्तक। २. धतूरा। ३. आक। मदार। ४. वक वृक्ष।
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शिव-शैल  : पुं० [सं० ष० त० स०] कैलास पर्वत।
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शिव-सायुज्य  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. शिव का पद। मोक्ष। २. मृत्यु।
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शिव-सुन्दरी  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] दुर्गा।
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शिवा  : स्त्री० [सं० शिव-टाप्] पार्वती। २. दुर्गा। ३. मुक्ति। मोक्ष। ४. मादा गीदड़। गीदड़ी। ५. हर्रे। ६. सोआ नामक साग। ७. सफेद कीकर। शमी। ८. आँवला। ९. हल्दी। १॰. दूब। ११. गोरोचन। १२. श्यामा लता। १३. धौ। १४. अनंतमूल। १५. एक बुद्धि-शक्ति।
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शिवाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] रुद्राक्ष।
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शिवाटिका  : स्त्री० [सं० शिव√अट् (खोजना)+ण्वुल्-अक—टाप्, इत्व] १. वंशपत्री नामक तृण। २. सफेद पुनर्नवा। ३. हिंगुपत्री। ४. कठूमर।
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शिवात्मक  : पुं० [सं० ब० स०] सेंधा नमक।
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शिवानंदी  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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शिवानी  : स्त्री० [सं० शिव-ङीष्-आनुक] १. दुर्गा। २. जयंती। वृक्ष।
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शिवा-प्रिय  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. शिव। २. बकरा जिसका शिवा अर्थात् दुर्गा के आगे बलिदान किया जाता है।
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शिवा-बलि  : पुं० [सं० चतु० त० स०] दुर्गा के निमित्त, की जानेवाली बलि (तंत्र)।
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शिवायतन  : पुं० [सं० ष० त० स०]=शिवालय।
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शिवारुत  : पुं० [सं० ष० त० स०] गीदड़ के बोलने का शब्द जिससे शुभाशुभ का विचार किया जाता है।
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शिवालय  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. ऐसा देवालय जिसमें शिव-लिगं स्थापित हो। २. देव मंदिर। (क्व०) ३. श्मशान। मरघट। ४. लाल तुलसी।
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शिवाला  : पुं० [सं० शिवालय] १. शिव जी का मंदिर। शिवालय। २. देव-मंदिर। (क्व०) ३. लोहारों, सुनारों आदि की भट्ठी।
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शिवालु  : पुं० [सं० शिव√अल् (पूरा होना)+उन्] श्रृंगाल। सियार।
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शिवि  : पुं० [सं०√शि+वि, गुणाभाव] १. एक प्रसिद्ध दानी राजा जो उशीनर के पुत्र और ययाति के नाती थे। प्रसिद्ध है कि ये कपोत (अग्नि) के रक्षार्थ बाज (इन्द्र) को अपने शरीर का सारा मांस देने के लिए उद्यत हो गये थे।
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शिविका  : स्त्री० [सं० शिव+णिच्-ण्वुल्-अक-टाप्,इत्व] पालकी। डोली।
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शिविर  : पुं० [सं०√शो (पतला करना)+किरच्, वुकच्] १. खेमा। २. सैनिक। पड़ाव। छावनी। ३. किला। दुर्ग। ४. आज-कल, वह स्थान जहाँ कोई बड़ा आदमी या दल कुछ समय के लिए ठहरा हो। पड़ाव। (कैम्प) ५. एक प्रकार का धान्य।
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शिवीरथ  : पुं० [सं० कर्म० स०] पालकी। शिविका।
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शिवेतर  : वि० [सं० ष० त० स०] जो शिव अर्थात् मांगलिक न हो। अमांगलिक। अशुभ।
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शिवेश  : पुं० [सं० ष० त० स०] श्रृंगाल। गीदड़। सियार।
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शिवेष्ट  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. अगस्त वृक्ष। २. बिल्व। बेल।
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शिवेष्टा  : स्त्री० [सं० शिवेष्ट-टाप्] दूब।
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शिवोद्भव  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन तीर्थ (महाभारत)।
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शिवोपनिषद्  : स्त्री० [सं० मध्मय० स०] एक उपनिषद् का नाम।
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शिशन  : पुं०=शिश्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शिशिर  : पुं० १. माघ और फाल्गुन की ऋतु। २. शीतकाल। जाडा। ३. हिम। पाला। ४. विष्णु। ५. एक प्रकार का अस्त्र। ६. सूर्य। ७. लाल चन्दन। वि० [शश+किरच्-निपा] १. बहुत अधिक ठंडा। २. ठंढ से जमा हुआ।
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शिशिर-कर  : पुं० [ब० स०] चन्द्रमा।
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शिशिर-किरण  : पुं० [ब० स०] चन्द्रमा।
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शिशिरता  : स्त्री० [सं० शिशिर+तल्-टाप्] १. शिशिर का भाव या धर्म। २. बहुत अधिक सर्दी।
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शिशिर-मयूख  : पुं० [ब० स०] चन्द्रमा।
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शिशिर-रश्मि  : पुं० [ब० स०] चन्द्रमा।
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शिशिरांत  : पुं० [सं० ष० त० स० ब० स० वा] शिशिर ऋतु के अन्त में होनेवाली ऋतु अर्थात बसंत।
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शिशिरांशु  : पुं० [सं० ब० स०] चन्द्रमा।
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शिशिराक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] पुराणानुसार एक पर्वत जो सुमेरु के पश्चिम में कहा गया है।
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शिशु  : पुं० [सं० शो+कु, सन्वद्भावोद्वित्त्वञ्च] [भाव० शिशुता, शैशव] १. बहुत छोटा बच्चा (बेबी) २. सात-आठ वर्ष तक की अवस्था का बालक (इन्फैन्ट) ३. पशुओं आदि का बच्चा। ४. कार्तिकेय का एक नाम।
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शिशुक  : पुं० [सं० शिशु+कन्] १. शिशुमार या सूँस नामक जल-जंतु। २. छोटा शिशु। ३. एक प्रकार का वृक्ष। ४. एक प्रकार का साँप।
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शिशु-कल्याण केन्द्र  : पुं० [सं० ष० त०] छोटे बच्चों की देखभाल तथा कल्याण के उद्देश्य से बनाया हुआ स्थान (चाइल्ड वेलफ़ेयर सेंटर)।
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शिशुकृच्छु  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का चन्द्रायण व्रत जिसे शिशु चान्द्रायण या स्वल्प चान्द्रायण भी कहते हैं।
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शिशु-गंध  : स्त्री० [सं० ब० स] मल्लिका। मोतिया।
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शिशु-चांद्रायण  : पुं० [सं० मध्यम० स०] शिशुकृच्छ (दे०)।
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शिशुता  : स्त्री० [सं० शिशु+तल्-टाप्] शिशु होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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शिशुताई  : स्त्री०=शिशुता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शिशुत्व  : पुं० [सं० शिशु+त्व]=शिशुता।
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शिशुधानी  : स्त्री० [सं० ष० त०] [वि० शिशुधानीय] कुछ विशिष्ट प्रकार के जंतुओं में पेट के आगे की वह थैली जिसमें वे अपने नव-जात बच्चे रखकर चलते हैं।
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शिशुनाग  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक राक्षस का नाम। २. दे० ‘शैशुनाग’।
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शिशुपन  : पुं०=शिशुता।
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शिशुपाल  : पुं० [सं० शिशु√पाल् (पालन करना)+अच्] चेदि देश का एक प्रसिद्ध राजा जिसे श्रीकृष्ण ने मारा था।
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शिशुमार  : पुं० [सं० शिशु√मृ (मरना)+णिच्-अच्] १. सूँस नामक जलजंतु। २. एक नक्षत्र-मंडल जिसकी आकृति मगर या सूँस की तरह है। ३. कृष्ण। ४. विष्णु। ५. सौर जगत्।
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शिशुमार-चक्र  : पुं० [सं० मध्यम० स०] सौर जगत्।
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शिश्न  : पुं० [सं० शश+नक्, नि०] पुरुष की जननेन्द्रिय। लिंग।
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शिश्नोदरपरायण  : वि० [सं० शिश्नोदर पर+फक्-आयन] कामुक (या लंपट) और पेटू।
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शिश्नोदरवाद  : पुं० [सं० शिश्नोदर√वद (कहना)+अण्] वह वाद मत या संप्रदाय जिसका संबंध जननेंद्रिय और उदर से हो, जैसे—फ्रायड का काम सिद्धान्त या मार्क्स का समाजवाद (व्यंग्य के रूप में)।
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शिष  : पुं०=शिष्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=सीख। (शिक्षा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शिषरी  : पुं० [सं० शिष√रा (लेना)+क-इनि] अपामार्ग। चिचड़ा। वि०=शिखरी (शिखर से युक्त)।
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शिषा  : स्त्री०=शिखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शिषि  : पुं०=शिष्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शिषी  : पुं०=शिखी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शिष्ट  : वि० [सं०√शास्+क्त,√शिष+क्त] [भाव० शिष्टता] १. (व्यक्ति) जो एक सामाजिक प्राणी के रूप में दूसरों से सभ्यतापूर्ण तथा सौजन्यपूर्ण व्यवहार करता हो। २. धीर तथा शान्त। ३. बुद्धि-मान। ४. आज्ञाकारी। ५. प्रसिद्ध। पुं० १. मंत्री। वजीर। २. सभासद्। सभ्य।
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शिष्ट-कथ  : वि० [सं० शिष्ट√कथ्+णिच्-अच्] शिष्टतापूर्वक बात चीत करनेवाला।
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शिष्टता  : स्त्री० [शिष्ट+तल्-टाप्] १. शिष्ट होने की अवस्था, गुण या भाव। २. शिष्ट आचरण। ३. उत्तमत्ता। श्रेष्ठता। ४. अधीनता।
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शिष्टत्व  : पुं० [शिष्ट+त्व]=शिष्टता।
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शिष्टमंडल  : पुं० [सं० ष० त०] १. शिष्ट व्यक्तियों का दल। २. किसी विशिष्ट कार्य के लिए कहीं भेजा जाने वाला विशिष्ट व्यक्तियों का दल (डेपुटेशन)। जैसे—जापान या रूस से सांस्कृतिक सम्पर्क बढाने के लिए भेजा जानेवाला शिष्ट-मंडल। ३. दे० ‘प्रतिनिधिमंडल’।
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शिष्ट-सभा  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] प्राचीन भारत की राज्यसभा या राज्यपरिषद्।
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शिष्टाचार  : पुं० [ष० त० स०] १. शिष्टतापूर्ण आचरण और व्यवहार। २. ऐसा आचरण जो साधारणतया एक सामाजिक प्राणी से अपेक्षित हो। ३. ऊपरी या दिखावटी सभ्य व्यवहार। ४. आवभगत। सत्कार।
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शिष्टाचारी (रिन्)  : पुं० [सं० शिष्टाचार+इनि, शिष्ट-आ√चर् (चलना)+णिनि वा] १. शिष्ट आचरण करनेवाला। २. सदाचारी। ३. विनम्र। ४. किसी समाज, संस्था, कार्यालय आदि द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार आचरण करनेवाला। वि० शिष्टाचार संबंधी।
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शिष्टि  : स्त्री० [सं०√शास् (अनुशासन करना)+क्तिन्] १. आज्ञा। आदेश। २. शासन। हुकूमत। ३. दंड। सजा। ४. सुधार। ५. सहायता।
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शिष्ण  : पुं०=शिश्न।
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शिष्य  : पुं० [सं०√शास् (अनुशासन करना)+क्पष्] [भाव० शिष्यता] १. वह जो शिक्षक से किसी प्रकार की शिक्षा पाता हो। विद्यार्थी। २. किसी की दृष्टि से वह व्यक्ति जिसने उससे विद्या सीखी हो। ३. वह जिसने किसी को अपना गुरु और आदर्श मानकर उससे कुछ पढ़ा या सीखा हो या उसके दिखलाये मार्ग का श्रद्धापूर्वक अनुकरण किया हो। चेला। शागिर्द। (डिसाइपुल)। ४. वह जिसने गुरु आदि से गुरुमंत्र लिया हो। चेला। ५. वह जो अभी हाल में श्रावक बना हो।
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शिष्यता  : स्त्री० [सं० शिष्य+तल्-टाप्] शिष्य होने की अवस्था या भाव। शिष्यत्व।
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शिष्यत्व  : पुं० [सं० शिष्य+त्व]=शिष्यता।
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शिष्य-परंपरा  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] किसी गुरु के सम्प्रदाय की परम्परागत शिष्य मंडली।
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शिष्या  : स्त्री० [सं० शिष्य-टाप्] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सात गुरु अक्षर होते हैं। शीर्षरूपक। स्त्री० सं० शिष्य का स्त्री।
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शिस्त  : स्त्री० [फा०] १. मछली पकड़ने का काँटा। बंसी। २. आघात आदि का लक्ष्य। निशाना। क्रि० प्र—बाँधना।—लगाना। ३. दूरबीन की तरह का एक प्रकार का यंत्र जिससे जमीन नापने के समय सीध देखी जाती है। ४. अँगूठा।
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शिस्तबाज  : पुं० [फा०] १. शिस्त लगाकर मछली पकड़नेवाला। २. निशानेबाज।
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शिह्लक  : पुं० [सं० शिर+लक्, नि० स्=श] शिलारस नाम का गंध द्रव्य।
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शी  : स्त्री० [सं०√ (शयन करना)+क्विप्] १. शांति। २. शयन। ३. भक्ति।
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शीआ  : पुं०=शीया।
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शीकर  : पुं० [सं०√शीक+करन्] १. पानी की बूँद। २. बहुत छोटी बूँदों के रूप में होनेवाली वर्षा। फुहार। २. ओस। ३. वायु। ४. जाड़ा। ठंड। शीत। ५. गन्ध-बिरोजा। ७. धूप नामक गन्ध द्रव्य।
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शीघ्र  : अव्य० [सं० शिधि+रक्, पृषो०] १. बिना बिलंब किए। बिना अधिक समय बिताये। २. तत्क्षण। तुरंत। पद-शीघ्र ही=कुछ ही समय बाद। ३. फुरती से।
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शीघ्रकारी  : वि० [सं० शीघ्र√कृ (करना)+णिनि; शीघ्रकारिन्] १. शीघ्र कार्य करनेवाला। काम करने में तेज। फुरतीला। २. शीघ्र प्रभाव दिखानेवाला। ३. उग्र। तीव्र। पुं० एक प्रकार का सन्निपात ज्वर।
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शीघ्रकोपी  : वि० [सं० शीघ्र√कुप् (करना)+णिनि] १. जल्दी गुस्सा होनेवाला। २. चिड़चिड़े स्वभाववाला।
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शीघ्रग  : वि० [सं० शीघ्र√गम् (जाना)+ड] तेज चलनेवाला। द्रुतगामी। पुं० १. सूर्य। २. वायु। ३. खरगोश।
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शीघ्रगामी (मिन्)  : वि० [सं० शीघ्र√गम् (जाना)+णिनि, शीघ्रगामिन्] [स्त्री० शीघ्रगामिनी] तेज चलने वाला।
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शीघ्रता  : स्त्री० [सं० शीघ्र+तल्-टाप्] १. वह स्थिति जिसमें जल्दी जल्दी कोई काम किया जाता है। जल्दी। २. तेजी। ३. जल्दबाजी। उतावलापन।
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शीघ्रत्व  : पुं० [सं० शीघ्र+त्व]=शीघ्रता।
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शीघ्रपतन  : पुं० [सं० ब० स०] स्त्री० सहवास के समय पुरुष के वीर्य का जल्दी स्खलित हो जाना।
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शीघ्रवेधी  : पुं० [सं० शीघ्र√विध् (वेधना)+णिनि] शीघ्रता से बाण चलाने या निशाना लगाने वाला। लघु-हस्त।
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शीघ्र  : स्त्री० [सं० शीघ्र-टाप्] १. एक प्राचीन नदी। २. दंती वृक्ष।
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शीघ्रिय  : पुं० [सं० शीघ्र+घ-ईय] १. शिव। २. विष्णु। ३. बिल्लियों की लड़ाई। वि० १. शीघ्रगामी। २. तेज।
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शीघ्री (घ्रिन्)  : वि० [सं० शीघ्र+इनि] १. शीघ्रकारी। २. शीघ्रगामी। ३. तुरंत उच्चारण करनेवाला।
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शीघ्र्य  : पुं० [सं० शीघ्र+यत्]=शीघ्रता।
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शीत  : वि० [√श्यै (स्पर्श करना)+क्त] १. ठंढ़ा। शीतल। २. शिथिल। सुस्त। पुं० १. जाड़ा। ठंढ़। सरदी। २. जाड़े का मौसम। ३. जुकाम। प्रतिश्याय। ४. कपूर। ५. दालचीनी। ६. बेंत। ७. लिसोड़ा। ८. नीम। ९. ओस। १॰. कोहरा। तुषार। ११. पित्तपापड़ा। १२. एक प्रकार का चंदन। १३. जल। पानी।
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शीतक  : वि० [शीत्√कृ (करना)+ड] १. ठंड या ठंडक उत्पन्न करनेवाला। २. आलसी। पुं० [सं० शीत√कृ (करना)+ड] १. शीतकाल। जाड़े का मौसम। २. बिच्छू। ३. वन-सनई। ४. एक प्रकार का चन्दन। ५. शीत विशेषतः ठंडक उत्पन्न करनेवाला एक यंत्र जिससे गर्मी के दिनों में कमरे ठंढे रखे जाते हैं। (कूलर)।
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शीत-कटिबंध  : पुं० [सं० ब० स०] भूगोल में पृथ्वी के वे कल्पित विभाग जो भूमध्यरेखा से २३½ अंश उत्तर के बाद और २३½ अंश दक्षिण के बाद पड़ते हैं और जिनमें अपेक्षया अधिक सरदी पडती है। (फरीजिड जोन)।
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शीतकर  : पुं० [सं० ब० स०] १. ठंडी किरणोंवाला, अर्थात् चंद्रमा। २. कपूर। वि० ठंढ़ा या शीतल करनेवाला।
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शीत-काल  : पुं० [सं० ष० त०] १. हेमंत ऋतु। २. सरदी के दिन। जाड़े का मौसम।
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शीत-किरण  : वि० [सं० ब० स०] शीतल किरणोंवाला। पुं० चन्द्रमा।
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शीत-किरणी  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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शीत-कृच्छ्  : पुं० [सं० मध्यम० स०] मिताक्षरा के अनुसार एक प्रकार का व्रत।
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शीतक्षार  : पुं० [सं० कर्म० स०] शुद्ध सुहागा।
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शीतगंध  : पुं० [सं० ब० स०] चंदन। संदल।
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शीतगात्र  : पुं० [सं० ब० स०] शरीर के ठंढ़े पड़ने का एक रोग।
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शीतगु  : पुं० [सं० ब० स०] १. चन्द्रमा। २. कपूर।
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शीतचंपक  : पुं० [सं०] १. दर्पण। शीशा। २. दीपक। दीआ।
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शीत-च्छाय  : वि० [ब० स०] जिसकी छाया शीतल हो। पुं० बड़ का पेड़। जिसकी छाया ठंडी होती है।
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शीत-ज्वर  : पुं० [सं० मध्य० स०] जाड़ा देकर आनेवाला बुखार। विषम ज्वर। जूड़ी।
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शीत-तरंग  : स्त्री० [सं०] १. शीतकाल में सहसा तापमान के गिरने से होनेवाली ऐसी उग्र ठंढ जिसमें हाथ-पैर गलने लगते हैं। २. किसी दिशा में पड़नेवाली शीत की वह तरंग जिससे दो चार दिनों के लिए सरदी बहुत बढ़ जाती है। (कोल्ड-वेव)
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शीतता  : स्त्री० [सं० शीत+तल्-टाप्] १. शीत का भाव या धर्म। शीतत्व। ठंढ़ापन। २. सरदी।
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शीतत्व  : पुं० [सं० शीत+त्व] शीतता।
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शीतदंत  : पुं० [सं० ब० स०] एक रोग जिसमें ठंढ़ी हवा तथा ठंडा पानी दाँतों में लगने के फलस्वरूप पीड़ा होती है।
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शीत-दीधिति  : पुं० [सं० ब० स०] चन्द्रमा जिसकी किरणें शीतल होती है।
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शीतद्युति  : पुं० [सं० ब० स०] चन्द्रमा।
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शीतन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० शीतित] ठंढ़ा करने की क्रिया या भाव। (कूलिंग)।
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शीतपर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०] अर्कपुष्पी।
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शीतपाकी  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. काकोली नामक अष्टवर्गीय ओषधि। २. घुँघची। ३. अतिबला। ककही।
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शीतपित्त  : पुं० [सं० ब० स०] शीतकाल में होनेवाला एक प्रकार का रोग जिमसें अचानक सारे शरीर में छोटे-छोटे चकते निकल आते हैं और उनमें बहुत तेज खुजली होती है। जुड़-पित्ती (यूरिकेरिआ)।
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शीतपुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] १. छरीला। शैलेय। २. केवटी मोथा। ३. सिरिस का पेड़।
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शीतपुष्पा  : स्त्री० [सं० शीतपुष्प—टाप्] ककही। अतिबला।
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शीत-पूतना  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] भावप्रकाश के अनुसार एक प्रकार का बालग्रह या बालरोग।
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शीतप्रभ  : पुं० [सं० ब० स०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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शीतफल  : पुं० [सं० ब० स०] १. गूलर। २. पीलू। ३. अखरोट। ४. आँवला। ५. लिसोड़ा।
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शीतभानु  : पुं० [सं० ब० स०] चन्द्रमा।
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शीत-मयूख  : पुं० [सं० ब० स०] १. चन्द्रमा। २. कपूर।
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शीत-मरीचि  : पुं० [सं० ब० स०] १. चन्द्रमा। २. कपूर।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
शीत-मेह  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का प्रेमह रोग।
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शीतमेही (हिन्)  : पुं० [सं० शीतमेह+इनि] वह जिसे शीत मेह रोग हो।
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शीतयुद्ध  : पुं० [सं० मध्य० स०] राष्ट्रों के पारस्परिक व्यवहार में वह स्थिति जिसमें प्रत्यक्ष रूप से युद्ध तो नहीं होता, फिर भी प्रत्येक राष्ट्र अपने आपको प्रभावशाली तथा सशक्त बनाने के लिए ऐसी राजनीतिक चालें चलता है जिनके कारण दूसरे राष्ट्रों के सामने बड़ी-बड़ी उलझनें खडीं हो जाती है। (कोल्ड वार)
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शीत-रश्मि  : पुं० [सं० ब० स०] १. चन्द्रमा। २. कपूर।
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शीत-रस  : पुं० [सं० ब० स०] प्राचीन भारत में ईख के कच्चे रस की बनी हुई एक प्रकार की मदिरा।
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शीतरुच  : पुं० [सं० ब० स०] चन्द्रमा।
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शीतरुह  : पुं० [सं० ब० स०] सफेद कमल।
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शीतल  : वि० [सं० शीत√ला+क] १. शीत उत्पन्न करनेवाला। सर्द। ठंडा। ‘उष्ण’ का विपर्याय। २. जिसमें कुछ कुछ ठंढक हो। जैसे—शीतल समीर। ३. जो शीतलता या ठंढक प्रदान करता हो। ४. जिसमें आवेश न हो। शांत। ५. प्रसन्न। ६. संतुष्ट। पुं० १. कसीस। २. छरीला। ३. चन्दन। ४. मोती। ५. उशीर। खस। ६. बनसनई। ७. लिसोढ़ा। ८. चंपा। ९. राल। १॰. पद्यकाठ। ११. पीत। चंदन। १२. भीमसेनी कपूर। १३. शाल वृक्ष। १४. हिम। १५. मटर। १६. चन्द्रमा। १७. जैनों का एक प्रकार का व्रत।
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शीतलक  : पुं० [सं० शीतल√कन्] १. मरुआ। मरुवक। २. कुमुद। वि० शीतल करनेवाला।
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शीतल-चीनी  : स्त्री० [सं० शीतल+हि० चीनी] कबाब चीनी।
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शीतलच्छाय  : वि० [सं० ब० स०]=शीतच्छाय।
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शीतलता  : स्त्री० [सं० शीतल+तल्-टाप्] १. शीतल होने की अवस्था, धर्म गुण या भाव। २. जड़ता।
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शीतलताई  : स्त्री०=शीतलता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शीतलत्व  : पुं० [सं० शीतल+त्व]=शीतलता।
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शीतल-पाटी  : स्त्री० [सं०+हि] एक प्रकार की चिकनी पतली और बढ़िया चटाई।
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शीतल-भंडार  : पुं० [सं० ब० स०] १. विशेष प्रकार से निमित्त तथा यंत्रों आदि से संचालित वह भंडार गृह जिसका तापमान कृत्रिम रूप से कम कर दिया जाता है तथा जिसके फलस्वरूप उसमें रखी हुई चीजें ताप के कुप्रभाव से सुरक्षित रहती है। ठंढा गोदाम। (कोल्ड स्टोरेज)। २. शीतागार। सर्दखाना।
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शीत-लहरी  : स्त्री० [सं०]=शीत तरंग (देखें)।
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शीतला  : स्त्री० [सं० शीतल-टाप्] १. एक प्रसिद्ध रोग जिसमें शरीर पर दाने या फफोले निकल आते हैं। २. उक्त की अधिष्ठात्री देवी। ३. नीली दूब। ४. अर्क पुष्पी।
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शीतला-वाहन  : पुं० [सं० ष० त०] गधा, जो शीतला देवी का वाहन कहा गया है।
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शीतला-षष्ठी  : स्त्री० [ष० त०] माघ शुक्ल षष्ठी जो शीतला देवी के पूजन की तिथि कही गई है।
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शीतलाष्टमी  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] चैत्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी जो शीतलादेवी के पूजन की तिथि कही गई है।
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शीतली  : स्त्री० [सं० शीतल-ङीष्] १. जल में होनेवाला एक प्रकार का पौधा। २. श्रीवल्ली। ३. चेचक या शीतला नामक रोग।
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शीतवल्ली  : स्त्री० [सं० ब० स०] नीली दूब।
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शीतवासा  : स्त्री० [सं० ब० स०] जूही। यूथिका।
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शीत-वीर्य  : पुं० [सं० ब० स०] १. पदुम काठ। २. पाषाण-भेद नामक वनस्पति। ३. पित्त-पापड़ा। ४. पाकर वृक्ष। ५. नीली दूब। ६. बच। वि० (पदार्थ) जो खाने पर शरीर में ठंढक लाता हो। ठंढ़ी तासीरवाला।
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शीत-शिव  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. सेंधा नमक। २. छरीला। पत्थरफूल। ३. सोआ नामक साग। ४. शमी वृक्ष। ५. कपूर।
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शीत-शिवा  : स्त्री० [सं० शीत-शिव-टाप्] शमी वृक्ष। २. सौंफ।
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शीतशूक  : पुं० [सं० ब० स०] जौ। यव।
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शीत-संग्रह  : पुं० [सं० ष० त० स०]=शीतल भंडार।
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शीत-सन्निपात  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का सन्निपात जिसमें शरीर सुन्न और ठंढ़ा हो जाता है।
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शीत-सह  : पुं० [सं० शीत√सह् (सहन करना)+अच्] पीलू। झल्ल वृक्ष। वि० जिसमें शीत अर्थात् ठंढ या सरदी की विशेष क्षमता हो।
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शीत-सहा  : स्त्री० [सं० शीतसह-टाप्] १. शेफालिका। २. नेवारी। ३. मोतिया। बेला। ४. चमेली। ५. पीलू वृक्ष।
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शीत-सीमांत  : पुं० दे० ‘शीताग्र’।
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शीतांग  : पुं० [सं० ब० स०] शीत सन्निपात। वि० ठंढे अंगोंवाला।
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शीतांगी  : स्त्री० [सं० शीतांग-ङीष्] हंसपदी लता।
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शीतांशु  : पुं० [सं० ब० स०] १. चन्द्रमा। २. कपूर।
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शीता  : स्त्री० [सं० शीत-टाप्] १. सरदी। ठंढ़। २. एक प्रकार की दूब। ३. शिल्पिका नामक घास। ४. अमलतास।
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शीतागार  : पुं० [सं०]=शीतल भंडार।
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शीताग्र  : पुं० [सं० ष० त०] किसी ओर से आनेवाली शीतल वायु की धारा का वह अग्र भाग जो गरम वायु के सामने आ पड़ने के कारण कुछ नीचे दब जाता है और शीत की हल्की तह के रूप में किसी प्रदेश के ऊपर से होता हुआ आगे बढ़ता है (कोल्ड फ्रन्ट)। विशेष—जब यह शीताग्र किसी प्रदेश के ऊपर से होकर गुजरता है तब उस प्रदेश में तापमान और वायुमान गिर जाता है,आँधी आती और वर्षा होती है।
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शीतातप  : पुं० [सं० द्व० स०] शीत और आतप दोनों। जाड़ा और गरमी।
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शीताद  : पुं० [सं० शीत-आ√दा (देना)+का] एक प्रकार का रोग जिसमें मसूड़ों से दुर्गंध निकलने लगती है।
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शीताद्रि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] हिमालय पर्वत।
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शीताद्य  : पुं० [सं० शीताद+यत्] शीतज्वर। जड़ी बुखार।
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शीताभ  : पुं० [सं० ब० स०] १. चन्द्रमा। २. कपूर।
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शीतालु  : वि० [सं० शीत+आलुच्] १. शीत के फलस्वरूप जो काँप रहा हो। २. शीत से संत्रस्त।
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शीताश्म (मन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] चन्द्रकांत मणि।
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शीतोदक  : पुं० [सं० ब० स०] एक नरक का नाम।
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शीतोष्ण  : वि० [सं० द्व० स०] १. ठंढा और गरम। १. कुछ-कुछ ठंढा और कुछ-कुछ गरम।
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शीतकार  : पुं०=सीत्कार।
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शीधु  : पुं० [सं० शी+वुक्] मदिरा। शराब। विशेषतः ऊख के रस को सड़ाकर बनाई जानेवाली शराब।
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शीन  : वि० [सं०√शयै (गमनादि)+क्त-संप्रसा०त=न] १. मूर्ख। २. जमा हुआ। पुं०=अजगर। पुं० [अ०] १. अरबी फारसी वर्णमाला का एक वर्ण जिसका उच्चारण तालव्य श का सा होता है। २. उक्त वर्ण का सूचक लिपिचिन्ह। मुहावरा-शीन काफ दुरुस्त होना=शब्दों के ठीक उच्चारण का उचित ज्ञान होना।
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शीर  : पुं० [सं० शीर से फा०] दूध। पुं० [सं०] अजगर। वि० नुकीला।
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शीरखिस्त  : पुं० [फा०] एक प्रकार की यूनानी रेचक ओषधि।
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शीरखोरा  : वि० [फा० शीरख्वार] (बालक) जो अभी अपनी माँ का दूध पीता हो।
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शीरगर्म  : वि० [फा०] (तरल पदार्थ) जो उबलता हुआ न हो, बल्कि साधारण गर्म हो। उतना ही गरम जितना पीने योग्य दूध होता है।
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शीरमाल  : पुं० [फा०] एक प्रकार की मीठी रोटी जिसे पकाते समय दूध का छींटा दिया जाता है।
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शीरा  : पुं० [फा० शीरः] गुड़, चीनी, मिसरी आदि के घोल को उबालकर तैयार की हुई चाशनी।
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शीराज  : पुं० [फा०] एक प्रसिद्ध ईरानी नगर।
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शीराजा  : पुं० [फा० शीराजः] १. वह फीता जो किताबों की सिलाई की छोर पर शोभा और मजबूती के लिए लगाया जाता है। २. इन्तजाम। प्रबन्ध। व्यवस्था। ३. क्रम। सिलसिला। ४. कपड़ों की सिलाई। सीयन। क्रि० वि०—खुलन।—टूटना।
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शीराज़ी  : वि० [फा०] शीराज का। पुं० १. शीराज का निवासी। २. एक प्रकार का कबूतर।
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शीरीं  : वि० [फा०] १. मधुर। मीठा। २. प्रिय। रुचिकर।
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शीरी  : पुं० [सं० शीर+इनि] १. कुश। कुशा। २. मूँज। ३. कलिहारी। लांगली।
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शीरीनी  : स्त्री० [फा०] १. मिठास। मधुरिमा। २. मिठाई। मिष्ठान्न। ३. गुरु, देवता, पीर आदि के सामने आदरपूर्वक रखी जानेवाली मिठाई। क्रि० प्र०—चढाना।—बाँटना।
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शीर्ण  : भू० कृ० [सं०√शृ (टुकड़े होना)+क्त] [भाव० शीर्णता] १. खंड-खंड। टुकडे़-टुकड़े। २. गिरा हुआ। च्युत। ३. टूटा या फटा हुआ और फलतः बहुत पुराना। ४. कुम्हलाया या मुरझाया हुआ। ५. दुबला-पतला। कृश। पुं० थुनेर नामक गन्ध द्रव्य।
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शीर्णता  : स्त्री० [शीर्ण+तल्-टाप्] शीर्ण होने की अवस्था या भाव।
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शीर्णत्व  : पुं० [शीण+त्व]=शीर्णता।
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शीर्णपत्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. कर्णिकार। कनियारी। २. पठानी लोध। ३. नीम।
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शीर्णपर्द  : पुं० [सं० ब० स०] निंब। नीम।
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शीर्णपाद  : पुं० [सं० ब० स०] यमराज।
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शीर्णपुष्पी  : स्त्री० [सं० शीर्णपुष्प—ङीप्] सौंफ।
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शीर्ति  : स्त्री० [सं०√शृ (टुकड़े करना)+क्तिन्] तोडऩे-फोडने की क्रिया। खंडन।
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शीर्य  : वि० [सं०शृ (खंड करना)+क्विप्-यत्] १. जो तोड़ा-फोड़ा जा सके। २. भंगुर। नाशवान्। पुं० एक प्रकार की घास।
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शीर्ष  : पुं० [शिरस्-शीर्ष, पृषो√शृ+क, सुक् वा०] १. किसी चीज का सबसे ऊपरी तथा उन्नत सिरा। २. सिर। ३. मस्तक। ललाट। ४. काला अगर। ५. एक प्रकार की घास। ६. एक प्राचीन पर्वत। ७. ज्यामिति में वह बिन्दु जिस पर दो ओर से दो तिरछी रेखाएँ आकर मिलती हों (वर्टेक्स) ८. खाते में किसी मद का नाम (हेड)।
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शीर्षक  : पुं० [सं० शीर्ष√कै (होना)+क] १. सिर। १. मस्तक। माथा। ३. ऊपरी भाग। चोटी। ४. सिर की हड्डी। ५. टोपी आदि शिरस्त्राण। ६. लेखों आदि के ऊपर दिया जानेवाला उनका ऐसा नाम जिससे उनके विषय का कुछ परिचय मिलता हो (हेडिंग)। ७. राहु ग्रह।
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शीर्ष-कोण  : पुं० [सं० मध्य० स०] ज्यामिति में किसी आकृति का वह कोण जो तल के ठीक ऊपरी भाग में खड़े बल में होता है। (वर्टिकल एंगिल)।
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शीर्ष-नाम  : पुं० [सं० मध्य० स०] लेख्य, विधान आदि का वह पूरा नाम जो उसके आरम्भ में विशेषतः मुख पृष्ठ पर रहता है।
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शीर्ष-पट  : पुं० [सं० ष० त० स०] सिर पर लपेटा जानेवाला वस्त्र अर्थात् पगड़ी या साफा।
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शीर्ष-रक्ष  : पुं० [शीर्ष√रक्ष् (रक्षा करना)+अण्] शिरस्त्राण।
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शीर्ष-रेखा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. किसी वर्ण के ऊपरवाली रेखा या लकीर। २. देव-नागरी लिपि में चिन्हों के ऊपर की सीधी बेड़ी रेखा।
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शीर्ष-बिंदु  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. आँख का मोतिय-बिंद नामक रोग। २. दे० ‘शिरोबिन्दु’।
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शीर्ष-स्थान  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. सबसे ऊँचा स्थान। २. सिर।
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शीर्षण्य  : पुं० [सं० शीर्ष+यत्-शीर्षन्] १. टोपी। २. सिर के साफ और सुलझे बाल। ३. खाट या चारपाई का सिरहाना। ४. पगड़ी। साफा।
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शीर्षासन  : पुं० [सं० शीर्ष+आसन] हठयोग, व्यायाम आदि में एक प्रकार का आसन या मुद्रा जिसमें सिर नीचे और पैर ऊपर करके सीधे खड़ा हुआ जाता है।
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शीर्षोदय  : पुं० [सं० ष० त० स०] मिथुन, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, कुंभ, और मीन राशियाँ जिनका उदय शीर्ष की ओर से होना माना गया है।
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शील  : पुं० [सं०√शील (अभ्यास)+अच्] १. मनुष्य का नैतिक आचरण और व्यवहार, विशेषतः उत्तम और प्रशंसनीय या शुभ आचरण और व्यवहार। (डिस्पोजीशन)। विशेष—शील वस्तुतः मनुष्य की प्रकृति और व्यक्तित्व से संबद्ध होता है, और इसीलिए कहीं कहीं यह स्वभाव के पर्याय के रूप में भी प्रयुक्त होता है। यह प्रायः सुनिश्चित और अस्थायी या स्थिर भी होता है। यह स्वभाव के चारित्रिक पक्ष या रूप में होता है, इसीलिए इसे देहस्वभाव भी कहते हैं। मुहावरा—शील निभाना= (क) सद्-व्यवहार में अंतर न आने देना। (ख) किसी के द्वारा अनिष्ट होने पर भी उसका अनिष्ट न करना। (किसी स्त्री का) शील भंग करना=किसी स्त्री के साथ व्यभिचार कर उसकी सतीत्व नष्ट करना। ३. हमारे मन की वह सदभावना पूर्ण वृत्ति जो विकट प्रसंग आने पर भी हमें उग्र, उद्धत या कटु नहीं होने देती और जो हमारी विनम्रता, शिष्टता आदि की सूचक होती है (माडेस्टी) विशेष-यह वृत्ति बहुत कुछ अर्जित होती और शिक्षा तथा शिष्ट समाज के संपर्क से प्राप्त होती है। ३. वह मानसिक वृत्ति जिसमें लज्जा और संकोच की प्रधानता होती है, और इसीलिए उचित अवसरों पर भी प्रायः कोई बात नहीं कहने देती। मुरौवत। मुहावरा-शील तोड़ना=मुरौवत न करना या न रखना।
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शीलन  : पुं० [सं०√शील् (अभ्यास करना)+ल्युट—अन] १. अभ्यास। २. विवेचना। ३. प्रवर्तन। ४. धारण करना। ५. ग्रहण करना।
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शीलवान्  : वि० [सं० शील+मतुप्—म=व, नुम् शीलवत्] [स्त्री० शीलवती] १. उत्तम शीलवाला। २. शीलों का पालन करनेवाला। (बौद्ध)
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शीलींध्र  : पुं० [सं० शिली√धृ (रखना)+क, पृषो, मुम्] १. केले का फूल। २. ओला। ३. कुकुरमुत्ता। ४. शिलिंद मछली।
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शीश  : पुं० दे० ‘शीर्ष’।
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शीश-तरंग  : पुं० [हि० शीश+सं० तरंग] जलतरंग की तरह का एक बाजा। जिसमें दो पटरियों पर शीशे के छोटे-छोटे बहुत से टुकड़े जड़े होते हैं। इन्हीं शीशों पर आघात करने से अनेक प्रकार के स्वर निकलते हैं।
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शीशम  : पुं० [सं० शिशिपा से फा०] एक प्रकार का पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत बढ़िया होती है और इमारत तथा मेज कुरसियां आदि बनाने के काम आती है।
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शीश-महल  : पुं० [फा० शीश+अ० महल] १. शीशे का बना हुआ मकान। २. वह कमरा या कोठरी जिसकी दीवारों में सर्वत्र शीशे जड़े हों। पद-शीशमहल का कुत्ता=ऐसा व्यक्ति जो उस कुत्ते की तरह घबराया या बौखला गया हो जो शीशमहल में पहुँचकर अपने चारों ओर कुत्ते ही कुत्ते देखकर घबरा या बौखला जाता है।
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शीशा  : पुं० [फा०] १. एक प्रसिद्ध कड़ा और भंगुर पदार्थ जो बालू, रेह या खारी मिट्टी को आग में गलाने से बनता है, और जिससे अनेक प्रकार के पात्र, दर्पण आदि बनते हैं। २. उक्त का वह रूप जिसमें ठीक-ठीक प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। आईना। दर्पण। पद—शीशा-बाशा=बहुत नाजुक चीज। मुहावरा—शीशे में मुँह तो देखो=पहले अपनी पात्रता या योग्यता तो देखों (व्यंग्य) ३. उक्त पदार्थ का बना हुआ वह पात्र जिसमें प्राचीन काल में शराब रखी जाती थी। पद—शीशे का देव=शराब। मुहावरा—शीशे में उतारना= (क) भूत, प्रेत आदि को मंत्र बल से बाँधकर शीशे के पात्र में बन्द करना। (ख) किसी को अपनी ओर आकृष्ट या अनुरक्त करके अपने वश में करना। ४. झाड़ फानूस आदि काँच के बने सजावट के सामान। ५. लाक्षणिक अर्थ में बहुत ही चिकनी तथा चमकीली वस्तु।
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शीशागर  : पुं० [फा०] [भाव० शीशागरी] शीशे बनानेवाला कारीगर।
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शीशागरी  : स्त्री० [फा०] शीशे की चीजें बनाने का काम तथा हुनर।
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शीशी  : स्त्री० [फा० शीशा] काँच की लम्बी कुप्पी। बोतल के आकार का छोटा पात्र। मुहावरा—शीशी सुँघाना=अस्त्र चिकित्सा करने से पहले एक खास दवा सुँघाकर रोगी को इसलिए बेहोश करना कि चीर-फाड से उसे कष्ट या पीड़ा न हो।
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शुंग  : पुं० [सं० शम्+ग, अ=उ] १. वट वृक्ष। बरगद। २. आँवला। ३. पाकड़। ४. वृक्षों आदि का नया पत्ता। ५. फूल के नीचे की कटोरी। ६. एक क्षत्रिय राजवंश जिसने मौर्यों के उपरांत मगध पर शासन किया था।
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शुंगी (गिन्)  : पुं० [सं० शुंग+इनि, शुग्ङिन] १. पाकर। पाकड़ का पेड़। २. वट-वृक्ष। बरगद।
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शुंठी  : स्त्री० [सं० शुंठ—ङीप्] सोंठ।
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शुंड  : पुं० [सं० शुन+ड] १. हाथी का सूँड़। २. हाथी का मद। ३. एक तरह की शराब।
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शुंडक  : पुं० [सं० शुंड+कन्] १. एक प्रकार की रणभेरी। २. शौंडिक।
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शुंडा  : स्त्री० [सं० शंड-टाप्] १. सूँड़। २. शराबखाना। हौली। ३. मदिरा। शराब। ४. रंडी। वेश्या। ५. कुटनी।
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शुंडा-दंड  : पुं० [सं० उपमि० स०] हाथी का सूँड़।
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शुंडार  : पुं० [सं० शुंडा+र] १. हाथी की सूँड़। २. साठ वर्ष की अवस्था का हाथी। ३. कलवार।
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शुंडाल  : पुं० [सं० शुंडा+लच्] हाथी।
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शुंडिक  : पुं० [सं० शुंडा+ठक्-इक] १. वह जो शराब बनाने का व्यवसाय करता हो। २. शराब बनानेवाली एक जाति। ३. मद्य बिकने का स्थान। मद्यशाला।
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शुंडिका  : स्त्री० [सं० शुंडिक-टाप्] गले के अन्दर की घाँटी। अलिजिह्वा। ललरी। घाँटी।
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शुंडी  : पुं० [सं० शंड+अच्-ङीष्,शुंडिन] १. हाथी। २. कलवार। शौंडिक। स्त्री० १. हाथी सूँड़ी नाम का पौधा। २. गले के अन्दर की घाँटी। कौआ।
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शुंभ  : पुं० [सं०√शुभ् (दीप्त होना आदि)+अच्] प्रह्लाद का पौत्र एक असुर जिसे दुर्गा ने मारा था।
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शुंभ-मर्दिनी  : स्त्री० [शुंभ√मृद् (मर्दन करना)+णिनि-ङीष्] दुर्गा।
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शुक  : पुं० [√शुक् (गमनादि)+क] १. तोता। सुग्गा। २. शुक्रदेव मुनि। ३. कपड़ा। वस्त्र। ४. पहने हुए कपडे का आँचल। ५. पगड़ी। साफा। ६. सिरिस का पेड़। ७. लोध। ८. सोनापाठा। ९. भड़-भाँड़। १॰. तालीश पत्र। ११. एक प्रकार की गठिवन।
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शुक-कीट  : पुं० [सं० उपमि० स०] हरे रंग का एक प्रकार का फतिंगा जो प्रायः खेतों में उड़ता फिरता है।
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शुक-कूट  : पुं० [सं० ष० त० स०] दो खंभों के बीच में शोभा के लिए लटकाई हुई माला।
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शुकच्छद  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. तोते का पर। २. गठिवन। ३. तेजपत्ता।
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शुकतरु  : पुं० [सं० मध्य० स०] शिरीष (वृक्ष)।
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शुकतुंड  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. तोते की चोंच। २. हाथ की एक मुद्रा जो तांत्रिक पूजन के समय बनाई जाती है।
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शुकतुंडी  : स्त्री० [सं० शुक-तुंड—ङीप्] सूआठोंठी नामक पौधा।
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शुकदेव  : पुं० [सं० मध्यम० स०] कृष्ण द्वैपायन व्यास के पुत्र जो पुराणों के बहुत बड़े वक्ता और ज्ञानी थे।
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शुकद्रुम  : पुं० [सं० मध्य० स०] शिरीष वृक्ष।
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शुकनलिकान्याय  : पुं० [सं० ष० त० मध्य० स०] एक प्रकार का न्याय। जिस प्रकार तोता फँसाने की नली में लोभ के कारण फँस जाता है, वैसे ही फँसने की क्रिया या भाव।
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शुकनाम  : पुं० [सं० ब० स०] १. केवाँच। कौंछ। २. गंभारी। ३. नलिका नामक गंध द्रव्य। ४. श्योनाक। सोना-पाढ़ा। ५. अगस्त का पेड़।
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शुकपुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] १. थुनेर। २. सिरिस का पेड़। ३. गन्धक। ४. अगस्त का पेड़।
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शुकप्रिय  : वि० [सं० ष० त०] तोते को प्रिय लगनेवाला। पुं० १. सिरिस का पेड़। २. कमरख।
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शुकप्रिया  : स्त्री० [सं० शुकप्रिय—टाप्] १. नीम। २. जामुन।
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शुक-फल  : पुं० [सं० ब० स०] १. आक। मदार। २. सेमल।
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शुक-वाहन  : वि० [सं० ब० स०] जिसका वाहन शक हो। पुं० कामदेव।
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शुकशिंबा, शुकशिंबि  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] कपिकच्छु। केवाँच। कौंछ।
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शुकशीर्षा  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. धुनेर। २. तालीश पत्र। ३. तेजपत्ता।
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शुकादन  : पुं० [सं० शुक√अद् (खाना)+ल्युट—अन] अनार। दाड़िम।
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शुकायन  : पुं० [सं० ब० स०] १. गौतम बुद्ध। २. अर्हत।
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शुकी  : स्त्री० [सं० शुक-ङीप्] १. तोते की मादा। तोती। सुग्गी। २. कश्यप मुनि की पत्नी का नाम।
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शुकेष्ट  : पुं० [सं० ष० त० स०] शिरीष वृक्ष।
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शुकोदर  : पुं० [सं० ब० स०] तालीश पत्र।
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शुकोह  : पुं० [फा०] दे० ‘शिकोह’।
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शुक्त  : भू० कृ० [सं०√शुच् (शोक करना)+क्त] [भाव० शुक्ति] १. स्वच्छ। निर्मल। २. खट्टा। अम्लीय। ३. कड़ा। ४. खुरदरा। ५. अप्रिय। ६. उजाड़। ७. निर्जन। ८. मिला हुआ। मिश्रित। ९. श्लिष्ट। पुं० १. अम्लता। खटाई। २. सड़ाकर खट्टी की हुई चीज। खमीर। ३. काँजी। ४. सिरका। ५. चुक नाम की खटाई। ६. गोश्त। मांस। ७. अप्रिय और कठोर बात।
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शुक्ता  : स्त्री० [सं० शुक्त-टाप्] १. चुक का पौधा। २. काँजी।
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शुक्ति  : स्त्री० [सं०√शुच् (शोकादि)+क्तिन्] १. सीप। सीपी। २. सतुही। ३. शंख। ४. बेर। ५. नखी नामक गन्ध द्रव्य। ६. अर्श या बवाशीर नामक रोग। ७. कापालिकों के हाथ में रहनेवाला कपाल। ८. अस्थि। हड्डी। ९. दो कर्ष या चार तोले की एकतौल। १॰. आँख का एक रोग जिसमें मांस की एक बिंदी सी निकल आती है। ११. घोड़े के गरदन की एक भौंरी।
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शुक्तिक  : पुं० [सं० शुक्ति+कन्] १. एक प्रकार का नेत्र रोग। २. गन्धक।
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शुक्तिका  : स्त्री० [सं० शुक्तिक-टाप्] १. सीप। २. चुक नामक साग। ३. आँख का शुक्ति नामक रोग।
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शुक्तिज  : पुं० [सं० शुक्ति√जन् (उत्पन्न करना)+ड] मोती। वि० शुक्ति अर्थात् सीप से उत्पन्न।
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शुक्तिपुट  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. सीप का खोल। २. शंख। ३. सुतुही नामक जल-जन्तु तथा उसका खोल।
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शुक्तिबीज  : पुं० [सं० ष० त० स०] मोती।
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शुक्तिमणि  : पुं० [ष० त० स०] मोती।
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शुक्तिमती  : स्त्री० [सं० शुक्ति+मतुप्-ङीष्] १. एक प्राचीन नदी। २. चेदि राज्य की राज्यधानी।
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शक्तिमान् (मत्)  : [सं० शुक्तिमत्—नुम्—दीर्घ] एक पर्वत जो आठ कुल-पर्वतों में से है।
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शुक्ति-वधू  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. सीप। सीपी। २. सीपी में रहनेवाला कीड़ा।
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शुक्र  : वि० [सं० शुच्+रक्] १. चमकीला। देदीप्यमान। २. साफ। पुं० १. अग्नि। आग। ३. हमारे सौर ग्रह का एक प्रमुख तथा बहुत चमकीला ग्रह जो कभी-कभी दिन के प्रकाश में भी दिखाई देता है। तथा जो पुराणानुसार दैत्यों का गुरु कहा जाता है। विशेष—यह सूर्य से ६७,०००,००० मील दूर है। यह सूर्य का पूरा चक्कर प्रायः २०० से कुछ अधिक दिनों में लगाता है। ३. शुद्ध और स्वच्छ सोम। ४. सोना। स्वर्ण। ५. धन-संपत्ति। दौलत। ६. सार भाग। सत्त। ७.पुरुष का वीर्य। ८.पौरुष। ९.पुतली या चीता नामक वृक्ष। १॰. एरंड। रेंड। ११. आँख की पुतली का फूली नामक रोग। १२. दे० ‘शुक्रवार’। पुं० [अ०] किसी उपकार या लाभ के लिए किया जानेवाला कृतज्ञता का प्रकाश। जैसे—शुक्र है आप आ तो गये।
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शुक्र-कर  : वि० [सं० शुक्र√कृ (करना)+अच्] वीर्य बनानेवाला। पुं० मज्जा, जिससे शुक्र या वीर्य का बनना कहा गया है। (वैद्यक)
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शुक्र-कृच्छ्र  : पुं० [सं० ब० स०] मूत्रकृच्छ रोग। सूजाक।
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शुक्रगुजार  : वि० [अ० शुक्र+फा० गुज़ार] [भाव० शुक्रगुजारी] १. किसी का शुक्र अर्थात् आभार माननेवाला। २. आभार प्रकट या प्रदर्शित करनेवाला।
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शुक्रगुज़ारी  : स्त्री० [अ+फा०] शुक्रगुजार होने की अवस्था या भाव। आभार प्रकट या प्रदर्शित करना।
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शुक्रज  : पुं० [सं० शुक्र√जन् (उत्पन्न करना)+ड] १. पुत्र बेटा। २. जैन देवताओं का एक वर्ग। वि० शुक्र से उत्पन्न।
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शुक्र-ज्योति  : स्त्री० [सं० ब० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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शुक्र-दोष  : पुं० [सं० ब० स०] नपुंसकता।
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शुक्र-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] १. कटसरैया। २. सफेद अपराजिता।
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शुक्र-प्रमेह  : पुं० [सं० ब० स०] वीर्य के क्षय होने का एक रोग। धातु का गिरना।
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शुक्रभुज्  : पुं० [सं० शुक्र√भुज् (खाना)+क्विप्] मोर। मयूर।
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शुक्रभू  : पुं० [सं० शुक्र√भू (होना)+क्विप्] भज्जा।
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शुक्रमेह  : पुं० [सं०] वीर्य के क्षय होने का एक रोग।
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शुक्रल  : वि० [सं० शुक्र√ला (लेना)+क०] १. जिसमें शुक्र या वीर्य हो। १. शुक्र या वीर्य उत्पन्न करने या बढ़ानेवाला।
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शुक्रवार  : पुं० [सं० ष० त० ब० स० मध्यम० स० वा] सप्ताह का छठा दिन। बृहस्पतिवार के बाद का शनिवार से पहले का दिन। जुमेरात।
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शुक्र-वासर  : पुं० [ष० त० स०] शुक्रवार।
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शुक्र-शिष्य  : पुं० [सं०] १. शुक्राचार्य। २. असुर।
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शुक्र-स्तंभ  : पुं० [सं० ब० स०] काम का वेग रोकने के फलस्वरूप होनेवाली नपुंसकता।
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शुक्रांग  : पुं० [सं० ब० स०] मयूर। मोर।
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शुक्राचार्य  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. असुरों के देवता जो महर्षि भृगु के पुत्र थे और युद्ध में मरे हुए असुरों को मंत्र-बल से फिर से जिला देते थे। पुराणों के अनुसार वामन रूप धारण करके विष्णु ने इन्हें काना कर दिया था। २. काना या एकाक्ष व्यक्ति। (व्यंग्य)
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शुक्राणु  : पुं० [सं० ष० त०] नर या पुरुष के वीर्य का वह अणु जो मादा या स्त्री के अंड अथवा गर्भ में प्रविष्ट होकर संतान उत्पत्ति का कारण होता है (स्पर्म)।
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शुक्राना  : पुं० [फा० शुक्रानः] वह धन जो किसी को शुक्रिया अदा करते समय दिया जाता है। जैसे—वकील या डाक्टर को दिया जानेवाला शुक्राना।
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शुक्रिम  : वि० [सं० शुक्र+इमनिच्]=शुक्रल।
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शुक्रिंय  : वि० [सं० शुक्र+घ—इय] १. शुक्र संबंधी। शुक्र का। २. जिसमें शुद्ध रस हो। ३. शुक्र बढ़ानेवाला।
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शुक्रिया  : पुं० [फा० शुक्रियः] किसी के उपकार या अनुग्रह के बदले में कृतज्ञता प्रकट करते समय कहा जानेवाला शब्द। धन्यवाद। क्रि० प्र०—अदा करना।
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शुक्ल  : वि० [सं०√शुच् (पवित्र करना आदि)+लच्, कुत्व] १. सफेद। स्वेत। २. सात्विक। ३. यशस्कर। ४. चमकीला। पुं० १. सरयूपारी आदि ब्राह्मणों के एक वर्ग का अल्ल या कुल नाम। २. चान्द्रमास का शुक्ल पक्ष। ३. सफेद रेंड का पेड़। ४. आँखों का एक प्रकार का रोग जो उसके सफेद तल या डेले पर होता है। ५. कुन्द का पौधा और फूल। ६. सफेद लोध। ७. मक्खन। ८. चाँदी। ९. धव। धौ। १॰. योग।
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शुक्ल-कंद  : पुं० [सं० ब० स०] १. भैंसाकंद। २. शंखालु साँख। ३. अतीस।
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शुक्ल-कंदा  : स्त्री० [सं० कर्म० स० टाप्] १. सफेद अतीस। २. बिदारी कंद।
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शुक्लक  : पुं० [सं० शुक्ल+कन्] १. शुक्ल पक्ष। २. खिरनी का पेड़। वि०=शुक्ल।
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शुक्ल-कुष्ठ  : पुं० [सं० कर्म० स०] सफेद कोढ़।
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शुक्ल-क्षेत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. पवित्र स्थान। २. तीर्थ स्थान।
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शुक्लता  : स्त्री० [सं० शुक्ल+तल्-टाप्] शुक्ल होने की अवस्था धर्म या भाव।
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शुक्लत्व  : पुं० [सं० शुक्ल+त्व]=शुक्लता।
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शुक्ल-पक्ष  : पुं० [सं० कर्म० स०] चांद्रमांस में कृष्ण पक्ष से भिन्न दूसरा पक्ष। चाँदना पक्ष।
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शुक्ल-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] १. क्षत्रक पक्ष। २. कुंद का पौधा और फूल। ३. मरुआ पौधा। ४. सफेद ताल मखाना। ५. पिंडार। ६. मैन-फल।
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शुक्लपुष्पा  : स्त्री० [सं० शुक्ल पुष्प-टाप्] १. हाथी शुंडी नामक क्षुप। २. शीत कुंभी। ३. कुंद नाम का पौधा और फूल।
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शुक्लपुष्पी  : स्त्री० [सं० शुक्ल पुष्प-ङीप्] १. नागदती। २. कुंद का पौधा और फूल।
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शुक्लफेन  : पुं० [सं० ब० स०] समुद्र फेन।
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शुक्ल-बल  : पुं० [सं० ब० स०] जैनों के अनुसार एक जिन देव का नाम।
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शुक्ल-मंडल  : पुं० [सं० ब० स०] आँखों का सफेद भाग जो पुतली से भिन्न होता है।
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शुक्ल-मेह  : पुं० [सं०] चरक के अनुसार एक प्रकार का प्रमेह रोग।
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शुक्ल-शाल  : पुं० [सं० ब० स०] १. गिरि निंब। २. सफेद शाल का वृक्ष।
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शुक्लांग  : वि० [सं० ब० स०] श्वेत अंगोंवाला।
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शुक्लांगा  : स्त्री० [सं० शुक्लांग-टाप्] शेफालिका।
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शुक्लांबर  : पुं० [सं० कर्म० स०] सेफेद कपड़ा। वि० जो श्वेत वस्त्र पहने हो।
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शुक्ला  : स्त्री० [सं० शुक्ल+अच्-टाप्] १. सरस्वती। २. चीनी। ३. काकोली। ४. शेफालिका। ५. बिदारी कन्द। ६. शूकर कन्द।
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शुक्लाभिसारिका  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] साहित्य में वह परकीया नायिका जो शुक्ल पक्ष या चाँदनी रात में अपने प्रेमी से मिलने के लिए सजधर कर संकेत स्थल पर जाती है।
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शुल्लाम्ल  : पुं० [सं० कर्म० स०] चूका या चुक्रिका नामक साग।
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शुक्लिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० शुक्ल+इमनिच्] सफेदी। श्वेतता।
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शुक्लोदन  : पुं० [सं० ब० स०] ललित बिस्तर के अनुसार महाराज शुद्धोधन के भाई का नाम।
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शुक्लोपला  : स्त्री० [सं० कर्म० ब० स० अच्, टाप्] चीनी। शर्करा।
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शुक्लौदन  : पुं० [सं० कर्म० स०] अरवा चावल।
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शुगल  : पुं०=शगल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शुचा  : स्त्री० [सं०√शुच् (शोक करना)+क्विप्-टाप्] शोक। स्त्री०=शुचि।
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शुचि  : वि० [सं०√शुच्+कि] [भाव० शुचिता] १. शुद्ध। पवित्र। साप। स्वच्छ। ३. निर्दोष। ४. स्वच्छ हृदयवाला। ईमानदार और सच्चा। ५. चमकीला। स्त्री० १. पवित्रता। शुद्धता। २. स्वच्छता। पुं० १. सफेद रंग। २. सूर्य। ३. चन्द्रमा। ४. अग्नि। ५. शिव। ६. शुक्र नामक ग्रह। ७. ग्रीष्म ऋतु। गरमी के दिन। ८. ज्येष्ठ मास। जेठ मास का महीना। पुं० [सं० शुच्+कि] १. अग्नि। २. चन्द्रमा। ३. ग्रीष्म ऋतु। ४. शुक्र। ५. ब्राह्मण। ६. कार्तिकेय। ७. चित्रक या चीता नामक वृक्ष।
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शुचिकर्मा (र्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] सदाचारी।
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शुचिता  : स्त्री० [सं० शुचि+तल्—टाप्] १. शुचि होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से खान-पान, रहन-सहन आदि में भद्रता और सफाई रखने की अवस्था या भाव (सैनिटेशन)।
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शुचिद्रुम  : पुं० [सं० कर्म० स०] पीपल।
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शुचिरोचि  : पुं० [सं० ब० स० शलिरोचिस्] चन्द्रमा।
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शुचिश्रवा (वस्)  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु का एक नाम।
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शुची  : वि० [सं० शुच् (पवित्र करना)+क्विप्-इति, शुचिन] शुचि अर्थात् पवित्र या शुद्ध रहने वाला।
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शुजा  : वि० [अ० शुजाअ] शुरबीर। दिलेर।
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शुजाअत  : स्त्री० [अ०] वीरता। शूरता।
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शुटीर्य  : पुं० [सं०] १. वीरता। २. वीर्य।
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शुतुद्रि, शतुद्रु  : स्त्री० [सं०] शतद्रु या सतलज नदी।
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शुतुर  : पुं० [सं० उष्ट्र से फा] ऊँट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शुतुर गमजा  : पुं० [फा०] वह भद्दा और भोंडा नखरा जो ऊँट के नखरे की तरह का जान पड़े।
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शुतुर बे मुहार  : वि० [फा०] बिना सोचे-समझे अनियंत्रित रूप से इधर उधर या किसी ओर चल पड़नेवाला।
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शुतुरमुर्ग  : पुं० [फा०] मुर्गे की जाति का एक पक्षी जिसकी गरदन काफी लम्बी होती है।
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शुतुरी  : वि० [फा०] १. ऊँट संबंधी। २. ऊंट के रंग का। ३. ऊँट के बालों का बना हुआ।
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शुदनी  : स्त्री० [फा०] आकस्मिक और निश्चित रूप से होनेवाली घटना या बात। भावी। होनी। होनहार।
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शुदबुद  : स्त्री० [फा०] किसी काम या बात का थोड़ा ज्ञान। स्त्री०=सुध-बुध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शुदा  : वि० [फा० शुदः] जो हो या बीत चुका हो। (समास में के अतं में) जैसे—पासशुदा, रजिस्ट्रीशुदा।
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शुद्ध  : वि० [सं०√शुध् (शोधन करना)+क्त] १. (पदार्थ) जिसमें किसी प्रकार का खोट या मैल न हो। खालिस। २. (पदार्थ या व्यक्ति) जिसमें कोई ऐब या दोष न हो। निर्दोष। ३. (व्यक्ति) जिसका धार्मिक या नैतिक दृष्टि से पतन न हुआ हो। जो भ्रष्ट न हुआ हो। ५. पाप से रहति। निष्पाप। ६. साफ और सफेद। ७. उज्जवल। चमकीला। ८. (गणना या लेख) जिसमें कोई अशुद्धि गलती या भूल न हो। ९. अनुपम। बेजोड़। १॰. (शास्त्र) जिसकी धार चोखी या तेज की गई हो। सान पर चढ़ाया हुआ। पुं० १. सेंधा नमक। २. काली मिर्च। ३. चाँदी। ४. एक तरह की घास। ५. शिव। ६. चौदहवें मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। ७. संगीत शास्त्र में प्राचीन अथवा मार्ग रागों की संज्ञा। जैसे—भैरव, मेघ आदि राग।
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शुद्ध-कर्मा (र्मन्)  : वि० [ब० स०] शुद्ध और पवित्र कर्म करनेवाला।
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शुद्ध-तरंगिणी  : स्त्री० [सं० ब० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिणी।
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शुद्घता  : स्त्री० [सं० शुद्ध+तल्-टाप्] शुद्ध होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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शुद्धत्व  : पुं० [सं० शुद्ध+त्व]=शुद्धता।
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शुद्ध-पक्ष  : पुं० [सं०] चान्द्र मास का शुक्ल पक्ष।
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शुद्ध-भोगी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की रागिनी।
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शुद्ध-मंजरी  : स्त्री० [सं० ब० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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शुद्ध-मनोहरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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शुद्धमांस  : पुं० [सं०] पकाया हुआ ऐसा मांस जिसमें हड्डी न हो (वैद्यक)।
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शुद्धांत  : पुं० [सं० ब० स०] १. प्राचीन भारत में राजाओं का अंतःपुर जो शुद्ध और पवित्र माना जाता था। २. दे० ‘धवलगृह’।
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शुद्धांत पालक  : पुं० [सं० ष० त०] वह जो अंतःपुर के द्वार पर पहरा देता हो।
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शुद्धांता  : स्त्री० [सं० शुद्धांत-टाप्] रानी।
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शुद्धा  : स्त्री० [सं० शुद्ध-टाप्] कुटज बीज। इन्द्र जौ।
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शुद्धात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] शिव का एक नाम।
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शुद्धाद्वैत  : पुं० [सं० शुद्ध+अद्वैत] वल्लभाचार्य का चलाया हुआ एक वेदान्तिक संप्रदाय। इसमें माया रहित ब्रह्म को अद्वैत तत्त्व माना जाता है और सारा जगत् प्रपंच उसी की लीला का विलास है।
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शुद्धापह्नुति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] साहित्य में अपह्नुति अलंकार का एक भेद जिसमें अति सादृश्य के कारण सत्य होने पर भी उपमान को असत्य कहकर उपमान को सत्य सिद्ध किया जाता है।
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शुद्धाशुद्धि  : स्त्री० [सं० द्व० स० या ब० स०] शुद्ध और अशुद्ध होने की अवस्था या भाव।
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शुद्धि  : स्त्री० [सं०√शुध् (शोधन करना)+क्तिन्] १. शुद्ध होने की अवस्था, धर्म या भाव। शुद्धता। २. सफाई। स्वच्छता। पवित्रता। शुचिता। ४. चमक। द्युति। ५. ऋण आदि का चुकता होना या चुकाया जाना। परिशोध। ६. गणित में घटाने की क्रिया बाकी। ७. कोई ऐसा धार्मिक कृत्य जो किसी अपवित्र वस्तु को पवित्र अथवा धर्म-च्युत व्यक्ति को फिर से धर्म में मिलाने या धार्मिक बनाने के लिए किया जाय। ८. दुर्गा का एक नाम।
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शुद्धिकंद  : पुं० [सं० ब० स०] लहसुन।
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शुद्धिपत्र  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. आज-कल ग्रन्थों आदि के अन्त् में लगाया जानेवाला वह पत्र जिससे सूचित हो कि कहाँ क्या अशुद्धि है। (एर्राटा)। २. प्राचीन भारत में वह व्यवस्था पत्र जो प्रायश्चित के उपरान्त शुद्धि के प्रमाण में पंडितों की ओर से दिया जाता था। (शुक्रनीति।
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शुद्धोद  : पुं० [सं० ब० स०] समुद्र। सागर।
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शुद्धोदन  : पुं० [सं० ब० स०] भगवान् बुद्धदेव के पिता का नाम।
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शुद्धोदनि  : पुं० [सं० शुद्धोदन+इनि] विष्णु का एक नाम।
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शुनः शेफ  : पुं० [सं०] अजीगर्त ऋषि के पुत्र जिन्हें अजीगर्त ने यज्ञ में बलि चढ़ाने के लिए दे दिया था पर जिन्होंने कुछ वेदमंत्र सुनाकर अपने आपको बलिदान होने से बचाया था।
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शुन  : पुं० [सं०√शुन् (गमनादि)+क] १. कुत्ता। २. वायु। हवा। ३. आराम। सुख।
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शुनक  : पुं० [सं० शुन+कन्] १. कुत्ता। २. एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि।
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शुनहोत्र  : पुं० [सं० शुन√ह (देना-लेना)+ष्ट्रन्, ष० त० स० वा] १. एक प्राचीन ऋषि का नाम। २. भरद्वाज ऋषि के पुत्र जो ऋग्वेद के कई मंत्रों के द्रष्टा हैं।
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शुनामुख  : पुं० [सं० ब० स०] हिमालय के उत्तर का एक प्राचीन प्रदेश।
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शुनाशीर, शुनासीर  : पुं० [सं० ब० स०] १. इंद्र। २. सूर्य। ३. देवता।
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शुनासीरी (रिन्)  : पुं० [सं० शुनासीर+इनि] [वि० शुनासीरीय] इन्द्र।
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शुनि  : पुं० [सं०√शुन् (गमनादि)+क-इनि] [स्त्री० शुनी] कुत्ता।
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शुबहा  : पुं० [अ० शुबहः] १. अनुमानजन्य परन्तु आधार रहित यह दृढ़ धारणा कि अमुक आपत्तिजनक या अपराधपूर्ण आचरण संभवतया अमुक व्यक्ति ने ही किया है। २. सन्देह। शक। ३. धोखा। भ्रम।
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शुभंकर  : वि० [सं० शुभ√कृ (करना)+खच्, मुम्] [स्त्री० शुभंकरी] मंगलकारक। शुभकारी।
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शुभंकरी  : स्त्री० [सं०√शुभं√कर-ङीज्] १. पार्वती। २. शमीवृक्ष।
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शुभ  : वि० [सं०√शुभ् (दीर्ति करना)+क] १. चमकीला। २. सुन्दर। जैसे—शुभ दंत। ३. (चिन्ह, मुहुर्त, लक्षण, समय आदि) जो अनुकूल लाभप्रद तथा सुख प्रद हो अथवा अनुकूलता, लाभ, सुख आदि का सूचक हो। ४. पवित्र। पुं० १. कल्याण। मंगल। २. विष्कंभादि सत्ताईस योगों के अन्तर्गत एक योग। ३. पदुम काठ। ४. चाँदी। ५. बकरा।
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शुभकर  : वि० [सं० शुभ√कृ (करना)+अच्] शुभ या मंगल करनेवाला।
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शुभकरी  : स्त्री० [सं० शुभकर-ङीष्] पार्वती।
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शुभकूट  : पुं० [सं० मध्यम० स०] सिंहल द्वीप या लंका का एक प्रसिद्ध पर्वत जिस पर चरण-चिन्ह बने हुए हैं।
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शुभग  : वि० [सं० शुभ√गम् (जाना)+ड] १. सुन्दर। २. भाग्यवान्।
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शुभ-ग्रह  : पुं० [सं० कर्म० स०] फलित ज्योतिष के अनुसार बृहस्पति, शुक्र, अपापयुक्त बुध और अर्द्धाधिक चंद्रमा जो शुभ माने जाते हैं।
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शुभ-चिंतक  : वि० [सं० ष० त०] १. शुभ-चिंतन करनेवाला। २. किसी की भलाई की बातें सोचनेवाला। शुभेच्छु।
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शुभ-चिंतन  : पुं० [सं० ष० त०] शुभ या भला चाहना।
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शुभदंता  : स्त्री० [सं० ब० स०] पुराणानुसार पुष्प-दंत नामक हाथी का हथनी का नाम।
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शुभद  : पुं० [सं० शुभ√दा (देना)+क] पीपल का पेड़। वि० शुभ फल देनेवाला। शुभकारक।
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शुभ-दर्शन  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका दर्शन होने पर शुभ फल होता। २. सुन्दर।
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शुभ-प्रद  : वि० [सं० ष० त०] शुभद। मंगलकारी।
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शुभमस्तु  : अव्य० [सं०] शुभ हो। मंगल हो।
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शुभराज  : पुं० [सं० सुम्राज] महाराज का शुभ हो। (आर्शीवाद) उदाहरण—साम्हड़ वीस आविया पु शुभराज।—ढो० मा०।
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शुभ-वासन  : वि० [सं० शुभ√वासि+ल्यु-अन] मुख को सुगन्धित करनेवाला। (द्रव्य)।
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शुभव्रत  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का व्रत जो कार्तिक शुक्ला पंचमी को किया जाता है।
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शुभशंसी (मिन्)  : वि० [सं० शुभ√शस्+णिनि] शुभ सूचना देनेवाला।
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शुभ-सूचन  : पुं० [सं० शुभ√सूच्+णिच्-ल्युट—अन] शुभ सूचना। मंगल सूचना।
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शुभस्थली  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. मंगलकारक भूमि। २. यज्ञ भूमि।
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शुभांग  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० शुभांगी] १. शुभ अंगोंवाला। २. सुन्दर।
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शुभांगी  : स्त्री० [सं० शुभांग-ङीष्] १. कुबेर की पत्नी का नाम। २. कामदेव की पत्नी रति। ३. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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शुभांजन  : पुं०=शोभांजन।
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शुभा  : स्त्री० [सं० शुभ+क-टाप्] १. शोभा। २. इच्छा। ३. अच्छी या सुन्दर स्त्री। ४. देवताओं की सेना। ५. वंशलोचन। ६. गोरोचन। ७. शमी। ८. सफेद दूब। ९. बकरी। १॰. अरारोट। ११. पुरइन की पत्ती। १२. सोआ नामक साग। १३. सफेद बच। १४. असबरग। पुं०=शुबहा।
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शुभांकांक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० शुभ-आ√कांक्ष् (चाहना)+णिनि] १. (किसी के) शुभ या मंगल की आकांक्षा करनेवाला। २. किसी की भलाई चाहनेवाला। शुभचिंतक।
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शुभाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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शुभागमन  : पुं० [सं० कर्म० स०] मंगलप्रद और सुखद आगमन।
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शुभानन  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० शुभानना] सुन्दर मुखवाला। खूबसूरत। पुं०=चन्द्रमा।
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शुभाशय  : [सं० ब० स०] [स्त्री० शुभाशया] (वह) जिसका आशय शुभ हो। अच्छे विचारवाला।
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शुभेच्छु  : वि० [सं० ब० स०] १. शुभ कामना करनेवाला। २. किसी की भलाई चाहनेवाला। शुभचिंतक।
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शुभ्र  : वि० [सं०√शुभ+रक्] [भाव० शुभ्रता] १. श्वेत। सफेद। २. उज्जवल। चमकीला। पुं० १. चाँदी। २. अबरक। ३. साँभर नमक। ४. कसीस। ५. पदुम काठ। ६. खस। ७. चरबी। ८. रूपामक्खी। ९. वंशलोचन। १॰. फिटकरी। ११. चीनी। १२. सफेद विधारा। १३. चन्द्रमा।
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शुभ्रक  : वि० [सं०] शुभ या सफेद करनेवाला। पुं० अंगराग या प्रसाधन सामग्री के रूप में एक प्रकार का तैलाक्त तरल पदार्थ जिसके व्यवहार से बालों में चमक आती है (ब्रिलियन्टीन)।
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शुभ्रकर  : पुं० [सं०] १. चन्द्रमा। २. कपूर।
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शुभ्रता  : स्त्री० [सं० शुभ्र+तल्-टाप्] १. शुभ्र होने की अवस्था, गुण धर्म या भाव।
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शुभ्र-भानु  : पुं० [सं० ब० स०] चन्द्रमा।
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शुभ्र-रश्मि  : पुं० [सं० ब० स०] चन्द्रमा।
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शुभ्रांश  : पुं० [सं० ब० स०] १. चन्द्रमा। २. कपूर।
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शुभ्रा  : स्त्री० [सं० सुभ्र-टाप्] १. गंगा। २. बंसलोचन। ३. फिटकरी। ४. चीनी।
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शुभ्रालु  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. भैंसक कंद। २. शंखालु।
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शुभ्रिका  : स्त्री० [सं० शुभ्रि+कन्-टाप्] मधुशर्करा।
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शुमार  : पुं० [फा०] [भाव० शुमारी] १. संख्या। २. लेखा० हिसाब। मुहावरा— (किसी बात का) शुमार बाँधना=अनुमान या कल्पनासे यह समझना कि आगे चलकर अमुक बात या उसका अमुक रूप होगा।
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शुमार-कुनिंदा  : पुं० [फा० शुमार-कुनिंदः] वह जिसका काम किसी प्रकार की गिनती करना हो।
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शुमारी  : स्त्री० [फा०] शुमार करने या गिनने की क्रिया या भाव। जैसे—मर्दुमशुमारी।
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शुमाल  : पुं० [अ०] [वि० शुमाली] १. बायाँ हाथ। २. उत्तर दिशा जो सूर्योदय की दिशा (पूरब) की ओर मुँह करके खड़े होने पर बाई ओर पड़ती है।
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शुमाली  : वि० [अ०] उत्तर दिशा में होनेवाला। उत्तरीय।
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शुरबा  : पुं०=शोरबा।
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शुरुआत  : स्त्री० [अ० शुरूआत] पहल।
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शुरू  : पुं० [अ० शुरुऊ] प्रारंभ। आरंभ।
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शुल्क  : पुं० [सं√शुल्क+घञ्] १. वह धन जो वस्तुओं की उत्पत्ति, उपभोग, आयात, निर्यात आदि करने पर कानूनन कर के रूप में देय हो। २. वह धन जो किसी संस्था को विशिष्ट सुविधा प्रदान करने पर दिया जाता है। जैसे—प्रवेश शुल्क, चिकित्सा शुल्क, शिक्षा शुल्क। ३. प्राचीन भारत में वह धन जो कन्या का विवाह करने के बदले में उसका पिता वर के पिता से लेता था। ४. कन्या के विवाह में दिया जानेवाला दहेज। ५. बाजी। शर्त। ६. किराया। भाड़ा। ७. दाम। मूल्य।
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शुल्क-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] १. वह स्थान जहाँ पर घाट, मार्ग आदि का अथवा और किसी प्रकार का शुल्क या महसूल चुकाया जाता हो। २. चुंगीघर।
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शुल्काध्यक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] लोगों से शुल्क लेनेवाले विभाग का प्रधान अधिकारी। (कौ०)।
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शुल्कार्ह  : वि० [सं०] १. (पदार्थ) जिसका शुल्क देय हो। २. शुल्क लगाये जाने के योग्य (ड्यूटिएबुल)।
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शुल्व  : पुं० [सं०√शुल्व (मान-दान करना)+घञ्,अच् वा] १. ताँबा। २. रस्सी। ३. यज्ञ-कर्म। ३. आचार-विचार।
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शुल्वज  : पुं० [सं० शुल्व√जन् (उत्पन्न करना)+ड] पीतल।
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शुल्वावारि  : पुं० [सं० ष० त० स०] गंधक।
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शुल्वा-सूत्र  : पुं० [सं० ब० स०] वैदिक काल में ज्यामिति का नाम।
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शुश्रू  : स्त्री० [सं०] माँ। माता।
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शुश्रूषण  : पुं० [सं०] शुश्रूषा करने की कला, क्रिया या विधा।
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शुश्रूषा  : स्त्री० [सं० शुश्रुष+अ-टाप्] [वि० शुश्रूष्य] १. सुनने की इच्छा। २. वह सेवा जो किसी के कहने से के अनुसार की जाय। ३. सेवा। टहल। ४. खुशामद। चापलूसी।
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शुश्रुषु  : वि० [सं० शुश्रुष+उ] १. शुश्रूषा या सेवा करने को उत्सुक। २. आज्ञानुवर्ती। ३. सुनने का अभिलाषी।
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शुषिर  : पुं० [सं०√शुष् (सखना)+किरच्] १. लौंग। २. अग्नि। आग। ३. भूसा। ४. आकाश। ५. फूँककर बजाया जानेवाला बाजा।
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शुषिरा  : स्त्री० [सं० शुषिर-टाप्] १. नदी। २. पृथ्वी। ३. नली नामक गन्ध द्रव्य।
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शुषेण  : वि० पुं०=सुषेण।
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शुष्क  : वि० [सं०√शुष् (सोखना)+क] [भाव० शुष्कता] १. (पदार्थ या वातावरण) जो आर्द्र या नम न हो। २. (स्थान) जहाँ वर्षा न हुई हो या न होती हो। ३. (व्यक्ति) जिसमें कोमलता, ममता, मोह, सहृदयता आदि का अभाव हो। ४. (विषय) जो संपूर्ण न हो। जिससे मनोरंजन न होता हो। नीरस। जैसे—शुष्क वाद-विवाद। ५. जिसमें साथ रहने या न रह सकनेवाली कोई दूसरी बात न हो। पुं० काला अजगर।
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शुष्क-कृषि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] सूखी खेती (देखें)।
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शुकर-क्षेत्र  : पुं० [सं० ब० स०] वितस्ता नदी के किनारे का एक पर्वत।
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शुष्कगर्भ  : पुं० [सं० ब० स०] एक रोग जिसमें वात के कुप्रभाव से गर्भ सूख जाता है (वैद्यक)
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शुष्कता  : स्त्री० [सं० शुष्क+तल्-टाप्] शुष्क होने की अवस्था या भाव। सूखापन।
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शुष्कल  : पुं० [सं० शुष्क√ला (लेना)+क] मांस। वि० मांस-भक्षी।
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शुष्क-व्रण  : पुं० [सं० कर्म० स० ब० स० वा] वह घाव जो सूख तथा भर गया हो।
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शुष्कांग  : पुं० [सं० ब० स०] धव वृक्ष। धौ। वि० [स्त्री० शुष्कांगी] सूखे हुए अंगोंवाला। दुबला-पतला।
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शुष्कांगी  : पुं० [सं० शुष्कांग-ङीष्] १. प्लव जाति का एक प्रकार का पक्षी। २. गोह नामक जन्तु।
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शुष्का  : स्त्री० [सं० शुष्क-टाप्] स्त्रियों का योनिकंद नामक रोग।
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शुष्णा  : पुं० [सं०√शुष् (सुखाना)+नक्] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. बल। शक्ति।
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शुष्म  : पुं० [सं० शुष्+मन्] १. अग्नि। २. सूर्य। ३. तेज। पराक्रम। ४. वायु। ५. चिड़िया। पक्षी।
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शुष्मा (मन्)  : पुं० [सं० शुष्+मनिन्] १. अग्नि। २. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। ३. पराक्रम। ४. तेज।
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शुहदा  : पुं०=शोहदा।
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शुहरत  : स्त्री०=शोहरत।
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शुह्म  : पुं० [सं०] एक प्राचीन आर्येतर जाति जो बाद में आर्यो में मिल गई थी।
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शूक  : पुं० [सं०√श्वि (पतला करना)+कक्] १. अन्न की बाल या सींका जिसमें दाने लगते हैं। २. जौं। यव। ३. काँटा। ४. एक प्रकार का कीड़ा। ५. नुकीला सिरा० नोक। ६. एक प्रकार का रोग जो लिंग-वर्द्धक ओषधियों के लेप के कारण होता है। ७. दे० शूकतृण।
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शूकक  : पुं० [सं० शूक√कै (होना आदि)+क] १. एक तरह का अन्न। २. अनुकम्पा। दया। ३. वर्षाकाल। ४. शरीर का रस नाशक धातु।
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शूक-कीट  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का नुकीले ओवाना कीड़ा।
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शूक-तृण  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार की घास इसे सूकड़ी भी कहते हैं।
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शूक-धान्य  : पुं० [मध्य० स०] अन्नों का वह वर्ग जिसके दाने या बीज बालों में लगते हैं।
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शूकपत्र  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा साँप जिसमें विष न होता हो। जैसे—पानी का साँप।
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शूकर  : पुं० [सं० शूक√रा (लेना)+क] १. सूअर। २. वाराह (अवतार) स्त्री० सूकरी।
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शूकरकंद  : पुं० [सं० मध्य० स०] वाराही कंद।
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शूकरक  : पुं० [सं० शूकर+कन्] एक प्रकार का शालिधान्य।
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शूकर-क्षेत्र  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्राचीन तीर्थ जो नैमिषारण्य के पास है।
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शूकरता  : स्त्री० [सं० शूकर+तल्-टाप्] सूअर होने की अवस्था या भाव। सूअरपन।
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शूकर-दंष्ट्र  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसे सूअर दाढ कहते हैं।
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शूकरपादिका  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. केवाँच। कौंछ। २. कोलशिंबी। सेम।
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शूकरमुख  : पुं० [सं० ब० स०] एक नरक का नाम।
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शूकराक्षिता  : स्त्री० [सं० शूकराक्षि, ब० स०+तल्-टाप्] एक प्रकार का नेत्र-रोग।
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शूकरास्या  : स्त्री० [सं० ब० स०] एक बौद्ध देवी जिसे वाराही भी कहते हैं।
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शूकरिक  : पुं० [सं० शूकर+ठन्-इक] एक प्रकार का पौधा।
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शूकरिका  : स्त्री० [सं० शूकरिक-टाप्] एक प्रकार की चिड़िया।
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शूकरी  : स्त्री० [सं० शूकर-ङीष्] १. सुअरी। वाराही। २. खैरी साग। ३. वाराही कंद। गेंठी। ४. सूँस नामक जल-जन्तु। ५. विधारा।
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शूकल  : पुं० [सं० शूक√ला (लेना)+क] ऐसा घोड़ा जो जल्दी चौंक या भड़क जाता हो और फिर जल्दी वश में आता हो।
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शूका  : स्त्री० [सं० शूक+अच्-टाप्] कौंछ केवाँच।
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शूकी  : स्त्री० [सं० शूक] छोटा नुकीला काँटा (स्पाइक)।
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शूक्त  : पुं० [सं० शुक्त] सिरका।
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शूक्ष्म  : वि०=सूक्ष्म।
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शूची  : स्त्री०=सूई।
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शूद्र  : पुं० [सं० शुच्+रक्, पृषो० च=द-दीर्घ] [स्त्री० शूद्रा] १. हिन्दुओं में चार प्रकार के प्रमुख वर्णों या जातियों में से एक जिसका मुख्य आचरण अन्य तीन वर्णों (अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) की सेवा करना कहा गया है। २. उक्त वर्ण का व्यक्ति। ३. दास। सेवक। ४. नैऋत्य कोण में स्थित एक देश। वि० [भाव० शूद्रता] बहुत खराब या बुरा। निकृष्ट।
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शूद्रक  : पुं० [सं० शूद्र+कन्] १. संस्कृत के प्रसिद्ध ‘मृच्छकटिक’ के रचयिता। २. शूद्र। ३. दे० ‘शंबुक’।
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शूद्रक्षेत्र  : पुं० [सं० उपमि० स०] काले रंग की ऐसी भूमि जिसमें अनेक प्रकार की घास, तृण तथा अनेक प्रकार के धान उत्पन्न होते हैं।
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शूद्रता  : स्त्री० [सं० शूद्र+तल्—टाप्] शूद्र होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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शूद्र-द्युति  : पुं० [सं० उपरि, ब० स०] नीला रंग जो रंगों में शूद्र वर्ण का माना जाता है।
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शूद्र-प्रेष्य  : पुं० [सं० ष० त० स०] ऐसा ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य जो किसी शूद्र की नौकरी करता हो।
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शूद्रा  : स्त्री० [सं० शूद्र—टाप्] शूद्र जाति की स्त्री। शूद्राणी।
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शूद्राणी  : स्त्री० [सं० शूद्र—ङीष्—आनुक] शूद्र जाति की स्त्री। शूद्रा।
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शूद्रान्न  : पुं० [सं० ष० त० स०] शूद्र वर्ण के स्वामी से प्राप्त होनेवाला अन्न या चलनेवाली जीविका।
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शूद्री  : स्त्री० [सं० शूद्र-ङीष्] शूद्र की स्त्री। शूद्रा।
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शून  : वि० दे० ‘शून्य’।
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शूना  : स्त्री० [सं०√शिव (गति वृद्धि)+क्त,-न-सं० प्र०दीर्घ—टाप्] १. गृहस्थ के घर के वे स्थान जहाँ नित्य अनजान में अनेक जीवों की हत्या हुआ करती है। जैसे—चूल्हा। २. गले के अन्दर की घंटी। ललरी। ३. थूहड़। स्नूही।
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शून्य  : वि० [सं० शूना+यत्०] [भाव० शून्यता] १. जिसमें कुछ न हो। खाली। जैसे—शून्यगर्भ। २. जिसका कोई आकार या रूप न हो। निराकार। ३. जिसका अस्तित्व न हो। ४. जो वास्तविक न हो। असत्। ५. समस्त पदों के अन्त में, रहित। जैसे—ज्ञानशून्य। पुं० १. खाली स्थान। अवकाश। २. आकाश। ३. एकांत स्थान। ४. गणित में अभाव सूचक चिन्ह। ५. बिंदु। बिंदी। ६. अभाव। ७. विष्णु। ८. स्वर्ग। ९. ईश्वर। परमात्मा। १॰. विज्ञान में ऐसा अवकाश जिसमें वायु भी न हो।
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शून्य-गर्भ  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसके गर्भ में कुछ न हो। २. मूर्ख। ३. निस्सार। पुं० पपीता।
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शून्य-चक्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] हठ योग में सहस्रार चक्र का एक नाम (नाथ-पंथी)।
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शून्यता  : स्त्री० [सं० शून्य+तल्-टाप्] १. शून्य होने की अवस्था या भाव। २. अभाव।
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शून्यत्व  : पुं० [सं० शून्य+त्व] शून्यता।
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शून्य-दृष्टि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] ऐसी दृष्टि जिससे सूचित होता हो कि मन में नाम को भी कोई भाव नहीं है।
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शून्यपथ  : पुं० [सं० कर्म० ब० स० वा] आकाश।
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शून्यपाल  : पुं० [सं० शून्य√पाल् (पालन करना)+णिच-अच्] १. प्राचीन काल में वह व्यक्ति जो राजा की अविद्यमानता, असमर्थता या अल्पवयस्कता के कारण अस्थायी रूप से राज्य का प्रधान बनाया जाता था। २. स्थानापन्न अधिकारी।
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शून्य-बहरी  : स्त्री० [सं०] सोन बहरी। (रोग)
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शून्य-मंडल  : पुं० [सं० कर्म० स०] हठ योग में सहस्रार चक्र का एक नाम।
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शून्य-मध्य  : वि० [सं० ब० स०] जिसके मध्य में शून्य या अवकाश हो।
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शून्य-मनस्क  : वि० [सं० ब० स०-कप्] अन्यमनस्क।
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शून्य-मूल  : पुं० [सं० ब० स०] १. प्राचीन भारत में सेना की एक प्रकार की व्यूह-रचना। २. ऐसी सेना जिसका वह केन्द्र नष्ट हो गया हो जहाँ से सिपाही आते रहे हों। (कौ०)
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शून्यवाद  : पुं० [सं० शून्य√वद्+घञ्] [वि० शून्यवादी] बौद्धों की महायान शाखा माध्यमिक नामक विभाग का मत या सिद्धान्त जिसमें संसार को शून्य और उसके सब पदार्थों को सत्ताहीन माना जाता है (विज्ञानवाद से भिन्न)।
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शून्यवादी (दिन्)  : पुं० [सं० शून्य√वद्+णिनि] १. शून्यवाद का अनुयायी। २. बौद्ध। ३. नास्तिक वि० शून्यवाद-संबंधी।
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शून्यहर  : पुं० [सं० शून्य√हृ (हरण करना)अच्] १. प्रकाश।। उजाला। २. सोना। स्वर्ण।
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शून्य-हृदय  : वि० [सं० ब० स०] १. अनवधान। २. खुले दिलवाला।
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शून्या  : स्त्री० [सं० शून्य+अच्—टाप्] १. नलिका या नली नाम का गंध द्रव्य। २. बाँझ स्त्री। ३. थूहड़।
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शून्यालय  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] एकांत स्थान।
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शून्यावस्था  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] नाथ-पंथ में वह अवस्था जिसमें आत्मा सून्य चक्र या सहस्रार में पहुँचकर सब द्वन्द्वों से मुक्त हो जाती है।
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शून्याशून्य  : पुं० [सं० ब० स०] जीवमुक्ति।
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शूप  : पुं०=सूप।
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शूम  : पुं०=सूम।
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शूमी  : स्त्री० [फा०] १. शूम होने की अवस्था या भाव। सूमपन। २. मनहूसी।
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शूर  : पुं० [सं०√शूर्+अच्] [भाव० सूरता, शौर्य] १. वीर। बहादुर। २. योद्धा। सूरमा। ३. वह जो किसी काम या बात में औरों से बहुत बढ़-चढ़कर हो। जैसे—दान-शूर, शब्दसूर आदि। ४. सूर्य। ५. सिंह। शेर। ६. सूअर। ७. चीता। ८. साखू नाम का पेड़। ९. बड़हर। १॰. मयूर। ११. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। १२. आक। मदार। १३. श्रीकृष्ण के पितामह का नाम। १४. जैन हरिवंश के अनुसार उत्तर दिशा के एक देश का नाम।
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शूरण  : पुं० [सं०√शूर (हिंसा करना)+ल्यु—अनृ] १. सूरन। ओल। २. शूर का धर्म।
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शूरता  : स्त्री० [सं०√शूर+तल्-टाप्] १. शूर होने की अवस्था या भाव। २. शूर का धर्म।
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शूरताई  : स्त्री०=शूरता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शूरत्व  : पुं०=शूरता।
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शूरन  : पुं०=सूरन (जमीकंद)।
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शूरमन्य  : वि० [सं० शूर√मन्य (मानना)+खच्-मुम्] अपनी बहादुरी के किस्से बढ़ा-चढ़ाकर सुनानेवाला।
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शूर-मानी (निन्)  : पुं० [सं० शूर√मन् (मानना)+णिनि] वह जिसे अपनी शूरता या वीरता का अभिमान हो।
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शूरवीर  : पुं० [सं० सप्त० त० स० कर्म० स० वा] [भाव० शूरवीरता] बहुत बड़ा वीर। वीर-शिरोमणि।
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शूरसेन  : पुं० [सं० ब० स०] १. मथुरा के एक प्रसिद्ध राजा जो कृष्ण के पितामह और वसुदेव के पिता थे। २. मथुरा और उसके आस-पास क्षेत्र का नाम।
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शूर-सेनप  : पुं० [सं० शूर-सेना√पा (पालना)+क] वीर सेना के रक्षक, कार्तिकेय।
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शूरा  : स्त्री० [सं० शूर-टाप्] क्षीरकाकोली। पुं०=शूर। पुं०=सूर्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शूर्प  : पुं० [सं०√शूर्प (परिमाण)+घञ्] १. अनाज फटकने का सूप। २. दो द्रोण का एक प्राचीन परिमाण।
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शूर्पक  : पुं० [सं० शूर्प+कन्] एक असुर जो किसी के मत से कामदेव का शत्रु था।
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शूर्पकर्ण  : वि० [सं० ब० स०] जिसके सूप के समान कान हों। पुं० १. हाथी। २. गणेश। ३. एक प्राचीन देश। ४. उक्त देश का निवासी। ५. एक पौराणिक पर्वत।
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शूर्पकारि  : पुं० [सं० ष० त० स०] शूर्पक का शत्रु अर्थात् कामदेव।
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शूर्पणखा  : वि० [सं० ब० स०] (स्त्री) जिसके नख सूप के समान हों। स्त्री० रावण की बहन।
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शूर्पनखा  : स्त्री०=सूर्पणखा।
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शूर्प-श्रुति  : पुं० [सं० ब० स०] शूर्पकर्ण।
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शूर्पाद्रि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] दक्षिण भारत का एक पर्वत।
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शूर्पारक  : पुं० [सं०] बंबई प्रांत के थाना जिले के सोयारा नामक स्थान का प्राचीन नाम।
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शूर्पी  : स्त्री० [सं० सूर्प-ङीष्] १. छोटा सूप। २. शूर्पणखा। ३. एक प्रकार का खिलौना।
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शूर्म  : पुं० [सं० ब० स० अच्] [स्त्री० शूर्मि] १. लोहे की बनी हुई मूर्ति। २. निहाई।
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शूल  : पुं० [सं०√शूल+क] १. बरछे की तरह का एक प्राचीन अस्त्र। विशेष दे० ‘त्रिशूल’। २. बडा, लंबा और नुकीला काँटा। ३. वायु के प्रकोप से पेट या आँतों में होनेवाली एक प्रकार की प्रबल और विकट पीड़ा (काँलिक पेन) ४. किसी नुकीली चीज के चुभने की तरह की शारीरिक पीड़ा। ५. सूली जिस पर प्राचीन काल में लोगों को प्राण दंड दिया जाता था। ६. पीड़ा विशेषतः छाती और पेट में होनेवाली ऐसी पीड़ा जो बरछी की तरह चुभती हुई जान पड़ती है। ७. एक रोग जिसमें रह रहकर उक्त प्रकार की पीड़ा होती है। ८. छड़। सलाख। ९. मृत्यु। मौत। १॰. ज्योतिष में विष्कंभ आदि सत्ताईस योगों के अन्तर्गत नवाँ योग। ११. झंडा। पताका। १२. पोस्ते की पत्तियों की वह तह जो अफीम की चक्की चलाने के समय उसके चारों ओर ऊपर-नीचे लगाई जाती है (बंगाल)। वि०=नुकीला।
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शूलक  : पुं० [सं० शूल+कन्] १. पुराणानुसार एक ऋषि का नाम। २. दुष्ट या पाजी घोड़ा।
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शूलकार  : पुं० [सं० शूल√कृ (करना)+अण्, उप० प० स०] पुराणानुसार एक नीच जाति।
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शूलगव  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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शूलगिरि  : पुं० [सं० उपमि० मध्य० स० वा] मदरास राज्य का एक पर्वत।
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शूलग्रह  : पुं० [सं० शूल√ग्रह (रखना)+अच्] शिव।
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शूलग्राही (हिन्)  : पुं० [सं० शूल√ग्रह् (रखना)+णिनि] शिव। महादेव।
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शूलघ्नी  : स्त्री० [सं०] सज्जी मिट्टी।
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शूल-धन्वा (न्वन्)  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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शूल-धर  : पुं० [सं० ष० त० स०] शिव।
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शूल-धरा  : स्त्री० [सं० शूलधर-टाप्] दुर्गा।
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शूल-धारिणी  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] दुर्गा।
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शूलधारी (रिन्)  : पुं० [सं० शूल√धृ (रखना)+णिनि] शिव।
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शूलना  : अ० [हि० शूल+ना] १. शूल की तरह गड़ना। २. शूल गडने के समान पीड़ा होना। स० शूल गड़ाना या चुभाना।
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शूल-नाशन  : पुं० [सं० शूल√नश्+णिच्-ल्यु-अन०] १. सौवर्चत्य लवण। २. हींग। ३. पुष्कर मूल। ४. वैद्यक में एक प्रकार का चूर्ण जिसका व्यवहार प्रायः शूल रोग में किया जाता है।
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शूल-पन्नी  : स्त्री० एक प्रकार की घास, जिसे शूली भी कहते हैं।
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शूल-पाणि  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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शूल-स्तूप  : पुं० [सं० उपमि० स०] शूल के आकार-प्रकार का स्तूप।
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शूल-हंत्री  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] अजवाइन।
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शूलहस्त  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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शूलांक  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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शूला  : स्त्री० [सं० शूल-टाप्] १. वेश्या। रंडी। २. छड़। सलाख। ३. दे० ‘सूली’।
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शूलि  : पुं० [सं० शूल-इनि] शिव का एक नाम। स्त्री०=सूली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शूलिक  : पुं० [सं० शूल+ठन्-इक] १. खरगोश। खरहा। २. वह जो लोगों को शूली पर चढ़ाता था।
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शूलिका  : स्त्री० [सं० शूलिक—टाप्] सीख में गोद कर भूना हुआ मांस। कबाब।
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शूलिनी  : स्त्री० [सं० शूलिन्—ङीष्] १. दुर्गा का नाम। २. नागवल्ली। पान। ३. पुत्रदात्री नाम की लता।
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शूली (लिन्)  : वि० [सं० शूल+इनि] शूल रोग से ग्रस्त। पुं० १. शिव। २. एक नरक। ३. खरगोश। स्त्री०=सूली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शूल्य  : पुं० [सं० शूल+यत्]=शूलिका।
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शूल्यपाक  : वि० [सं० ब० स०] सीख पर पकाया हुआ। पुं० कबाब।
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शूल्यवाण  : पुं० [सं० ब० स०] भूतयोनि।
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श्रृंखल  : पुं० [सं० श्रृंग√खल् (तुष्टता करना)+अच्,-पृषो०] १. मेखला। २. सिक्कड़। ३. बेड़ी और हथकड़ी। ४. नियम। कायदा। वि० [भाव० श्रृंखलता] १. श्रृंखला के रूप में हो। सुश्रृंखल। २. व्यवस्थित तथा ठीक। ३. नियम, नियंत्रण आदि के अधीन।
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श्रृंखलक  : पुं० [सं० श्रृंखल+कन्] १. ऊंट। २. दे० ‘श्रृंखला’।
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श्रृंखलता  : स्त्री० [सं० श्रृंखल+तल्—टाप्] श्रृंखल होने की अवस्था या भाव। सिलसिलेवार या क्रमबद्ध होने का भाव।
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श्रृंखला  : स्त्री० [सं० श्रृंखल-टाप्] १. एक दूसरी में पिरोई हुई बहुत सी कड़ियों का समूह। २. क्रम में आने या होनेवाली बहुत सी बातें, चीजें घटनाएँ आदि। (चेन उक्त दोनों अर्थों में) ३. एक प्रकार के कार्यो, वस्तुओं आदि का एक के बाद एक करके चलनेवाला क्रम। माला (सीरीज)। ४. कतार। श्रेणी। पंक्ति। ५. मेखला। ६. करधनी। ७. साहित्य में एक अलंकार जिसमें कहे हुए पदार्थों का क्रम से वर्णन किया जाता है।
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श्रृंखला-बद्ध  : वि० [सं० तृ० त० स०] १. जंजीर या सिक्कड़ से बँधा हुआ। २. जो श्रृंखला के रूप में किसी विशिष्ट क्रम से लगा हो।
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श्रृंखलित  : भू० कृ० [सं० श्रृंखल+इतच्] १. सिक्कड़ से बँधा हुआ। २. श्रृंखला के रूप में बँधा या लाया हुआ। ३. तागे आदि में पिरोया हुआ।
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श्रृंग  : पुं० [सं०√श्रृं (हिंसा करना)+गननुट्] १. पशुओं का सींग। २. चोटी। शिखर। जैसे—पर्वत श्रृंग। ३. कँगूरा। ४. सिंगी नामक बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता है। ५. कमल। ६. जीवक नामक ओषधि। ७. सोंठ। ८. अदरक। आदी। ९. अगरू। १॰. कामवासना। ११. चिन्ह। निशान। १२. स्त्री की छाती। स्तन। १३. प्रधानता। प्रमुखत। १४.पानी का फुहारा। १४. दे० ‘ऋप्यश्रृंग’ (ऋषि) वि० तीक्ष्ण। तेज।
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श्रृंगकंट  : पुं० [सं० ब० स०] सिघांड़ा।
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श्रृंगज  : पुं० [सं० श्रृंग√जन् (उत्पन्न करना)+ड] १. अगर। अगरू। २. तीर। बाण। वि० श्रृंग से उत्पन्न।
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श्रृंग-घर  : पुं० [सं० ष० त० स०] पर्वत। पहाड़।
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श्रृंगनाम  : पुं० [सं० ब०स०] एक प्रकार का विष।
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श्रृंगु-पुर  : पुं० [सं० मध्यम० स०] ‘श्रृंगवेरपुर’।
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श्रृंगला  : स्त्री० [सं० श्रृंग√ला (लेना)+क] मेढ़ासिंगी।
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श्रृंगवान् (वत्)  : वि० [सं० श्रृंग+मतुप्-म=व-नम्-दीर्घ, नलोप] श्रृंगवाला। पुं० पर्वत। पहाड़।
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श्रृंगवेर  : पुं० [सं० ब० स०] १. आदी। अदरक। २. सोंठ। ३. दे० ‘श्रृंगवेरपुर’।
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श्रृंगरेवपुर  : पुं० [सं० मध्यम० स०] इलाहाबाद जिले में गंगा तट पर स्थित सिंगरौर नामक स्थान जो प्राचीन काल में निषाद राजा गुह की राजधानी थी।
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श्रृंगवेरिका  : स्त्री० [सं० श्रृंगवेर+कन्-टाप्, इत्व] गोभी।
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श्रृंगसुख  : पुं० [सं० मध्यम० स०] सिंगी या सिंघा नामक बाजा।
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श्रृंगसोर  : पुं० [सं० उपमि० स०] सोर नामक मछली।
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श्रृंगाट  : पुं० [सं० श्रृंग√अट् (प्राप्त होना)+अच्] १. सिघाड़ा। २. गोखरू। ३. विककंत। कँटाई। ४. चौमुहानी या चौराहा। ५. कामरूप देश का एक पर्वत।
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श्रृंगाटक  : पुं० [सं० श्रृंगाट+कन्] १. सिंघाड़ा। २. प्राचीन काल का एक प्रकार का खाद्य पदार्थ जो मांस से बनाया जाता था। ३. तीन चोटियोंवाला पर्वत। ४. चौमुहानी। ५. दरवाजा। ६. वैद्यक में शरीर का एक मर्मस्थान जो मस्तक में उस स्थान पर माना जाता है, जहाँ नाक, कान, आँख और जीभ से संबंध रखनेवाली चारों शिराएँ है।
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श्रृंगार  : पुं० [सं० श्रृंग√ऋ (गमन करना आदि)+अण्] १. मूर्ति, शरीर आदि में ऐसी चीजें जोड़ना या लगाना जिनसे उनकी शोभा का सौन्दर्य और भी बढ़ जाय, और वे अधिक आकर्षक तथा प्रिय-दर्शन बन जाएँ। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसा तत्त्व या गुण जिससे किसी की शोभा बढती तथा सौन्दर्य निखरता है। जैसे—लज्जा स्त्री का श्रृंगार है। ३. स्त्रियों की वह क्रिया जो वे सुन्दर कपड़े, गहन आदि लगाकर अपने आप को अधिक आकर्षक तथा सुन्दर बनाने के लिए करती है। सजावट। ४. वे सब पदार्थ जिनके योग से किसी चीज की शोभा या सौन्दर्य बढ़ता हो। प्रसाधन-सामग्री। सजावट का सामान। ५. साहित्य का नौ रसों में से एक रस जिसमें प्रेमी और प्रेमिका के पारस्पिक प्रेमपूर्ण व्यवहारों की चर्चा होती है। विशेष-श्रृंगार का मूल शब्दार्थ ही है-ऐसी स्थिति जिसमें काम वासना की प्राप्ति या वृद्धि हो। मनुष्य की काम-वासना से सम्बद्ध बातों से मिलनेवाला आनन्द या सुख ही इस रस का मूल आधार है, और यह सब रसों में प्रधान माना गया है। इसके दो मुख्य विभाग किए गए है। संयोग और वियोग श्रृंगार। ५. उक्त के आधार पर भक्ति का वह पक्ष जिसमें भक्त अपने इष्टदेव को पति तथा अपने आपको उसकी पत्नी मानकर उसकी आराधना करता है। ६. मैथुन। रति। संभोग। ७. सिंधूर जो स्त्रियों के सौभाग्य का मुख्य चिन्ह है। ८. लौंग। ९. अदरक आदी १॰. चूर्ण। ११. काला अगर। १२. सोना। स्वर्ण।
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श्रृंगारक  : पुं० [सं० श्रृंगार+कन्] १. प्रेम। प्रीति। २. सिंधूर। ३. लौंग। ४. अदरक। आदी। ५. काला अगर। वि० श्रृंगार करनेवाला।
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श्रृंगार-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] कामदेव।
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श्रृंगारण  : पुं० [सं०√श्रृंगार√नी (ढोना)+ड] कामवासना से प्रेरित होने पर किया जानेवाला प्रेम प्रदर्शन।
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श्रृंगारना  : स० [हिं० श्रृंगार+हिं० ना (प्रत्यय)] श्रृंगार करना। सजाना। सँवारना।
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श्रृंगारभूषण  : पुं० [सं० ष० त] १. सिंधूर। २. हरताल।
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श्रृंगारयोनि  : पुं० [सं० ष० त०] कामदेव।
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श्रृंगारवेग  : पुं० [सं० ष० त०] वह सुन्दर वेग जिसे धारण करके प्रेमी अपनी प्रेमिका के पास जाता है, अथवा प्रेमिका अपने प्रेमी के पास जाती है।
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श्रृंगारहाट  : स्त्री० [सं० श्रृंगार+हिं० हाट] वह हाट या बाजार जिसमें मुख्यतः वेश्याएँ रहती हों। चकला।
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श्रृंगारिक  : वि० [सं० श्रृंगार+ठक्—इक] १. श्रृंगार संबंधी। श्रृंगार का। जैसे—श्रृंगारिक सामग्री। २. श्रृंगार रस से संबंध रखनेवाला। जैसे—श्रृंगारिक काव्य।
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श्रृंगारिणी  : स्त्री० [सं०] १. श्रृंगार करनेवाली स्त्री० २. वह स्त्री जिसका यथेष्ठ श्रृंगार हुआ हो। ३. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। ४. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक पाद में चार रगण (।ऽऽ) होते हैं। उसको ‘स्वाग्विणी’ ‘कामिनी’ ‘मोहन’ ‘लक्षीधरा’ और ‘लक्ष्मीधरा’ भी कहते हैं।
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श्रृंगारित  : भू० कृ० [सं० श्रृंगार+हिं० इया (प्रत्यय)] १. वह जो श्रृंगार करने की कला में निपुण हो। २. देव-मूर्तियों का श्रृंगार करनेवाला व्यक्ति। ३. बहुरूपिया।
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श्रृंगारी  : वि० [सं० श्रृंगारिन्] १. श्रृंगार संबंधी। श्रृंगार का। २. श्रृंगार रस का प्रेमी। ३. किसी के प्रेमपाश में बँधा हुआ। अनुरक्त। पुं० १. वेश-भूषा और सजावट आदि। २. हाथी। ३. चुन्नी या मानिक नामक रत्न। ४. सुपारी।
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श्रृंगाह्व  : पुं० [सं० ब० स०] १. जीवक नामक ओषधि। २. सिंघाड़ा।
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श्रृंगाह्वा  : स्त्री० [सं० श्रृंगाह्व-टाप्] श्रृंगाह्व।
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श्रृंगि  : पुं० [सं० श्रृंग+इति] सिंघी मछली। वि० श्रृंगी।
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श्रृंगिक  : पुं० [सं० श्रृंगी+कन्] सिंगिया नामक विष।
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श्रृंगिका  : स्त्री० [सं० श्रृंगिक—टाप्] १. सिंघी नामक बाजा। अतीस। २. काकड़ा-सिंगी। ३. मेढ़ा सिंगी। ४. पीपल।
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श्रृंगिणी  : स्त्री० [सं० श्रृंग+इनि-ङीष्] १. गाय। गौ। २. मोतिया। ३. माल-कंगनी। ४. अतीस।
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श्रंगी  : वि० [सं० श्रृंगिन्] [स्त्री० श्रृंगिणी] जिसमें श्रृंग हो। श्रृंग से युक्त। पुं० १. सींगवाला जानवर। २. पर्वत। पहाड। ३. हाथी। ४. पेड़। वृक्ष। ५. बरगद। ६. पाकर। ७. अमड़ा। ८. जीवक नामक ओषधि। ९. ऋषभक नामक ओषधि। १॰. सिंगिया नामक विष। ११. सिंगी नामक बाजा। १२. महादेव। शिव। १३. एक प्राचीन देश। १४. एक प्रसिद्ध ऋषि जो शमीक के पुत्र थे। स्त्री० १. अतीस। २. काकड़ा सिंगी ३. सिंगी मछली। ४. मजीठ। ५. आँवला। ६. पोई का साग। ७. पाकर। ८. बरगद। ९. जहर। विष। १॰. सोना। ११. ऋषभक नामक ओषधि।
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श्रृंगी गिरि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्राचीन पर्वत जिस पर श्रृंगी ऋषि तप किया करते थे।
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श्रृंगेरी  : पुं० [सं०] मैसूर राज्य में स्थित शंकराचार्य के मतानुयायी संन्यासियों का एक प्रसिद्ध मठ।
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श्रृंगोन्नति  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] ज्योतिष में ग्रहों, नक्षत्रों आदि की एक प्रकार की गति।
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श्रृग  : पुं०=श्रृगाल।
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श्रृगाल  : पुं० [सं० असुक√ला+क, पृषो] १. सियार। गीदड़। २. बौद्ध साधुओं की परिभाषा में ज्ञानवान् मन का प्रतीक जो वासनामय मन के प्रतीक सिंह का शिकार करनेवाला कहा गया है। ३. वासुदेव। ४. कायर या डरपोक व्यक्ति। ५. निर्दय व्यक्ति। ६. खल। दुष्ट।
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श्रृंगालिका  : स्त्री० [सं० श्रृंगाल+कन्-टाप्-इत्व] १. गीदड़ की माता। गीदड़ी। २. लोमड़ी। ३. विदारी कंद।
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श्रृंगाली  : स्त्री० [सं० श्रृंगाल-ङीष्] १. ताल-मखाना। २. विदारी कंद। ३. मादा सियार।
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श्रृत  : पुं० [सं०√शृ (पाक करना)+क्त] १. काढ़ा। क्वाथ। २. उबाला या औटाया हुआ दूध।
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श्रृत-शीत  : पुं० [सं० मध्य० स०] (शृतरूपात् श्रीतः) औटाया हुआ पानी जो प्रायः ज्वर के रोगियों को दिया जाता है।
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श्रृष्टि  : पुं० [सं०] कंस के आठ भाइयों में से एक। स्त्री०=सृष्टि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शेख  : पुं० [अ०] [स्त्री० शेखानी] १. पैगंबर मुहम्मद के वंसजों की उपाधि। २. मुसलमनों की चार जातियों में से एक जो अन्य तीनों से श्रेष्ठ मानी गई है। ३. इस्लाम धर्म का उपदेशक। ४. वृद्ध और पूज्य व्यक्ति। पीर। पुं०=शेष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शेखचिल्ली  : पुं० [अ+हि०] १. एक कल्पित मूर्ख व्यक्ति जिसके संबंध में बहुत सी विलक्षण और हास्यास्पद कहानियाँ कही जाती है। २. ऐसा मूर्ख व्यक्ति जो बिना समझे-बूझे बहुत बढ़-चढ़कर बे-सिर पैर की बातें कहता हो।
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शेखर  : पुं० [सं०√शिखि+अरन्-पृषो०] १. शीर्ष। सिर। माथा। २. सिर पर पहनने का किरीट या मुकुट। ३. सिर पर लपेटी जानेवाली माला। ४. पहाड की चोटी। शिखर। ५. ऊपरी सिरा० ६. उच्चता या श्रेष्ठता का सूचक पद। ७. छंद शास्त्र में टगण के पाँचवें भेद की संज्ञा (॥ऽ।) जैसे—ब्रजनाथ। ८. संगीत में ध्रुव या स्थायी पद का एक प्रकार का भेद।
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शेखर-चंद्रिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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शेखरापीड़ योजन  : पुं० [सं० ब० स०] चौसठ कलाओं में से एक कला। जिसमें सिर पर पगड़ी माला आदि सुन्दर रूप में पहनाई जाती है।
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शेखरी  : स्त्री० [सं० शेखर-ङीष्] १. बंदाक। बाँदा। २. लौंग। ३. सहिंजन की जड़। ४. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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शेखसद्दो  : पुं० [अ० शेख+देश सद्दो] मुसलमान स्त्रियों के उपास्य एक कल्पित पीर जो कभी-कभी भूत-प्रेत की तरह उनके सिर पर आते या उन्हें आविष्ट करते हैं।
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शेखावत  : पुं० [अ० शेख] राजस्थान के राजपूतों की एक उपजाति।
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शेखी  : स्त्री० [फा० शेखी] १. मुसलमानों की शेख नामक जाति या वर्ग का अभिमान या घमंड। २. इस प्रकार का झूठा अभिमान कि हमने अमुक अमुक बड़े काम किये हैं अथवा हम ऐसे काम कर सकते हैं। डींग। ३. झूठी शान। अकड़। क्रि० प्र०—बघारना।—हाँकना।
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शेखीबाज  : वि० [अ० शेखी+फा० बाज] [भाव० शेखीबाजी] शेखी बघारने या डींग हाँकनेवाला।
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शेप  : पुं० [सं० शी+पन्] १. पुरुष की इंद्रिय। लिंग। २. अण्डकोश। ३. दुम।
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शेफ  : पुं० [सं० शी+फन्] शेप।
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शेफालि, शेफालिका, शेफाली  : स्त्री० [सं० ब० स०] नील सिंधुआर का पौधा। निर्गुंड़ी।
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शेयर  : पुं० [अं०] १. संपत्ति आदि में होनेवाला अंश। २. व्यापार आदि में होनेवाला हिस्सा। पत्ती।
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शेर  : पुं० [सं० दंशेर से फा०] [स्त्री० शेरनी] १. एक प्रसिद्ध हिंसक पशु। सिंह। पद-शेर बबर, शेर बच्चा, शेरमर्द। मुहावरा—शेर और बकरी का एक घाट पर पानी पीना=ऐसी स्थिति होना जिसमें दुर्बल को सबल का कुछ भी भय न हो। २. अत्यन्त निर्भीक, वीर और साहसी पुरुष (लाक्षणिक) ३. बहुत उग्र या तीव्र पदार्थ या व्यक्ति। मुहावरा— (बत्ती) शेर करना=चिराग की बत्ती बढ़ाकर रोशनी तेज करना। वि० बहुत गहरा या चटकीला (रंग)। जैसे—शेर गुलाब या शेर लाल। पुं० [अ०] फारसी, उर्दू आदि की कविता के दो चरणों का समूह।
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शेर अफगान  : वि० [फा०] शेर को गिराने या पछाड़ने वाला।
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शेरगढ़ी  : स्त्री० [हिं०] सम्राट अशोक के स्तम्भों पर की वह आकृति जिसमें चारों ओर चार शेरों के मुँह होते हैं और जिसकी अनुकृति स्वतन्त्र भारत का राजचिन्ह है।
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शेर-दरवाजा  : पुं० [फा०]=सिंह-द्वार।
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शेर-दहाँ  : वि०=शेरमुहाँ (दे०)।
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शेर-पंजा  : पुं० [फा० शेर+पंजः] शेर के पंजों के आकार का एक अस्त्र। बघनहाँ।
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शेरपा  : पुं० [फा० शेर+पा (नेपाली प्रत्यय)] १. चीता। बाघ। २. वह पहाड़ी मजदूर जो २४-२५ हजार फुट से भी अधिक ऊँचाई वाले पहाड़ों पर चढ़ने का अभ्यस्त हो। ३. साधारणतः ऊँचें पहाडों पर विशेषतः हिमालय पर चढ़नेवाला। मजदूर।
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शेर-बच्चा  : पुं० [फा० शेर-बच्चा] १. बहुत ही पराक्रमी तथा वीर व्यक्ति। २. पुरानी चाल की एक प्रकार की छोटी बन्दूक।
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शेर-बबर  : पुं० [फा०] सिंह। केसरी।
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शेर-मर्द  : पुं० [फा०] [भाव० शेरमर्दी] बहुत ही पराक्रमी और वीर व्यक्ति।
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शेर-मुहाँ  : वि० [फा०+हिं०] १. जिसका मुँह या अगला भाग शेर की आकृतिवाला हो। जैसे—शेरमुहाँ कड़ा। २. (जमीन या मकान) जिसका अगला भाग चौड़ा और पिछला भाग सँकरा हो। नाहर मुखी (अशुभ)।
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शेरवानी  : स्त्री० [देश] मुसलमानी ढंग का एक प्रकार का अंगा।
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शेल  : पुं०=दे०‘सेल’।
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शेलुक  : पुं० [सं० शेलु+कन्] १. लिसोड़ा। २. मेथी। ३. लोध।
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शेलुका  : स्त्री० [सं० शेलुक-टाप्] बनमेथी।
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शेव  : पुं० [सं०शी+वन्] १. उन्नति। २. उच्चता। ऊँचाई। ३. धन-दौलत। ४. लिंग। ५. मछली। ६. सांप। ७. अग्नि।
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शेवड़ा  : पुं० [सं० श्रावक] जैन यति या साधू।
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शेवल  : पुं० [सं० शेव√ला (लेना)+क] सेवार। शैवाल।
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शेवलिनि  : स्त्री० [सं० शेवल+इनि] १. ऐसी नदी जिसमें सेवार हो। २. नदी।
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शेवा  : पुं० [फा० शेवः] तौर तरीका। (आचार-व्यवहार आदि का) ढंग।
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शेवाल  : पुं० [सं०√शी+विच्√वल्+घञ्] सेवार। सेवाल।
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शेवाली  : स्त्री० [सं० शेवाल-ङीष्] एक प्रकार की जटामासी (वनस्पति)।
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शेष  : वि० [सं०√शिष् (मारना)+अच्०] १. औरों विशेषतः साथ वालों के न रह जाने पर भी जो अभी विद्यमान हो। २. अनावश्यक या आवश्यकता से अधिक होने पर जिसका आभोग या उपयोग न किया जा सका हो। ३. जो पूर्णतया क्षीण, नष्ट या समाप्त हो गया हो। ४. जिसका उल्लेख कथन आदि अभी होने को हो। जैसे—कहानी अभी खत्म नहीं हई शेष फिर सुनाऊँगा। पुं० १. बाकी बची हुई चीज या भाग। अवशिष्ट अंश। २. किसी घटना या व्यक्ति का स्मरण करनेवाला कोई बचा हुआ पदार्थ या वस्तु। स्मारक। ३. बड़ी संख्या में से छोटी संख्या घटाने से बची हुई संख्या। बाकी। ४. वह पद या शब्द जो किसी वाक्य का अर्थ या आशय पूरा और स्पष्ट करने के लिए लगाना पड़ता हो। अध्याहार। ५. अंत। समाप्ति। ६. परिणाम। फल। ७. मृत्यु। मौत। ८. नाश। ९. पुराणानुसार सहस फणों के सर्पराज जो पाताल में हैं और जिनके फनों पर पृथ्वी का ठहरा होना कहा गया है। १॰. रामचन्द्र के भाई लक्ष्मण जो उक्त सर्पराज के अवतार माने जाते हैं। ११. बलराम। १२. एक प्रजापित। १३. दस दिग्गजों में से एक। १४. परमेश्वर। १५. हाथी। १६. जमालगोटा। १७. पिगंल में टगण के पाँचवें भेद का नाम। १८. छप्पय छंद के पंचीसवें भेद का नाम जिसमें ४६ गुरु ६॰ लघु कुल १॰६ वर्ण या १५२ मात्राएँ होती हैं।
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शेष जाति  : स्त्री० [सं० ष० त०] गणित में बचे हुए अंक को लेने की क्रिया।
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शेषधर  : पुं० [सं० ष० त०] शेष अर्थात् सर्प को धारण करनेवाले शिवजी।
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शेषनाग  : पुं० [सं० मध्य० स०] सर्पराज शेष जो पुराणानुसार पृथ्वी को अपने सिर पर धारण करनेवाले माने गये हैं।
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शेषवाद  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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शेषर  : पुं०=शेखर।
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शेषराज  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो मगण होते हैं। विद्युल्लेखा। २. शेषनाग।
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शेषव्रत  : पुं० [शेष+मतुप्, म=व] न्याय में अनुमान का एक भेद जिसमें किसी परिणाम के आधार पर पूर्ववर्ती कारण या घटना का अनुमान किया जाता है। जैसे—नदी की बाढ़ देखकर ऊपर हुई वर्षा का अनुमान।
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शेषशायी (यिन्)  : पुं० [सं० शेष√शी+णिनि] शेषनाग पर शयन करनेवाले, विष्णु।
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शेषांश  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. बचा हुआ अंश या भाग। २. अन्तिम अंश या भाग।
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शेषा  : स्त्री० [सं० शेष-टाप्] देवताओं को चढ़ी हुई वस्तु जो दर्शकों या उपासकों को बाँटी जाय। प्रसाद।
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शेषाचल  : पुं० [सं० मध्यम० स०] दक्षिण भारत का एक पर्वत।
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शेषोक्त  : भू० कृ० [सं० सप्त० त० स०] कइयों में से अन्त में कहा हुआ। जिसका उल्लेख सबके अन्त में हुआ हो।
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शै  : स्त्री० [अं०] १. वस्तु। पदार्थ। चीज। २. भूत-प्रेत। स्त्री० दे० ‘शह’। (उत्तेजना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शैक्य  : पुं० [सं० शैक+यत्] सिकहर। छीका।
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शैक्ष  : पुं० [सं० शिक्षा+अण्] आचार्य के पास रहकर शिक्षा प्राप्त करनेवाला शिष्य।
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शैक्षणिक  : स्त्री० [सं० शिक्षण+ठक्—इक] १. शिक्षण या शिक्षा संबंधी (एजुकेशन) २. शिक्षा-प्रद। ३. शास्त्रीय ज्ञान अथवा उसके शिक्षण से संबंध रखनेवाला। शास्त्रीय। (एकेडेमिक)।
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शैक्षिक  : वि० [सं० शिक्षा+ठक्—इक] शिक्षा संबंधी। शिक्षा का (एजुकेशनल) पुं० १. वह जो शिक्षा (वेदांग) का ज्ञाता या पंडित हो। २. वह जो आधुनिक शिक्षा-विज्ञान का पंडित हो (एजुकेशनिष्ट)।
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शैख  : पुं० [सं०] नीच तथा पतित ब्राह्मण की संतान (स्मृति)।
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शैखरिक  : पुं० [सं० शिखर+ठक्—इक] अपामार्ग। चिचड़ा। लटजीरा।
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शैघ्रय  : पुं० [सं० शीघ्र+अण्] शीघ्रता। तेजी।
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शैतान  : पुं० [अ०] १. ईश्वर के सन्मार्ग का विरोध करनेवाली शक्ति जो कुछ सामी धर्मों (यथा इस्लामी, धर्म ईसाई आदि) में एक दुष्ट देवता और पतित देवदूतों के अधिनायक के रूप में मानी गई है। यह भी माना जाता है कि यही मनुष्यों को बहलाकर कुमार्ग में लगाता और ईश्वर तथा धर्म से विमुख करता है। पद—शैतान का बच्चा=बहुत दुष्ट आदमी। शैतान की आंत=बहुत लम्बी चौड़ी चीज या बात (व्यंग्य) शैतान की खाला=बहुत दुष्ट या पाजी औरत (गाली)। शैतान के कान हरे=ईश्वर करे कि शैतान यह शुभ बात न सुन सके और इसमें बाधक न हो। (मंगलाकांक्षा का सूचक)। २. दुष्टदेव योनि। भूत-प्रेत आदि। मुहावरा— (सिर पर) शैतान चढ़ना या लगना=भूत-प्रेत आदि का आवेश होना। प्रेत का भाव पड़ना। ३. बहुत बड़ा अत्याचारी या दुष्ट व्यक्ति। ४. दुर्वृत्ति, प्रबल, काम-वासना क्रोध आदि। मुहावरा-शैतान सवार होना=दुर्वृत्तियों का बहुत प्रबल होना। लड़ाई-झगड़ा या उपद्रव। मुहावरा—शैतान उठाना या मचाना=झगड़ा खड़ा करना। उपद्रव मचाना।
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शैतानी  : वि० [अ० शैतान] १. शैतान संबंधी। शैतान का। जैसे—शैतानी गोल। शैतानियों की तरह का बहुत दुष्ट। स्त्री० १. दुष्टता। पाजीपन। शरारत। २. ऐसा आचरण जो किसी को परेशान करने के लिए किया जाय।
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शैत्य  : पुं० [सं० शीत+ष्यञ्] शीतलता। ठंढक।
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शैथिल्य  : पुं० [सं० शिथिल+ष्यञ्] १. शिथिल होने की अवस्था या भाव। शिथिलता। २. तत्परता का अभाव। सुस्ती।
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शैदा  : वि० [फा०] जो किसी के प्रेम में मुग्ध हो। प्रेम से पागल।
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शैन्य  : पुं० [सं० शिनि+यज्] शिनि का वंश।
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शैल  : वि० [सं०√शिला+अण्] १. शिला संबंधी। पत्थर का। २. जिसमें पत्थर के टुकड़े मिले हों। पथरीला। ३. कड़ा। कठोर। सख्त। पुं० १. पर्वत। पहाड़। २. चट्टान। ३. छरीला नामक वनस्पति। शैलेय। ४. रसौत। ५. शिलाजीत। ६. लिसोड़ा।
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शैलक  : पुं० [सं० सैल+कन्] छरीला। शैलेय।
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शैलकटक  : पुं० [सं० ष० त०] पहाड की ढाल।
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शैल-कन्या  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] हिमालय पर्वत की पुत्री पार्वती।
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शैलकुमारी  : स्त्री० [सं० ष० त० स०]=शैलकन्या (पार्वती।
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शैल-गंगा  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] गोवर्द्धन पर्वत की एक नदी जिसमें श्री कृष्ण ने सब तीर्थों का आवाहन किया था।
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शैल-गंध  : पुं० [सं० ब० स०] शबर चंदन। बर्बर चंदन।
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शैलगृह  : पुं० [सं० सप्त० त०] पहाड़ या चट्टान में खोदकर बनाया हुआ प्रसाद या मन्दिर।
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शैलज  : पुं० [सं० शैल√जन् (उत्पन्न करना)+ड] पत्थर। फूल छरीला। वि० [स्त्री० शैलजा] पर्वत से उत्पन्न।
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शैलजा  : स्त्री० [सं० शैलज-टाप्] १. पार्वती। २. गज पिप्पली। ३. दुर्गा। ४. सैंहली।
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शैलजात  : पुं०=शैलेय।
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शैल-तटी  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] पहाड की तराई।
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शैल-धन्वा (न्वन्)  : पुं० [सं० ब० स०] महादेव। शिव।
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शैलधर  : पुं० [सं० ष० त० स०] गोवर्धन पर्वत धारण करनेवाले श्रीकृष्ण।
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शैलनंदिनी  : स्त्री० [सं०] पार्वती।
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शैलनिर्यास  : पुं० [सं०] शिलाजीत।
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शैलपति  : पुं० [सं० ष० त० स०] हिमालय पर्वत।
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शैलपत्र  : पुं० [सं० ष० त० स०] बेल का पेड़ और फूल।
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शैलपुत्री  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] १. पार्वती। २. नौ दुर्गाओं में से एक। ३. गंगा नदी।
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शैल-पुष्प  : पुं० [सं० ष० त० स०] शिलाजीत। शिलाजतु।
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शैलबीज  : पुं० [सं० ष० त०] भिलावाँ।
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शैलभेद  : पुं० [सं० ष० त० स०] पखान-भेदी (पौधा)।
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शैलमंडप  : पुं० [सं० स० त०]=शैल-गृह।
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शैलरंध्र  : पुं० [सं० ष० त०] गुफा।
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शैलराज  : पुं० [सं० ष० त०] हिमालय पर्वत।
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शैलशिविर  : पुं० [सं० ष० त० ब० स० वा] समुद्र। सागर।
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शैल-संभव  : पुं० [सं० ब० स०] शिलाजीत।
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शैल-सुता  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] १. पार्वती। २. दुर्गा। ३. गंगा नदी।
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शैलाग्र  : पुं० [सं० ष० त० स०] पर्वत का शिखर।
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शैलाट  : पुं० [सं० शैल√अट् (चलना)+अच्] १. पहाड़ी। आदमी। परबतिया। २. बिल्लौर। स्फटिक। ३. शेर। सिंह।
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शैलाधिप, शैलाधिराज  : पुं० [सं० ष० त०] हिमालय।
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शैलाभ  : पुं० [सं० ब० स०] विश्वदेवों में से एक।
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शैलाली  : पुं० [सं० शिलालि+णिनि-दीर्घ-नलोप] नट।
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शैलिक  : पुं० [सं० शिला+ठक्-इक] शिलाजीत।
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शैली  : स्त्री० [सं० शैल-ङीष्] १. ढंग। तरीका। २. साहित्य में बोल या लिखकर विचार प्रकट करने का वह विशिष्ट ढंग जिस पर वक्ता या उसके काल, समाज आदि की छाप लगी होती है। जैसे—भारतेन्दु की शैली, द्विवेदीयुगीन शैली। ३. कोई काम करने अथवा कोई चीज निर्मित प्रस्तुत या प्रदर्शित करने का कलापूर्ण ढंग। जैसे—चित्रकला की पहाड़ी शैली, मुगल शैली, राजस्थानी शैली आदि। ४. कठोरता। सख्ती।
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शैलीकार  : पुं० [सं० शैली√कृ+अण्] वह जिसने कला, काव्य साहित्य आदि के किसी क्षेत्र में किसी नई और विशिष्ट शैली का प्रवचन किया हो।
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शैलू  : पुं० [देश] लिसोड़ा। स्त्री० गुजरात और दक्षिण भारत में बननेवाली एक प्रकार की चटाई।
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शैलूक  : पुं० [सं० शैल+ऊकञ्] १. लिसोड़ा। २. भसींड़।
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शैलूष  : पुं० [सं० शिलूष+अण्] १. अभिनय करनेवाला व्यक्ति। अभिनेता। नट। २. गंधर्वों का नेता। ३. बेल का पेड़। वि० धूर्त।
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शैलूषिक  : पुं० [सं० शिलूष+ठक्-इक] [स्त्री० शैलूषिकी] अभिनेता। वि० पुं०=शैलूष।
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शैलेंद्र  : पुं० [सं० नित्य० स०] हिमालय पर्वत।
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शैलेय  : वि० [सं० शिला+ढक्—एय] १. जिसमें पत्थर हो। पथरीला। २. पहाड़ का। पहाड़ी। ३. जो पत्थर से उत्पन्न हो। पुं० १. शिलाजीत। २. छरीला। ३. मूसलीकंद। ४. सेंधा नमक। ५. सिंह। ६. भौंरा।
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शैलेयी  : स्त्री० [सं० शैलेय-ङीष्] पार्वती।
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शैलेश्वर  : पुं० [सं० ष० त० स०] शिव। महादेव।
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शैलोदा  : स्त्री० [सं० ब० स०] उत्तर दिशा की एक प्राचीन नदी।
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शैल्य  : वि० [सं० शिला+ष्यञ्] १. पत्थर का। २. पथरीला। ३. पहाड़ी। ४. कठोर। सख्त।
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शैव  : वि० [सं० शिव+अण्] १. शिव संबंधी। शिव का। जैसे—शैव दर्शन। २. शैव संप्रदाय का अनुयायी। पुं० १. शिव का उपासक या भक्त। २. हिन्दुओं का एक प्रसिद्ध संप्रदाय (वैष्णव से भिन्न) जो शिव का उपासक है। ३. पाशुपत अस्त्र। ४. धतूरा। ५. अडूसा। ६. जैनों के अनुसार पांचवें कृष्ण या वासुदेव का एक नाम।
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शैवपत्र  : पुं० [सं० ब० स०] बिल्व वृक्ष, जिसकी पत्तियाँ शिव पर चढ़ती है। बेल।
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शैव पुराण  : पुं० [सं० कर्म० स०] शिव पुराण।
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शैवल  : पुं० [सं०√शी (शयन करना)+वलञ्] १. पद्य काष्ठ। पदमकाठ। २. सेवार। ३. एक प्राचीन पर्वत।
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शैवलिनी  : स्त्री० [सं० शैवल+इनि-ङीष्] नदी।
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शैवागम  : पुं० [सं०] शैवमत के प्रतिपादक धर्म ग्रन्थ जो प्रायः ई० सातवीं शती से पहले बने थे।
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शैवाल  : पुं० [सं०√शि (शयन करना)+वालञ्] सेवार।
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शैवी  : स्त्री० [शैव-ङीष्०] १. पार्वती। २. मनसा देवी। ३. कल्याण। मंगल।
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शैव्य  : वि० [सं० शिव+त्र्य] शिव संबंधी। शिव का। पुं० १. कृष्ण के एक घोड़े का नाम। २. पाण्डवों की सेना का एक यूथप।
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शैव्या  : स्त्री० [सं० शैव्य-टाप्] अयोध्या के सत्यव्रती राजा हरिशचन्द्र की रानी (चंद कौशिक)।
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शैशव  : वि० [सं० शिशु+अण्] १. शिशु संबंधी। बच्चों का। २. शिशु या छोटे बच्चों की अवस्था से सम्बन्ध रखनेवाला। पुं० १. शिशु होने की अवस्था या भाव। २. १६ वर्ष की कम अवस्था। बचपन। ३. लड़कपन।
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शैशविक  : वि० [सं० शैशव+ठक्-इक] शैशव-संबंधी। शैशव का।
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शैशविकी  : स्त्री० [सं०] आधुनिक चिकित्सा-प्रणाली की वह शाखा जिसमें शिशुओं के लालन-पालन लक्षण आदि के प्रकारों एवं सिद्धान्तों का विवेचन होता है। (पेडियाट्रिक्स)
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शैशिर  : वि० [सं० शिशिर+अण्] १. शिशिर संबंधी। शिशिर काल या ऋतु का। २. शिशिर ऋतु में होनेवाला। पुं० १. ऋग्वेद की एक शाखा के प्रवर्तक एक ऋषि। २. चातक।
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शैषिक  : वि० [सं० शेष+ठञ्-इक] शेष या अन्तिम भाग से संबंध रखनेवाला। शेष का।
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शोक  : पुं० [सं०√शुच् (शोक करना)+घञ्] १. किसी आत्मीय या महान परुष की मृत्यु के कारण घोर दुःख। सोग। (मोनिंग) २. बहुत अधिक दुःख।
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शोकघ्न  : पुं० [सं० शोक√हन् (मारना)+टच्, कुत्व] अशोक वृक्ष।
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शोकहर  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक पद में ८, ८, ८, ६ के विश्राम से (अंत में गुरु सहित) तीस मात्राएँ होती हैं। प्रत्येक पद के दूसरे चौथे और छठे चौकाल में जगण न पड़ें। इसे शुभंगी भी कहते हैं। वि० शोक दूर करनेवाला।
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शोकाकुल  : वि० [सं० तृ० त० स०] शोक से विकल।
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शोकारि  : पुं० [सं० ष० त० स०] कदम का पेड़। कदंब का वृक्ष।
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शोकार्त  : वि० [सं० तृ० त० स०] शोक से विकल।
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शोकी (किन्)  : वि० [सं० शोक+इनि] [स्त्री० शोकिनी] जिसे शोक हुआ हो या जो शोक कर रहा हो। स्त्री० रात।
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शोख  : वि० [फा०] [भाव० शोखी] १. ढीठ तथा निडर। २. ऐसा चंचल या चपल जो केवल दूसरों को चिढाने या तंग करने के लिए बढ़-बढ़कर धृष्टतापूर्वक बातें तथा व्यवहार करता हो। नटखट (उर्दू, फारसी कविताओं में प्रेमपात्र का एक विशिष्ट गुण) २. रंग की चटकाहट।
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शोच (न्)  : पुं० [सं०] १. दुःख। रंज। २. चिन्ता। फिक्र।
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शोचन  : पुं० [सं०√शुच् (शोक करना)+ल्युट-अन] [वि० शोचनीय, शोचितव्य, शोच्य] १. शोक करना। रंज करना। २. चिन्ता करना। ३. शोक।
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शोचनीय  : वि० [सं०√शुच् (शोक करना)+अनीयर] जिसके संबंध में सोच करना पड़ता हो। जो चिन्ता या फिक्र का विषय हो।
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शोचि  : स्त्री० [सं०] १. लौ। लपट। २. चमक। दीप्ति। ३. रंग। वर्ण।
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शोच्य  : वि० [सं० शुच्+ण्यत्]=शोचनीय।
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शोटीर्य  : पुं० [सं० शुटीर+यत्] बल। वीर्य। पराक्रम।
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शोठ  : वि० [सं०√शोण् (गत्यादि)+अच्] १. रक्त वर्ण। लाल। उदाहरण—अरुण जलज के शोण कोण थे।—प्रसाद। पुं० १. लाल रंग। २. अरुणता। लाली। ३. अग्नि। ४. सिंदूर। ५. रक्त। लगू। ६. पद्यराग मणि। ७. लाल गदहपूरना। ८. सोनापाठा। ९. लाल गन्ना। १॰. सोन (नद)।
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शोणक  : पुं० [सं० शोण+कन्] १. सोनापाठा। २. लाल गन्ना।
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शोणगिरि  : पुं० [सं० मध्य० स०] बिहार की एक पहाड़ी जिस पर मगध देश की पुरानी राजधानी (राजगृह) बसी थी।
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शोणझिंटी  : सं० स्त्री० [सं० कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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शोणपत्र  : पुं० [सं० ब० स०] लाल पुनर्नवा।
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शोणपद्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] लाल कमल।
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शोणपुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] कचनार।
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शोणपुष्पी  : स्त्री० [सं०] सिंदूर। पुष्पी।
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शोणभद्रा  : पुं० [सं० शोणभद्र-टाप्] सोन नामक नद।
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शोणरत्न  : पुं० [सं० कर्म० स०] मानिक। लाल।
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शोणांबु  : पुं० [सं० ब० स०] प्रलयकाल के मेघों में से एक मेघ।
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शोणा  : स्त्री० [सं० शोण-टाप्०] १. सोन नामक नद। २. लाल कटसरैया।
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शोणित  : वि० [सं०√शोण (रंग)+क्त, शोण+इतच्, वा] लाल। जैसे—शोणित चंदन। पुं० १. रक्त। लहू। २. वनस्पतियों का रस। ३. केसर। ४. सिंदूर। ५. ताँबा। ६. तृण केसर।
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शोणितपुर  : पुं० [सं० मध्य० स०] वाणासुर की राजधानी का नाम।
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शोणित-शर्करा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] शहद की चीनी।
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शोणितार्बुद  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें लिंग पर फुंशियां हो जाती हैं।
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शोणितोपल  : पुं० [सं० मध्य० स०] मानिक। लाल।
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शोणिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० शोण+इमनिच्] लालिमा। लाली।
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शोणोपल  : पुं० [सं० मध्य० स०] मानिक लाल।
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शोथ  : पुं० [सं०√शृ (गत्यादि)+यन्] १. शरीर के किसी अंग का फूलना। सूजन। २. अंग में सूजन होने का रोग। (इन्फ्लेमेशन)।
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शोथक  : वि० [सं० शोथ+कन्] शोक उत्पन्न करनेवाला। पुं० १. शोथ। सूजन। २. मुरदाशंख।
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शोथघ्नी  : स्त्री० [सं० शोथ√हन्+टच्,-कुत्व, ङीष्] १. गदहपूरन। पुनर्नवा। २. शालिपर्णी सरिवन।
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शोथजित्  : पुं० [सं० शोथ√जि+क्विप्—तुक्] १. भिलावाँ। भल्लनातक। २. गदहपूरना।
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शोथारि  : पुं० [सं० ष० त० स०] पुनर्नवा। गदहपूरना।
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शोद्धव्य  : वि० [सं० √शुद्ध (शोधन करना)+तव्य] शोधे जाने के योग्य।
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शोध  : पुं० [सं०√शुद्ध (शोधन करना)+अच्] १. शुद्ध करना या बनाना। २. कमी, त्रुटियाँ आदि ठीक तथा दुरुस्त करना। ३. छिपी हुई तथा रहस्यपूर्ण बातों की खोज करना। ४. ऋण चुकाना। ५. जाँच। परीक्षण।
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शोधक  : वि० [सं० √शुध्+णिच्—ण्वुल्—अक] १. शुद्ध या साफ करनेवाला। जैसे—तेल-शोधक यंज्ञ। २. शोध या अन्वेषण करनेवाला। ३. ढूँढ़ने या पता लगानेवाला।
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शोधन  : पुं० [सं०√शुद्ध (शोधन करना)+णिच्—ल्युट्+अन] १. शुद्ध या साफ करने की क्रिया या भाव। अनमेल या हानिकर तत्त्व निकालकर किसी चीज को शुद्ध बनाना। २. अशुद्धि, दोष, भूल आदि का सुधार करना। (करेक्शन) ३. वह प्रक्रिया जिसमें धातुओं को शुद्ध करके ओषधि का रूप दिया जाता है। ४. नई बातों की खोज करना। खोज का कार्य। अन्वेषण ५. ऋण चुकाना। ६. प्रायश्चित्त। ७. विरेचन। ८. भाग्य में से भाजक को घटाना। ९. मल। विष्ठा। १॰. नींबू। १२ हरा कसीस।
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शोधनक  : वि० [सं० शोधन+कन्] शोधन करनेवाला।
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शोधना  : स० [सं० शोधन] १. शुद्ध या साफ करना। २. ठीक या दुरुस्त करना। ३. तलाश करना। खोजना। ढूँढ़ना। ४. वैद्यक में, धातुओं को विशेष रीति से इस प्रकार शुद्ध करना कि वे ओषधियाँ बन जायँ।
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शोध-निबंध  : पुं० [सं० मध्य० स०] ऐसा निबंध जिसमें किसी गंभीर विचारणीय विषय के सब अंगों की अच्छी तरह जाँच-पड़ताल करके उसके संबंघ में कोई मत या विचार स्थिर किया गया हो। (डिस्सर्टेशन)
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शोधनी  : स्त्री० [सं० शोधन—ङीष्] १. मार्जन। झाडू। २. ताम्रवल्ली। ३. नील। ४. ऋद्धि नामक औषधि। ५. जमालगोटा।
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शोधनीय  : वि० [सं०√शुध् (शोधन करना)+अनीयर्] १. जिसका शोधन होने को हो। २. (ऋण या देन) जो चुकाया जाने को हो। ३. जो ढूँढ़ा जाने को हो।
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शोधवाना  : स० [हिं० शोधना का प्रे०] १. शोधने का काम किसी से कराना। शुद्ध कराना। २. तलाश कराना। ढुँढ़वाना।
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शोध-शाला  : स्त्री० [सं०] १. वह स्थान जहाँ किसी प्रकार का शोधकार्य होता हो। २. वह स्थान जहाँ धातुओं को शोधकर उनकी ओषधियाँ बनाई जाती हैं। ३. आज-कल वह कारखाना जहाँ तेल, धातु आदि प्राकृतिक पदार्थों को रासायनिक प्रक्रियाओं से शुद्ध और निर्मल करके काम में लाने योग्य बाना जाता हो। (रीफ़ाइनरी)
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शोधा  : पुं० [हिं० शोधना] सोना-चाँदी शुद्ध करनेवाला व्यक्ति। शोधन करने या शोधनेवाला।
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शोधाक्षम  : वि० [सं० शोध+अक्षम] (व्यक्ति) जो अपना ऋण चुकाने में अक्षम या असमर्थ हो। दिवालिया।
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शोधित  : भूं० कृ० [सं० शोध+इतच्] १. जिसका शोधन हुआ हो। शुद्ध या साफ किया हुआ। २. जो दोष या भूल सुधारकर ठीक किया गया हो। (करेक्टेड) ३. जिसका या जिसके संबंध में शोध हुआ हो। ४. (ऋण या देन) जिसका परिशोधन हुआ हो। चुकाया हुआ।
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शोधैया  : वि० [हिं० शोधना+ऐया (प्रत्य०)] शोधनेवाला।
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शोध्य  : पुं० [सं० शुध+यत्] अपने अपराध के विषय में सफाई देनेवाला। अपराधी व्यक्ति। वि०=शोधनीय।
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शोध्यपत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] छापाखाने में छापनेवाली चीज का वह नमूना जो छापने से पहले भूलें आदि सुधारने के लिए तैयार होता है। (प्रूफ़)
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शोफ  : पुं० [सं०] १. शरीर पर होनेवाली ऐसा सूजन जिसमें जलन या पीड़ा न हो। (ओएडिमा) २. शरीर पर होनेवाली गाँठ। अर्बुद।
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शोफध्नी  : स्त्री० [सं० शोफ√हन्+टच्—ङीप्-कुत्व] रक्त पुनर्नवा।
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शोफहारी  : पुं० [सं० शोफ√हृ (हरण करना)+णिनि] जंगली बर्बरी का पौधा।
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शोफारि  : पुं० [सं० ष० त० स०] हाथीकंद। हस्तिकंद।
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शोबदा  : पुं० [अ० शुअबदः] १. इन्द्रजाल। जादू। २. बाजीगरी। ३. हाथ की चालाकी।
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शोभ  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार के देवता। २. एक प्रकार के नास्तिक। वि०=शोभन।
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शोभन  : वि० [सं०√शुभ् (शोभित होना)+ण्वुल्—अक] १. शोभा से युक्त। २. शोभा बढ़ानेवाला। ३. उपयुक्त जान पड़ने तथा फबनेवाला। ४. मंगलकारक। शुभ। पुं० १. शिव। २. अग्नि। ३. ग्रह। ४. कमल। ५. राँगा। ६. आभूषण। ७. कल्याण। ८. पुण्यकार्य। ९. सुन्दरता। सौन्दर्य। १॰. सिन्दूर। ११. ज्योतिष में विष्कंभक आदि सत्ताइस योगों में से पाँचवाँ योग। १२. बृहस्पति का ग्यारहवाँ संवत्सर। १३. संगीत में, एक प्रकार का राग जो मालकोश राग का पुत्र कहा गया है। १४. २४ मात्राओं का एक ढंद जिसमें १४. और १॰ मात्रा पर यदि होती है और अंत में जगण होता है। इसका दूसरा नाम ‘सिंहिका’ है।
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शोभनक  : पुं० [सं० शोभन+कन] सहिजन या शोभाजन।
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शोभना  : पुं० [सं० शोभन—टाप्] १. सुन्दरी स्त्री। २. हलदी। ३. गोरोचन ४. स्कन्द की एक मातृका। अ० [सं० शोभन] शोभित होना। सुहावना लगना।
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शोभनिक  : पुं० [सं० शोभन+ठन्—इक] एक प्रकार के नट या कुशल अभिनेता।
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शोभनी  : स्त्री० [सं० शोभन—ङीष्] संगीत में, एक रागिनी जो मालकोश की पुभी कही गई है।
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शोभांजन  : पुं० [सं० ब० स०] सहिंजन (पेड़)।
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शोभा  : स्त्री० [सं० शुभ+अ—टाप्] १. कांति। चमक। २. ऐसी सुन्दरता या सौन्दर्य जिसका देखने वाले पर विशेष प्रभाव पड़ता हो। जैसे—पर्वतमालाओं की शोभा। ३. वह तत्त्व या बात जिससे किसी का सौन्दर्य बढ़ता हो। ४. अच्छा गुण। ५. रंग। वर्ण। ६. हल्दी। ७. बीस अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसमें यगण मगण, दो नगण दो तगण और दो गुरु होते हैं तथा छः और सात पर यदि होती है। ८. फारसी संगीत से गृहीत कुछ विशिष्ट गायन-तत्त्व जिसकी संख्या २४ कही जाती है। ९. दलाली के रूप में मिलनेवाला धन। दलाली की रकम। (दलाल) १॰. गोरोचन।
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शोभानक  : पुं० [सं०] शोभांजन। सहिंजन।
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शोभान्वित  : वि० [सं० तृ० त० स०] शोभा से युक्त।
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शोभायमान  : वि० [सं०] शोभा देता हुआ। सुन्दर।
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शोभा-यात्रा  : स्त्री० [सं०] १. जलूस। २. बरात। (बँगला से गृहीत)
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शोभित  : भू० कृ० [सं०√शुभ् (शोभित)+क्त] १. शोभा से युक्त। फबता हुआ। सुन्दर। २. सजा हुआ।
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शोभिनी  : स्त्री० [सं० शोभा+इनि—ङीष्] शोभा देनावाली।
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शोभी  : वि० [सं०] [स्त्री शोबिनी] शोभा देनेवाला।
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शोर  : पुं० [फा०] १. ऊँची, तीखी तथा कर्णकटु आवाज या आवाजें। जैसे—रात भर कुत्ते शोर करते रहे। २. लोगों के चीखने-चिल्लाने आदि की सामूहिक ध्वनि। ३. लाक्षणिक अर्थ में, किसी चीज की सहसा होनेवाली व्यापक चर्चा। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना।
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शोरबा  : पुं० [फा० शोर्बः] १. तरकारी, दाल आदि का जूस। रसा। २. पकाये हुए मांस का रसा।
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शोरा  : पुं० [फा० शोरः] सफेद रंग का एक प्रकार का क्षार जो मिट्टी में से निकलता है। मुहा०—शोरे की पुतली=बहुत गोरी स्त्री।
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शोरा आलू  : पुं० [हिं० शोरा+आलू] बन आलू।
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शोरा पुश्त  : वि० [फा० शोरः पुश्त] १. लड़ाका। २. उपद्रवी। फसादी।
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शोरिश  : स्त्री० [फा०] १. खलबली। हलचल। २. बगावत। विद्रोह।
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शोरी  : पुं० [फा० शोरः] फारसी संगीत में एक मुकाम का पुत्र।
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शोला  : पुं० [अ०] एक प्रकार का छोटा पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत हल्की होती है। पुं० [अ० शुअलः] आग की लपट। ज्वाला।
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शोशा  : पुं० [फा० शोशः] १. आगे निकली हुई नोक। २. किसी बात में निकाली हुई कोई ऐसी अनोखी और नई शाखा जो उसे किसी दूसरी ओर प्रवृत्त कर सकती होया उसमें कोई त्रुटि दिखलाती हो। मुहा०—शोशा निकालना=कोई दोष दिखाते हुए साधारण आपत्ति खड़ी करना। ३. कोई व्यंग्यपूर्ण या झगड़ा लगानेवाली बात कहना। क्रि० प्र०—छोड़ना।
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शोष  : पुं० [सं०√शुष् (सोखना)+घञ्] १. सूखने की क्रिया या भाव। २. शुष्कता। खुश्की। ३. क्षीण होना। क्षय। ४. धीरे-धीरे शरीर का क्षीण य दुबला होना। ५. क्षय नामक रोग। तपेदिक। ६. बच्चों का सुखंडी नामक रोग।
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शोषक  : वि० [सं०√शुष् (शोखना)+णिच्, ण्वुल—अक] १. सोखनेवाला। २. आर्द्रता, नमी आदि चूस या सोख लेनेवाला। ३. क्षीण करनेवाला। ४. अपने लाभ या स्वार्थ के लिए नष्ट करनेवाला। ५. दूर करने या हटानेवाला। पुं० १. वह जो दूसरों का धन हरण करता हो, तथा उनका पूरा पूरा वास्तविक देय भाग न देता हो। २. समाज का वह वर्ग जो धन खींचता तथा बटोरता चलता हो और गरीबों को और अधिक गरीब बनाता चलता हो। (एक्सप्लाइटर, उक्त दोनों अर्थों में)
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शोष-कर्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] बावली या तालाब आदि से पानी निकलवाना और उससे खेत सिंचवाना। (जैन)
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शोषण  : पुं० [सं०√शुष् (शोकना)+ल्युट्—अन] [वि० शोषी, शोषनीय] १. एक पदार्थ का किसी दूसरे पदार्थ में से उसका जलीय या तरल अंश धीरे धीरे खींचकर अपने अन्दर करना या लेना। सोखना। (ऐब्जार्पशन) २. सुखाना। ३. किसी चीज की ताजगी या हरापन धीरे धीरे कम यो दूर करना। ४. परोक्ष उपायों से किसी की कमाई या धन धीरे धीरे अपने हाथ में करना। (एक्सप्लाएटेशन) ५. न रहने देना। दूर करना। ६. क्षीण या दुबला करना। ७. कामदेव के पाँच बाणों में से एक जो मनुष्य को चिंतित करके उसका रक्त शोखनेवाला कहा गया है। ८. सोंठ। ९. सोना पाढ़ा। १॰. पिप्पली।
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शोषणीय  : वि० [सं०√शुष् (सोखना)+अनीयर्] जिसका शोषण हो सके या होने को हो।
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शोषयितव्य  : वि० [सं०√शुष् (सोखना)+णिच्—तव्य]=शोषणीय।
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शोषहा  : वि० [सं० शोष√हन् (मारना)+क्विप्] शोष रोग का नाश करनेवाला। पुं० अपामार्ग। चिमड़ा।
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शोषित  : भू० कृ० [सं०√शुष् (शोखना)+णिच्—क्त] १. जिसका शोषण हुआ हो। सोखा हुआ। २. सूखा या सुखाया हुआ। ३. (व्यक्ति या वर्ग) जिसका देय भाग उसे पूरा पूरा न मिलता हो और इस प्रकार जिसकी दुर्बलता या असहाय अवस्था का दूसरे फायदा उठाते हों।
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शोषी (षिन्)  : वि० [सं०√शुष् (सोखना)+णिनि] [स्त्री० शोषिणी] १. शोषण करने या सोखने वाला। २. सुखानेवाला।
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शोषना  : स० [सं० शोषण] शोषण करना। सोखना।
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शोहदा  : वि० [अ० शहीद के बहु० शुहदा से शुहदः] १. व्यभिचारी। लंपट। २. बदमाश। लुच्चा। ३. आवारा और गुंडा।
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शोहदापन  : पुं० [हिं० शोहदा+पन (प्रत्य०)] १. शोहदा होने की अवस्था या भाव। २. शोहदे की कोई हरकत।
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शोहरत  : स्त्री० [अ० शुहरत] १. ख्याति। प्रसिद्ध। २. जोरों की चर्चा या फैली हुई खबर।
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शोहरा  : पुं०=शोहरत।
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शौंग  : पुं० [सं० शुंग+अण्] भरद्वाज ऋषि का एक नाम जो शुंग के अपत्य थे।
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शौंगेय  : पुं० [सं० शुंगा+ढक्—एय] १. गरुड़। २. बाज पक्षी।
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शौंड  : पुं० [सं० शुंड+अण्] [भाव० शौंडता] १. कुक्कुट पक्षी। मुरगा। २. देव-धान्य। पुनेरा। ३. वह जो शराब पीकर मतवाला हो जाता हो।
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शौंडायन  : पुं० [सं० शुंडा+फक्-आयन] प्राचीन भारत की एक प्रकार की योद्धा जाति।
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शौंडिक  : वि० [सं० शुडा+ठक्—इक] [स्त्री० शौंडिकी] शराब बनाने तथा बेचनेवाला। पुं० पिप्पलीमूल।
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शौंडिकागार  : पुं० [सं० ष० त० स०] शराब की दुकान। हौली। मधुशाला।
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शौंडी  : पुं० [सं० शौंड+इनि—दीर्घ—नलोप शौंडिन्] प्राचीन काल की शौंडिक नामक एक प्रकार की जाति। स्त्री० [सं० शौंड—ङीष्] १. पीपल। पिप्पली। २. चव्य। चाव। ३. मिर्च।
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शौंडीर  : वि० [सं०√शुंडा+ईरन्—अण्] अभिमानी। अहंकारी।
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शौक  : पुं० [सं० शुक्+अण्] शुकों का समूह। तोतों का झुंड।
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शौक  : पुं० [अ०] १. मनोविनोद या आनन्द प्राप्ति के लिए कोई काम बराबर या पुनः पुनः करने की स्वाभाविक या अभ्यास जन्य लालसा। २. उक्त के आधार पर ऐसा काम या खेल जिसमें कोई मग्न रहता हो। जैसे—क्रिकेट या ताश का शौक। ३. सुख-बोग। मुहा०—शौक करना या फरमाना=किसी पदार्थ का भोग करके उसमें सुख प्राप्त करना। जैसे—चाय हाजिर है, शौक फरमाइए। शौक चर्राना=शौक पैदा होना। (व्यंग्य) पद—शौक से=प्रसन्नतापूर्वक। ४. कोई शुभ आकांक्षा या कामना। ५. किसी काम या बात का चसका। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। ६. किसी काम या बात की ओर विशेष रूप से होनेवाली प्रवृत्ति या रुचि
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शौकत  : स्त्री० [अ०] १. बल। शक्ति। २. दबदबा। ३. शानदार। ठाट-बाठ। पद—शानशौकत। ४. गौरव।
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शौकर  : पुं० दे० ‘शूकर क्षेत्र’।
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शौकरी  : स्त्री० [सं० शूकर+अण्—ङीष्] बराही कंद। गेंठी।
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शौकिया  : क्रि० वि० [अ० शौकियः] शौक के कारण अर्थात् यों ही। बिना किसी विशिष्ट प्रयोजन के। वि० शौक से भरा हुआ। जैसे—शौकिया सलाम।
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शौकीन  : वि० [अ० शौक+हिं० ईन (प्रत्यय)] [भाव० शौकीनी] १. जिसे किसी काम, चीज या बात का बहुत शौक हो। जैसे—खाने-पीने का शौकीन, ताश खेलने का शौकीन। २. जो सदा सजा-सँवारा तथा बना-ठना रहता हो। ३. वेश्यागामी।
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शौकीनी  : स्त्री० [हिं० शौकीन] १. शौकीन होने की अवस्था या भाव। २. सदा बने-ठने रहने की इच्छा। ३. वेश्या-गमन की वृत्ति। रंडीबाजी।
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शौक्तिक  : वि० [सं० शुक्तिका+अण्] शुक्तिका या सीपी से उत्पन्न। पुं० मोती। मुक्ता।
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शौक्तिका  : स्त्री० [सं० शौक्तिक-टाप्] सीप।
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शौक्तिकेय  : वि० पुं०=शौक्तिक।
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शौक्तेय  : पुं० [सं० शुक्ति+ठक्-एय] मोती।
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शौक्र  : वि० [सं० शुक्र+अण्] १. शुक्र संबंधी। २. शुक्र से उत्पन्न।
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शौक्ल  : वि० [सं० शुक्ल+अण्] शुक्ल संबंधी। शुक्ल का।
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शौच  : पुं० [सं० शुचि+अण्] शुचि होने की अवस्था या भाव। शुचिता। शुद्धता। २. शास्त्रीय परिभाषा में सब प्रकार से पवित्रता या शुद्धता-पूर्वक जीवन व्यतीत करना। ३. शरीर की शुचिता के लिए सबेरे सोकर उठते ही किये जानेवाले कृत्य। जैसे—पाखाने जाना, कुल्ला करना, नहाना आदि। ४. पाखाने जाना। टट्टी जाना। पुं० अशौच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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शौच-कर्म  : पुं० [सं० मध्य० स०] मल-मूत्र आदि का त्याग करना।
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शौच-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] वह कोठरी जिसमें लोग बैठकर मल-मूत्र का विसर्जन करे हैं। पाखाना।
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शौचनी  : स्त्री० [सं० शौच से] आज-कल का वह पात्र जिसमें लोग पाखाना फिरते हैं।
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शौच-विधि  : स्त्री० [सं०]=शौच कर्म।
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शौचागार  : पुं० [सं० ष० त०] शौचालय।
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शौचालय  : पुं० [सं० शौच+आलय] १. घरों आदि में वह स्थान जहाँ लोग मल त्याग करने के लिए जाते हैं और जहाँ हाथ, मुँह धोने के लिए जल की व्यवस्था रहती है (लेवेटरी) २. कोई ऐसा स्थान जहाँ पर सार्वजनिक उपयोग के लिए पाखाने बने हुए हों।
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शौचासनी  : स्त्री० [सं० शौच+आसन] काठ आदि का बना हुआ एक प्रकार का पात्र जिस पर बैठकर लोग पाखाना फिरते हैं (कामोड)।
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शौचिक  : पुं० [सं० शौच+ठन्-इ] प्राचीन काल की एक वर्ण संकर जाति जिसकी उत्पत्ति शौंडिक पिता और कैवर्त्त माता से कही गई है। वि० शौच-संबंधी। शौच का।
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शौची (चिन्)  : वि० [सं०√शुच् (शुद्ध करना)+णिनि+दीर्घ, नलोप] [स्त्री० शौचिनी] विशुद्ध। पवित्र।
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शौचेय  : पुं० [सं० शौच+ठक्-एक] रजक। धोबी।
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शौटीर  : पुं० [सं०√शौट् (करना)+ईरन्] [भाव० शौटीरता] १. वीर। बहादुर। २. अभिमानी। ३. त्यागी।
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शौटीर्य  : पुं० [सं० शौटीर+ष्यञ्] १. वीर्य। शुक्र। २. वीरता। बहादुरी। ३. अभिमान। ४. त्याग।
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शौत  : स्त्री०=सौत (सपत्नी)।
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शौद्धोदनि  : पुं० [सं० शुद्धोदन-इञ्] महाराज शुद्धोदन के पुत्र, बुद्ध।
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शौद्र  : पुं० [सं० शूद्रा+अण्] ब्राह्मण क्षत्रिय या वैष्य पिता और शूद्रा माता से उत्पन्न पुत्र।
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शौध  : वि०=शुद्ध।
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शौन  : पुं० [सं० शुन्+अण्] बेचा जानेवाला अथवा बिक्री के निमित्त रखा हुआ मांस। वि० स्वान संबंधी। कुत्ते का।
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शौनक  : पुं० [सं० शुनक्+अण्] एक वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।
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शौनायण  : पुं० [सं० शुन्+ठक्-इक] १. मांस बेचनेवाला। कसाई। २. शिकारी। ३. आखेट। शिकार।
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शौनिक शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त० स०] वह शास्त्र जिसमें शिकार, खेलने घोड़ों आदि पर चढ़ने की विद्या का वर्णन हो।
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शौनिकायन  : पुं० [सं० शौनिक+फक्-आयन] वह जो शुनक के गोत्र में उत्पन्न हुआ हो।
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शौभ  : पुं० [सं० शोभा+अण्] १. देवता। २. राजा हरिशचन्द्र की वह कल्पित नगरी जो आकाश में मानी गई है। ३. चिकनी सुपारी।
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शौभांजन  : पुं० [सं० शोभांजन+अण्] शोभांजन। सहिंजन।
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शौभायन  : पुं० [सं० शुभ+फक्-आयन] प्राचीन भारत की एक योद्धा जाति।
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शौभिक  : पुं० [सं० शोभा+ठक्-इक] ऐन्द्रजालिक। जादूगर।
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शौभ्रायण  : पुं० [सं० शुभ्र+ठक्-एय] १. एक प्राचीन देश। २. उक्त देश का निवासी।
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शौभ्रेय  : वि० [सं० शुभ्रा+ठक्-एय] शुभ्र वस्तु का व्यक्ति संबंधी। पुं० एक प्राचीन योद्धा जाति।
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शौरसेन  : पुं० [सं० सूरसेन+अण्] मथुरा के आसपास के प्रदेश का नाम।
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शौरसेनिका  : स्त्री० [सं० शौरसेन+कन्-टाप्-इत्व]=शौरसेनी।
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शौरसेनी  : स्त्री० [सं०] शौरसेन प्रदेश की एक प्रसिद्ध प्राचीन प्राकृत साहित्यिक भाषा जिसमें आधुनिक खड़ी बोली का विकास माना गया है।
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शौरि  : पुं० [सं० शूर+इञ्] १. विष्णु। २. कृष्ण। ३. बलदेव। ४. वसुदेव। ५. शनैश्चर। ग्रह।
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शौरि-रत्न  : पुं० [सं० ष० त० स०] नीलम।
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शौर्प  : वि० [सं० शूर्प+अण्] १. शूर्प। सूप संबंधी। २. सूप द्वारा नापा हुआ।
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शौर्पारक  : पुं० [सं० शूर्पारक+अण्] शूपारक प्रदेश में पाया जानेवाला काले रंग का एक प्रकार का हीरा। वि० शूर्पारक संबंधी। शूर्पारक का।
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शौर्पिक  : वि० [सं०]=शौर्प।
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शौर्य  : पुं० [सं० शूर-ष्यञ्] १. शूर होने की अवस्था, धर्म या भाव। शूरता। २. पराक्रम। शूरतापूर्ण कोई कृत्य। ३. नाटकों में आरभटी नाम की वृत्ति।
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शौलायन  : पुं० [सं० शूल+फक्-आयन] एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि।
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शौल्क  : वि० [सं० शुल्क-अण्] शुल्क संबंधी। शुल्क का।
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शौल्किक  : पुं० [सं० शुल्क+ठक्-इक] प्राचीन भारत में वह अधिकारी जो लोगों से शुल्क लेता था। शुल्काध्यक्ष।
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शौल्किकेय  : पुं० [सं० शुल्किक+ठक्-एय] एक प्रकार का विष।
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शौल्फ  : पुं० [सं० शल्फ+अण्] १. सौंफ। शतपुष्पा। २. सुल्फा नाम का साग।
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शौल्विक  : पुं० [सं० शुल्व+ठक्-इक] १. प्राचीन भारत की एक वर्ण संकर जाति। २. उक्त जाति का व्यक्ति। ३. कसेरा। ठठेरा।
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शौवन  : पुं० [सं० श्वन्+अण्] १. कुत्ते का स्वभाव। २. कुत्ते का मांस। ३. कुत्तों का झुंड। वि० १. स्वान संबंधी। कुत्ते का। २. जिसमें कुत्तों के से गुण हों।
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शौवापद  : वि० [सं० श्वापद+अण्] श्वापद संबंधी जंगली जानवरों का।
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शौहर  : पुं० [फा०] खाविंद। पति।
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श्ननुष्टि  : स्त्री० [सं० श्नुस्+क्तिन्, षत्व-ष्टुत्व] वैदिक काल में समय का एक परिमाण।
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श्मशान  : पुं० [सं० ब० स० ष० त० स०] १. मुरदे या शव जलाने का स्थान। मसान। मरघट। २. कब्रिस्तान। ३. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसा स्थान जो बिलकुल उजड़ा हुआ हो।
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श्मशान-कालिका  : स्त्री० [सं० ष० त० स०] तांत्रिकों के अनुसार काली का एक रूप जिसका पूजन मांस-मछली खाकर, मद्य पीकर और नंगे होकर श्मशान में किया जाता है।
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श्मशानपति  : पुं० [सं० ष० त० स०] १. श्मशान के स्वामी, शिव। २. एक प्रकार के पुराने ऐन्द्रजालिक।
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श्मसान-भैरवी  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] १. श्मशान में रहनेवाली देवियों में से हर एक (तंत्र)। २. दुर्गा।
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श्मशानवासिनी  : स्त्री० [सं० श्मशान√वस् (रहना)+णिनि-ङीष्] काली।
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श्मशानवासी (सिन्)  : पुं० [सं० श्मशान्-वासिन्-दीर्घ, नलोप] १. महादेव। शिव। २. चांडाल। ३. भूत-प्रेत। वि० श्मशान में रहनेवाले।
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श्मशान-बैताल  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक भूत-योनि जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि वह श्मशानों में रहती है और मुरदों का मांस खाती है।
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श्मशान-वैराग्य  : पुं० [सं० सप्त० त०] वह क्षणिक वैराग्य जो श्मशान में मृत शरीरों को जलाते हुए देखकर संसार की असारता के सम्बन्ध में मन में उत्पन्न होता है।
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श्मशान-साधन  : पुं० [सं० सप्त० त०] तांत्रिकों की एक प्रकार की साधना जो कुछ विशिष्ट महीनों में रात के समय श्मशान में किसी मृत शरीर की छाती पर बैठकर की जाती है।
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श्मश्रु  : पुं० [सं० श्म√श्रि (रहना)+उल्] दाढ़ी और मूँछें।
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श्मश्रुकर  : पुं० [सं० श्मश्रु√कृ (करना)+अच्] नाई। नापित। हज्जाम।
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श्मश्रुमुखी  : वि० [सं० ब० स०] दाढ़ी-मूँछोंवाली (स्त्री)।
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श्मश्रुल  : वि० [सं० श्मश्रु+लनच्] दाढ़ी-मूँछोंवाला।
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श्याम  : वि० [सं० श्यै+मक्, ब० स०] १. काला और नीला मिला हुआ (रंग)। २. काला। कृष्ण। ३. हलका काला। साँवला। पुं० १. श्रीकृष्ण का एक नाम जो उनके शरीर के श्याम वर्ण होने के कारण पड़ा था। २. प्रयाग के अक्षयवट का एक नाम। ३. संगीत में एक प्रकार का राग जो श्रीराग का पुत्र कहा गया है। ४. बादल। मेघ। ५. कोयल पक्षी। ६. प्राचीन भारत में कन्नौज के पश्चिम का एक प्रदेश। ७. साँवा नामक कदन्न।
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श्यामकंठ  : पुं० [सं० ब० स०] १. शिव। २. मोर। मयूर। ३. नील कंठ नामक पक्षी।
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श्यामक  : पुं० [सं० श्याम+कन्] १. साँवाँ नामक कदन्न। २. गन्ध तृण। राम-कपूर। ३. भारत के पूर्व का स्याम नामक देश।
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श्याम-कर्ण  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा घोड़ा जिसका शरीर सफेद और कान काले हों। ऐसा घोड़ा बहुत बढ़िया समझा जाता है। वि० शुभ।
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श्यामकांडा  : स्त्री० [सं० ब० स०] गाँडर दूब।
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श्याम-कृष्ण  : वि० [सं० मध्य० स०] जिसका रंग कुछ कालापन लिये नीला हो। पुं० कुछ कालापन लिये हुए नीला रंग।
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श्याम-घन  : पुं० [सं० मध्य० स०] घनश्याम।
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श्याम-चकेना  : पुं० [?] एक प्रकार का लोक गीत। (मैथिल)।
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श्यामचिंतामणि  : स्त्री० [सं० ब० स०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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श्यामचूड़ा  : स्त्री० [सं० ब० स०] श्यामा (पक्षी)।
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श्यामता  : स्त्री० [सं० श्याम+तल्—टाप्] १. श्याम होने की अवस्था गुण या भाव। २. कालापन। कृष्णता। ३. मलिनता। ४. उदासी। फीकापन। ५. एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर का रंग काला होने लगता है।
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श्याम-नीलांबरी  : स्त्री० [सं० ब० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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श्यामपत्र  : पुं० [सं० ब० स०] तमाल वृक्ष।
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श्यामपर्ण  : पुं०[सं० ब० स०] सिरिस का पेड़। शिरीस वृक्ष।
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श्यामपर्णी  : स्त्री० [सं० श्यामपूर्ण-ङीष्] चाय।
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श्यामपूरबी  : पुं० [सं० श्याम+हि० पूरबी] संगीत में एक प्रकार का संकर राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं, केवल मध्यम तीव्र लगता है।
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श्याम-भैरव  : पुं० [सं०] संगीत में, एक प्रकार का राग।
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श्याम-मंजरी  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] उड़ीसा देश की एक प्रकार की काली मिट्टी जिसका वैष्णव तिलक लगाते हैं।
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श्यामल  : वि० [सं० श्याम+लच्] १. श्याम वर्ण का काला। साँवला। पुं० १. पीपल। २. काली मिर्च। ३. भ्रमर। ४. काला रंग।
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श्यामलता  : स्त्री० [सं० श्यामल+तल्—टाप्] १. श्यामल होने की अवस्था, गुण या भाव। साँवलापन। कालापन।
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श्यामलांगी  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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श्यामला  : स्त्री० [सं० श्यामल+टाप्] १. अश्वगंधा। २. कटभी। ३. जामुन। ४. कस्तूरी। ५. पार्वती का एक नाम। वि० सं० श्यामल का स्त्री०।
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श्यामलिका  : वि० [सं०] नीली।
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श्यामलिमा  : स्त्री० [सं० श्यामल+इमानिच्] श्यामलता।
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श्यामली  : स्त्री०=श्यामला।
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श्याम-शबल  : पुं० [सं० द्व० स०] पुराणानुसार यम के अनुचर दो कुत्ते जो पहरा देने का काम करते हैं।
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श्याम-शर  : पुं० [सं०] एक प्रकार की ईख जो गुणकारक और अच्छी मानी जाती है।
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श्याम-शालि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] काला शालिधान्य।
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श्याम-सुंदर  : पुं० [सं० उपमि० स० कर्म० स०] १. श्रीकृष्ण का एक नाम। २. एक प्रकार का बड़ा वृक्ष।
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श्यामांग  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० श्यामांगला] जिसका शरीर कृष्ण वर्ग का हो। काले रंग के अंगोंवाला। पुं० बुध ग्रह।
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श्यामांगी  : स्त्री० [सं० श्यामांग-ङीष्] नीली दूब।
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श्यामा  : वि० स्त्री० [सं० श्याम+टाप्] श्याम रंग वाली। काली। २. तपाये हुए सोने के रंग वाली। स्त्री० १. राधा या राधिका का एक नाम। २. कालिका का एक नाम। ३. कालेरंग का एक प्रसिद्ध पक्षी जिसका स्वर बहुत सुन्दर होता है। ४. सोम लता। ५. कस्तूरी। ६. यमुना नदी। ७. काले रंग का गौ। ८. सोलह वर्ष की तरुणी। ९. सुन्दरी स्त्री। १॰. एक प्रकार की लता। ११. हल्दी। १२. सोमराजी बकुची। १३. गुग्गुल। १४. तुलसी। १५. कस्तूरी। १६. लता कस्तूरी। मुश्कदाना। १७. गोरोचन। १८. हर्रे। १९. काली निसोथ। २॰ प्रियंगु। २१. नील २२. भद्रमोथा। २३. हरी दूब। २४. गिलोय। गुडुच। २५. पाषाण भेदी। वटपत्री। २६. पिप्पली। २७. कमल गट्टा। २८. विधारा। २९. शीशम। ३॰. काली गदहपूरना। ३१. मेढ़ा-सिंगी। ३२. बाँदा। ३३. कोयल नामक पक्षी। ३४. सांवा नामक अन्न। ३५. रात्रि। रात। ३६. मादा कबूतर। कबूतरी। ३७. छाया।
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श्यामाक  : पुं० [सं० श्यामा+कन्] साँवाँ नामक कदन्न।
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श्यामायन  : पुं० [सं० ब० स०] विश्वामित्र के एक पुत्र जो गोत्र-प्रवर्तक ऋषि थे।
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श्यामायनी  : पुं० [सं० श्यामायनि+दीर्घ, नलोप] १. वैशंपायन के शिष्यों का एक संप्रदाय। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी।
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श्यामा-रजनी  : स्त्री०=रजनीगंधा (पौधा या फूल)।
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श्यामिका  : स्त्री० [सं० श्यामा+कन्-टाप्, इत्व] १. कालापन। श्यामता। २. हलकी काली धारी या रेखा। ३. युवावस्था में ऊपरी होंठ पर उभरने वाली मूँछों की रेखा। ४. काला रंग। ५. मलिनता। ६. मैल। मल। ७. ऐब। खराबी। दोष बुराई।
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श्यामित  : भू० कृ० [सं० श्याम+इतच्] काला किया हुआ।
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श्यामेक्षु  : पुं० [सं० कर्म० स०] काली ईख। कजली ईख।
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श्यालक  : पुं० [सं० श्याल+कन्] [स्त्री० श्यालिका] किसी की पत्नी का भाई साला।
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श्याल-कांटा  : पुं० [सं० श्याल+हिं० काँटा] सत्यानाशी। भड़भाँड़।
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श्यालकी  : स्त्री० [सं० श्यालक-ङीष्] किसी की पत्नी की बहन। साली।
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श्याली  : स्त्री० [सं० श्याल-ङीष्] साली।
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श्याव  : वि,० [सं०√श्यै+कन्] [भाव० श्यावता] कालापन लिये पीला। कपिश। पुं० उक्त प्रकार का रंग जो काले और पीले रंग के योग से बनता है। कपिश।
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श्याव-दंत  : पुं० [सं० ब० स०] दाँतों का एक रोग जिसमें रक्त मिश्रित पित्त से दांत जलकर काले, पीले या नीले हो जाते हैं। वि० काले रंग के दाँतोंवाला।
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श्येत  : वि० [सं०√श्यै (गमनादि)+क्तनव्] श्वेत। सफेद।
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श्येन  : पुं० [सं० श्यै+इनन्] १. बाज (पक्षी)। २. हिंसा। ३. पीला रंग। ४. दोहे का एक भेद जिसमें दो गुरु और दस लघु मात्राएँ होती हैं।
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श्येन-करण  : पुं० [सं० उपमि० स०] किसी काम में होनेवाली उतनी ही तेजी और दृढ़ता जितनी बाज के शिकार पर झपटने में होती है।
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श्येन-व्यूह  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना।
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श्योनाक  : पुं० [सं०√स्यै (गत्यादि)+निपा० ओनाक, सिद्ध] सोनापाढ़ा।
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श्रंथन  : पुं० [सं०√श्रंथ+ल्युट-अन] १. ढीला करना। २. मुक्त करना।
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श्रग  : पुं०=स्वर्ग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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श्रद्ध  : वि० [सं० श्रत्√धा (रखना)+अङ्] श्रद्धा करनेवाला। श्रद्धा वान्।
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श्रृद्धाजंलि  : स्त्री० [सं० श्रद्धा-अंजलि, मध्य० स०] किसी पूज्य या बड़े व्यक्ति के संबंध में श्रद्धा और आदरपूर्वक कही जानेवाली बातें।
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श्रद्धा  : स्त्री० [सं०] [वि० श्रद्धालु, श्रद्धेय] १. किसी काम या बात की प्रबल इच्छा या उत्कट वासना। २. गर्भवती स्त्री के मन में उत्पन्न होती रहनेवाली अनेक प्रकार की इच्छाएँ और वासनाएँ। दोहद। ३. आचार, धर्म आदि के क्षेत्र में किसी अच्छी चीज या बात (जैसे—ईश्वर, धर्म, मोक्ष, स्वर्ग आदि) अथवा पूज्य और बड़े लोगों के प्रति मन में रहनेवाली आदरपूर्ण आस्था या भावना, अथवा उनके प्रति होनेवाला विश्वास। ४. बौद्ध धर्म में बुद्ध धर्म और संघ के प्रति होनेवाली प्रसन्नता। ६. कर्दम मुनि की कन्या जो अत्रि ऋषि की पत्नी थी। ७. वैवस्वत मनु की पत्नी जो कामदेव और रति की कन्या थी। कामायनी।
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श्रप्य  : पुं०=शाप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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श्रम  : पुं० [सं०√श्रम+घञ्,न वृद्धिः] [वि० श्रमिक, भू० कृ० श्रमित, कर्ता श्रमी] १. कोई ऐसा शारीरिक या मानसिक काम जिसे लगातार कुछ समय तक करते करते शरीर में थकावट या शिथिलता आने लगती हो। शरीर को थकानेवाला काम।। परिश्रम। मेहनत। (लेबर)। क्रि० प्र०—उठाना।—करना।—पड़ना।—होना। मुहावरा—श्रम साधना= (क) उक्त प्रकार का कोई कठिन काम करना। (ख) किसी काम या बात का अभ्यास करना। उदाहरण—मुकुति हेतु जोगी स्रम (श्रम) साधै असुर विरौधै पावें।—सूर। २. जीविकानिर्वाह या धन-उपार्जन के लिए किया जानेवाला उक्त प्रकार का कोई काम। ३. उक्त प्रकार के काम करनेवालों का वर्ग या समूह। ४. हाथ में लिये हुए किसी काम में पड़नेवाली मशक्कत (लेबर, उक्त सभी अर्थों के लिए)। ५. क्लांति। थकावट। ६. दौड-धूप और प्रयत्न। प्रयास। ७. थकावट के कारण शरीर से निकलनेवाला पसीना। ८. साहित्य में एक प्रकार का संचारी भाव जिसमें कोई काम करते करते मनुष्य थककर शिथिल हो जाता है। ९. कसरत। व्यायाम। १॰. अस्त्र-शस्त्र आदि चलाने का अभ्यास। ११. इलाज। चिकित्सा। १२. खेद। रंज। १३. तपस्या।
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श्रम-कार्यालय  : पुं० [सं० मध्य० स०] श्रमिकों की संख्या, स्थिति संबंधी जानकारी देनेवाला राजकीय कार्यालय। (लेबर ब्यूरो)।
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श्रमणा  : स्त्री० [सं०√श्रम (श्रम करना)+ल्युट-अन, टाप्] १. सुंदरी स्त्री। २. सुदर्शना ओषधि। ३. गोरखमुंडी। ४. जटामासी।
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श्रमणी  : स्त्री० [सं० श्रमण-ङीष्] बौद्ध संन्यासिनी।
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श्रमना  : अ० [सं० श्रम] श्रमित होना। थकना। उदाहरण—सूखे से कसे से सकबके से सके से, थके से, भूले से, भ्रमे से, भभरे से, भकुआने से।—रत्नाकर।
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श्रम-विभाजन  : पुं० [सं० मध्यम० स०] अर्थशास्त्र में किसी कार्य के अलग-अलग अंगों की क्रिया, रचना आदि के सम्पादन के लिए अलग अलग व्यक्ति नियत करना (हिस्ट्रीब्यूशन आफ लेबर)।
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श्रम-विवाद  : पुं० [सं० मध्यम० स०] श्रमिकों के वेतन, अधिक लाभांश तथा अन्य प्रश्नों के संबंध में मालिकों से होनेवाला विवाद या झगड़ा (लेबर डिस्प्यूट)।
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श्रम-संघ  : पुं० [सं० ष० त० स०] कारखानों आदि में काम करनेवाले श्रमिकों का संघ जो उनके स्थिति-सुधार तथा हित-रक्षा की ओर ध्यान रखता है (लेबर यूनियन)।
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श्रमिक-कल्याण-कार्य  : पुं० [सं० ष० त० स०] श्रमिकों की भलाई के लिए किये जानेवाले कार्य। जैसे—स्वास्थ्य रक्षा, साफ और हवादार मकानों की व्यवस्था आदि (लेबर बेलफेयर)।
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श्रमिक-संघ  : पुं० [सं० ष० त० स०]=श्रम संघ।
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श्रयण  : पुं० [सं०√श्रि+ल्युट-अन] आश्रय।
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श्रवण  : पुं० [सं०√श्रु+ल्युट-अन] [वि० श्रवणीय] १. सुनने की क्रिया या भाव। सुनना। २. देवताओं के चरित्र, कथाएँ आदि सुनना। जो कि नवधा भक्ति में से एक प्रकार की भक्ति है। ३. सुनने की इंद्रिय। कान। ४. उक्त इन्द्रिय के द्वारा प्राप्त होनेवाला ज्ञान। ५. ज्योतिष में अश्विनी आदि २७ नक्षत्रों में से बाइसवाँ नक्षत्र जिसमें तीन तारे हैं और जिसका आकार तीर की तरह माना गया है।
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श्रवण-दर्शन  : पुं० [सं० ब० स०] साहित्य में, वह अवस्था जब कोई किसी के गुण सुनकर ही उसके प्रति मन में अनुरक्त होता है।
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श्रवण-द्वादशी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की ऐसी द्वादशी जो श्रवण नक्षत्र में पड़ती हो। कहते हैं कि भगवान् का वामन अवतार ऐसी ही द्वादशी को हुआ था इसलिए यह पुण्य तिथि मानी जाती है।
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श्रवणपूर  : पुं० [सं०] कान में पहनने का ताटंक नामक गहना।
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श्रवणेंद्रिय  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] सुनने की इन्द्रिय। कान।
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श्रव्य  : वि० [सं०√श्रु+यत्] [भाव० श्रव्यता] १. जो सुना जा सके या सुनाई देता हो। २. सुनने के योग्य फलतः प्रशंसनीय।
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श्रव्यता  : स्त्री० [सं० श्रव्य+तल्-टाप्] श्रव्य होने या सुने जा सकने की अवस्था या भाव। (आडिबिलिटी)।
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श्रांत  : वि० [सं०√श्रम्+क्त] [भाव० श्रांति] १. अधिक श्रम करने के कारण थका हुआ। २. खिन्न। दुःखी। ३. जितेन्द्रिय। ४. शान्त। ५. जो सुख-भोग से तृप्त हो चुका हो। पुं० तपस्वी।
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श्राद्ध  : पुं० [सं० श्रद्धा+अण्] १. वह काम जो श्रद्धापूर्वक किया जाय। २. सनातनी हिन्दुओं में पितरों या मृत व्यक्तियों के उद्देश्य से किये जानेवाले पिंड-दान ब्राह्मण-भोजन आदि कृत्य जो उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए किए जाते हैं ३. आश्विन मास का कृष्ण पक्ष जिसमें विशिष्ट रूप से उक्त प्रकार के कृत्य करने का विधान है। पितृपक्ष। ४. कोई काम या बात बहुत ही बुरी तरह से बिगाड़ते हुए करने की क्रिया या भाव (व्यंग्य) जैसे—अपनी इस रचना में तो उन्होंने कविता का श्राद्ध ही किया है। ५. प्रीति। ६. विश्वास। वि० श्रद्धा से युक्त।
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श्राद्ध-देव  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. यमराज। २. विवस्वान्। ३. वैवस्वत मनु। ४. ब्राह्मण।
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श्रावक  : पुं० [सं०√श्रु+ण्वुल-अक] [स्त्री० श्राविका] १. बौद्ध संन्यासी। २. जैन सन्यासी। ३. जैन धर्म का अनयायी। जैनी। ४. नास्तिक। ५. दूर से आनेवाला शब्द। ६. कौआ। ७. छात्र। शिष्य। वि० श्रवण करने या सुननेवाला। श्रोता।
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श्रावकमान  : पुं० [सं०] बौद्धों के हीनयान या शिष्टाचारसूचक नाम।
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श्रावण  : वि० [सं० श्रावणी+अण्] १. श्रवण संबंधी। कान संबंधी। २. श्रवण नक्षत्र संबंधी। श्रवण नक्षत्र का। पद—श्रावण वर्ष (देखें)। ३. श्रावण नक्षत्र में उत्पन्न। पुं० १. चांद्र गणना के अनुसार वह महीना जिसकी पूर्णिमा को श्रवण नक्षत्र होता और जो असाढ़ तथा भादों के बीच में पडता है। सावन। २. उक्त मास की पूर्णिमा। ३. श्रवणेंद्रिय का विषय अर्थात् आवाज या शब्द। ४. पुराणानुसार योगियों के योग से होनेवाले पाँच प्रकार के विघ्नों में से एक प्रकार का विघ्न या उपसर्ग जिसमें योगी हजार योजन तक के शब्द ग्रहण करके उनके अर्थ ह़दयंगम करता था। ५. पाखंड।
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श्रावण-वर्ष  : पुं० [सं० मध्य० स०] ज्योतिष की गणना में, एक प्रकार का वर्ष जो उस दिन से माना जाता है जिस दिन श्रवण या घनिष्ठा नक्षत्र में बृहस्पति उदित होता है। फलित ज्योतिष के अनुसार ऐसे वर्ष में साधारण लोग धन-धान्य से सुखी रहते हैं, परन्तु दुष्ट और पाखंडी बहुत ही दुःखी रहते हैं।
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श्रावणिक  : पुं० [सं० श्रावणी+ठन्—इक] गुप्त काल में वह कर्मचारी या सेवक जो न्यायालय में वाद उपस्थित होने पर वादी प्रतिवादी और साक्षी को बुलाने के लिए जोर से आवाज लगाता था।
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श्रावणी  : स्त्री० [सं० श्रावण-ङीष्] श्रावण मास की पूर्णिमा को होनेवाला एक प्रकार का धार्मिक कृत्य जिसमें यज्ञोपवीत का पूजन भी होता है।
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श्राविका  : स्त्री० [सं० श्रु (सुनना)+णिच्-ण्वुल, अक-इत्व-टाप्] सं० श्रावण का स्त्री० रूप।
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श्रावित  : भू० कृ० [सं० श्रु (सुनना)+णिच्-क्त] सुनाया हुआ।
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श्राव्य  : वि० [सं०√श्रु+ण्यत्] [भाव० श्राव्यता] १. जो सुना जो सके, सुनाई पड़ने के योग्य। २. जो इतना आवश्यक या उपयोगी हो कि लोग उसे सुनना पसंद करे। ३. जो बिलकुल स्पष्ट सुनाई पड़ता हो।
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श्रित  : भू० कृ० [सं०√श्रि (सेवा करना)+क्त] १. आश्रय या शरण के लिए आया हुआ। २. रक्षित। ३. सेवित। ४. पका हुआ।
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श्रितवान् (वतृ)  : वि० [सं०√श्रि (सेवा करना)+क्तवत्-नुम्, दीर्घ] १. आश्रयदाता। २. सेवक।
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श्रिती  : स्त्री० [सं०√श्रि (सेवा करना)+क्तिन्] आश्रय। सहारा।
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श्री  : स्त्री० [सं०√श्रि+क्विप्] १. विष्णु की पत्नी, लक्ष्मी। २. सरस्वती। ३. सिद्धि। ४. धन-दौलत। संपत्ति। ५. ऐश्वर्य। वैभव। ६. धर्म, अर्थ और काम तीनों का समूह। त्रिवर्ग। ७. कीर्ति। यश। ८. शोभा। सौन्दर्य। ९. कांति। चमक। १॰. अधिकार। ११. कमल। १२. सफेद चंदन। १३. लौंग। १४. ऋद्धि नामक ओषधि। १५. मस्तक पर ऊर्ध्व पुंड्र के बीच में लगाई जानेवाली लंबी रेखा। १६. स्त्रियों का माथे पर पहनने की बेंदी नामक गहना। १७. धूप-सरल नामक वृक्ष। १८. सामुद्रिक के अनुसार पैर के तलुए में होनेवाली एक प्रकार की शुभ रेखा। १९. बेल का पेड़ और फल। २॰. षाड़व जाति की एक रागिनी जो सूर्यास्त के समय गाई जाती है। वि० १. योग्य। २. शुभ। ३. सुन्दर। ४. श्रेष्ठ। ५. एक प्रकार का आदरसूचक विशेषम जो पुरुषों के नाम से पहले लगाया जाता है। जैसे—श्री नारायण दास। पुं० १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. कुबेर (डि०)। ४. एक प्रसिद्ध वैष्णव संप्रदाय। ५. एक प्रकार का एकाक्षरी छंद या वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक गुरु वर्ण होता है। जैसे—गो। श्री। धी। ही। ६. संगीत में ६ रागों के अन्तर्गत सम्पूर्ण जाति का एक राग जो शरद् ऋतु में गाया जाता है। कहते है कि यह राग गाने से सूखा वृक्ष भी हरा हो जाता है। ७. बैल।
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श्रीकंठी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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श्रीकरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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श्रीकांत  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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श्रीकृच्छ्र  : पुं० [सं० ब० स० या मध्यम० स०] एक प्रकार का व्रत जिसमें केवल श्रीफल (बेल) खाकर रहते हैं।
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श्रीगणेश  : पुं० [सं० मध्य० स०] किसी कार्य का आरंभ या सूत्रपात (जो पहले प्रायः ‘श्रीगणेशाय नमः’ कहकर किया जाता था)।
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श्रीधर  : पुं० [सं०] विष्णु।
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श्रीफल  : पुं० [सं० ब० स०] १. बेल। २. नारियल। ३. शरीफा। ४. खिरनी। ५. आँवला। ६. कच्ची सुपारी। ७. द्रव्य। धन।
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श्रीबन  : पुं०=वृन्दावन।
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श्रीमंडप  : पुं० [सं० मध्य० स०] प्राचीन भारत में धवलगृह का वह भाग जिसमें राजा अपने अतिथियों से मिलते थे (प्रेजेन्स चैम्बर)।
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श्रीमंत, श्रीमान्  : वि० [सं०] १. श्री से युक्त। २. धनवान्। सम्पन्न। ३. श्री की तरह प्रयुक्त एक आदरसूचक विशेषण।
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श्रीमालवी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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श्रीमुख  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु का मुख अर्थात वैद। २. सुशोभित या सुन्दर वृक्ष।
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श्रीरंजनी  : स्त्री० [सं०] संगीत में काफी ठाठ की एक रागिनी।
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श्रील  : वि० [सं० श्री+लच्] १. शोभायुक्त। २. जो अश्लील न हो। ३. धनवान्।
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श्रुत  : भू० कृ० [सं०√श्रु+क्त] १. सुना हुआ। २. फलतः प्रसिद्ध।
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श्रुतादान  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्मवाद।
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श्रुतानुश्रुत  : पुं० [सं०] इधर-उधर से या दूसरे लोगों से सुनी हुई ऐसी बात जिसकी प्रामाणिकता अनिश्चित हो (हियर से)।
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श्रुतार्थ  : पुं० [सं० कर्म० स०] जबानी कही या सुनी हुई बात।
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श्रुति  : स्त्री० [सं०√श्रु+क्तिन्] १. सुनने की क्रिया या भाव। श्रवण करना। सुनना। २. सुनने की इन्द्रिय कान। ३. कही या सुनी हुई बात। ४. आवाज। शब्द। ५. अफवाह। किवदन्ती। जनश्रुति। ६. उक्ति। कथन। ७. भारतीय आर्यों और सनातनी हिन्दुओं की दृष्टि में चारों वेद जिनमें उनके विश्वास के अनुसार सृष्टि के आरंभ से चला आया हुआ सारा अपौरुषेय और पवित्र ज्ञान भरा है (स्मृति से भिन्न) विशेष—परवर्ती काल में उपनिषदों की गिनती भी (श्रुति) में होने लगी। ८. चारों वेद के आधार पर चार की संख्या का सूचक शब्द। ९. भाषा-विज्ञान में वह ध्वनि जो किसी शब्द का उच्चारण करने के समय एक वर्ण या स्वर से दूसरे वर्ण या स्वर तक पहुँचने के समय प्रायः अज्ञात तथा अस्पष्ट रूप से मध्यवाले अवकाश में होती है। १॰. संगीतशास्त्र में, उक्त के आधार पर वह विशिष्ट प्रकार की ध्वनि जो किसी स्वर का उच्चारण करने में आंशिक रूप से सहायक होती है। विशेष—संगीत शास्त्र के आचार्यों का मत है कि नाभि के नीचे की ब्रह्म-ग्रंथि में जो वायु रहती है, उसके स्फुरण से २२ नाडि़यों के द्वारा २२ प्रकार की अलग अलग ध्वनियाँ होती हैं जो पारिभाषिक क्षेत्र में २२ श्रुतियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। संगीत के सातों स्वर कई कई श्रुतियों के योग से उत्पन्न होते हैं। यथा-तीव्रा, कुमुद्वती, मुद्रा और वृन्दावती के योग से षड़ज, पद्यावती, रंजनी और रतिका के योग से गांधार, वज्रिका प्रसारिणी प्रीति और मार्जनी के योग से मध्यम, श्रिति, रक्ता, संदीपनी और आलपिनी के योग से पंचम, मदंती, रोहिणी और रम्या के योग से धैवत, तथा उग्रा और शोभिणी के योग से निषाद स्वर बनता है। ११. ज्यामिति में समकोणिक,त्रिभुज के समकोण के सामने की भुजा। १२. नाम। संज्ञा। १३. पांडित्य। विद्वता। १४. विद्या। १५. अत्रि ऋषि की कन्या जो कर्दम ऋषि की पत्नी थी। १६. दे० श्रुत्यानुप्रास।
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श्रुति-कटु  : वि० [सं० सप्त० स०] जो सुनने में बहुत अधिक या बुरा लगता हो। कर्कश।
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श्रुति-धर  : पुं० [सं० ष० त०] [भाव० श्रुतिधरता] १. वह जो एक बार सुनकर ही हर बात याद कर ले। बहुत बड़ा पंडित या विद्वान।
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श्रुति-धरता  : स्त्री० [सं० श्रुतिधर+तल्-टाप्] श्रुतिधर होने का भाव।
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श्रुति-भाल  : पुं० [सं० ब० स०] ब्रह्मा।
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श्रुति-मधुर  : वि० [सं० सप्त० स०] जो सुनने में भला और मीठा लगता हो।
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श्रुति-रंजनी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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श्रुति-सुख  : वि० [सं० सप्त० स०] सुनने में मधुर। सुमधुर।
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श्रुति-हर  : वि० [सं० श्रुति√हृ+अच्] कानो को अपनी ओर आकृष्ट करनेवाला, अर्थात् श्रुति-मधुर।
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श्रुवा  : पुं०=स्रुवा।
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श्रूयमाण  : वि० [सं०√श्रु (सुनना)+शानच्, मुक्] १. जो सुना जाय या सुनाई दे। २. प्रसिद्ध।
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श्रृंखल  : पुं०=श्रृंखला।
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श्रृंखला  : स्त्री० [सं० श्रृंख√ला+क, टाप्] १. एक दूसरी में पिरोई हुई बहुत सी कड़ियों की लड़ी। जंजीर। सिकड़ी। २. लगातार एक क्रम से आने या होनेवाली बहुत सी घटनाएँ चीजें बातें आदि। (चेन, उक्त दोनों अर्थों के लिए) ३. एक ही प्रकार के कार्यो, वस्तुओं आदि का एक के बाद एक करके चलनेवाला क्रम। माला (सीरीज़) जैसे—कार्य-श्रृंखला। ४. एक ही दिशा, रूप, विभाग आदि से कुछ दूर तक चलता रहनेवाला क्रम। माला। श्रेणी। (रेंज)। ५. क्रम। सिलसिला। ६. कमर में पहनने की करधनी। तागड़ी। ७. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें पहले क्रम से कुछ चीजें या बातें गिनाई जाती है, और तब उसी क्रम से उनका वर्णन किया जाता है।
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श्रृंग-नाद  : पुं० [सं०] श्रृंगी या सिंगी नाम का बाजा। उदाहरण—सूने गिरि पथ में गुंजारित श्रृंगनाद की ध्वनि चलती।—प्रसाद।
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श्रृंगार-सामग्री  : स्त्री० [ष० त०] अनेक प्रकार के सुगंधित चूर्ण तेल आदि ऐसे पदार्थ जिनका उपयोग कुछ लोग विशेषतः स्त्रियाँ अपने अंग, बालों शरीर की रंगत आदि का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए करती है। अंगराग (कास्मेटिक्स)।
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श्रेढिक  : वि० [सं०] १. श्रेढ़ी संबंधी। २. श्रेढी से युक्त। ३. क्रमशः आगे बढ़ता हुआ। प्रगतिशील (प्रोग्रेसिव)।
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श्रेढ़ी  : स्त्री० [सं० श्रि√ढौक्+क, पृषो० ङीष्] [वि० श्रेढ़िका] १. गणित में संख्याओ आदि का नियमित क्रमिक रूप से घटते या बढ़ते चलना। २. किसी कार्य या बात का निरंतर बढ़ते चलना (प्रोग्रेसिन)।
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श्रेणी  : स्त्री० [सं० श्रि√नि+क्विप्,ङीष्] १. अवली। कतार। पंक्ति। २. लगातार चलता रहनेवाला क्रम या सिलसिला। श्रृंखला। ३. एक ही तरह की ऐसी चीजों का बातों का वर्ग जो कुछ दूर तक एक ही रूप में चलता रहे (सीरिज़) ४. प्राचीन भारत में एक ही प्रकार के व्यवसाय करनेवाले व्यापारियों का संघटन। (कार्पोरेशन)। ५. कार्य, योग्यता आदि के विचार से पदार्थों, व्यक्तियों आदि का होनेवाला वर्ग या विभाग। दरजा (क्लास)। ६. जीना। सीढ़ी। ७. दल। समूह। ८. जंजीर। सिकड़ी। ९. किसी चीज का अगला भाग या सिरा। १॰. पानी भरने का डोल।
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श्रेणीकरण  : पुं० [सं० ष० त०] [भू० कृ० श्रेणीकृत] १. श्रेणी के रूप में रखने या लाने की क्रिया। वर्गीकरण। २. क्रम से या व्यवस्थित रूप से रखना या लगाना।
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श्रेणी-पाद  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में ऐसा राष्ट्र या जनपद जिसमें श्रेणियों या पंचायतों की प्रधानता हो (कौ०)।
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श्रेणी-प्रमाण  : पुं० [सं० ब० स०] प्राचीन भारत में वह शिल्पी या व्यापारी जो किसी श्रेणी के अन्तर्गत हो और उसके मंतव्यों के अनुसार काम करता हो (कौ०)।
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श्रेय (स्)  : वि० [सं०√श्रि+इयसुन्-श्रादेशश्च्] १. किसी की तुलना में अधिक बढ़कर। बेहतर। २. उत्तम। श्रेष्ठ। ३. वांछनीय। मंगलकारक। ४. शुभ। ५. कीर्ति या यश देनेवाला। पुं० १. अच्छापन। अच्छाई। उत्तमता। २. कल्याण। मंगल। ३. शुभ आचरण। ४. कर्ता को मिलनेवाला यश। ५. आध्यात्मिक क्षेत्र में ऐसा धार्मिक कृत्य जो मोक्ष की प्राप्ति में सहायक होता है। प्रेय का विपर्याय।
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श्रेय-मार्ग  : पुं० [सं० मध्य० स०] धार्मिक क्षेत्र में ऐसा काम या मार्ग जो मनुष्य को स्वर्ग पहुँचाता या मोक्ष दिलाता हो।
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श्रेष्ठ  : वि० [सं०√श्रि+इष्ठन्, श्रादेश] १. गुण, मान आदि के विचार से बढ़कर० जैसे—श्रेष्ठ विचार। २. (व्यक्ति) जो उच्च मानवीय गुणों से सम्पन्न हो। पुं० १. ब्राह्मण। २. राजा। ३. विष्णु। ४. कुबेर।
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श्रेष्ठाश्रम  : पुं० [ सं० कर्म० स०] गृहस्थाश्रम जिससे शेष तीनों आश्रमों का पालन होता है।
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श्रेष्ठि-चत्वर  : पुं० [सं० ष० त० स०] प्राचीन भारत में वह चबूतरा जिसपर बैठकर सेठ-साहूकार आपस का लेन-देन करते थे।
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श्रोणि  : स्त्री० [सं० श्रोण+इन] १. कटि। कमर। २. नितंब। चूतड़। ३. पेडू। ४. मार्ग। पंथ।
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श्रोत  : पुं० [सं०√श्रु (सुनना)+असुन्-तुट्] १. कर्ण। कान। २. इन्द्रिय (जिनके मार्ग से शरीर के मल तथा आत्मा निकलती है)। ३. हाथी का सूँड़। ४. नदी का वेग या स्रोत।
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श्रोतव्य  : वि० [सं०√श्रु (सुनना)+तव्य] १. जो सुना जाय। २. सुना जाने के योग्य हो।
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श्रोत्र  : पुं० [सं० श्रोत्र+अण्] १. कर्ण। कान। २. वेदों का ज्ञान। ३. वेद।
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श्रोत्र-ग्राह्म  : वि० [सं० तृ० त०] जिसका ग्रहण या ज्ञान श्रोत या कानों के द्वारा हो सकता हो। जो सुनाई पड़ता हो या पड़ सकता हो (ऑडिटरी)।
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श्रोत्रिय  : पुं० [सं० छन्दस्+घ-इय, श्रोत्रादेश] प्राचीन भारत में वह विद्वान जो छन्द आदि कंठस्थ करके उनका अध्ययन और अध्यापन करता था।
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श्रोन  : पुं० १. =श्रवण। २. =शोण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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श्रौत  : वि० [सं० श्रुति+अण्] १. श्रुति संबंधी। २. श्रुतियों में कहा या बताया हुआ। ३. कान-संबंधी। कान का।
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श्रौती  : स्त्री० [सं०] साहित्य में पूर्णोपमा के दो भेदों में से एक। दूसरा भेद आर्थी कहलाता है।
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श्रौत्र  : पुं० [सं० श्रोत्र+अण्] १. श्रोत्रिय-कर्म। २. श्रोत। कान। ३. वेदों का ज्ञान। वि० कान संबंधी।
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श्लथन  : पुं० [सं०√श्लथ्+ल्युट-अन] मानसिक अशांति मिटाने के लिए तथा शरीर में फुरती लाने के लिए अंगों को ढीला छोड़ना।
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श्लिष्ट  : भू० कृ० [सं०√श्लिष्+क्त] १. किसी के साथ जुड़ा, मिला या लगा हुआ। २. जो श्लेषण का संश्लेषण की क्रिया के अनुसार किसी से मिलकर एक हो गया हो। संश्लिष्ट (सिन्थेटिक) ३. साहित्यिक क्षेत्र में जो श्लेष से युक्त हो अर्थात् दो अर्थोंवाला। विशेष—श्लिष्ट और द्वयर्थक में भेद यह है कि श्लिष्ट का प्रयोग तो ऐसे पदों, वाक्यों, शब्दों आदि के संबंध में होता है जो जान-बूझकर इस दृष्टि से कहे गये हों कि सुभीते के अनुसार उनका दूसरा अथवा कोई और अर्थ भी निकाला या लगाया जा सके, परन्तु द्वयर्थक का प्रयोग ऐसे पदों, वाक्यो,शब्दों आदि के संबंध में होता है जिसके साधारणतः और स्वभावतः दो अर्थ होते हैं।
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श्लीपद  : पुं० [सं० ब० स० पृषो] फीलपाँव (दे०)।
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श्लेष  : पुं० [सं०√श्लिष्+घञ्] [वि० श्लेषक, श्लेषी, भू० कृ० श्लिष्ट] १. संयोग होना। जुड़ना। मिलना। २. आलिंगन। परिरंभण। ३. बोल-चाल लेख आदि में वह स्थिति जिसमें कोई शब्द इस प्रकार प्रयुक्त होता है कि उसके दो या अधिक अर्थ निकलें और फलतः वह लोगों के परिहास का विषय बनें। ४. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जो कुछ अवस्थाओं में अर्थालंकार और कुछ अवस्थाओं में शब्दालंकार होता है। इसमें किसी या कुछ शब्दों के दो या अधिक अर्थ निकलते हैं (पैरोनोमिशिया)। विशेष—इसमें ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है जिनके कई कई अर्थ होते हैं और प्रसंगों के अनुसार उनके अलग अलग अर्थ होते हैं। यथा—नाहीं नाहीं करैं थोरे माँगें बहु देन कहैं, मंगन को देखि पट तेत बार बार हैं। इसमें कही हुई बातें अलग अलग प्रकार के कृपण पर भी घटती हैं और दाता पर भी। इसके दो भेद होते हैं—अभंग पद और भंग-पद।
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श्लेषक  : वि० [सं०√श्लिष+ण्वुल-अक] श्लेषण करने या मिलानेवाला।
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श्लेष-चित्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. साहित्य में ऐसा चित्र जिसमें स्पष्ट रूप से व्यक्त होनवाले भाव के सिवा कोई और भाव भी छिपा हो। जैसे—यदि कोई नायक कई नायिकाओं में से किसी एक नायिका पर रीझ कर अन्य नायिकाओं को भूल जाय और उससे चिढ़कर कोई मानिनी नायिका ऐसा चित्र अंकित कर जिसमें वह नायक कई कुमुदिनियों के बीच में से किसी एक कुमुदिनी का रस लेता हुआ दिखाई दे तो ऐसा चित्र श्लेष-चित्र कहा जायगा। २. दे० ‘कूट चित्र’।
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श्लेषण  : पुं० [सं०√श्लिष्+ल्युष-अन] [वि० श्लेषणी, श्लेषी, भू० कृ० श्लेषित, श्लिष्ट] १. सयोग करना। मिलाना। २. किसी के साथ जोड़ना या लगाना। ३. गले लगाना। आलिंगन।
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श्लेष्म  : पुं० [सं०] श्लेष्मा।
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श्लेष्मा  : पुं० [सं० श्लिष्+मनिन्,श्लेस्मन्] १. शरीर में का कफ नामक विकार जो शरीर की तीन धातुओं में से एक माना गया है। बलगम। २. बाँधने की डोरी या रस्सी। ३. लिसोड़ा।
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श्लोक  : पुं० [सं०√श्लोक्+अच्] १. आवाज। ध्वनि। शब्द। २. पुकारने का शब्द। आह्वान। पुकार। ३. प्रशंसा। स्तुति। ४. कीर्ति। यश। ५. किसी गुण या विशेषता का प्रशंसात्मक कथन या वर्णन। जैसे—शूर-स्लोक अर्थात् शूरता का वर्णन। ६. संस्कृत के अनुष्टुप छंद का पुराना नाम। ७. आज-कल संस्कृत का कोई छंद या पद्य।
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श्वः  : पुं० [सं० श्वस्] आनेवाला दूसरा दिन। आगामी कल।
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श्वपच  : वि० [सं० श्व√पच्+अच्] [स्त्री० श्वपचा, श्वपची] कुत्ते का मांस खानेवाला। पुं० प्राचीन भारत में एक प्रकार के चांडाल जिनकी उत्पत्ति भिन्न-भिन्न स्मृतियों में अलग अलग वर्णों के माता-पिता से कही गई है।
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श्वबंधक  : पुं० [सं०]=श्वपच (चंडाल)।
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श्ववानर  : पुं० [सं० (श्वान)+वानर] अफ्रीका और अरब में पाया जानेवाला एक प्रकार का भीष्म बंदर जिसका थूथन और दाँत प्रायः कुत्तों के से होते हैं। (बेबून)।
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श्वसन  : पुं० [सं०√श्वस् (साँस लेना)+ल्युट-अन] साँस लेने की क्रिया।
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श्वसित  : पुं० [सं०√श्वस् (साँस लेना)+क्त] १. श्वास। २. आह। वि० १. श्वास निकालने या ग्रहण करनेवाला। श्वासयुक्त। जीवित। २. आह भरनेवाला।
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श्वसुर, श्वसुरक  : पुं० [सं०] किसी के पति या पत्नी का पिता। ससुर।
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श्वान  : पुं० [सं०√श्वि+कनिन्] कुत्ता।
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श्वान  : पुं० [सं०] [स्त्री० श्वानी] कुत्ता।
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श्वास  : पुं० [सं०√श्वस्+घञ्] १. प्राणियों का नाक से हवा खींचकर अन्दर फेफड़ों या हृदय तक पहुँचाना और फिर बाहर निकालना जो जीवन का मुख्य लक्षण हैं। सांस (ब्रेथ)। २. श्वासनली का एक प्रसिद्ध रोग जिसमें साँस बहुत जोर से चलती और रोगी को बहुत कष्ट होता है। दमा (एज्मा)।
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श्वासनली  : स्त्री० [सं०] सिर, गले और छाती के अन्दर की वह नली जिससे प्राणी साँस लेते और निकालते हैं। (ट्रैकिया)
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श्वासायाम  : पुं० [सं०] १. साँस लेने में होनेवाली कठिनता या कष्ट। २. कठिनता या कष्ट से लिया जानेवाला साँस।
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श्वासावरोध  : पुं० [सं० श्वास+अवरोध] साँस के आगे-जाने में होनेवाली बाधा। दम घुटना। (एस्फिकिया)।
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श्वासी (सिन्)  : पुं० [सं०√श्वस् (साँस लेना)+णिच्-णिनि, श्वास, इनिवा] १. श्वास लेनेवाला प्राणी। २. वायु।
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श्वित  : वि० [सं०√श्वित् (सफेदी)+क्विप्]=श्वेत। स्त्री० [सं० श्वित+इनि] श्वेतता। सफेदी।
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श्वेत  : वि० [सं०√श्वेत+अच्,या घञ्] [भाव० श्वेतिमा] १. जिसमें किसी प्रकार का रंग या वर्ण दिखाई न देता हो। बिना किसी विशिष्ट रंग का। चाँदी, दही आदि की तरह का। उजला। धवल। सफेद। विशेष-आधुनिक विज्ञान के मत से सातों रंगों के मेल से ही चीजें श्वेत या सफेद दिखाई देती हैं, क्योंकि सूर्य की किरणों जो सफेद दिखाई देती है, वस्तुतः सातों रंगों से युक्त होती है। २. निर्मल। साफ। स्वच्छ। ३. कलंक, दोष आदि से रहित। ४. उज्जवल वर्ण का। गोरा। पुं० १. सफेद रंग। २. चांदी। रजत। ३. शंख। ४. कौडी। कपर्दक। ५. सफेद घोडा। ६. सफेद बादल। ७. सफेद जीरा। ८. शिव का एक अवतार। ९. वराह की सफेद मूर्ति या रूप। १॰. पुराणानुसार एक पर्वत जो रम्य वर्ष और हिरण्य वर्ष के बीच में माना गया है। ११. पुराणानुसार एक द्वीप। १२. आयुर्वेद में शरीर की त्वचा की तीसरी तह की संज्ञा। १३. स्कन्द का एक अनुचर। १४. शोभांजन सहिंजन। १५. शुक्र ग्रह का एक नाम जो उसके सफेद रंग के कारण पड़ा है। १६. एक केतु या पुच्छल तारा।
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श्वेतकुंजर  : पुं० [सं० कर्म० स०] इन्द्र का ऐरावत नामक हाथी।
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श्वेतकुष्ठ  : सं० [सं० कर्म० स०] रक्त-विकार के कारण होनेवाला एक रोग, जिसमें शरीर पर सफेद दाग या धब्बे बनने और बढ़ने लगते हैं। यह कोढ़ में गिना जाता है। (ल्यूकोडरमा)
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श्वेतकेतु  : पुं० [सं० कर्म० स०] गौतम बुद्ध।
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श्वेतच्छद  : पुं० [सं० ब० स०] हंस।
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श्वेत-द्युति  : पुं० [सं० ब० स०] चन्द्रमा।
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श्वेत-द्वीप  : पुं० [सं० कर्म० स०] बैकुंठ।
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श्वेत-पत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] आधुनिक राजनीति में वह राजकीय विज्ञप्ति जो किसी महत्त्वपूर्ण राजनीतिक चर्चा, वार्ता आदि के संबंध में (प्रायः सफेद कागज पर लिखकर) प्रकाशित की जाती है (ह्वाइट पेपर)।
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श्वेत-प्रदर  : पुं० [सं० कर्म० स०] स्त्रियों के प्रदर नामक रोग का एक प्रकार जिसमें योनि से सफेद रंग का गाढा और बदबूदार पानी निकलता है और जिसके कारण वे बहुत क्षीण तथा दुर्बल हो जाती है (ल्यूकोरिया)।
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श्वेतरथ  : पुं० [सं० ब० स०] ब्रह्मा जिनकी सवारी हंस है।
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श्वेतवाजी  : पुं० [सं० ब० स०] चन्द्रमा।
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श्वेतवाह  : पुं० [सं० ब० स०] १. चन्द्रमा। २. इन्द्र। ३. अर्जन। ४. कपूर।
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श्वेतसार  : पुं० दे० ‘जलांक’।
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श्वेताँक  : पुं० [सं० ब० स०] अनाजों, आलुओं, मटरों आदि में पाया जानेवाला एक प्रकार का गंधहीन सफेद खाद्य पदार्थ जिसका उपयोग औषधों और शिल्पीय कार्यों में भी होता है। चावलों में से यही माँड़ के रूप में निकलता है (स्टार्च)।
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श्वेतिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० श्वेत+इमनिच्-टाप्] श्वेतता।
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