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शंका  : स्त्री० [सं०√शंक्+अ+टाप्] १. किसी प्रकार के भावी अनिष्ट, आघात या हानि का अनुमान होने पर मन में होनेवाला कष्ट मिश्रित भय। आशंका। २. मन की वह स्थिति जिसमें किसी मान्य या निर्णीत तथा निश्चित की हुई बात के सामने आने पर उसके संबंध में कोई आपत्ति, जिज्ञासा या प्रश्न उत्पन्न होता है। कोई बात ठीक न जान पड़ने पर उसके संबंध में मन में तर्क उठने की अवस्था या भाव। जैसे— (क) आपने इस चौपाई (या श्लोक) का जो अर्थ किया है,उसके संबंध में मुझे एक शंका है अर्थात् मैं समझता हूँ कि वह अर्थ ठीक नहीं हैं, और उसका ठीक रूप कुछ दूसरा ही होना चाहिए। (ख) पंडित लोग शास्त्रार्थ करते समय एक-दूसरे के मत पर तरह-तरह की शंकाएँ करते हैं। विशेष-मनोविज्ञान की दृष्टि से यह कोई मनोवेग नहीं है बल्कि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में होनेवाला बौद्धिक या मानसिक व्यापार मात्र है। ३. उक्त के आधार पर साहित्य में तैतीस संचारी भावों में से एक। मन का वह भाव जो किसी प्रकार की आशंका भय आदि के कारण होता है और जिसमें शरीर में कंप होता रंग फीका पड़ जाता और स्वर विकृत हो जाता है। उदाहरण—चौंकि चौकि चकत्ता कहत चहूँघाते यारो, लेत रहौ खबरि कहाँ लौ सिवराज है।—भूषण। ४. दे० ‘आशंका‘ ‘संदेह’ और ‘संशय’।
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शंकाकुल  : वि० [सं० तृ० त०] शंका से आकुल या विचलित।
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शंकावगाह  : पुं० [सं० शंका+अवगाह] किसी बात की शंका होने पर उसके संबंध में पता लगाने के लिए की जानेवाली बातचीत।
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शंका-समाधान  : पुं० [सं०] किसी की उठाई हुई शंका का इस प्रकार निराकरण करना जिससे जिज्ञासु का पूरा समाधान या संतोष हो जाय।
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