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स्वांग  : पुं० [सं० स्व+अंग] १. किसी दूसरे की वेश-भूषा अपने अंग पर इसलिए धारण करना कि देखने में लोगों को वही दूसरा व्यक्ति जान पड़े। कृत्रिम रूप से दूसरे का धारण किया हुआ भेस। रूप भरने की क्रिया या भाव। जैसे–(क) रामलीला में राम और लक्ष्मण के स्वाँग। (ख) अभिनय में दुष्यंत और शकुंतला के स्वाँग। २. विशेषतः उक्त प्रकार से धारण किया जानेवाला वह भेस या रूप, जो या तो केवल मनोरंजन के लिए हास्यजनक हो या जिसका उद्देश्य दूसरों का उपहास करना अथवा हँसी उड़ाना हो। जैसे–(क) बाल-विवाह या वृद्ध-विवाह का स्वाँग। (ख) नाक-कटैया या रामलीला के जुलूस में निकलनेवाले स्वाँग। ३. जन साधारण में प्रचलित एक प्रकार का संगीत-रूपक जो किसी लोककथा पर आधारित होता है। जैसे–पूरनमल या राजा हरिश्चन्द्र का स्वाँग। ४. कोई बहाना बनाकर दूसरों को भ्रम में डालने या अपना कोई काम निकालने के लिए धारण किया जानेवाला झूठा रूप। जैसे–बीमारी का स्वाँग रचकर घर बैठना। क्रि० प्र०–बनना।–रचना। मुहा०– स्वाँग लाना=किसी दूसरे का भेस बनाकर या कोई कृत्रिम रूप धारण करके सामने आना। जैसे–जन्म भर में एक स्वाँग भी लाये तो कोढ़ी का। (कहा०)
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स्वांग  : पुं० [सं०] अपना ही अंग।
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स्वाँगना  : स० [हिं० स्वाँग] बनावटी वेश या रूप धारण करना। स्वाँग बनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वाँगी  : पुं० [हिं० स्वाँग] १. वह जो स्वाँग रचकर जीविका उपार्जन करता हो। नकल करनेवाला। नक्काल। २. बहुरूपिया। वि० अनेक प्रकार के रूप धारण करनेवाला।
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स्वांगीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्वांगीकृत] १. किसी एक वस्तु का दूसरी वस्तु या वस्तुओं को इस प्रकार पूर्णतः अपने प में मिला लेना कि वे उसके अंग के रूप में हो जायँ। आत्मीकरण।
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